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अध्यात्म-कल्पद्रुम विवेचन–अनेक शास्त्रों को पढ़ने में, डिगरियां हासिल करने में, भाषण देने में या वादविवाद करने में ही पांडित्य नहीं है कारण कि इससे आत्मा का वास्तविक हित नहीं होता है। सच्चा पंडित तो वही है जो भाषा ज्ञान या शास्त्राध्ययन द्वारा प्रांतरिक शक्ति को पहचानने का प्रयत्न करता है व शांतरस का पान करता है।
इस ग्रंथ के सोलह द्वार समतैकलीनचित्तो, ललनापत्यस्वदेहममतामुक् । विषयकषायाद्यवशः शास्त्रगुणैर्दमित चेतस्कः ॥३॥ वैराग्य शुद्ध धर्मा, देवादि सतत्त्वविद्विरतिधारी। संवरवान् शुभवृत्तिः साम्यरहस्यं भज शिवार्थिन् ॥४।। युग्मम् ।। ___अर्थ "हे मोक्षार्थी प्राणी ! तू समता पर लवलीन चित्त वाला बन; स्त्री, पुत्र, धन और शरीर की ममता छोड़ दे; वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि इन्द्रियों के विषय और क्रोध, मान माया, लोभ इन कषायों के वश में मत रह; शास्त्ररूपी लगाम के द्वारा मनरूपी अश्व को वश में रख ; वैराग्य द्वारा शुद्ध-निष्कलंक धर्मात्मा बन ; देव गुरु धर्म के शुद्ध स्वरूप को जानने वाला बन ; सभी प्रकार के सावध योगों से (पापकारी कार्यों से) निवृत्तिरूप विरति धारण कर; संवर वाला बन, अपनी वृत्तियों को शुद्ध रख और समता के रहस्य को जान ।
॥३। ४॥ आर्यावृत्त