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महाकवि पुष्पदन्त विरचित
महापुराण
सम्पादन डॉ० पी०एल० वैद्य For Private & Personaaaadly डॉ देवेन्द्र कुमार जैन ।
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अपभ्रंश भाषा में निबद्ध महापुराण या 'त्रिषष्ठिमहापुरुषगुणालंकार' महाकवि पुष्पदन्त के तीन ज्ञात काव्य-ग्रन्थों में सबसे प्राचीन और विशाल है । इस महाकवि के अन्य दो काव्य हैं। णायकुमारचरिउ और जसहरचरिउ, जो डा० हीरालाल जैन द्वारा संपादित होकर हिन्दी अनुवाद और विस्तृत प्रस्तावना के साथ भारतीय ज्ञानपीठ से पहले ही प्रकाशित हो चुके हैं।
यह महाकाव्य दसवीं शताब्दी की भारतीय संस्कृति का सर्वांगीण प्रतिबिम्बन करने वाला स्वच्छ दर्पण है, इसमें एक ओर जहां राग-चेतना के बन्धनों से जूझते हुए चरितों की अवतारणा है, वहीं उसमें प्रकृति और मानव-स्वभाव के तुलना-चित्र, अनुभूति और कल्पना, धर्म और जीवन तथा काव्य और शास्त्र का सुन्दर समन्वय भी बन पड़ा है।
दक्षिण भारत के नगर हैदराबाद के निकट, राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेट (मलखेड़) में रहकर, अपभ्रश भाषा में यह महाकाव्य लिखकर पुष्पदन्त ने सिद्ध कर दिया कि कवि की प्रतिभा क्षेत्रीय और भाषागत विवशताए नहीं मानती। उसकी अनुभूति और संवेदना सम्पूर्ण मानवता की अनुभूति और संवेदना है ।
महापुराण अनेक चरितों की मणिमाला है। और उनमें भी नाभेयचरिउ (ऋषभचरित) उसका सुमेरु । यही कारण है कि इसकी कुल १०२ संधियों में से ३७ संधियों में मात्र नाभेयचरिउ वरिणत है।
सम्पूर्ण ग्रन्थ छह भागों में प्रकाशनार्थ नियोजित है। प्रस्तुत भाग १ में नाभेयचरिउ के पूर्वाध का समावेश है। इसका उत्तरार्ध नाभेयचरिउ, भाग २ के रूप में प्रकाशित हुआ है।
ग्रन्थ संपादक डा० परशुराम लक्ष्मण वैद्य की अंग्रेजी में प्रस्तावना और टिप्पण तथा डा० देवेन्द्रकुमार जैन द्वारा सरल हिन्दी अनुवाद एवं विस्तृत हिन्दी प्रस्तावना सहित प्रथम बार प्रकाशित ।
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ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला : अपभ्रंश ग्रन्थांक-१५
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
महापुराण
भाग-१ [ नामेयचरिउ पूर्वार्ध] हिन्दी अनुवाद, प्रस्तावना तथा अनुक्रमणिका सहित
मूल-सम्पादक डॉ. पी. एल. वैद्य
अनुवादक डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, एम. ए., पी-एच. डी. प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, शासकीय कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय
इन्दौर ( म०प्र०)
2
कार
भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
वीर नि० संवत् २५०५ : वि० संवत् २०३६ : सन् १९७९
प्रथम संस्करण : मूल्य-अड़तीस रुपये
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स्व. पुण्यश्लोका माता मूर्तिदेवीकी पवित्र स्मृतिमें स्व. साहू शान्तिप्रसाद जैन द्वारा संस्थापित
एवं उनकी धर्मपत्नी स्वर्गीया श्रीमती रमा जैन द्वारा संपोषित
भारतीय ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला
इस ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड़, तमिल आदि प्राचीन भाषाओं में उपलब्ध भगमिक, दार्शनिक, पौराणिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक आदि विविध विषयक जैन-साहित्यका अनुसन्धानपूर्ण सम्पादन तथा उसका मूल और यथासम्भव
अनुवाद आदिके साथ प्रकाशन हो रहा है। जैन-भण्डारोंकी सूचियाँ, शिलालेख संग्रह, कला एवं स्थापत्य, विशिष्ट विद्वानोंके अध्ययन-ग्रन्थ और लोकहितकारी जैन साहित्य-ग्रन्थ भी इसी ग्रन्थमालामें प्रकाशित हो रहे हैं ।
ग्रन्थमाला सम्पादक
सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन
प्रकाशक
भारतीय ज्ञानपीठ
प्रधान कार्यालय : बी / ४५-४७, कॅनॉट प्लेस, नयी दिल्ली- ११०००१
मुद्रक : सन्मति मुद्रणालय, दुर्गाकुण्ड मार्ग, वाराणसी - २२१००१
स्थापना : फाल्गुन कृष्ण ९, वीर नि० २४७०, विक्रम सं० २०००, १८ फरवरी १९४४ सर्वाधिकार सुरक्षित
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भारतीय ज्ञानपीठ : संस्थापना 1944
मूल प्रेरणा दिवंगता श्रीमती मूर्तिदेवी जी मातुश्री श्री साहू शान्तिप्रसाद जैन
अधिष्ठात्री दिवंगता श्रीमती रमा जैन धर्मपत्नी श्री साह शान्तिप्रसाद जैन
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JXĀNAPITHA MŪRTIDEVI GRANTHAMĀLĀ : Apabh. Grantha No. 16
MAHAKAVI PUŞPADANTA'S
MAHAPURĀNA
VOL.I
NÁBHEYACARIU ]
With Introduction, Hindi Translation and Index of the verses etc.
Text Edited by Dr. P. L. VAIDYA
Translated by Dr. DEVENDRA KUMAR JAIN, M. A., PH. D. Professor, Department of Hindi, Govt. Arts and Commerce College,
INDORE
BHARATIYA JNANPITH PUBLICATION
VĪRA NIRVĀNA SAMVAT 2505 : V. SAMVAT 2036 : A. D. 1979
First Edition : Price Rs. 38/
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BHARATIYA JŇĀNAPĪTHA MŪRTIDEVI JAIN GRANTHAMĀLĀ
FOUNDED BY
LATE SAHU SHANTI PRASAD JAIN IN MEMORY OF HIS LATE MOTHER SHRIMATI MURTIDEVI
AND PROMOTED BY HIS BENEVOLENT WIFE
LATE SHRIMATI RAMA JAIN
IN THIS GRANTHAMALA CRITICALLY EDITED JAINA AGAMIC, PHILOSOPHICAL,
PURANIC, LITERARY, HISTORICAL AND OTHER ORIGINAL TEXTS AVAILABLE IN PRAKRIT, SANSKRIT, APABHRÚSA, HINDI,
KANNADA, TAMIL, ETC., ARE BEING PUBLISHED IN THEIR RESPECTIVE LANGUAGES WITH THEIR TRANSLATIONS IN MODERN LANGUAGES.
ALSO
BEING PUBLISHED ARE CATALOGUES OF JAINA-BHANDARAS, INSCRIPTIONS, STUDIES ON ART AND ARCHITECTURE BY COMPETENT SCHOLARS
AND ALSO POPULAR JAINA LITERATURE.
General Editors Siddhantacharya Pt. Kailash Chandra Shastri
Dr. Jyoti Prasad Jain
Published by
Bharatiya Jnanpith Head Office : B/45-47, Connaught Place, New Delhi-110001
Founded on Phalguna Krishna 9, Vira Sam 2470, Vikrama Sam, 2000,18th Feb., 1944
All Rights Reserved.
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प्रधान सम्पादकीय
भगवान् ऋषभदेव
"जैन परम्परा ऋषभदेवसे अपने धर्मकी उत्पत्ति होनेका कथन करती है जो बहुत-सी शताब्दियों पूर्व हुए हैं। इस बातके प्रमाण पाये जाते हैं कि ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दीमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवकी पूजा होती थी। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जैनधर्म वर्धमान और पार्श्वनाथसे भी पहले प्रचलित था । यजुर्वेदमें ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि इन तीन तीर्थंकरोंके नामोंका निर्देश है। भागवत पुराण भी इस बातका समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैनधर्मके संस्थापक थे।"
भारतके भूतपूर्व राष्ट्रपति तथा प्रसिद्ध दार्शनिक स्व. डॉ. राधाकृष्णन्ने अपने भारतीय दर्शनमें उक्त विचार प्रकट किये हैं। भागवतमें इस बातका भी उल्लेख है कि महायोगी भरत ऋषभदेवके सौ पुत्रीम ज्येष्ठ थे और उन्हींसे यह देश भारतवर्ष कहलाया
__"येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठ गुण आसीत् ।
येनेदं वर्ष भारतमिति व्यपदिशन्ति ।" -भागवत ५-४-९ वायुपुराण 33/51-52 और मार्कण्डेय पुराण 53/39-40 में भी इसी प्रकार की अनुश्रुति पायी जाती है । ये उद्धरण जैन अनुश्रुतिकी ऐतिहासिकता सूचित करते हैं।
___ सिन्धु घाटीमें भी दो नग्न मूर्तियां मिली हैं इनमेंसे एक कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित पुरुषमूर्ति है । कुछ जैनेतर विद्वान् भी पुरुष मूर्तिकी नग्नता और कायोत्सर्ग मुद्राके आधारपर ऐसी प्रतिमा समझते हैं जिसका सम्बन्ध किसी तीथंकरसे रहा है।
सिन्धु घाटीके उत्खननमें योगदान करनेवाले श्रीरामप्रसाद चन्दाका एक लेख कलकत्तासे प्रकाशित पत्रिका माडर्न रिव्युके जून 1932 के अंक प्रकाशित हआ था। उसमें उन्होंने लिखा है, "मोहेंजोदड़ोसे प्राप्त पत्थरकी मूर्ति, जिसे मि. मैके पुजारीकी मूर्ति बतलाते है, योगीकी मूर्ति है और वह मुझे इस निष्कर्षपर पहुँचने के लिए प्रेरित करती है कि सिन्धु घाटीमें योगाभ्यास होता था और योगीकी मुद्रामें मूर्तियां पूजी जाती थीं । सिन्धु घाटीसे प्राप्त मोहरोंपर बैठी अवस्थामें अंकित देवताओंकी मूर्तियाँ ही योगकी मुद्रामें नहीं हैं किन्तु खड़ी अवस्थामें अंकित मूर्तियां भी योगकी कायोत्सर्ग मुद्राको बतलाती हैं। मथुरा म्युजियममें दूसरी शतीकी कायोत्सर्गमें स्थित एक वृषभदेव जिनकी मूर्ति है । इस मूर्तिकी शैलीसे सिन्धुसे प्राप्त मोहरोंपर अंकित खड़ी हुई देवमूर्तियोंकी शैली बिलकुल मिलती है।"
'ऋषभ या वृषभका अर्थ होता है बैल । और वृषभदेव तीर्थकरका चिह्न भी बैल है। मोहर नं. 3 से 5 तककी ऊपर अंकित देवमूर्तियोंके साथ बैल भी अंकित है जो ऋषभका पूर्वरूप हो सकता है। शवधर्म और जैनधर्म जैसे दार्शनिक धर्मों के प्रारम्भको पीछे ठेलकर ताम्रयुगीन कालमें ले जाना किन्हींको अवश्य ही एक साहसपूर्ण कल्पना प्रतीत होगी, किन्तु जब एक व्यक्ति ऐतिहासिक और प्राग्-ऐतिहासिक सिन्धु घाटी सभ्यता के बीच में एक अगम्य झाड़ी-झंखाड़ होनेकी उससे भी साहसपूर्ण कल्पना करनेके लिए तैयार है तो यह अनुमान, कि सिन्धु मोहरोंपर अंकित बैठी हुई और खड़ी हुई देवमूर्तियोंकी शैलीमें घनिष्ठ सादृश्य है, उस सुदूर कालमें योगके प्रसारको सूचित करता है ।'
. इस तरह डॉ. चन्दाने आचार्य जिनसेन रचित महापुराणके 18वें पर्वमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवके ध्यानके वर्णनके आधारपर अपना उक्त अभिमत प्रस्तुत किया था।
डॉ. राधाकुमुद मुकुर्जीने अपनी 'हिन्दूसभ्यता' नामक पुस्तकमें डॉ. चन्दाके उक्त अभिमतको मान्यता देते हुए लिखा है-'श्री चन्दाने 6 अन्य मुहरोंपर खड़ी हुई मूर्तियोंकी ओर भी ध्यान दिलाया है। फलक
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महापुराण 12 और 118 आकृति 7 ( मार्शल कृत मोहेंजोदड़ो) कायोत्सर्ग नामक योगासनमें खड़े हए देवताओंको सूचित करती हैं। यह मुद्रा जैन योगियोंकी तपश्चर्या में विशेष रूपसे मिलती है जैसे मथुरा संग्रहालयमें स्थापित श्री ऋषभदेवकी मूर्तिमें। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, ऋषभका अर्थ है बैल जो आदिनाथका लांछन है; मुहर संख्या एफ. जी. एच. फलक दोपर अंकित देवमूर्तिमें एक बैल ही बना है। सम्भव है, यह ऋषभका ही पूर्व रूप हो । यदि ऐसा है तो शवधर्मकी तरह जैनधर्मका मूल भी ताम्रयुगीन सिन्धु सभ्यतातक चला जाता है। इससे सिन्धु सभ्यता एवं ऐतिहासिक भारतीय सभ्यताके बीचकी खोयी हुई कड़ीका भी एक उभय साधारण सांस्कृतिक परम्पराके रूपमें कुछ उद्धार हो जाता है।' (हिन्दू सभ्यता, पृ. 23-24) ऋषभ और शिव
डॉ. मुकर्जीके 'उभय साधारण सांस्कृतिक परम्परा' शब्द बड़े महत्त्वके हैं। उभय शब्दसे यदि जैनधर्मके प्रवर्तक ऋषभ और शवधर्मके आधार शिवको लें तो हमें उन दोनोंके मध्य में एक साधारण सांस्कृतिक परम्पराका रूप दृष्टिगोचर होता है : क्योंकि दोनोंमें कुछ आंशिक समता है। ऋषभदेवका चिह्न बैल है जो मोहेंजोदड़ोसे प्राप्त सील नं. 3 से 5 तकपर अंकित है तथा कायोत्सर्ग मुद्रामें स्थित आकृतियोंके साथ भी बना है । उधर शिवके साथ भी नन्दि है । इधर ऋषभदेवका निर्वाण कैलास पर्वतसे माना जाता है उधर शिव भी कैलासवासी माने जाते हैं । डॉ. भण्डारकरने शिवके साथ उमाके सम्बन्धको उत्तरकालीन बतलाया है । इसी तरह महाभारत अनुशासन पर्वमें महादेवके नामोंमें शिवके साथ ऋषभ नाम भी गिनाया है । यथा'ऋषभ त्वं पवित्राणां योगिनां निष्कलः शिवः ।'
अध्याय 14, श्लोक 18 इस परसे यह शंका हो सकती है कि दोनोंका मूल एक तो नहीं है अथवा एक ही मूल पुरुष दो परम्पराओं में दो रूप लेकर तो अवतरित नहीं हुए हैं ?
डॉ. आर. जी. भण्डारकरके मतानुसार 250 ई. के लगभग पुराणोंका पुननिर्माण प्रारम्भ हुआ और गुप्तकालतक यह जारी रहा। इस तरह उपलब्ध पुराण गुप्तकालकी रचना है। श्रीमद्भागवतमें जो ऋषभावतारका पूरा वर्णन है, उसमें स्पष्ट लिखा है कि वातरशन (नग्न) श्रमणोंके धर्मका उपदेश करनेके लिए उनका जन्म हुआ था। तथा जन्महीन ऋषभदेवजी का अनुकरण करना तो दूर रहा, अनुकरण करनेका मनोरथ भी कोई अन्य योगो नहीं कर सकता, क्योंकि जिस योगवल (सिद्धियों) को असार समझकर ऋषभदेवने स्वीकार नहीं किया, अन्य योगी उन्हींको पानेकी चेष्टा करते हैं।
__ यह सब जानते और मानते हैं कि भगवान महावीर अन्तिम जैन तीर्थकर थे और पुराणोंकी रचना उनके बहुत पश्चात् हुई है। फिर भी उनके पूर्वज ऋषभदेवको नग्न श्रमणोंके धर्मका उपदेष्टा बतलाना यह प्रमाणित करता है कि ऋषभदेव अवश्य ही ऐतिहासिक व्यक्ति होने चाहिए।
जैन महापुराण
चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नौ नारायण, नौ प्रतिनारायण और नौ बलभद्र-इन्हें जैन धर्ममें सठ-शलाका- पुरुष कहते हैं। इनका वर्णन करनेवाला ग्रन्थ महापुराण कहलाता है। इससे उसे वेसठशलाका-पुरुष-पुराण भी कहते हैं। आचार्य जिनसेनने अपने महापुराणके प्रारम्भमें कहा है, 'मैं वेसठ प्राचीन
णको कहूँगा।' उन्होंने महापुराण नामकी सार्थकता भी बतलायी है। उनका महापुराण संस्कृतके अनुष्टुप् छन्दमें रचा गया है। वह उसे अधूरा ही छोड़कर स्वर्गवासी हो गये थे। उनके पश्चात् उनके शिष्य गुणभद्रने उसको पूर्ण किया था।'
जिनसेनाचार्यके पश्चात् ही पुष्पदन्तने अपभ्रंश भाषामें अपना महापुराण रचा। महापुराणका प्रथम भाग, जिसमें भगवान् ऋषभदेवका चरित वर्णित है, आदिपुराण कहा जाता है और शेष भाग उत्तरपुराण
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प्रधान सम्पादकीय
कहा जाता है। जिनसेनरचित आदिपुराणमें सैंतालीस पर्व है जिनमेंसे आदिके तेंतालीस पर्व जिनसेनरचित हैं । और पुष्पदन्तके आदिपुराणमें सैंतीस सन्धियां है।
कविने अपने महापुराणकी उत्थानिकामें जिन अनेक दार्शनिकों, कवियों और ग्रन्थकारोंको स्मरण किया है उनमें केवल तीन जैन है-अकलंक, चतुर्मुख और स्वयंभू । इनमेंसे अन्तिम दो अपभ्रश भाषाके महाकवि हैं । इनकी रचनाओं में आगम सिद्धान्त ग्रन्थ धवल जयधवलका स्मरण भी किया है। यथा
__ 'णऊ बुज्झिउ आयम सद्दधामु, सिद्धंतु धवलु जयधवलु णाम ।' षट्खण्डागम सिद्धान्तपर वीरसेन स्वामीने धवला टीका रची थी और कसायपाहुडपर उन्होंने जयधवला टीका रची थी। इसे उनके शिष्य जिनसेनने पूर्ण किया था। यही जिनसेन संस्कृत महापुराणके रचयिता हैं । अतः धवल जयधवलसे परिचित पुष्पदन्त द्वारा जिनसेनका महापुराण भी देखा होना चाहिए । क्योंकि उनके महापुराण की भी कथावस्तु तो एक ही है और शायद उसीसे उन्हें अपभ्रशमें महापुराण रचने की प्रेरणा मिली हो । किन्तु उन्होंने उसका कोई संकेततक नहीं किया है।
दोनों पुराणोंको तुलनात्मक दृष्टिसे देखनेपर दोनोंके वर्णनक्रममें कोई समानता प्रतीत नहीं होती। जिनसेनके महापुराणमें पर्व 4 से 11 तक भगवान् ऋषभदेवके पूर्व भवोंका वर्णन है। उसके पश्चात् उनके गर्भ, जन्म, दीक्षा आदिका वर्णन है। किन्तु पुष्पदन्तके महापुराणमें प्रारम्भसे ही ऋषभदेवके कल्याणकोंका वर्णन है। उसी प्रसंगमें प्रारम्भमें कुलकरोंका वर्णन है तथा बीसवीं सन्धिसे उनके पूर्वभवोंका वर्णन है ।
जिनसेनका महापुराण तो जैनोंका महाभारत जैसा है। उसमें वर्ण व्यवस्था, कुलाचार, सप्त परमस्थान, तिरपन क्रियाएँ, क्षत्रियधर्म, राजनीति आदिका वर्णन है जो अन्यत्र नहीं है । पुष्पदन्तके महापुराणमें यह सब नहीं है। वह तो अपभ्रंश भाषाका एक महाकाव्य है। अपभ्रंश भाषामें भी इतनी सुललित पदावलीपूर्ण सरस रचना हो सकती है जो संस्कृत रचनाके माधुर्यसे प्रतिद्वन्द्विता कर सकती है, यह उसको देखकर ही जाना जा सकता है। उसकी पदावलीमें कादम्बरीके गद्य-जैसा शब्द विन्यास दृष्टिगोचर होता है और वह उससे कम दुरूह नहीं है। प्राकृत भाषाके पण्डितको भी पुष्पदन्तके इस महाकाव्यको हृदयंगम करने में कठिनताका अनुभव हो सकता है। अतः जिनसेनके महापुराणकी अपेक्षा पुष्पदन्तके महापुराणका हिन्दी अनुवाद कठिन है। . महापुराणका सम्पादन एवं हिन्दी अनुवाद
स्व. डॉ. पी. एल. वैद्यके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करना हमारा कर्तव्य है जिन्होंने मूल अपभ्रंश ग्रन्थका संशोधन-सम्पादन किया और संसारको इस कृतिके महत्त्वसे परिचित कराया।
डॉ. देवेन्द्रकुमार जैनने इस महाग्रन्थका हिन्दी अनुवाद किया है। अनुवादकी दृष्टिसे सम्पूर्ण ग्रन्थ छह भागोंमें प्रकाशनार्थ नियोजित है। इस साहसपूर्ण कार्यके लिए हम उनकी प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकते । अनुवादमें यत्र-तत्र कुछ सैद्धान्तिक त्रुटियाँ रह गयी हैं। उन्होंने अपनी इस कठिनाईको अनुभव करके ही अपने कृतज्ञता-ज्ञापनमें अनुवाद सम्बन्धी त्रुटियोंकी सूचना देनेका पाठकोंसे अनुरोध किया है। ग्रन्थमें 'भूल-सुधार' पत्रक भी दे दिया गया है । पाठक उससे लाभान्वित होंगे।
प्रसन्नताकी बात है कि भारतीय ज्ञानपीठको जो सांस्कृतिक-साहित्यिक आधार संस्थापक स्व श्री साहू शान्तिप्रसादजी और उनकी विदुषी धर्मपत्नी स्व. रमा जैनने दिया उसका संवर्धन करने में श्री साहू श्रेयांसप्रसादजी (साहूजीके ज्येष्ठ भ्राता) और श्री अशोक कुमारजी ( साहूजीके ज्येष्ठ पुत्र ) दत्तचित्त हैं । भविष्य में इन सत्प्रयत्नोंका प्रवाह अक्षण्ण रहेगा, ऐसी आशा सारे विद्वज्जगतकी सार्थक होगी।
11 मार्च 1979
कैलाशचन्द्र शास्त्री ज्योतिप्रसाद जैन
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पुरोवाक
जैन पुराण साहित्यका श्रमण संस्कृतिमें वही महत्त्व है जो वैदिकोत्तर भारतीय संस्कृतिमें रामायण और महाभारतका। महापुराणमें श्रमण संस्कृतिके मूलाधार जैनोंके श्रेसठ-शलाका-पुरुषों के चरितोंका वर्णन है। 'प्रथम महापुराण' संस्कृतमें है तथा इसके दो भाग हैं, पहला आचार्य जिनसेन द्वारा रचित आदिपुराण और दूसरा उत्तरपुराण, जिसके रचयिता आचार्य गुणभद्र हैं, जो आचार्य जिनसेनके शिष्य है । आदि पुराण में जैनोंके प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथका वर्णन है। वे भोगमूलक समाज व्यवस्था (देव संस्कृति) के समाप्त होनेपर कर्ममूलक संस्कृति (मानव संस्कृति) के नियामक थे।
महाकवि पुष्पदन्तकृत महापुराण अपभ्रंश भाषामें है जो सभी आधुनिक भारतीय भाषाओंकी ऐतिहासिक कड़ी है । यह कृति काव्यानुभूतिके साथ जैन तत्त्वज्ञान और आचारशास्त्रकी प्रामाणिक जानकारी देती है तथा इसकी भाषा परिनिष्ठित है। इसकी शैलीका परवर्ती विकास हिन्दीकी दोहा चौपाईवाली लोकप्रिय शैली में देखा जा सकता है । इस ग्रन्थमें कर्ममूलक संस्कृतिका उद्भव इतने काव्यात्मक ढंगसे वणित है कि मैं निम्नलिखित शब्दोंको उद्धत करनेका लोभ संवरण नहीं कर पा रहा है
"सुरतरुवरविणासि सूच्छाया कम्मभूमिभूरुह संजाया।"
(2.14.9) [ कल्प वृक्षोंके नष्ट होनेपर सुन्दर छायावाले कर्मभूमिके वृक्ष उत्पन्न हो गये ]
महाकवि पुष्पदन्तके महापुराणका सम्पादन डॉ. प. ल. वैद्यने तीन खण्डोंमें ( 1939-1942 के बीच प्रकाशित ) किया था। यह आश्चर्यकी बात है कि अभीतक इस साहित्यक और सांस्कृतिक महत्त्वके ग्रन्थका अनुवाद किसी भारतीय भाषामें नहीं हुआ। यह हर्षकी बात है कि हिन्दी साहित्यके जाने-माने विद्वान डॉ. देवेन्द्रकुमार जैनने इसका हिन्दी में अनुवाद किया है। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा सात खण्डोंमें प्रकाशित होनेवाले इस महत्त्वपूर्ण और गुरुतर कार्यका यह प्रथम खण्ड है। मुझे आशा और विश्वास है कि पाठक इसका स्वागत करेंगे तथा इसके द्वारा हिन्दी साहित्यमें शोधके नये क्षितिज खुलेंगे और राष्ट्रीय एकताको प्रोत्साहन मिलेगा।
3-3-1979
देवेन्द्र शर्मा कुलपति, इन्दौर विश्वविद्यालय इन्दौर एवं भूतपूर्व कुलपति, गोरखपुर विश्वविद्यालय
गोरखपुर
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स्वर्गीय सेठ जिनवरदासजी फौजदार
होशंगाबाद ( मध्य प्रदेश )
की पुण्य स्मृति को
जो, मेरे लिए सम्बन्धी होने से अधिक आत्मीय मित्र थे । सम्पन्न होते हुए भी जिनका निजी एवं सार्वजनिक जीवन सादा और साफसुथरा था, जो अड़तालीस वर्ष की वय में ८ फरवरी १६७७ को अचानक, भरा-पूरा परिवार छोड़कर इस दुनिया से विदा हो गये ।
- देवेन्द्रकुमार जैन
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PREFACE
Out of the three works of the poet Puspadanta, the Jasaharacariu was edited by me in 1931, the second edition of which with Hindi translation by the late Dr. Hiralal Jain was recently published. The second work, the Nayakumaracariu, edited by Dr. Hiralal Jain was published in 1933, the second edition with Hindi translation was also recently published. The third work, the Mahapurana is the biggest, and it was edited by me in three volumes, 1937-1941. I spent over ten years, 1932-41 in its preparation. This is its second edition with Hindi translation by Dr. Devendra Kumar Jain, and published by the Bharatiya Jnanpith. I feel particularly happy that the above institution undertook its publication and thus made the work available to scholars. The lovers of Apabhramba literature are very grateful to the Bharatiya Jnanpith.
I expected that some young scholars of Apabhramsa would come forward to undertake some studies on this epoch-making publication. In 1964, my friend and pupil the late Dr. A. N. Upadhye introduced to me a young lady who obtained her doctorate degree on the Dest words in the Mahapurāpa. I am sorry I do not remember her name and whereabouts. There is yet another subject, I suggest, relating to an analysis of metres used by the poet in his works which also is a necessity. Let me hope that some young scholar would come forward to undertake the problem.
The reader should note that poet Puspadanta belonged to the Digambara sect of the Jainas, while its editor is neither Digambara nor Svetāmbard. In interpreting the philosophical doctrine, he may have committed some mistakes because his knowledge of Jainism is from books. I, therefore, allow the reader to correct the editor's mistakes, if any, in the critical Notes.
Poona,
11th May, 1974.
-P. L. Vaidya
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कृतज्ञता-ज्ञापन
महाकवि पुष्पदन्त भारतके उन इने-गिने कवियों में से एक हैं जिन्होंने अपने सृजनमें मानवी मूल्योंकी गरिमाको धूमिल नहीं होने दिया । वाणी, जिनके हृदयका दर्पण है। उनकी कुल तीन रचनाएं उपलब्ध हैं। उनमें से 'जसहरचरिउ' का सम्पादन १९३१ में डॉक्टर पी. एल. वैद्यने किया था। दूसरी रचना 'णायकुमार चरिउ' का सम्पादन १९३३ में स्वर्गीय डॉक्टर हीरालाल जैनने किया। ये दोनों रचनाएँ, दुबारा सम्पादित होकर हिन्दी अनुवाद सहित, हाल हीमें प्रकाशित हई हैं, इनके पुनः सम्पादनका श्रेय स्वर्गीय डॉक्टर हीरालाल जैनको है। ये भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित हैं। महापुराण महाकविका मूल और मुख्य काव्य है जिसे हम अपभ्रंश साहित्यका आकर ग्रन्थ कह सकते हैं। इसकी रचनामें कविको लगभग छह वर्ष लगे, जबकि सम्पादनमें डॉक्टर पी. एल. वैद्यको (१९३१ से ४२ तक) दस वर्ष । उनके सतत अध्यवसाय और अपभ्रंशके प्रति समर्पित भावनासे महापुराण, तीन जिल्दोंमें १९३९ से १९४२ के बीच प्रकाशित हुआ। लेकिन खेद है कि ३८ वर्षकी लम्बी अवधिमें भी, किसी भी भारतीय आर्यभाषामें इसका अनुवाद नहीं हुआ। १९५० के बाद भारतीय विश्वविद्यालयोंमें अपभ्रंशके अध्यापनका जितना विस्तार हुआ, अपभ्रंश भाषा और साहित्यके वस्तुनिष्ठ अनुसन्धानका उतना ही संकोच हुआ।
'नाभेयचरित' महापुराणका एक भाग है जो आचार्य जिनसेनके आदिपुराणके समकक्ष है, शेष भागको हम उत्तरपुराण कह सकते हैं। इस प्रकार अपभ्रंशमें जैनोंके समस्त शलाका-पुरुषोंके चरित्रोंका काव्यात्मक भाषामें वर्णन कर पुष्पदन्तने बहुत बड़ा काम किया। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि कवि अपनी प्रतिभा और विराट संवेदनाके बलपर किसी भी भाषामें महान चरित्रोंकी अवतारणा कर सकता है। १९३७ के आस-पास उत्तरपुराणके एक खण्ड (८१ से ९२वीं सन्धि तक) हरिवंशपुराणका सम्पादन, जर्मन विद्वान् लुडविग आल्सडोर्फने किया था, (देवनागरी लिपि संस्करण, अंगरेजी भूमिकाके साथ) परन्तु वह भारतमें नहीं छप सका। महाकवि स्वयम्भूके पउमचरिउके हिन्दी अनुवाद (जो भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित है) के बाद मैंने अनुभव किया कि हिन्दी अनुवादके बिना न केवल महापुराणका, प्रत्युत समूचे अपभ्रंश साहित्यका वस्तुपरक मूल्यांकन नहीं हो सकता। अपभ्रंश भाषाके स्वरूप, प्रकृति, रचनाप्रक्रिया, देशी शब्द प्रयोग आदिके विषयमें सही विश्लेषणके लिए पुष्पदन्तका महापुराण ऐतिहासिक पृष्ठभूमि प्रस्तुत करता है। सही और प्रामाणिक अनुवादके अभावमें एक हिन्दी विद्वान्ने 'समीरइ' का अर्थ किया है, हवा में। (कृष्ण हवामें बछड़ेको उछालते हैं ?) पूरा प्रसंग है
"महिस सिलंवउ हरिणा प्रियउ ण करणिबन्धणाउ णीसरिउ दोइउ दोहणत्थु समीरह
- मुइ मुइ माहव्व कीलिउं पूरइ" कृष्णकी बाललीलाका चित्रण है कि "भैसके बच्चेको हरिने पकड़ लिया, वह उनके हाथकी पकड़से नहीं छूट सका, दोहन जिसके हाथमें है ऐसा दुहनेवाला (ग्वाल) कृष्णको प्रेरित करता है कि हे माधव ! छोड़ोछोड़ो, खेल हो चुका ।" यहाँ समीर क्रिया है, वर्तमानकाल अन्य पुरुष का एक वचन । समीरका अधिकरणका एक वचन नहीं।
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४
महापुराण
१९७५ में मैंने भारतीय ज्ञानपीठको महापुराणके अनुवादका प्रस्ताव भेजा, जिसे स्वीकार कर लिया गया । यह अनुवाद उसीका प्रतिफल है । अनुवाद करनेमें ( खासकर अपभ्रंश काव्यके अनुवाद में ) सबसे बड़ी कठिनाई अपभ्रंशके शब्दों और रचना प्रक्रिया को पहचानने की है, अपभ्रंश कवियोंकी सांकेतिक कथन - पद्धति भी बहुत बड़ी बाधा है, मूल अर्थं तक पहुँचने में । मैंने अनुवादको मूलगामी, सरल और मुहावरेदार बनानेका भरसक प्रयास किया है, परन्तु फिर भी यह दावा मैं नहीं करता कि वह एकदम निर्दोष है । पाठकोंसे निवेदन है कि उनके ध्यानमें जो त्रुटियाँ आयें, वे उनकी सूचना मुझे देने का कष्ट करें,
उनका कष्ट निष्फल नहीं होगा, वह अनुवाद को शुद्ध बनाने में सहायक होगा ।
महापुराण के अनुवादकी कुल पाँच जिल्दें हैं । पहली सामने है । दूसरी जिल्द छप रही है । इस अवसरपर मैं एक प्रकारकी रिक्तताका अनुभव करता हूँ । भारतीय ज्ञानपीठके संस्थापक साहू दम्पती ( श्री शान्तिप्रसादजी और श्रीमती रमारानी ) अब हमारे बीच नहीं हैं । मैं उन्हें भारतीय ज्ञानपीठकी स्थापना के दिन से जानता हूँ, मिला कभी नहीं । श्रीमती रमाजी ज्ञानपीठकी प्रत्येक गतिविधि में अभिरुचि रखती थीं । मूर्तिदेवी ग्रन्थमालाके सम्पादक श्रद्धेय डॉ. हीरालाल जैन और डॉ. ए. एन. उपाध्येका भी निधन हो गया । कालके आगे किसीकी नहीं चलती । आवागमन संसारका शाश्वत धर्म है । परन्तु उन्होंने अपभ्रंश भाषा और साहित्य के क्षेत्रमें जो कार्य किया है वह जहाँ उनका सच्चा स्मारक है, वहीं हमारे लिए पथ-प्रदर्शक भी । इस अवसरपर उक्त विशिष्ट व्यक्तित्वोंका पुण्यस्मरण करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ । ग्रन्थमालाके वर्तमान सम्पादक श्रद्धेय पण्डित कैलाशचन्द्रजी और डॉ. ज्योतिप्रसादजीका भी मैं अनुगृहीत हैं कि उन्होंने प्रस्तुत अनुवादको स्वीकृति दी । आदरणीय भाई लक्ष्मीचन्द्रजी जैनके प्रति भी मैं हृदयसे अनुगृहीत हैं, उनकी रचनात्मक पहलके बिना, इसका इतने जल्दी छपना सम्भव नहीं था । इसके संयोजन और प्रकाशनमें क्रमशः सर्वश्री डॉ. गुलाबचन्द्रजी और सन्तशरण शर्माने जिस निष्ठाका परिचय दिया उसके लिए वे भी धन्यवाद और प्रशंसाके पात्र हैं ।
अन्त में श्रद्धेय डॉ. पी. एल. वैद्यके प्रति अपनी कृतज्ञता निवेदित करता हूँ कि उन्होंने महापुराण के अपने सम्पादित संस्करणका हिन्दी अनुवाद करनेकी अनुमति दी । भूमिकामें उन्होंने इसके लिए अपनी प्रसन्नता भी व्यक्त की है । मुझे भी इस बातकी प्रसन्नता और गर्व है कि महाकवि पुष्पदन्तके महापुराणका प्रथम अनुवाद देशकी सम्पर्क भाषा हिन्दीमें हुआ । इससे डॉ. वैद्यको यह आशा भी पूरी होगी कि विद्वान् पुष्पदन्त के साहित्यके विविध पक्षोंपर शोध कार्य करें ।
११४ उषानगर, इन्दौर
- देवेन्द्रकुमार जैन
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INTRODUCTION
[ To the Old Edition ]
The Mahāpurāņa or Tisatçhima hāpurisaguņālamkára is the earliest and the largest of the three known works of Puşpadanta in Apabhramśa. Of the two smaller works, the Jasa haracıriu was edited by me and published in the Kāranjā Jaina Series, Vol. I, 1931. The Ņāyaku māracariu was edited by Professor Hiralal Jain and published in the Devendra kirti Jaina Series, Vol. I, Kāranjā, 1933. I am now presenting to the reader the first volume of Pu şpadanta's Mahāpurāņa comprising the Adipurāna, and hope to complete the work in two more volumes. When I announced in my introduction to Jasa haracariu that I had undertaken the edition of the Mahāpurāņa I did not realise how enormous the task before me was, and what financial and other difficulties the editor and the publishers might be involved into, but I am glad, after six long years of waiting, to offer to the linguists and the students of the Jain cultura the first volume of this great work, and now I can assure the reader that if no further difficulties arise, I would offer the rest of the work within the next two or three years' time, so that all the three extant Apabhramsa works of Puşpadanta will have been brought to light,
This Volume contains the first thirty-seven Samdhis out of the total of one hundred and two of the entire work. This portion is popularly known as the Adiparva or Adipurāna, and describes the lives of Risaha or Rşabha, the first Tirthamkara, and of Bharata, the first Cakravartin. The second volume will begin with the thirty-eighth samdhi and end with the eightieth, and the third volume will cover all the remaining samdhis. Dr. Ludwig Alsdorf of Hamburg, Germany, has just published in Roman characters a portion of the Mahāpurāpa under the title “Harivamśapurāpa, Ein Abschnitt aus der Apabhramśa Welthistorie, Mahapurāņa Tisaţthima hāpurisagupālamkāra von Puşpadanta, Hamburg, 1936", which contains samdhis 81-92 of the work. This portion will be re-edited in Devanāgarī characters and in corporated in the third volume, so that the entire work will now be made available to the public in a uniform edition. Besides as we now possess more Mss. than Dr. Alsdorf was then able to get, improvement on his work may be possible.
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MAHÁPURANA
The text of the entire Mahapurána will cover approximately 2000 pages of the royal size, of which the present volume contains 600. It is clear that the whole of the Mahapurpă could not be conveniently issued in one volume. I therefore propose to include in each volume an Introduction, dealing chiefly with the problems which concern the text of that volume only, reserving larger questions arising out of entire text for the Introduction to the third and the last volume. Moreover, Introductions to Jasa haracariu and Nayaku măracariu already contain some information about the author, the language of his works, metres etc., which the reader is presumed to possess.
THE CRITICAL APPARATUS The text of the Adipurāņa or of the present volume of the Mahapurāpa is based upon the following five Mrs. fully collated.
1. G. This Ms. consists of 503 leaves measuring 11" x 5". It has 8 lines to a page and about 29 letters to a line. It was written at Ghogha Mandir, is dated 1575 of the Samvat era, or 1441 of the Saka era, corresponding to 1518 A. D. It uses prsthamatras and has brief marginal gloss. It is a well-preserved Ms., belongs to the Balatkara Gana Mandir at Karanja, Berar, and bears No. 524 of their list ( No. 7752 of the Catalogue). It was secured for my use by Professor Hiralal Jain. It begins :- ओं नमः सिद्धेभ्यः ॥ सिद्धिवहमणरंजणु etc., and ends :-इय महापुराणे तिसट्ठिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरइए महाभब्वभरहाणुमण्णिए महाकव्वे सगणहररिसहणाहभरहणिवाणगमणं णाम सत्ततीसमो परिच्छेओ समत्तो ॥ ३७॥ आइयं पव्वं समत्तं ॥ शुभं भवतु संघस्य ।। स्वस्ति श्री सं० १५७५ वर्षे शाके १४४१ प्र० दक्षणायने प्रीष्मऋतौ द्वि... ष्टवदि ७ रवी घोषामंदिरे श्रीमूलसंधे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीमत्कुंदकुंदाचार्यान्वये भट्टारकश्रीपद्मनंदिदेवाः तत्पट्टे भट्टारकश्रीदेवेन्द्रकीतिदेवास्तस्पट्टे भट्टारकश्रीविद्यानन्दिदेवास्तत्पट्टे भ० श्रीमल्लिभूषणदेवास्तत्पट्टे भ. श्रीलक्ष्मीचंद्र तच्छिष्य मुनीश्रीनेमिचंद्र। देशावृंबडज्ञातीयगांधी श्रीपति तस्यांगना बाई सभू तयोः पुत्र गांधी कारुआ गांधी सांतां । तेषां मध्ये बा० सभू तया लिखाप्य प्रदत्तमिदमादिपुराणशास्त्रं मुनिश्रीनेमिचंद्रेभ्यः ॥ शुभं भवतु ॥ श्रीरस्तु ।। पं. ८००० ॥ भ० लक्ष्मीचंद्रेभ्यः प्रदत्तं ।। चिरं नंदतु । शुभं भूयात् ।।
This is one of the best and the most authentic of the Mss. of the work that I possess. My text therefore is based mainly on this Ms. There have been a few-indeed very few-occasions when I had to adopt a reading other than the one given in it, but I feel confident that there were sufficient reasons for doing so on every such occasion.
2. K. This is a paper M8. conta Ining 732 pages measuring 16" X 4". Of these 732 pages, 288 are covered by the Adipurana or Adiparva as it is called there. Each page contains 8 lines with about 50 letters to a line. The Ms. is carefully written and has copious marginal gloss. The words of the text are separated by a vertical stroke between words to be separated. Occasional
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INTRODUCTION
use of Prsthamátrás is noticed. The Ms. is decorated with thick red lines indicating the margin and there are three dots in red ink of the size of a fouranna silver coin, two in margins and one in the centre of the page where a square blank space is left. It seems that these dots represont the holes of a palm leaf Ms. from which this Ms. may have been copied. I secured this Ms. through my friend and pupil, Professor A. N. Upadhye of the Rajaram College, Kolhapur, who obtained it from his friend Mr. Tatyasaheb Patil of Nandni, near Kolhapur. It begins :- 1 of 1 fazia 11 fafaagithu etc., and the Adipurāņa portion ends :-54 WETECTU farafgaeryfTHJUTASAITO Helegaciaविरइए महाभब्वभरहाणुमण्णिए महाकव्वे सगणहररिसहनाहभरहणिग्वाणगमणं णाम सत्ततीसमो परिच्छेउ Hall 315900 TH II. It adds in a difforent hand : Ho stractCÈ HO EATचंद्रास्तत्पट्टे भ० ज्ञानभूषणास्तत्पट्टे भ० श्रीप्रभाचंद्राणां पुस्तकं ॥ The Uttarapurana. portion ends :-इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महाभन्वभरहाणुमण्णिए महाकव्वे वीरजिणिदणिन्वाणTHU TH ATH49f1agului AgigTruf HA II E IL P E UT POooo ( ? ) 11 T* 496 11 We find on the final blank leaf :- 0 Atarac Vo fattatrace Ho श्रीज्ञानभूषणास्तत्पट्टे भ. श्रीप्रभाचंद्राणां पुस्तकं ॥ It adds further in a different hand : भ. श्रीवादिचंद्रास्तत्पद्रेभ. श्रीमहीचंद्रास्तत्पडेभ. श्रीमेरुचंद्राणां पुस्तकं ॥
The entire work seems to be written in one hand; in fact this is the only Ms. of the whole of the Mahāpurapa, i. e., Adipurāpa and Uttarapurāņa, written in one hand, that I have so far discovered. This Ms. seems to preserve the text as in G described above, but seems to be corrected to the version represented by the M B P group of M88., in a different hand. This Ms. thus represents a mixed text. It is however easy to decipher what the original reading might have been. The gloss in the margin is more copious than in the Tippapa of Prabhācandra, (for whicb see below). There is no indication of the age of the Ms. although its original, probably a palm-leaf Ms., represents the older of the two recensions of our text. The corrections made therein to make it agree with a later recension of our text represented by the MBP group are made in a different hand, perhaps after about three generations of monks who owned it.
3. M. This Ms. consists of 470 leaves measuring 11" x 41". It has 8 lines to a page and about 33 letters to a line. It is written in Mathura, in 1883 of the Samvat era, i. e. in 1826 A. D. It is written in good modern hand and has some gloss in the margin, but not so copious as in K. or in the Tippana of Prabhācandra. It belongs to the Deccan College Collection, now deposited at the Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona, and bears No. 1050 of 1887-91. It begins : - atat 11 fefe EHTETIT etc. and ends : इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरइए महाभन्बभरहाणुमण्णिए महाकव्वे सगण
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MAHAPURANA
हररिसणाहरणियाणगमणं णाम सत्ततीसमो परिच्छेओ समतो || संधि ३७ ॥ संवत् १८८३ का मिली वैशाख शुक्ल ३ बुधवासरे । शुभं भवतु । लिखितं श्रीमथुरापुरीमध्ये ब्राह्मण स्वामलाल ॥ श्रीजिनधर्मप्रतिपालक श्रीमहाराजाधिराजश्री कुमरजी चंपारामजी पठनार्थं वा परोपकारार्थं ॥ शुभं दीर्घायुर्भवति पुत्रवृद्धिभवति ॥ श्रोजिनधर्मप्रवर्तनं करोति ॥ श्री आदिनाथेभ्यो नमः ॥ समाप्तोयं आदिपुराणः । शुभं ॥
4. B. This Ms. consists of 306 leaves measuring 11 " x 5". It has 9 lines to a page and about 33 letters to a line. It belongs to the Balātkāra Gaṇa Mandir at Karanja, Berar, and bears No. 523 of their list (No. 7753 of the Catalogue). It was secured for my use by Prof. Hiralal Jain of Amraoti. was written at Yoginfpura, i. e., Delhi, in 1659 of the Samvat era, i. e., 1602 A. D. The Ms. is worn out, and its margins are decayed. It is an indifferently written Ms., omits portions mechanically while copying from its original, and has no gloss at all. I was at one time inclined to stop collating it, but did not do so for the simple reason that I thought I might find in it a version not influenced by the marginal gloss. I was however disappointed to see that the Ms. was very indifferently prepared. It begins ओं नमो वीतरागाय ॥ सिद्धिबहूमणरंजणु etc, and ends:- इव महापुराणे तिसट्ठिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुष्कयंतविरइए महाभव्वभरहाणुमणिए महाकल्बे सगणहररिसहनाहभरहनिव्वाणगमणं णाम सततीसमो परिच्छेओ समत्तो ॥ संधि ३७ ॥ आदिपुराण खंडद्वयेन जात || श्लोकमानेनाष्टसहस्राणि अंकतो ग्रंथ ८००० || अक्षरमात्र पदस्व रहीनं व्यंजन संधिविवजितरे ॥ साधुभिरेव मम क्षमितव्यं को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे | योगिनीपुरदुर्गस्थाने जलालदीनसाहिबकवरराज्ये अथ संवत्सरेस्मिन् श्रीविक्रमादित्यराज्ये संवत् १६५९ पौषसुदि ४ बुधवासरे श्रीमूलसंपे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुंदकुंदाचार्यान्वये भट्टारक श्रीसिध कीर्तिदेवा...............
5. P. This Ms. is incomplete and has lost a portion at the end. The available portion of it consists of 305 leaves measuring 11" x 5". It has 9 lines to a page and about 30 letters to a line. It belongs to the Deccan College Collection, now deposited at the Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona, and bears No. 370 of 1879-80. It seems to be a very old Ms., edges. of leaves being worn out. There is a profuse marginal gloss. The prsthamātrās are used. The available portion ends with a part of the third kadavaka of the 28th samdhi ( see foot-note 8 on this kadavaka on page 433 of our edition ). This Ms. preserves a recension which is metrically correct, i. e., it uses, , and a as they are required for their correct metrical value almost uniformly. I found it therefore very convenient to follow it for this purpose, and hence have not recorded variants like qufafa and quà fa where qufafa represents the metrically correct form. It begins :-afa 11 at नमः ॥ सिद्धेभ्यः ॥ सिद्धिबहूमणरंजणु etc, and ends with चामर in XXVIII. 3. 11.
In addition to these five Mss. fully collated, I came across three more Mss. of the Adipurana. Of these one is deposited in the Sena Gana Mandir at Karanjs, ( No. 7754 of Rai Bahadur Hiralal's Catalogue of Mss, in C, P. &
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INTRODUCTION
Berar ). I examined it on the spot during my visit to that place in 1927. This Ms. was got copied at her own cost by a lady ancestor of the famous Chaware family of Käranjā and presented by her to the Bhattāraka 'of the temple. It is dated Wednesday the 8th of the dark half of Kārtika of 1591 of the Samvat era, i. e., 1534 A.D. As I could not secure it for full collation, I prepared some trial collations from it, but as they did not reveal any difference in the variants other than those found in MBP, I dropped the idea of incorporating them in my apparatus. The two other Mss. belong to the Deccan College collection, now deposited at the Bhandarkar Oriental Research Insitute, Poona. One of them bears No. 1140 of 1891-96. It is incomplete and carelessly written. It contains the first 19 samdhis only, and is dated the 5th day of the bright half of Jyestha of 1848 of the Samvat era, i. e., 1791 A. D. I made some trial collations from this Ms. but found the variants agreeing with those of M BP and hence did not collate it further. The other Ms. from the Bhandarkar Oriental Research Institute bears No. 1139 of 1891–95. It is dated Wednesday, the 10th of the bright half of Phalguna of 1925 of the Samvat era. i. e., 1868 A. D. This Ms. consists of three parts written in three different hands and on two different kinds of paper. The first part consists of 142 lea ves and contains the text of the first sixteen samdhis. The second part contains 177 leaves which are numbered from 1 to 177, and not from 143. The third part contains the remaining 33 pages, numbered from 178, but written by a different person. I made some trial collations from this Ms. also, but did not find variants different from those found in MBP, and hence did not collate it further. This Ms. puts dots at places where the writer was unable to decipher his original either because it was illegible or damaged. Besides, these last named Mss. are considerably modern and could, on that account too, be ignored.
By far the most important aid for fixing the text and preparing the critical apparatus was obtained from the Tippana of Prabhācandra ( T in the Critical Apparatus ). I secured a Ms. of this Tippaņa on the Adipurāņa portion from the Deccan College collection, now deposited at the Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona, which bears No. 563 of 1876-77. This Ms, measure: 131" x 54", has 51 leaves, with 13 lines to a page and 45 letters to a line. The script used is peculiar in that words like fasily are written like featu. There is no indication as to its age. but from appearance it seems to belong to the 16th century A. D. It begins :—38 TAI TATTI 11 storey att fagare संस्तुतं निरस्तदोष वृषभं महोदयम् । पदार्थसंदिग्धजनप्रबोधकं महापुराणस्य करोमि टिप्पणम ॥१॥ सिद्धीत्यादि fafara de afa: # Terra Alta T5314: It ends:--- fa aferererhafe
[R]
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MAHAPURANA
समाप्ताः ॥ समस्तसंदेहहरं मनोहरं प्रकृष्टपुष्यं प्रभवं जिनेश्वरम् । कृतं पुराणे प्रथमे सुटिप्पणं सुखावबोषं निखिलार्यदर्पणम् ॥ इति श्रीप्रभा चन्द्रविरचितमादिपुराणटिप्पणकं पंचासर लोकहीणं
सहश्रद्वयपरिमाणं
परिसमाप्ता ॥ शुभं भवतु ॥
I also examined a Ms. of Prabhäcandra's Tippapa on the Uttarpurāņa which I obtained, through the kindness of Professor Hiralal Jain, from Master Motilal Sanghi of Jaipore. This Ms. measures 12 " x 52", has 57 leaves with 13 lines to a page and about 31 letters to a line It begins:- ओं नमः सिद्धेभ्यः ॥ बंभहो परमात्मनः । It ends :-श्रीविक्रमादित्यसंवत्सरे वर्षाणामशीत्यधिकसहस्रे महापुराणविषमपदविवरणं सागरसेनसद्धान्तान् परिज्ञाय मूलटिप्पणकां चालोक्य कृतमिदं समुच्चयटिप्पणं अज्ञपातभीतेन श्रीमदुबला ....रगणश्रीसंघाचार्यसत्कविशिष्येण श्रीचन्द्रमुनिना निजदोर्दण्डाभिभूतरिपुराज्यविजयिनः श्रीभोजदेवस्य ॥ १०२ ॥ इति उत्तरपुराणटिप्पणके प्रभाचन्द्राचार्यविरचितं समाप्तम् || अथ संवत्सरेस्मिन् श्रीनृपविक्रमादिव्यगताब्दः संवत् १५७५ वर्षे भावासुदि । बुद्धदिने । कुरुजांगलदेसे सुलितानसिकंदरपुत्र मुलितानवाहिमु राज्यप्रवर्तमाने श्रीकाष्ठासंघे मथुरान्वये पुष्करगणे । भट्टारक श्रीगुणभद्रसूरिदेवाः । तदाम्नाये जैसवाल्लु चौ. टोडरमल्लु । इदं उत्तरपुराणटीका लिखापितं । सुभं भवतु || मांगल्यं ददाति लेखकपाठकयोः || This Ms. is dated Samvat 1575, i. e. 1578 A. D.
10.
On examining the colophon of the author of the Tippapa we learn some very important and interesting particulars about the manner of its composition, We learn that the Tippapa was composed in the year 1080 of the Vikrama. era, ie., 1023 A. D., i, e., within sixty years of the completion of the Mahapurana by Puspadanta; we also learn that king Bhoja of Dhara was then ruling in Malva; that Prabhacandra consulted the works of Sagarasena for his Tippapa; that he also consulted the orginal Tippana, probably of Puspadanta himself ( मूलटिप्पणको चालोक्य), and prepared a collected Tippapa ( समुच्चयटिप्पणं ) on the Mahapurapa, embodying the original Tippapa. An author's writing a Tippana on his own work may appear somewhat strange, but it is not altogether impossible; for I had an occasion to examine Mss, written by the authors of the 18th century in their own hand bearing also a gloss in their own hand, and I feel certain that these authors must have borrowed the mentality of writing a gloss on their own works from their forefathers. I therefore think that Puspadanta must have written a short gloss on the difficult words of his work; this gloss must have been amplified by Prabhäcandra, and that the process of amplification must have continued still further down. The gloss found in Mss. of our text is not identical with the Tippapa of Prabhãcandra, but is one which is either abriged or amplified.
Professor Hiralal Jain, in his Introduction (LXIII-LXIV) to the Nayakumaracariu refers to the colophon of a Ms, of the Tippana of Prabha candra which he came across, and says that Prabhacandra lived in the reign of Jayasimhadeva of Dhara (circa 1055 A. D.) But in view of the express men;
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INTRODUCTION
tion of the date, 1080 of the Vikrama era, i. e., 1023 A. D. and of the reign of King Bhoja in our Ms., we must regard that reference to a subsequent copy of the work, perhaps by Prabhácandra himself. Our Ms. of the Tippana again does not contain the stanza ataTYTTHEITEIT etc. Prabhacandra might have added this stanza in a subsequent copy of his work at a later date, which assumption may also explain the reference to king Jaya simhadeva.
The critical apparatus described above divides the Mss. into two groups, one comprising G and K, and the other M, B and P, not only because of the general agreement of the variants noted, nor on account of additions or omissions to the original text in a particular group ( see page 514 ), but also on the strength of the agreement of the Praśasti stan zas found at the beginning of several samdhis. I have already alluded to this topic in my Introduction to Jasa haracariu (page 21 ), but I think it is necessary to discuss it in detail as it throws considerable light on the Ms. tradition of the works of Puşpadanta and also the principle on which I have grouped the Mss. and valued them.
THE PRAŠASTI STANZAS OF THE MAHĀ PURANAI When I had an occasion to study the manuscript material for my edition of Jasa haracariu, I discovered that certain Mss. contained, at the commencement of a samdhi, stanzas in praise of the poet's patron, Nanna, while others did not record them. In the course of the collation of Mss. I also discovered the fact that those Mss. which contained these praśasti stan zas agreed very closely in one set of variants, while those Mss, which did not contain these stanzas agreed very closely in equally another set of variants. On further examination I found that those Mss. which did not give the praśasti stanzas presented an older recension of the text, while those that contained these stanzas presented a later and amplified recension. In the case of the Jasaharacariu the amplified passages were located and their author and his date found out. As that interpolator, who lived four centuries after the poet, had nothing to do with the poet's patron, I was convinced that the poet himself must have composed these praśasti stanzas, and was forced to advance a hypothesis that the poet himself, with the help he obtained from his patron, must have got made two or three sets of copies of his work, in one of which he wrote, at leisure, at first in the margin perhaps, some stray stanzas glorifying his patron, while other set or sets had already gone out of his hand without the addition of these stanzas. This hypothesis, briefly enunciated on
1. Some of the Prasasti stanzas are put together by Pandit Nathuram Premi in his article
on Puspadanta in Jain Sahitya Samsodhaka, Vol. II, No. I. 1929.
