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अध्यात्म-कल्पद्रुम
नाम के प्रकरण में उस भावना को व्यक्त करने में निपूण पद्य बंध के द्वारा वर्णन करता हूँ।
विवेचन–सभी आगम आदि सत् शास्त्रों के सारमय नवनीत समतत्त्व को शांत रस की उपमा दी है, वह अमृत समान है एवं रसाधिराज है । मधु, तिक्तादि पौद्गलिक रस तो नष्ट हो जाते हैं जब कि शांतरस अमरत्व को प्राप्त करता है अतः इसे अमृत की उपमा दी है। यह रस इहलौकिक तथा पारलौकिक सुख का कंद होने से अध्यात्मकल्पद्रुम नाम के ग्रंथ के अन्तर्गत समता नामक अधिकार में बहत गंभीर शब्दों में पद्यबंध रचना के द्वारा इसका (श्लोकों में) वर्णन किया है। इसके लिए इसी ग्रन्थ के लेखक फरमाते हैं।
स्वर्ग सुखानिपरोक्षण्यत्यन्तपरोक्षमेव मोक्षसुखम् । प्रत्यक्षं प्रशमसुखं न परवशं न च व्ययप्राप्तम् ॥
अर्थात स्वर्ग का सुख परोक्ष है और मोक्ष का सुख तो इससे भी अधिक परोक्ष है। प्रथम सुख (शांति का सुख) प्रत्यक्ष है; और इसे प्राप्त करने में एक पैसे का भी खर्च नहीं होता है और वह परवश भी नहीं है।
चार पुरुषार्थों में मोक्ष परम पुरुषार्थ है और उसके अधिकारी सहस्रावधानी, प्रत्यक्ष सरस्वतीरूप सोमसुन्दर सुरि के पट्टधर 'काली सरस्वती' विरुद धारक युगप्रधान तपगच्छ नायक संतिकरं स्तोत्र के रचयिता मुनि सुन्दरसूरि ने इस ग्रंथ की रचना की है।