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MAHAPURANA
page 21 of the Introduction to Jasa haracariu, enabled me then to fix up that Mss. S and T of the work presented an older version. I had there an occasion to test the correctness of the hypothesis by referring to one of the Prasasti stanzas of the Mahāpurāņa, viz.,
दीनानाथधनं सदाबहुजनं प्रोत्फुल्लवल्लीवनं मान्याखेटपुरं पुरंदरपुरीलीलाहरं सुन्दरम् । धारानाथनरेन्द्रकोपशिखिना दग्धं विदग्धप्रियं
क्वेदानी वसतिं करिष्यति पुनः श्रीपुष्पदन्तः कविः ॥ which puzzled the historian in respect of the fixing of the date of the composition of the Mahāpurāņa, in as much as the plunder of Mãnyakheta, a wellascertained historical event of 972 A. D., was referred to by the poet in the middle of the work in the above mentioned stanza found in the Karanja Ms. at the beginning of the 50th saņdhi, while the completion of the Mahapurāņa in the Krodhana year, i. e., in 965 A. D. was an equally certain event. I found that the stanza did not occur in my Ms. K. This fact coupled with the absence of praśasti stanzas in my best Mss. of the Jasa haracariu enabled me to advance the hypothesis set out above, which further examination of a large number of Mahapurāņa Mss. fully corraborates. The Nayakumăracariu of Puşpadanta, which was then being prepared for the Press by my friend Professor Hiralal Jain, did not contain any praśasti stanzas in any of his Mss., and hence I could not test the accuracy of my hypothesis there. I therefore proceeded to collate the praśasti stanzas occurring at the beginning of the samdhis of the Mahāpurāņa. I have not so far discovered a Ms. of the Mahāpurāpa which has no praśasti stanzas : at the same time I have found that Mss. do not agree in giving them all. I have however found that groups of Mss. agree amazingly in giving a stanza at a particular place or omitting it altogether. A smaller number of stanzas was found in my Mss. G and K of the Adipurāna, while the remaining Msg. gave a much larger number of them. I therefore regard that G and K preserve an older, if not the oldest, recension of the text of the Adipurāna. I think that these stanzas do not form an integral part of the text and hence they are relegated to notes in the Critical Apparatus. I however believe that they were composed by the poet himself as nobody could be interested in glorifying Bharata to such extent. I also believe that the poet composed these stanzas long after he had completed the composition of the Mahápurāņa. At any rate the stanza ataTATE etc. he could not have written before 972 A. D., i. e., seven years after the completion of the Mahāpurāna. As the question of these stanzas is important for the manuscript tradition and as they throw considerable light on the relation of
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INTRODUCTION
the poet with his patron Bharata and allied topics, I give them all arranged in groups, i. e., (a) those found in G and K; (b) those found in other Mss. of the Adipurana; (c) those found in Poona, Karanja and K of the Uttarapurāņa portion; and (d) those found exclusively in the Jaipore Ms. I have also numbered them consecutively for easy reference in the next section. (a) 1. (i) आदित्योदयपर्वतादुरुतराच्चन्द्रार्कचूडामणे
रा हेमाचलतः कुशेशनिलयादा सेतुबन्धाद् दृढात् । आ पातालतलादहीन्द्रभवनादा स्वर्गमार्ग गता
कीर्तिर्यस्य न वेद्मि भद्र भरतस्याभाति खण्डस्य च । This stanza states that the fame of Bharata, the patron and friend of Khanda, i. e., the poet himself, has pervaded the entire universe. The stanza is found at the commencement of the 3rd samdhi in Gand K, but at the beginning of the 2nd samdhi in the remaining Mss. ( See foot-note on page 18 and also note the variants. ) 2. (i) सौभाग्यं शुचिता क्षमा भुजबलं शौयं वपुः सुन्दरं
सत्यं सर्वजनोपकारकरणं वृत्तं स्वकं सन्मतम् । हे विद्वन् भरतस्य भूतिजननं विद्यार्थिनामाशु य
स्यैकैकं गुणमङ्गमूर्जितधियां पुंसामचिन्त्यं भुवि ॥ This stanza mentions some of the qualities which Bharata the poet's patron, possessed. This stanza is found exclusively in G and K at the beginning of the fourth samdhi. 3. ( in ) भ्रूलीला त्यज मुश्च संगतकुचद्वन्द्वादिकं वक्षसा
मा त्वं दर्शय चारुमध्यलतिकां तन्वनि कामाहता। मुग्धे श्रीमदनिन्द्यखण्डसुकवेबन्धुर्गुणैरुन्नतः
स्वप्नेऽप्येष पराङ्गनां न भरतः शौचोदधिर्वाञ्छति ॥ This stanza states that Bharata, the poet's friend and patron, is so virtuous that he would never think of the wife of another person. The stanza is found at the beginning of the 5th samdhi in G and K, and in other Mss. also at the same place. (See footnote on page 72 and also note the variants. ) 4. (iv ) एको दिव्यकथाविचारचतुरः श्रोता बुधोऽन्यः प्रियः
एकः काव्यपदार्थसंगतमतिश्चान्यः परार्थोद्यतः । एकः सत्कविरन्य एष महतामाधारभूतो विदा
द्वावेतो सखि पुष्पदन्तभरती भद्रे भुवो भूषणम् ॥ This stan za brings out the characteristics of the poet and his patron, both of them adorning the earth, The stanza is found in G and K at the beginning of the eighth samdhi, but in all others at the beginning of the 9th samdhi.
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MAHÁPURANA
5. (v) TT Th 037 afara
धरित्ती पल्लंको दो वि हत्था सुवत्थं । पिया णिहा णिच्चं कव्वकीला विणोओ
अदीणतं चित्तं ईसरो पुप्फदन्तो । This stanza states that the poet Puşpadanta is a king in as much as he has the nobility of mind : the whole world is his fine mansion house, the moon the lamp, the ground his bed-stead, his arms his clothing, sleep his beloved and poetry his pastime. The stanza is found in G and K, and in all other Mss. at the beginning of the tenth samdhi, and also at the beginning of the fiftieth samdhi of the Uttarapurana in Poona, Jaipore and Karanja Mss. 6. ( vi ) 07frorficafreut TUETAUTIESTI
सिरिकुसुमदसणकइमुहणिवासिणी जयइ वाईसी ॥ 7. (vii) Tettarei afaria afatfadferreita:
कान्तं कुन्दावदातं दिशि दिशि च यशो यस्य गीतं सुरोधैः । काले तृष्णाकराले कलिमलमलितेऽप्यद्य विद्याप्रियो गां।
सोऽयं संसारसारः प्रियसखि भरतो भाति भूमण्डलेऽस्मिन् ॥ Of these the first stanza glorifies the poetic genius of Puşpadanta and the second glorifies Bharata, the poet's patron, for his appreciation of learning in the Kali age. These stan zas are found in G and K at the beginning of 30th samdhi and in MBP and others of this group at the beginning of 29th samdhi. 8. (viii) facenefa negafaun: sålungafa i
भरतस्य वल्लभासो कीर्तिस्तदपीह चित्रतरम् ॥ The stanza note that it was strange on the part of Bharata still to cherish love for fame, conceived as his wife, when she wanders wantonly in every house and freely dallies with bards. This stanza is found in G and all Mss. of the other group, but is missing in K. The want of agreement in G and K in this respect, however, strengthens my hypothesis that these stanzas do not form an integral part of the text, but were composed by the poet at a later stage and added in the margin of some of the copies of his work that he still had with him.
The agreement existing between G and K regarding the location of the above-mentioned praśasti stanzas led me to believe that they formed a group by themselves. This belief of mine was confirmed by a general agreement of the variants and also by non-inclusion of a long passage, found in Mss. of the other group and noted by me in the Critical Apparatus on page 514 of the printed text. Further, the fact that the number of prašasti stanzas in the other group is much larger than in this group indicates that this group of
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INTRODUCTION
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Mss. represents an older recension than the other one. Occasional disagreement between G and K is due to the fact that K represents a mixed version, the text in it being corrected on the model of the text in the MBP group at numerous places. I have noted all such places in the Critical Apparatus where I was able to read the original and the corrected variants, but at places the pigment or the ink was applied rather thick which made it difficult for me to decipher the Ms. correctly.
The second group of Mss. in my Critical Apparatus is represented by M, B and P. Besides these, I had an occasion to consult three more Mss., one from the Sena Gana Bhāndāra at Kāranjā and two from the Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona. All the Mss. of this group contain the Prasasti stanzas, (i) and (iii-viii) given above. Over and above this they also contain the following ; (b) 9. ( i ) बलिजीमूतदधीचिषु सर्वेषु स्वगितामुपगतेषु ।
संप्रत्यनन्यगतिकस्त्यागगुणो भरतमावसति ॥ ( Found at the beginning of the third sandhi.) 10. ( ii ) आश्रयवशेन भवति प्रायः सर्वस्य वस्तुनोऽतिशयः ।
भरताश्रयेण संप्रति पश्य गुणा मुख्यतां प्राप्ताः॥ ( Found at the beginning of the fourth samdhi. ) 11. ( iii ) श्रीर्वाग्देव्यै कुप्यति वाग्देवी द्वेष्टि संततं लक्ष्म्यै ।
___ भरतमनुगम्य सांप्रतमनयोरात्यन्तिकं प्रेम ॥ ( Found at the beginning of the sixth samdhi.) 12. ( iv ) हंहो भद्र प्रचण्डावनिपतिभवने त्यागसंख्यानकर्ता
कोऽयं श्यामः प्रधानः प्रवरकरिकराकारबाहुः प्रसन्नः । धन्यः प्रालेयपिण्डोपमधवलयशोधौतधात्रीतलान्तः
ख्यातो बन्धुः कवीनां भरत इति कथं पान्थ जानासि नो त्वम् ॥ ( Found at the beginning of the seventh samdhi.) 13. ( v ) मातर्वसुंधरि कुतूहलिनो ममैत
दापृच्छतः कथय सत्यमपास्य शाठ्यम् । त्यागी गुणी प्रियतमः सुभगोऽतिमानी
किं वास्ति नास्ति सदृशो भरतार्यतुल्यः ॥ ( Found at the beginning of the eighth samdhi,) 14. ( vi ) सूर्यात्तेज ( ?) गभीरिमा जलनिधेः स्थैर्य सुरातविधोः
सौम्यत्वं कुसुमायुधात्सुभगतां त्यागं बले: संभ्रमान् । एकीकृत्य विनिर्मितोऽतिचतुरो धात्रा सखे सांप्रतं
भरतार्यो गुणवान् सुलब्धयशसः खण्डः (?) कवेर्वल्लभः ॥ ( Found at the beginning of the eleventh samdhi. )
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MAHAPURĀŅA
15. (vii) तीव्रापदिवसेषु बन्धुरहितेनकेन तेजस्विना
संतानक्रमतो गतापि हि रमा कृष्टा प्रभोः सेवया । यस्याचारपदं वदन्ति कवयः सौजन्यसत्यास्पदं
सोऽयं श्रीभरतो जयत्यनुपमः काले कलौ सांप्रतम् ॥ (Found at the beginning of the thirteenth samdhi and also at the beginning of the thirty-fourth samdhi. ) 16. (viii) केलासुब्भासिकन्दा धवलदिसिगउग्गिण्णदन्तरोहा
सेसाहीबद्धमूला जलहिजलसमुन्भूयपिण्डीरवत्ता । बम्भण्डे वित्थरन्ती अमयरसमयं चन्दबिम्ब फलन्ती
फुल्लन्ती तारओहं जयइ नवलया तुज्झ भरहेस कित्ती ॥ ( Found at the beginning of the fourteenth samdhi.) 17. ( ix ) त्यागो यस्य करोति याचकमनस्तृष्णाङ्कुरोच्छेदनं
कोतिर्यस्य मनीषिणां वितनुते रोमाञ्चचचं वपुः । सौजन्यं सुजनेषु यस्य कुरुते प्रेम्णोऽन्तरां निर्वति ।
इलाध्योऽसौ भरतः प्रभुर्बत भवेत्कार्भािगरां सूक्तिभिः । ( Found at the beginning of the fifteenth samdhi. It is also found at the beginning of the 95th samdhi of the Uttara purana in K, and in Poona and Jaipore Mss. :) 18. ( x ) वलिभङ्गकम्पिततनु भरतयशः सकलपाण्डुरितकेशम् ।
अत्यन्तवृद्धिगतमपि भुवनं वि (बं?) भ्रमति तच्चित्रम् ॥ (Found at the beginning of the seventeenth sandhi. It is also found at the beginning of the 102nd samdhi of the Uttarapurāņa in K, and in Porna and Jaipore Mss. ) 19. ( xi ) शशधरबिम्बात्कान्तिस्तेजस्तपनाद्गभीरतामुदधेः ।
इति गुणसमुच्चयेन प्रायो भरतः कृतो विधिना ॥ ( Found at the beginning of the eighteenth samdhi. It is also found at the beginning of the thirty-ninth samdhi of the Uttarapu rapa in K, and in Poona and Jaipore Mss.) 20. (xii ) श्यामरुचि नयनसुभगं लावण्यप्रायमङ्गमादाय ।
भरतच्छलेन संप्रति कामः कामाकृतिमुपेतः ॥ ( Found at the beginning of the nineteenth samdhi.) 21. (xiii) फणिनि विमुह्यतीव मेचकरुचि कचनिचयेषु योषिता
मलकिषु मूच्र्छतीव हसतीव तमालतलेषु पुञ्जितम् । मदमुचि माद्यतीव लोलालिनि वरकरिगण्डमण्डले
दिशि दिशि लिम्पतीव पिबतीव निमीलयतीव खङ्गणे (?) ॥ ( Found at the beginning of the twentieth samdhi. ) 22. (xiv ) यस्य जनप्रसिद्धमत्सरभरमनवमपास्य चारुणि
प्रतिहतपक्षपातदानश्रीरुरसि सदा विराजते ।
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INTRODUCTION
वसति सरस्वती व सानन्दमनाविलवदनपजे
स जयति जयतु जगति भरतेश्वर सुखमयममलमङ्गलः ॥ ( Found at the beginning of the twenty-first samdhi ). 23. (xv ) मदकरिदलितकुम्भमुक्ताफलकरभरभासुरानना
मृगपतिनादरेण यस्या घृतमनघमनर्घमासनम् । निर्मलतरपवित्रभूषणगणभूषितवपुरदारुणा
भारतमल्ल सास्तु देवी तव बहुविधमम्बिका मुदे ॥ ( Found at the beginning of the twenty-second samdhi ). 24. ( xvi) अगुलिदलकलापमसमद्युति नखनिकुरुम्बकणिक
सुरपतिमुकुटकोटिमाणिक्यमधुव्रतचक्रचुम्बितम् । विलसदनुप्रतापनिर्मलजलजन्मविलासि कोमलं
घटयतु मङ्गलानि भरतेश्वर तव जिनपादपङ्कजम् ॥ ( Found at the beginning of the twenty-third samdhi ). 25. (xvii) हिमगिरिशिखरनिकरपरिपाण्डुरधवलितगगनमण्डलं
पुलकमिवातनोति केतकतरुवरतरुकुसुमसंकरे । विकसितफणिफणासु सुरसरितो मणिरुचिगतमधः क्षिते
रिदमतिचित्रकारि भरतेश्वर जगतस्तावकं यशः ॥ ( Found at the beginning of the twenty-fourth samdhi ). 26. (xviii) उन्नतातिमनुमात्रपात्रता ( ? ) भाति भद्र भरतस्य भूतले ।
काव्यकीतिघण्टारवो गृहे यस्य पुष्पदन्तो दिशागजः ॥ ( Found at the beginning of the twenty-fifth samdhi ). 27. ( xix) घनधवलताश्रयाणामचलस्थितिकारिणां मुहुर्धमताम् ।
गणनव नास्ति लोके भरतगुणानामरीणां च ॥ . ( Found at the beginning of the twenty-sixth samdhi ). 28. (x) गुरुधर्मोद्भवपावनमभिनन्दितकृष्णार्जुनगुणोपेतम् ।
भीमपराक्रमसारं भारतमिव भरत तव चरितम् ॥ ( Found at the beginning of the twenty-seventh and thirty-seventh samdhis). 29. (xxi) मुखनलिनोदरसद्मनि गुणधुतहृदया सदैव यद्वसति ।
चोज्जमिदमत्र भरते शुक्लापि सरस्वती रक्ता । ( Found at the beginning of the twenty-eighth samdhi ). 30. (xxii) बम्भण्डाहण्डलखोणिमण्डलुच्छलियकित्तिपसरस्स ।
___ खण्डेण समं समसीसियाइ कइणो न लज्जन्ति ॥ ( Found at the beginning of the thirty-second samdhi ). 31. (xxiii) विनयाकुरशातवाहनादौ नृपचक्रे दिवमीयुषि क्रमेण
भरत तव योग्यसज्जनानामुपकारो भवति प्रसक्त एव ।
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MAHĀPURANA
( Found at the beginning of the thiry-third samdhi. It is also found at the beginning of the fortieth samadhi of the Uttarapurana in Poona and Jaipore Mss., but is missing in K). 32. (xxiv) fa af f*4uTaFTET I
मातुं च वाघितोयं चुलुकैः कस्यास्ति सामर्थ्यम् । (Found at the beginning of the thirty-fifth samdhi).
It will thus be seen that the MBP group of Mss. which I fully collated for my work and at least three more Mss., one from Sepa Gana Bhandara at Káranja and two from Poona, contain as many as twenty-four more stanzas at exactly the same point in the Adipurāņa portion. Some of these are repeated in some Mss. of the Uttarapu rána, no doubt, still the evidence strongly supports me to group them together. The variants in the text that they give justify the above view.
The above conclusion led me to see if similar groups of Mss. existed for the Uttarapurăņa also. Unfortunately the number of the available Mss. of the Uttarapurāna is very small, viz., four. Of these one is my K, the second comes from the Bhandarkar Institute, Poona, the third from Jaipore and the fourth from the Balātkāra Gana Bhandara at Kāranjā. On examination I found that Poona and Kāranja Mss. agree in putting certain stanzas at a place, particularly those four that are given at the beginning of the 50th samdhi, while K omits these very stanzas there and the Jaipore Ms. distributes them over four different samdhis from 50th on wards. I give below these stanzas with their location in the four Mss. mentioned above. (c) 33. (i) 777 StarTataaraffaughs
यदपि च जलधिवलयमधिलंध्य विधेस्तदन्तरं दिशः । विगलितजलपयोवपटलद्युति कथमिदमन्यथा यशः
प्रसरदमादमल्लकदनाभारत भुवि भरत सांप्रतम् ॥ (Found in the Poona and Karanja Mss, at the beginning of the 41st and the 47th samdhis. The Jaipore Ms. has it only at the 41st. K does not give it anywhere ).
भास्वानेककलावतोऽस्य च भवेद्यन्नाम तन्मङ्गलं
Euro Tag: #fach a (?) : 1 राहः केतुरयं द्विषामिति दधत्साम्यं ग्रहाणां प्रभुः
tay ( ? ) atafa Hea: eu auf: 11 (Found in the Poona and Karanja Mss. at the beginning of the 50th along with two following and fi FR EF# etc. (see stanza 5 above). The Jaipore Ms. gives this stanza alone at the 50th, and K does not give it anywhere ).
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INTRODUCTION
35. ( ifi ) सया सन्तो बेसो भूसणं सुद्धसील
सुसंतुटुं चित्तं सव्वजीवेसु मेत्ती । मुहे दिव्वा वाणी चारुचारित्तभारो
अहो खण्डस्सेसो केण पुण्णेण जाओ। ( Found in the Poona and Karanja Mss. at the 50th, the Jaipore Ms. gives it at 49th, and K does not give it anywhere ). 36. ( iv ) दीनानाथधनं सदाबहुजनं प्रोत्फुल्लवल्लीवनं
मान्याखेटपुरं पुरंदरपुरीलीलाहरं सुन्दरम् । धारानाथनरेन्द्रकोपशिखिना दग्धं विदग्धप्रियं
क्वेदानी वसतिं करिष्यति पुनः श्रीपुष्पदन्तः कविः ।। ( Found in the Poona and Karanja Mss. at the 50th, in the Jaipore Ms. at 52nd, and K does not give it anywhere ). 37. (v) अत्र प्राकृतलक्षणानि सकला नीतिः स्थितिश्छन्दसा
मर्थालंकृतयो रसाश्च विविधास्तत्त्वार्थनिर्णीतयः । कि चान्यद्यदिहास्ति जैनचरिते नान्यत्र तद्विद्यते
द्वावेतौ भरतेशपुष्पदशनी सिद्धं ययोरीदृशम् ॥ ( Found in all the four Mss. at the beginning of the 59th samdhi ). 38. (vi) बन्धुः सौजन्यवाषैः कविकुलधिषणाध्वान्तविध्वंसभानुः
प्रौढालंकारसारामलतनुविभवा भारती यस्य नित्यम् । वक्त्राम्भोजानुरागक्रमनिहितपदा राजहंसीव भाति ।
प्रोद्यद्गम्भीरभावा स जयति भरते धामिके पुष्पदन्तः ॥ ( Found in all the four Mss. at the beginning of the 63rd samdhi ). 39. (vii) आखण्डोड्डमरारवं डमरुक चण्डीशमाश्रित्य यः
कुर्वन् काममकाण्डताण्डवविधि डिण्डीरपिण्डच्छवः । हंसाडम्बर डिण्डमण्डललसद्भागीरथीनायकं
वाञ्छन्नित्थमहं कुतूहलवतो खण्डस्य कीतिः कृतेः ॥ ( Found in all the four Mss. at the beginning of the 64th samdhi ). 40. (viii) आजन्म ( ? ) कवितारसैकधिषणासौभाग्यभाजो गिरां
दृश्यन्ते कक्यो विशालसकलग्रन्थानुगा बोधतः। कि तु प्रौढनिरुतगूढमतिना श्रीपुष्पदन्तेन भोः
साम्यं बिभ्रति (?) नैव जातु कविता शीघ्रं ततः प्राकृते॥ ( Found in all the four Mss. at the beginning of the 65th samdhi ). 41. ( ix ) यस्येह कुन्दामलचन्द्ररोचिःसमानकीतिः ककुभां मुखानि ।
प्रसाधयन्ती ननु बंभ्रमीवि जयत्वसौ श्रीभरतो नितान्तम् ॥ 42. ( x ) पीयूषसूतिकिरणा हरहासहार
कुन्दप्रसूनसुरतीरिणिशक्रनागाः ।
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MAHĂPURĀŅA
क्षीरोदशेषबलसत्तम ( ? ) हंस (?) चेव
कि खण्डकाव्यधवला भरतः स यूयम् (?)॥ (Both these stanzas are found in all the four Mss, at the beginning of the 66th samdhi ). 43. (xi ) इह पठितमुदारं वाचकैर्गीयमानं
इह लिखितमजस्रं लेखकैश्चारु काव्यम् । गतवति कविमित्रे मित्रतां पुष्पदन्ते
भरत तव गृहेऽस्मिन् भाति विद्याविनोदः ॥ ( Found in all the four Mss. at the beginning of the 67th samdhi ). 44. (xii) चञ्चच्चन्द्रमरीचिचञ्चरचुराचातुर्यचक्रोचिता
चश्चन्ती विचटच्चमत्कृतिकविः प्रोद्दामकाव्यक्रियाम् । अञ्चन्ती त्रिजगन्ति कोमलतया बान्धुर्यधुर्या रसैः
खण्डस्यैव महाकवेः सभरतान्नित्यं कृतिः शोभते ॥ ( Found in all the four Mss. at the beginning of the 68th samdhi ). 45. (xiii) लोके दुर्जनसंकुले हतकुले तृष्णाकुले नीरसे
सालंकारवचोविचारचतुरे लालित्यलीलाधरे । भद्रे देवि सरस्वति प्रियतमे काले कलौ सांप्रतं
कं यास्यस्यभिमानरत्ननिलयं श्रीपुष्पदन्तं विना ॥ Found in all the four Mss. at the beginning of the 80th samdhi). The following three stanzas are found only in the Jaipore Ms. (d) 46. ( i ) सोऽयं श्रीभरतः कलङ्करहितः कान्तः सुवृत्तः शुचिः
सज्ज्योतिर्मणिराकरो प्लुत इवानयॊ गुणैर्भासते । वंशो येन पवित्रतामिह महामत्रायः प्राप्तवान्
श्रीमद्वल्लभराज-कटके यश्चाभवन्नायकः ॥ ( Found at the beginning of the 42nd samdhi ). 47. ( ii ) वापीकूपतडागजैनवसतीस्त्यक्त्वेह यत्कारितं
भव्यश्रीभरतेन सुन्दरषिया जनं सुराणां (पुराणं? ) महत् । तत्कृत्वा प्लवमुत्तमं रविकृतिः ( ? ) संसारवार्धेः सुखं
कोऽन्यत् ( ? ) स्रसहसो ? स्ति कस्य हृदयं तं वन्दितुं नेहते ।। ( Found at the beginning of the 45th samdhi). 48. ( iii) संजुडियजाणुकोप्परगीवाकडिबन्धणाययवो।।
वणुहवइ वेरियं तुज्झ जं पावद्द लेहमो दुक्खं ।। (Found at the beginning of the 58th samdhi ).
It will be seen from the account of these prašasti stanzas that even the Uttarapurana Mss. preserve three different recensions, K representing the oldest, the Poona and Káranja Mss. the middle and the Jaipore Ms. the
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INTRODUCTION
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youngest. Leaving the question of the genealogy of the Mss, of the Uttarapurāņa for the time being, I present below in genealogical form the relation of the different Mbs. of the Adipuräna :
Archetype ( 965 A. D. )
X ( circa 966 A. D. )
Y ( circa 968 A. D.)
IK (Palm leaf ms.)
G ( 1518 A. D.)
P ( circa 1500 A. D.
K (circa 1500 A. D.) = K ( circa 1600 A. D. )
B ( 1602 A. D.)
M ( 1826 A. D. )
BHARATA, THE PATRON OF PUŞPADANTA
There are in all 48 prašasti stanzas found in the Mss. of the Mahapurāna. Of these stanzas, six, viz., 5, 6, 16, 30, 35 and 48 are in Prakrit and the remaining are in Sanskrit. The Prakrit of these stanzas is grammatically correct and graceful, but we cannot say the same about the Sanskrit of the same. Prakritisms occur there pretty often (e. g. Tevi in 29). The subject matter of those stanzas covers topics such as homage to the goddess of learning (afert, 6 ) and Ambika ( 23 ), the poet Puşpadanta himself (5, 30, 36, 39, 40, 45 ), the poet and his Mahapurāņa ( 37 ), the relation between Bharata, the patron, and the poet ( 1, 4, 14, 26, 35, 37, 38, 42, 43, 44 ), and the glorification of Bharata, the poet's patron remaining stanzas ). Bharata is mentioned and glorified in the body of the work (I. 3–8. XXXVII. 3–5; CII. 13 ) and also in the Ghatta lines and the puşpika at the end of each samdhi ( HET HTETTfourg HTET ) of the Mahāpuräpa. There are three stanzas in Sanskrit in some Mss. of the Jasahara cariu glorifying Nanna, Bharata's son and successor in office; and a long praśasti at the end of the Nayakumara cariu page 112 gives some details about the same. On the strength of the information supplied by these it is possible to construct a short biography of Bharata to whose generosity the world owes this epic poem in Apabhramsa.
1. The asterics indicate conjectural Mas,
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MAHA PURANA
We have now an excellent account of the Rastr akutas and their Times by Dr. A. S. Astekar (Poona, 1934). We find that a few pages ( 115-123 ) are devoted there to the political events of Kțşņa III ( 939–968 A. D. ). We also have there a section dealing with education and literature (Chapter xiv) of the period. And yet, we do not find any reference in the book to Bharata, the minister of Krşpa III, nor do we find any reference to the Poet. On the contrary we read on page 412 a remark to the effect that there is hardly any output of Prakrit Literature during the period. Pușpadanta, under the patronage of Bharata and his son Nanna, composed three works in Apabhramśa, which covering as they do over 2000 pages of the size of the present volume, cannot be easily ignored, nor can Bharata, the patron of learning, be neglected, who constantly urged on the poet to make the best use of his gifts. It will not there fore be out of place to construct the story of the life of Bharata, the forgotten patron of Prakrit Literature, from out of the material like the references in the works of Pușpadanta and the praśasti stanzas.
Krşpa III is known in Puşpadanta's works by three names : Tudiga, Suhatuïgarāya ( Sk, Subhatungarāja ) Euro and Vallabhanộpa, He came to the throne in 939 A. D., and ruled up to 968 A. D. In this year he was succeeded by his younger brother Khottigadeva. It was during the reign of Khottigadeva, in 972 A. D., that Mānya kheta, the capital of the later Rastrakūtas, was plundered by the king of Dhārā. Bharata was the minister of Krşpa Ill. Nanna, Bharata's son, also, is mentioned as a minister of Suhatungarāya, i e., Krşņa III. Bharata however was still living when Puşpadanta's Mahapurāņa was completed, i. e., upto 965 A, D. As Kțsna III died in 968 A, D., we have to suppose that Bharata must have died between 965 and 968 A. D., so that his son, Nanna, could succeed his father by 968 A. D. After the death of Bharata, Nanna extended his patronage to Puşpadanta and induced him to write Jasa haracariu and Nayakumăracariu.
Bharata seems to have come from the family of Kondella gotra (Sk. Kaupdinya ). This was a rich family and held the office of ministers ( 179: at, 46 ), but had become poor. There are references which indicate that Bharata regained the lost wealth of his family by devoted service to his master ( sarannat marfa fa Tar SET TH1: dat ). His grandfather's name was Annafya or Annayya. His father's name was Aiyana or Airana and his mother was called Devi Bharata had no brother or near relative (ayreda, 15). He was married to Kundavvá and had seven son's, viz., Devalla, Bhogalla, Ņappa, Sohana, Gunavamma, Dangaiya and Santaiya. Nappa is mentioned as the son of Kundayvă and it is not unlikely that Bharata had more wives
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INTRODUCTION
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than one. All the seven sons of Bharata were still living in 965 A. D.; while Nappa is stated to have succeeded his father already in 968 A. D. We have therefore to presume that his two elder brothers dieck following the death of their father or that Nappa had some special qualification to supercede his brothers in the office of his father.
Bharata is described by Puspa danta. as possessing dark complexion (EATH: 919, 12; srafy, 20). He had a beautiful figure and is likened to the god of love ( 20 ). He had a good physique ( 177#, 23), and held the office of a general in the army of Krşba III ( HTTS....FC 1414F:, 46 ). He also held the portfolio of the minister of charities in the royal household ( 49afqua ATTARTInnaf, 12). He had a gentle dress and courteous manners and speech (agataht, feat art, 35). He was fond of learning (factifs, 7). He combined in' him wealth and learning ( Petra, teet T T , 22 ). It was impossible to count his virtues as it is impossible to count the waters of the sea (11; 12) He had a pure character ( FataCOTTISHI 5ofa, 3). He was in fact a rendzvous of all virtues, most striking among them being his generosity. Poems were being recited in his house, copyists prepared copies of works. Thus, since Puşpadanta became the friend of Bharata, his house became a meeting place of the learned ( 43.). He was always generous to the needy and so held a place amongst generous persons of the past such as Bali, Jimütavāhana, Dadhici, Vinayānkura and Säta vähana ( 9, 31 ). His fame travelled far and wide ( 1). He had countless virtues as he had countless enemies ( 27 ), who experienced the same miseries as copyists experienced while toiling ( 48 ): One graceful act on his part was to induce Puspa danta to write the Mahapurāņa and to offer him the necessary help for this purpose. In fact, instead of spending his wealth in building wells, lakes, ponds and Jain temples, he used it on the preparation and propagation of the Jain epic with the help of which he would cross the ocean of samsāra with comfort ( 47 ).
The Poet Puşpadanta came of a. Brahmin family of Kaśyapa gotra. His father's name was Keśava and mother's name was Mugdhadevi. Both of them were devotees of Siva, but were later converted to Jainism. Puşpadanta had a dark complexion and a lean body. He does not seem to have married. He was in extreme poverty, had neither property nor house, and yet he possessed a lord's noble mind (5). He seems to have been in the court of a king named Bhairava or Virarája, and written a poem on him, but being insulted there, teft his court, and ičame to Mányakheţa, modern "Madkhed, which was then the capital of the Rasprakūtas, uand very prospenos (:36). ':. Theke ke
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MAHA PURANA
stayed in a grove of trees, outside the town; two citizens, Indraraja and Annalya by name, saw him there and persuaded him to go to the house of Bharata where he would have a good reception. The poet was at first unwilling because of his bitter experiences of the wicked world in the past. He was however assured by these men that Bharata was a man of a different type, that he was so kind and noble. The poet thereupon went to him, had a good reception, as assured. After a few days' rest Bharata requested him to write the Mahapurāņa so that his poetic gifts could be rightly used. It was in this way that the poet began his Mahāpurāņa in the house of Bharata in the Siddhartha year of the Saka era, i. e. in 959 A. D. The poet was out of mood after he had completed his Adipurāna, i. e., the first thirty-seven samdhis, and halted there for some time. The goddess of learning appeared before him and encouraged him to resume the work. Bharata also induced him to complete the work. The poet thereupon finished his work in the Krodhana year of the Śaka era, i, e., in 965 A. D. He seems to have been highly pleased with his performance, and out of satisfaction and just pride he wrote
पत्र प्राकृतलक्षणानि सकला नीतिः स्थितिश्छन्दसामर्थालंकृतयो रसाश्च विविधास्तत्त्वार्थनिर्णीतयः । कि चान्यद्यदिहास्ति जैनचरिते नान्यत्र तद्विद्यते
aratat ca ergo929197 faz T AÇar 11 ( 37 ) in the same spirit which prompted Vya sa of the Mahabharata to say
यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित् । For the Mahapurāņa is as sacred to the Jains as the Mahabharata is to the Hindus. The poet attributed the successful completion of the work as much to his genius as to the generosity of Bharata. His fame as poet travelled far and wide as that of Bharata for his generosity. It appears that Bharata died within three years of the completion of the Mahapu rāna, Nanna succeeded him in the office, extended his patronage to Puşpadanta and asked him to write two more poems in Apabhramśa, Jasaharacariu and Nayaku măra cariu. The glory of the Raşçrakūtas, however, soon came to the end. Their capital, Mányakheta, as plundered in 972 A. D., and the poet became destitute once more ( qaroit aafar afrofa ya: 96994a: 4a:, 36 )
WHAT IS A MAHĀPURĀŅA ?
The Digambara Jains hold that their sacred literature consisting of Pūrvas and Angas is lost; they do not therefore accept the authority of the Canon of the Śvetämbaras. The Canon, according to the Digambaras, consists of four divisions : (1) Prathamānuyoga, lives of Tirthamkaras
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INTRODUCTION
and other great men of the faith; in other terms, the katha literature; (ii) Karapanuyoga, description of the geography of the universe; (iii) Carapānuyoga, rules of conduct for monks and laymen; and (iv) Dravyanuyoga, philosophical categories or philosophy. According to this classification works like the present text fall under the category of Prathamănuyoga.
The Mahapurana is a term peculiar to the Jain literature and means a great narrative of the ancient times. There are puranas or old tales in the Jain Literature, but they narrate the life of a single individual or holy person. The Mahāpurana, on the other hand, describes the lives of sixty-three prominent men of the Jain faith. Jinasena uses the term Mahāpurana as a synonym for Trişaştilakṣana, while Hemacandra calls his work on the theme as Trişaştisalakāpuruşacarita, i. e., the lives of sixty-three promiment men (Salākāpurusa). Puspadanta uses the term Mahapurana to alternate with Tisatthimahāpurisagupalamkara, Adoration of the Virtues or qualities of Sixty-three Great Men. The term purana is defined in the Hindu Literature as follows:
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सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च । वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम् ॥
The purapa deals with the five topics, viz., the creation, the dissolution or secondary creation, dynastics, epochs between the Manus and the history of the dynasties. This definition is applicable to our Mahapurapa as well; for we do find the five topics mentioned above in our work. Still it is interesting to see how the Jains themselves interpret the term. Jinasena who is a predecessor
of Puspadanta in the writing of a Mahapurana says:
तीर्थेशामपि चक्रेशां हलिनामर्धचक्रिणाम् । frafewart gerei oeferaft 11 पुरातनं पुराणं स्यात्तन्महन्महृदाश्रयात् । मद्भिरुपदिष्टत्वान्महाश्रेयोनुशासनात् ॥ कवि पुराणमाश्रित्य प्रसृतत्वात्पुराणता । महत्त्वं स्वमहिम्नैव तस्येत्यन्यैनिरुच्यते ॥
महापुरुषसंबन्धि महाभ्युदयशासनम्
महापुराणमाम्नातमत एतन्महर्षिभिः ।। 1. 20-23.
"I shall recite the narrative of sixty-three ancient persons, i. e, of the Tīrthamkaras, of the Cakravartins, of Baladevas, of half-Cakravartins (i. e. Vasudevas) and of their opponents (i. e., of Prati-Vasudevas). The work is called 'purapa' because it is a narrative of the ancients. It is called 'great' because it relates to the great (Persons), or because it is narrated by the [x]
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MAHAPURANA
great (sages) or because it teaches (the way to) great bliss. Other writers say that, because it originated with the old poet it is called 'purapa' and it is called 'great' because of its intrinsic greatness, The great sages have called it a Mahāpurāna because it relates to great men and because it teaches the bliss." A Tippana on I. 9. 3 of our text seems to make a distinction between aihasa and purana and says that aihasà means the narrative of a single individual while purana i. e. Mahapurapa means narratives of sixty-three great men ( एकपुरुषाथिता कथा; पुराण त्रिषष्टिपुरुषाश्रिताः कथाः पुराणानि ) The Mahapurapa therefore is a work on the lives of sixty-three great men of the Jain faith, and thus occupies the same place of importance as the Mahabharata or the Rāmāyaṇa in Hinduism. The Mahapurana however lacks the unity of the Mahabharata or of the Rāmāyaṇa and therefore cannot be called and epic in the strictest sense of the term.
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The sixty-three great men whose lives are described in a Mahapurapa are classified under five heads. I give their names below for ready reference :(a) The Tirthamkaras ( 24 ) : ( 1 ) वृषभ or ऋषभ; (2) अजित; (3) शंभव or संभव; (4) अभिनन्दन (5) सुमति ( 6 ) पद्मप्रभ (7) सुपार्श्व (8) चन्द्रप्रभ ( 9 ) पुष्पदन्त or सुविधि ( 10 ) aftares; (11) state; (12) argge; (13) fan; (14) ; (15) ; (16) fa; (17) grq; शीतल; श्रेयांस; वासुपूज्य; विमल; धर्म; शान्ति; (18) अर (19) महिल; (20) सुत्रत; (21) नमि (22) नेमि (23) पार्श्व; and (24) महावीर. (b) The Cakravartins ( 12 )
;
(1) भरत, (2) सगर (3) मघवन् (4) सनत्कुमार; ( 5 ) शान्ति; ( 6 ) कुन्थु; (7) अर; (8) सुभीम or सुभूम; (9) पद्म ; ( 10 ) हरिषेण; ( 11 ) जयसेन or जय;
and (12).
(c) The Vasudevas (9) (1) त्रिपृठ; (2) द्विपृष्ठ; (3) स्वयंभू (4) पुरुषोत्तम (5) पुरुषसिंह; (6) पुरुषपुण्डरीक; (7) दत्त; (8) (d) The Baladevas (9)
नारायण; and (9) कृष्ण.
(1) अचल; (2) विजय; (3) भद्र; (4) सुप्रभ; ( 5 ) सुदर्शन (6) राम ( बलराम ).
आनन्द; (7) नन्दन; (8) पद्म; and ( 9
)
(e) The Prati Vasudevas ( 9 ) (1) अश्वग्रीव (2) तारक; (3) मेरक; (4) मधु (5) निशुम्भ (6) बलि; (7) प्रह्लाद ( 8 ) रावण; and ( 9 ) मगधेश्वर or जरासंघ.
It is to be noted that Santi, Kunthu and Ara Tirthamkaras as well as Cakravartins.
WORKS ON SIXTY-THREE GREAT MEN
The oldest known published work on sixty-three great men is the Mahapurapa or more accurately Adipurana of Jinasena (circa 850-875 A. D.) Jinasena calls his work Trişaştilakṣaṇamahapuranasamgraha, and thus seems to have planned a complete Mahapurapa. He was however unable to complete it, probably on account of his death. We get from his hand forty-two parvans only of the Adipurana, the remaining five parvans of the Adipurapa and the
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INTRODUCTION
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whole of the Uttarapurana being written by his disciple Gupabhadra and completed in 820 of the Saka era, i. e., in 898 A. D., at Varkāpura, under the patronage of Lokäditya, a feudatory of Akālavarşa alias Krşpa II (880-914 A. D.) This Mahāpurāna is written in Sanskrit, and printed twice, first at Kolhapur with a Maräthi translation by Kallappa Niţve and again at Indore with a Hindi translation by Pandit Lalaram Jain. It is written from the point of view of the Digambara Jains.
The second known work on the subject is the present work and belongs to the Digambara sect of the Jains.
The third work is the Trişaşçiśalā kāpuruşacarita by Hemacandra. It is a Śvetāmbara work and is written in Sanskrit. It is one of the last works of Hemacandra and so may have been written about 1170-72 A. D. It was published by the Jaina Dharma Prasāraka Sabhã of Bhavnagar in 1905-9, and a reprint of it is being issued at present.
The Jain Granthāvali published in 1965 of the Vikrama era, i. e, in 1907–8 records three works named Mahāpuruşacarita on page 229. One of them is by Silācārya (circa 925 of the Vikrama era, i. e. 888 A. D. ), is written in Prakrit and its Mss. are said to be deposited in the famous Patan Bhandar No. 4 and also at Jesalmer Bhandar. The same book mentions another work on the subject in Prakrit by Amarasűri on the authority of Bphafsippapika. It mentions a third work in Sanskrit on the theme by Merutu nga, Mss. of which are deposited in two Bhandars at Patan and also at Ahmedabad.
THE GLOSS ON THE CONSTITUTED TEXT The reader will notice that the bottom portion of the printed text is divided into two part. The first part, separted from the text by a wavy line gives the variants found in the Mss. or recorded in the margin of Mss, and also in the Tippapa of Prabhācandra. The second part, separated from the first part by a double line, gives a short gloss on the text in Sanskrit. I have culled it from the marginal notes in Mss. G, K, M and P, and also from the Tippapa of Prabhācandra. In selecting the gloss for this purpose I have kept in mind the difficulties which a reader is likely to meet with while going through the text, and I hope that if the reader is equipped with a good knowledge of the Sanskrit language and literature and some elementary knowledge of the grammar of the Prakrit and Apabhramśa dialects, he wil be able to understand the text easily with the help of this gloss. Extracts from Prabhācandra's Tippapa, where they appeared to be interesting but rather extensive to be accommodated at the bottom of the text are given in the notes at the end. I hope this method
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MAHAPURANA
of supplying the gloss at the bottom of the page will be appreciated by the reader as it taxes him less, and helps me to reduce the volume of notes. It should be noted that I have not retouched the text of the gloss, but have retained it as it was found in Mss. even though I felt at times tempted to improve upon uncouth Prakritisms or unwarranted historical allusions ( for example, the gloss on a fafgue on page 8).
see
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ACKNOWLEDGMENT OF OBLIGATIONS
It now remains for me to perform the pleasant duty of thanking all those who, one way or another, assisted me in the production of the present volume, I must thank in the first place the Trustees and the Secretaries of the Manikchand Digambara Jaina Granthamala who were kind enough to find the necessary fund for the preparation and publication of this volume, and I feel sure they will also find the necessary funds to complets the work. The poetic genius of Puspadanta required the benevolent encouragement of his patron Bharata in the 10th century. After the plunder of Manyakheta in 972 A. D. the poet became desolate and remained uncared for about a thousand years, and had it not been for the help that the Trustees of the Series offered to the Elitor, his efforts to bring the poet out of oblivion would have been of no avail. The spirit of Puspadanta will thus take a special delight in having once more discovered the spirit of his former patron regenerated in the Trustees of the Series, The Editor hopes that the same spirit will find a few thousand rupees more to enable him to complete the task that he has undertaken to rescue from oblivion this monumental work of the Poet.
To Professor Hiralal Jain of King Edward College, Amraoti, I owe a special debt of gratitude. He moved heaven and earth to find the funds for this publication. He has helped me in various other ways, in securing the loan of Mss. from Karanja and Jaipore, and in sending me bits of information that he came across. To Pandit Nathuram Premi, the veteran savant of Jain literature and an adventurous publisher of Jain works, I also tender my heartfelt thanks.
I would like to record here my sense of high appreciation of the services which Mr. R. G. Marathe, M. A., formerly my pupil and now professor of Ardha-Magadht at the Willingdon College, Sangli, rendered me in the preparation of this work. He did a lot of copying work for me and helped me at the time of collation as well.
Nowrosjee Wadia College, Poona
August 1937
-P. L. Vaidya
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भूमिका
कवि पुष्पदन्तकी तीन रचनाओंमें-से, जसहरचरिउका मैंने 1931 में सम्पादन किया था जिसका दसरा संस्करण, स्व. डॉ. हीरालाल जैन द्वारा कृत हिन्दी अनुवादके साथ, हाल ही में प्रकाशित हुआ है। दूसरी रचना 'णायकूमारचरिउ' का सम्पादन स्व. डॉ. हीरालाल जैनने किया जो हिन्दी अनवादके साथ 1933 में प्रकाशित हुआ। तीसरी रचना 'महापुराण' सबसे बड़ी है जिसका मैंने तीन जिल्दोंमें सम्पादन किया, 1937 से लेकर 1941 तक। इसकी तैयारीमें मुझे 1932 से 1941 तक, कुल दस वर्षका समय लगा। यह दुसरा संस्करण है, जो डॉ. देवेन्द्रकुमार जैनके हिन्दी अनुवादके साथ, भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित है। मैं विशेष रूपसे प्रसन्न हैं कि उक्त संस्थाने इसका प्रकाशन किया और इस प्रकार विद्वानोंको उक्त ग्रन्थ उपलब्ध कराया। अपभ्रंश साहित्यके प्रेमी भारतीय ज्ञानपीठके अत्यन्त कृतज्ञ हैं।
मैंने आशा व्यक्त को थी कि अपभ्रंशके कुछ युवा अनुसन्धायक आगे आयेंगे और इस युगान्तरकारी रचनाका अध्ययन करेंगे । 1964 में मेरे मित्र और शिष्य स्व. डॉ. ए. एन. उपाध्येने एक युवतीसे मेरा परिचय कराया था कि जिसने महापुराणके देशी शब्दोंपर पी-एच. डी. डिग्री प्राप्त की थी। मझे खेद है कि उसके नाम
और जीवनके बारेमें मुझे कुछ भी स्मरण नहीं है । अब भी एक विषय है, जिसका मैं सुझाव देता हूँ, जो कवि द्वारा प्रयुक्त छन्दोंके विश्लेषणसे सम्बन्धित है। यह भी एक आवश्यकता है। मुझे आशा करना चाहिए कि कतिपय युवा अनुसन्धायक आगे-आगे आकर इस समस्यापर काम करेंगे।
पाठक देखेंगे कि कवि पुष्पदन्त जैनों के दिगम्बर सम्प्रदायसे सम्बद्ध थे जबकि उसका सम्पादक न दिगम्बर है और न श्वेताम्बर । अतः सम्भव है कि दार्शनिक सिद्धान्तोंकी व्याख्या में उससे कुछ गलतियां हो गयी हों, क्योंकि मेरा जैनधर्म सम्बन्धी ज्ञान किताबी है। इसलिए मैं अपने पाठकोंको सम्पादककी गलतियोंको ठीक करनेकी अनुमति देता हूँ यदि टिप्पणियोंमें गलतियां हों तो।
पुणे 11 मई 1974
-पी. एल. वैद्य
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परिचय [प्राचीन संस्करण]]
महापुराण या त्रिषष्टिमहापुरुषगुणालंकार पुष्पदन्तके तीन ज्ञात अपभ्रंश ग्रन्थों में से सबसे प्राचीन और बड़ा है। दो छोटी रचनाओंमें-से जसहरचरिउका सम्पादन मैंने किया था जो कारंजा जैन सिरीज जिल्द 1, 1931 में प्रकाशित हुई। णायकुमारचरिउका सम्पादन प्रोफेसर डॉ. हीरालाल जैनने किया जो देवेन्द्रकीति जैन सीरिज जिल्द 1 कारंजा से 1933 में प्रकाशित हुआ, मैं अब पाठकोंके सम्मुख महापुराणका पहला खण्ड प्रस्तुत कर रहा हूँ जो आदिपुराणके समकक्ष है, और आशा करता हूँ दो और जिल्दोंमें इसे पूरा कर सकूँगा । जब मैंने जसहरचरिउकी भूमिकामें यह घोषणा की थी कि मैंने महापुराणके सम्पादनका काम अपने हाथ में लिया है, उस समय मैंने कल्पना तक नहीं की थी कि यह कितना कठिन कार्य है, और यह कि सम्पादक और प्रकाशकोंको आर्थिक तथा दूसरी कितनी कठिनाइयां होंगी। परन्तु मैं प्रसन्न हैं कि प्रतीक्षाके लम्बे छह वर्षोंके बाद भाषाविज्ञानके अध्येताओं और जैनसंस्कृतिके विद्यार्थियोंको उस महान कार्यका पहला खण्ड भेंट कर सका। अब मैं पाठकोंको यह विश्वास दिला सकता है कि यदि दूसरी कठिनाइयां नहीं आयीं तो मैं आगामी दो या तीन वर्षों में शेष भाग भेंट कर सकूँगा जिससे पुष्पदन्तके अपभ्रंशके तीन महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशमें आ सकें।
इस जिल्दमें कुल 102 सन्धियोंमें-से 37 सन्धियां हैं। यह खण्ड प्रसिद्धितः आदिपर्व या आदिपुराणके रूपमें ज्ञात है, और यह ऋषभ जीवनका वर्णन करता है, जो पहले तीर्थकर है, और भरतका जो पहले चक्रवर्ती हैं। दूसरी जिल्द अड़तीसवीं सन्धिसे प्रारम्भ होती है और अस्सीवी सन्धिमें समाप्त होती है। तीसरी जिल्दमें शेष सन्धियां पूरी होंगी। डॉ. लुडविग अल्सफोर्ड (हमबर्ग जर्मनी) ने हाल में रोमन लिपिमें, महापुराणके एक भागका 'हरिवंशपुराण' नामसे प्रकाशन किया है, जिसमें 81 से 92वीं तक सन्धियां हैं। इस भागका देवनागरी लिपिमें सम्पादन किया जायेगा, जो तीसरे भागमें सम्मिलित किया जायेगा, जिससे समूचा काव्य जनताको एकरूपमें उपलब्ध हो सके । इसके सिवाय हमारे पास इतनी अधिक पाण्डुलिपियां हैं, (उसकी तुलनामें जो डॉ. अल्सफोर्डके समय उपलब्ध थीं) इनसे उनके कार्यमें कुछ सुधार होना सम्भव है।
महापुराणका सम्पूर्ण पाठ लगभग रायल आकारके दो हजार पृष्ठों में समाप्त होगा, उनमें-से यह जिल्द 600 पृष्ठोंकी है। इससे स्पष्ट है कि समस्त महापुराण एक जिल्दमें सुविधाजनक ढंगसे नहीं आ सकता था। इसलिए मेरा विचार है कि प्रत्येक जिल्दमें भूमिका दी जाये, जिसमें उस जिल्दसे सम्बन्धित समस्याओंका विचार हो । जहाँ तक सम्पूर्ण रचनासे सम्बन्धित बड़े प्रश्नोंका सम्बन्ध है, मैं उनका विचार तीसरी और अन्तिम जिल्दके लिए सुरक्षित रखता हूँ। इसके अतिरिक्त जसहरचरिउ और णायकुमारचरिउकी भूमिकाओंमें कवि पुष्पदन्तकी भाषा छन्द आदिके विषयमें कुछ जानकारी दी है, आशा की जाती है कि पाठक उसे वहाँसे प्राप्त कर लेंगे।
दी क्रिटीकल एपेरेटस पृष्ठ 14 से 19 तक अर्थ स्पष्ट है, इसमें आधारभूत पाण्डुलिपियोंका विवरण है। महापुराणके प्रशस्ति छन्द
जब मुझे जसहरचरिउके सम्पादनके सिलसिले में पाण्डुलिपि सामग्रीके अध्ययनका अवसर मिला लो मैंने पाया कि कुछ पाण्डुलिपियोंमें सन्धिके प्रारम्भमें कविके आश्रयदाता ननकी प्रशंसामें कुछ छन्द हैं,
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महापुराण
जबकि कुछ पाण्डुलिपियोंमें इनका उल्लेख नहीं है । पाण्डुलिपियोंकी तुलनाके प्रसंगमें इस तथ्यका पता लगा कि जिन पाण्डुलिपियोंमें ये प्रशस्तिपरक छन्द हैं, उनमें पाठोंकी विभिन्नतामें घनिष्ठ समानता है, जिन पाण्डुलिपियों में उक्त प्रशस्तियां नहीं हैं उनमें विभिन्नताओंका दूसरा रूप है । और आगे परीक्षा करनेपर मैंने पाया कि जिन पाण्डुलिपियोंमें प्रशस्ति छन्द नहीं है उनमें पाठोंका प्राचीनतम रूप है । जसहरचरिउके प्रसंग में बहुत-से अबतक उनके लेख और डेट पहचान ली गयी है । चूँकि उक्त पाण्डुलिपिकारको जो कविके चार सौ साल बाद हुआ, कविके आश्रयदातासे कुछ नहीं लेना-देना था। मुझे यह विश्वास हो गया कि इन प्रशस्तियोंकी रचना कविने स्वयं की होगी, और उसे यह परिकल्पना बढ़ानेके लिए बाध्य होना पड़ा कि कविको स्वयं आश्रयदातासे जो सहायता मिली, उससे उसने अपने काव्य की दो-तीन प्रतियां करायीं उनमें से एकमें प्रमादसे हाशियामें कुछ फालतू छन्द लिखने पड़े । कि जिनमें आश्रयदाताकी प्रशंसा थी, जब कि दूसरी प्रति या प्रतियां इन प्रशस्तियोंके बिना ही, उनके हाथसे बाहर चली गयीं । संक्षेपतः इस परिकल्पना से कि जो पृष्ठ 21 ( जसहरचरिउकी भूमिका ) पर अंकित है, मैं यह तय कर सका कि पाण्डुलिपियाँ एस और टी, प्राचीन रूपका प्रतिनिधित्व करती हैं । और तब मुझे इस बातका अवसर मिला कि मैं महापुराण की एक प्रशस्तिका हवाला देकर इसे बताऊँगा ।
'दीनानाथधनं सदाबहुजनं प्रोत्फुल्लमानं वनं मान्याखेटपुरं पुरंदरपुरी लीलाहरं सुंदरम् । धारानाथनरेन्द्रकोप शिखिनादग्धविदग्ध प्रियं क्वेदानीं वसतिं करिष्यति पुनः श्रीपुष्पदंतः कवि ॥ "
इस प्रशस्तिने विद्वानों को महापुराणकी रचनाकी तिथि तय मान्यखेटके लूटे जानेके विषय में । कविने प्रशस्तिके बीच है ( जो 972 ए. डी. में घटी ) वह कारंजाकी प्रति में महापुराण की समाप्तिकी निश्चित तिथि क्रोधन संवत्सर ( 965 AD ) है । मैंने पाया कि उक्त प्रशस्ति मेरी प्रति (K) में नहीं है, यह तथ्य मेरी जसहरचरितकी प्रति ( जो सबसे अच्छी है ) से भी मेल खाता है । इससे मैं उक्त परिकल्पनाका खण्डन कर सका, यह बात महापुराणकी दूसरी पाण्डुलिपियोंके परीक्षणसे सिद्ध है । उस समय पुष्पदन्तकी एक रचना णायकुमारचरिउकी जो प्रेसकापी मेरे मित्र डॉ. हीरालाल जैन द्वारा तैयार की जा रही थी उसमें ये प्रशस्तियाँ नहीं थीं, इसलिए मैं अपनी परिकल्पनाकी उसे पुष्टि नहीं कर सका। तब मैंने उन प्रशस्तियों की तुलना करनेके लिए आगे बढ़ा कि जो महापुराणकी सन्धियोंके प्रारम्भमें हैं। मुझे अभी तक एक भी पाण्डुलिपि ऐसी नहीं मिली जिसमें प्रशस्तियों न हों, इसके साथ मैंने यह भी पाया कि सभी पाण्डुलिपियोंकी प्रशस्तियों में समानता नहीं है। फिर भी मैंने यह देखा कि एक वर्गकी पाण्डुलिपियाँ कुछ प्रशस्तियोंको आश्चर्यजनक ढंगसे एक जगह रखने या उन्हें नहीं रखनेके पक्ष में हैं । मेरी आदिपुराणकी जी. और के. पाण्डुलिपियों में भी थोड़ी संख्या में प्रशस्तियाँ हैं, परन्तु दूसरी पाण्डुलिपियोंमें वे बड़ी संख्या में हैं । इसलिए मैं जी. और के. पाण्डुलिपियोंको अधिक प्राचीन मानता हूँ भले ही वे अधिक पुरानी न हों । मेरी धारणा है कि ये प्रशस्तियाँ महापुराणके पाठके गठनात्मक अंग नहीं है इसलिए उनका समाहार आलोचनात्मक टिप्पणियों में किया गया है। फिर भी मेरा विश्वास है कि इनकी रचना कविने स्वयं की होगी, कोई दूसरा इनकी रचना नहीं कर सकता, क्योंकि उसका इस सीमा तक भरतकी प्रशंसा करनेमें दिलचस्पी नहीं हो सकती थी । मैं यह भी विश्वास करता हूँ कि कवि रचनाओंको पूरा करनेके बहुत बाद इनकी रचना की होगी । किसी भी हालत में, 'दीनानाथ धन' प्रशस्ति छन्द कवि 972 A. D. के पहले नहीं लिख सकता था, जो महापुराणके पूरा होनेके सात वर्ष बादकी घटना है । इन छन्दोंका प्रश्न पाण्डुलिपियोंकी
करनेमें बहुत परेशान किया, और इसी प्रकार जिस प्रसिद्ध ऐतिहासिक घटनाका उल्लेख किया मिलती है, पचासवीं सन्धिके अन्त में जब कि
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परिचय
परम्पराके विचारसे महत्त्वपूर्ण है और इसलिए भी क्योंकि इससे कविके आश्रयदाता भरतसे सम्बन्ध और दूसरे सम्बद्ध प्रकरणोंपर प्रकाश पड़ता है। मैंने इन पाण्डुलिपियोंका विभाजन निम्नलिखित वर्गों में किया है:
(1) वे प्रशस्तियाँ जो 'जी' और 'के' प्रतियों में हैं। (2) जो आदिपुराणकी दूसरी प्रतियोंमें हैं। (3) वे जो पुणे, कारंजा और उत्तरपुराण ( के ) में हैं। ( 4 ) वे जो केवल जयपुरकी प्रतिमें हैं । इसी क्रममें मैंने क्रमांक दिया है जिससे कि आगेके विभागोंमें सुविधासे सन्दर्भ दिया जा सके । (a ) 1. (i) आदित्य........
इस छन्दमें भरतके यशका वर्णन है, जो कविका मित्र और आश्रयदाता है। कविका कहना है कि भरत और उसका यश समूचे विश्व में व्याप्त है। यह प्रशस्ति तीसरी सन्धिके प्रारम्भ में है, 'जी' और 'के' प्रतियोंमें, परन्तु बाकी दूसरी पाण्डुलिपियोंके दूसरी सन्धियोंमें है ।
2. (ii) सौभाग्यं...
यह छन्द भरतकी कुछ विशेषताओंका वर्णन करता है। यह 'जी' और 'के' पाण्डुलिपियोंकी चौथी सन्धिके प्रारम्भमें है।
3. ( i ) भ्रू लीला....
इसमें कविता है कि भरत इसलिए भी गुणी है कि वह कभी दूसरेकी पत्नीके विषयमें नहीं सोचता, यह 'जी' और 'के' पाण्डुलिपियोंकी पांचवीं सन्धिके प्रारम्भमें पाया जाता है।
4. ( iv) एको दिव्य....
इसमें कवि और उसके आश्रयदाता भरतकी विशेषताओंका उल्लेख है। यह 'जी' और 'के' आठवीं सन्धिमें है, जब कि दूसरी पाण्डुलिपियों में नौवीं सन्धिके अन्तमें है।
5. (v) जगं रम्म.... इस छन्दमें कवि स्वयंको ईश्वर बताता है । राजा होते हुए भी उसके चित्तमें उदारता है । 6. (vi) स्पष्ट है 7. (vii ) स्पष्ट है 8. ( viii ) स्पष्ट है।
छन्द viii यह अंकित करता है कि यह आश्चर्यकी बात है जो कीर्ति हर घर भ्रमण करती है और चारणोंके साथ स्वेच्छासे रहती है, वह अब भी भरतको वल्लभा है। यह छन्द 'जी' प्रतिके साथ दूसरी सब प्रतियोंमें है। परन्तु 'के' में नहीं है। इस प्रकार 'जी' और 'के' पाण्डुलिपियोंमें असमानताका यह अभाव मेरी इस स्थापनाको दृढ़ करती है कि उक्त प्रशस्तियाँ महापुराणको अनिवार्य अंग नहीं हैं। फिर भी बादमें कविने इसकी रचना की है। 'जी' और 'के' प्रतियोंमें प्रशस्तियोंके स्थानको लेकर जो एकरूपता और समानता है उससे मेरी इस धारणाको बल मिलता है कि वे एक वर्गकी हैं । दूसरे वर्गों में प्रशस्तिकी संख्या अधिक
(b) 9.(i)
10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18, 19, 20, 21, 22, 23, 24, 25, 26, 27, 28, 29, 30, 31, 32, 33, 34, 35, 36, 37, 38, 39, 40, 41, 42, 43, 44, 45, 46,47, 48 प्रशस्तियोंकी टिप्पणियाँ स्पष्ट हैं।
[५]
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३४
महापुराण
भरत, पुष्पदन्तका आश्रयदाता
इस प्रकार पुष्पदन्तके महापुराणमें कुल 48 प्रशस्तियाँ हैं इनमें 6 क्रमांक 5, 6, 16, 30, 35 और 48 प्राकृतमें हैं और शेष संस्कृतमें है। उक्त छन्दोंकी प्राकृत शुद्ध और शालीन है। परन्तु यही बात संस्कृतके विषयमें नहीं कही जा सकती। कभी-कभी उसमें बीच में प्राकृत आ जाती है (जैसे चोज्जें, 29वां छन्द) इन छन्दोंमें सरस्वतीकी वन्दना (22), अम्बिका ( 23 ) आदिका वर्णन है। कवि स्वयं अपने (1,4, 14, 26, 27, 35, 38, 42, 43, 44 ) और अपने आश्रयदाता भरतके गौरवके विषयमें कहता है । इसके अतिरिक्त (3-8 XXXVII, 3-5,13) और घत्ता पंकियों और पुष्पिकाओंमें भरतका उल्लेख है । जैसे ( महाभव्य भरत द्वारा अनुमत इस काव्य में )।
जसहरचरिउकी कुछ पाण्डुलिपियोंमें भी संस्कृतमें तीन छन्द है जिनमें भरतके पुत्र नन्न और उत्तराधिकारीका वर्णन है । णायकुमारचरिउके अन्तमें एक लम्बी प्रशस्ति है जिसमें ननके बारे में विशेष जानकारी है। इन सूचनाओंके आधारपर भरतकी जीवन रेखा प्रस्तुत की जा सकती है कि जिसकी उदारताके कारण विश्वको अपभ्रंश महाकाव्य मिल सका।
अब हमारे पास राष्ट्रकूटों और उनके समयका शानदार लेखा हैं (डॉ. ए. एस. आल्टेकर द्वारा लिखित ) जिसमें कुछ पृष्ठों ( 115-123 ) में कृष्ण तृतीय ( 939-964 A. D.) के समयकी राजनीतिक घटनाओंका उल्लेख है। उसके एक अध्याय (XIV) में राष्ट्रकूटोंकी शिक्षा और साहित्यके बारेमें वर्णन है। फिर भी उसमें भरतका सन्दर्भ नहीं है, जो कृष्ण III का मन्त्री था। इसके विपरीत प. 412 में यहाँ तक उल्लेख है कि आलोच्यकालमें शायद ही किसी प्राकृत साहित्यकी र वना हुई हो, जबकि पुष्पदन्तने मन्त्री भरत और उसके पुत्र नन्नके आश्रयमें तीन अपभ्रंश काव्योंकी रचना की जो दो हजार पृष्ठोंके बराबर है । कवि और उसके आश्रयदाताओंको न तो भुलाया जा सकता है और न उपेक्षा की जा सकती है। इसलिए यहाँपर प्राकृत साहित्यके विस्मत आश्रयदाताके जीवनकी संक्षिप्त रूपरेखा देना अप्रासंगिक न होगा, उस सामग्रीके आधारपर जो प्रशस्तियोंके रूपमें उपलब्ध है।
पुष्पदन्तके साहित्य में कृष्ण III के तीन नाम है तुडिग, सुह तुंगराय ( शुभ तुंगराज) कृष्णराज और वल्लभनप । वह 939 A. D. में गद्दीपर बैठा. और 968 A. D. तक उसने शासन किया। इसके बाद उसका छोटा भाई खुटिग देव गद्दीपर बैठा, जिसके शासनकालमें 972 में राष्ट्रकूटोंकी राजधानी मान्यखेट धारा नरेशके द्वारा लूटी गयी। भरत कृष्ण III के मन्त्री थे । भरतके पुत्र नन्नको भी शुभतुंगरायका मन्त्री बताया गया है। जब पुष्पदन्तने अपना महापुराण पूरा किया, उस समय भरत जीवित थे, यानी 965 A.D. तक और चूंकि कृष्ण III की मृत्यु 968 में हुई, इससे यह अनुमान करना पड़ता है कि भरतका निधन 965 से 968 के बीच हुआ, इसीलिए उसका पुत्र नन्न उत्तराधिकारी बना 968 में । नन्नने पुष्पदन्तको अपना संरक्षण दिया और जसहरचरिउ तथा णायकुमारचरिउ लिखनेकी प्रेरणा दी।
भरत कोंडिल्ल गोत्रके मालूम होते हैं। यह एक सम्पन्न परिवार था जिसके सदस्य मन्त्री बनते थे ( महामंत्राह्वयः); परन्तु वह दरिद्र हो गया था। इस बातके संकेत और प्रमाण हैं कि भरतने अपने वंशके गौरव और समृद्धिको फिरसे स्थापित किया, अपने स्वामीकी एकनिष्ठ सेवा कर । ( संतानक्रमतो गतापि हि रमा कृष्टा प्रभोः सेनया) उनके पितामह का नाम अन्नय्या था और उनकी माँका नाम देवी था । भरतका कोई भाई या सगा-सम्बन्धी नहीं था। (बंधुरहितेन ), उसका विवाह कुन्दव्वासे हुआ था, और उसके सात पुत्र थे। देविल्ल, भौगिल्ल, नन्न, सोहन, गुणवम्मा ( वर्मा ), दंगइया और संतइय्या । नन्नको कुन्दम्बाका पुत्र · बताया गया है और यह असामान्य नहीं है कि भरतकी और पत्तियां रही हों। भरतके सातों पुत्र इस समय तक (965 ) जीवित थे। लेकिन जब 968 में नन्न भरतका उत्तराधिकारी बना,
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परिचय
३५
तो हमें वह कल्पना करनी पड़ती है कि या तो उसके दो बड़े भाई मर चुके थे या फिर उसमें कोई विशेष योग्यता थी कि जिससे उसने अपने दो बड़े भाइयों को वरिष्ठताका अतिक्रमण किया और वह पिताकी जगह मन्त्री बना ।
पुष्पदन्त के अनुसार भरतका रंग साँवला था, परन्तु आकृति सुन्दर थी और वह प्रेम के देवताके समान था । वह कृष्ण III के समय सेनापति थे । उनका स्वास्थ्य अच्छा था । वह दान और राजकीय भवनके मन्त्री थे। उनकी वेशभूषा सुन्दर थी, आदतें सुसंस्कृत थीं। वह विद्याव्यसनी थे। उनका चरित्र पवित्र था। उनमें अगणित गुण थे और अगणित उदारता थी ।
महाकवि पुष्पदन्त ब्राह्मण परिवारके थे। इनका गोत्र कश्यप था। पिताका नाम केशव और माताका मुग्धादेवी। ये दोनों शिवके भक्त थे। बाद में उन्होंने जैनधर्म ग्रहण कर लिया। उनका रंग काला और शरीर दुबला-पतला था। शायद वह अविवाहित थे। वह अत्यन्त गरीब थे, उनके पास घर-जायदाद कुछ भी नहीं था। फिर भी उनकी प्रतिभा दिव्य थी। वह पहले किसी चैव राजा ( भैरव या वीर राजा ) के दरबारनें थे, और सम्भवतः उन्होंने उनपर कविता लिखी थी, परन्तु वहाँ उनका अपमान हुआ और वह मान्यखेट चले आये, आधुनिक मलखेड़ा, जो उस समय राष्ट्रकूटोंकी राजधानी थी, और बहुत उन्नत थी। यहाँ वह नगरके बाहर वृक्षोंके उद्यानमें रहे। इन्द्रराज और नागया दो विद्वान्ने उन्हें मनाया और भरतके पास चलनेका अनुरोध किया। उन्हें यह आश्वासन दिया गया कि भरत बहुत शालीन व्यक्ति है। कुछ दिन ठहरने के बाद भरतने महाकविसे काव्यरचना करनेकी प्रार्थना की। पहले तो उसने अपनी अनिच्छा व्यक्त की परन्तु बादमें उसने भरतका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया क्योंकि भरतके अनुसार इसीमें उसकी काव्यप्रतिभाका उपयोग था । उसने सिद्धार्थ वर्ष (959 A D ) में भरतके घरमें काव्यरचना शुरू की। आदिपुराणकी रचना करनेके बाद कविका मन उचाट हो गया। लेकिन उसे सपने में सरस्वती दिखी और उसने काव्यरचनाकी प्रेरणा दी । तब कविने अपना काव्य पूरा किया। इस कार्यके सम्पादनसे कविको सन्तोष और गर्व दोनों थे। जैसा कि उसकी निम्नलिखित पंक्तियोंसे स्पष्ट है
अत्र प्राकृतलक्षणानि सकला नीतिः स्थितिरछन्दसां अर्थालंकृतयो रसाच विविधास्तस्वार्थनिर्णीतयः । कि चान्यद्यदिहास्ति जैनचरिते नान्यत्र तद्विद्यते द्वावेतौ भरतेशपुष्पदमनी सिद्धं ययोरीदृशम् ।
यह वही भाव है जिसमें व्यासने कहा था
"यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित्"
कवि
इसलिए यह महापुराण जैनोंके लिए उतना ही पवित्र है जितना हिन्दुओंके लिए महाभारत महापुराणको पूर्ण करनेका श्रेय एक ओर अपनी प्रतिभाको और दूसरी ओर भरतको उदारताको देता है। जिस तरह उसका यश दूर-दूर तक फैला उसी प्रकार भरतकी उदारता भी दूर-दूर प्रसिद्ध हो गयी। ऐसा अनुमान है कि महापुराण समाप्त होनेके तीन वर्षके भीतर भरतका निधन हो गया। भरतके स्थानपर नन्न उत्तराधिकारी बना और उसने महाकविको आश्रय प्रदान किया, तथा अपभ्रंशमें और काव्य रचनेकी प्रेरणा दी । कविने जसहरचरिउ और णायकुमारचरिउकी रचना की । उसके बाद राष्ट्रकूटोंके गौरवका अन्त हो गया कि जब 972 में मान्यखेट धारानरेश द्वारा लूट लिया गया, और कवि आश्रयविहीन होकर कहता है, क्वेदानीं वसतिं करिष्यति पुनः श्री पुष्पदन्तः कविः । ( 36 )
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महापुराण
महापुराण क्या है ?
दिगम्बर जैनोंका कहना है कि उनका पवित्र साहित्य ( पूर्व और अंग ) खो गया है। इसलिए वे श्वेताम्बरोंके शास्त्रोंके प्राधिकार ( अथोरिटी) को नहीं मानते । दिगम्बरोंके अनुसार शास्त्र के चार भाग हैं। (१) प्रथमानुयोग, जिसमें तीर्थंकरों और अन्य जैन महापुरुषोंकी जीवनियाँ होती हैं, तथा कथा साहित्य होता है । (२) करणानुयोग, इसमें विश्वका भूगोल होता है । (३) चरणानुयोग-इसमें मुनियों और गृहस्थोंके आचरणके नियम रहते हैं। (४) द्रव्यानुयोग-जो दार्शनिक श्रेणीका होता है। इस विभाजनके अनुसार यह कृति प्रथमानुयोगमें आती है।
महापुराण, जैन साहित्यमें एक विशेष शब्द है जिसका अर्थ है प्राचीन समयका महान् वर्णन । परन्तु वह एक व्यक्तिगत या पवित्र जीवन का वर्णन करते हैं। जब कि महापुराण त्रेसठ प्रमुख जैन व्यक्तियों के जीवनका वर्णन करता है। इसका दूसरा नाम त्रिषष्टिशलाकापुरुष है जब कि हेमचन्द्र इसे त्रिषष्टिशलाका चरित कहते हैं । पुष्पदन्त त्रिषष्टी पुरुष गुणालंकारके विकल्पमें 'महापुराण' नाम रखते हैं । यानी गुणोंका अलंकरण या त्रेसठ महापुरुषोंके गुण । पुराण शब्दकी हिन्दू साहित्यमें यह परिभाषा है।
सर्गश्च प्रतिसर्गश्च बंशो मन्वन्तराणि च
वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम् ॥ पुराण पांच प्रकरणोंका विचार करते हैं: उत्पत्ति, प्रलय, वंश और मन्वतर मनु और वंशोंका इतिहास । यह परिभाषा हमारे महापराणपर भी लाग होती है। क्योंकि इन पाँच प्रकरणोंको हम इसमें पाते हैं। फिर यह देखना दिलचस्प होगा कि जैन इस शब्दकी किस प्रकार व्याख्या करते हैं । जिनसेन, जो पुष्पदन्तके पूर्ववर्ती है, अपने पुराण में लिखते हैं
मैं वेसठ प्राचीन महापुरुषों के पुराणको कहूँगा। इसमें तीर्थंकरों, चक्रवतियों, वासुदेवों, बलभद्रों तथा प्रतिवासुदेवोंका वर्णन है। यह रचना पुराण इसलिए है क्योंकि इसमें प्राचीनोंका इतिवृत्त है। यह महान् इसलिए है क्योंकि इसमें महापुरुषोंका वर्णन है। अथवा इसका वर्णन ग्रेट ( महान् ) मुनियोंके द्वारा किया गया है । अथवा यह इसलिए महान् है क्योंकि यह महान् शिक्षा देता है । दूसरे लेखक कहते हैं चूंकि इसका प्रारम्भ पुराने कवियोंसे हुआ है, इसलिए यह पुराण है, और यह 'महान्' इसलिए कहलाता है, क्योंकि इसमें आन्तरिक महानता है। महान् मुनियोंने इसे महापुराण इसलिए कहा है क्योंकि इसका सम्बन्ध महापुरुषोंसे है, और यह महान शिक्षा देते हैं। हमारे टेक्स्टके छन्द 1,9.3 के टिप्पण में इतिहास और पुराण का अर्थ स्पष्ट किया गया है। उसके अनुसार, इतिहास एक व्यक्तिके वर्णनको कहते हैं जब कि महापुराणमें त्रेसठ शलाका पुरुषोंका वर्णन होता है। (अइहास एकपुरुषाश्रया कथा, पुराण = त्रिषष्टिपुरुणाश्रिता कथा पुराणानि )। इसलिए, जैनधर्मके त्रेसठ महापुरुषों के जीवनोंका वर्णन करनेवाला काव्य महापुराण है, और इसलिए जैनोंमें महापुराण महत्त्वका वही स्थान रखता है, जो महाभारत या रामायण हिन्दुओंमें । फिर भी इसे एपिक काव्य नहीं कहा जा सकता, इस शब्दके सही अर्थ में, क्योंकि इसमें रामायण या महाभारतकी तरह एकता ( unitiy ) की कमी है। जिन त्रेसठ महापुरुषोंका वर्णन महापुराणमें है, वे पांच वर्गोमें विभक्त हैं । तात्कालिक सन्दर्भके लिए मैं उनके नाम नीचे दे रहा हूँ।
नाम देवनागरी लिपिमें हैं। 24 तीर्थकर, 12 चक्रवर्ती, 9 वासुदेव, 9 प्रतिवासुदेव, 9 बलदेव (बलराम)
इनमें शान्ति, कुन्थु और अहं तीर्थंकर और चक्रवर्ती दोनों थे।
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परिचय
त्रेसठ महापुरुषोंपर कार्यं
सठ महापुरुषोंपर प्रकाशित सबसे प्राचीन महापुराण, अथवा अधिक सही नाम आदिपुराण है जो जिनसेन द्वारा रचित । (880-875 A. D ) जिनसेनने अपनी रचनाको " त्रिषष्टि लक्षण महापुराण संग्रह " कहा है और इस प्रकार उन्होंने सम्पूर्ण महापुराणकी योजना बनायी होगी परन्तु किसी प्रकार वह इसे पूरा नहीं कर सके, सम्भवतः अपनी मृत्युके कारण। उनके द्वारा रचित आदिपुराणके कुल 42 पर्व हैं, बाकी बचे हुए पाँच पर्व तथा समूचा उत्तरपुराण उनके शिष्य गुणभद्रने 820 शक संवत् ( 898 ) में पूरा किया, बंकपुरा में, लोकादित्य के संरक्षण में । लोकादित्य, अकालवर्ष एलियाज़ कृष्ण II का ( 880-914 ई. सं. ) सामन्त था। यह महापुराण संस्कृतमें लिखित है, और जो दो बार प्रकाशित हुआ । पहला कोल्हापुर में कल्लप्पा नितवे मराठी अनुवादके साथ, दूसरी बार इन्दौर से हिन्दी अनुवादके साथ ( अनुवादक पं. लालाराम जैन ) । यह दिगम्बर जैनोंके दृष्टिकोण से लिखित है । दूसरा ज्ञात महापुराण इस विषयपर यह है । और यह भी दिगम्बर जैन दृष्टिकोण से लिखा गया है । तीसरा महापुराण है 'त्रिषष्टि लक्षण पुरुष चरित' जो हेमचन्द्र द्वारा लिखित है । यह श्वेताम्बर महापुराण है और संस्कृतमें लिखित है । यह हेमचन्द्रकी रचनाओं में अन्तिम है । इसलिए यह 1170-72 के बीच लिखा गया होगा। यह जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर द्वारा 1905 में प्रकाशित हुआ और इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित किया जा रहा है। 1965 में प्रकाशित जैन ग्रन्थावली में ( 1907-8 ) में तीन महापुराणों के नाम हैं ( पृ. 229 ) उनमें पहला शीलाचार्यका है ( 888 A. D. ), यह प्राकृतमें लिखित है और इसकी पाण्डुलिपियाँ प्रसिद्ध पाटन भण्डारमें सुरक्षित हैं, ऐसा कहा जाता है । इसको सं. 4 है और जैसलमेर भण्डारमें है । इस महापुराणमें ही यह उल्लेख है कि इस विषय पर दूसरा प्राकृत महापुराण अमरसूरि द्वारा लिखित है On the authority of बृहत् टिप्पणिका । यह तीसरे महापुराणका उल्लेख करती है जो संस्कृत में है, जो मेरुतुंगको थीमपर है । इसको पाण्डुलिपियाँ अमरपाटन और अहमदाबादमें सुरक्षित हैं ।
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पाठक देखेंगे कि मुद्रित ग्रन्थके नीचे का हिस्सा दो भागों में विभक्त है । पहले भागको एक लकीर के द्वारा मूल ग्रन्थसे अलग कर दिया गया है । इसमें पाठान्तर हैं और प्रभाचन्द्र की टिप्पणियाँ हैं । दूसरा भाग पहले भाग से अलग है, उसमें संस्कृत में मूल ग्रन्थके सरल पर्यायवाची शब्द दिये गये हैं जिन्हें मैंने जी. के. एम. और पी. पाण्डुलिपियोंके किनारोंपर लिखी गयी टिप्पणियों और प्रभाचन्द्रके टिप्पणोंसे चुना है । सरल पर्यायवाची शब्दोंके इस चयनमें मैंने इस बातका ध्यान रखा है कि मूल सम्पादित ग्रन्थको पढ़ते समय पाठकोंको क्या कठिनाइयाँ आ सकती हैं। मुझे आशा है कि यदि पाठकको संस्कृत भाषा और साहित्यका अच्छा ज्ञान है, तथा उसे प्राकृत व्याकरण और अपभ्रंशका मामूली ज्ञान है तो इन पर्यायवाची शब्दोंकी सहायतासे वह आसानीसे मूल पाठको समझ सकता है । जहाँ प्रभाचन्द्र के टिप्पणोंका सारभूत अंश रुचिकारक मालूम होनेके बजाय विस्तृत प्रतीत हुए उन्हें टिप्पणियोंके रूपमें अन्त में दे दिया गया है । मैं आशा करता हूँ पृष्ठके नीचे सरल पर्यायवाची शब्दोंको देनेकी यह पद्धति पाठकोंके द्वारा सराही जायेगी क्योंकि इससे उन्हें कम श्रम होगा, और मुझे इस जिल्दका विस्तार कम करने में सहायता मिलेगी । यह ध्यान में रखना चाहिए कि मैंने पर्यायवाची शब्दोंके पाठको नहीं छुआ है, बल्कि उसको उसी रूपमें सुरक्षित रखा है, जिस रूप में वह पाण्डुलिपियों में उपलब्ध है । यद्यपि कई बार मुझे इस बातका प्रलोभन हुआ है कि मैं अधकचरे प्राकृत प्रयोगों और अनावश्यक ऐतिहासिक उल्लेखोंको सुधारूं, ( उदाहरण के लिए देखिए पृष्ठ 8 कइवइ विहियसेउका सरल पर्यायवाची ) ।
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महापुराण
कृतज्ञता ज्ञापन
अब उन सबके प्रति आनन्ददायक धन्यवाद देने का कर्तव्य पूरा करना मेरे लिए शेष रहता है कि जिन्होंने किसी न किसी रूप में इस जिल्दको पूरा करने में मदद की है। सबसे पहले मैं माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमालाके न्यासधारियों और मन्त्रियोंको धन्यवाद देता हूँ कि जिन्होंने इस जिल्दको तैयार करने और प्रकाशित करने के लिए आवश्यक धनराशि जुटायी। और मुझे पूरा विश्वास है कि वे इस कार्यको पूरा करनेके लिए और धनराशि उपलब्ध करायेंगे। पुष्पदन्तकी काव्य प्रतिभाको, दसवीं सदीमें अपने आश्रयदाता भरतके उदार प्रोत्साहनको जरूरत थी। ई. सं. 972 में मान्यखेटके विध्वंस और लूटके बाद कवि निराश हो गया और एक हजार वर्ष तक उपेक्षित रहा, और यदि ग्रन्थमालाके न्यासधारियोंने इस सम्पादककी सहायता न की होती तो इस महाकविको विस्मृतिके गर्तसे निकालनेका उसके प्रयत्न निरर्थक सिद्ध होते।
पुष्पदन्तकी आत्माको इस प्रकार विशेष आनन्द होगा कि उन्होंने एक बार फिर अपने पूर्व आश्रयदाताकी आत्माकी खोज पुस्तकमालाके न्यासधारियोंमें कर ली। इस सम्पादकको आशा है कि वही आत्मा कुछ हजार रुपयोंको उपलब्ध करायेगी कि जिससे उसने ( सम्पादकने ) जो काम हाथमें लिया है उसे वह पूरा कर सके, जिससे कविके अविस्मरणीय काव्यको नष्ट होनेसे बचाया जा सके।
प्रोफेसर हीरालाल जैन किंग एडवर्ड कालेज अमरावतीके प्रति मैं कृतज्ञताका विशेष ऋण अनुभव करता हूँ । उन्होंने इस जिल्दके प्रकाशनके लिए आकाश पाताल एक कर दिया। उन्होंने दूसरे अन्य रूपोंमें भी मेरी सहायता की, जैसे कि पाण्डुलिपियोंको कारंजा और जयपुरसे उधार दिलाने और उन छोटी सूचनाओंको मुझ तक पहुँचाने में कि जो उनको ज्ञात हुई। जैन ग्रन्थोंके साहसी प्रकाशक और जैन साहित्यके अनुभवी विद्वान् पण्डित नाथूराम प्रेमीको भी मैं हृदयसे धन्यवाद देता हूँ।
अपने भू. पू. शिष्य और अब विलिंगडन कालेज सांगलीमें अर्धमागधीके प्रोफेसर श्री आर.जी. मराठेके प्रति मैं यहां अपनी प्रशंसाके उच्चभावको व्यक्त करता है कि उनकी उस सेवा और निष्ठाके लिए जो उन्होंने इस काममें मुझे दी । मेरे लिए उन्होंने प्रतिलिपि करनेका बहुत बड़ा काम किया और मिलान करनेके समय भी मेरी सहायता की।
नोसेरजी वाडिया, कालेज पूना अगस्त 1937
-पी. एल. वैद्य
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प्रस्तावना
अपभ्रंश कवि पुष्पदन्त और उनका नाभेयचरिउ मान्यखेटका उद्यान
पुष्पदन्त-अपभ्रंशके ही नहीं अपितु भारतके महान् कवियों में से एक है। कल्पना कीजिए दसवीं सदी के मध्योत्तर कालकी। एक व्यक्ति लम्बा रास्ता पार कर, राष्ट्रकूट राजाओंकी राजधानी 'मान्यखेट'के उद्यानमें पहुँचता है। वह थका हुआ है और चाहता है कि विश्राम कर ले। इतने में दो आदमी आते हैं और कविसे कहते हैं कि आप नगरमें चलकर विश्राम करें। सम्भ्रान्त व्यक्तियोंका यह अनुरोध आगमें घीका काम करता है । कवि आगबबूला होकर कहता है-“पहाड़की गुफामें घास खा लेना अच्छा परन्तु दुर्जनोंके बीच रहना अच्छा नहीं । यह अच्छा है कि आदमी मांकी कोखसे जन्म लेते ही मर जाये, परन्तु यह अच्छा नहीं कि सवेरे-सवेरे वह किसी दुष्ट राजा का मुख देखे।" अनुरोध करनेवाले व्यक्ति जिद्दो है और वे कविको मन्त्री भरतके पास ले जाने में सफल हो जाते हैं। यह व्यक्ति ही, अपभ्रंशके महाकवि पुष्पदन्त हैं। भरत और पुष्पदन्त
__ मन्त्री भरत कविके स्वभाव और पूर्व इतिहाससे परिचित है। वह अत्यन्त नम्रतासे कहता है"हे कविवर, तुम्हारा नाम चन्द्रमासे लिखित है ( यशस्वी है ), तुमने वीर शैव राजाको प्रशंसामें काव्य लिखकर मिथ्यात्वका जो बन्ध किया है, वह तभी मिट सकता है कि जब तुम प्रायश्चित्त करो । तुम भव्यजनों के लिए देवकल्प हो, अतः आदिनाथके चरितभारको काव्य-निबद्ध करनेके लिए अपने कन्धोंका सहारा दो। वाणी कितनी ही अलंकृत, सुन्दर और गम्भीर हो, वह तभी सार्थक है कि जब उसमें कामदेवका संहार करनेवाले प्रथम जिन ऋषभके चरितका वर्णन किया जाये ।" उदासी
कवि भरतका अनुरोध टाल तो नहीं पाता, लेकिन वह जानता है कि उस-जैसे अत्यन्त भावुक सांसारिक क्षुद्रताओंके कटु आलोचक और फक्कड़ व्यक्तिके लिए इसका निर्वाह करना कितना कठिन है ? वह जब महापुराणकी सैंतीस सन्धियां पूरी कर चुकता है तो उसका मन अचानक उचाट हो आता है, अकारण एक गहरी उदासी उसे कई दिनों तक घेरे रहती है। कविके अनुसार सरस्वतीके हस्तक्षेप करनेपर ही उसकी यह उदासी टूटती है। कविके शब्दोंमें- "किसी कारण मनमें कुछ असुन्दर घटित हो जानेपर यह महाकवि कई दिनों तक उदास रहता है । एक रात सपने में सरस्वती उससे कहती है-"कवि, तुम पुण्य वृक्षके लिए मेधके समान हो, तुम अरहन्तको नमस्कार करो," वह मुड़कर देखता है, तो वहाँ पूर्णचन्द्रमाके प्रकाशके सिवाय कुछ नहीं था। वह चारों ओर देखता है, परन्तु उसे कुछ भी नहीं दिखाई दिया। यह देखकर कवि विस्मित है, और अपने कक्ष में चुपचाप उधेड़-बुनमें है। इतने में मन्त्री भरत आता है और कविसे कहता है-“कविवर, तुम उदास क्यों हो ? क्या तुम्हें प्रेत लग गया है ? काव्य सृजनमें अपना मन क्यों नहीं लगाते ? क्या मुझसे कोई अपराध हो गया है, या किसीने तुमसे भला-बुरा कह दिया है ? तुम जो-जो कहोगे वह सब मैं करूँगा। और जबतक तुम कुछ नहीं कहते तबतक मैं हाथ जोड़कर यहीं बैठा रहूँगा। तुम अस्थिर और असार जीवनमूल्यों के लिए
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महापुराण
अपनी आत्माको मोहको कीचड़में क्यों सानते हो ? तुम्हें वाणीरूपी कामधेनु सिद्ध है उससे नवरसरूपी दूष क्यों नहीं दुहते ?"
कविका उत्तर है - "यह कलियुग पापोंसे मलिन और विपरीत है; निर्दय, निर्गुण और अन्यायकारी, इसमें जो-जो दिखाई देता है, वह अन्यायजनक है। सूखे हुए वनकी तरह, फलहीन और नीरस । दुनियाके लोगों का राग ( स्नेह ) सन्ध्याकालके रागके समान है, मेरा मन घनमें प्रवृत्त नहीं होता भीतर अतिशय उद्वेग बढ़ रहा है, एक-एक पदकी रचना करना भारी जान पड़ता है । फिर में जो कुछ कहूँगा उसमें दोष ढूँढ़ा जायेगा; मैं यह नहीं समझ पाता कि यह दुनिया सज्जनोंके प्रति खिची-खिची क्यों रहती है ? उसी तरह कि जिस तरह धनुष पर चढ़ी हुई डोरी ।" कवि के इस उत्तरसे उसकी उदासीका कारण छिपा नहीं रहता । पैसा कमाना जिसके सृजनका उद्देश्य न हो, और जो स्वार्थजन्य क्षुद्र कुटिलताओंसे घृणा करता हो, उसके लिए सृजनका एकमात्र उद्देश्य आत्माको शान्ति और मनकी पवित्रता ही हो सकती थी । वह कहता है
मज्झु कइतणु जिणपयभत्तिहि
पसरइ णउणिय जीविय-वित्तिहि ॥
कवि मन्त्री भरतसे कहता है कि मैं अकारण स्नेहका भूखा हूँ, है । क्या इसका अर्थ यह निकाला जाये कि कविकी उदासीका कारण तक पहुँचते-पहुँचते उसे भरतसे वह अकारण स्नेह नहीं मिल रहा था दायित्व अपने ऊपर लिया था ।
दुर्जन- निन्दा
में
कविको दुर्जनोंसे जितनी चिढ़ थी उतनी शायद ही किसी दूसरे कविको रही हो ! इक्यासवीं सन्धि वह फिर दुर्जनोंको आड़े हाथों लेता है, परन्तु अबकी बार उसकी मुद्रा भिन्न है । इसका कारण सम्भवतः यह है कि अबतक अपने कविकर्ममें उसे काफी यश मिल चुका था । वह लिखता है
"मैं काव्यका रचयिता और पण्डित हूँ, अनेक सुजनोंका प्यारा । परन्तु दुष्टका स्वभाव ही दूसरोंके दोषों को ग्रहण करना है । इसलिए मैं उसका प्रतिकार नहीं करता । मेरा काम काव्य करना है, दुर्जनका काम निन्दा करना । वह अपना काम करे, मैं अपना काम करूं । दोनोंका नतीजा पण्डित ही जानेंगे । मेरी विमलकीर्ति अपने कोमल और सरस पद दुष्टोंके गलों और कपोलोंपर रखती हुई तीनों लोकोंमें विचरण करेगी । " 81 / 12 ।
आत्मविनय
गर्वोक्तियोंके बावजूद कविमें गहरी आत्मविनय थी । वह लिखता है - " मैं निर्दय और पापकर्मा हूँ, आज भी मैं कुछ भी धर्म नहीं जानता । मेरा विवेक मिथ्यात्व के सौन्दर्यसे रंजित है, मैं जिनवर के वचनोंसे अपरिचित हूँ । अभी तक में ऐसे कथान्तरोंकी रचना करता रहा हूँ जो शृंगार-चेतनासे निरन्तर भरपूर थे, पर लो मैं अब महापुराणकी रवना करता हूँ । लो मैं अपने हाथोंसे सूर्यको ढक रहा हूँ । लो मैं समुद्रको कलशसे उलीच रहा हूँ ।"
इसी कारण वह उसके घरमें रहा शायद यह था कि सैंतीसवीं सन्धि जिसके लिए उसने यह महान् उत्तर
प्राचीन परम्पराका उल्लेख करते हुए वह कहता है- "मन्त्री भरतने मुझसे इस काव्य की रचना करवायी । यद्यपि मैं पण्डित नहीं हूँ, व्याकरण, छन्द और देशी नहीं जानता, जो कथा विश्ववन्द्य आचार्यों द्वारा सम्मानित है उसे मैं किस प्रकार प्रारम्भ करूँ ? मैं अकलंक कणचर, कपिल, वेदपाठी, सुगत और चार्वाक के अभिप्रायों नहीं जानता । मैंने पातंजलके महाभाष्यके जलको नहीं पिया । मैं अत्यन्त पवित्र इतिहास और
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प्रस्तावना
४१ पुराणोंको भी नहीं जानता, भावोंके राजा भारवि, भास, व्यास, कोमलगिरि कालिदास, चतुर्मुख, स्वयंभू, श्रीहर्ष, द्रोण, कवि ईसान और बाणको भी मैंने नहीं देखा । धातु, लिंग, समास, गण, कर्म, करण, क्रिया, सन्धि, कारक, पद समाप्ति और विभक्तियोंको मैं नहीं जानता। शब्दधाम, आगमको भी मैं नहीं जानता कि जिनके नाम सिद्धान्तधवल और जयधवल हैं। जड़ताका नाम करनेवाले चतुर रुद्रट और उनके अलंकारसारको मैंने नहीं देखा । मैंने पिंगल प्रस्तार नहीं पढ़ा। यश जिनका चिह्न है, और जो लहरोंसे निरन्तर अभिषिक्त है, ऐसा सिन्धु (सेतुबन्ध काव्य ) मेरे चित्तपर नहीं चढ़ा। न मैंने कलाकौशलमें मन लगाया। मैं विचारोंकी दुनियामें जन्मजात मूर्ख हूँ । निरक्षर और चर्म रुक्ष । यह सब होते हुए भी मैं मनुष्यके रूपमें घूमता हूँ। महापुराण अत्यन्त दुर्गम होता है। घड़ेसे समुद्रको कौन माप सकता है। अमरों, सुरों और गुरुजनोंके लिए सुन्दर जिस महापुराणको रचना बड़े-बड़े मुनियोंने की है, मैं भी उसका कुछ वर्णन करता हूँ।"
आत्मपरिचय
पुष्पदन्तका जीवन संघर्षोंसे भरा हुआ था। यह सोचना गलत है कि जो लोग भौतिक आवश्यकताओंसे मुंह मोड़कर निःस्पृह हो जाते हैं उनके जीवनमें संघर्ष नहीं होता। पुष्पदन्त निःस्पृह थे, परन्तु अत्यन्त भावुक और स्वाभिमानी होनेसे उन्हें मानसिक तनाव बहुत झेलना पड़ा। महापुराणको अन्तिम प्रशस्तिमें अपना परिचय उन्होंने इस प्रकार दिया है
"अमीरों और गरीबोंके प्रति समदृष्टि रखनेवाला मैं मुक्तिरूपी वधूका दूत हैं। मां मुग्धादेवी और पिता केशवभट्ट । गोत्र कश्यप । सरस्वतीके साथ विलास करनेवाला । पापपटलसे दूर रहनेवाला । सूने घरों
और मन्दिरों में निवास करनेवाला । पुराने वल्कल और चीवरोंको धारण करनेवाला । न घर-बार और न स्त्री । नदियों, बावड़ियों और तालाबोंमें नहा लेना, और दुर्जनोंसे दूर रहना । धूल-धूसरित शरीर, धरतीका बिछौना और हाथोंका आच्छादन । सदैव संन्यास मरणकी इच्छा रखनेवाला । अर्हतके ध्यानका योगी, और भरतके आश्रयमें रहनेवाला । अपने सृजनसे लोगोंको पुलकित करनेवाला । कविकुलतिलक अभिमान मेरु ।"
वह कितने अपरिग्रही और स्वाभिमानी थे, यह उन छन्दोंसे स्पष्ट है जो उनकी पाण्डुलिपियोंमें यत्रतत्र बिखरे हुए हैं । एक उदाहरण देखिए
"जगं रम्म हम्मं दीवओ चन्दविम्बं धरित्ती पल्लंको दो वि हत्था सुवत्थं पियाणिद्दा णिच्चं कव्वकीला विणोओ
अदीणतं चित्तं ईसरो पुप्फदन्तो" छन्द कहता है कि पुष्पदन्त ईश्वर है, सुन्दर संसार उसका घर है, चन्द्रबिम्ब दीपक है, धरती पलंग है, और दो हाथ वस्त्र हैं, नित्य आनेवाली नींद प्रिया है, काव्यक्रीड़ा विनोद है, चित्त अदीन है।
एक राजा क्रूर हिंसाके द्वारा ऐश्वर्यके साधन जुटाता है फिर भी सुख-शान्तिसे नहीं रह पाता। कवि पुष्पदन्त आत्माकी स्वाधीनता और मनकी कल्पनामें उसे यदि पा लेता है तो उसके ईश्वरत्वको चुनौती कौन दे सकता है ?
जिन सज्जनोंने मान्यखेट नगरके उद्यानमें ठहरे हुए कविकी भेंट भरतसे करायी थी, उनके नाम थे इन्द्रराज और अन्नइया । कविको मन्त्री भरतके शुभतुंग भवनमें ठहराया गया । भरतके अनुरोधपर कविको महापुराणकी रचनामें सिद्धार्थ संवत्सरसे लेकर क्रोधन संवत्सर तक (959 ई. से 965) कुल छह वर्ष लगे। संस्कृत महापुराण (जिनसेनका आदिपुराण और गुणभद्रका उत्तरपुराण) इस दृष्टिसे ईसवी 898 से पूर्वका सिद्ध होता है। महापुराण 102 सन्धियों 1907 कड़वकोंमें पूरा हुआ है। इसका दूसरा नाम तिसट्टि महा
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महापुराण
पुरुषगुणालंकार (त्रिषष्टि महापुरुषगुणालंकार) है। कविकी तीसरी रचना 'जसहरचरिउ' है जिसकी चार सन्धियोंमें कुल 138 कड़वक है। दूसरी रचना है ‘णायकुमारचरि' । स्वर्गीय डॉक्टर हीरालाल जैनने लिखा है (णायकुमारचरिउकी भूमिका पृ. 17) कि सिद्धार्थ और क्रोधन 60 वर्षीय संवत् चक्रके विशेष वर्षों के नाम हैं। इनमें क्रोधन संवत्सर सिद्धार्थ संवत्सरके पीछे आता है। णायकुमारचरिउमें कृष्णराज और नन्नका उल्लेख है। णायकुमारकी रचनाके समय कवि नन्नके घर में रह रहा था। .
"मुद्धई केसव भट्टपुत्तु कासवरिसिगोत्ते विसालचित्तु णण्णहो मंदिरि णिवसंतु संतु
अहिमाण मेरु गुणगण महंतु"-१/२ अपने शिष्य नाइल्ल और शीलभट्टके अनुरोधपर कवि कहता है
"पडिवज्जमि णण्णु जि गुण महंतु" स्वीकार करता हूँ कि नन्न गुणोंसे महान् है । ११५
'णायकुमारचरिउ' की अन्तिम प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि नन्न भरत मन्त्रीका पुत्र था। जसहरचरिउ इसके बादकी रचना है।
आश्रयदाता भरत
इसमें सन्देह नहीं कि काव्य मनुष्यकी उदात्त और स्वतन्त्र अभिव्यक्ति तथा सृजन शक्तिका सर्वोत्तम माध्यम है । इसके साथ, इसमें भी सन्देह नहीं कि भारतीय कविको अपने सृजनके लिए किसी न किसी आश्रयकी खोज करनी पड़ी है। इसलिए भारतमें जो भी काव्य (आर्ष काव्यको छोड़कर ) लिखा गया वह राजनीति या धर्मके आश्रय और प्रेरणासे हो लिखा गया। स्वतन्त्र भारतमें भी यही स्थिति है। देशमें मिश्रित अर्थ व्यवस्था की तरह 'सृजन' भी दो क्षेत्रोंमें विभक्त है। एक सरकारी क्षेत्रमें और दूसरा व्यक्तिगत क्षेत्रमें । आर्थिक दृष्टिसे स्वतन्त्र लेखन द्वारा स्तरीय जीवन जीनेकी परिस्थितियां इस समय देशमें नहीं हैं, वे निकट भविष्यमें होंगी इसकी कोई सम्भावना कम से कम मुझे तो नहीं दिखाई देती। स्वतन्त्रता पानेके बाद भारतीय लेखकने अभिव्यक्तिकी स्वतन्त्रताका हनन स्वयं किया और अब अपनी चरित्र हत्याका दोष वह दूसरोंपर मढ़ना चाहता है। ऐसा वह कभी प्रतिबद्धताके नामपर करता है, और कभी 'मुखौटा' का नारा लगाकर और कभी प्रयोगवादके नामपर । काव्यमूल्यों और जीवनमूल्योंमें गहरी खाई-प्रयोगवादी और नयी कविताकी सबसे बड़ी दुर्बलता है जिसे वह प्रतीकों और बिम्बोंमें छिपाकर कलात्मक चमत्कार उत्पन्न करना चाहता है। उसका सबसे बड़ा चरित्र है कलामें आम आदमीकी बात करना और जीवनमें 'खास आदमीका जीवन जीना।' लेकिन इसके लिए अकेला सर्जक ही दोषी नहीं है, जिस देशके पूरे कुएं में भांग पड़ी हो, उसमें किसी एक वर्गको यह दोष देना कि कम से कम उसे नशेमें नहीं होना था, न्यायसंगत नहीं है। फिर भी कुछ व्यक्तित्व मिल जायेंगे कि जिन्होंने जीवनमूल्य और काव्यमूल्यको एक साथ जिया । कायदेसे मुझे इस प्रसंगको नहीं कुरेदना था, परन्तु यह सृजन और आश्रयके प्रश्नसे शाश्वत रूपसे जुड़ा हुआ है, अतः यह देख लेना जरूरी था कि उसका हल खोजा जा सका है या नहीं । जहाँ तक पुष्पदन्तका सम्बन्ध है, उनकी जीवनको आवश्यकताएं थोड़ी थीं। आश्रयदाता भरत और उसके बाद, उसीके पुत्र नन्नने अपनी प्रशस्ति लिखवानेके लिए नहीं, अपितु 'नाभेयचरित' की रचनाके लिए कविसे आतिथ्यकी अभ्यर्थना की थी। बीच-बीच में उसका मन उचटा भी, परन्तु भरतने चतुराईसे काम लिया। पुष्पदन्तने गौरवके साथ भरतके नामका उल्लेख अपने काव्यमें किया है। प्रत्येक सन्धिके अन्तमें उसे महाभव्य विशेषण दिया है, भरत कौडिन्य
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प्रस्तावना
४३ गोत्रके थे । इनके पितामहका नाम अन्नय था और पिताका ऐयण । मांका नाम था देवी। पत्नी कुंदव्वासे भरतके सात पुत्र हुए-देवल्ल, भोगल्ल, नन्न, सोहन, गुणवर्म, दंगय्य और संतय्य । भरत श्यामशरीर और दृढ़ व्यक्तित्ववाले थे। उन्होंने अपने कुलका उद्धार किया। बादमें वह राष्ट्रकूट नरेश कृष्णराज II1 के मन्त्री, सेनानायक और दानविभागके अधिष्ठाता बने । भरतके बाद कवि नन्नके आश्रयमें था, जो थोड़ा नामका लोभी था। उसके निकटके लोगोंने कविसे काव्यमें सर्वत्र नन्नके नामका उल्लेख करनेका अनुरोध किया। कृष्णराज III के बाद उसका पुत्र खुट्टिगदेव गद्दीपर बैठा । उसके समय धारानरेश श्री हर्षदेवने आक्रमण करके मान्यखेटको धूल में मिला दिया। यह 972 ईसवीकी बात है। णायकुमारचरिउकी रचनाके समय कृष्णराज III का ही शासनकाल था। महापुराणकी रचना कन्नू पिल्लईके एफेमेरिसके अनुसार (जसहरचरिउ द्वि. सं. की भूमिका पृ. 21 ) 11 जून 965 में समाप्त हो चुकी थी। लगता है इसके बाद मन्त्री भरतका निधन हो गया और उसका पुत्र नन्न महामन्त्री पदपर प्रतिष्ठित हुआ । 'णायकुमारचरिउ' में कविका उल्लेख है
सिरिकण्हरायकरयल-णिहिय असिजलवाहिणि दुग्गयरि धवलहरसिहरि-हय मेहलि पविउल मण्णखेडणयरि ।
काव्यके प्रारम्भमें सरस्वतीके प्रसादकी कामना करता हुआ कवि मान्यखेड नगरीको श्रीकृष्णराजकी हाथमें स्थित तलवाररूपी नदीसे दुर्गमतर बताता है और कहता है कि उसके धवलगृहके शिखरोंसे मेघकुल आहत हो उठते हैं। यहाँ कृष्ण और उनकी तलवारका पानी है, परन्तु कविसे काव्यरचनाका अनुरोध करनेवाला भरत नहीं है, उसकी जगह उसका पुत्र नन्न है। भरतके नामकी अनुपस्थितिका कारण उनका निधन ही हो सकता है। दक्षिणके राष्ट्रकूट वंश और मालवाके परमार वंशमें जो आक्रमण और प्रत्याक्रमणका सिलसिला चला, उसका अन्त परमार सीयक (श्रीहर्षदेव) ने 972 में मान्यखेडके ध्वंसके रूप में किया । यह ऐतिहासिक सत्य है। स्व. डॉ. हीरालाल जैनका कहना है कि पुष्पदन्तने मान्यखेडकी इस लूटको अपनी आंखों देखा था, और सम्भवतः उस ध्वंसका चित्रण जसहरचरिउकी अन्तिम प्रशस्तिमें किया है ! प्रशस्तिका वास्तविक अंश इस प्रकार है
"जणवयणीरसि दुरियमलीमसि कइणिदायरि दुस्सह दुहयरि पडिय कवालइ णर कंकाल बहु रंकालइ अइ दुक्कालइ पवरागारि सरसाहारि सण्हिं चेलिं . वर तंवोलि महु उवयारिउ
पुर्णिण पेरिउ गुणभत्तिल्लउ णण्णु महल्लउ
होउ चिराउसु वरिसउ पाउसु" -जनपद नीरस और दुरितोंसे मलिन है । कवियोंको निन्दा करनेवाला और असह्य दुखोंको करनेवाला जिसमें कपाल और नरकंकाल पड़े हुए हैं, अनेक दरिद्रोंके घर अत्यन्त अकाल फैला हुआ है।"
१. स्व. डॉ. जैनने दुग्गयर शब्दका मूल दुर्गम माना है। परन्तु दुग्गयर, दुर्गमतरसे बना है। व्युत्पत्ति होगी दुग्ग अ अर दुग्गय
→अरदुग्गयर । उक्त नगरी खाईसे घिरी होने के कारण दुर्गम थी, परन्तु तलवारवाहिनीसे दुर्गमतर हो उठी।
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महापुराण
मेरी विनम्र धारणामें यह जनपदके लोगोंकी संवेदनशून्यता, पापवृत्ति और अकालसे उत्पन्न होनेवाली गरीबी एवं विनाशका सामान्य कथन है। यह तो इस देशकी सनातन नियति है, वह महापुराणकी समाप्ति के समय थी। गोस्वामी तुलसीदास जब अपना रामचरितमानस समाप्त कर रहे थे तब भी वह थी। अतः उसका सम्बन्ध-सीयक द्वारा की गयी मान्यखेटकी लूटसे उत्पन्न विनाशसे जोड़ना तर्कसंगत नहीं है। जिस देशमें (विशेषतः दक्षिण में) भयंकर गरीबी रही हो, उसमें कोई कविको सम्मान और सम्पन्नतासे रखे, तो उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट करना उसका कर्तव्य हो जाता है । जैसा कि आगे कवि कहता है कि ऐसे विषम, अशान्त और मरणधर्मा समयमें नन्नने मुझे बड़े भवनमें रखा, सरस भोजन दिया, सुकुमार चिकने रेशमी वस्त्र और बढ़िया पान दिया, इस प्रकार उसने पुण्यप्रेरित होकर कविका उपकार किया-गुणोंका भक्त नन्न सचमुच महान् है, वह चिरजीवी हो, पावस खूब बरसे-4 1 3 । ( जसहरचरिउ )।
पुष्पदन्त ई. 559 से मान्यखेड नगरके शुभतुंग भवनमें महामन्त्री भरतके समयसे रह रहे थे, नन्नने भी उन्हें रखकर अपने पिताकी परम्पराका निर्वाह किया। सीयकके आक्रमणसे उत्पन्न परिस्थितिके कारण नहीं । पुष्पदन्तने राष्ट्रकूटोंकी राजधानी मान्यखेट को लुटते देखा था, यह उनकी इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है :
"दीनानाथधनं सदा बहुजनं प्रोफुल्ल-वल्लीवन, मान्यखेटपुरं पुरंदरपुरी-लीलाहरं सुन्दरम् । धारानाथनरेन्द्र-कोप-शिखिना दग्धं विदग्धं प्रियं, क्वेदानी वसतिं करिष्यति पुनः श्रीपुष्पदन्तः कविः ॥"
इसमें जहाँ एक ओर मान्यखेटको दीन-अनाथोंका धन-जनसंकुल, पुष्पित लता-वनवाला और इन्द्रपुरीकी लीलाका अपहरण करनेवाला बताया गया है, वहीं दूसरी ओर धारा नरेशको कोपज्वालामें ध्वस्त भी। कविके सम्मुख प्रश्न है कि वह अब कहाँ रहेगा ?
महापुराणकी कुछ पाण्डुलिपियोंमें इस श्लोकके प्रक्षिप्त होनेके कारण, महाकविके कालनिर्णयके विषयमें बहुत बड़ी समस्या खड़ी हो गयी थी। परन्तु डॉ. पी. एल. वैद्य ने उसे प्रक्षेप मानकर उसका हल कर दिया। मेरा अनुमान है कि 'जसहरचरिउ' की रचना समाप्त करने के कुछ समय बाद ही धारानरेशने मान्यखेटपर आक्रमण किया होगा, और तब कविके सम्मुख रहनेका संकट खड़ा हुआ होगा। नहीं तो 'जसहरचरिउ' में वह अवश्य इसका प्रत्यक्ष उल्लेख करते । इस प्रकार कविके दोनों आश्रयदाता भरत
और नन्न ( दोनों बाप-बेटे थे) राजपुरुष थे परन्तु, उन्होंने कविको पूरा सम्मान और अकारण स्नेह दिया जिससे वह वेसठ शलाका पुरुषों के चरित गूंथने के बाद णायकुमारचरिउ और जसहरचरिउकी रचना कर सके तथा एक ही आश्रयमें लगातार १३ वर्ष रहकर वह काव्य रचना करते रहे।
काव्यका उद्देश्य
क्रोधन संवत् ( 11 जून 965 ) आसाढ़ सुदी दसवींके दिन महापुराणको समाप्त करते हुए आजसे एक हजार वर्ष पहले विश्वके मंगलकी कामना करता हुआ कवि कहता है-"मेघ प्रचुर धाराओंसे बरसे, यह धरती अनेक धान्योंसे खूब पके, देश खुश हो, सुभिक्ष खूब बढ़े, लोगोंका व्यक्तित्व अच्छा हो, उनका दुहरा व्यक्तित्व दूर हो, भरतको शान्ति मिले कि जिसने अपने वचनका पूरी तरह निर्वाह किया है।" ( 102/4) काव्यके अनन्त श्रमके अनन्तर कविकी यही कामना है :
'इह दिव्वहु कव्वहु तणउ फलउ लहु जिणणाहु पयच्छउ सिरि भरहहु अरुहहु जहिं गमणु पुष्फयंतु तहिं गच्छउ ।"
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प्रस्तावना
- इस दिव्य काव्य-सृजनका फल जिन भगवान् मुझे यही दें कि जहाँ चक्रवर्ती भरत. भगवान्का गमन हुआ है, वहीं मेरा गमन हो ।
संसारमें दुःखके अनेक कारणों में सबसे बड़ा कारण है विषमताकी प्रतीति, जो चित्तकी अशान्तिका सबसे बड़ा कारण है । दुःखमें मानव चित्त अशान्त देखा हो जाता है परन्तु सुखमें वह इससे भी अधिक अशान्त रहता है । ऐसे लोग भी, जो सामाजिक, राजनीतिक या आध्यात्मिक दृष्टिसे ऊँचे पदोंपर हैं, मानसिक दृष्टिसे घोर अशान्त हैं ।
तुलसीदासने कहा है :
"अस विचार रघुवंस मनि हरहु विसम भवपीर"
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और अरहन्त
भवपीर, दुनियाकी पीड़ा विषमता है, विषमताजन्य यह पीड़ा समता के बोधसे ही दूर की जा सकती है । इसी प्रकार जैन कवियोंके चरितगानका उद्देश्य भी वही है जो तुलसीदासके रामचरित के गानका । रघुवंस भूसन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं । कलिमल मनोमल धोइ बिनु श्रम रामधाम सिधावहीं ॥
काव्य सम्बन्धी विचार
कवि पुष्पदन्त सरस्वतीकी वन्दना करते हुए जो कुछ कहते हैं, एक तरहसे वह उसका काव्यके प्रति अपना दृष्टिकोण है । कविने लिखा है - "देवी सरस्वती हर्षजनक सुन्दर और मधुर बोलती है, वह अपने कोमल पद- विलास के साथ रखती है, वह अत्यन्त प्रसन्न गम्भीर और स्वर्ण शरीरवाली है । चन्द्ररेखाके समान कान्तिमय और कुटिल है, अलंकारोंसे युक्त वह छन्दके अनुसार चलती है । वह अनेक शास्त्रों के गौरवको धारण करती है, वह चौदह पूर्वी और बारह अंगोंसे परिपूर्ण है । सात भंगिमाओंवाली वह जिनवरके मुखकमलसे पैदा हुई है । ब्रह्माके मुखमें निवास करनेवाली, शब्दसे उत्पन्न, कल्याणकी विधात्री और सौन्दर्य (शोभा) की खान है । महायोद्धाकी तरह सुन्दर पदयोजनावाली है, जो महाकवियोंको यश प्रदान करनेवाली है ।" पुष्पदन्तका कहना है कि काव्यका आश्रय महान् होना चाहिए, इससे उसका महत्त्व बढ़ जाता है, उसी प्रकार, जिस प्रकार कमलिनीपर स्थित पानीकी बूँदें मोती-सी चमकती हैं । जो अनुभूति महान् आश्रयको लेकर चलती है, वह पूर्ण गौरव धारण करती है । महान् आश्रयको प्रबन्ध-काव्यका विषय बनाने में एक सुविधा यह भी है कि उसमें नाना रसोंकी अभिव्यक्तिका अवसर मिल जाता है ।
पुराण, महापुराण और चरित काव्य
पुष्पदन्त काव्य के अन्त में स्पष्ट रूपसे स्वीकार किया है कि उसने भरतके अनुरोधपर नाना रसभावसे युक्त पद्धडियामें महापुराणकी रचना की । इससे स्पष्ट है 'पद्धडिया' उस युगमें अपभ्रंश काव्योंकी विशेष लोकप्रिय शैली थी, इसीलिए उन्होंने उसे अपनाया । वह मूलतः कवि थे, और जैनधर्म उन्होंने बादमें स्वीकार किया था । अतः यह स्वाभाविक ही था कि महापुराणको काव्यका रूप देते हुए वे उसमें परिवर्तन करते । आर्हती वाणीसे क्षमा माँगते हुए वह लिखते हैं- " गणधरोंके द्वारा निर्दिष्ट इस काव्यकी रचना करते समय मुझ बुद्धि-विहीन ने जिनेन्द्रके मार्गमें जो कुछ कम अधिक कहा है, उसके लिए अर्हत् वचनोंसे उत्पन्न होनेवाली आदरणीय सरस्वती ( जिनवाणी ) मुझे क्षमा करे ।" सैद्धान्तिक दृष्टिसे महापुराण काव्यके अधिकांश नायक कामदेवके अवतार हैं, जो कामचेतना ( रागचेतना ) का संहार करनेवाले
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महापुराण
है। परन्तु कामचेतनाका संहार करना इतना आसान नहीं है। खासकर काव्य प्रक्रियामें काम-संहारकी । अभिव्यक्ति और भी कठिन है। क्योंकि रागचेतनाको जबतक अनुभूतिके स्तरपर संप्रेषणीय नहीं बनाया जाता, तबतक उसकी व्यर्थता या नश्वरतामें-से विकसित होती हुई वीतरागता अनुभतिका विषय नहीं बन सकती। 'महापुराण' कई चरित काव्योंका संकलन है, प्रत्येक चरित काव्य अपने में स्वतन्त्र है। उनके सभी नायक प्रतिष्ठित, सम्पन्न और कुलीन हैं। अन्य महापुराणोंकी तरह पुष्पदन्तका महापुराण भी कई चरित काव्योंकी मणिमाला है। इसमें मुख्य रूपसे तीर्थकर आदिनाथका चरित महत्त्वपूर्ण और आकारमें बड़ा है । यह उसका पहला खण्ड है ।
पुष्पदन्तके पहले संस्कृतमें इस प्रकारके प्रबन्ध-काव्यको पुराण-काव्य कहनेकी प्रथा थी। आदिपुराण, पद्मपुराण, हरिवंशपुराण इत्यादि । परन्तु विमलसूरिने अपने प्राकृत काव्यको 'पद्मपुराण' न कहकर पउमचरिअ कहा, जब कि अपभ्रंश कवि स्वयंभूने 'पउमचरिउ' । आचार्य गुणभद्रके अनुकरणपर पुष्पदन्तने त्रेसठशलाकापुरुषोंके चरित मणियोंसे महापुराणरूपी महाहार जिनभक्तिके धागेसे गूंथकर भक्तजनोंके लिए समर्पित किया है। 'महापुराण' से कविका अभिप्राय क्या था, इसके बारेमें वह भरतके प्रश्नके उत्तरमें ऋषभनाथसे कहलवाता है
"महापुराण वह है जिसमें त्रिलोक, देश, नगर, राज्य, तीर्थ, तप, दान, शुभ प्रशस्त आठ स्थानोंका कथन हो । ( 2 1 1)। यहाँ ऋषभने महापुराणको जिन विशेषताओंका उल्लेख किया है, वे सब पुष्पदन्तके इस नाभेयचरिउमें है। फिर भी वह अपने काव्यको नाभेय पुराण न कहकर नाभेयचरित कहता है। परन्तु उनके संकलनको महापुराण कहता है। इससे स्पष्ट है कि अपभ्रंश कवियोंका अपने काव्यको चरितकाव्य या महापुराण कहने में कोई विशेष आग्रह नहीं है। ऐतिहासिक दृष्टिसे भारतीय काव्यमें प्रबन्ध काव्यकी दो धाराएँ है-(१) पौराणिक चरितोंपर लिखे गये काव्य, (२) सांसारिक व्यक्तियोंके चरितोंपर लिखे गये काव्य । बुद्ध और महावीर यद्यपि ऐतिहासिक व्यक्ति हैं, राम-कृष्ण पौराणिक व्यक्ति है।
फिर भी अन्य भारतीय राजाओंकी तुलनामें उनके चरित लोकोत्तर चरित हैं । बुद्ध और महावीरका प्रभाव आध्यात्मिक है। आध्यात्मिक उपलब्धियों के कारण ही उनके व्यक्तित्वकी छाप भारतीयोंके हृदयपर है। इसलिए प्रसिद्ध संस्कृत कवि अश्वघोषने बुद्धचरित लिखकर चरित काव्यकी नींव डाली। इसके विपरीत कालिदासने. रघुवंशकी रचना की । जिसमें रघुवंशकी कई पीड़ियोंके राजपुरुषोंका वर्णन है । लेकिन बाणभट्टने हर्षचरित लिखकर, अश्वघोष द्वारा स्थापित चरितकाव्यकी परम्पराको तोड़ दिया। उत्तर राजपूत कालमें रासो काव्य-परम्परा चली, जिसके प्रवर्तनका श्रेय चन्दवरदायीको है। ये रासो काव्य उस अवट्ठ भाषामें है, जो अपभ्रंशकी परवर्ती विकास है, कुछ लोग इसे उत्तरकालिक अपभ्रंश भी कहते हैं। इन रासो काव्योंके नायक समकालीन राजन्य वर्गके शासक हैं, जिन्हें सामन्ती चरित्रके ह्रासोन्मुख अवशेषके रूपमें स्वीकार किया जाना चाहिए। उनमें जो ऐश्वर्य और ओज है, वह कवियोंका दिया हुआ है। शैलीके विचारसे ये रासो काव्य पद्धड़िया शैलीकी तुलनामें बहु छन्दवाली शैलीको अपनाते हैं, हालांकि उसमें बहुत-से छन्द प्राकृत परम्पराके भी हैं । अपने समयके प्रबन्ध-काव्य शैलियोंको स्पष्ट करते हुए संस्कृत समीक्षक राजशेखरका कहना है कि इतिहास भी पुराणका एक भेद है। उसके दो भेद है : परक्रिया और पुराकल्प।
"परक्रिया पुराकल्प इतिहासमतिद्विधा .
स्यादेकनायका पूर्वा द्वितीया बहुनायकाः ।" परक्रियामें एक नायक प्रधान होता है-जैसे रामायण । पुराकल्पमें अनेक नायक होते हैं, जैसे महाभारत इस दृष्टिसे रघुवंश पुराकल्प है जबकि बुद्धचरित परक्रिया। पुराणकी परिभाषा राजशेखरने इस प्रकार की है
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प्रस्तावना
"सर्गः प्रतिसंहारः कल्पो मन्वतराणि वंशविधिः ।
जगतो यत्र निबद्धं तद्विज्ञेयं पुराणमिति ।" (१) व्यापक सृष्टि, (२) अवान्तर सृष्टि, (३) प्रलय मन्वन्तर और वंश वर्णन ।
ऊपर ऋषभदेवके हवाले पुष्पदन्तने पुराणकी जो परिभाषा दी है, उसकी कई बातें इससे मिलतीजुलती है। राजशेखरका यह कथन महत्त्वपूर्ण है कि इतिहास भी पुराणका एक भेद है। रामायण और महाभारतको देखते हुए राजशेखरका कथन सटीक है। जैन चरित काव्योंका विकास भी पुराणोंसे हुआ। पुष्पदन्तका महापुराण केवल इस अर्थमें पुराकल्प है क्योंकि उसमें कई चरित-काव्योंका संकलन है, परन एक दूसरेमें गुंथे हुए नहीं हैं। यह सच है कि रासो काव्यों में अपभ्रंश चरित काव्योंकी पद्धड़िया पद्धतिका अनुसरण नहीं है, परन्तु रामचरित मानस और पद्मावतमें उसका परवर्ती विकास स्पष्ट रूपसे देखा जा सकता है । रासो काव्योंके नायकोंकी प्रशंसासे कुढ़कर ही तुलसीदासने लिखा है
__ "कीन्हें प्राकृत जन गुणगाना
सिर धुनि लाग गिरा पछिताना" अवतारी रामकी लोकलीलाओंके कारण लोगोंको उनके व्यक्तित्व में प्राकृत जनका भ्रम न हो जाये इसके लिए अपने समूचे काव्यमें तुलसीदास सावधान करते चलते हैं। श्रीमद्भगवद्गोताके अनुसार अवतार धर्मकी स्थापनाके लिए होता है जबकि जैनोंका विश्वास है कि लोककल्याणकी भावनासे पूर्व जन्ममें कोई जीव तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध करता है, फिर स्वर्गसे च्युत होकर तीर्थकरके रूपमें अवतरित होता है, तीर्थकर यद्यपि पूर्ण मनुष्य हैं, परन्तु पुराणोंमें उनका जो वैभवसे पूर्ण और अतिरंजित वर्णन मिलता है, वह उन्हें अवतारी बना देता है। तीथंकरोंसे कुछ हलके स्तरपर बलभद्रों, नारायणों और प्रतिनारायणोंकी कल्पना की गयी है, इन सबके चरितों को आधार बनाकर ही अपभ्रंशके जैन चरित-काव्य रचित हैं, जिन्हें कथाकाव्य भी कहा जा सकता है। धनपालकी 'भविसयत्तकहा' को कुछ आलोचकोंने चरित-काव्यसे भिन्न माना है । परन्तु शिल्प-शैली और विषयको दृष्टिसे ऐसा मानना किसी भी प्रकार उचित नहीं। यहाँ एक बात विचार कर लेना भी प्रसंग प्राप्त है । कुछ विद्वानोंकी धारणा है कि अपभ्रंश जैन चरित काव्योंमें केवल उनके नायकोंके दीक्षा, तप और मोक्षका वर्णन है, वस्तुतः ऐसा नहीं है। पुष्पदन्तने प्रत्येक सन्धिके अन्तमें लिखा है-"सठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त इस महापुराण में"। यहां अलंकारका अर्थ है भौतिक ऐश्वर्य; और गुणका अर्थ है आध्यात्मिक ऐश्वर्य । इस प्रकार उनके जीवनमें प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनोंका समन्वय है।
अपभ्रंश कथा-काव्य और हिन्दी प्रेमाख्यानक काव्य एक शोध प्रबन्धका शीर्षक है "अपभ्रंश कथा-काव्य और हिन्दी प्रेमाख्यानक," इससे यह भ्रम हो सकता है कि अपभ्रंश चरित-काव्यसे अपभ्रंश कथाकाव्य अलग है, और उनका हिन्दी प्रेमाख्यानक काव्यसे सम्बन्ध है। एक तो तात्त्विक दृष्टिसे अपभ्रंशमें चरित-काव्य और कथाकाव्यमें अन्तर नहीं है, दूसरे प्रेमाख्यानक काव्यसे तथाकथित अपभ्रंश काव्यका कोई सम्बन्ध नहीं। सम्भवतः यह भ्रम प्रेमकाव्य और प्रेमाख्यानक काव्यमें अन्तर न समझने के कारण उत्पन्न हआ प्रतीत होता है। प्रेमकाव्य प्रेमकथापर आधा विशुद्ध लौकिक काव्य है। इस प्रकारके लोकप्रेमका वर्णन अपभ्रंश काव्योंमें भी है। परन्तु प्रेमाख्यानक काव्य वे सूफी काव्य हैं जिनमें प्रेमकहानीको माध्यम बनाकर, आध्यात्मिक प्रेमकी अभिव्यक्ति की जाती है । इश्कमजाजीसे इश्कहकीकीको पानेका प्रयास किया जाता है। सूफी-साधनामें सूफियोंका यह दर्शन है कि सृष्टि खुदाका जलवा है, जरे-जमें उसका नूर व्याप्त है, अतः दुनियावी प्रेमको प्रतीक मानकर वियोगकी गहन
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महापुराण अनुभूतिके द्वारा काव्यमें उसका मानसिक प्रत्यय ही 'प्रेमाख्यानक' काव्य है। उसमें प्रेमाख्यान एक साधन है, जिसमें प्रसंग या प्रकृतिके प्रत्यक्ष संकेतों द्वारा अज्ञातके प्रति प्रेमका प्रत्यय कराया जाता है। इस प्रकारको प्रेमसाधना भी जैनदर्शन-जैसे वीतराग-दर्शनपर आधारित अपभ्रंश चरित-काव्योंमें कल्पना तक नहीं की जा सकती । मुझे विश्वास है कि नव-अनुसन्धानकर्ता ऊपरी-ऊपरी तुलनाके बजाय गहराईसे काव्यगत प्रवृत्तियों
और प्रेरणाओंकी छानबीन करेंगे। जहाँ तक पुष्पदन्तका प्रश्न है, उन्होंने स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि उनका यह नाभेयचरित धर्मके अनुशासनके आनन्दसे भरा हुआ है। राग संवेदनाओंका उनके काव्यमें चित्रण है, परन्तु उसका उद्देश्य अज्ञातके प्रति राग संवेदना पैदा करना नहीं है ।
एक कविके रूपमें पुष्पदन्तने राजसत्ताकी खुली और कड़ी आलोचना की है। परन्तु यह भी नियतिका क्रूर व्यंग्य समझिए कि उन्हें राजपुरुषके आश्रयमें रहना पड़ा। एक जगह वर्णन है कि राजलक्ष्मीसे क्या, जहाँ चामरोंकी हवासे गुण उड़ा दिये जाते हैं। सज्जनता अभिषेक-जलसे धुल जाती है। राजलक्ष्मी दर्प और अविवेकसे भरी हुई है, मोहसे अन्धी और स्वभावसे दूसरोंकी हत्या करनेवाली है, सप्तांग राज्यके भारसे भरित है, पिता और पुत्र दोनोंके साथ एक साथ रमण करती है, कालकूटसे जन्मी है । वह मुखोंमें अनुरक्त है और विद्वानोंसे विरक्त है। अपने समयके राजन्यवर्गको परिभाषित करते हुए बाहुबलि कहता है
___ "जो बलवान् चोर है वह राजा है, दुर्बलको और प्राणहीन बनाया जाता है। पशुके द्वारा पशुके मांसका अपहरण किया जाता है और मनुष्यके द्वारा मनुष्यका धन । रक्षाकी इच्छाके नामपर लोग एक समूह बनाते हैं, और किसी एक राजाकी आज्ञाका पालन करते हुए निवास करते हैं। मैंने तीनों लोकोंको देख लिया है कि सिंह कभी भी झुण्ड बनाकर नहीं रहते। है दूत, मुझे यही अच्छा लगता है कि मान भंग होने पर मर जाना अच्छा; जिन्दा रहना अच्छा नहीं ?"
"जो वलवंतु चोरु सो राणउणिव्वल पुण किज्जइ णिप्पाणउ हिप्पइ मिगहु मिगेण हि आमिसु हिप्पइ मणुयहु मणुएण वसु रक्खाकंखह जूहु रएप्पिणु एक्कहु केरी आण लएप्पिणु ते णिवसंति, तिलोइ गविट्ठउ सीहह केरउ वंदु ण दिदउ"
यह कथन यद्यपि बाहुबलिका है जो जैन पौराणिक काल गणनाके अनुसार करोड़ों वर्ष पूर्व हुए। फिर भी वास्तविकता यह है कि उसमें कविके समयकी सामन्तवादी मनोवृत्तिका चित्रण है। यह युग (१०वीं सदी) स्वदेशी सामन्तवाद (आभिजात्यवाद ) के ह्रासका युग था। राज्य हथियानेके लिए देशमें व्यापक मारकाट और लूटपाट मची हुई थी। बाहुबलि अपने पिताके द्वारा दिये गये राज्यसे सन्तुष्ट है, परन्तु उसका सन्तोष उस समय आक्रोशमें बदल जाता है कि जब दूत उससे बड़े भाई भरतकी अधीनता मान लेनेका प्रस्ताव करता है, वह कहता है
"केसरि केसरु वरसइ थणयलु जो हत्थेण छिवइ सो केहउ
सुहडहु सरणु मज्झु धरणीयलु किं कियंतु कालाणलु जेहउ"
सिंह की अयाल, वरसतीका स्तन, सुभटकी शरण और मेरी धरती, जो हाथसे छूता है, मैं उसके लिए कालानल और यमके समान हूँ। पुष्पदन्तके समय आभिजात्य वर्गमें तीन ही बातें प्रमुख थीं-स्त्रीकी कुलीनता, भूखण्ड और शरणागतकी रक्षा ।
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प्रस्तावना
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"तगह
रागचेतना
'नाभेयचरिउ' से यदि धर्मके अनुशासनको निकाल दिया जाये, तो पूरा काव्य रागचेतनासे भरा हुआ प्रतीत होगा। यह रागचेतना विशुद्ध मानवी रागचेतना है। रागचेतनाका अभिप्राय यहाँ मानवी प्रणयसे है, जिसके मूलमें रति है। रतिकी व्यंजना, व्यक्तिगत दृष्टिसे यद्यपि सम विषम है, परन्तु सामाजिक दृष्टिसे एकदम विषम है। पुष्पदन्त भारतीय सामन्तवादके क्षयकालमें जन्मे थे, जिसमें बहुपत्नीप्रथा विकृतरूपमें प्रचलित थी। सत्ताके विस्तार के साथ, अनेक स्त्रियोंका संग्रह, आज भले ही बुरा माना जाये, परन्तु सामन्तवादी युगमें आध्यात्मिक दृष्टिसे इसका औचित्य यह कहकर सिद्ध किया जाता था कि यह पुण्यका फल है । 'नाभेयचरिउ' में कुछ स्वतन्त्र आख्यान हैं जिनके नायक रागचेतनाके एक-एक क्षणको भोगनेके बाद ही दीक्षा ग्रहण करते हैं: संयोगकी और भी लीलाएँ देख लीजिए :
'काहि वि विरहसिहि पउलिउ पलु धवलुवि कमलु दुवइ णीलुप्पलु सहइ कामु मह समयागमणे
णिहय कावि पिय समयागमणे मउलिय फुल्लिय मल्लिय काणणि मंडणु देइ पुरंधि ण काणणि णिग्गय-पल्लव-णवसाहारहु
मुयइ तित्ति विरहिणि साहारह पई मेल्लेप्पिणु लवइ व कोइल सुहयत्ते किर भूसइ को इल मुइमरु परिमल मिलिय सिलीम्मुह जे ते णं कंदप्प सिलिम्मुह का वि चवइ पिय हवं तुह रत्ती अज्जु गइय महु दुक्खें रत्ती ॥ का वि भणइ पिय करि केसग्गहु वियलउ मालइ-कुसमपरिग्गहु । का वि कहइ लइ चुंवहि वयणउं अवरु म देहि कि पि पडिवयणु' घत्ता-'णउ मेल्लइ कवि बोल्लइ म करहि काई वि विपिउ"
घरु वित्तु वि णिय चित्तु वि सयलु वि तुज्झु समप्पिउ ॥ किसीका मांस विरहकी ज्वालासे पक जाता है और सफेद कमल नीला हो जाता है, वसन्तका समय आ जानेपर भी वह कामको सहन करती है, और प्रियका समय आ जानेपर आहत हो उठती है। वनमें बन्द मल्लिका खिल उठती है परन्तु, वह अपने कानमें उसका अलंकार धारण नहीं करती। नव आम्र वृक्षोंमें पल्लव निकल आये हैं, परन्तु, विरहिणी सहकारमें तृप्त होना छोड़ देती है : पतिको छोड़कर वह कोयलकी तरह बोलती है, आहत होनेपर कौन धरती को अलंकृत करता है। मुख पवनके सौरभसे जो भ्रमर इकट्ठे हो रहे थे, कामदेवके बाणोंके समान थे, कोई कहती है-हे प्रिय, मैं तुममें अनुरक्त है, आजकी रात, दुःखमें कटी है । कोई कहती है-हे प्रिय, तुम मेरे बालोंको बाँध दो । मेरा मालतीके फूलोंसे बँधा हुआ चूड़ापाश गिर रहा है । कोई कहती है, 'लो मेरा मुँह चूम लो और किसी दूसरेको प्रति वचन मत दो। कोई उन्हें नहीं छोड़ती है, और कहती है कि कुछ भी बुरा मत करना । मैंने अपना घर, धन और चित्त सब कुछ तुम्हें सौंप दिया।
कामदेव बाहुबलिके प्रति नगर-वनिताओंके ये उद्गार, हमें भी प्रसिद्ध हिन्दी कवि सूरदासकी गोपियोंकी याद दिला देते हैं, कि जब वे कृष्णकी वंशी की टेर सुनकर, आर्यपथकी जरा भी परवाह न करते
हैं। इसमें सन्देह नहीं यह स्पष्टतः आर्यमर्यादाका उल्लंघन था। परन्ता सामाजिक दष्टिसे जो मर्यादाएँ उचित होती हैं आध्यात्मिक दृष्टिसे वे कभी-कभी त्याज्य हो उठती हैं। यहाँ गोपियाँ, आत्माकी प्रतीक हैं, और कृष्ण ब्रह्म के। दोनों की लीलाके गानका उद्देश्य मनुष्य रागचेतनाको भावनाके स्तर पर आन्दोलित कर व्यापक बनाना है। कृष्णकी यह विशेषता है कि वे लीलाओंमें भाग लेते हुए भी तटस्थ हैं।
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महापुराण
बाहबलिको देखकर नगर-वनिताएँ अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त करती हैं, पर वह स्वयं तटस्थ है। यह रागचेतनाके आलम्बनका चित्रण है, इसके आधारपर यह नहीं कहा जा सकता कि नगर-वनिताएं हीन चरित्र की थीं। हिन्दी कवि जायसी रतनसेन और पद्मावतीके जिस प्रेमाख्यानको अपने काव्य 'पद्मावत' का आधार बनाते हैं उसका अपभ्रंश कथा-काव्योंके उद्देश्य और रचना प्रक्रियासे कोई सम्बन्ध नहीं ।
जिनभक्ति
'नाभेयचरित' का सबसे प्रमुख स्वर है 'जिनभक्ति' । जब कवि कहता है कि उसका यह चरित-काव्य धर्मके अनुशासनसे भरा है, तो इस धर्म अनुशासनमें भक्तिका स्थान महत्त्वपूर्ण है। यह भक्ति कविका अपना आविष्कार नहीं है, वह परम्परासे प्राप्त है फिर भी उसमें अभिव्यक्तिकी मौलिकताके साथ कविकी निजी अनुभूति भी है । मंगलाचरण और स्तुतिके अवतरणोंका उल्लेख न करते हुए-यहाँ केवल कविकी अनुभूतिसे सम्बद्ध भक्तिके प्रसंगोंका विचार किया जायेगा। शेषनाग धरणेन्द्र, "आदिनाथके विभिन्न नामोंकी व्याख्या करता हुआ कहता है -
'भव विणासी भवो सिष पयासी सिवो चित्ततमहोइणो दोस विजयी जिणो पावहारी हरो तं पराणं परो देव देवो तुम ताहि दीणं मम णिग्गुणो णिद्धणो दुम्मई णिग्घिणो परहरावासओ गहिय परगासओ माणो मेच्छहो रोहिओ रिच्छओ जाय ओ हे भवे णारओ रउरवे तुम्ह पडिकूलिमा जा कया सा कमा
एम भुत्ता भए आसि काले गए ॥' 8/8 हे आदि जिन, आप भव ( संसार ) का नाश करनेवाले भव है। शिवको प्रकाशित करनेवाले शिव हैं, चित्तके अन्धकारके लिए सूर्य है, दोषोंको जीतनेवाले जिन है, पापोंका हरण करनेवाले हर हैं, तुम श्रेष्ठोंमें श्रेष्ठ हो, हे देवदेव, मुझ दीनको बचाओ, निर्गुण निर्धन दुर्मति निघृण, मैं, पर गृहमें निवास करनेवाला, और दूसरोंका अन्न खानेवाला । मैं जन्मान्तरोंमें मनुष्य म्लेच्छ रोहित, और रीछ हुआ है, मैं संसार और रौरव नरकमें गया हूँ। हे देव, मैंने जो तुमसे प्रतिकूल आचरण किया है, उसका फल मैंने पा लिया है बीते समयमें।
धरणेन्द्र पाताल लोकका स्वामी है, और वह ऋषभके दोनों सालोंको विजयार्द्ध पर्वतकी समद्ध श्रेणियां प्रदान करता है। ऐसी स्थितिमें उसका यह कहना कि मैं दूसरेके घरमें रहता हूँ, दूसरेका दिया खाता हूँ, "तो यह कविके जीवनका निजी सन्दर्भ है, जिसे वह धरणेन्द्रके मुखसे कहलाता है। इस समय कवि मन्त्री भरतके घरमें रह रहा है।"
दार्शनिक दृष्टिसे जैनधर्ममें भक्तिका महत्त्व दूसरे स्थान पर है, क्योंकि सृष्टि अनादि निधन है, जीव स्वयं अपना कर्ता-भोक्ता है, तीर्थकर उसमें कुछ नहीं कर सकते। इस तथ्यसे जैन दार्शनिक परिचित थे, फिर भी यदि वे भक्ति करते हैं तो उसका कारण यह है कि ऐसा करना उनका स्वभाव है !
जो पई सेवइ तहु होइ सोक्खु तुह पडिकूलहु संभवइ दुक्खु तुहुं पुणु दोहिं मि मज्झत्थभाउ इह एहउ फुडु वत्थुहि सहाउ
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प्रस्तावना
गिदिज्जइ रवि पित्ताहिएहि
चंदु वि वाएण विवाइएहिं ते दोण्णि वि एयहं किं करंति ससहावें णहयलि संचरंति ससि सूरोसहि संघाउ जेम
भुवणो वयारि जिण तुहं मि तेम । सरु दूसिवि जो ण वि पियइ वारि
तहु तण्हइ णिवडइ तिव्वमारि" जो रसइ तासु तिसणासु सज्जु सरवरहु ण एण ण तेण कज्जु" जिह 'गरुलमंतु' गरलंतयारि
तिह तुहुं वि सहावें दुरियहारि ॥"10/1 इन्द्र कहता है-“हे स्वामी, जो तुम्हारी सेवा करता है, उसे सुख होता है, तुमसे जो प्रतिकूल है उसको दुःख होता है । परन्तु आप दोनोंमें मध्यस्थ हैं । इस संसारमें यही वस्तुका स्वभाव है ।
पित्तकी अधिकतावाले सूर्यको निन्दा करते हैं और वायुविकारसे पीड़ित लोग चन्द्रमा की । लेकिन ये दोनों ( सूर्य और चन्द्रमा) इनका क्या करते है ? वे तो स्वभावसे आकाशमें विचरण करते हैं । चन्द्रमा और सूर्यके औषधि-संघातकी तरह, हे जिन आप भुवनका उपकार करते हैं। लेकिन जो सरोवरको दोष लगाकर उसका पानी नहीं पीता वह प्याससे तड़पकर मर जाता है। परन्तु जो पानी पी लेता है, उसकी प्यास शीघ्र मिट जाती है। सरोवरका न इससे मतलब और न उससे । जिस प्रकार गरुड़मन्त्र स्वभावसे विषका अपहरण करता है, उसी प्रकार हे जिन, आप स्वभावसे पापका अपहरण करनेवाले हैं।" इस प्रकार यद्यपि जिन भगवान्, सुख-दुखके प्रति मध्यस्थ हैं। उन्हें दुनियावालोंके सुख-दुखसे कुछ नहीं लेना-देना, फिर भी यदि उनके प्रति अनुकूलता रखनेवाले सुख और प्रतिकूलता रखनेवाले दुःख पाते हैं, तो ऐसा नहीं है कि इससे उनकी मध्यस्थता भंग होती है, और ऐसा भी नहीं है कि लोगोंको सुख-दुखकी सापेक्ष अनुभूति नहीं होती। कवि सूर्य-चन्द्रमा और सरोवरके उदाहरणोंके द्वारा दोनोंमें (आराध्यकी तटस्थता और आराधककी सुख-दुख प्राप्तिके बीच) तारतम्यका सूत्र स्थापित करता है। यह सूत्र है स्वभाव । चन्द्रमासूर्य और सरोवरका काम है प्रकाश और पानी देना; इसके अतिरिक्त यदि लोग उनसे कुछ और ग्रहण करते हैं तो यह उनका स्वभावगत दोष है। प्रश्न है कि जब मनुष्यका स्वभाव ही उसके सुख-दुखके लिए उत्तरदायी है तो फिर जिनवरकी भक्ति करनेसे क्या लाभ ? स्वभावकी भक्ति करनी चाहिए? बात ठीक है ? स्वभावकी भक्तिके लिए भी उसकी पहचान जरूरी है। जिनवरका स्वरूप आत्माके इसी सहज स्वभावको पहचान कराता है। यहाँ सुखका तात्पर्य आत्म-सुख है ? जिनभक्तिसे भौतिक सुखकी आशा करना व्यर्थ है। जिनेन्द्रका स्वभाव पापोंका अपहरण करना है, पापोंके अपहरणका अर्थ है रागचेतनासे अलिप्तता। जब व्यक्ति रागचेतनासे दूर होता है तो उसकी पुण्य-पापकी भौतिक इच्छाएँ स्वतः शान्त हो जाती हैं और वह आत्माके सहज स्वरूपको जान सकता है ? इस प्रकार भक्ति-सहज आत्म-स्वरूपकी पहचानका निमित्त कारण है। पुत्र, भरत चक्रवर्ती, अपने पिता ऋषभ जिनकी भक्ति करता हुआ कहता है कि जीवनकी सार्थकता जिनेन्द्रभक्तिमें है।
जय भासिय एयाणेय भेय जय णग्ग णिरंजण णिरुवमेय सकमत्थई कम कम लाइं ताई तुह तित्थु पसत्थु गयाइं जाई णयणाई ताई दिट्ठोसि जेहिं सो कंटु जेण गायउ सरहिं ते घण्ण कण्ण जे पई सुणन्ति ते कर जे तुइ सेसणु करंति ॥ ते णाणवन्त जे पई मुणन्ति ते सुकइ सुयण जे पई थुणन्ति तं कन्वु देव जं तुज्झु रइउ सा जीह जाइ तुह गाउं लइउ तं मणु जंतुह पयपोम लोणु तं धणु जं तुह पूयाइ खीणु । तं सीसु जेण तुहुँ पणविओसि ते जोइ जेहिं तुहु झाइयोसि ।
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महापुराण
तं मुहं जं तुह संमुइउं थाइ विवरंमुहं कुच्छिय गुरुहु जाइ
तेल्लोक्क ताय तुहं मज्झु ताउ धण्णेहिं कहिं मि कह कह विणाउ । 10/7_ एकानेक भेदोंको बतानेवाले आपकी जय हो; हे नग्न निरंजन और अनुपमेय आपको जय हो; वे ही चरणकमल है जो आपके प्रशस्त तीर्थ तक जाते हैं ? वे ही नेत्र सफल हैं जिन्होंने आपको देखा है; वही कण्ठ कण्ठ है जिसने आपका गान किया है । वे ही कान धन्य हैं जो आपको सुनते हैं। वे ही हाथ हाथ हैं, जो आपकी सेवा करते हैं। वे ही ज्ञानी हैं जो आपको गुनते हैं, वे ही सुजन कवि हैं जो आपकी स्तुति करते हैं; हे देव, वही काव्य है जो आपके लिए रचित है, वही जीभ है जिसने तुम्हारा नाम लिया, वह मन है जो तुम्हारे चरण कमलोंमें लीन है। वही धन है जो तुम्हारी पूजामें क्षीण है। वही शिष्य है जिसने तुम्हें प्रणाम किया है; वे ही योगी हैं जिन्होंने तुम्हारा ध्यान किया है। वही मुख है जो आपके सम्मुख स्थित है । गुरुसे विमुख मुख कुत्सित हो जाता है।
हे त्रिलोकपिता, तुम मेरे पिता हो; मैं धन्य हूँ कि किसी प्रकार आपका नाम ले पाता हूँ ? 'धण्णे हिं' की जगह, धण्णों हं, पाठ उचित है।
इस प्रकारके उद्गार, यद्यपि पुष्पदन्तके पूर्व मिलते हैं, परन्तु यहाँ इनका उल्लेख, महापुराणमें वणित भक्तिके समग्र स्वरूपको देखनेके लिए है।
जिनके नामकी महिमा बताता हुआ भरत चक्रवर्ती कहता है :
"हे आदिजिन, आप सिद्ध, मन्त्र और सिद्धौषधि हो, तुम्हारा नाम लेनेसे सांप नहीं काटता; आपके नामसे मतवाला हाथी भाग जाता है। आपके नामसे आग नहीं जलाती; शत्रुसेना अस्त्ररहित होकर डर जाती है, तुम्हारा नाम लेनेसे शत्रुओंको सन्तुष्ट करनेवाली शृंखलाएं टूट जाती हैं। तुम्हारे नामसे नर समुद्र तर जाता है, और क्रोध और दर्पकी ज्वाला शान्त हो जाती है, हे केवल किरण रवि, तुम्हारे नामसे रोगसे पीड़ित नोरोग हो जाते हैं।" 10/8
ये उद्गार आराध्य की महिमा और लोकोत्तर महिमामूलक विश्वास पैदा करने के लिए है, यह विश्वास आत्म-विश्वासका जनक है, यही वह विश्वास है जो व्यक्तिको शक्ति, उत्साह और प्रेरणा देता है। छोटे छन्दमें एक स्तुति देखिए :
जय सयल भुवणयल। मल हरण इसि सरण । वर चरण समधरण । भव तरण जरमरण।
परि हरण जय वरुण । 1/37 प्रकृतिचित्रण
प्रकृतिचित्रणके स्वरूप और उसके प्रकारों के विषयमें हिन्दी आलोचकोंकी धारणा भ्रमपूर्ण है। काव्यका मुख्य उद्देश्य मनुष्यकी अनुभूतियोंको अभिव्यक्त करना है। प्रकृति भी मनुष्यकी अनुभूतियोंको प्रभावित करती है। कभी प्रत्यक्ष रूपमें और कभी अप्रत्यक्ष रूपमें। कभी वह, सीधे भावोंको जन्म देती है, और कभी उत्पन्न भावोंको संचरित करती है। वैसे तो मनुष्य प्रकृतिकी गोदमें खेल-कूदकर बड़ा होता है, लेकिन जहाँ तक काव्यका सम्बन्ध है, मनुष्य और प्रकृतिको जोड़नेवाला तत्त्व है 'समय' । समयके विभिन्न प्रभाव और प्रतिक्रिया प्रकृतिमें विविध दृश्योंकी रचना करते हैं और मनुष्य-हृदयमें विविध भावोंकी । समयका यह प्रभाव ही कविके भावसे प्रकृतिके दृश्यको जोड़ता है। उक्त कारणोंसे प्रकृतिके दो रूप स्पष्ट है-एक आलम्बन
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प्रस्तावना
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और दूसरा उद्दीपन । कभी-कभी यथातथ्य और अलंकृत रूपमें भी प्रकृतिका चित्रण होता है। अलंकार या नारीकरण रूपमें प्रकृतिचित्रण, प्रकृतिका वर्णन नहीं माना जा सकता। महापुराणमें देशको भौगोलिक स्थितिके वर्णनके साथ प्रकृतिका अलंकृत और यथातथ्य वर्णनके रूपमें प्रकृतिका चित्रण मिलता है।
जैसे मगधदेशके परिचयमें उसकी प्राकृतिक स्थितिका चित्रण है :
"जहाँ नवपल्लवोंसे सघन कुसुमित और फलित नन्दन वन है, जहाँ घूमती हुई काली कोयल ऐसी मालूम होती है, मानो वनलक्ष्मीके काजलका पिटारा हो। उड़ती हुई भ्रमरमाला ऐसी प्रतीत होती है जैसे श्रेष्ठ इन्द्रनीलमणिकी मेखला हो, सरोवरमें उतरी हुई हंसपंक्ति ऐसी मालूम होती है, मानो सज्जन पुरुषकी चलती-फिरती कीर्ति हो, हवासे प्रेरित जल ऐसे मालूम होते हैं जैसे रविके द्वारा सोखे जानेके भयसे कांप रहे हों । जहाँ कमलोंका लक्ष्मीके साथ स्नेह है और चन्द्रमाके साथ विरोध है, यद्यपि वे दोनों समुद्रसे उत्पन्न हुए हैं, परन्तु जड़ (जल) लोग इस तथ्यको नहीं जानते ।"
"अंकुराई णवपल्लवघणाई कुसुमिय फलियई णंदणवणाई। जहिं कोयल हिंडइ कसण पिंडु वण लच्छिहे णं कज्जल करंडु । जहिं उड्डिय भमरावलि विहाइ परिंदणील मेहलिय णाइ । ओयरिय सरोवरि हंसपंति चलधवलवाई सप्पुरुष कित्ति । जहिं सलिलई मारुय पेल्लियाई रवि सोस भएण व इल्लियाई। जहिं कमलहं लच्छिइ सहुँ सणेहु सहुं ससहरेण बड्ढउ विरोहु ।
किर दो बि नाइं महणुब्भवाइं जाणंति ण तं जणु संभवाइं।" 1/12 मगध देशकी प्रकृतिका यह वर्णन, अलंकृत शैलीमें है। उसमें प्रकृतिके सौन्दर्यका वर्णन प्रकृतिके उपकरणोंके द्वारा ही है। यदि सरोवरमें तैरती हुई हंसपंक्ति सज्जनकी कीर्तिकी तरह है, तो वहीं, पानी इसलिए काँप रहा है कि सूर्य अभी उसे सोख लेगा। जड़ लोगोंका स्वभाव यह है कि वे अपने मतलबसे प्यार करते हैं, लक्ष्मी और चन्द्रमा दोनों समुद्रसे उत्पन्न है, परन्तु कमलोंका लक्ष्मीसे स्नेह है और चन्द्रमासे विरोध ।
डूबते हुए 'सूरज' का कवि उत्प्रेक्षाके द्वारा यह विम्ब उभारता है :
रवि अत्थ सिहरि संपत्तु ताम रत्तउ दीसइणं रहहि णिलउ णं वरुणासा वह गुसिण तिलउ णं सग्ग लच्छि माणिक्कु ढलिउ रत्तुप्पलु णं णह-सरह घुलिउ णं मुक्कउ जिणगुणमुद्धएण णिय राय पुंजु मयरद्धएण
अद्धद्धउ जलणिहि जलि पइटु णं दिसि कुंजर कुंभयलु दिट्ट IV/15 इतने में सूर्य अस्ताचलपर पहुँच गया, वह ऐसा लगता है मानो रतिका घर हो, मानो पश्चिम दिशारूपी वधूका केशर तिलक हो, मानो स्वर्गकी लक्ष्मीका माणिक्य ढल गया हो। मानो आकाशके सरोवरसे रक्तकमल गिर गया हो, मानो जिनवरके गुणोंमें अनुरक्त होकर कामदेवने अपना रागसमूह छोड़ दिया हो, मानो समुद्रके जलमें आधे डूबे हुए दिशारूपी हाथीका कुंभस्थल हो । ठीक सूर्यास्तके बाद चन्द्रमा उगता है:
णं पोमाकर यलल्हसिउ पोमु णं तिहुयण सिरि लायण्णधामु सुर उब्भव विषम समावहार तरुणि थल विलुलिय सेयहारु णं अमिय विदु-संदोहु रुंदु जस वेल्लिहि केरउ णाई कंदु IV/16
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महापुराण मानो लक्ष्मीके हाथसे कमल छूट पड़ा हो, मानो त्रिभुवनकी लक्ष्मीके सौन्दर्यका घर हो. मानो सुरतिसे उत्पन्न विषम श्रमका परिहार हो, मानो युवतीजनोंके स्तनपर आन्दोलित श्वेतहार हो। मानो अमृत बिन्दुओंका सुन्दर समूह हो, मानो यशरूपी लताका अंकुर हो।
पुष्पदन्तको प्रकृतिका ऐसा संश्लिष्ट चित्रण बहुत पसन्द है जिसमें प्रकृतिकी पृष्ठभूमिमें जिनवर ऋषभ तपस्या कर रहे हैं, इसमें श्लेषका चमत्कार है :
गिरि सोहइ चुय महु आसवेहिं जिणु सोहइ रुद्धहिं आसहिं गिरि सोहइ वियलियणिज्झरेहि
इ कम्मणिज्जरेहिं 37/19 किसी अशुभ प्रसंगके प्रारम्भका आभास कवि सूर्यास्तसे देता है। भरत बाहुबलिमें सन्धिवार्ता असफल होनेपर दोनों पक्षोंमें युद्धकी तैयारी होने लगती है, इसी बीच सूर्य घपसे डूब जाता है :
कविकी कल्पना:
ता परिल्हसिउ दिणमणी णं सिरोमणी गयणकामिणीए ।
अत्थं पडिणिवेइओ रुइ विराइओ णाइ जामिणीए॥ तब दिनमणि (सूर्य) इस प्रकार खिसक गया जैसे आकाशकी लक्ष्मी यामिनीने कान्तिसे युक्त अपना शिरोमणि अस्तको निवेदित कर दिया हो । दिवसके प्रवेशका निषेध कर दिया गया ।
"ना वेसहि भणेवि अइरत्तउ दिवसहु दिण्णु दीवु सिहितत्त्वउ णं चउ पहरहिं वणु अहिकतिहि जायउ लोहियदु णइदंतिहि णाइं पवाल कुंभु दिसणारिह
धरिवि मुक्कु दिक्कखिणियारिइ पउलिवि तलिवि दलिवि दलवट्टिवि जीवरासि जगभायणि घट्टिवि । उग्घाडिवि ससहर मुह णिद्धहि संमुहियहि तियसासामुद्धहि णं सिंदूर करंडु झसच्छिइ
दाविउ लवण जलहि जललच्छिह । मयरंदुल्लोलु व जगकमलहु
णिउ वाएण वरुणमुहकमलहु गोमिणीइ हरिरइरसमरिउ
पोमरायवतु व वीसरिउ । अत्यमियउ जाइवि अवरासइ
रत्तु मित्तु णंगिलियउ वेसइ ॥ पुणु दीसइ संझारायएण भुवणु असेसु वि रत्तउ
सहुं गिरि दरिसरि णंदणवहिं लक्खारसिणं पित्त उ" ॥23॥ तुम प्रवेश मत करो ऐसा कहकर मानो दिवसके लिए अत्यन्त रक्त और शिखाओंसे सन्तप्त दीप दे दिया गया। मानो अत्यन्त कान्तिवाले आकाशरूपी गजके चारों प्रहर (प्रहार और प्रहर) के कारण वन रक्तसे लाल हो गया, मानो दिग्गजकी पत्नी दिशारूपी नारीके द्वारा प्रवालघट ग्रहण कर छोड़ दिया गया है, मानो विश्वरूपी पात्र में जीवराशिको (कि जो दण्डविहीन जनोंके लोहसे आरक्त है ) काटकर, तलकर, कूट-पीसकर दिशापथोंमें उसी प्रकार छितरा दिया गया जैसे कालके द्वारा अण्डा फेंक दिया गया हो। जिसकी आंखें मछलीके समान हैं, लवण समुद्रकी ऐसी लक्ष्मीको अपना सिन्दूरका पिटारा दिखाया हो मानो विश्वरूपी कमलके परागके उच्छलनकी वायु ले गया हो, मानो गोमिनीके द्वारा फेंका गया कृष्णके क्रीड़ारससे भरा हुआ पद्मराग मणिका पात्र हो । सूर्य पश्चिम दिशामें जाकर डूब गया, मानो अपने अनुरक्त मित्रको वेश्याने निगल लिया हो। फिर अशेष भुवन सन्ध्यारागसे आरक्त हो गया ॥
'सन्ध्याराग' के प्रति कविका विशेष मोह रहा है। इस शब्दका उल्लेख उसने कई बार किया है। सन्ध्याराग कविकी कल्पना कई रंगोंमें रँगती है।
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प्रस्तावना
संझारायजलणु जो भमियउ सो तमजल कल्लोलहिं समियउ संझाराय घुसिणु जं संकिउ तं तमोह मयणाहें ढंकिउ संझारायविडंवि जो फुल्लिउ सो तमतंवेरवइ पेल्लिउ चंदमइंदें तमकरि भग्गउ किं जाणहुं सो तासु जि लग्गउ । मयणिहेण दीसइ सुहयारउ तप्पवेसु वइरिहिं भल्लारउ विसइ गवक्खहिं घणचलि घोलइ वहारु व ससि तेउ णिहालइ रंधायारु वियउ अंधारइ
दुद्ध संक पयणइ मज्जारइ रइ-पासेय बिंदु तेणोज्जलु दिट्ठ भुयंगहि णं मुत्ताहलु । दिट्ठउ कत्थइ दीहायारउ घरि पइसंतउ किरणुक्केरउ
मोरें पंडरु सप्पु वियप्पिवि मुझे कइव ण गहिउ झडप्पिवि । 6/24 पश्चिम दिशामें जो सन्ध्याराग ( सान्ध्य लालिमा ) की आग लगी थी उसे अन्धकाररूपी जलने शान्त कर दिया, जो सन्ध्यारागरूपी केशरकी शंका की गयी थी उसे तम-समूहरूपी सिंह ने नष्ट कर दिया । सन्ध्यारागरूपी जो वृक्ष खिला हुआ था उसे अन्धकाररूपी गजराजने उखाड़ फेंका। चन्द्रमारूपी सिंहने
जको भगा दिया, क्या वही उसके घटनोंमें लग गया ? मगके बहाने वह सुन्दर दिखाई देता है, सफेद रूपमें वह शत्रुओंको सुन्दर दिखाई देता है, वह गवाक्षोंसे प्रवेश करता है, स्तनतलपर व्याप्त होता है और इस प्रकार शशिका प्रकाश वधूहारकी तरह जान पड़ता है। अन्धकारमें वह रन्ध्राकार दिखाई देता है, बिल्लीके लिए दूधकी आशंका उत्पन्न होती है, चांदनीसे उज्ज्वल, पसीनेकी बूंद ऐसी मालूम होती है मानो सांपका मुक्ताफल हो। कहीं घरमें प्रवेश करता हुआ किरण-समूह सर्पके समान दिखाई देता है । भोला मयूर उसे सफेद सांप समझकर किसी प्रकार झटपट उसे पकड़ता भर नहीं।
उक्त अवतरणमें प्रकृति सौन्दर्य और अलंकार सौन्दर्य मिला हुआ है। सन्ध्यारागका आग बनना, अन्धकारका जल बनना, सन्ध्यारागपर केशरकी शंका, तो अन्धकारका सिंहकी भूमिका ग्रहण करना, सन्ध्यारागका वृक्षके रूपमें खिलना और अन्धकारका उसे गज बनकर उखाड़ना, यहाँ तक तो सन्ध्याराग और अन्धकारका संघर्ष है । उसके बाद जब चन्द्ररूपी सिंह अन्धकारके महागजको परास्त कर देता है, फिर अन्धकार और चन्द्र के मिले-जुले रूपके चित्र कवि अंकित करता है। अन्तमें चन्द्रमाका उद्दीपन रूप आता है । जो भ्रान्ति उत्पन्न करता है, सचेतन मानवोंको ही नहीं, पशुवर्गको भी । इसके ठीक बाद दूसरा दृश्य प्रभातका है :
"ताम उग्गमिउ सूरु पुवासइ रइ-रंगु व दरिसिउ कामासइ किंसुय कुसुम पुंजु णं सोहिउ णं जगभवणि पईउ पवोहिउ चारु सूरु वंसहु णं कंदउ लोहिउ ससिरोसेण दिणिदउ मज्झु परोक्खइ आवइ पाविय कमलिणि वेल्लि भणिवि संताविय
एम भणंतु व गयणि व लग्गउणं रयणियरह पच्छइ लग्गउ ।" 16/26 इतने में पूर्व दिशामें सूर्य उग आया, कामाशाने उसे रतिरंगके समान देखा । वह ऐसा शोभित था जैसे टेसूके खिले हुए फूलोंका समूह हो। मानो विश्वरूपी भवनमें दीप प्रज्वलित कर दिया गया हो । मानो सुन्दर सूर्यवंशका अंकुर हो। दिनेन्द्र चन्द्रके रोषसे नाराज होकर लाल है कि यह पापी मेरे परोक्षमें आया तथा कमलिनीको बेल समझकर इसने सताया। ऐसा कहता हुआ वह उस चन्द्रमाके पीछे लग गया। चन्द्र और सूर्यके बीच टक्करके मूलमें सामन्तवादी रागचेतना है । जब पुराण युगके उदात्त नायकों (कुछ अपवाद छोड़कर ) के वर्ग सुन्दर स्त्रीके लिए झगड़ते रहे हैं, तो आखिर सूर्य-चन्द्रमा भी प्रकृतिके उदात्त
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महापुराण
नायक हैं । कवि भी प्रकृति के कार्यकलापोंपर उसी भावनासे आरोप करता है जो उसके मनमें होती है, उसका मन भी युगमानसकी उपज होता है ।
भरत - बाहुबलि संवाद और द्वन्द्व
भरत- बाहुबलि संवाद नाभेयचरितका सबसे अधिक हृदयस्पर्शी अंश है । बड़ा भाई भरत दिग्विजयके बाद अयोध्या लौटता है । उसका चक्र नगरीमें प्रवेश नहीं करता। क्योंकि अभी भरतकी दिग्विजय अधूरी है, अधूरी होनेका कारण बाहुबलि सहित उसके शेष निन्यानबे भाइयोंका भरतकी अधीनता न मानना है । भरत अपना दूत भेजता है । दूसरे भाई अधीनता मानने के बजाय जिनदीक्षा ग्रहण कर तप करने चले जाते हैं, परन्तु बाहुबलि अधीनता माननेसे इनकार कर देता है । द्वन्द्वका मूल कारण यही है । सेनाओं में टकराहटको रोककर वृद्ध मन्त्री द्वन्द्व युद्धकी सलाह देते हैं । भरत युद्ध में हार जाता है । जीतकर भी बाहुबलि धरतीका भोग नहीं करता, वह जिनदीक्षा ग्रहण कर लेता है । कविने समूचे प्रसंगका सुकुमार और मार्मिक वर्णन किया है । भाषा अनुभूतिमयी और प्रसंगके अनुकूल है । चक्र अयोध्याकी सीमापर ठहर गया है, भरत चकित है कि ऐसा क्यों हुआ ।
अक्क मियक्कउ बाहिरि थक्कउ उ पइसइ पुरि चक्कु णिरुत्तउ माया णेह णि बंधणि मित्तु व " जैसे अतिक्रान्त सूर्य रुक गया, मानो देवने कीलकर छोड़ दिया, निश्चय ही चक्र नगरीमें प्रवेश नहीं करता । उसी प्रकार जिस प्रकार पवित्र घरमें अन्यायको बढ़ती प्रवेश नहीं करती, जिस प्रकार परपुरुषसे अनुराग करने में सतीका चित्त प्रवेश नहीं करता ।
इन चीजोंका प्रवेश जिस प्रकार असम्भव है, उसी प्रकार उस चक्रका प्रवेश असम्भव हो
गया ।
णावर दइवें खीलिवि मुक्कउ सुइघरि णं अण्णाय विढत्त उ पत्र दाणि पावि चित्तु व
भरत दूत भेजता है, और वह बाहुबलिकी प्रशंसा करता है :
जय कुसुमाउह रद्द रमणीवर पई पेच्छिवि घोलइ उप्परियणु चिरभारु दिढबंधु वि पसिढिलु रंभा णव रंभा इव डोल्लइ देव तिलोतम तिलतिल खिज्जइ मेण मीणि व थोवइ पाणिइ
अलि माला जीया संधिय सर वियलइ णारिहि जीवीबंधणु हवइ रयंषु सवध सोणीयलु
इवाएं आहल वि हल्लइ विरहें उव्वसि उव्वेज्जइ पिय संतप्पइ रवियर माणिइ
"हे रति रमणीके वर, हे अलिमालाकी प्रत्यंचापर सरका सन्धान करनेवाले कामदेव आपको देखकर स्त्रियोंके दुपट्टे हिल उठते हैं। स्त्रियोंकी नीवीकी गाँठ खुल जाती है, अच्छी तरह बँधा हुआ चिकुरभार ढीला पड़ जाता है, शुक्र निकलने लगता है और कटितल टपकने लगता है, नेत्रयुगल चलता और मुड़ता है; शरीरमें पसीना बढ़ने लगता है । रंभा नव- कदली वृक्षकी तरह कांप उठती है, और रतिकी हवासे वह अधिक हिल उठती है । हे देव ! तिलोत्तमा आपके कारण तिल-तिल खिन्न हो उठती | विरह में उर्वशी उद्विग्न है । मेनका उसी प्रकार तड़प रही है जिस प्रकार थोड़े पानीमें मछली तड़प उठती है, भले ही वह पानी सूर्य किरणोंसे सम्मानित हो !" इसके बाद जब दूत सन्धिकी बात करता है तो बाहुबलि भड़क जाता है :
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प्रस्तावना
बाहुबलिका दो-टूक उत्तर है
“संघट्टमि लुट्टमि गयघडहु दलमि सुइउ रणमग्गि।
पहु आवउ रावउ महाबलु महु बाहुबलिहि अग्गइ ॥" "मैं युद्ध करूंगा। महागजघटाको लोट-पोट करूँगा और युद्ध के मार्गमें सुभटका संहार करूंगा।" दूत लौटकर भरतसे कहता है :"विसमुदेउ बाहुबलि गरेसरु
णेह ण संघ संधइ गुणि सरु कज्जु ण बंधइ बंधइ परियरु
संधि ण इच्छद इच्छइ संगरु पई ण पेच्छइ पेच्छइ भुयबलु
आण ण पालइ पालइ णिय छलु । माणु ण छंडइ छंडइ भयरसु
दयवु ण चितइ चितइ पोरुसु संति ण मण्णइ मण्णइ कुलकलि पुहइ ण देव देइ वाणावलि।" 26/21. "हे देव ! बाहुबलि विषम राजा है, वह आपसे स्नेह नहीं जोड़ता, डोरीपर तीर जोड़ता है, वह काम नहीं साधता परिकर साधता है, सन्धि नहीं चाहता, युद्ध चाहता है, आपको नहीं देखता, अपने बाहुबलको देखता है, वह तुम्हारी आज्ञा नहीं पालता, अपना छल पालता है। वह मान नहीं छोड़ता भयरस छोड़ देता है, वह देवकी चिन्ता नहीं करता, पौरुषकी चिन्ता करता है, वह शान्तिको नहीं मानता, कुलकलहको मानता है।"
दूतके इस प्रतिवेदनमें बाहुबलिके चरित्रके साथ पुष्पदन्तकी भाषाका चरित्र भी मुखरित है।
अपने हाथों अपने भाईकी पराजय देखकर बाहबलि आत्मग्लानिसे भर उठता है, अपनेको कोसता हुआ वह कहता है :
"चक्कवट्टि णियगोत्तहु सामिउ जेण महंत भाइ ओहामिउ हा कि किज्जइ भुयबलु मेरउ जं जायउ सुहिदुण्णयगारउ महि पुण्णालि व केण ण भुत्ती रज्जहु पडउ वज्जु समसुत्ती
रज्जहु कारणि पिउ मारिज्जइ बंधवहुं मि विसु संचारिज्जइ" जिसने अपने गोत्रके स्वामी अपने बड़े भाईको पराजित किया ( ऐसा मैं नीच है ) हा! क्या किया जाये जो मेरा बाहुबल सज्जनके प्रति अन्यायकारी हुआ। इस धरतीरूपी वेश्याका भोग किसने नहीं किया, राजपर गाज गिरे, यह कहावत बिलकुल ठीक है, राज्यके लिए पिताको मार दिया जाता है, और भाइयोंको विष दे दिया जाता है, राज्यसत्ताके लिए पिता और भाइयोंकी हत्या केवल सामन्तवादकी ही विशेषता नहीं थी। वह प्रजातन्त्रमें भी है और रूप बदलकर चरित्र हत्याके रूपमें जीवित है। बाहुबलिका दीक्षा-ग्रहण करना उनकी व्यक्तिगत समस्याका हल है, राष्ट्रीय समस्याका नहीं। भरत और बाहुबलिका द्वन्द्व उनका घरेलू मामला था। जबतक समाज और राष्ट्र है, तबतक राज्यका होना जरूरी है। क्योंकि अराजक जनपदमें मत्स्य न्यायका बोलबाला होता है। फिर भी बाहुबलिका दीक्षा-ग्रहण इस तथ्यका प्रतीकात्मक संकेत है कि राजनीतिक मूल्योंसे मानवीय मूल्योंका महत्त्व अधिक है। राज्यका उद्देश्य ऐसी व्यवस्था उत्पन्न करना है कि जिससे समाजमें मानवी मूल्योंकी प्रतिष्ठा हो। यहां एक प्रश्न यह उठता है कि अपने पिता ऋषभके जीवित रहते हुए भरतका सत्ता-विस्तारके लिए दिग्विजय करना, दूसरोंका राज्य हड़पना कहां तक उचित था ? भरत, ब्राह्मणवर्णकी स्थापना करनेके बाद जब ऋषभजिनसे यह पूछता है कि उसने यह उचित किया या अनुचित, तो ऋषभ उसके इस कार्यको बुरा बताते हैं, वे ब्राह्मणवर्णकी स्थापनाको नैतिक मूल्योके हितमें नहीं मानते। परन्तु वे भरतसे साम्राज्य विस्तारके लिए कुछ नहीं कहते। लेकिन जब 'बाहुबलि'
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महापुराण
कहता है कि कुछ बलवान् उचक्के जनसुरक्षाके नामपर व्यूह बनाते हैं और एकको नेता बनाकर राष्ट्रका शोषण शुरू कर देते हैं तो प्रश्न उठता है, बाहुबलि अपने भाईसे यह कह रहा है या 'पुष्पदन्त' अपने समयकी राजनीतिक लूट-खसोटकी आलोचना कर रहे हैं ? भरत जब हिमवान् पर्वतको 'वृषभ' चोटीपर जाता है, तो उसपर वह अनेक राजाओंके नाम खुदे हुए देखता है।
मनुष्योंके द्वारा लिखित अक्षरों और दिवंगत राजाओंके हजारों नामोंसे वह वृषभ पर्वत चारों ओरसे आच्छादित था। भरत जहाँ देखता है, वहाँ वह पर्वत शिखरको नाम सहित पाता है। भरत सोचता है कि मैं अपना नाम कहाँ लिखू ?
"अण्णण्णहिं रायहिं भुत्तियइ इह एयइ वसुमइ धुत्तियइ वोलाविय के के णउ णिवइ भोइंधहु मुज्झइ तो वि मइ
धण्णु परमेसरु एक्कु पर जो हुउ पव्वइयउ मुएवि धर" ॥ 15/6 एकके बाद एक राजाके द्वारा भोगी गयी इस धूर्त धरतीके द्वारा कौन-कौन राजा अतिक्रान्त नहीं हए, फिर भी मोहसे अन्धे व्यक्तिको मति भ्रमित होती है, लेकिन एक परमेश्वर ऋषभ धन्य है कि जिसने धरतीका त्याग कर संन्यास ग्रहण किया। पुरोहित भरतसे कहता है :
"परु फेडवि जिह घेप्पइ पुहइ तिह णामु वि फेडिज्जइ णिवई" ॥ 15 हे राजन् ! जिस प्रकार दूसरेको नष्ट कर धरती ग्रहण की जाती है, उसी प्रकार नाम भी नष्ट कर (अपना नाम लिखा जाता है) भरत और पुरोहितका यह संवाद विश्वके राजनीतिक इतिहासका प्रतीक विश्लेषण है। भारतीय सन्दर्भ में देखा जाये तो हिमालय पर्वतके वृषभ पर्वतपर अंकित नामाक्षरोंसे लेकर दो साल पूर्व लाल किले में गाड़े गये कालपात्र तक एक ही प्रवृत्ति सक्रिय दिखाई देती है-सत्ता और नामकी भूख । जैन पौराणिक दृष्टिसे ऋषभ और भरतके बीच राजाओंके होनेका प्रश्न नहीं उठता। हाँ, पुष्पदन्तके समय तक भारतीय इतिहासमें कई राजवंशोंका उत्थान-पतन हो चुका था। अतः भरतके उक्त उद्गारोंको वस्तुतः पुष्पदन्तके समकालीन राजनीतिक और सामाजिक परिवेशमें देखा जाना चाहिए।
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विषय-सूची
सन्धि १
२-२१ (१) ऋषभ जिनकी वन्दना। (२) सरस्वतीकी वन्दना। (३) कत्रिका मान्यखेटके उद्यानमें प्रवेश और आगन्तुकोंसे संवाद । (४) राज्यलक्ष्मीकी निन्दा। (५) भरतका परिचय । (६) भरत द्वारा कविकी प्रशंसा और काव्य रचनाका प्रस्ताव । (७) कवि द्वारा दुर्जन निन्दा । (८) भरतका दुबारा अनुरोध और कविकी स्वीकृति । (९) कवि द्वारा अल्पज्ञताका कथन और परम्पराका उल्लेख । (१०) गोमुख यक्षसे प्रार्थना । (११) अज्ञानकी स्वीकृतिके साथ कवि द्वारा महापुराण लेखनका निश्चय । जम्बद्वीप भरतक्षेत्र और मगध देशका चित्रण । (१२-१६) राजगृहका वर्णन । (१७) राजा श्रेणिकका वर्णन । (१८) उद्यानपालकी सूचना वीतराग परम तीर्थंकर महावीरके समवसरणका विपुलाचलपर आगमन और राजा श्रेणिकका वन्दना भक्तिके लिए प्रस्थान ।
सन्धि २
२२-४५ (१) नगाड़ेका बजना और नगरवनिताओंका विविध उपहारोंके साथ प्रस्थान । (२) राजाका पहुँचना और देवों द्वारा समवसरणको रचना । (३) राजा द्वारा जिनेन्द्रको स्तुति, गौतम गणधरसे महापुराणको अवतारणाके विषयमें पूछना । (४-८) गौतम गणधर द्वारा पुराणकी अवतारणा करते हुए काल द्रव्यका वर्णन । (९-११) प्रतिश्रुत कुलकरका जन्म । (१२) नाभिराज कुलकरकी उत्पत्ति, भोगभूमिका क्षय और कर्मभूमिका प्रारम्भ । (१३) मेघवर्षा, नये धान्योंकी उत्पत्ति। (१४) कुलकरका प्रजाको समझाना और जीवनयापनकी शिक्षा देना। (१५-१६) मरुदेवीके सौन्दर्यका वर्णन । (१७) नाभिराज और मरुदेवीकी जीवनचर्या, इन्द्रका कुबेरको आदेश । (१८) नगरके प्रारूपका वर्णन । (१९) कर्मभूमिको समृद्धि । (२०) समृद्धिका चित्रण । (२१) मगरके वैभवका वर्णन ।
सन्धि ३
(१) इन्द्र द्वारा छह माह बाद होनेवाले भगवान्के जन्मकी घोषणा । (२) सुरबालाओंका जिनमाताकी सेवा और गर्भशोधनके लिए आगमन । (३) देवांगनाओं द्वारा जिनमाताका रूप चित्रण । (४) जिनमाताकी सेवा । (५) माताका स्वप्न देखना। (६) मरुदेव द्वारा भविष्य कथन । (७) रत्नोंकी वर्षा । (८) जिनका जन्म । (९) देवोंका आगमन और स्तुति । (१०) विभिन्न सवारियों पर बैठकर देवोंका अयोध्या आगमन । (११) माताको मायावी बालक देकर इन्द्राणीका बालकको बाहर निकालना; बालकको देखकर इन्द्रकी प्रशंसा । (१२) इन्द्रके द्वारा स्तुति; सुमेरुपर्वतपर ले जाना; पाण्डुशिलाके ऊपर सिंहासनपर विराजमान करना । (१३) सुमेरु पर्वत द्वारा प्रसन्नता व्यक्त करना। (१४) नाना वाद्योंके
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महापुराण
साथ देवोंके द्वारा अभिषेक। (१५) स्नानके बाद अलंकरण । (१६) जिनका वर्णन । (१७) गन्धोदककी वन्दना। (१८) सामूहिक उत्सव (१९) स्तुति । (२०) विभिन्न वाद्योंके साथ इन्द्रका नृत्य; उसकी व्यापक प्रतिक्रिया । (२१) जिनशिशुको लेकर अयोध्या आना;
उनका वृषभ नामकरण । सन्धि ४
७०-९१ (१) देवियों द्वारा बालकका अलंकरण; विद्याभ्यास और समस्त शास्त्रों और कलाओंका ज्ञान । (२) जिनका यौवनवय प्राप्त करना । (३) जिनकी स्तुति । (४-५) शैशव क्रीड़ा। (६) नाभिराज द्वारा विवाहका प्रस्ताव । (७) पुत्रकी असहमति और कामक्रीड़ा और विषयसुखकी निन्दा । (८) चारित्रावरण कर्मके शेष होनेके कारण ऋषभदेवकी विवाहकी स्वीकृति; कच्छ और महाकच्छकी कन्याओंसे विवाहका प्रस्ताव । (९) विवाहकी तैयारी। (१०) मण्डपका निर्माण । (११) वाद्यवादन; कंकणका बांधा जाना। (१२) वरवधू । (१३) कामदेवका धनुष तानना; वाद्य-वादन; कन्यादान । (१४) दोनों कन्याओंका पाणिग्रहण । (१५) सूर्यास्त होना। (१६) चन्द्रोदयका वर्णन । (१७) नाट्य प्रदर्शन ।
(१८) विभिन्न रसोंका नाट्य । (१९) सूर्योदय । ऋषभ जिन राज्य करने लगे। सन्धि ५
९२-११ (१) यशोवतीका स्वप्न देखना । (२) स्वप्नफल पूछना। (३) गर्भवती होना; पुत्रजन्म । (४) चूडाकर्म और अलंकरण । (५) बालकका बढ़ना; सौन्दर्यका वर्णन; सामुद्रिक लक्षण । (६) रूप चित्रण और ऋषभ द्वारा प्रशिक्षण । (७-८) नीतिशास्त्रका उपदेश । (९-१०) क्षात्रधर्मको शिक्षा। (११) राजनीतिशास्त्र । (१२) राज्य-परिपालनकी शिक्षा । (१३) अन्य पुत्रोंका जन्म । (१४) बाहुबलिका जन्म और यौवनकी प्राप्ति । (१५) प्रथम कामदेव बाहुबलिके नवयौवन और सौन्दर्यको नगरवनिताओं पर प्रतिक्रिया । (१६-१७) नगरवनिताओंकी चेष्टाएँ। (१८) ब्राह्मी और सुन्दरीको ऋषभ जिनका पढ़ाना। (१९) कल्पवृक्षोंकी समाप्ति; ऋषभके द्वारा असि मसि आदि कर्मोकी शिक्षा । (२०) उस समयकी समाज व्यवस्थाका चित्रण । (२१) गोपुरोंकी रचना । (२२) ऋषभ द्वारा धरतीका परिपालन ।
सन्धि ६
(१-२) ऋषभ राजाके दरबार और अनुशासनका वर्णन । (३-४) इन्द्रकी चिन्ता कि ऋषभ जिनको किस प्रकार विरक्त किया जाये। (५-९) नीलांजनाको भेजना और संगीत शास्त्रका
वर्णन । नीलांजनाका नृत्य करना और अन्तर्धान होना। सन्धि ७
१२८-१५७ (१-१४) बारह उत्प्रेक्षाओंका कथन । (१५-१९) आत्मचिन्तन और लौकान्तिक देवों द्वारा सम्बोधन । (२०-२१) दीक्षाका निश्चय, और भरतसे राजपाट सम्हालनेका प्रस्ताव; प्रतिरोध करनेके बावजूद भरतको राजपट्ट बांध दिया गया। (२२) सिंहासनपर आरूढ़ भरत और ऋषभनाथ । (२३) वाद्य गान और उत्सवके साथ अभिषेक । (२४) ऋषभ भगवान् द्वारा दीक्षा-ग्रहणके लिए प्रस्थान । (२५-२६) सिद्धार्थवनका वर्णन; दीक्षा ग्रहण करना।
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विषय-सूची
सन्धि८
१५८-१८१
(१) छह माहका कठोर अनशन । (२) दीक्षा लेनेवालोंका दीक्षासे विचलित होना । (३) उनकी प्रतिक्रियाओंका वर्णन । (४) दिव्यध्वनि द्वारा चेतावनी । (५) जिन दीक्षाका त्याग व अन्य मतोंका ग्रहण; कुछ घर वापस लौट आये। कच्छ और महाकच्छके पुत्रोंका आगमन; ध्यानमें लीन ऋषभ जिनसे धरतीकी मांग। (६) धरणेन्द्र के आसनका कम्पायमान होना। (७) घरणेन्द्रका आकर ऋषभ जिनके दर्शन करना; नागराज द्वारा स्तुति । (८) नागराज द्वारा ऋषभ जिनका मानव जातिके लिए महत्त्व प्रतिपादित करना; नागराजकी चित्तशुद्धि। (९) नागराजकी नमि-विनमिसे बातचीत । (१०) नागराज उन्हें विजयाचं पर्वतपर ले गया। (११) विजयार्ध पर्वतका वर्णन । (१२) नमि-विनमिको विद्याओंकी सिद्धि । (१३) नागराजने विजयार्ध पर्वतकी एक श्रेणी नमिको प्रदान की। (१४) दूसरी श्रेणी विनमिको प्रदान की। (१५) पुण्यकी महत्ताका वर्णन ।
सन्धि
९
१८२-२१७
(१) ऋषभ द्वारा कायोत्सर्गकी समाप्ति । (२) विहार । (३) श्रेयांसका स्वप्न देखना । (४) अपने भाई राजा सोमप्रभसे स्वप्नका फल पूछना। (५) ऋषभ जिनके आनेकी द्वारपाल द्वारा सूचना; दोनों भाइयोंका ऋषभ जिनके पास जाना । (६) श्रेयांसको पूर्वजन्मका स्मरण और आहारदानकी घटनाका याद आना । (७) विभिन्न प्रकारके दानोंका उल्लेख, (८) उत्तम पात्रके दानकी प्रशंसा । (९) राजा द्वारा ऋषभ जिनको पड़गाहना। (१०) इक्षुरसका बाहार दान, (११) पांच प्रकारके रत्नोंकी वृष्टि । (१२) भरत द्वारा प्रशंसा; आदि जिनका विहार; ज्ञानोंकी प्राप्ति (१३) पुरिमतालपुरमें ऋषभ जिनका प्रवेश । (१४) पुरिमतालपुर उद्यानका वर्णन । (१५) ऋषभ जिनका आत्मचिन्तन । (१६) केवलज्ञानकी प्राप्ति । (१७-१८) इन्द्रका आगमन; ऐरावतका वर्णन । (१९) विविध सवारियों के द्वारा देवोंका आगमन । (२०) देवांगनाओंका आगमन । (२१-२२) समवसरणका वर्णन । (२३) समवसरणमें आनेवाले विभिन्न देवोंका चित्रण । (२४) धूम्ररेखाओंसे शोभित आकाशका वर्णन । (२५) ध्वजोंका वर्णन । (२६) परकोटाओं और स्तूपोंका चित्रण; नाट्यशालाका वर्णन । (२७) सिंहासन और वन्दना करते हुए देवोंका वर्णन । (२८) आकाशसे हो रही कुसुमवृष्टिका चित्रण । (२९) देवों द्वारा जिनवरकी स्तुति ।
सन्धि १०
२१८-२३५ (१) इन्द्र द्वारा जिनवरकी स्तुति । (२) सिंहासनपर स्थित ऋषभ जिनवरका वर्णन; दिव्यध्वनि और गमनका वर्णन । (३) केवलज्ञान प्राप्त होनेके बाद ऋषभ जिनके विहारके प्रभावका वर्णन; मानस्तम्भका वर्णन । (४) विविध देवांगनाओंका जमघट । (५-८) ऋषभ जिनकी स्तुति । (९) ऋषभ जिनवर द्वारा तत्त्वकथन; जीवोंका विभाजन । (१०) जीवोंके भेद-प्रभेद; पृथ्वीकायादिका वर्णन । (११) वनस्पतिकाय और जलकाय जीवोंका वर्णन । (१२) दोइन्द्रिय-तीनइन्द्रिय आदि जीवोंका कथन । (१३) द्वीप समुद्रोंका वर्णन । (१४) जलचर प्राणियोंका वर्णन ।
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६२
महापुराण
सन्धि ११
२३६-२७३ (१) संज्ञोपर्याप्त जीव । (२) विभिन्न योनियोंके जीव; उनकी आयु (३) भरत आदि क्षेत्रोंका वर्णन । (४) हरिक्षेत्रादि वर्णन । (५) हिमवत् पद्म सरोवरका वर्णन । (६) पद्म-महापद्म आदि सरोवरोंका वर्णन । (७) जम्बूद्वीपके बाहरके अन्तर्वीप और उनके जीवोंका वर्णन । (८) भवनवासी आदि देवोंका वर्णन । (९) पन्द्रह कर्मभूमियोंका वर्णन, मरणयोनिका वर्णन । (१०) कौन जीव कहाँसे कहा जाता है, इसका वर्णन । (११) जीवोंके एक गतिसे दूसरी गतिमें जानेका वर्णन । (१२) नरकवासका वर्णन । (१३) नरकों के विभिन्न बिलोंका कथन । (१४-२०) नरककी यातनाओंका वर्णन । (२१-२२) पाँच प्रकारके देवोंका वर्णन । (२३) स्वर्गविमानोंका वर्णन । (२४) विविध प्रकारके देवोंका वर्णन । (२५) देवोंकी ऊँचाई आदिका चित्रण । (२६) विभिन्न स्वर्गों में कामकी स्थितिका वर्णन । (२७) सर्वार्थसिद्धिके देवोंका वर्णन । (२८) नरक देवभूमियों में आहारादिका वर्णन। (२९) योगवेद और लेश्याओंके आधारपर वर्णन । (३०) कर्मप्रकृतिके आधारपर ऊंच-नीच प्रकृतिका वर्णन । (३१) कषायोंकी विभिन्न स्थितियोंका चित्रण । (३२) पाँच प्रकारके शरीरोंका वर्णन । (३३) मोक्षका स्वरूप, आत्माकी सही स्थितिका चित्रण । (३४) सच्चे सुखके स्वरूपका वर्णन; वृषभसेन द्वारा शुभ भावका ग्रहण ।
सन्धि १२
२७४-२९७
(१) भरतकी विजय यात्रा, शरद् ऋतुका वर्णन । (२) प्रस्थान । (३) राजसैन्यके कूचका वर्णन । (४) सैन्य सामग्रीका वर्णन, चौदह रत्नोंका उल्लेख । (५-७) भरतका प्रस्थान; सेनाके साथ जानेवाली स्त्रियोंकी प्रतिक्रिया; गंगानदोका वर्णन । (८) नदीको देखकर भरतका प्रश्न; सारयिका उत्तर, सेनाका ठहरना । (९) पड़ावका वर्णन । (१०) रात्रि बिताना, प्रातः पूर्व दिशाकी ओर प्रस्थान । (११) गोकुल बस्ती में प्रवेश, वहाँकी वमिताओं पर प्रतिक्रिया। (१२) शबरबस्तीमें। (१३) भरतका दर्भासनपर बैठना । (१४) समुद्रका समर्पण । (१५) समुद्रका चित्रण । (१६) भरतका बाण । (१७) मागध देवका क्रुद्ध होना । (१८) मागधदेवका आक्रोश । (१९) भरतके बाणके अक्षर पढ़कर क्रोध शान्त होना । (२०) मागधदेवका समर्पण ।
सन्धि १३
२९८-३११ (१) भरतका वरदाम तीर्थ के लिए प्रस्थान । (२) उपसमुद्र और वैजयन्त समुद्रके किनारे राजाका ठहरना, सैन्यका श्लेषमें वर्णन, राजा द्वारा उपवास, कुलचिह्नों और प्रतीकोंकी पूजा । (३) सूर्योदय, धनुषका वर्णन । (४) धनुषका श्लिष्ट वर्णन । (५) वरतनुका समर्पण (६) भरत द्वारा बन्धनमुक्ति और पश्चिम दिशाको ओर प्रस्थान, सिन्धुतटपर पहुँचना । (७) सिन्धुनदीका वर्णन ( श्लेष में); भरतका डेरा डालना। (८) सन्ध्या और रातका वर्णन, सूर्योदय । (९) भरत द्वारा उपवास और प्रहरणोंकी पूजाके बाद लवण समुद्रके भीतर जाना; बाणका सन्धान करना, प्रभासका आत्मसमर्पण । (१०) विजयार्द्ध पर्वतकी ओर प्रस्थान; म्लेच्छोंपर विजय; विभिन्न जनपदोंको जीतकर विजयार्द्ध पर्वतके शिखरपर आरूढ़ होना; विजयार्द्धकी पराजय । (११) सेनाका पड़ाव; विन्ध्याके गजका नाश ।
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विषय-सूची
६३
सन्धि १४
३१२-३२७ (१) शशिशेखर देवका आगमन और निवेदन; भरत द्वारा गुहाद्वार खोलनेका आदेश; दण्डरत्नका प्रक्षेप। (२) गुहाद्वारका उद्घाटन होना; गुहाका वर्णन । (३-४) गुहादेवका पतन; भरतका चक्र भेजना और उसके पीछे सेनाका चलना । (५) गुहामार्गमें सूर्य-चन्द्रका अंकन, विभिन्न जातिके नागों में हलचल। (६) समन्मग्ना और निमग्ना नदियोंके तटपर पहुँचना
और सेतु बाँधना; सैन्यका पानी पार करना । (७) म्लेच्छकुलके राजाओंका पतन । (८) म्लेच्छ राजा द्वारा विषधरकुल नागोंके राजाको बुलाना । (९) म्लेच्छ राजाका प्रत्याक्रमणका आदेश, नागों द्वारा विद्याके द्वारा अनवरत वर्षा । (१०) चर्मरत्नसे रक्षा। (११) सेनाके घिरनेपर भरत द्वारा स्वयं प्रतिकार । (१२) मेघोंका पतन ।
सन्धि १५
३२८-३५१ (१) सिन्धु विजयके बाद राजाका ऋषभनाथके दर्शनके लिए जाना; हिमवन्तके लिए प्रस्थान । (२) हिमवन्तके कूटतलमें सेनाका पड़ाव । (३) भरत पक्षके द्वारा प्रक्षिप्त बाणको देखकर राजा हिमवन्त कुमारको प्रतिक्रिया । (४) बाणमें लिखित अक्षर देखकर उसका समर्पण । (५) भेंट लेकर उसे विदा किया जाना । (६) भरतका वृषभ महीधरके निकट जाना; उसका वर्णन; उस पर्वतके तटपर अनेक राजाओंके नाम खुदे हुए थे; राज्यको निन्दा । (७) भरतकी यह स्वीकृति कि राजा बननेकी आकांक्षा व्यर्थ है, फिर भी अपने नामका अंकन । (८) हिमवन्तसे प्रस्थान और मन्दाकिनीके तटपर ठहरना। (९) गंगाका वर्णन । (१०) गंगा देवी द्वारा भरतका सम्मान । (११) गंगाका उपहार देकर वापस जाना । (१२) सेना और नदीका श्लिष्ट वर्णन । (१३) विजया पर्वतकी पश्चिमी गुहामें प्रवेश । (१४) किवाड़का विघटन । (१५) मन्त्रियों द्वारा वहाँके शासक नमि-विनमिका परिचय । (१६) दोनों भाइयोंके द्वारा अधीनता स्वीकार । (१७) नमि-विनमि द्वारा निवेदन; भरत द्वारा उनकी पुनः स्थापना। (१८) सैन्यका प्रस्थान; गुहाद्वारमें प्रवेश; सूर्य-चन्द्रका अंकन । (१९) पर्वत गुफासे निकलकर कैलास गुफापर पहुँचना । (२०-२१) कैलास पर्वतका वर्णन । (२२) कैलासपर आरोहण । (२३) ऋषभ जिनके दर्शन ।
(२४) ऋषभ जिनकी स्तुति । सन्धि १६
३५२-३७९ (१) साकेतके लिए कूच, सैन्य के चलने की प्रतिक्रिया, अयोध्याके सीमाद्वारपर पहुँचना, स्वागतकी तैयारी। (२) चक्रका नगर सीमामें प्रवेश नहीं करना। (३-४) इस तथ्यका अलंकृत शैलीमें वर्णन; भरतके पूछनेपर राजाका इसका कारण बताना। (५) बाहबलिके बारेमें मन्त्रियोंका कथन । (६) बाहबलिकी अजेयताका वर्णन; भरतकी प्रतिक्रिया। (७) दूतका कुमारगणके पास जाना; कुमारगणकी प्रतिक्रिया । (८) भौतिक पराधीनताकी आलोचना । (९) भौतिक मूल्यों के लिए नैतिक मूल्योंकी उपेक्षा करनेकी निन्दा । (१०) कुमारोंका ऋषभके पास जाना, स्तुति और संन्यास ग्रहण; बाहुबलिको अस्वीकृति । (११) दूतका भरतको यह समाचार देना; भरतका आक्रोश । (१२) भरतका दूतको सख्त आदेश । (१३) दूतका बाहुबलिके आवासपर जाना; पोदनपुरका वर्णन । (१४) दूतकी बाहुबलिसे भेंट । (१५) दूतके द्वारा बाहुबलिकी प्रशंसा; बाहुबलिका भाईके कुशल-क्षेम पूछना । (१६) दूतका उत्तर
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महापुराण और युक्तिसे भरतकी अधीनता माननेका प्रस्ताव । (१७) दूतके द्वारा भरतकी दिग्विजयका वर्णन । (१८) दिग्विजयका वर्णन, बाहुबलिका आक्रोश । (१९) बाहुबलिका याक्रोशपूर्ण उत्तर । (२०) दूतका उत्तर और भरतका अपराजेयताका संकेत । (२१) बाहुबलि द्वारा राजाको निन्दा। (२२) दूतका भरतसे प्रतिवेदन । (२३) सूर्यास्तका वर्णन । (२४) सन्ध्याका चित्रण । (२५) रात्रिके विलासका चित्रण । (२६) विलासका चित्रण ।
सन्धि १७
३८०-३९७ (१) युद्धका श्रीगणेश; बाहुबलिका आक्रोश । (२) वनिताओंकी प्रतिक्रिया । (३) रणतूर्यका बजना: योद्धाओंका तैयार होना । (४) भरतके आक्रमणकी सूचना; बाहुबलिका आक्रोश । (५) बाहुबलिकी सेनाकी तैयारी। (६) योद्धाओंकी गर्वोक्तियाँ । (७) संग्राम भेरीका बजना। (८) मन्त्रियोंका हस्तक्षेप । (९) मन्त्रियोंका द्वन्द्व युद्धका प्रस्ताव । (१०) दृष्टि, जल और मल्ल युद्धके लिए सहमति । (११) दृष्टि युद्ध; भरतकी पराजय । (१२) जलयुद्ध; सरोवरका वर्णन । (१३) भरतकी पराजय । (१४) भरतका आक्रोश । (१५) बाहुयुद्ध; भरतकी हार । (१६) बाहुबलिकी प्रशंसा ।
सन्धि १८
३९८-४१५ (१) बाहुबलिका पश्चात्ताप । (२) राजसत्ता; संघर्षकी निन्दा; आत्मनिन्दा; संसारको नश्वरता। कालसर्पका वर्णन । (३) भरतका उत्तर; भरत द्वारा बाहुबलिकी प्रशंसा । (४) भरतका पश्चात्ताप । (५) बाहुबलिका पश्चात्ताप । (६) बाहुबलिका ऋषभ जिनके दर्शन करने जाना; ऋषभ जिनकी संस्तुति; जिन दीक्षा और पांच महाव्रतोंको धारण करना । (७) परिषह सहन करना। (८) घोर तपश्चरण । (९) भरतका ऋषभ जिनकी वन्दनाभक्तिके लिए जाना; स्तुतिके बाद बाहुबलिसे पूछना; भरतका बाहुबलिसे क्षमायाचना करना। (१०) बाहुबलिका आत्मचिन्तन और तपस्या; दश उत्तम धर्मोंका पालन । (११) चारित्र्यका पालन; केवलज्ञानकी प्राप्ति । (१२) देवोंका आगमन । (१३) भरतका अयोध्या नगरीमें प्रवेश । (१४) भरतकी उपलब्धियाँ और वैभव । (१५) भरतकी ऋद्धिका चित्रण । (१६) विलास वर्णन ।
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कथासार
सन्धि १
आवश्यक मंगलाचरण, प्रारम्भिक परिचय और प्रतिज्ञाके अनन्तर कवि बताता है कि अन्तिम तीथंकर महावीरका समवसरण राजगृहके विपुलाचल पर्वतपर आता है। मगधराज श्रेणिक महावीरकी वन्दनाभक्ति करने के लिए जाता है।
सन्धि २
समवसरणमें वन्दनाभक्तिके बाद राजा श्रेणिक गौतम गणधरसे पूछता है कि महापुराणकी अवतारणा किस प्रकार हुई । गौतम गणधर सृष्टिका संक्षिप्त वर्णन करते हुए बताते हैं कि भोगभूमिका क्षय होनेपर कर्मभूमि प्रारम्भ होती है । क्रमशः चौदह कुलकरोंका जन्म हुआ। अन्तिम कुलकर नाभिराज और मरुदेवीसे प्रथम तीर्थंकर ऋषभ जिनके जन्मके समय इन्द्रके आदेशसे कुबेरने अयोध्या नगरीकी रचना की।
सन्धि ३
अतिशय और चमत्कारोंके बीच ऋषभ जिनका जन्म होता है। इन्द्र के नेतृत्वमें देव सुमेरु पर्वतपर शिशु जिनका अभिषेक करते हैं। अनेक उत्सवोंके बाद शिशु माताको सौंपकर देवता चले जाते हैं।
सन्धि ४
धीरे-धीरे ऋषभ जिन शैशव क्रीड़ाएं समाप्त करते हैं। पिताके अनुरोधपर ऋषभसे कच्छ
और महाकच्छकी कन्याओं यशोवती और सुनन्दाका विवाह हुआ । सन्धि ५
यशोवतीसे भरतका जन्म। बड़े होनेपर ऋषभ उसे ज्ञान-विज्ञान और कलाओंमें दीक्षित करते हैं। यशोवतीसे सौ पुत्र उत्पन्न हुए और एक कन्या ब्राह्मी। सुनन्दासे कामदेव, बाहुबलि और सुन्दरी। ऋषभ धरतीका सुशासन करते हैं। चूंकि उन्होंने कर्मभूमिके प्रारम्भमें इक्षुरसका पान करना सिखाया था अतः उनका कुल इक्ष्वाकुकुल कहलाया।
सन्धि६.
इन्द्र सोचता है कि ऋषभ भोग-विलासमें लीन हैं, यदि उन्होंने दीक्षा ग्रहण कर धर्मका उपदेश नहीं किया तो जैनधर्मका उच्छेद हो जायेगा। वह नीलांजनाको ऋषभके दरबारमें नृत्य करनेको भेजता है। नर्तकी नाचते-नाचते मृत्युको प्राप्त होती है। ऋषभ जिनको वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। [९]
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६६
महापुराण
सन्धि
७ वह बारह भावनाओंका चिन्तन करते हैं। भरतको शासन-भार देकर और परिवारसे विदा लेकर अनेक राजाओंके साथ दीक्षा ग्रहण करते हैं।
सन्धि ८
ऋषभ जिन छह माहका कठोर तपश्चरण करते हैं। उनके साथ जिन राजाओंने दीक्षा ग्रहण की थी वे उससे डिग गये। ऋषभ जिनके साले तथा महाकच्छ एवं कच्छ पुत्र नमि-विनमि जो कार्यवश बाहर गये हुए थे, आये और तलवार लेकर प्रतिमायोगमें स्थित ऋषभ जिनके सम्मुख खड़े हो गये। उनका कहना था कि उन्हें कुछ नहीं मिला जब कि दीक्षा लेते समय ऋषभ जिनने सारी धरती अपने पुत्रोंको बांट दी। पाताल लोकमें धरणेन्द्रका आसन कांपता है, और वह वहां आकर ऋषभ जिनकी वन्दनाभक्ति करता है। बादमें धरणेन्द्र उन्हें विजयाध पर्वतपर ले जाकर उत्तर और दक्षिण श्रेणियाँ प्रदान करता है। वे दोनों विद्याधर श्रेणियां थीं। नमि-विनमि इसे ऋषभ जिनकी भक्तिसे उत्पन्न पुण्यका परिणाम मानते हैं।
सन्धि ९
छह माहके बाद ऋषभ जिन आहार ग्रहण करने जाते हैं। हस्तिनापुरका राजा श्रेयांस स्वप्न देखता है, वह अपने बड़े भाई कुरु राजा सोमप्रभसे स्वप्नका फल पूछता है । सोमप्रभ बताते हैं कि तुम्हारे घर कोई महान् आदमी आयेगा । द्वारपाल ऋषभ जिनके आने की सूचना देता है, दोनों भाई दर्शनके लिए जाते हैं। उसे पूर्वजन्मके स्मरणसे आहार देनेकी विधि ज्ञात हो जाती है। वह इक्षुरसका आहार देता है। देव रत्नोंकी वृष्टि करते हैं। ऋषभ जिन पुरिमताल उद्यानमें पहुँचकर तप करते हैं। उन्हें केवलज्ञान प्राप्त होता है। इन्द्र समवसरणकी रचना करता है।
सन्धि १०
ऋषभ जिन धर्मका कथन करते हैं । भरत समवसरणमें उपस्थित होता है।
सन्धि ११
ऋषभ द्वारा तियंच जीवोंका कथन ।
सन्धि १२
भरतका दिग्विजयके लिए प्रस्थान । उसे चौदह रत्नोंकी प्राप्ति होती है। वह गंगा नदीके तटपर पहुँचता है। गंगासे उपहार प्राप्त कर भरत पहाड़ोंके अन्तरालमें बसी घोष बस्तीमें जाता है । वहाँसे आगे बढ़ता है ।
सन्धि १३
मगधराजको जीतकर वह दक्षिण द्वारके वरदामा तीर्थ के लिए प्रस्थान करता है । वरतनुको जीतता है । सिन्धुनदीकी ओर कूच करता है ।
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कथासार
६७
सन्धि १४
विजया पर्वतकी विजय । म्लेच्छ मण्डलका पतन । आवर्त और किलातकी हार । सन्धि १५
हिमवन्त पर्वतके लिए कुच । भरत महीधरपर अपना नाम अंकित करता है। उसमें उसने यह लिखा-"मैं कामका क्षय करनेवाले प्रथम तीर्थंकर ऋषभ जिनका पुत्र हूँ, नामसे भरत, जो धरतीका श्रेष्ठ भरताधिपति माना जाता है। मैंने हिमवन्तसे लेकर समुद्र पर्यन्त धरतीको स्वयं जीता है।" नमि और विनमि राजाओंसे भेंट । कैलास पर्वतपर जाकर वह ऋषभ जिनसे भेंट करता है।
सन्धि १६
दिग्विजयके उपरान्त भरत चक्रवर्ती अयोध्या वापस आता है। परन्तु उसका चक्र नगर सीमाके भीतर प्रवेश नहीं करता। कारण यह था कि बाहबलि सहित भरतके सौ भाई उसके अधीन नहीं थे। भरत अपना दूत भेजता है। उसके सगे भाई, सांसारिक सुखोंके लिए अधीनता स्वीकार करनेके बजाय ऋषभ जिनसे दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। बाहुबलि न तो भरतकी अधीनता स्वीकार करता है और न दीक्षा ग्रहण करता है।
सन्धि १७
दोनोंमें युद्ध छिड़ता है । मन्त्री सेनाओंके युद्धको रोककर द्वन्द्व युद्ध की सलाह देते हैं । भरत तीनों युद्धोंमें हार जाता है।
सन्धि १८
बाहुबलि अपने बड़े भाईको पराजयसे दुःखी हो उठते हैं। अनुतापके साथ वे भरतको समझाते हैं और उनसे क्षमा मांगते हैं। वह ऋषभ जिनके पास जाकर दीक्षा ग्रहण करते है। भरत राजपाट संभालते हैं। कुछ समय बाद भरत ऋषभ जिनवरकी वन्दना करने जाते हैं । वह उनसे बाहुबलिको केवलज्ञान न होनेका कारण पूछते हैं । ऋषभ जिन बताते हैं कि मानकषायके कारण बाहुबलि मुक्तिसे वंचित है। भरत जाकर अपने भाईसे क्षमा याचना करते हैं। बाहुबलिको केवलज्ञान प्राप्त होता है। भरत अयोध्या वापस आकर अपना राज-काज देखते हैं ।
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शुद्धि-पत्र
संधि
१. २.
२.१६.७ ५.१५.१४
३९ १०८
५.
७.६.९
१३३
२२१
६. १०.३.१२ ७. ११.३५.१५
२७३
पंक्ति अशुद्ध
शुद्ध ४ कुम्भस्थलके समान कुम्भस्थलपर ३ हृदयका अपहरण
सुन्दर आँखोंवाली स्त्रियोंके
हृदयका अपहरण शान्तिका
तृप्तिका कोयल
कोयलकी तरह बारबार
खाया, धुना, घायल किया
और गिराया जाता है बारबार भापाओं
भाषाओं जिसमें रत नक्षत्र पल्य ये भरतके द्वारा पूज्य ग्रहनक्षत्र, लोग भरतके द्वारा पूज्य जिन भगवान में रत हैं
भी हैं ११ पूरित रहता है
पूरित किया करता है नाशका क्या वर्णन करूं? विस्तारका क्या वर्णन करूं? उस अवसपर
उस अवसरपर गिरिघाटी
गिरिघाटियों स्वयं बोध
स्वयं बांध लिया क्या जाने वह उसीको लग क्या वही उसके जानुओं गया
(घुटनों) को लग गया।
८.
१३.६.४
३०३
१
९. १३.११.१२ १०. १४.८.१३ ११. १४.१२.९ १२. १६.२५.१२
३११ ३२१ ३२५ ३७७
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हिन्दी अनुवाद के कुछ संशोधन
कृपया सुधार कर पढ़ें
पृष्ट पंक्ति
२६-४-१० सम्मत्त वियक्खडु-सम्यक्त्व से विचक्षण ( सम्पन्न )। २२९-९-१५ आहारक शरीर किन्हीं विशेष मुनियों के होता है। २३१-११-५ ये पर्याप्तक अपर्याप्तक तथा सूक्ष्म और स्थावर होते हैं."साधारण प्रकार के वनस्पति
जीवोंका श्वासोच्छ्वास और आहार साधारण होता है और प्रत्येक जीवोंका अलग
अलग होता है। २३३-१३ जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड, पुष्करवरद्वीप, वारुणीद्वीप, क्षीरवरद्वीप, घृतवरद्वीप, मधुइवर
द्वीप, नन्दीश्वरद्वीप, अरुणवरद्वीप, अरुणाभास, कुण्डलद्वीप, शंखवरद्वीप, रुचकवरद्वीप, भुजगवरद्वीप, कुशगवरद्वीप, क्रौंचवरद्वीप"साधिक एक हजार योजनका विस्तारवाला पद्म (कमल) है। दो इन्द्रिय (शंख) बारह योजन लम्बा देखा गया है। तीन इन्द्रिय
(चिऊँटी) तीन कोसका है। चार इन्द्रिय (भौंरा) एक योजन प्रमाणवाला है। २३५-१४ गंगा आदि नदियोंके प्रवेश मखमें नौ योजनके होते हैं. तथा कालोद समुद्रमें नदी
प्रवेश मुखमें १८ योजन और मध्य समुद्रमें छत्तीस योजन लम्बे होते हैं ।"""" २३५-१४ जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कही गई अवगाहना एक वालिस्त की होती है।"अंगुलके
असंख्यातवें भाग होती है। २३७- मनुष्य और तियंचोंके छहों संस्थान होते हैं।
मन्थर गमन करनेवाली चन्द्रमुखी स्त्री रत्नोंके शंखावर्तक योनि होती है। २३९-३ दक्षिण भरतका विस्तार पांच सौ छब्बीस योजन है, उत्तरमें इतना ही विस्तार
ऐरावत क्षेत्रका है।
धत्ता क्षेत्रसे चौगुना क्षेत्र और पर्वतसे चौगुना पर्वत है । २४१-५ उसके ऊपर पा सरोवरसे तीन रूपसे गणा महापद्म नामका सरोवर है अर्थात् उसकी
लम्बाई-चौड़ाई-गहराई पद्मसे दुगुनी है । २४३-४ रुचकगिरि और इष्वाकारगिरि है।
२४३-७ घत्ता-वहाँ कोई एकऊरु धारी है। २४३-८-६ मरकर भवनवासी और व्यन्तर होते हैं। २४३-८-१२ कल्पवासी देवोंमें उत्पन्न होते हैं। २४५-१०-७ भार धारण करनेवाले अभव्य उपरिम ग्रेवेयकमें देव होते हैं । २४७-११-४ मच्छ और मनुष्य सातवें नरक तक जाते हैं । २४७-११-७ मनुष्य और तिर्यच"शलाका पुरुष नहीं हो सकते। २४९-१३-७ वहाँ मिथ्यादृष्टियोंका विभंगज्ञान होता है और जो जिनमतमें दक्ष सम्यग्दृष्टि होते हैं
उन्हें सम्यक् अवधिज्ञान स्वभावसे होता है।
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महापुराण पृष्ठ पंक्ति २५३-१९-२ पांचवीं भूमिमें एक सौ पच्चीस धनुष ऊंचा शरीर होता है। इस प्रकार शरीर बढ़ता
जाता है और आपत्ति भी भीषण होती जाती है । २५५-२०-२ सर्वत्र उत्तम आयुसे शब्दसे उत्कृष्ट आयु जानना चाहिये। २५५-२०- घता...''दो कल्पोंमें गृहोंकी ऊँचाई छह सौ योजन है। २५५-२३- उससे ऊपरके दो कल्पोंमें घरोंकी ऊँचाई पांच सौ योजन, उससे ऊपरके दो कल्पों में
साढ़े चार सौ योजन, उससे ऊपरके दो कल्पोंमें चार सौ योजन, उससे ऊपरके दो कल्पोंमें साढ़े तीन सौ योजन, उससे ऊपरके दो कल्मोंमें तीन सौ योजन और उससे ऊपरके चार कल्पोंमें अढ़ाई सौ योजन देवगृहोंकी ऊँचाई है। उससे ऊपर तीन अघोप्रैवेयकोंमें दो सौ योजन, उससे ऊपर तीन मध्यग्रंवेयकोंमें डेढ़ सौ योजन, उससे ऊपर तीन उपरिम अवेयकोंमें सौ योजन, ऊपर-ऊपर अनुदिशोंमें पचास योजन और
अनुत्तरोंमें पचीस योजन ऊँचाई है। २६१-२६-११ फिर सौधर्मादि प्रत्येक स्वर्गमें क्रमसे सौधर्ममें पांच पल्य, ऐशानमें सात पल्य,
सानत्कुमारमें नौ पल्य, माहेन्द्र स्वर्गमें ग्यारह पल्य, ब्रह्म स्वगमें तेरह पल्य, ब्रह्मोत्तरमें पन्द्रह पल्य, लान्तवमें सतरह पल्य, कापिष्ठमें उन्नीस पस्य, शुक्रमें इक्कीस पल्य, महाशुक्रमें तेईस पल्य, शतारमें पचीस पल्य, सहस्रारमें सत्ताईस पल्य, आनतमें चौंतीस पल्य, प्राणतमें इकतालीस पल्य, आरणमें अड़तालीस पल्य और अच्युतमें पचपन पल्य
आयु होती है। २६१-२६ घत्ता"उससे ऊपर एक-एक सागर अधिक ।
२६३-७ ज्योतिष देवोंका अवधिज्ञान संख्यात योजन होता है । यह जघन्य क्षेत्र है। २६३-२८-७ अट्ठाईस, इस प्रकार एक-एक घटाते हुए सोलहवें स्वर्ग में देव बाईस हजार वर्षों में
आहार (मानसिक) ग्रहण करते हैं । २६५ घत्ता--नारकियोंके चार गुणस्थान होते हैं और देवोंके भी चार होते हैं। २६७
घत्ता--अनन्तानुबन्धी क्रोध. २६७-३१-२ संज्वलन क्रोध" २७१-३४-२ धर्म, अधर्म, आकाश और कालके साथ रूपसे रहित हैं"धर्म और अधर्म समस्त
त्रिलोकमें व्याप्त है ।"परमाणु अशेष अविभाज्य हैं। २७१-३४- पत्ता--पुद्गलके छह प्रकार हैं-सूक्ष्मसूक्ष्म, सूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, स्थूलसूक्ष्म, स्थूल,
स्थूलस्थूल।
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महापुराण
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१०
१५
५
पुप्फयंतविरइयउ महापुराणु
सिद्धिवहूमणरंजणु परमणिरंजणु भुवणकमलसरणेसरु ॥ पणविवि विग्घविणासणु णिरुवमसासणु रिसहणाहु परमेसरु ॥ध्रु०||
१
संधि १
१
सुपरिक्खिय रक्खियभूयतणुं पयडियसासयपयणयरवह सुहसीलगुणोहणिवासह रं जुइणिज्जिय मंदर मेहलयं सोहंता सोयरमियविवरं सुरण किडपट्टि पर्यं णवतरणिसमप्पहभावलयं हरिमुक्ककुसुम चित्त लियणह सीहासैंणछत्तत्तयसहियं दुंदुहिसर पूरियभुवणहरं पुरुऐवजिणं जियकामरणं विरयं वरयं नियमोहरयं पणमामि रवि केवलकिरणं घत्ता - अवरु वि पणविवि सम्मई जासु तित्थि मई लद्ध
पंचसयधणुण्णयदिव्वतणुं । परसमय भणिय दुण्णयरवहं । देविदेयं दिव्वासहरं । पविमुक्कहारमणिमेहलयं । उव्वासियबहुणारयविवरं । अइपरपसायपट्ठियं । णिरुदुस्सहदुम्मेयभावलयं । अरुतमर्णतजसं अणहं । उद्धरियपरं सकिवं सहियं । बंधू अफुल्लसं हिणहरं । दूरुज्झियजम्मजरामरणं । उद्धूय भीमणियमोहरयं । मत्ता समयं भणियं किर णं । विणिहयदुम्मई कोवपावविद्धंसणु || णाणसमिद्धउ णिम्मलुँ सम्म ॥ १ ॥
२
णिम्महियमाणमायामयाहूं साहूण वि चरणभोरुहाई
हरिसु सरसु सुमहरु चवंति गंभीर पण सुवणदेह सालंकारी छंदेण जंति
जिणसिद्धसूरि सुयेदेसयाहं । दरिसियसुरणयमुहाई | कोमलपयाई लीलाइ दिति । कं तिल्ल कुडिल णं चंद रेह । बहुत्थत्थगारव वहति ।
१. १. B देविदथुवं । २. M दुम्ह । ३. MBP अरहंत । ४. MBP सिंहा सण । ५. MB पुरएव । ६. T notes पणयामिरविं as p and explains it as पणयामीति पाठे पणयो मोहः स एव यामी नाम रात्रिस्तस्या रवि स्फेटकम् । ७. M णिम्मल ।
२. १. M जिणदेवयाहं, but सुयदेवयाहं in the margin । २. MBG हे दरिसियं । ३. M बहुअत्थगारवं संवहंति, but adds सत्य in margin; P बहुअत्थगंथगारव वहंति ।
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पुष्पदन्त - विरचित महापुराण
( हिन्दी अनुवाद )
सिद्धिरूपी वधूके मनका रंजन करनेवाले, अत्यन्त निरंजन ( पापोंसे रहित), विश्वरूपी कमल-सरोवरके सूर्य, "विघ्नोंका नाश करनेवाले, तथा अनुपम मतवाले ऋषभनाथको मैं प्रणाम करता हूँ ।
१
जो अच्छी तरह परीक्षित हैं, जिन्होंने पृथ्वी - जलादि पाँच महाभूतोंके विस्तारकी रक्षा की है, जिनका शरीर दिव्य और पांच सौ धनुष ऊँचा है, जिन्होंने शाश्वत पदरूपी ( मोक्ष ) नगरका पथ प्रकट किया है, जिन्होंने परमतोंके एकान्त प्रमाणोंका नाश किया है, जो शुभशील और गुणसमूह के निवास- गृह हैं, जो देवोंके द्वारा संस्तुत और दिशारूपी वस्त्र धारण करनेवाले ( दिगम्बर) हैं, जिन्होंने अपनी कान्तिसे मन्दराचलको मेखलाको जीत लिया है, जिन्होंने हार और रत्नमालाओं का परित्याग किया है, जो क्रीड़ारत श्रेष्ठ पक्षियोंसे युक्त अशोकवृक्षसे शोभित हैं, जिन्होंने अनेक नरकरूपी बिलोंको उखाड़ दिया है, जिनके चरण देवेन्द्रोंके मुकुटोंसे घर्षित हैं, जिन्होंने प्रचुर प्रसादोंसे प्रजाओंको आनन्दित किया है, जिनका प्रभामण्डल नवसूर्यको प्रभाके समान है और जो ( प्रमाणहीन होने के कारण ) अत्यन्त असह्य, मिथ्यागमके भावोंका अन्त करनेवाले हैं, जिनके कारण इन्द्रके द्वारा बरसाये गये पुष्पोंसे आकाश पुष्पित और चित्रित है, जो अनन्त यशवाले पापसे रहित अर्हत हैं, सिंहासन और तीन छत्रोंसे युक्त हैं, जो मिथ्यावादियोंका नाश करनेवाले कृपालु तथा हितकारी हैं, जो दुन्दुभियोंके स्वरसे विश्वरूपी घरको आपूरित करनेवाले हैं, जिनके नख दुपहरिया पुष्पों के समान आरक्त हैं, जो कामदेवसे युद्ध जीत चुके हैं, जिन्होंने जन्म, जरा और मृत्युको दूरसे छोड़ दिया है, जो मलसे रहित और वरदाता हैं, जो नियमों (व्रतों) के समूहमें लोन हैं, जिन्होंने अपनी मोहरूपी भीषण रजको नष्ट कर दिया है, और जो मत्तासमय ( मात्रा परिग्रहको शान्त करनेवाले – मात्रा समय छन्द ) कहे जाते हैं, ऐसे केवलज्ञानरूपी किरणोंसे युक्त सूर्य, जिन भगवान्को में प्रणाम करता हूँ ।
घत्ता - और भी मैं ( कवि पुष्पदन्त ), जिन्होंने दुर्गतिका नाश कर दिया है ऐसे, तथा क्रोधरूपी पापका नाश करनेवाले सन्मतिनाथको प्रणाम करता हूँ कि जिनके तीर्थकालमें ज्ञानसे समृद्ध पवित्र सम्यग्दर्शनको मैंने प्राप्त किया ॥१॥
२
मान, माया और मदरूपी पापोंका नाश करनेवाले, अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुओं के आकाशमें देवताओंके मुखोंको प्रणत दिखानेवाले चरणकमलों में मैं कवि (पुष्पदन्त) प्रणाम करता हूँ। जो (सरस्वती) हर्षं उत्पन्न करनेवाला सरस और मधुर बोलती हैं, जो अपने कोमलपदों (चरणों, पादों ) से लीलापूर्वक चलती हैं, जो गम्भीर, प्रसन्न और सोनेके समान शरीरवाली हैं, मानो कान्तिमयी कुटिल चन्द्रलेखा हो; चन्द्रलेखा कान्तिसे युक्त और कुटिल होती है सरस्वती भी स्वर्ण देहवाली होनेसे कान्तिमयी एवं कुटिल ( वक्रोक्ति संयुक्त ) है । जो अलंकारोसे युक्त और
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१०
१०
१५
४
चोपुव्विल्ल दुवालसंगि मुहमुहवासिणि सद्दजोणि दुक्खक्खयकारिणि सोक्खखाणि धम्माणुसासणाणंदभरिउ
महापुराण
धत्ता - जेण सुरण सुहोहई तिहुयर्णखोहई होंति चारुकल्लाणई ॥ उप्पज्जति पसत्थई मुणियपयत्थई मणुयहो पंच वि जाण ॥२॥
जिणैव यणविणिग्य सत्तभंगि । णीसेस हेउ सा सोहछोणि । पणदेवि सरासह दिव्ववाणि । पुणु कहमि णिरहु णाहेयचरिउ ।
चमराणि उड्डावियगुणाइ अविवेयइ दप्पुत्तालियाइ सत्तंगरज्जभरभारियाइ विससहजम्मइ जडरत्तियाइ संप जणु णीरसु णिव्विसेसु तर्हि अहह लइ काणणु जि सरणु
तं कमि पुराणु पसिद्धणामु बर्द्धजूड भूभंगभी मुक्करामु रायाहिराउ तं दीर्णदिण्णघणकणयपयरु अवहेरियलयणु गुणमहंतु दुग्गमदीहरपंथेण णु तरुकुसुमरेणु रंजियसमीरि
दवणि किर वीसमइ जाम पणवेपणु तेहिं पत्तु एव परिभमिरभमररवगुमगुमंति करिसर वहिरियदिच्चक्कवालि तं सुणिवि भइ अहिमाणमेरु दुज्जैणभ उँहावं कियाई घत्ता—वर णरवरु धवलच्छि होउ म कुच्छिहे मरउ सोणिमुहणिग्गमे ॥ खलकुच्छियपहुवयणइं भिउडियणयणईं मणिहालउ सूरुग्गमे || ३ ||
उहा कियाई ।
४. १. MBP देसु ।
३
सिद्धत्थवरिसि भुवणाहिरामु । तोडेपणु चोडहो तणउ सीसु । जहिं अच्छइ तुडिंगु महाणुभाउ । महि परिभमंतु मेपौडिण्यरु । दियहेहिं पराइ पुप्फयंतु । rain देखीणु । मौदगोंछ गोंद लिय कीरि ।
विणि पुरिस संपत्त ताम भो खंड गलियपावावलेव | किं किर णिवसहि णिज्जणवणंति । पइसरहण किं पुरवरि विसालि । वरि खज्जेइ गिरिकंदरि कसेरु । दीसंतु सभाकियाई ।
४
अहिसेयधोयसुयणत्तणाइ । मोइ मारणसीलियाइ । पिउपुत्तरमणरसयारियाइ । किं लच्छिइ विउसविरत्तियाइ । गुणवंत जहिं सुरगुरु वि वेसु । अहिमाणें सहुं वरि होउ मरणु ।
४. M चौद्दहं; P चउदहं ; T चोद्दसं । ५. T मुणि । ६. M विणग्गयं । ७. P सद्दत्यजोणि । ८. P तिहुणु खोहई |
३. १ MP ओबद्ध and gloss in M उत्कृष्टकेशपाशम् ; B नबद्धजूड । मेवाडि ; B मेवाड' । ४. K मायंदगोंदगोंद लिय । ५. MBP खज्जउ ।
[ १.२.६
२. M बंदीर्णं । ३. MP ६. M हउँहावं कियाइँ; BP
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१. ४.६]
हिन्दी अनुवाद छन्दके द्वारा चलती है, जो बहुत-से शास्त्रोंके अर्थगौरवको धारण करती है, जो चौदह पूर्वो और बारह अंगोंसे युक्त है, जो जिनमुखसे निकली हुई सप्तभंगीसे सहित है, जो ब्रह्माके मुखमें निवास करनेवाली एवं शब्द योनिजा है, जो निश्रेयस् की युक्ति और सौन्दर्य की भूमि है, जो दुःखोंका क्षय करनेवाली और सुखकी खदान है, ऐसी दिव्यवाणी सरस्वती देवीको प्रणाम कर मैं धर्मानुशासनके आनन्दसे भरे हुए, तथा पापसे रहित नाभेय चरित (आदिनाथके चरित) का वर्णन करता हूँ।
पत्ता-जिस ( आदिपुराण) चरित्रको सुननेसे मनुष्यको सुखोंके समूह और त्रिभुवनको क्षुब्ध करनेवाले सुन्दर पाँच कल्याण प्राप्त होते हैं, तथा पदार्थों को जाननेवाले प्रशस्त पांचों ज्ञान उत्पन्न होते हैं ॥२॥
मैं विश्वमें सुन्दर प्रसिद्ध नाम महापुराणका सिद्धार्थ वर्षमें वर्णन करता हूँ। जहाँ ( मेलपाटी नगरमें ) चोलराजाके केशपाशवाले भ्रूभंगसे भयंकर सिरको नष्ट करनेवाला, विश्वमें एकमात्र सुन्दर राजाधिराज महानुभाव तुडिग ( कृष्ण तृतीय ) राजा विद्यमान है। दीनोंको प्रचुर स्वर्णसमूह देनेवाले ऐसे उस मेलपाटि नगरमें धरतीपर भ्रमण करता हुआ, खलजनोंकी अवहेलना करनेवाला, गुणोंसे महान् कवि पुष्पदन्त कुछ ही दिनोंमें पहुंचा। दुर्गम और लम्बे पथके कारण क्षीण, नवचन्द्रके समान शरीरसे दुबला-पतला वह, जिसके आम्रवृक्षके गुच्छोंपर तोते इकट्ठे हो रहे हैं और जिसका पवन वृक्ष-कुसुमोंके परागसे रंजित है ऐसे नन्दनवनमें जैसे ही विश्राम करता है वैसे ही वहां दो आदमी आये। प्रणाम कर उन्होंने इस प्रकार कहा-“हे पापके अंशको नष्ट करनेवाले कवि खण्ड (पुष्पदन्त कवि), परिभ्रमण करते हुए भ्रमरोंके शब्दोंसे गूंजते हुए इस एकान्त उपवनमें तुम क्यों रहते हो? हाथियोंके स्वरोंसे दिशामण्डलको बहरा बना देनेवाले इस विशाल नगरवरमें क्यों नहीं प्रवेश करते ?" यह सुनकर अभिमानमेरु पुष्पदन्त कवि कहता है"पहाड़की गुफामें घास खा लेना अच्छा, परन्तु कलुषभावसे अंकित, दुर्जनोंकी टेढ़ी भौंहें देखना अच्छा नहीं।"
घत्ता-अच्छा है श्रेष्ठ मनुष्य, धवल आँखोंवाली उत्तम स्त्रोकी कोखसे जन्म न ले, या गर्भसे निकलते ही मर जाये, लेकिन यह अच्छा नहीं कि वह टेढ़ो आँखोंवाले, दुष्ट और भद्दे प्रभु-मुखोंको सवेरे-सवेरे देखे ॥३॥
जो चामरोंकी हवासे गुणोंको उड़ा देती है, अभिषेकके जलसे सुजनताको धो देती है, जो अविवेकशील है, दर्पसे उद्धत है, मोहसे अन्धी और दूसरोंको मारनेके स्वभाववाली है, जो सप्तांग राज्यके भारसे भारी है जो पुत्र और पिताके साथ रमणरूपी रसमें समानरूपसे आसक्त है, जिसका जन्म कालकूट (विष ) के साथ हुआ है, जो जड़ोंमें अनुरक्त है और विद्वानोंसे विरक्त है, ऐसी लक्ष्मीसे क्या? सम्पत्तिमें मनुष्य सब प्रकारसे नीरस होता है, जहाँ गणवान तक द्वेष्य होता है, वहाँ हमारे लिए तो, वन ही शरण है। ( कमसे कम ) स्वाभिमानके साथ मृत्युका
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[१.४.७
महापुराण अम्मयइइंदराएहिं तेहिं
आयेण्णिवि तं पहसियमुहेहिं । गुरुविणयपणयपणवियसिरेहिं पडिवयणु दिण्णु णायरणरेहिं । घत्ता-जणमैणतिमिरोसारण मयतरुवारण णियकुलगयणदिवायर ॥
भो भो केसवतणुरुह णवसररुहमुह कव्वरयणरयणायर ॥४॥
बंभंडमंडवारूढकित्ति
अणवरयरइयजिणणाहभत्ति । सुहतुंगदेवकमकमलभसलु णीसेसकलाविण्णाणकुसलु । पाययकइकवरसावउद्ध संपीयसरासइसुरहिदुधु । कमलच्छु अमच्छरु सच्चसंधु रणभरधुरधरणुग्घुट्ठखंधु । सविलासविलासिणिहिययथेणु सुपसिद्धमहाकइकामधेणु । काणीणदीणपरिपूरियासु
जसपसरपसाहियदसदिसासु । पररमणिपरंमुहु सुद्धसीलु
उण्णयमइ सुयणुद्धरणलीलु । गुरुयणपयपणवियउत्तमंगु *सिरिदेवियंबगब्भुब्भवंगु । अण्णइयतणयतणुरुहु पसत्थु हत्थि व दाणोल्लियदीहहत्थु । महमत्तवंसधयवडु गहीरु लक्खणलक्खंकियवरसरीरु। दुव्वसणसीहसंघायसरहु ण वियाणहि किं णामेण भरहु । घत्ता-आउ जाउ तहो मंदिरु णयणाणंदिरु सुकइकइत्तणु जाणइ ॥
सो गुणगणतत्तिल्लंउ तिहुयणि भल्लउ णिच्छउ पई संमाणइ ॥५॥
जो विहिणा णिम्मिउ कव्वपिंडु आवंतु दिट्टु भरहेण केम पुणु तासु तेण विरइउ पहाणु संभोसणु पियवयणेहिं रम्मु तुहं आयउ णं गुणमणिणिहाणु पुणु एवं भणेप्पिणु मणहराई वरण्हाणविलेवणभूसणाई अच्चतरसालई भोयणाई देवीसुएण कइ भणिउ ताम
तं णिसुणिवि सो संचलिउ खंडु । वाईसरिसरिकल्लोलु जेम । घरु आयहो अब्भागयविहाणु । णिम्मुक्कडंभु णं परमधम्मु । तुहुं आयउ णं पंकयहो भाणु । पहरीणझीणतणुसुहयराई। दिण्णइं देवंगई णिवसणाई। गलियाइं जाम कइवयदिणाई। भो पुप्फयंत ससिलिहियणाम ।
२. MBP आयण्णिय; G आयण्णवि । ३. MB तिउरोसारण । ५. १. MBPK° बलुडु, but G°रसायउद्धु and marginal gloss रसावबुद्धः; T also रसाव
उद्धु and explains it as परिज्ञातरसः । २. MBP धरणुग्घिट्ठखंधु । ३. MPघेणु । ४. P सिरिअम्बदेवि B सिरिदेविअम्ब । ५. M आउज्जाहं । ६. P भत्ति ल्लउ though mar
ginal gloss °चिन्तकः । ६. १. B omits this line। २. Bomits a of this line ३. M पुणु एण; P पुणु एम।
४. MBP पहखीणरीणतणु । ५. B दिण्णाई देवगइणिवसणाई।
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हिन्दी अनुवाद होना अच्छा । यह सुनकर अम्मइया और इन्द्रराज दोनों नागरनरोंने हँसते हुए तथा भारी विनय और प्रणयसे अपने सिरोंको झुकाते हुए यह प्रत्युत्तर दिया-।।
घत्ता-जनमनोंके अन्धकारको दूर करनेवाले, मदरूपी वृक्षके लिए गजके समान, अपने कुलरूपी आकाशके सूर्य, नवकमलके समान मुखवाले, काव्यरूपी रत्नोंके लिए रत्नाकर, हे केशवपुत्र (पुष्पदन्त ) ||४||
जिसकी कीर्ति ब्रह्माण्डरूपी मण्डपमें व्याप्त है, जो अनवरत रूपसे जिनभगवान्की भक्ति रचता रहता है, जो शुभ तुंगदेव ( कृष्ण ) के चरणरूपो कमलोंका भ्रमर है, समस्त कलाओं और विज्ञानमें कुशल है, जो प्राकृत कृतियोंके काव्यरससे अवबुद्ध है, जिसने सरस्वतीरूपी गायका दुग्ध पान किया है, जो कमलोंके समान नेत्रवाला है, मत्सरसे रहित, सत्य प्रतिज्ञ, युद्धके भारकी धुराको धारण करने में अपने कन्धे ऊँचे रखनेवाला है, जो विलासवती स्त्रियोंके हृदयोंका चोर है, और अत्यन्त प्रसिद्ध महाकवियोंके लिए कामधेनके समान है, जो अकिंचन और दीनजनोंकी आशा पूरी करनेवाला है, जिसने अपने यशके प्रसारसे दसों दिशाओंको प्रसाधित किया है, जो परस्त्रियोंसे विमुख है, जो शुद्ध स्वभाव और उन्नत मतिवाला है, जिसका स्वभाव सुजनोंका उद्धार करना है, जिसका सिर गुरुजनोंके चरणों में प्रणत रहता है, जिसका शरीर श्रीमती अम्बादेवीको कोखसे उत्पन्न हुआ है, जो अम्मइयाके पुत्रका पुत्र है, प्रशस्त जो हाथीके समान, दान ( दान और मदजल ) से उल्लसित दीर्घ हस्त (सूंड और हाथ ) वाला है, जो महामन्त्री वंशका गम्भीर ध्वजपट है, जिसका शरीर श्रेष्ठ लक्षणोंसे अंकित है, जो दुव्र्यसनरूपी सिंहोंके संहारके लिए श्वापदके समान है, ऐसे भरत नामके व्यक्तिको क्या आप नहीं जानते ?
घत्ता-आओ उसके घर चलें, नेत्रोंको आनन्द देनेवाला वह सुकवियोंके कवित्वको अच्छी तरह जानता है। गुणसमूहसे सन्तुष्ट होनेवाला वह, त्रिभुवनमें भला है और निश्चय ही वह तुम्हारा सम्मान करेगा ॥५॥
जिसे विधाताने काव्यशरीर बनाया है, ऐसा खण्डकवि पुष्पदन्त यह सुनकर चला। आते हुए भरतने उसे इस प्रकार देखा जैसे सरस्वतीरूपी नदीकी लहर हो। फिर उसने घर आये हुए उस (पुष्पदन्त) का प्रमुख अतिथि-सत्कार विधान किया तथा प्रिय शब्दोंमें सुन्दर सम्भाषण किया-"तुम मानो दम्भसे रहित परमधर्म हो, तुम आये अर्थात् गुणरूपी मणियोंका समूह आ गया, तुम आ गये अर्थात् कमलोंके लिए सूर्य आ गया।" इस प्रकार पथसे थके और दुर्बल शरीरके लिए शुभकर सुन्दर वचन कहकर, उसने ( भरतने ) उन्हें उत्तम स्नान, विलेपन, भूषण, देवांग वस्त्र तथा अत्यन्त स्वादिष्ट भोजन दिया। जब कुछ दिन बीत गये, तो देवीसुत (भरत ) ने कहा-'चन्द्रमाके समान प्रसिद्ध नाम हे पुष्पदन्त, अपनी लक्ष्मी विशेषसे देवेन्द्रको
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[१.६.१०
महापुराण णियसिरिविसेसणिज्जियसुरिंदु गिरिधीरु वीर भइरवणरिंदु । पई मण्णिउ वण्णिउ वीरराउ । उप्पण्णउ जो मिच्छत्तराउ । पच्छित्तु तासु जइ करहि अज्जु ता घडइ तुज्झु परलोयकज्जु । तुहुँ देउ को वि भन्वयणबंधु पुरुएंवचरियभारस्स खंधु । अब्भत्थिओ सि दे देहि तेम णिव्विग्घे लहु णिव्वहइ जेम । घत्ता-अइललियए गंभीरए सालंकारए वायए ता किं किज्जइ ।।
जेइ कुसुमसरवियारउ अरुहु भडारउ सब्भावें ण थुणिज्जइ ।।६।।
सियदंतपंतिधवलीकयासु ता जंपइ वरवायाविलासु । भो देवीणंदण जयसिरीह
किं किज्जइ कन्वु सुपरिससीह । गोवज्जिएहि णं घणदिणेहिं सुरवरचावेहि व णिग्गुणेहिं । मइलियचित्तहिं णं जरघरेहिं छिद्दण्णेसिहिं णं विसहरेहिं । जडवाइएहिं णं गयरसेहि दोसायरेहिं णं रक्खसेहिं । आचक्खियपरपुट्ठीपलेहिं
वरकइ णिदिज्जइ हयखलेहिं । जो बालबुड्ढसंतोसहेउ
रामाहिरामु लक्खणसमेउ । जो सुम्मइ कइवइ विहियसेउ तासु वि दुज्जणु किं परि में होउ । घत्ता-णउ महु बुद्धिपरिग्गहु णउ सुयसंगहु ण कासु वि केरउ बलु ।।
भणु किह करमि कइत्तणु ण लहमि कित्तणु जगु जि पिसुणसयसंकुलु ।।७।।
तं णिसुणिवि भरहे वुत्तु ताव भो कइकुलतिलय विमुक्कगाव । सिमिसिमिसिमंतकिमिभरियरंधु मिल्लेवि कलेवरु कुणिमगंधु । ववगयविवेउ मसिकसणकाउ सुंदरपएसि किं रमइ काउ। णिक्कारुणु दारुणु बद्धरोसु दुज्जणु ससहावे लेइ दोसु। हयतिमिरणियरु वरकरणिहाणु ण सुहाइ उलूयहो उईउ भाणु । जइ ता किं सो मंडियसराह णउ रुच्चइ वियसियसिरिहराहं । को गणइ पिसुणु अविसहियतेउ भुक्कउ छणयंदहु सारमेउ । जिणचरणकमलभत्तिल्लएण ता जंपिउ कव्वपिसल्लएण । घत्ता-णउ हउं होमि वियक्खणु ण मुणमि लक्खणु छंदु देसि ण वियाणमि ।
जा विरइय जयवंदहिं आसि मुणिंदहिं सा कह केम समाणमि ।।८।। ६. B वीरभइरव। ७. MBPK भाउ, but GT मिच्छत्तराउ and gloss 'रागः ।
८. M पुरएवं । ९. M जय । ७. १. T जरहरेहिं । २. PC ण । ८. १. MBP सुहाय । २. P उयउ । ३. P छणइंदह । ४. P पयासमि but marginal gloss कथं
समानयामि वर्णयामि ।
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१.८.१०]
हिन्दी अनुवाद
९
जिसने जीता है, ऐसा गिरिकी तरह धीर और वीर भैरवराजा हैं । तुमने उस वीर राजाको माना है और उसका वर्णन किया है ( उसपर किसी काव्यकी रचना की है) इससे जो मिथ्यात्व उत्पन्न हुआ है। यदि तुम आज उसका प्रायश्चित्त करते हो तो तुम्हारा परलोक-कार्यं सध सकता है। तुम भव्यजनोंके लिए बन्धुस्वरूप कोई देव हो। तुमसे अभ्यर्थना की जाती है ( मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ ) कि तुम पुरुदेव ( आदिनाथ ) के चरितरूपी भारको इस प्रकार धा दो जिससे वह बिना किसी विघ्नके समाप्त हो जाये ।
घत्ता - उस वाणी से क्या ? अत्यन्त सुन्दर गम्भीर और अलंकारोंसे युक्त होनेपर भी जिससे, कामदेवका नाश करनेवाले आदरणीय अर्हतुकी सद्भावके साथ स्तुति नहीं की जाती ||६||
७
तब, अपनी सफेद दन्त पंक्तिसे दिशाओंको धवलित करनेवाला और वरवाणीसे विलास करनेवाला पुष्पदन्त कवि कहता है - "विजयरूपी लक्ष्मीकी इच्छा रखनेवाले पुरुषसिंह देवीनन्दन (भरत) काव्यकी रचना क्यों की जाये ? जहाँ हत दुष्टोंके द्वारा श्रेष्ठ कविकी निन्दा की जाती है, जो मानो ( दुष्ट ) मेघदिनोंकी तरह गो ( वाणी / सूर्यकिरणों) से रहित हैं, ( गो वर्जित ) जो मानो इन्द्रधनुषों की तरह निर्गुण ( दयादि गुणों/ डोरीसे रहित ) हैं, जो मानो जाटोंके घरोंकी तरह मैले चित्तोंवाले हैं । जो मानो विषधरोंकी तरह छिद्रोंका अन्वेषण करनेवाले हैं, जो मानो जड़वादियों की तरह गतरस हैं, जो मानो राक्षसोंकी तरह दोषोंके आकर हैं, तथा दूसरोंकी पीठका मांस भक्षण करनेवाले ( पीठ पीछे चुगली करनेवाले ) हैं, जो ( प्रवरसेन द्वारा विरचित सेतुबन्ध काव्य) बालकों और वृद्धोंके सन्तोषका कारण हैं, जो रामसे अभिराम और लक्ष्मणसे युक्त है, और कइवइ ( कपिपति = हनुमान् — कविपति = राजा प्रवरसेन) के द्वारा विहितसेतु ( जिसमें सेतु - पुल रचा गया हो ) सुना जाता है ऐसे उस सेतुबन्ध काव्यका क्या दुर्जन शत्रु नहीं होता ? ( अर्थात् होता ही है ) ।
घत्ता-न तो मेरे पास बुद्धिका परिग्रह है, न शास्त्रोंका संग्रह है, और न ही किसीका बल है, बताओ मैं किस प्रकार कविता करूँ ? कीर्ति नहीं पा सकता, और यह विश्व सैकड़ों दुष्टजनोंसे संकुल है” ||७||
८
यह सुनकर तब महामन्त्री भरतने कहा - " हे गवरहित कविकुलतिलक, बिलबिलाते हुए कृमियोंसे भरे हुए छिद्रोंवाले सड़ी गन्धसे युक्त शरीरको छोड़कर, विवेकशून्य स्याहीकी तरह काले शरीरवाला कौआ, क्या सुन्दर प्रदेशमें रमण करता है ? अत्यन्त करुणाहीन, भयंकर और क्रोध बाँधनेवाला दुर्जन स्वभावसे ही दोष ग्रहण करता है । अन्धकारसमूहको नष्ट करनेवाला और श्रेष्ठ किरणोंका निधान, तथा उगता हुआ सूर्यं यदि उल्लूको अच्छा नहीं लगता तो क्या सरोवरोंको मण्डित करनेवाले तथा विकासकी शोभा धारण करनेवाले कमलोंको भी वह अच्छा नहीं लगता ? तेजको सहन नहीं करनेवाले दुष्टकी गिनती कौन करता है ? कुत्ता चन्द्रमापर भौंका करे ।” तब जिनवरके चरणकमलोंके भक्त काव्यपण्डित ( पुष्पदन्त ) ने कहा
घत्ता - " मैं पण्डित नहीं हूँ, मैं लक्षणशास्त्र ( व्याकरण शास्त्र ) नहीं समझता । छन्द और देशीको नहीं जानता और जो कथा ( रामकथा ) विश्ववन्द्य मुनीन्द्रोंके द्वारा विरचित है उसका मैं किस प्रकार वर्णन करू ? ||८||
२
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५
१०
१५
१०
१०
चारणावास केलास सेलासिओ सामवण्णो सउण्णो पसण्णो सुहो गोम्हो समुह होउ जक्खो मह विग्घविदावणी चारुचक्केसरी वेरिणिहारिणी सुंभणी थंभणी हुदा संजाइया जक्खिणी उज्जयं तत्थलीकाणणावासिणी सुंदरे मंदरे कंद कीलिरी पिक्कमायंदगोच्छेणे डिंभं नियं खुदवाई विवेयावहा वाइणी
महापुराण
९
अकलंककविलकणयरमयाई दत्तिलवि साहिलुद्धारियाई rs पीई पायजेलजलाई भावाहिक भारवि भासु वासु मुहु सयंभु सिरिहरिसु दोणु उधाण लिंगु ण गर्णं समासु संधि ण कार पयसमत्ति उ बुज्झिउ आर्यमु सद्दधामु पडु रुडु जडणिण्णासयारु पिंगलपत्थारु समुद्दि पडिउ जसइंधु सिंधु कल्लोस सित्तु हरं बप्पणिरक्खर कुक्खिमुक्खु अदुग्गमु होइ महापुराणु अमरासुरगुरुयणमणहरेहिं तं हमि कहमि भत्तीभरेण एहु विणड पयासि सज्जणाहं घत्ता - घरे घरे भमउ, असारउ दुण्णयगार विवरोक्खए किं अक्खइ | "लइ मई सो "मोक्कल्लिउ खलु दुब्बोल्लिउ लेउ दोसु जइ पेक्खइ ||९|
१६
१७.
१०
दियसुगय पुरंदरणयसयाई । rs les भरहवियारियाई । अहासपुराण निम्मलाई । कोहलु कोमल गरु कालियासु । लोइ कई ईसाणु बाणु । उ कम्मुँ करणु किरियाणिवेसु । जाणिय मई एक्क वि विहत्ति । सिद्धंतु धवलुं जयधवलु णामु । परियच्छिउ 'णालंकार सारु ।
१२
या वि महारइ चित्ति चडिउ । कलाकोसलि हियवउ णिहित्तु । रवेसें हिंडमि चम्मरुक्खु । कुडण मवइ को जलणिहाणु । सिणिगणहरेहिं । किं हि ण भमिज्जर महुयरेण । हिमसिकूंच कडे" दुज्जणाहं ।
किंणरीवेणुवीणाणितोसिओ । आइदेवाण देवाहिभत्तो बुहो । चिंतयंतस्स एवं अमेयं कह । सत्थसारंभकल्लोलमालासरी । आसि जम्मंतरे होंतिया बंभणी । णाणसम्मत्तवंती गुणावे क्खिणी । सव्वभासासमूहं समुब्भासिणी । तुंगणग्गोहपारोह हिंदोलिरी |
[१.९.१
संथवंती हसंती चवंती पियं । अंबिया गोरि गंधारि सिद्धाइणी ।
९. १. B दत्तिल्ल । २. MBP पायंजलि । ३. M भारहि; B भारहभासु । ४. MBP कालिदासु । ५. MP णालोयउ । ६. BP गुण । ७. M कम्म । ८. MBP किरियाविसेसु । ९. M। १०. MBP धवलजयधवलणामु । ११. M णालंकारु सारु । १२. B कयाइ । १३. K कहिउ । १४. MB कुच्चउ । १५. M किउ । १६. Gभमइ । १७. MB लहु । १८. MB. मोकल्लिउ । १०. १. MBP गोमुहो । २. MB °णिद्धारणी; Pfणद्दारणी । ३. P कीलिणी । ४. P हिंदीलिपी । ५. MBP गोंछेण ।
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हिन्दी अनुवाद
९
अकलंक (जैनाचार्य), कपिल ( सांख्यदर्शनके प्रवर्तक) कणयर ( कणाद - वैशेषिक दर्शनके प्रवर्तक) के मतों, द्विज ( वेदपाठी - कर्मकाण्डी), सुगत ( बौद्ध ) और इन्द्र ( चार्वाक ) के सैकड़ों नयों, दत्तिल और विसाहिलके द्वारा रचित संगीतशास्त्र और भरत मुनिके द्वारा विचारित नाट्यशास्त्रको मैंने ज्ञात नहीं किया। पतंजलिके भाष्यरूपी जलको मैंने नहीं पिया । निर्मल इतिहास और पुराण, भावाधिप भारवि, भास, व्यास, कोहल, कोमलवाणीवाले कालिदास, चतुर्मुख, स्वयम्भू, श्रीहर्ष, द्रोण, कवि ईशान और बाणका भी मैंने अवलोकन नहीं किया । न मैंने धातु, लिंग, गण, समास, न कर्म, करण, क्रियानिवेश, न सन्धि, कारक और पद समाप्तिका, और न ही मैंने एक भी विभक्तिका ज्ञान प्राप्त किया। शब्दोंके धाम, सिद्धान्त ग्रन्थ धवल और जयधवल आगमोंको भी मैंने नहीं समझा। जड़ताका नाश करनेवाले कुशल रुद्रट और उनके अलंकारसारको भी मैंने नहीं देखा । न मैं पिंगल प्रस्तार के समुद्र में पड़ा । और न ही कभी यशसे चिह्नित लहरोंसे सिक्त सिन्धु मेरे चित्तपर चढ़ा । और न मैंने कलाकौशलमें अपने मनको लगाया । मैं बेचारा जन्मजात मूर्ख हूँ । चसे आच्छादित वृक्ष ( ठूंठ ) -सा मनुष्य के रूपमें घूम रहा हूँ । महापुराण अत्यन्त दुर्गम होता है, घड़े से समुद्रको कौन माप सकता है ? देवों, असुरों और गुरुजनोंके लिए सुन्दर मुनियों एवं गणधरोंने जिस महापुराणकी रचना की है, मैं भी भक्तिभावसे भरकर उसकी रचना करता हूँ । क्या आकाशमें भ्रमरके द्वारा न घूमा जाये ( क्या वह भ्रमण न करे ) ? यह विनय मैंने सज्जन लोगोंके प्रति को है, दुर्जनोंके मुखपर तो मैंने स्याहीको कूंची ही फेरी है ।
११०.१० ]
घत्ता -- घर घरमें घूमता हुआ असार दुनय करनेवाला दुष्ट परोक्षमें क्या कहता है ? खोटे बोलनेवाले दुष्टको लो मैं मुक्त करता हूँ । यदि उसे दोष दिखाई देता है तो वह उसे ग्रहण करे ||९||
११
१०
जो मुनीश्वरोंके निवासस्थान कैलास पर्वत के शिखरपर निवास करता है, किन्नरियोंकी वेणु-वीणाओं की ध्वनियोंसे सन्तुष्ट होता है, जो श्यामवर्ण पुण्यात्मा प्रसन्न शुभ है, आदिदेव ऋषभका देवाधिभक्त और बुध है, ऐसा वह गोमुख यक्ष इस अप्रमेय कथाका चिन्तन करते हुए मेरे सम्मुख हो । जो विघ्नोंका नाश करनेवाली, शास्त्रोंके साररूपी जलोंकी कल्लोलमालाओंपर चलनेवाली, शत्रुओंका विदारण करनेवाली, जन्मान्तरमें हिंसा करनेवाली और स्तम्भन विद्यावाली ब्राह्मणी थी, जो साधुदानके कारण, सम्यक्दर्शन और ज्ञानसे युक्त, गुणोंकी अपेक्षा करनेवाली यक्षिणी हुई। जो गिरिनार पर्वतपर निवास करनेवाली सर्व भाषासमूहको प्रकाशित करनेवाली, ऊँचे वटवृक्षोंपर निवास करनेवाली हँसती हुई और प्रिय बोलनेवाली है । जो क्षुद्रवादियोंके विवेकका अपघात करनेवाली, वादिनी, अम्बिका, गौरी, गान्धारी, सिद्धायनी तथा
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१२
महापुराण
[१.१०.११ पोमवत्ताहवत्ता पवित्ता सई णायचूडामणी देवि पोमावई। कव्ववित्थारदुत्तारमग्गे सही ठाउ मझ मुहे देवया भारही। होउ बुद्धी महासत्थसामग्गिणी एरिसो छंदहो भण्णए सग्गिणी । धत्ता-मई णिम्मियहो उयारहो सहगहीरहो जो णरु भसइ णिबंधहो ।
जणदुव्वयणहिं दड्ढहो तहो दुवियड्ढहों दुजसु होउँ मयंधहो ।।१०।।
अहवा हर णिग्घिणु पावयम्मु ण वियाणमि अज वि किं पि धम्मु । मिच्छे। हिरामरंजियविवेउ ण वियाणमि जिणवरवयणभेउ । उग्गयरसभावणिरंतराई
अलियाई जि कहमि कहतराई। लइ हत्थे झंपमि णहु सभाणु लइ कलसि समप्पमि जलणिहाणु । लँइ तुच्छबुद्धि णिण्ण?णाणु लइ अक्खमि एउ महापुराणु । लइ जिंदउ दुजणु मच्छरेण लइ कहमि कव्वु किं वित्थरेण । करिमयरमीणजलयरवमालि चललवणजलहिवलयंतरालि । दोचंदसूरपयडियपईवि
जंबूतरुलंछणि जंबुदीवि । खारंभोणिहिसामीवसंगि
सुरसिहरिहि संठि उ दाहिणं गि । सरिगिरिदरितरुपुरवरविचित्तु एत्थत्थि पसिद्धउ भरहखेत्तु । तहु मज्झि परिहिउ मगहदेसु जं वण्णहुं सक्कइ णेय सेसु । मुहि घुर्लइ जासु जीहासहासु जसु णाणि णत्थि दोसावयासु। घत्ता-सीमारामासामहिं पविउलगामहिं गजंतहिं धवलोहहिं ॥
सोहइ हलहरजत्थहिं दाणसमत्थहिं णिचं चिय णिल्लोह हिं ॥११॥
१२ अंकुरियइं गवपल्लवघणाई कुसुमियफलियइं गंदणवणाई। जहिं कोइलु हिंडइ कसपिंडु वणलच्छिहे णं कज्जलकरंडु। जहिं उड्डिय भमरावलि विहाइ । पवरिंदणीलमेहलिय णाइ । ओयरिय सरोवरि हंसपंति चल धवल णाई सप्पुरिसकित्ति । जहिं सलिलई मारुयपेल्लियाई रविसोसभएण व हल्लियाई । जहिं कमलहं लच्छिइ सहुँ सणेहु सहुँ ससहरेण वडउ विरोहु । किर दो वि ताई महणुब्भवाइं जाणंति ण तं जडसंभवाइं ।
जहिं उच्छवणइं रसगर्भिणाई णावइ कव्वई सुकाहिं तणाई। ६. B omits this foot. ७. BP उवयारहो and gloss in P उपकारस्य उदारस्य वा।
८. K होइ। ११. १. M पावकम्मु । २. MB मिच्छाहिमाण; P मिच्छाहिमाण but gloss मिथ्याभिराम । ३. M
उग्गव and gloss उत्कट। ४. MBP अइतुच्छ । ५. MBP करमि। ६. M पुरवरु ।
७. B मगहए। ८. M धलय। ९. MB रामहि: P°रामारम्महि । १२. १. M अवयरइ; BPT उवयरइ । २. MBP कमलहुँ सहुं। ३. P गम्भिराई।
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१.१२.८]
हिन्दी अनुवाद कमलपत्रोंके समान मुखवाली, पवित्र सती, ज्ञानकी चूड़ामणि, पद्मावतीदेवी पवित्र सती हैं, ऐसी वह, मेरे काव्य विस्तारके इस दुस्तर मार्ग में सहायक हो, देवी भारती मेरे मुखमें स्थित हो। मेरी बुद्धि महाशास्त्रोंकी सामग्रीसे सहित हो। इस प्रकारका छन्द सगिणी छन्द कहा जाता है।
घत्ता-मेरे द्वारा रचित उदार शब्दसे गम्भीर निबन्ध ( महाकाव्य ) की जो मनुष्य निन्दा करता है, जनताके दुर्वचनोंसे दग्ध उस मदान्ध दुर्विदग्धको ( दुनिया में ) अपयश मिले ॥१०॥
अथवा मैं अदय और पापकर्मा हूँ, मैं आज भी कुछ भी धर्म नहीं जानता। मिथ्यात्वके सौन्दर्यसे रंजित विवेकवाला मैं जिनवरके वचनोंके रहस्यको नहीं जानता। मैं अनवरत रसभाव उत्पन्न करनेवाले झूठे कथान्तरोंको कहता रहा हूँ। लो मैं सूर्यसे सहित आकाशको अपने हाथसे ढंकना चाहता हूँ। लो मैं समुद्रको घड़ेमें बन्द करना चाहता हूँ। मैं तुच्छ बुद्धि और नष्टज्ञान हूँ, (फिर भी) लो यह महापुराण कहता हूँ। लो दुर्जन ईर्ष्यासे निन्दा करे। लो मैं काव्य करता हूँ। विस्तारसे क्या ? जलगजों, मगरों, मत्स्यों और जलचरोंके कोलाहलसे व्याप्त चंचल लवण समुद्रके वलयमें स्थित, दो-दो सूर्यों और चन्द्रोंसे आलोकित होनेवाले तथा जम्बुवृक्षोंसे शोभित जम्बूद्वीप है। उसमें समेरुपर्वतके लवणसमद्रकी समीपता करनेवाले. दक्षिणभागमें प्रसिद्ध भरत क्षेत्र नदियों, पहाड़ों, घाटियों, वृक्षों और नगरोंसे विचित्र है। उसके मध्य में मगध देश प्रतिष्ठित है, शेषनाग भी उसका वर्णन नहीं कर सकता, यद्यपि उसके मुंहमें हजार जीमें चलती हैं, और उसके ज्ञानमें दोषके लिए जरा भी गुंजाइश नहीं है।
घत्त -वह मगध देश, सीमाओं और उद्यानोंसे हरे-भरे बड़े-बड़े गांवों, गरजते हुए वृषभसमूहों, और दान देनेमें समर्थ लोभसे रहित कृषकसमूहोंसे नित्य शोभित रहता है ॥११॥
जिसमें अंकुरित, नये पत्तोंसे सघन फूलों और फलोंवाले नन्दनवन हैं। जिसमें काले शरीरवाला कोकिल घूमता है मानो जो वनलक्ष्मीके काजलका पिटारा हो, जहाँ उड़ती हुई भौंरोंको कतार ऐसो शोभित होती है । जैसे इन्द्रनील मणियोंकी विशाल मेखला हो। सरोवरोंमें उतरी हई हंसोंकी कतार ऐसी मालम होती है जैसे सज्जन पुरुषकी चलती-फिरती चंचल कीति हो। जहां हवासे प्रेरित जल ऐसे मालूम होते हैं जैसे सूर्यके शोषणके डरसे कांप रहे हों। जहां कमल लक्ष्मीसे स्नेह करते हैं लेकिन चन्द्रमाके साथ उनका बड़ा विरोध है। यद्यपि दोनों समुद्रमन्थनसे उत्पन्न हुए हैं लेकिन जड़ (जड़ता और जल) से पैदा होनेके कारण वे इस बातको नहीं जानते । जहां ईखोंके खेत रससे परिपूर्ण हैं, मानो जैसे सुकवियोंके काव्य हों। जहाँ लड़ते हुए भैंसों और बैलोंके उत्सव होते रहते हैं, जहां मथानी घुमाती हुई गोपियोंको ध्वनियाँ होती रहती हैं, जहाँ
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१०
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१०
५
१०
जुज्झतम हिस व सहुच्छवाई चैव लुद्धपुच्छवच्छाउलाई जहिं च रंगुल कोमलतणाई'
महापुराण
संकेयागय विरहीयणाई बहुलोयदिणणाणाफलाई जहिं महुगंडूसहिं सिंचियाई सीमंतिणिपयपोमाहयाई पियमणियसुहबाणासणाई पडिख लिय सूर भावियरणाई . उक्त लियोलई णवजोव्वणाई हंसीलाई झसमानियाई जहिं जणच कंट करालु बाहिरि णिहियउ वियसंतु कोसु जहिं भमरु तर्हि जि संठि सुहाइ
घत्ता - तहिं छुहधवलियमंदिरु णयणाणंदिरु णयरु रायगिहु रिद्धउ || कुलम हिरथणहारिए वसुमइणारिए भूसणु णं आइद्धउ || १२ ||
१३
जहिं कीला गिरिसिहरंतरेसु सिक्खति पक्खि दरदावियाई जहिं पिक्कसालिछेत्तें घणेण दीप जहिं संचरति बेहुगोणाई गोवालबाल जहि रसुँ पियंति मायंदकुसुममंजरि सु जहिं समयल सोहइ वाहियालि हरि भामिज्जंति कैंसासणेहिं णिज्जंति णाय कण्णारएहिं रुज्झति गयासा ईरिएहिं
मंथा मंथिय मंथ णिरवाई । कीलियगोवालइ' गोउलाई । घणकणकणिसालइ करिसणाई ।
सासोयपवड्ढियकंचणाई | णावइ कुलाई धम्मुज्जलाई । विंभरियाहरणर्हि अंचियाई । वियेसंतविडववुड्ढीगयाई । जहिं संदरिसियबाणासणाई । उज्जाई णं भावियरणाई । णिरु सच्छइं णं सज्जणमणाई | परकज्जसमाणई पाणियाई । जलि णलिणें ल्हिक्कावियउ णालु । भणु को वण ढंकइ गुणर्हि दोसु । गहु सिरिणय जणहु णाई ।
घत्ता - कुसुमरेणु जर्हि मिलियउ पर्वेणुञ्ज लियड कणयवण्णु महु भावइ ॥ दिणयरचूडामणियइ हकामिणियइ कंचुउ परिहिउ णावइ ||१३||
१४
कोमलदल वेल्लिहरंतरेसु । विडमणियम मणुल्लावियाई । छज्जइ महि णं उप्परियणेण । णिवडंत रिंछपल्लवचलेण । जव कंगु मुग्गण हु पुणु तैणाई । थलसररुहसेज्जायलि सुयंति । हयचंचुएण कयमण्णुएण । वाणपय वित्थरइ धूलि । totra is सासणेहिं |. णाय व्व णायकण्णारएहिं । सीस व्व गया साईरिएहिं ।
४. M धवलुद्धपुच्छंौं ।
१३. १. P वियसंति but gloss विकसित । २. M उक्कलिवालई । ३. PK जणुलुंचणु । ४. MBP उद्घल्ललियउ and gloss in P उच्छलित ।
१४. १. MP गाईहणाई । २. MBP तिणाई । ३. MBP महु; gloss in M मिष्टरसम् but in P इक्षुरसम् । ४. MBPK कुसासणेहिं but gloss in K तर्जनकेन ।
[१.१२.९
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१. १४.११] हिन्दी अनुवाद
१५ चपल पूंछ उठाये हुए बच्छोंका कुल है, और खेलते हुए ग्वालबालोंसे युक्त गोकुल हैं। जहां चारचार अंगुलके कोमल तृण हैं और सघन दानोंवाले धान्योंसे भरपूर खेत हैं।
घत्ता-उस मगध देशमें चूनेके धवल भवनोंवाला नेत्रोंके लिए आनन्ददायक राजगृह नामका समृद्ध नगर है, जो ऐसा लगता है मानो कुलाचलरूपी स्तनोंको धारण करनेवाली वसुमतीरूपी नारीने आभूषण धारण कर रखा हो ॥१२॥
१३ जिसके उद्यान-वन, कुलोंके समान, संकेतागत विरहीजन [ संकेतसे जिनमें विरहीजन आते हैं | पक्षमें जिनमें संकेतसे विरहीजन नहीं आते ], साशोकप्रवद्धितकंचन [ जिनमें अशोक वृक्षोंके साथ चम्पक वृक्ष बढ़ रहे हैं | पक्षमें, हर्षके साथ स्वर्ण बढ़ रहा है ], बहुलोक दत्त नाना फल (बहुत लोकोंमें नाना प्रकारके फल देनेवाले) और धर्मोज्ज्वल (धर्म/अर्जुन वृक्षसे उज्ज्वल, धर्मसे उज्ज्वल ) हैं। जहां उद्यान, मधु ( पराग और मद्य ) के कुल्लोंसे सिंचित भावी रणके समान हैं। जो विभरित ( विस्मृत और विस्मित कर देनेवाले ) आभरणोंसे अंचित हैं, जो सीमन्तिनियोंके चरणकमलोंसे आहत हैं, जो बढ़ते हुए वृक्षोंसे वृद्धिको प्राप्त हो रहे हैं, जिनमें (उद्यानोंमें) कोयलोंके द्वारा मान्य सुभग 'आण' शब्द किया जा रहा है, ( रण में ) प्रियाओंके द्वारा मान्य सुभग आज्ञा शब्द ( गजमुक्ता लाओ, युद्ध जीतकर आना इत्यादि ) किया जा रहा है, जहाँ ( उद्यानोंमें ) बाप और अर्जुन वृक्ष दिखाई दे रहे हैं, जहां ( रण में ) धनुष और बाण दिखाई दे रहे हैं। जहां ( उद्यानों और युद्ध में ) सूर्य एवं शूरवीरोंकी प्रभाका विचरण अवरुद्ध हो रहा है, जहाँका जल नवयौवनकी तरह उत्कलित ( कल्लोलमालासे शोभित और कलि रहित ) है, जो सज्जनोंके मनोंकी तरह अत्यन्त स्वच्छ है, मत्स्योंके द्वारा मान्य जो जल दूसरोंके कार्यके समान शीतल है। जहां (सरोवरोंमें ) कमलने अपना कांटोंसे भयंकर, लोगोंको नोचनेवाला नाल पानीमें छिपा लिया है, तथा विकासको प्राप्त होता हुआ कोश बाहर रख छोड़ा है, बताओ कौन गुणोंसे अपने दोषको नहीं ढकता। जहां-जहां भ्रमर है, वहां-वहाँपर वह लक्ष्मीके नेत्रोंके अंजनके संग्रहके समान शोभित होता है।
पत्ता-पवनसे उड़ता हुआ, सुनहला, मिश्रित कुसुम-पराग मुझ कवि ( पुष्पदन्त ) को ऐसा लगता है, मानो सूर्यरूपी चूड़ामणिवाली आकाशरूपी लक्ष्मीने कंचुकी-वस्त्र पहन रखा हो ॥१३॥
१४
जहाँ क्रीडापर्वतोंके शिखरोंके भीतर कोमल दलवाले लतागृहोंमें पक्षीगण थोड़ा-थोड़ा दिखना, और विटोंके द्वारा मान्य कामकी अव्यक्त ध्वनि करना सीख रहे हैं । जहाँ पके हुए धान्यके खेतोंसे भूमि ऐसी शोभित है मानो उसने उपरितन वस्त्रके प्रावरण ( दुपट्टे ) को ओढ़ रखा हो। जो (प्रावरण) लम्बा, पीला और गिरते हुए शुकोंके पंखोंके समान चंचल है। जहाँ अनेक गोधन जो, कंगु और मूग खाते हैं, फिर घास नहीं खाते । जहाँ गोपालबाल रसका पान करते हैं और गुलाबके फूलोंकी सेजपर सोते हैं। जहां क्रोध करनेवाले शुकने अपनी चोंचसे आम्रकुसुमकी मंजरीको आहत कर दिया है। जहाँपर समतल राजमार्ग शोभित है। उसपर वाहनोंके पैरोंसे आहत धूल फैल रही है। जहाँ सईसोंके द्वारा घोड़े घुमाये जा रहे हैं, जैसे खोटे शासनोंसे अज्ञानीजनोंको धुमाया जाता है । महावतोंके द्वारा हाथी वश में किये जा रहे हैं, जैसे सपेरोंके झापा
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महापुराण
[१.१४. १२ आसयर दिति सिक्खावयाइं णं मुणिवर गुणसिक्खावयाई। कप्पूरविमीसु पवासिएहिं जहिं पिज्जइ सलिलु पवासिएहिं । घत्ता-ससिपहपायारहिं गोउरदारहिं जिणवरभवणसहासहिं ।।
मढदेउलहिं विहारहिं घरवित्थारहिं वेसावासविलासहिं॥१४॥
१५ जं सोहइ जहिं अविहंडियाई . गैयणं व के उसयमंडियाइ । सिरिणिहियकणयकलसइं घराई णावइ अहिसित्तजिणेसराई। अवियाणियकरदप्पणविसेसि माणिक्कखइभित्तीपएसि । दीसइ सबिंबु महुमत्तियाहिं। मणिवि सवत्ति हम्मइ तियाहिं । जहिं अलिउलु अलयावलि मिलंतु · णिद्धाडिउ सासाणिलि घुलंतु । अंगणवावीसयदलहु जाइ जलकीलिरबालावयणि ठाइ । संजणियबहलमयरंदरंग
जहिं सररुहु संबोहइ पयंगु । तं चेय खुडइ मत्तउ विहंगु सिरिहरहो असुंदरु दुट्ठसंगु । धत्ता-जहिं दीसइ तहिं भल्लउ णयरु णवल्लउ ससिरविअंतविहूसिउ ॥
__उवरिविलंबियतरणिहे सग्गे धरणिहे णावइ पाहुडु पेसिउ ॥१५॥
संवासयदलल मिलंत . णवि सास।।
१५
जहिं मणहरु सोहइ हट्टमग्गु बहुसंथउ णं जडचट्टवग्गु । जहिं णेहहो भरिउ विहाइ माणु पूरिउ पत्थेण कणेहिं दोणु । कामिणिकमवियलियकुंकुमेण जिल्हसइ जंतु जहिं जणु कमेण । कणिरेणियसुकिंकिणिणीसणेहि गुप्पइ णिवडंतहिं भूसणेहिं । खुप्पइ गयमयहयफेणपंकि तंबोलुग्गालइ जणियसंकि। जहिं राउलु रेहइ रयणजडिउ णं अमरविमाणु णहाउ पडिउ । जहिं धूवधूमकयमणवियार जलहरभंतिएं पञ्चंति मोर । जहिं विजयवडहदुंदुहिसरेहि सुवैइ ण किं पि णारीणरेहिं। णवदिणयरकरतंबिरइ गोसि वित्थिण्णइ जहिं पंगणपएसि । घत्ता- झेंदुउ जयसिरिसारहिं रायकुमारहिं चलचोवाणहिं ताडिउ ।।
जणियजणाणूरायहिं परकइवायहिं णायइ लोउ भमाडिउ ॥१६।।
तहिं सेणिउ णामें अत्थि राउ गारुडगुरु व्व विण्णायणाउ । कज्जेसु दच्छु संजायवेउ
रिउवंसडह णि णं जायवेउ । ५. MBP जलपरिहापायारहिं । १५. १. MBP गयणंयलि । २. M सिरणिहिय । ३. M°रविअंति विहसिउ । १६. १. P पत्थेहिं । २. MBP कणिरणियकिंकिणी । ३. P सुम्मइ ।
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१. १७.२. ]
हिन्दी अनुवाद
१७
सांप वशमें किये जाते हैं । सवारोंके द्वारा हाथी और घोड़े रोके जा रहे हैं, जैसे निराश आचार्यों द्वारा शिष्यों को रोक लिया जाता है । खच्चरोंको शिक्षा शब्द कहे जा रहे हैं, मानो मुनिवर व्रत और शिक्षा व्रतोंको दे रहे हैं । जहाँ प्याउओंपर ठहरे हुए प्रवासियोंके द्वारा कपूर से मिला हुआ पानी पिया जाता है ।
धत्ता - जिनके परकोटे चन्द्रमाको प्रभाके समान हैं ऐसे, गोपुर द्वारवाले हजारों जिनमन्दिरों, मठों, देवकुलों, विहारों, गृह विस्तारों, वेश्याओंके आवासों और विलासों में से ||१४||
१५
जो उसी प्रकार शोभित हैं कि जिस प्रकार निरन्तर सैकड़ों ग्रहोंसे आकाश | जिनके अग्र - भागपर स्वर्णकलश रखे हुए हैं, ऐसे घर इस प्रकार मालूम होते हैं, मानो उन्होंने जिनभगवान्का अभिषेक किया हो। जिनमें हाथके दर्पण विशेष ज्ञात नहीं होते, माणिक्योंसे रचित ऐसी दीवारोंमें, मदिरासे मत्त स्त्रियोंको अपना बिम्ब दिखाई देता है, सौत समझकर वह उनके द्वारा पीटा जाता है, जहाँ भ्रमर समूह अलकावलीसे घुल-मिल गया है, लेकिन चक्राकार घूमते हुए उसे श्वासके पवनने निकाल दिया है । वह आंगनकी बावड़ीके कमलोंपर जाता है, ओर पानीमें क्रीड़ा करती हुई बाला के शरीरपर बैठता है वहाँ, जिसे प्रचुर पराग प्रेम उत्पन्न हो गया है ऐसे कमलको सूर्य सम्बोधित करता है, ( उसे खिलाता है) उसीको मतवाला हंस खुटक लेता है । श्रीधर कमल और धनवान् ) का दुष्ट साथ असुन्दर होता है ।
घत्ता- वह नगर जहाँ देखो वहीं भला तथा चन्द्रकान्त-सूर्यकान्त मणियोंसे भूषित नया दिखाई देता है । जिसके ऊपर सूर्य विलम्बित है ऐसी धरतीके लिए मानो स्वर्गंने उसे उपहार के रूप में भेजा हो ॥ १५ ॥
१६
जहाँ मनोहर हाट-मार्गं शोभित हैं, जो मानो बहुसंस्तृत ( रत्नमणि आदि वस्तुओं | अनेक शस्त्रोंवाला ) मूर्ख शिष्यवर्ग हो । जहाँ मान, ( तेल मापनेका पात्र ), स्नेह ( तेल ) भरा हुआ शोभित है । जहाँ प्रस्थ ( अन्न मापनेका पात्र ) के द्वारा द्रोण इस प्रकार भर दिया गया है जिस प्रकार बाणोंसे द्रोणाचार्य आच्छादित कर दिये गये थे । स्त्रियोंके पैरोंसे विगलित कुमकुमसे युक्त मार्गसे जाता हुआ मनुष्य फिसल जाता है । रुनझुन करती हुई किंकिणियोंके स्वरोंवाले गिरते हुए गहनोंसे वह गिर पड़ता है । गजोंके मद और घोड़ोंके फेनोंकी कीचड़में और शंका उत्पन्न करनेवाले ताम्बूलोंकी पीकमें खप जाता है। जहां रत्नोंसे विजड़ित राजकुल ऐसा लगता है मानो आकाशसे अमरविमान आ टपका हो । जिन्हें धूपके धुएँसे मनमें शंका उत्पन्न हो गयी है ऐसे मपूर जहाँ मेघोंकी भ्रान्तिसे नृत्य करते हैं, जहाँ विजय नगाड़ों की दुन्दुभियोंके स्वरोंके कारण नर-नारियोंको कुछ भी सुनाई नहीं देता । जहाँ प्रांगण प्रदेशमें नवदिनकर की किरणोंसे आरक्त प्रभातके फैलनेपर
घत्ता - विजयश्री में श्रेष्ठ राजकुमारोंके द्वारा चंचल चौगानोंसे प्रताड़ित गेंद ऐसी मालूम होती है, मानो लोगों में अनुराग उत्पन्न करनेवाले, परमतके वादी कवियों द्वारा लोगोंको भ्रमित कर दिया गया हो ॥ १६ ॥
१७
उसमें श्रेणिक नामका राजा है जो गारुड़ गुरु ( गरुड़ विद्याका जानकार) के समान, विज्ञातणाय ( नागों का जानकार न्यायका जानकार ) है जो कार्यों में कुशल फुरतीबाज और
३
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महापुराण
[१.१७.३ सीयामणु व रामाहिरामु सूरो इव परदुल्लंघधामु। णियसमयणिसेवियइट्टकामु पावणि व पयंडुहामथामु । पविदंडो इव णिहलियलोहु मयमारउ व्व णासियमओहु । वयधारि व गुरुयणि मुक्कमाणु सुरवरकरि व अविहंडदाणु । जोईसरु व्व हयरोसहरिसु णं खत्तधम्मु थिउ होवि पुरिसु। जाणइ विग्गह संधाण ठाणु णं वेयायकरणु महापहाणु । सत्तंगु वि पालइ रज्जु केम पयईणिबद्ध णियदेहु जेम। पवणो इव फेडियमंदमेहु । गोवालु व कयमहिसीसणेहु । मंडलियमउडपरिहिट्ठचरणु जिणणाहु व णिहिलणिरायसरणु । घत्ता-णवरेक्कहिं दिणि राणउ सो आसीणउ सिंहासणि दोहरकरु ।
चेल्लिणिदेविहे मंडिउ णं अवरंडिउ वल्लरीइ सुरतरुवर ॥१७॥
१०
१८ अतुलियबलखलकुलपलयकालु जामच्छइ मेइणिसामिसालु । तामायउ तहिं उजाणवालु सिरसिहरचडावियबाहुडालु । अणवरयविहियसामंतसेव
सो पभणइ भो भो णिसुणि देव । कुसुमसरपसरपसमणसमत्थु णीसेसमंगलासउ पसत्थु । अहिमयरखयेरणरणमियपाउ तेल्लोकणाहु जिणु वीयराउ । आहंडलणिम्मियसमवसरणु चउदेवणिकायाणंदकरणु । चउतीसातिसयविसेसवंतु
अरहंतु महंतु अणंतु संतु । परमप्पउ परमु महाणुभाउ तित्थयरु वीर देवाहिदेउ । उप्पाइयकेवलु विमलणाणु अट्ठविहपाडिहेराहिहाणु। जगदुरियतिमिरणिहणेक्कभाणु विउलइरि पराइउ वड्डमाणु । तं णिसुणिवि दुजणहिययसल्लु परपुरदावाणलु सुहडमल्ल । परिवड्डियजिणधम्माणुराउ आसणु मुएवि रायाहिराउ ।
लहु पणविउ सत्तपयाई गंपि एहउ थुइवयणु करंतु किं पि । १७. १. MBP विग्गहु संधाणु ठाणु । २. MBP वइयाकरणु । ३. MBP अवरक्कहिं । ४. P सह आसी
णउ । ५. M चेल्लणदेवी'; B चेल्लिणि' P चेल्लणदेविहि । १८. १. B°बलु । २. M °खयरणिवं । ३. MB°केवलविमल । ४ M विउलइर। ५. MBP कहंतु ।
MBP have at the commencement of this Samdhi the following stanza in praise of the poet and his patron :
आदित्योदयपर्वताद्गुरुतराच्चन्द्रार्कचूडामणेरा हेमाचलतः कुशेशनिलयादा सेतुबन्धाद् दृढात् । आ पातालतलादहीन्द्रभवनादा स्वर्गमागं गता
कीर्तिर्यस्य न वेनि भद्र भरतस्याभाति खण्डस्य च ॥ GK give it at the beginning of the third Samdhi and have gerą for गुरुतरात चूलामणेः for चूडामणेः and कीर्तिः कस्य न वेत्सि for कीर्तिर्यस्य न वेनि।
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१. १८. १३.]
हिन्दी अनुवाद मानो शत्रुओंके वंशको जलानेमें अग्नि । सीताके मनके समान, जो रामाभिराम (जिसे राम और रामा सुन्दर है), है जो सूर्यके समान दूसरोंके द्वारा अलंध्य है । जो अपने समयके अनुसार कार्योंको सम्पादित करनेवाला है, जो हनुमान्के समान अपना स्थैर्य प्रकट करनेवाला है, वज्रदण्डकी तरह, जिसने लोह ( लोहा / लोभ ) को नष्ट कर दिया है, जो व्याधाको तरह मयसमूह ( मद / मृग समूह ) को नष्ट करनेवाला है, व्रतधारीकी तरह जो गुरुजनोंके प्रति विनीत है, ऐरावत गजकी भांति जो अखण्डित'दानवाला है, योगीश्वरके समान, क्रोध और हर्षको नष्ट करनेवाला है, मानो क्षात्रधर्म ही पुरुष रूपमें स्थित हो गया हो। वह विग्रह और सन्धिके स्थानको जानता है, मानो वह महामुख्य वैयाकरण हो। वह सप्तांग राज्यका पालन इस प्रकार करता है, जैसे प्रकृतियों से निबद्ध उसकी देह हो। पवनके समान जिसने मन्दमेह ( मन्द मेघ / मेधा-बुद्धि ) को नष्ट कर दिया है। गोपालके समान जो महिषी ( पट्टरानी और भैंस ) से स्नेह करनेवाला है। जिनके चरण माण्डलीक राजाओंके मुकुटोंसे घर्षित हैं ऐसा वह जिनेन्द्रनाथके समान निखिल मनुष्य राजाओंकी शरण है।
पत्ता-एक दिन लम्बी बांहोंवाला वह राजा अपने सिंहासनपर बैठा हुआ था। चेलना देवीसे शोभित वह ऐसा जान पड़ता था मानो नवलताओंने कल्पवृक्षको आलिंगित कर लिया हो ॥१७॥
१,
अतुलित बलवाला, शत्रुकुलके लिए प्रलयकालके समान, धरतीका श्रेष्ठ स्वामी वह राजा जब बैठा हुआ था कि इतने में, जिसने सिररूपी शिखरपर अपनी बाहुरूपी डालें चढ़ा रखी हैं, ऐसा उद्यानपाल वहाँ आया। अनवरत सामन्तोंकी सेवा करनेवाला वह कहता है-“हे देव, सुनिए, कामदेवके बाणोंके प्रसारको शान्त करने में समर्थ, समस्त मंगलोंके आश्रय, प्रशस्त, सूर्य, विद्याधर और मनुष्योंके द्वारा वन्दनीय-चरण, त्रिलोक स्वामी जिन, वीतराग, इन्द्रके द्वारा जिनका समवसरण बनाया गया है, जो चारों निकायोंके देवोंको आनन्द देनेवाले चौंतीस अतिशय विशेषोंसे युक्त हैं, ऐसे अहत् महान् अनन्त सन्त परमात्मा परम महानुभाव वीर तीर्थंकर देवाधिदेव जिन्हें केवलज्ञान उत्पन्न है, ऐसे विमलज्ञानवाले, आठ प्रातिहार्योंके चिह्नोंवाले, विश्वके पापरूपी अन्धकारको दूर करनेके लिए एकमात्र सूर्य, स्वामी वर्धमान विपुलाचलपर आये हैं। यह सुनकर, शत्रुओंके हृदयोंके लिए शल्यके समान, शत्रुनगरके लिए दावानल, सुभटोंमें मल्ल, तथा जिसका जिनधर्मके लिए अनुराग बढ़ रहा है ऐसे उस राजाधिराजने आसन छोड़कर, शीघ्र सात पैर चलकर, निम्नलिखित स्तुति वचन कहते हुए प्रणाम किया। १. सप्तधातुओंसे । २. लम्बे हाथोंवाला ।
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१५
२०
महापुराण
घत्ता - जय पयपणमियसुरगुरु जय तिहुयणगुरु सामिय सयलपयाहिय ॥ जय हियणियामय भरहणियामय फुप्फयंत तेयाहि ||१८||
इय महापुराणे तिसट्टि महापुरिस गुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरइए महाभग्वमरहाणुमणिए महाकवे सम्मइसमागमो णाम पढमो परिच्छेओ समत्तो ॥ १ ॥
॥ संधि ॥ १ ॥
[ १. १८. १४
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२१
१.१८.१५. 1
हिन्दी अनुवाद
घत्ता - बृहस्पति जिनके चरणोंमें प्रणत हैं ऐसे हे त्रिभुवन गुरु और समस्त प्रजाका हित करनेवाले, आपकी जय हो । अपने समस्त रोगोंका नाश करनेवाले तथा भरतक्षेत्रके नियामक सूर्य और चन्द्रसे भी अधिक तेजवाले जिन, आपकी जय हो ॥१८॥
इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारवाले महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित तथा महामन्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका सम्मति समागम नामका पहला परिच्छेद समाप्त हुआ || १ ||
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संधि २
पणिवाउ करेवि पसण्णमणु भत्तिरायरहसुच्छलिउ ॥ सो णरवइ सहुं णियपरियणिण पासु जिणिदहु संचलिउ ।। ध्रुवकं ॥
पहयाणंदभेरि बलु चल्लित पुरणारीयणु हैरिसुप्पेल्लिउ । भाविणि का वि देवंगुणभाविणी चलिय से कमलहत्थ णं गोमिणि । का वि सचंदण सहइ महासइ . णं मलयइरिणियंववणासइ। कुवलउ का वि लेइ जसधारिणि । णं वररायवित्ति रिउदारिणि । रुप्पयथालु का वि घुसिणालउ । ससिबिंबु व संझारायालउ । पवरकसणगंधोहकरंबउ
उवरज्जंतु व वरविबिंबउ । कणयवत्तु काइ वि करि धरियउ इंदणीलमउ मोत्तियभरियउ । णावइ णहयलु उडविप्फुरियउ गुरुचरणारविंदु संभरियउ। का वि ससंख समुहसही विव का वि सकलस णिहाणमही विव । का वि सदप्पण वेसावित्ति व का वि सरस कइकव्वपउत्ति व । का वि जिणिंदभत्तिपन्भारें णञ्चइ भरहभाववित्थारें। काहि वि विट्ठउ पयडु थणत्थलु णाई णिरंगकुंभिकुंभत्थलु। मयणंकुसवणरेहारुणियउ
समवंतेण पिएंण ण गणियउ । काहि वि घुलई हारु मणिमंडिउ णावइ कामें पासउ मंडिउ । झल्लरिपडहमुइंगसहासहिं वजंतहिं जयजयणिग्घोसहि । पत्ता-आरूढउ° महिवइ मत्तगइ मयजलघुलियचलालिगणे ॥
णं महिहरि केसरि खरणहरु पवणुल्ल लियतमालवणे ॥१॥
२ चोइउ कुंजरु कमसंचारें गंडालीणभमरझंकारें। चामरचवले छत्तंधारे
गच्छमाणु सेहुं णियपरिवार। पत्तु गरेसरु तियसरवण्णउं दिवउ समवसरणु वित्थिण्णउं । णिम्मिउं सई सोहम्मपहाणे ठियउ एकजोयणपरिमाणे । माणखंभमणितोरणदामहिं कप्पियकप्पपायवारामहि । जलखाइयधूलीपायारहिं
तियससरासणवण्णवियारहिं । १. १. M पणवाउ। २. MB °रयसु। ३. MBP रहसुप्पेल्लिउ । ४. MBP देवगुरुभाविणी ।
५. MBP सहत्थकमल । ६. Pणं रवि । ७. MBP वणियउ । ८. BP पिएण व । ९. MBP
घुलिय । १०. MBP आरूढ महीवइ । २. १. M छत्तें धारें; P छत्ताधारें। २. P णिय सह परिवारें।
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सन्धि
२
प्रणाम कर प्रसन्न मन, भक्तिराग और हर्षसे उछलता हुआ वह राजा अपने परिजनके साथ जिनेन्द्र भगवानके पास चला।
आनन्दकी भेरी बजाकर सेना चली। नगरका नारी-समूह हर्षसे प्रेरित हो उठा। देवके गुणोंकी भावना करनेवाली कोई भामिनी हाथमें कमल लेकर इस प्रकार चली, मानो लक्ष्मी हो । चन्दन सहित कोई महासती ऐसी शोभित होती है मानो मलयपर्वतके ढालकी वनस्पति हो। कोई यशस्विनी कुवलय ( नीलकमल ) को लेती है, वह ऐसी मालूम होती है, मानो शत्रुका विदारण करनेवाली श्रेष्ठ राजाकी वृत्ति हो। कोई केशरसे युक्त चांदीका थाल लेती है जो सन्ध्यारागसे युक्त चन्द्रबिम्बके समान लगता है । श्रेष्ठ काली गन्ध ( कालागुरु ) के समूहसे सहित वह ( थाल ) ऐसा प्रतीत होता है मानो राहुसे ग्रस्त नवसूर्य बिम्ब हो। किसीने स्वर्णपात्र अपने हाथमें ले लिया, इन्द्रनील मणियोंवाला और मोतियोंसे भरा हुआ जो नक्षत्रोंसे विस्फुरित आकाशके समान जान पड़ता है। किसीने गुरुके चरण-कमलोंका स्मरण किया। शंखसे युक्त कोई समुद्रकी सखीके समान जान पड़ती है । कलशसे सहित कोई खजानेको भूमिके समान है। कोई वेश्यावृत्तिके समान दर्पण सहित है। कोई कविकी काव्य-उक्तिके समान सरस है। कोई जिनेन्द्रको भक्तिके प्रभारके कारण भरतमुनिके संगीतके विस्तारके साथ नृत्य करती है। किसीका खुला हुआ स्तनस्थल कामदेवरूपी महागजके कुम्भ-स्थलकी तरह दिखाई दे रहा है। मदनांकुश ( नखों) के घावोंकी रेखासे लाल होनेपर भी उस (स्तन-स्थल ) पर उपशमभावसे युक्त प्रियने कुछ भी ध्यान नहीं दिया। किसीका मणिमण्डित हार ऐसा प्रतीत होता था, मानो कामदेवने अपना पाश मण्डित कर लिया हो। बजते हुए हजारों झल्लरी, पटह और मृदंग आदि वाद्यों तथा जय-जय शब्दोंके साथ
घत्ता-मदजलके कारण मंडराते हुए चंचल भ्रमरोंसे युक्त मत्तगजपर राजा ऐसा सवार हो गया, मानो पवनसे आन्दोलित तमालवनवाले पहाड़पर तीव्र नखवाला सिंह आरूढ़ हो गया हो ॥१॥
महावतने पैरोंके संचालनसे हाथीको प्रेरित किया। गण्डस्थलमें लीन भ्रमरोंकी झंकार तथा चमरोंसे चपल, तथा छत्रोंकी छायावाले अपने परिवारके साथ जाता हुआ राजा वहां पहुंचा
और उसे देवोंसे रमणीय विस्तृत समवसरण दिखाई दिया। जिसे सोधयं स्वर्गके इन्द्रने स्वयं निर्मित किया था और जो एक योजन प्रमाण क्षेत्र में स्थित था। जो मानस्तम्भों और मणियोंके वन्दनवारों, कल्पित कल्पवृक्षोंके उद्यानों, जलपरिखाओं और धूलिप्राकारों, चैत्यगृहों, नाना
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[२.२.७
महापुराण वल्लीवणपरिभमियमरालहिं चेईहरणाणाणडसालहिं । सुरणरविसहरथोत्तवमालहिं खयरुच्चाइयकुसुमोमालहिं । गंभीरहिं भुवणयलाऊरहिं वज्जंतहिं बहुमंगलतूरहिं । स रिग म प ध णी सरसंघायहिं तुंबुरुणारयगेयणिणायहिं । उध्वसिरंभाणचणभावहिं कणरणंतआलावणिरावहिं । जं रेहइ तहिं राउ पइट्टउ
परमेसरु सवडंमुहु दिट्ठर। घत्ता-सीहोसणसिहरासीणु जिणु णिम्मलु जणंजणणत्तिहरु ।।
पारद्धउ थुणहुँ णराहिविण मुवणंभोरुहदिवसयरु ॥२॥
जय सयल- .
भुवणयल-1 मलहरण
इसिसरण । वरचरण
समधरण। भवतरण
जरमरणपरिहरण
जय वरुण-1 वइसवण
जमपवण-1 दणुदमण
सिरिरमण-1 दिवसयर
फणिखयर-1 ससिजलण
सिरणमण-1 मउडयल
मणिसलिल-1 धुयेविमल
कमकमल। जय णिहिल- विहिकुसल। णयमुसल
हयपबल-1 सुयसबल
दियकविलसिवसुगय
कइँकुणय-1 वहदलण
मयमलण। सवरहिय
दुहरहिय । मुणिमहिय
महम हिय । सुरहिरस
विससरिस । कुसुमसर
अणवसर। जय दुरह
हरिसरह । बुह तिलय
सुहणिलय। रइविलय
जुइवलय । जियतरणि
जय करुणि। ३. M वल्लियं । ४. MBP सुकुसुममालहिं । ५. MBP सिंहासणं । ६. B जिणु जणणत्ति । ३. १. B जलमरण । २. BP धुवविमल । ३. MBP कयकुणय but GK कइकुणय and T कविकुनयं । . ४. MBP मयमहण । ५. B omits दुहरहिय।
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२९
२. ३. २४ ]
हिन्दी अनुवाद नाट्यशालाओं, सुरों, नटों और विषधरोंके स्तोत्रों, कोलाहलों, विद्याधरोंके द्वारा उठायी गयी पुष्पमालाओं, भुवनतल आपूरित करनेवाले बजते हुए मंगलवाघों, सा रे ग म प ध नी स आदि स्वरोंके संघातों, तुम्बुरु और नारदके गीतविनोदों, उर्वशी और रम्भाके नृत्यभावों तथा बजती हुई वीणाओंके स्वरोंसे शोभित था । ऐसे समवसरणमें राजाने प्रवेश किया और सामने परमेश्वरको देखा।
पत्ता-सिंहासनके शिखरपर आसीन, पवित्र, लोगोंकी जन्मपीडाका हरण करनेवाले, विश्वरूपी कमलके लिए सूर्यके समान वीर जिनेन्द्रको राजाने स्तुति प्रारम्भ की ॥२॥
समस्त भुवनतलका मल दूर करनेवाले, आपकी जय हो। ऋषियोंके शरणस्वरूप श्रेष्ठ चरण तथा समता धारण करनेवाले, भवसे तारनेवाले, बुढ़ापा और मृत्युका हरण करनेवाले, यम, पवन और दनुका दमन करनेवाले, लक्ष्मीसे रमण करनेवाले, मुकुटतलके मणियोंके जलसे जिनके पवित्र चरणकमल धोये गये हैं ऐसे हे समस्त विधानमें कुशल, आपकी जय हो (मुनिधर्म और गृहस्थ धर्मकी रचनामें ) । न्यायरूपी मूसलसे प्रबलोंको आहत करनेवाले, शास्त्रोंसे सबल, द्विज, कपिल, शिव और सुगतके कुनयोंके पथको नष्ट करनेवाले, मदका नाश करनेवाले, स्वपर भावसे शून्य तथा दुःखसे रहित, मुनियोंसे पूज्य महामहनीय, दुग्धरस और विषके रसमें समानभाव रखनेवाले, कामदेवकी पहुंचसे परे, हे देव आपकी जय हो। पापरूपी सिंहके लिए अष्टापदके समान, पण्डितोंमें प्रवर, सुखके निवास, रतिका विलय करनेवाले, द्युतिके मण्डल, सूर्यको जीतनेवाले हे करुण, मापकी
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महापुराण
[२. ३. २५
जडदमिर
मणभमिर-1 घणतिमिर- हरमिहिर। जय सुमुह
जय समह। जय सुमण
जये गयणचुयसुमण- पहँगमण। जर्य चलियचमरिरुह
जय ललियसुरकुरुह । जय गहिरमहुरझुणि
जय चरमपरममुणि । जय विसयविसिगरुल जयधवल जसधवल । जय रसियजसवडह
गयगरुह जय अरुह । घत्ता-सीहासणछत्तालंकरिय उत्तारेप्पिणु चउगइहे ॥
"जय मयमयणिवहमयाहिवइ मई जसु पंचमगइहे ॥३॥
इय वंदिवि जिणु पालियरट्ठउ एयारहमइ कोहि णिविउ । संभवंतभवभारभयंगउ
भूवइ भत्तिभारणवियंगउ । पुच्छइ महिवइ संजमधारा अक्खहि गोत्तमसामि भडारा। पावणासु चउवग्गाइण्ण
जेम महापुराणु अवइण्णउं । तं णिसुणिवि आघोसइ गणहरु वासारत्ति पत्ति णं जलहरु । सुणि सेणिय मयमोहविहीणहि अरहंतावलीहि वोलीणहि । णाइ णंतु भाविणिहि णिरुत्तउ एहउ वीरजिणिंदें वुत्तउ । पढमु समासमि कालु अणाइउ सो अणंतु जिगणाणे जोइउ । जगपरिणामहु सो सहयारिउ अरसु अगंधु अरूउ अभारिउ । मुणइ को वि सम्मत्तवियक्खणु णिच्छयकालु पवत्तणलक्खणु । घत्ता-भो मुणिपयपंकयभमर णिव तच्चु ण कासु वि हउँ रहमि ॥
ववहारकालु परमेट्ठिमुहिं जिह णिसुणिउं तिह तुह कहमि ॥४॥
५
अणुअंतरयरु समउ भणिजइ.. ऊसासु' वि आवलिहिं दु संखहिं सत्तहिं थोवएहिं लैवु भणियउं होति महामुणिचित्तावडियहि
आवलि तेहिं असंखहिं किन्जइ । सत्तूसासहिं थोवउ लेक्चहि। इह पियकारिणितणएं मुणियउं । सड्ढ़ जि अट्ठतीस लव घडियहि ।
६. MBP गयणयल । ७. B णहगमण। ८. B omits this line. ९. B omits this line.
१०. MB जय जय मयणिवह । ४. १. MBP वंदिय । २. MBP भवभाव; K भवभाव but corrects in to भवभार; T भवभाव 1 but explains it as संसारे परावर्ताः प्रचुराः । ३. MBP जिणणाहें। ५.१.M ओसासु । २. MBP लक्खहि । ३. MBP लउ.।
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२७
२.५.४]
हिन्दी अनुवाद जय हो। जड़ोंका दमन करनेवाले, मनको भ्रमित करनेवाले, सघन अन्धकारके लिए सूर्य, हे सुमुख और सम दृष्टि रखनेवाले आपकी जय हो। हे सुमन! आपकी जय, जिनके लिए आकाशसे सुमनोंकी वर्षा की जाती है ऐसे हे आकाशगामी, आपको जय हो। जिनपर चमर ढोरे जाते हैं, ऐसे आपकी जय । हे सुन्दर कल्पवृक्ष, आपकी जय । हे गम्भीर मधुर ध्वनि, आपकी जय । हे अन्तिम तीर्थंकर आपकी जय । हे विषयरूपी सर्पके लिए गरुड़, विश्वके लिए मंगलस्वरूप यशसे धवल आपकी जय हो । जिनके यशके नगाड़े बज रहे हैं ऐसे हे अनिन्द्य अहंन्त आपकी जय हो।
पत्ता-सिंहासन और छत्रोंसे अलंकृत तथा मदरूपी मृगोंके लिए सिंहके समान आपकी जय हो। चार गतियोंसे उद्धार कर, आप मुझे पांचवीं गति (मोक्ष) में ले जायें ॥३॥
राष्ट्रका पालन करनेवाला राजा श्रेणिक, इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान्की वन्दना कर, . ग्यारहवें कोठेमें जाकर बैठ गया। उत्पन्न होते हुए विश्वभारके भयसे डरकर वह भक्तिके भारसे विनत शरीर हो गया। राजाने पूछा-"संयमको धारण करनेवाले आदरणीय गौतम, बताइए कि
शक तथा चार पुरुषार्थोसे परिपणं महापुराण किस प्रकार अवतरित हआ।" यह सुनकर गौतम गणधरने इस प्रकार घोषणा की कि जैसे पावस ऋतु आनेपर मेघ गरज उठे हों। उन्होंने कहा-'हे श्रेणिक, सुनो। मद और मोहसे रहित अरहन्तोंकी समाप्त हो रही परम्पराका , न आदि है, और न होनेवाली परम्पराका अन्त है। वीर भगवान्ने निश्चयरूपसे यह कहा है। सबसे पहले संक्षेपमें बताता हूँ कि काल अनादि और अनन्त है जिसे जिनभगवान्ने अपने केवलज्ञानसे देखा है। इस विश्वके परिणमनमें वही सहायक है, वह अरस, अगन्ध, अरूप एवं भारहीन है । संसारके प्रवर्तनके कारणस्वरूप इस निश्चयकालको, सम्यक्त्वसे विलक्षण कोई विरला मनुष्य ही जान सकता है।
पत्ता-मुनियोंके चरणकमलोंके भ्रमर हे राजन् ! मैं किसी भी तत्त्वको छिपा नहीं रखूगा। परमेष्ठी भगवान्के मुखसे जिस रूपमें व्यवहार कालको मैंने सुना है वह, मैं वैसा ही तुम्हें बताता हूँ॥४॥
एक अणु जितने समयमें आकाशके एक प्रदेशसे दूसरे प्रदेशमें जाता है, उसे समय कहते हैं, असंख्य समयोंकी एक आवली कही जाती है। संख्यात आवलियोंसे एक उच्छ्वास बनता है। सात उच्छ्वासोंका एक स्तोक समझना चाहिए। सात स्तोकोंका एक लव कहा जाता है-ऐसा प्रियकारिणी त्रिशलाके पुत्र महावीरने समझा है। महामुनियोंके चित्तमें आनेवाली नाड़ीमें साढ़े
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[२.५.५
महापुराण घडियहिं दोहिं मुहुत्तहु अवसरु तीसहिं तेहिं जाइ णिसिवासरु । तेत्तियहिं जि दिर्यसहिं विरइज्जइ मासु महारिसिणाहहिं गिजइ । बिहिं मासहिं उडेमाणु णिबद्धउ उद्यहिं तीहिं पुणु अयणु पसिद्ध । विहिं अयणिहिं संवच्छरु वुच्चइ पंचहिं वच्छरेहिं जुगु वुच्चई । बिहिं जुगेहिं दसवरिसई जायइं . दहगुणियई सयसंखइ आयई। सउ दहेहिं ताडिजइ जामहि आवइ अस्सहासु वि तावहिं । पत्ता-सो सहसु वि दहहउ दससहँसु होइ समासिउ मइं णिउणु ।।
ते दह वि दहहिं जइ गुणइ गुणि तो उप्पज्जइ लक्खु पुणु ॥५॥
संखाणाणिहिं णिम्मिउं चंगउ . चउरासीलक्खहिं पुव्वंगउ । जाणिज्जइ फुडु अक्खियमेत्ती लक्खसएण जि कोडि पउत्ती। पुव्वंगे पुव्वंगु णिहम्मद
जइ तो इह अवरु वि अवगम्मइ । वरिसहं सत्तरि कोडिउ लक्खहं छप्पण्णेव ताउ संहसंखहं । परमागमि जं देवे बद्धर
पुश्वपेमाणु एउ तं लद्धउ । पन्वु णउदु कुमुदु वि पउमक्खउ णलिणु कमलु तुडियउ वि ससंखउ । अडडु अममु हाहा हूहू तिह जाणहि जिणवरेण जाणिउं जिह । मउलय लय वि महालइयंगउ पुणु वि महालयणामपसंग। सीसपकंपिउ हत्थपहेलिउ
अचलप्पु वि वीरें उम्मीलिउ । णाणाणामपमाणहिं भेजउ एत्तिउ कालु होइ संखेज। पत्ता-परमाणु अट्ठ जइ मेलवहिं तो तसरेणु समुभवइ ।
__ अट्ठहिं तसरेणुहिं पिंडयहिं एजु जि रहरेणुउ हवइ ॥६॥
अट्ठहिं रहरेणुयहिं समग्गहिं . चिहुरग्गउ अट्ठहिं चिहुरग्गहिं । लिक्ख भणिय पुणु अट्ठहिं लिक्खेहिं सियसिद्धत्थु कहिउ णिहयक्खहिं । अट्ठहिं सरिसवेहिं परिमाणिउ जवपमाणु देवागमि आणिउँ। परमप्पयदिहउ को दूसइ । अट्ठजवंगुल सूरि समासइ । छंगुलु पाउ विहत्थि दुवाई दोहिं ताहि किर रयणि वि हूई। चउरयणिलु दंडु भणि भावहि दंडहिं अट्ठसहासिहिं पावहि । जोयणु तं पि सरहिं गुणिज्जइ पंचहिं पुणु लोयहु दंसिज्जइ। एम महाजोयणु वक्खाणिउं जं जगमाणकरणु अहिणाणिउं । तस्स पमाणे खम्मइ खोणी परिवटुलिय संपरियरतिउणी। ४. MBP दिवसहिं । ५. MBP रिउमाणु । ६. MBP सुच्चइ । ७. MBP दससहस । ६. १. K सहसक्खहं । २. M पुन्वे पमाणु । ३. हत्यपहिल्लउ; P°पहिल्लिउ । ४. MBP रहरेणू । ७. १. MBP ल्हिक्ख । २. MBP ल्हिक्खहिं । ३. M जाणिउ। ४. MBP पंचहि लोयहु पुणु
दरिसिज्जइ। ५. MBP खोणी। ६. TP सपरिरय and adds सपरिरयेति पाठेऽप्ययमेवार्थः ।
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२.७.९] हिन्दी अनुवाद
२९ अड़तालीस लव होते हैं। दो घड़ियोंसे मुहूर्तका अवसर बनता है और तीस मुहूर्तोका दिनरात होता है। दिनोंसे मास बनता है ऐसा, महाऋषि-नाथके द्वारा कहा गया है। दो माहोंसे ऋतुमान बनता है, तीन ऋतुमानोंसे फिर अयन प्रसिद्ध होता है। दो अयनोंसे एक वर्ष बनता है और पांच वर्षोंका यग कहा जाता है। और दो यगोंसे दस वर्ष बनते हैं। उनमें दसका गणा करनेपर सौ साल होते हैं । जब १०० में दसका गुणा किया जाता है तो एक हजार वर्ष होते हैं।
पत्ता-दससे आहत होनेपर वह हजार दस हजार होता है, थोड़ेमें मैंने ऐसा गुना है। उन दस हजारका भी जब दससे गुणा किया जाये तो एक लाख उत्पन्न होते हैं ॥५॥
संख्याज्ञानियों ( गणितज्ञों) ने यह अच्छी तरह जाना है कि चौरासी लाख वर्षोंका एक पूर्वांग होता है । कथन मात्रसे यह जान लिया जाता है कि सो लाखका एक करोड़ कहा जाता है । जब पूर्वांगसे पूर्वांगका गुणा किया जाये तो और भी संख्या जानी जाती है, सत्तर करोड़ एक लाख छप्पन हजार वर्षाका एक सह संख्य होता है। परमागम में देव ( जिनेन्द्र ) ने जैसा निबद्ध किया है, उस पूर्वके प्रमाणको यहाँ जान लिया। पूर्व नियुत कुमुद, पद्म, नलिन, संख सहित तुट्य, अट्ट, अमंग, ऊहांग और ऊहाको उसी प्रकार जानो कि जिस प्रकार जिन भगवान्ने कहा है। और भी मृदुलता, लता, महालतांग और फिर महालता नामका प्रसंग आता है। शिरःप्रकम्पित, हस्तप्रहेलिका और अचल काल हैं, उसे महावीर प्रभुने प्रकाशित किया है। इस प्रकार नाना नाम और प्रमाणोंसे विभाजित इतना संख्यात काल होता है।
पत्ता-यदि आठ परमाणुओंको मिला दिया जाये, तो एक त्रसरेणु उत्पन्न होता है और आठ त्रसरेणुओंके मिलनेपर एक रथरेणुकी उत्पत्ति होती है ॥६॥
आठ रथरेणुओंके मिलनेपर एक बालाग्र बनता है, आठ बालानोंकी एक लीख कही जाती है। आठ लीखोंसे एक सफेद सरसों बनता है, ऐसा महामुनियोंने कहा है। आठ सरसोंको इकट्ठा करनेपर एक जौका आकार बनता है ऐसा जिनागममें कहा गया है। परमपदमें स्थित लोगोंके द्वारा जो देखा जाता है उसमें कौन दोष लगा सकता है ? मुनि लोग संक्षेपमें आठ जौका एक अंगुल बताते हैं। छह अंगुलोंका एक पाद होता है, दो पादकी एक वितस्ति, दो वितस्तियोंका एक रत्नी, चार रत्नियोंका एक दण्ड मनमें भाता है। हजार दण्डोंका एक योजन होता है, उस योजनको आठ हजारसे गुणित किया जाये और फिर उसे भी पांच सौसे गुणा किया जाये, और फिर लोकको दिखाया जाये । इस प्रकार महायोजन कहा जाता है और जिसे जगको मापनेका आधार समझा जाता है । उसके प्रमाणसे धरती खोदी जाये, अपनी परिधिसे तीन गुनी अधिक गोल-गोल ।
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१०
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१०
१०
३०
'महापुराण
कत्तरियहि अंविहायहिं सुहुमुहुं हो पहुच लेक्खें म गणहि जयहुं रोमरासि सा खिज्जइ तेहिं असं खिहिं उद्धारुल्लउ तं पि असंखगुणिउं अद्धारउ होइ समुद्दोमु चुअणाडिहिं
सा पूरिज्जइसिसुअविरोमहुं । संच्छरसइ एक जि अवणहि । तइयहुं पलिओमु ध्रुर्वु पुज्जइ । दीवस मुद्दपमाण परुलउ । भवं ठिदिआउपमाणाधारउ । पल्लोवमदहकोडा कोडिहि ।
घत्ता - तेत्तियहिं जि सायरसमहिं फुडु कालचक्कु मई लक्खियउ || लइ एउ वि अवरु वि पुणु भणमि केवलणाणें अक्खियउ ||७||
८
सुसेमसुसमु अण्णेक्कु वि सुसम दुस्समु अइदुस्समु पविता ए ओहामिदावियइढिहिं भुयबलविद्दचसरीरिसरीर हिं वड्ढतेहिं होइ उच्छप्पिणि सायराहं विभियगिव्वाणहिं तीहिं म कार्लाहिं तिण्णि विहत्तई दरिसियमाणवदेहारोयइं छेच्चदुधणुसहास सरीरइं तिण्ण एकपल्लथियजीवई उत्तिममज्झिमाई णिक्किट्ठाई
मेंदुमु पुणु दुस्समै सुसमउ । इय छक्काल वीरपण्णत्ता । परिभमंति जगि हाणिपवुढिहिं । धम्मणाणगंभीरिमधीरहिं । ओहट्टंतएहिं अवसप्पिणि । चतिदुकोडा कोडिपमाणहिं । दहविहविडविपसाहियखेत्तईं । इच्छासंणिहमाणियभोयई । वोरक्खामलमेत्ताहारई । रयणाहरणविहूसियेगीयई । भोभूमिचधाई पट्टई ।
घत्ता - उ सत्तु असेसु वि मित्तु तहिं सी गईदें सहुं वसइ ॥ लायण्णवण्ण विब्भमभरिङ जणवयजोव्वणु णउ ल्हसइ ||८||
९
बहुवली तयइ कालइ अट्ठारह घणुसयतणु थिरजसु पडिइ णामें जाय कुलयरु अमममियाड राउ मंथरगइ माणुस अनंग उ अडडपमाणियाउ खेमंकरु सत्तसयाईं पंचसत्तरि धणु खेमंधरु णामें णं दिग्गउ सयसत्तर पंचासेहिं जुत्तउ कमलजीवि सीमंकरु भण्णइ
थियपल्लोव मट्ठभायालइ । पलिओमदमंसु चिराउ | पुणु तेरहस्यचापहरु । अवरु वि हूवड णामें सम्मइ । असयाई सरासणतुंगउ । संभूय सुभूयखेमंकरु | उच्छिउ अण्णु वि उप्पण्ण मणु । तुडियह जीवेष्पिणु सो मंड । गैत्तपमाण जासु पउत्तउ । तहु चरित्तु जइ सुरगुरु वण्णइ ।
७. MBP अविभायहिं । ८. MP धुउ; B धुवु । ९. MBP हवइ तियभउ ।
6. १. MP सुसमुसुसमु । २. MBP सुसमुदुसमु । ३. MBP दुस्समुसुसमउ । ४. P पवहंता but gloss प्रविभक्ताः पृथग्गुणिताः । ५. MBP छचउदुधणुसहास । ६. M BP विहूसियगीवहि । ९. १. MP मुउ । २. MBP पण्णासहि । ३. MBP गत्तमाणु जगि जासु पउत्त उ ।
[२.७.१०
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२. ९. १०]
हिन्दी अनुवाद और जो कैंचीसे न काटे जा सकें ऐसे सूक्ष्म मेषके बच्चोंके रोमोंसे उसे भरा जाये। जब वह भर जाये तो उसे गिनो मत । सौ सालमें एक बाल निकालो, जब वह रोमराजि समाप्त हो जाये तब निश्चयसे एक व्यवहार पल्य पूरा होता है। उन असंख्य पल्योंसे एक उद्धारपल्य बनता है, और असंख्यात उद्धारपल्योंसे एक द्वीप समुद्र प्रमाण काल बनता है। उसमें भी असंख्यातका गुणा करनेपर एक अद्धा पल्य बनता है जो जन्म, स्थिति, आयु और प्रमाणका धारक होता है । दस करोड़ पल्योंके बराबर घटिकाओंके समाप्त होनेपर एक सागर प्रमाण समय होता है।
पत्ता-इतने ही सागरोंके बराबर कालचक्रको मैंने लक्षित किया है, लो मैं वैसा ही बताता हूँ कि जैसा केवलज्ञानीने कहा है ॥७॥
सुषमा-सुषमा एक और सुषमा, सुषमा-दुखमा फिर दुखमा-सुषमा, दुखमा, अति दुखमा भगवान् महावीरके द्वारा विज्ञप्त, ये छह काल विभाजित हैं। यह कालचक्र क्रमशः ऋद्धिको घटाता बढ़ाता हानि और वृद्धिको करता हुआ लोकमें घूम रहा है। जब बाहुबल, वैभव, मनुष्य, शरीर, धर्म, ज्ञान, गाम्म और धैर्य बढ़ते हैं, तो उत्सर्पिणी काल होता है, और जब ये चीजें घटती हैं तब अवसर्पिणी काल होता है। देवताओंको चकित करनेवाले इन कालोंका समय, क्रमशः तीन, चार और दो कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण होता है, तीनों काल तीन प्रकारसे विभक्त हैं। इनमें दस प्रकारके कल्पवृक्षोंसे प्रसाधित क्षेत्र हैं। मनुष्यके शरीर नीरोग दिखाई देते हैं। इच्छाके अनुसार भोगोंको प्राप्त करते हैं। मनुष्योंके शरीर क्रमशः छह, चार और दो हजार धनुष प्रमाण होते हैं, उनका आहार क्रमशः बेर, बहेड़ा और आंवलेकी मात्राके बराबर होता है। उनकी आयु क्रमशः तीन, दो और एक पल्यकी होती है। शरीर रत्नों और अलंकारोंसे विभूषित होते हैं । इस प्रकार भोगभूमिके चिह्न प्रकट हुए-उत्तम, मध्यम और जघन्य।
पत्ता-जहां कोई शत्रु नहीं होता। सभी मित्र हैं। सिंह हाथीके साथ रहता है, तथा लोगोंका लावण्य रंग और विलाससे परिपूर्ण वय और यौवन नष्ट नहीं होते ॥८॥
तीसरा काल बीतनेपर, जब पल्योपमके आठवें भाग बराबर समय रह गया, तब प्रतिश्रुति नामका दीर्घायुवाला कुलकर उत्पन्न हुआ, स्थिर यशवाला जो अठारह सौ धनुष प्रमाण शरीरका था उसकी आयु पल्योपमके दसवें भागके बराबर थी। फिर तेरह सौ धनुष प्रमाण शरीरवाला अमितायु और मन्थर गतिवाला सन्मति नामका कुलकर उत्पन्न हुआ। फिर कामदेवके समान तथा आठ सौ धनुष प्रमाण शरीरवाला अडड बराबर आयुसे युक्त प्राणियोंका कल्याण करनेवाला क्षेमंकर कुलकर उत्पन्न हुआ। फिर सात सौ पचहत्तर धनुष प्रमाण शरीरवाला एक और मनु हुआ, उसका नाम क्षेमन्धर था और वह दिग्गज था, जो एक तुट्य वर्ष प्रमाण जीवित रहकर मर गया। फिर जिसका शरीर सात सौ पचास धनुष प्रमाण कहा जाता है ऐसे सीमंकर
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[१.९.११
महापुराण णलिणाउसु किर को णउ मण्णइ बाणासणहं सरीरसमुण्णइ । सत्तसयई पंचुत्तरवीसई
जासु जिणिदभडारउ भासइ । सिरिकरपल्लवलालियकंधरु सो संजायउ पुणु सीमंधर । पणुवीसुज्झिएहिं दिहिगारउ कोदंडहं सएहिं गरुयारउ । तेत्तिएहिं पुणु गुणमणिमंडिउ विमलबाहु हुउ पंडापंडिउ । एक्कु वि पोमु जासु संजीविउ मुउ सुहकम्में सुरहरु पाविउ । छहसयपणहत्तरिइ पसाहिय जासु देह उच्छेहु पसाहिय । कम्मुयाहं कामिणिकयविभउ णामें सुपसिद्धउ चक्खुब्भउ । पउमंगाउ महीयलि अच्छिउ पच्छा खयकालेण णियच्छिउ । पुणु वि जसस्सि पुण्णचंदाणणु उप्पण्णउ पत्थिवपंचाणणु । घत्ता-उडुमाणई सयई कणासणहं पण्णासाहियाई र्गणमि ॥
तहु देहुँद्धत्तणु एत्तडउ जीविउ कुमुदु एक्कु' भणमि ॥९॥
एयहु अक्खियाइं जेत्तियई जि। पुणु जायहु बलतुलियगइंदहु कुमुयंगाउणिबद्धपमाणहु पंचसयई पुणु सयसंजुत्तई णउदाउसु महिवइ संजायउ तहु पच्छइ गच्छंत काले अजवलोयहु आसि पहाण साययवीढहं सयई महिढिउ गउ सो णउयंगउ जीवेप्पिणु सड्ढई पंचसयई रणचंडहं पव्वाउसु पय पालहुं जाणइ कंडमोक्खकरणाहं सउण्णउ पुत्वकोडिजीवियसंपुण्णउ तिहुअणभवणखंमु णं दिण्णउ गुरुउद्धरियवंसु वरमेहलु भूसणरयणकिरणहयतममलु मउडसिहरु हारावलिणिज्झरु णं अवयरियउ जंगमु मंदरु
पंचवीसरहियइं तेत्तियई जि। धणुसयाई अहिचंदणरिंदहु। णिउ सो काले अमरविमाणहु । चावह जासु जिणेण णिउत्तई। इह चंदाहुँ गाम विक्खायउ। उच्छिज्जते सुरतरुजालें। हुउ मरुएउ णाम बहुजाणउं । पंच पंचहत्तरई पवढिउ। थिउ सुरहरि सुरबोंदि लएप्पिणु । देहपमाणु जासु धणुदंडहं। पुणु हुउ मणु णामेण पसेणइ । पंचसयाइं सवाय उण्णउ । सुद्धबुद्धि सब्भावाउण्णउ । संतत्तुज्जलकंचणवण्णउ । दावियकप्पतरुवरामयहलु । सयणुतेय उज्जोइयणहयलु। सरवरसेवाजोग्गंधराधरु । णं णहणिवडिउ देउ पुरंदरु ।
४. MP जिणिंदु भडारउ । ५. MBP एक्कु पोमु जा सो संजीवउ। ६. MBP कामुयाहं ।
७. BP बाणासणहं। ८. MBP गणिउं। ९. MBP देहुच्चत्तणु । १०. MBP भणिउं । १०. १. MBP चावहिं । २. MBP चंदाहणामु । ३. MBP उच्छज्जतें। ४. MBP add after this
line दीहबाहु उरयलवित्थिण्णउ । ५. B°वंसु णं मेहलु । ६. M°जोग; BP°जोग्ग । ७. MBP जंगममंदरु।
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२. १०.१८]
हिन्दी अनुवाद की आयु कमलांक प्रमाण थी। उसके चरितका वर्णन बृहस्पति ही कर सकता है। नलिनके बराबर आयुवाले उसे कौन नहीं जानता। जिनेन्द्र भगवान्ने जिसके शरीरकी ऊंचाई सात सौ पचीस धनुष प्रमाण बतायी है, तथा जिसके कन्धे लक्ष्मीके कर-पल्लवोंसे लालित हैं ऐसा सीमंधर कुलकर उत्पन्न हुआ। सीमन्धरकी आयुसे पचीस वर्ष कम अर्थात् सात सौ धनुष प्रमाण ऊंचाईवाला भाग्यशाली पण्डितोंमें चतुर, उतने ही गुणोंसे मण्डित विमलवाहन कुलकर उत्पन्न हुआ, जिसका जीवन एक पद्म प्रमाण था। उसने मरकर स्वर्ग प्राप्त किया। जिसके शरीरकी ऊंचाई छह सौ पचहत्तर धनुष प्रमाण थी। कामिनियोंको विस्मयमें डालनेवाला सुप्रसिद्ध नाम चक्षूद्भव उत्पन्न हुआ। वह एक पद्म समय धरतीपर जीवित रहा। बादमें क्षयकालने उसे समाप्त कर दिया। फिर पूर्णेन्दुके समान मुखवाला और राजाओंमें सिंह यशस्वी नामका कुलकर हुआ।
पत्ता-मैं, पचास अधिक ऋतुओंकी संख्याके बराबर अर्थात् छह सौ पचास धनुष प्रमाण, उसके शरीरकी ऊँचाई गिनता हूँ और उनका जीवन-काल एक कुमुद प्रमाण बताता हूँ ॥९॥
१०
यशस्वीकी जितनी ऊंचाई बतायी गयी है, उसमें पचीस वर्ष कम, अर्थात् छह सौ पचीस धनुष प्रमाण शरीरवाला अभिवन्द राजा हुआ जो शक्तिमें हाथियोंको तौलता था। उसकी आयु एक कुमुदांगके बराबर निवद्ध थी। वह भी समय आनेपर अमरविमानमें चला गया। फिर सौ सहित पांच सौ अर्थात् छह सौ धनुष प्रमाण जिसका शरीर, जिनेन्द्रने बताया है, पल्यके १० हजार करोड़ वर्षके बराबर आयुवाला ऐसा विख्यात चन्द्राभ नामका राजा हुआ। उसके बाद समय बीतनेपर कल्पवृक्षोंकी परम्परा नष्ट होनेपर, आर्यलोकका प्रधान मरुदेव नामका बहुज्ञानी राजा हुआ, जो पचहत्तर सहित पांच सौ अर्थात् पाँच सौ पचहत्तर धनुष प्रमाण शरीरवाला था, वह नौ अंग प्रमाण जीवित रहकर देवशरीर प्राप्त कर स्वर्गलोक चला गया, फिर जिसकी आयु एक पूर्व प्रमाण, जो प्रजाका पालन करना जानता था, ऐसा प्रसेनजित् नामका मनु हुआ। उसका शरीर सवा पांच सौ धनुष प्रमाण ऊंचा था। पूर्वकोटि आयुसे परिपूर्ण जो शुद्ध बुद्धि और सद्भावसे आपूरित था। तपे हुए सोनेके रंगके समान जो मानो त्रिभुवनरूपी भवनका आधार स्तम्भ था। अपने भारी वंशका उद्धार करनेवाला, श्रेष्ठ मेखलासे युक्त, कल्पवृक्षके अमृतफलोंको दिखानेवाला, आभूषण रत्नोंकी किरणोंसे तममलको नष्ट करनेवाला, अपने शरीरके तेजसे आकाशतलको आलोकित करनेवाला, मुकुटरूपी शिखरसे और हाराबलिके मिर्झरसे युक्त जो ऐसा लगता था मानो सुरवरोंके सेवायोग्य धराको धारण करनेवाला मन्दराचल ही अवतरित हुआ हो, या मानो आकाशसे इन्द्रदेव गिर पड़ा हो ।
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[२.१०.१९
महापुराण घत्ता-हुउ पच्छइ आयहं तेरहह बाहुद्धारियमुर्वणभरु ॥
जियलोयहो णाहि व णाहिपहु णरसंथुउ कुलयरु पवरु ॥१०॥
णहयलि जंत जणेण ण याणिये पहिलएण रविससि बक्खाणिय । अण्णु वि रुइरुक्खक्खइ दिई बिंदुयबिंदुएहिं उवरिटुइं। बीएण वि लोयहु भयरिट्ठई अहरत्तई णक्खत्तई सिट्ठइं। हूया जे मृग दारुण जइयहुं तइयएण ते साहिय तइयहुँ। सिंगि गक्खि दाढि वि परिहरिया सोम्म सुलक्खण णियडेइ धरिया। चोत्थैएण पुणु णउ उप्पेक्खिउ . लोउ मृगहिं खजंतउ रक्खिउ । ताडिय ते दढदंडपहारिहिं पंचमेण बहुबुद्धिपयारिहिं । वियलियफल तरु विरइयमेरइ अजव सुणिरोहिय णियकेरइ । पविरलदुमकालइ कुज्झता फललोहें कोहें जुझंता। छट्ठएण मणुणा अणुयंधे
वारिय णर कयसीमाचिंधे । घत्ता-कुलयरपवरेण वि संत्तमेण णियमइविहभाविउ ॥
पल्लाणिवि हयगयवरवसहभारारोहणु''दाविउ ॥११॥
१२
अट्रमेण चंगउ उवएसिउ
डिंभयदसणभउ णिण्णासिउ । णवमएण सुयमुहससि दरिसिउ तंजोइवि जणु हियवइ हरिसिउ । खणु जीवेप्पिणु मुउ सोमालहुं दह में केलि पयासिय बालहुं । एयारहमइ कुलयरि जायइ णंदणि माणववंदहु हूयइ। जीउ ण वज्जइ कइवयदिवसई बारहमइ हुइ बहुयई वरिसइं। णंदइ पय पयाइ संजुत्ती
तेरहमेण वियप्पिय वित्ती। विहियई सरिसमुहजलजाणई गयणलग्गगिरिवरसोवाणई। तक्कालइ जायई णिम्मग्गई कुसरि कुसायर कुकुहर दुग्गई। घत्ता-जाएं मणुणा चोहमइण णरसिसुणालइ खंडियइं॥
कसणब्भई थियई णहंगणइ चलसोदामणिसंडियई ॥१२॥
८. MBP °भुवणहरु । ९. MBP कुलयरपवरु । ११. १. M ण जाणिय । २. MBP मिग । ३. M सिंगि य णक्खि; B सिंगणक्खि । ४. MBP सोम ।
५. B णियडयधरिया। ६. P चऊथएण । ७. MBP मिगहिं। ८. MBP अणुबंधे । ९. P सत्तमइ । .... १०. MBP भावियउ। ११. MBP दावियउ । १२. १. P जोएप्पिणु हियवइ । २. P दहमई। ३. MBP माणवविंदहु । ४. M.BP जायएं । ५. MBP
चउदहमइण ।
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२. १२.१०]
हिन्दी अनुवाद घत्ता-इन तेरह कुलकरोंके बाद, अपने बाहुओंसे भुवनभारको उठानेवाले नरोंसे संस्तुत महान् कुलकर नाभि राजा हुए, जो मानो जीवलोकके लिए धुरीके समान थे ॥१०॥
आकाशतलमें जाते हुए जो आदमीके द्वारा नहीं जाने जाते थे, पहले कुलकरने उन्हें सूर्य और चन्द्रमा कहा । और भी जो ज्योतिरंग कल्पवृक्षोंके नष्ट हो जानेपर बिन्दुओं-बिन्दुओंपर स्थित दिखाई देने लगे। दूसरे कुलकरने ( सन्मतिने ) भी लोकके लिए उत्पातस्वरूप दिन-रात और नक्षत्रोंका कथन किया। और अब जो भयंकर पशु उत्पन्न हुए, तो तीसरेने उनके पशुस्वरूपका वर्णन किया। सींगों, नखों और दाढ़ोंवाले पशुओंको छोड़ दिया और जो सौम्य और सुलक्षण थे, उन्हें अपने पास रख लिया। चौथे कुलकरने भी उपेक्षा नहीं की तथा पशुओंके द्वारा खाये जाते हुए लोककी रक्षा की। पांचवेंने दृढ़ दण्डोंके प्रहारों और अनेक बुद्धिप्रकारोंसे उन्हें प्रताड़ित
कलकर सीमन्धरने विगलित फलवाले वक्षोंको मर्यादायक्त अपनी आज्ञासे सीधे सुनिबद्ध किया। वृक्षोंके उस अभावकालमें नष्ट होते हुए, तथा फलोंके लोभ और क्रोधसे झगड़ते हुए लोगोंको आग्रहके साथ मना किया।
पत्ता-सातवें श्रेष्ठ कुलकरने भी अपनी बुद्धिके वैभवसे विचार किया तथा जीन कसकर अश्व, गज एवं श्रेष्ठ बेलोंपर भार लादना सिखाया ॥११॥
१२
आठवेंने सुन्दर उपदेश दिया और बच्चेके देखनेके डरको दूर कर दिया ( उसके पूर्व पिता पुत्रका मुख और आँखें देखे बिना मर जाते थे)। नौवें कुलकर यशस्वीने पुत्रके मुखरूपी चन्द्रमाको देखना बताया । उसे देखकर लोग अपने मनमें प्रसन्न हुए। लेकिन बालक एक क्षण जीवित रहकर मर गया। दसवें कुलकर अमिचन्द ( अमृतचन्द्र ) ने सुकुमार बालकोंकी क्रीड़ा दिखलायी। ग्यारहवें कुलकर चन्द्राभके होनेपर मानवसमूहके पुत्र उत्पन्न होने लगे। लेकिन कुछ दिनोंके बाद उनका जीव नहीं बचता, बारहवें कुलकर मरुदेवके होनेपर वे जीवित रहने लगे और प्रजा पुत्रादिसे संयुक्त होकर आनन्दसे रहने लगी। तेरहवें कुलकर प्रसेनजित्ने उनकी आजीविकाकी चिन्ता की। उसने समद्र-नदियोंके लिए जलयान बनाये। आकाशको छनेवाले पहाड़ोंपर सोपान बनाये गये। उन्हींके समय उत्पाती नदियों और समुद्रोंमें निश्चित मार्ग बनाये गये तथा पहाड़ोंमें दुर्ग रचे गये।
पत्ता-चौदहवें कुलकर नाभिराजके उत्पन्न होनेपर मानव-शिशुओंके नाल काटे जाने लगे, और सुन्दर बिजलियोंसे अलंकृत काले बादल आकाशरूपी आंगनमें स्थित हो गये ॥१२॥
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.३६
महापुराण.
[२.१३.१
विसकालिंदिकालणवजलहरपिहियणहंतरालओ। धुर्यगयगंडमंडलुड्डावियचलमत्तालिमेलओ॥ अविरलमुसलसरिसथिरधारावरिसभरंतभूयलो । हयरवियरपयावपसरुग्गयतरुतणणीलसद्दलो॥ पडुतडिवडणपडियवियडायलरुंजियसीहदारुणो। णञ्चियमत्तमोरगलकलरवपरियसयलकाणणो ।। गिरिसरिदरिसरंतसरसरभयवाणरमुक्कणीसणो। महियलघुलियमिलियदुंदुहसयवयसालूरपोसणो॥ घणचिखल्लखोल्लखणिखेड्यहरिणसिलिंबकयवहो। वियसियणवलंबकुसुमुग्गयरयपिंजरिय दिसिवहो॥ सुरवइचावतोरणालंकियघणकरिभरियणहहरो। विवरमुहोयरंतजलपवहारोसियसविसविसहरो॥ पियपियपियलवंतबप्पीहयमग्गियतोयबिंदुओ। सरतीरुल्ललंतहंसावलिझुणिहलबोलसंजुओ॥ चंपयचूयचारचंवचंदणचिंचिणिपीणियाउसो। वुट्ठो झत्ति जस्स कालम्मि जए सुयारि पाउसो॥ मुग्गकुलत्थकंगुजवकलवतिलेसीवीहिमासया। फलभरणवियकणिसकणलंपडणिवडियसुयसहासया ॥ ववगयभोयभूमिभवभूरुह सिरिणरवइरमासही।
जाया ''विविधण्णदुमवेल्लीगुम्मपसाहणा मही । घत्ता-तं पेक्खिवि" जणवउ संचलिउ मउ मेल्लेप्पिणु झत्ति तहिं ॥
लच्छीथणपेल्लियवच्छयलु अच्छइ णाहिणरिंदु जहिं ॥१३॥
किं तडयडइ पडइ फोडइ धर विप्फुरंतु णिरु भेसावर णर। वंकउं हरियारुणु किं दीसइ देव देव किं गज्जइ वरिसइ । गयकप्पदुम तेत्थु णिसण्णा एवहिं अवर के वि उप्पण्णा । अण्णइं कणभरियई णिप्फण्णइं णिञ्चमेव खगमृगसंचिण्णई। अम्हई जड उवायअवियाणा दीहरभुक्खायासें रीणा। भोज्जाभोज्जु तेत्थु किं होसइ तं णिसुणेप्पिणु महिवइ घोसइ । जो रसंतु वरिसइ सो णेवघणु जं वकउं दीसइ तं सुरधणु ।
जा गिरि दलइ चलइ सा विज्जुल चंचरीयचुंबियकोमलदल । १३. १. MBP विसि and gloss in P सर्पः । २. P धुव । ३. P तडिपडण । ४. M डिंडुह; P
डेंडुह; B डुडुह । ५. MBP°चिक्खिल्ल' । ६. MBP °कयंब । ७. MBP °वव्वीहयं । ८. P
विंदओ । ९. MBP°वं । १०. MBP सुयसमासया । ११. M°वण्ण । १२. MBP पेच्छिवि । १४. १. MBP °मिग । २. MB सिवघणु ।
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३७
२. १४.८]
हिन्दी अनुवाद
१३ जिसमें विष यमुना और कालके समान ( काले ) नवमेघोंने आकाशके मध्यभागको ढंक लिया था, जो गजोंके हिलते हुए गण्डस्थलोंसे उड़ाये गये भ्रमरसमूहके समान था, जिसने अविरल मूसलाधार धारावाहिक वर्षासे भूतलको भर दिया था, जो सूर्यको किरणोंके प्रतापको नष्ट करनेवाला, निकलते हुए वृक्षों और तृणोंके समान नीले पत्रोंसे नीला और हरा-भरा था, तथा वज्र और बिजलियोंके पतनसे ध्वस्त पर्वतपर गरजते हुए सिंहोंसे भयंकर था, जिसमें नाचते हुए मतवाले मयूरोंके सुन्दर शब्दसे समस्त कानन गूंज उठा था, जिसमें पहाड़की नदियों और घाटियोंमें बहते हुए जलोंके स्वरोंसे भयभीत वानर शब्द कर रहे थे, जो धरतीमें फैले हुए और मिले हुए डंडुह ( निविष सांप), सर्पो और मेढकोंको पोषण देनेवाला था, जो कीचड़की कोटरों
और गड्ढोंमें रखे हुए मृगशावकोंका वध करनेवाला था, जिसमें खिले हुए नवकदम्बके कुसुमोंसे निकली हई धुलसे दिशापथ पोले थे, इन्द्रधनुषके तोरणोंसे अलंकृत मेघरूपी गजोसे, जिसमें आकाशरूपी घर भरा हुआ था। बिलोंके मुखपर पड़ते हुए जलप्रवाहोंसे, जिसमें विषैले विषधर क्रुद्ध हो रहे थे। जिसमें पिउ-पिउ-पिउ बोलते हुए पपीहोंके द्वारा जलकी बूंदें मांगी जा रही थीं। सरोवरोंके किनारोंपर उल्लसित होती हुईं हंसावलीकी ध्वनियोंके कोलाहलसे जो युक्त था। जो चम्पक, आम्र, चार, चव, चन्दन और चिचिणी वृक्षोंके प्राणोंका सिंचन करनेवाला था, ऐसा पावस जिस कुलकरके समय जगत्में शीघ्र बरस गया। धरती मूग, कुलत्थ, कंगु, जौ, कलम ( सुगन्धित धान्य ), तिल, अलसी, ब्रोहि और उड़दसे युक्त हो उठी। जिसपर फलके भारसे झुकी हई बालोंके कणोंके लालची हजारों शक गिर रहे हैं. जिससे भोगभमिके कल्पवक्ष विदा हो चके हैं. और जो (भूमि ) राजाको लक्ष्मीको सखी है, ऐसी वह भूमि विविध धान्यों, वृक्षों और लतागुल्मोंसे प्रसाधित हो उठी।
घत्ता-उस भूमिको देखकर, जनपद अहंकार छोड़कर शीघ्र ही वहां चला, जहां लक्ष्मीके स्तनोंसे सटा है वक्षःस्थल जिसका, ऐसा नाभिनरेन्द्र विराजमान था ॥१३॥
जनोंने कहा-"यह तड़-तड़ करके क्या गिरता है, जो धरतीको फोड़ रहा है ? अत्यन्त चमकता हुआ यह लोगोंको डराता है। वक्र यह हरा और लाल क्या दिखाई देता है ? हे देव, हे देव, यह क्या गरजता और बरसता है ? गत कल्पवृक्ष जहाँपर स्थित थे, इस समय वहांपर दूसरे वृक्ष उग आये हैं। और दानोंसे भरे हुए पौधे निष्पन्न हुए हैं जो नित्य ही पक्षियों और पशुओंके द्वारा चुगे जाते हैं। उपायको नहीं जाननेवाले हम लोग जड़ हैं और लम्बी भूखके क्लेशसे दुःखी हैं। उनमें खाने योग्य और न खाने योग्य क्या होगा।" यह सुनकर राजा घोषणा करता है, “जो गरजता हुआ बरसता है। वह नवधन है, जो टेढ़ा दिखाई देता है वह इन्द्रधनुष है । जो चलती है और पहाड़को नष्ट कर देती है, वह बिजली है। कल्पवृक्षोंके नष्ट
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[२. १४.९
महापुराण सुरतरुवरविणासि सुच्छाया कम्मभूमिभूरुह संजाया। कडुयगरलु णीरसु वंचिजइ जं महुरउ सुसाउ तं चिज्जइ । खत्तियवंसत्थलथिरकंदें
एम भणेप्पिणु णाहिरिंदें। णिवडमाणु अब्भुद्धरियउ अणु हत्थिकुंभि किउ मट्टियभायणु । घत्ता-कणकंडणसिहिसंधुक्कणई पयणविहाणइं भावियई।
कप्पाससुत्तपरियड्ढणइं पडेपरियम्मई दावियई ॥१४॥
१५ तासु घरिणि मरुएवि भडारी जाहि रूवसिरि अइगरुयारी। अमरहं पंतिइ पयपणवंतिइ लंघियाई अम्हइं जययंतिइ। कमयलराएं काइं गविट्ठउ । एम णाई णेउरहि पघुट्ठउ । पण्हिहिं रत्तउ चित्तु पदसिउं अंगुलियहिं सरलत्तु पयासिउं । अंगुठुण्णंईइ जं गूढइं
गुप्फैइं तं किर पिसुणइं मूढई। णीरोमउ विसिरउ वट टुलियउ मसिणउ सोहियाउ उजलियउ। जंघउ कमहाणिइ ओहरियउ दि?उ णं खलमित्तहं किरियउ । गूढई गरवइमंताभास
वायरणाई व रइयसमासह। णिविडसंधिबंधई णं कव्वई देविहि जण्हुयाइं अइभव्वई। ऊरुयखंभ णराहिवदमणहु तोरणखंभाइं व रइभवणहु । जेण ससुरणरु तिहुयणु जित्तउ कामतच्चु जं देवहिं वुत्तउ । दिण्ण थत्ति तहु सोणीबिंबहु किं वण्णमि गरुयत्तु णियंबहु । घत्ता-गंभीर णाहि तहि मज्झु किसु उयरु सतुच्छेउ दिटठु मई ।।
संसग्गवसे गुणु कासु हुउ जो णवि जायउ जम्मि सई ॥१५॥
तिवलीसोवाणेहिं चडेप्पिणु रोमावलिकुहिणी लंघेप्पिणु । सिहिणगिरिंदारोहणदोरइ लग्गउ वम्महु मोत्तियहारइ । पियवसियरणु वसइ भुयमूलइ सुइसोहग्गु जाहि हत्थयलइ । णेहबंधु मणिबंधि परिदिउ लायण्णे समुद्दु ण संठिउ । जाहि तणउं तं जणियवियारउं महुरउ इयरहु केरउ खाइउ । कंठलीह णउ कंबू पावइ । परसासाऊरिउ कह जीवइ । णियडणिविट्ठउ जियससिकतिहि धोयहि धवलहि दंतहु पंतिहि । ३. P पिज्जइ । ४. MBP परियट्टणइं । ५. P°पडियम्मइं। १५. १. Tणहकंतीए but adds ! णहयंतिइ इति पाठे आकाशादागत्येत्यर्थः । २. MBP वित्त पदरिसिउः
T वित्तु वृत्तत्वम् । ३. MBP गुंफई। ४. P दिट्टाणं। ५. M समाणइं। ६. MBPK ऊरूखंभ ।
७. MBP ससुरयणु । ८. M सवित्थरु । १६. MBP मणिबंधु । २. BP समुदु णं । ३. MB कंचुउ; P कंबुउ and gloss शंखः । ४. M कहिं । - ५. M णिविड ।
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२. १६.७]
हिन्दी अनुवाद होनेपर अच्छी छायावाले ये कर्मभूमिके वृक्ष उत्पन्न हुए हैं। जो कडुवा-विषैला और नीरस फल है उससे बचना चाहिए, और जो मधुर तथा सुस्वादु है उसे खाना चाहिए।" क्षत्रियरूपी वंशस्थलके प्रथम अंकुर नाभिराजाने, यह कहकर नष्ट होती हुई प्रजाका उद्धार किया। हाथीके कुम्भस्थलके समान उन्होंने मिट्टीका घड़ा बनाया।
पत्ता-( उन्होंने ) दानोंका फटकना, आगको धौंकना आदि और भोजन बनानेके विधानोंको उत्पन्न किया । तथा कपाससे सूत खींचना और कपड़ा बुननेका कर्म बताया ॥१४॥
आदरणीया मरुदेवी उनकी गृहिणी थीं जिनकी रूपश्री गौरवको बढ़ानेवाली थी। जिसके नूपुरोंने जैसे यह की कि आकाशसे आयी हुई देवपंक्तिने चरणतलों (तलुओं) के राग (लालिमा) में क्या पाया कि जो उसने हमारी उपेक्षा की। एडीके निचले हिस्सोंने अपना अनुरक्त चित्त बता दिया। अंगुलियोंने अपनी सरलता प्रकाशित कर दी। अंगूठोंकी उन्नतिके कारण गूढ़ गांठे हैं, जो दुष्ट और कठोर हैं, रोमविहीन, शिरारहित, गोल, चिकनी, सुन्दर और उजलो जाँचें क्रमिकहीनतासे नीचे-नीचे अपकर्षको प्राप्त होती हुईं, दुष्ट मित्रोंकी क्रियाको प्रकट करती हैं। जो राजाओंकी मन्त्रणाकी भाषाकी तरह गूढ़ हैं, जो व्याकरणकी तरह समास ( समास और मांस) से रचित हैं, मानो वे सघन सन्धिबन्धोंसे युक्त काव्य हैं। देवीके घुटने अत्यन्त भव्य हैं, जिसके जाँघोंरूपी खम्भे राजाओंके दमनके लिए थे अथवा रतिके भवनके लिए तोरण खम्भोंके समान थे। जिसने देवों और मनुष्यों सहित त्रिभुवनको जीत लिया है, जिसे देवों द्वारा कामतत्त्व कहा जाता है, मानो उसने इस देवीके कटि-बिम्बको 'स्थिरता प्रदान की है, उसके नितम्बोंकी गुरुताका वर्णन मैं क्या करूं?
घत्ता-उसकी गम्भीर नाभि, दुबले मध्यभाग और तुच्छ ( छोटे ) उदरको मैंने देखा है संसर्गके कारण किसीमें कोई गुण नहीं आता, यदि वह गुण जन्मसे उसमें स्वयं पैदा नहीं होता ॥ १५ ॥
१६
त्रिबलियोंकी सीढ़ियोंसे चढ़कर, रोमावलीरूपी मार्ग पार कर, कामदेव स्तनरूपी गिरीन्द्रपर चढ़नेके लिए डोरस्वरूप मुक्ताहारसे जा लगा। प्रियका वशीकरण मन्त्र, जिसके भुजमूलमें निवास करता है, और पवित्र सौभाग्य हथेलीमें। स्नेहबन्ध, जिसके मणिबन्ध ( प्रकोष्ठ) में स्थित है, लावण्यमें समुद्र जिसके सम्मुख नहीं ठहरता, वह जिसके लिए है, उसीके लिए मधुर है, दूसरेके लिए विकार ( रोग ) जनक और खारा है। उसकी कण्ठरेखाको शंख नहीं पा सकता, दूसरोंके श्वासोंसे आपूरित होकर वह क्यों जीवित रहता है ? चन्द्रमाकी कान्तिको जीतनेवाली
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महापुराण
[२.१६.८ अहरबिंबु रेहइ रायालउ
मुत्तावलियहि णाई पवालउ । अम्हहं ठाइ कयाइ ण संमुहु उज्जुउ णासावंसु वि दुम्मुहु । भउंहउं वंकत्तणु वि ण सहियउ णयणहिं गंपि व कण्णहुं कहियउ । णिसिदिणि ससि रवि गयणविलंबिय बिण्णि वि गंडयल पडिबिंबिय । कुंडलसिरि वहति धवलच्छिहि जिणजणणियहि सलक्खण'च्छिहि । कुडिलालय भालयलि णिरंतर मुहकमलहु घुलंति णं महुयर । अवरु वि ताहं भारु विवरेरउ मुहससहरभएण णं तमरउ । तरुणिहे "पट्टि पइट्ठउँ' दीसइ कुसुमरिक्खमीसियउ विहासइ । घत्ता-"पणवंतिउ अमरविलासिणिउ छाहिणिहेण णिहीणियउ ।।
चारुत्तणकंखइ सुंदरिहि पयणहदप्पणलीणियउ ।।१६।।
तियसमहीरुहपिहियदसासइ भारहवरिसहु मज्झुहेसइ। णं जियलोउ समुग्गयसंतिइ सरयागमु णं छणससिकंतिइ। णं सज्जणु गुणिलोयपसंसइ णं आलिंगिउ धम्मु अहिंसइ । पीवरपीणपयोहरकयकर
ताइ समउ सो पच्छिमकुलयरु । अच्छइ णाहिणरेसरु जइतहं सुयरइ सुरवइ णियमणि तइयहं । सुरणरवंदणिज्जु जैगि सारउ गुरुसंसारमहण्णवतारउ । कामकंदकप्परणकठारउ
होसइ एयहुं भवणि भडारउ । इय संचिंतिवि पुणु परिछिण्णउं इंदें धणयहु पेसणु दिण्ण । धणय धणय लहु करि णिरु भल्लउ पुरवरु चउंदुवार सोहिल्लउ । ता तं पेसणु जक्खें लइयउं खणि साकेयणयरु पविरइयउं । घत्ता-जहिं पर्वणाइरियवसेण णंदणवणइं सुपत्ताई ॥
। मयरंदेण व मत्ताई॥१७॥
१८ जहिं सरवरि सिरिपयसंफासें वियसइ कमलु णाई संतोसें। परभुत्ते विमुक्कतमदोसे
अहवा णंदिउ को वे ण कोसें। तं तेहउ वि पीलु कि भंजइ महुयरउलु णं रोसे रुंजइ ।
सो तहु दाणु देइ किं भीयउ अवरु वि गरुयउ होइ विणीयउ । ६. P कयावि । ७. MBP सुलक्खण। ८. P°कुक्खिहि । ९. MB अविरुवि । १०. K पुट्ठि।
११. P वइच्छउ । १२. BP पणमंतिउ । १७. १. M पओरुह । २. MPT सुमरइ; B सुअरइ and gloss स्मरति । ३. MBP जगं । ४. B
"समुण्णवं । ५. MB कुढारउ; K°कुठारउ but ccrrects it to कुढारउ । ६. MBP चउदुवार___ सोहिल्लउ । ७. MBP पवणायरियं । ८. MBP °मुक्कएण । १८. १. M परिभुत्ते । २. P को वि। ३. P कह ।
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२. १८.४] हिन्दी अनुवाद
४१ घोयी हुई धवल, दन्त पंक्तिके निकट रहनेवाला, लालिमाका घर अधर-बिम्ब ऐसा शोभित होता है जैसे मोतियोंकी मालामें प्रवाल ( मूगा) हो। वह हमारे सामने कभी भी नहीं ठहरता, सीधा नासिका वंश भी दुर्मुख ( दुष्ट ) दो मुखवाला है। भौंहोंका टेढ़ापन भी सहन नहीं किया गया ( नेत्रोंके द्वारा ), और उन्होंने जाकर कानोंसे कह दिया। दिन-रात आकाशमें अवलम्बित रहनेवाले सूर्य और चन्द्रमा दोनों उसके गण्डतलमें प्रतिबिम्बित हैं, और वे धवल आंखोंवाली तथा लक्षणोंसे युक्त कोखवाली प्रथम जिनेन्द्रकी माताके कुण्डलोंकी शोभाको धारण करते हैं, उसके भालतलपर धुंघराले बाल निरन्तर ऐसे जान पड़ते हैं, मानो मुखरूपी कमलपर भ्रमर मंडरा रहे हैं। और भी उनका विपरीत भार ऐसा ज्ञात होता है. मानो मखरूपी चन्द्रमाके डरसे तमका प्रवाह उस तरुणीकी पीठमें प्रविष्ट होता हुआ दिखाई देता है, और जो कुसुमरूपी नक्षत्रोंसे मिला हुआ शोभित होता है।
घत्ता-प्रणाम करती हुई प्रतिबिम्बके बहाने अपनेको हीन समझती हुई देवस्त्रियाँ, उस सुन्दरीके सौन्दर्यको आकांक्षासे पैरोंके नखरूपी दर्पणमें लीन हो गयीं ॥१६॥
१७
भारतवर्षके कल्पवृक्षोंसे आच्छादित दसों दिशाओंवाले मध्यदेशमें, जिसके हाथ पुष्ट और स्थूल स्तनोंपर हैं, ऐसे अन्तिम कुलकर नाभिराजा, उस मरुदेवीके साथ इस प्रकार रहते थे, मानो उत्पन्न शान्तिके साथ जीवलोक, मानो पूर्ण चन्द्रमाकी कान्तिके साथ शरदागम; मानो गुणी जनोंकी प्रशंसाके साथ सज्जन, मानो अहिंसाके साथ धर्म आलिंगित हो। जब वह अन्तिम कुलकर उसके साथ रह रहे थे तब इन्द्र अपने मनमें विचार करता है कि जगमें श्रेष्ठ देवों
और मनुष्योंके द्वारा वन्दनीय, महान् संसाररूपी समुद्रसे तारनेवाले, कामरूपी जड़को काटनेके लिए कुठार, आदरणीय आदि जिन इन दोनोंसे उत्पन्न होंगे। यह सोचकर उसने निश्चय कर लिया और कुबेरके लिए आदेश दिया-"हे कुबेर, तुम शीघ्र चार द्वारोंवाला सुन्दर अत्यन्त भला नगरवर बनाओ।" तब उस आदेशको यक्षने स्वीकार कर लिया, और शीघ्र ही उसने साकेत नगरकी रचना कर डाली।
घत्ता-जहाँ पवनरूपी आचार्यके कारण सुन्दर पत्तोंवाले (सुपात्रोंवाले) नन्दन वन, पुष्पोंके मुखोंसे मुक्त परागसे मतवाले होकर नृत्य कर रहे हैं ॥१७॥
सरोवरमें जहां लक्ष्मीके चरण-स्पर्शसे कमल सन्तोषके साथ विकसित होता है, दूसरोंके द्वारा भुक्त और अन्धकारके दोषसे मुक्त अपने कोश ( धन, जो तम अर्थात् क्रोधसे मुक्त है, अथवा कोश परागका घर ) से कौन आनन्दित नहीं होता। उस वैसे कमलको बालगज क्यों नष्ट करता है? मानो इसी कारण मधकरकल क्रोधसे आवाज करता है। वह गज क्या डरकर उसे (भ्रमरकुलको ) दान ( मदजल ) देता है, दूसरा भी महान् व्यक्ति विनीत होता है !
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महापुराण
[२.१८.५ वडपारोहइ हिंदोलंतिहिं जोइउ जक्खिहिं दरपहसंतिहिं । जहिं कई अइपहसणरसधारउ सुइ णियदि ट्ठि घिवइ सवियारउ । रत्त उ सारसियहि जहिं सारसु को वि परिहिउ अहिणवु सारसु । सहइ तमालंधारयसारिउ
जहिं कलु कोइलु लवइ णिरारिउ । पवरंबयकलियहि ढोइयकरु महिलहि कोण होइ चाडुययरु । जहि भाविणि ण करइ परपइरइ बीउ धरित्तिहि को उँण पइरइ । अट्ठारहवरसासविहत्तई
जहिं सयमेव सुपक्कई छेत्तंई । घत्ता-जहिं धण्णई कणभरपणा मियइं परिभमंति सच्छंद पसु ।
वणसेरिहसिंगपहारचुउ महिसिहि पिज्जइ उच्छुरसु ॥१८॥
छुडु छुडु भोयभूमि जहिं वित्ती रिद्धिसमिद्ध विसुद्ध धरित्ती। चिंतिउ चिंतिउ देति ण थक्कइ पुत्वब्भासु ण मेल्लहुं सक्कइ । जहिं थलि थलकमलोवरि सुप्पइ पइ पइ पैउमहु पंके लिप्पइ । दारसु णरेहिं चक्खिज्जेइ फलु अउव्वु काइं मि भक्खिजई। कुवलयधरणिउ णं णिवईहउ जहिं परिहाउ वहति पईहउ । णं भविस्सजिणजम्मोयरियउ ण्हवणारंभहु णाणासरियउ । बहुमाणिक्कमऊहर्पहावहिं। णं गयणंगणु सुरवइचावहिं । असियसियारुणवण्णवियारहिं जं सोहइ सत्तहिं पायारहिं । घत्ता-जं दियहि दिवायरकंत रविकिरणहिं सिहिभावहु गयउ ।
तं णीवइ णिसि ससियरपुसियस सिमणिजलधाराहयउ ॥१९।।
२० मरगयकयधरि पक्खं विहूसिउ जहिं चंचुइ लक्खिजइ पूसउ । इंदणीलघरि णहविप्फुरणे विमलें मोत्तियदामाहरणे। जाणिजइ सामा पहसंती णाहें णवकुंदुजलदंती। कणयरइयमंदिरि वियरंती
अवेरविसंझाराउ वहंती। करकंकणु करैफरिसें जाणइ णेउरु सहेण जि अहिणाणइ । ४. BP कइवइ पहसणं । ५. M को ण। ६. MBP अहिणव । ७. MBP कलु । ८. P णउ ।
९. MBP खेत्तई । १०. MBP पणवियइं। १९. १. BP°समिद्धिविसुद्ध । २. P मेलहुँ। ३. MB पउमें पंकहु घिप्पइ; P पउमहु पंकेहिं घिप्पइ ।
४. MB दक्खारसु णरेहि जहिं पिज्जइ। ५. M adds after this line : मुहमहरत्ति मिरिय भक्खिज्जइ, and gloss मुखस्य मधुरत्वे सति; P reads in its place मुहमहलंति मिरिय भक्खिज्जइ, and after it reads किणरमिहुणिहि लयहरि गिज्जइ, फल अउव्वु काई मि भक्खिज्जइ। ६. MB add after this line किंणरमिहणिहिं लयहरि गिज्जइ, जिणु गाइज्जइ जिण
पूइज्जइ । ७. M जहि परिहा वहति पयईहउ । ८. MBP पहावें । ९. MBP°चावें । २०. १. B पंख । २. MBP अवरु वि । ३. MBP करफंसें।
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२. २०.५]
हिन्दी अनुवाद वटवृक्षके तनोंपर झूलती हुई और थोड़ा-थोड़ा मुसकाती हुई यक्षणियोंके द्वारा जहाँ अत्यन्त हास्य रसको धारण करनेवाला वानर देखा जाता है, और जो विकारपूर्वक अपनी दृष्टि शुकपर डालता है, जहाँ सारसीमें अनुरक्त कोई सारस, सरस आवाज करता हुआ स्थित है। जहां तमाल वृक्षोंके अन्धकारकी लक्ष्मीका शत्रु चन्द्रमा शोभित है, जहाँ कोकिल अत्यन्त सुन्दर आवाज करता है, और जो प्रवर आम्र कलिकामें अपनी चोंच (कर ) ले जाता है, महिलाके प्रति कौन मनुष्य चाटुकार नहीं होता। जहां स्त्री दूसरेके पतिसे रमण नहीं करती, जहां धरतीमें कोई बीज नहीं डालता। जहाँ अठारह प्रकारके धान्योंसे विभाजित खेत अपने-आप पक जाते हैं।
घत्ता-जहां धान्य कणोंके भारसे झुके हुए हैं, पशु स्वच्छन्द विचरण करते हैं, और जंगली भैंसाओंके सींगोंके प्रहारसे च्युत ईख-रस भैंसोंके द्वारा पिया जाता है ।।१८।।
___ जहां हाल हीमें भोगभूमि समाप्त हुई है और धरती ऋद्धियोंसे समृद्ध और विशुद्ध है। चिन्तित ( वस्तुओं) को देते हुए भी जो नहीं थकती, मानो जो अपने पूर्व अभ्यासको छोड़ने में असमर्थ है। जहाँ जमीनपर, गुलाबोंके ऊपर सोया जाता है और पग-पगपर कमलकी परागपंकसे लिप्त होना पड़ता है। जहाँ मनुष्योंके द्वारा द्राक्षा रसका पान किया जाता है और कोई अपूर्व फलका भक्षण किया जाता है। जहां पृथिवीमण्डलकी भूमियां मानो राजाओंकी आकांक्षाओंके समान हैं, जहाँ लम्बी-लम्बी परिखाएँ बहती हैं, जो मानो भावी जिनेन्द्रके जन्मके अवसरपर स्नानको प्रारम्भ करनेके लिए अवतरित हुई नाना नदियां हों। प्रचुर माणिक्योंकी किरणोंके प्रभावोंसे वह नगर ऐसा प्रतीत होता है मानो नाना इन्द्रधनुषों और लाल रंगोंवाले सात परकोटोंसे शोभित है।
पत्ता-जो नगर दिनमें सूर्यकान्त मणिकी किरणोंसे अग्निभावको प्राप्त होता है ( जल उठता है ) वही रातमें चन्द्रकान्त मणियोंकी धाराओंसे आहत होकर शान्त हो जाता है ॥१९॥
२० जहाँ पन्नोंके बने परोंमें, पंखोंसे विभूषित, शुक अपनी चोंचसे पहचाना जाता है, इन्द्रनील मणिके घरोंमें, नवकुन्द पुष्पके समान उज्ज्वल दांतोंवाली हँसती हुई श्यामा, आकाशको आलोकित करते हुए स्वच्छ मुक्तामालाके आभरणसे (प्रियके द्वारा ) पहचानी जाती है। स्वर्णनिर्मित मन्दिरमें विचरण करती हुई, सन्ध्यारागको धारण करनेवाली वह हाथके स्पर्शसे कंगनको जानती
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महापुराण
[२. २०.६ दहिकुट्टिमयलि दइएं आणिउ कलरावेण हंसु परियाणिउ । तहिं जि पडीवउं जहिं सियणिवसणु ठविउ ण पेच्छइ अइभोलउ जणु । फलिहसिलालयमज्झि णिविट्ठउ पिहियकवाडु वि वहुवरु दिट्ठउ । पोमरायमंडवि आसीणी । जेत्थु का वि हरिणच्छि पहाणी। घुसिणपिंडु ण णियंति विसूरइ जहि सोहाइ ण सग्गु वि पूरइ। चंदणचिक्खिल्लें पहुँ चिडुइ जहिं कप्पूरधूलि णहि उड्डुइ । घत्ता–ण कलागमु अक्खरु णेय गुरु णउ दासत्तणु संविहिउ ।।
वइसवणे एकेक्कु जि मिहुणु जहिं आणिवि माणिवि णिहिउ ॥२०॥
२१ मंदिरि मंदिर सहसा भरियइं . तोरणाइं रयणहिं विप्फुरियई। गिज्जत मंगलसंघाएं
देवदिण्णपडुपडहणिणाएं । घरसंचारियकलस वि दिट्ठा सरयब्भेसु वै चंद पइट्ठा। णिञ्चुप्पाइयसुरयणहरिसहि संमजियदप्पणयलसरिसहि । विहतारावलिदिणयरपंगण . दीसइ भूमिहि सयलु णहंगणु । गुरुअच्चासणभयवसणडियउ णं सोहइ पायालइ पडियउ । इहु सो दिट्ठउ इटठु महारउ इय णं मण्णिवि णयणपियारउ । भवणसिहरचडिएं खे लंबिउ जहिं णवजलहरु मोरें चुंबिउ । णउ चोरउलु विरोहि ण राउलु । सूलभिण्णु णउ दीसइ देउलु । बंभणु वणिवरु ण हलु ण हालिउ णउ पासंडिउ को वि कालिउ । धम्मु ण धणुहुँ ण जिणेवइभासिउ पसुवह वाहिण वेएं घोसिउ । वेस ण कत्थइ वइसियजुत्ती अजव सव्व णारि कुलउत्ती। जहिं ण महन्वय पंचाणुव्वय कुच्छियकारिणि णउ कारय पय । धत्ता-सामण्णई सयलई माणुसई जहिं एक्कु वि सुविसेसिउ ॥
सियपुप्फयंतु सो पाहिणिउ जो भरहेण विहूसिउ ॥२१॥
इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरइए महामव्वमरहाणु
मपिणए महाकव्वे उज्झाणयरीवण्णणं णाम दुइजो परिच्छेओ समत्तो ॥२॥
॥ संधि ॥२॥
४. M फलिहसिलायलमज्झि; BP सिलायलि मज्झि । ५. MBP पउ but gloss in P पन्थाः । २१. १. MBP°संचारिम । २. MBK य । ३. विरोहु । ४. P कपालिउ । ५. MBP जिणवर । ६. M
पसुवह वहणु ण; B पसुवहु वहणु ण; P पसु अहवाहण । ७. MBP णारि सव्व । ८. Kणाहिणिव ।
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२. २१. १५ ]
हिन्दी अनुवाद
४५
है, और शब्द करनेसे नूपुरको पहचानती है । प्रियके द्वारा धवलशिलापर लाये गये हंसको वह कलरवसे जान पाती है, धवल वस्त्र जहाँ गिर जाता है वह वहाँ ही पड़ा रहता है, आदमी वहाँ इतना भोला है कि रखे हुए वस्त्रको नहीं पहचान पाता । स्फटिक मणिके घरमें स्थित वरवधूको किवाड़ लगे रहनेपर भी देख लिया जाता है । पद्मराग मणियोंके मण्डपमें बैठी हुई एक रमणी केशर पिण्ड नहीं देख पड़नेके कारण दुःखी हो उठती है । सौन्दयमें स्वगं भी, जिसकी पूर्ति नहीं कर सकता। जहां रास्ते चन्दनकी कीचड़से आर्द्र हैं, और कपूरकी धूल आकाशमें नहीं उड़ती ।
घत्ता - जहाँपर न कलागम है और न अक्षर, न गुरु है और न दासता बनायी गयी है । कुबेरके द्वारा एक-एक जोड़ा ( युगल ) लाकर और मानकर रख दिया गया है ||२०||
२१
घर-घर में शीघ्र ही रत्नोंसे विस्फुरित तोरणोंको, गाये गये मंगलगीत समूहों और देवोंके द्वारा आहत पह्निनादोंके साथ बाँध दिया गया । घरमें संचरित होनेवाले कलश भी दिखाई दिए जो शरद मेघों के समान ऐसे लगते थे कि चन्द्रमा प्रविष्ट हुए हों । जिसमें नित्य देवताओंके लिए उत्पन्न किया जाता है, और जो पोंछे गये दर्पणतलकी तरह है ऐसी भूमिमें प्रतिबिम्बित आकाशरूपी आंगन ( जो चन्द्रमा, तारावलि और दिनकरका आंगन है ) ऐसा शोभित होता है, मानो अत्यन्त लम्बे समय तक स्थित रहनेके डरसे प्रवंचित होकर जैसे पाताललोकमें पड़ा हुआ है | जहां प्रासादोंके शिखरोंपर चढ़े हुए मोरने यह मानकर कि यह हमारा नेत्रप्यारा इष्ट दिखाई दिया है, नवजलधर ( नवमेघ ) को चूम लिया । वहाँ न चोरकुल था, न विरोधी राजकुल था । और न त्रिशूलभिन्न देवकुल दिखाई देता था । जहाँ न ब्राह्मण था और न वणिकवर । न हल था और न किसान । न सम्प्रदाय था और न कापालिक । जहाँ क्षत्रिय धर्मं नहीं था और न जिनेश्वरके द्वारा भाषित धर्मं, न व्याधाके द्वारा किया गया और वेदोंके द्वारा घोषित पशुवध था । न वेश्या थी और न वेश्याको युक्ति थी । समस्त नारियाँ और कुलपुत्रियाँ सीधी थीं । जहाँ न महाव्रत थे और न अणुव्रत । और न बुरा करनेवाली शिल्पजीवी प्रजा थी ।
;
घत्ता - समस्त मनुष्य सामान्य थे, वहाँ एक भी आदमी विशेष नहीं था । श्वेतपुष्पके समान दांतोंवाला वह नाभिराजा था, जो भरत (क्षेत्र, भरतभव्य मन्त्री) से विभूषित था ॥२१॥
इस प्रकार महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महाभव्य भरत द्वारा अनुमत ( त्रिषष्टि महापुरुष गुणालंकारवाले महापुराणके अन्तर्गत ) महाकाव्यमें अयोध्यानगरी - वर्णन नामका दूसरा परिच्छेद समाप्त हुआ || २ ||
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संधि ३
तहिं जाम मणोज्जु मुंजइ रेज्जु णिञ्चलु णाहिणरिंदु ॥ मंडियसविमाणु कालपमाणु चिंतइ ताम सुरिंदु ॥ध्रुवकं ॥
एहहि महिणाहें माणियहे . उयरइ मरुएविहि राणियहे। छम्मासहिं होसइ परमजिणु णासइ ण कम्मु मुत्तीइ विणु । सम्मत्तसमत्तणु संभरमि
गब्भासयसोहणु लहु करमि । लइ एउ जि कज्जु महुं तणउं दक्खालमि पेसणु घणघणउं । इयें चिंतिवि पुणु हियवइ धरिय छणससि मुहि पीणपयोहरिय । सिरि हिरि दिहि देवी ललियकर वर कंति कित्ति लच्छी य वर । छ वि एयउ चारु चवंतियउ पणएण णएण वंतियउ। इंदीवरदीहरणेत्तियउ
सुरणाहणिहेलणु पत्तियउ। वेल्लहललयाणिहगत्तियउ
देविंद झत्ति पउत्तियउ । घत्ता-जाइवि णरलोउ भुजियभोउ णाहिणरेसँहु गेहु ।।
जिणगब्भणिवासु दुक्कियणासु सोहहु देविहि देहु ॥१॥
ता संचलियउ सुररमणियउ कयसग्गालयणिग्गमणियउ तेल्लोकमारमणदमणियउ कुंडलचेंचइयकवोलियउ जंतिउ जोयंति ण के सियउ
मेहलरंखोलिरेरमणियउ। मयमंथरसिंधुरगमणियउ । विरयाहुं मि रयमणदमणियउ । णं मयणे बाणकओलियउ । अलिसंणिहभंगुरकेसियउ।
GK give at the commencement of this samdhi आदित्योदयपर्वतादुरुतरात for which see footnote on Second Samdhi; MBP give the following stanza :
___ बलिजीमूतदधीचिषु सर्वेषु स्वगितामुपगतेषु ।
संप्रत्यनन्यगतिकस्त्यागगुणो भरतमावसति ।। १. १. MBP भोज्जु । २. MP एयहि; B एवहि । ३. MBP छहिं मासहिं । ४. MBP इय चितेविणु
हियवइ । ५. Pणमंतियउ । ६. M लयाणियवत्तियउ; BP लयाणिय । ७. MBPणरेसरगेह । २. १.T reads "रंखोलन but adds : रंखोलिरेति पाठे मेखलया रंखोलनशीलया विलसनशीलया
रमणीयाः । २. MBP विरयाहि but gloss विरतानां यतीनाम् । ३. B कोंडलचेंचइय; M "चिंचइयं । ४. B बाणकम्मु लियउ; P बाणकबोलियउ and gloss बाणकृतरेखाः।
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सन्धि
३
जब उस अयोध्यामें नाभिराजा निश्चल और सुन्दर राज्यका भोग कर रहे थे, तब अपने विमानसे मण्डित इन्द्र कालके प्रमाणका ( तीसरे कालके अन्तका ) चिन्तन करता है।
"इस राजाकी मानिनी रानी मरुदेवीके उदरसे छह माहमें परमजिन जन्म लेंगे। भोगके बिना कर्मका नाश नहीं होता। मैं सम्यक्त्वको समग्रता दिखाता हूँ, शीघ्र ही गर्भाशयका शोधन कराता हूँ । लो मेरा यही काम है कि मैं अतिशय सेवाका प्रदर्शन करूं।" यह विचारकर उसने शीघ्र अपने मनमें पीन पयोधरोंवाली छह चन्द्रमुखियोंका ध्यान किया। सुन्दर हाथोंवाली, श्रेष्ठ श्री, ह्री, धृति, उत्तम कान्ति, कीर्ति और लक्ष्मो देवियाँ सुन्दर बोलती हुई प्रणय और नयसे नमन करती हुईं, नीलकमलके समान दीर्घ नेत्रोंवाली वे इन्द्रके घर पहुंचीं। बेलफलकी लताके समान शरीरवाली उनसे देवेन्द्रने शीघ्र कहा
पत्ता-मनुष्यलोकमें जाकर नाभिराजाके, भोगोंका भोग करनेवाले घरमें मरुदेवीकी उस देहका शोधन करो जिसमें पापोंके नाश करनेवाले जिनगभंका निवास होगा ॥१॥
तब करधनियोंसे रमणीय देवस्त्रियाँ चल पड़ी। स्वर्गालयसे निर्गमन करनेवाली, मदसे मन्थर महागजके समान चलनेवाली, त्रैलोक्यके लक्ष्मीपतियोंके मनका दमन करनेवाली, तथा विरक्तोंमें कामदेवकी हलचल उत्पन्न करती हुई, कुण्डलोंसे शोभित कपोलोंवाली वे ऐसी लगती थीं मानो कामदेवने अपनी तीरपंक्ति संभाल ली हो। अपने शरीरके तेजसे आकाशको आलोकित
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४८
[३.२.६
महापुराण तणुतेउज्जोइयअंबर
घोलंतविचित्तवरंबरउ । णयसत्तभंगिविहिरसणियउ मिच्छोमयहेउणिरसणियउ । णिरु सूहवदाणवारिरयउ
णं भमरिउ दाणवारिरयउ । पत्ता-एयउ अण्णाउ सुरकण्णाउ धरिवि णिकामिणिवेसु ।।
आयोउ परेण भत्तिभरेण सिरिमरुएविहि पासु ॥२॥
३
परमेसरि सुरवरलोयचुयो कोमलमुणालवेल्लहलमुया। दीसइ सुरणारिहिं अजसुया णं विहिविण्णाणसमत्तिहुया। सव्वंगावयवसुलक्खणिया फणिसुरणरमणमुसुमूरणिया। वंदारयवंदियपायजुया __ अइललियहिं थोत्तसएहिं थुया। अवो जय जय जगगुरुजणणि जय थणयलविलुलियहारमणि । जय कम्मकाणणाणलअरणि जय धम्मविडवसंभवधरणि । पई दिट्ठइ णिहँइ पावमलु संपज्जइ संचिंतिउ सयलु । पई लद्धउं महिलाजम्मफलु तुह कुच्छिहि होसइ जिणधवलु । घत्ता-णिरु सरसु णडंतु पयहिं पडंतु विरइयपंजलिहत्थु ।।
संपाइय एव इच्छइ सेव अमरविलासिणिसत्थु ॥३॥
क वि अलयतिलय देविहि करइ कवि आदसणु अग्गइ धरइ। क वि अप्पइ वररयणाहरणु क वि लिप्पइ कुंकुमेण चरणु । क वि णच्चइ गायइ महुरसरु कवि पारंभइ विणोउ अवरु । क वि परिरक्खइ णिसियासिकरी कवि वारि परिट्रिय दंडधरी । अक्खाणउं का वि किं पि कहइ दिण्णउं कर्णइल्लु का वि वहइ। कवि वारवार विणएं णवइ कवि सुरसरिसरसलिलहिं हवइ । कवि मालउ चेलिउ उज्जलउ ढोयेइ सँवलहणु सुपरिमलउ । छम्मासु जाम संजणियदिहि पयडंतु समीहिय सोक्खणिहि । णिवप्रंगणंति णिहि णिहियधणु वुट्ठउ रय णिहिं वइसवणु घणु । घत्ता-हंसि व सरपोमि रम्मि सुहम्मि उरविलुलियहारावलि ॥
सोवंति समग्गि सयणयलग्गि सइ पेच्छइ सिविणावलि ॥४॥ ५. K मिच्छायम'; P मिच्छामय but gloss मिथ्यागम । ६. MBP आइयउ । ३. १. MBPथुय । २. M विहिअण्णाणं । ३. P णट्ठइ। ४. MBP विरइअंजलि । ५. MBP
संपाइउ । ६. MBP इच्छियसेव ।। ४. १. P कणयल्ल । २. P चेलउ । ३. M ढोइय। ४. MBP समलहण । ५. MBP पंगणंति ।
६. MB वइसवणघण । ७. M हंसियवरपोभि: BP हंसि व वरपोमि । ८. MB पेच्छिवि । ९. MBP सुइणावलि ।
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३. ४. ११]
हिन्दी अनुवाद करती हुई, विचित्र वस्त्रोंसे आन्दोलित होती हुईं, नय और सप्तभंगीकी विधिसे बोलती हुई, मिथ्यात्व और मदके कारणोंका निरसन करती हुई, इन्द्रादि देवोंमें अनुरक्त रहनेवाली वे मानो दानवारि ( इन्द्रादि देवों )में लीन रहनेवाली भ्रमरियाँ थीं जो दानवारि ( मदजल )में रत रहती हैं।
घत्ता-ये और दूसरी कन्याएँ मनुष्यनियोंका रूप धारण कर अत्यन्त भक्तिभावके साथ श्री मरुदेवीके पास आयीं ॥२॥
सुरवर लोकसे च्युत कोमल मृणालकी तरह कोमल भुजावाली परमेश्वरी आर्यसुताको देवकुमारियोंने इस प्रकार देखा मानो ( उसकी रचनामें ) विधाताका विज्ञान समाप्त हो गया हो। सर्वांग और अवयवोंसे सुलक्षण, नाग, सुर और नरोंके मनको उत्तेजित करनेवाली, चारणोंके द्वारा वन्दनीय चरण युगलोंवाली उसकी अत्यन्त सुन्दर स्तोत्रोंसे देवियोंने स्तुति की-“हे विश्वगुरुको जन्म देनेवाली माँ तुम्हारी जय हो, स्तनतलपर हिलते हार मणिवाली तुम्हारी जय हो, कर्मरूपी काननके लिए आग लगानेवाली लकडीके समान आपकी जय हो. धर्मरूपी वक्षके जन्मको धारण करनेवाली, आपकी जय हो, तुम्हें देख लेनेपर पापमल नष्ट हो जाता है और सोचा हुआ फल प्राप्त हो जाता है। तुमने महिला-जन्मका फल प्राप्त कर लिया। तुम्हारी कोखसे जिनश्रेष्ठका जन्म होगा।"
पत्ता-अत्यन्त सरस नृत्य करता हुआ, हाथोंकी अंजली बनाकर पैरोंमें पड़ता हुआ, अमर-विलासिनी-समूह वहां पहुंचता है और सेवा करना चाहता है ॥३॥
कोई देवीके ललाटपर तिलक करती है, कोई दर्पण आगे रखती है, कोई श्रेष्ठ रत्नाभरण अर्पित करती है, कोई केशरसे चरणका लेप करती है, कोई मधुर स्वरमें गाती-नाचती है। कोई दूसरा विनोद प्रारम्भ करती है, पैनी छुरीवाली कोई परिरक्षा करती है। कोई दण्ड लेकर द्वारपर स्थित है । कोई-कोई आख्यान कहती है, कोई दिये गये क्रीडाशुकको धारण करती है। कोई बार-बार विनयसे नमन करती है। कोई गंगाके जलसे स्नान कराती है । कोई माला, उजला वस्त्र . और सुगन्धित लेप देती है । भाग्यविधाता, सुखनिधि और अभीप्सित जिनेन्द्रदेवको प्रकट होनेके जब छह माह रह गये तो राजाके आँगनमें निधियोंमें धन रखनेवाले कुबेररूपी मेघने रत्नोंकी बरसा की।
घत्ता-सरोवरके कमलपर हंसिनीके समान, सुन्दर और सुखद, तथा ठीक है अनभाग जिसका, ऐसे शयनतलपर वह मेरुदेवी सोती है। जिसके उरतलपर हारावली झूल रही है ऐसी वह स्वयं स्वप्नावली देखती है ॥४॥
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महापुराण
[३.५.१
पत्तिया सुत्तिया कामए इच्छए कंतयं णिब्भरं संसयं
तुंगयं
वारणं एंतयं गोवई दुद्धरं भासुरं कोर्वणं भीसणं सीहयं अंचियं लच्छियं रंदयं संमुहं. भाहरें हंसयं रत्तयं रम्मयं उब्भडं मायरं
सणाहणेहरत्तिया। णिमीलियच्छिवत्तिया। णिसाविरामजामए। सुहावहं णियच्छए। चउप्पयारदंतयं । झरंतदाणणिज्झरं। सरासणाहवंसयं । मिलंतमत्तभिंगयं। गिरिंदभित्तिदारणं। बलेण ढेकरतयं । अलेद्धजुज्झगोवई। फुरंतणक्खपंजरं । घुलंतकंधकेसरं। जलंतपिंगलोवणं। मुँहा विमुक्कणीसणं। विलंबमाणजीहयं। दिसागएहि "सिंचियं । विबुद्धपंकयच्छियं । पहुल्लदामदंदयं । समुग्गयं सुहारुहं । सुदूसहं तमीहरं। खमाणसे कहंसयं। सरंतरे तरंतयं। चलं झसाण जुम्मयं । धियं कुंभसंघडं। पहुंल्लपंकयायरं। रसंतवारिभीयरं। "मयारिरूवभूसणं"। पुरंदरस्स मंदिरं। महाहिणो णिहेलणं । अणेयरण्णसंचयं । हुयासणं पलित्तयं ।
सायरं
आसणं सुंदरं सोहणं
उंचयं२
दित्तयं
५. १. PGT record ap अलट्ठ and add : अलट्ठ इति पाठे अलट्ठो अशू रो युद्धे गोपतिर्यस्य । २. M
कोअणं । ३. MB°लोअणं । ४. MBP मुहोविमुक्क। ५. M°सिंचयं । ६. MPT Qदयं । ७. BT वियंभ and gloss in T वियंभोऽमृतजलम् । ८. P पफुल्ल । ९. MBP सरंत । १०. M सयारि । ११. MBP°भीसणं । १२. MBP उच्चयं । १३. B°रयणं ।
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३. ५. ३२ ]
हिन्दी अनुवाद
अपने स्वामी स्नेहमें पगी हुई, आंखोंकी पलकें बन्द कर सोती हुई पत्नी, कामद रात्रिके अन्तिम प्रहरमें शुभ करनेवाले ( स्वप्नों ) को अपनी इच्छासे देखती है-सुन्दर चार प्रकारके दाँतोंवाला, पूर्ण, मदजल धाराको झरता हुआ प्रशंसनीय धानुष्क वंशीय, ऊँचा, जिसपर मतवाले भ्रमर मड़रा रहे हैं, ऐसा पहाड़ोंकी दीवालोंको विदीर्ण करनेवाला गज । आता हुआ जोर-जोरसे दहाड़ता हुआ, जिसे लड़ने के लिए प्रतिद्वन्द्वी बैल नहीं मिला है, ऐसा बैल; दुर्धर नखसमूहसे विस्फुरित, भास्वर, कन्धेकी अयालको घुमाता हुआ, क्रुद्ध चमकती हुई पीली आँखोंवाला, भीषण मुखसे शब्द करता हुआ, जोभको निकालता हुआ सिंह; पूजित दिग्गजोंके द्वारा अभिषिक्त और पूजित, खिले हुए कमलोंके समान आँखोंवाली लक्ष्मी, विशाल दो पुष्पमालाएं, सामने उगता हुआ शुभ किरणोंवाला (चन्द्रमा), प्रभाका घर, अत्यन्त दुःसह रात्रिका हरण करनेवाला हंसक (सूर्य), ( जो आकाशरूपी सरोवरका एकमात्र हंस था ), सरोवर में तैरता हुआ अनुरक्त ओर सुन्दर, मछलियोंका चंचल जोड़ा, प्रकट जलसे भरे हुए कलशोंका जोड़ा। खिले हुए कमलोंका आकर और शोभा बढ़ानेवाला सरोवर; गरजते हुए जलसे भयंकर समुद्र सिंह है आभूषण जिसका ऐसा आसन अर्थात् सिंहासन; सुन्दर इन्द्रका विमान; सुहावना महानागका घर; ऊँची रत्नराशि चमकती हुई और जलती हुई आग ।
५१
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[३.५.३३
महापुराण घत्ता-इय जोइवि मुद्ध पुणु पडिबुद्ध सिविणइ जं जिह दिछु ।
उझ्यइ पच्चूहे अरुणमऊहे रायहु तं तिह" सिटठु ॥५॥
ता णरवइ णारीसारियहे अक्खइ मरुएविभडारियहे। दिटेण गइंदें गुरुहुँ गुरु
होसइ णंदणु पयपणयसुरु । गोणाहें गोमंडलु धरइ
सीहेण सविक्कमु वित्थरइ । सिरिदंसणि लहइ तिलोयसिरि दामेण वि जाणहि पुरिसहरि । पावइ पविहररइयञ्चणउं
जं दिट्ठउ पई मयलंछणउ । तं होसइ सुउ जणमणहरणु जं पुणु वि पलोइउ खरकिरणु । तं मोहंधारविणासयरु
भव्वयणणलिणवणदिवसयरु । झसजुयले होही सोक्खणिहि । कुंभेहिं वि सुरअहिसेयविहि । कमलायरसायरेहि बिहिं मि गुणवंतु गहिरु भुवणहं तिहिं मि । सिंहासणेण पंचमिय गइ
पावेसइ दसणसुद्धमइ। दिडेहिं तियसणायहं घरेहि सेवेवउ देविहिं विसहरेहिं । रयणोहें जिणसंपत्तिफलु
णिडुहइ हुयासें कम्ममलु । घत्ता-सिविणयफलु अज्जु णिरु णिरवज्जु कह मि ण रक्खमि गुज्झु ॥
जगलग्गणखंभु धम्मारंभु होसइ णंदणु तुज्झु ॥६॥
७
ता तम्मि पत्तम्मि तइयम्मि कालम्मि णक्खत्तसोहंतगयणंतरालम्मि । कप्पदुमच्छेयपयणियवियारम्मि ससिबिंबरविबिंबधत्थंधयारम्मि । अवसप्पिणीसप्पिणीसंपवेसम्मि णरभोयपब्भारसुहभरियगासम्मि । मायामहामोहबंधणइं लुंचेवि साराई पउराई पुण्णाइं संचेवि । सोलह वि तवभावणाओ पहावेवि जगणमियतित्थयरणामं समजेवि । इंदियई जिंदियई णिग्घिणई भंजेवि । तेत्तीसजलणिहिसमाणाउ भुजेवि । जम्मंतराबद्धसुकियपहावेण हिमहारणीहारसियवसहरूवेण । आसाढमासम्मि किण्ह म्मि वीयम्मि संपत्तए उत्तरासाढरिक्खम्मि । सव्वत्थसिद्धीविमाणाउ ओयरइ परमेसरो जणणिगन्भम्मि संचरइ । सरयब्भमज्झम्मि रुइरुदेइंदु व्व सयवत्तिणीपत्तए तोयबिंदु व्व । आया सुरा गब्भवासं णमंसेवि सग्गं गया रायदेविं पसंसेवि । तव्वासराए व देवाहिवाणाइ रैक्खिदणाइंदपालिजमाणाइ । जक्खेण माणिकवुट्ठी कया ताम मासेहिं तिहिं हीणु संवच्छरो जाम । घत्ता-उयरत्थु अवाहु वड्डइ णाहु तणुकिरणई पसरति ।
मरुदेविहि देहे णं णवमेहे णवरवियर णिग्गंति ॥७॥
१४. B तिहे। ६. १. M पुलोइउ; P पलोयउ । २. MB सेवेन्वउ । ७. १. B सुक्कयं । २. M रुंदयंदु व्व; T °इंदु व्व । ३. MBP रायदेवी । ४. MBP जक्खिद,
but T रक्खिद राक्षसेन्द्राः ।
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५३
२.७.१५]
हिन्दी अनुवाद पत्ता-वह मुग्धा सपनोंको देखकर जाग उठी, और स्वप्नोंमें उसने जिस प्रकार जो देखा था, लाल-लाल किरणोंवाला सवेरा होनेपर, उसने उसी प्रकार राजासे कहा ॥५॥
तब राजा नारियोंमें श्रेष्ठ आदरणीय मरुदेवीसे कहते हैं, "गजेन्द्र देखनेसे तुम्हारा पुत्र, देवोंसे प्रणतपद और गुरुओंका गुरु होगा। गोनाथ (बैल) देखनेसे पृथ्वो धारण करेगा। सिंह देखनेसे वह पराक्रमका विस्तार करेगा, लक्ष्मी देखनेसे त्रिभुवनको लक्ष्मी धारण करेगा, पुष्पमाला देखनेसे उसे पुरुष श्रेष्ठ समझो, और जो तुमने चन्द्रमा देखा है, उससे वह इन्द्रके द्वारा की गयी अर्चा प्राप्त करेगा, जो तुमने सूर्य देखा है, उससे तुम्हारा पुत्र जनमनोंके लिए सुन्दर, मोहान्धकारका विनाश करनेवाला और भव्यजनरूपी कमलवनके लिए दिवाकर होगा; मीनयुग्म देखनेसे सुखनिधि होगा, और घड़ोंको देखनेसे देवता उसका अभिषेक करेंगे। दोनों समुद्र और सरोवर देखनेसे वह त्रिभवनमें गुणवान् और गम्भीर होगा। सिंहासन देखनेसे दर्शनसे विशुद्धमति वह पांचवीं गति ( मोक्ष ) प्राप्त करेगा। देवों और नागोंके घरोंको देखनेसे देव और नाग उसकी सेवा करेंगे। रत्नोंका समूह देखनेसे वह जिन-सम्पत्तिका फल प्राप्त करेगा, और ( तपकी) आगमें कर्ममलको जलायेगा।
। घत्ता-आज मैं निर्दोष कर्मफल कहता हूँ, कुछ की गुह्य नहीं रखता। तुम्हारा पुत्र जगका आधारस्तम्भ और धर्मका आरम्भ करनेवाला होगा ॥६॥
तब वहीं, उस कालके आनेपर कि जब आकाशका अन्तराल नक्षत्रोंसे शोभित था, कल्पवृक्षोंके नष्ट हो जानेसे जनतामें असन्तोष बढ़ रहा था, सूर्य और चन्द्रके बिम्ब अन्धकार नष्ट करने लगे थे, अवसर्पिणीकालरूपी नागिन प्रवेश कर चुकी थी, मनुष्यके भोगों और प्रचुर सुखोंको काल अपने ग्रासमें भर चुका था, तब माया-महामोहके बन्धन तोड़ने, श्रेष्ठ प्रचुर पुण्योंका संचय करने, सोलह तपभावनाओंकी प्रभावना, विश्वके द्वारा नमित तीर्थकर नामके समान, निपुण और निन्दनीय इन्द्रियोंको नष्ट करने, तैंतीस सागर आयु भोगनेके लिए जन्मान्तरमें बांधे गये पुण्यके प्रभावसे, हिम-हार और नीहारके समान सफेद बैलके रूपमें आसाढ़ माहके कृष्णपक्षकी द्वितीयाको उत्तराषाढ नक्षत्र में, सर्वार्थसिद्धि विमानसे अवतरित होकर परमेश्वर जिनने माताके गर्भमें उसी प्रकार प्रवेश किया जिस प्रकार सुन्दर चन्द्रबिम्ब शरद् मेघोंके बीच तथा जलबिन्दु कमलिनी पत्रके बीच प्रवेश करता है। देवता आये और गर्भवासको नमस्कार तथा राजदेवीकी प्रशंसा करके चले गये। उस दिन राक्षसेन्द्रों और नागेन्द्रों द्वारा मान्य इन्द्रराजकी आज्ञासे कुबेरने रत्नोंकी वर्षा की । तबतक कि जब वर्षमें ३ माह कम थे, ( अर्थात् ९ माह)।
घत्ता-उदरके भीतर स्वामी बिना किसी बाधाके बढ़ने लगे। उनके शरीरकी किरणें मरुदेवीकी देहपर इस प्रकार प्रसरित होने लगीं, मानो सूर्यको किरणें नवमेघपर प्रसरित हो रही हों ॥७॥
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महापुराण
[३. ८.१
मासम्मि इत्ते पक्खे कसणे अहिमयरवारि फुडणवमिदिणे । उत्तरआसाढारिक्खवरे
जोयम्मि बैंम्हि बहुसोक्खयरे । जिणु तियसालावणीहिं झुणिउ मरुदेविइ णंदणु संजणिउ । उत्तत्तदित्ततवणीयछवि
सुरवइदिसाइ णं बालरवि । णं विप्फुरंतु अरणीइ सिहि णं दक्खालिउ धरणीइ णिहि । णं जीवसहाउ सिद्धसहए
णं अत्थु महाकइकयकहए। णं अमयलवेहिं जि णिम्मविउ णं गुणगणु पुंजेप्पिणु ठविउ । जगु णरयंपडतउ गवि सहिउ णं धम्में पुरिसरूवु गहिउ । घत्ता-जणतमणिण्णासु लोयपयासु कित्तिवेल्लिवरकंदु ।।
मयमलपब्भठ्ठ कुवलयइठ्ठ उइउ जिणाहिवचंदु ॥८॥
णाणतिएण णिएण णिरुत्ते उप्पण्णे णाहे हयदप्पो कप्पेसुं ससहावें णाया उट्ठिय णिण्णासियदिण्णाया वेंतरदेवावासर्वएसुं संखरवो भावणभवणेसुं णाउं णाणेणं णिप्पावं वुड्डो चित्ते धम्माणंदो हत्थिदो ऐरावयणामो गलियकवोलमओलजलहो कच्छरिच्छमालाछुरियंगो पत्तो मत्तो मंदरमेत्तो कंतिपसाहियणहमित्ताई पत्ते पत्ते सुरतरुणीओ इय ठूणं तमिहमलंघं सव्वत्थ वि धयछत्तरवण्णं सव्वत्थ वि गयणाणाजाणं सम्वत्थ वि पसरियउल्लोवं सम्वत्थ वि सरगेयरसालं तरुपल्लवियं पिव णहवलयं
लक्खणवंजणचच्चियगत्तें। जाओ इंदस्सासणकंपो। घंटाटंकारा संजाया। जोइसवासे सीहणिणाया। गजते पडहा विवरेसुं। संपण्णो खोहो भुवणेसु । भूमीभाए हूयं देवं । चलिओ सैंको सक्को चंदो। वेउब्वियसरीरपरिणामो। रणझणंतगेज्जावलिसहो। कण्णचमरविणिवारियभिंगो। लीलायंतो बहुविहदंतो। दंति दंति सरसयवत्ताई। णचंतीओ थोरथणीओ। चडिओ सोहम्मीसो सिग्धं । सव्वत्थ वि चामरसंछण्णं । सव्वत्थ वि धावंतविमाणं । सव्वत्थ वि जयदुंदुहिरावं । सम्वत्थ वि उच्चाइयमालं । सोहइसुरवरवायाउलयं ।
१. B चइत्तहो; P चइति । २. MBP फुडु । ३. MBP बंभि । ४. M मरुदेवि; B मरुदेवे; P मरु
देवी । ५. P दिक्खालउ and gloss दर्शितः । ६. MP णरइ पडंतउ । ७. MB णउ । ९. १. MBP णिउत्तें । २. P°पएसु । ३. MBP विपरेसुं but gloss in P विपरेसुं विवरेषु गगनेषु
T परेसं उत्तमेषु । ४. MB सक्को सुक्को। ५. P अइरावय। ६. MB पत्तो। ७. MBP सुरवरतरुणीओ।
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हिन्दी अनुवाद
८
चैत्र माह के कृष्णपक्ष में रविवारको स्पष्ट नवमीके दिन, उत्तराषाढ़ नक्षत्र में बहुसुखद ब्रह्मयोगमें देवोंके आलापों में ध्वनित ( प्रशंसित ) पुत्रको मरुदेवीने जन्म दिया । तपाये हुए सोनेके समान वर्णवाले वह ऐसे लगते थे मानो पूर्वदिशा में बालरवि हो, मानो अरणियों ( लकड़ी विशेष, जिसके घर्षणसे अग्नि पैदा होती है ) से ज्वाला निकल रही हो, मानो धरतीने अपनी निधि दिखायी हो, मानो सिद्ध श्रेणीने जीवका स्वभाव दिखाया हो, मानो महाकवि द्वारा रचित कथाने अपना अर्थ दिखाया हो, मानो वह अमृत कणोंसे निर्मित हो, मानो गुणगणको इकट्ठा करके रख दिया गया हो, जब नरकमें गिरता हुआ विश्व नहीं सध सका, तो इसलिए मानो धर्मने पुरुषरूप ग्रहण कर लिया हो ।
३. ९.२० ]
घत्ता -जनोंके तमका नाशक, लोकको प्रकाशित करनेवाला, कीर्तिरूपी बेलका अंकुर, मृगलांछन से रहित कुमुदोंके लिए इष्ट जिनराजरूपी चन्द्र उदित हुआ है ||८||
५५
९
निश्चय ही अपने तीन ज्ञानों, तथा लक्षणों ( शंख, कुलिश आदि ) तथा व्यंजनों (तिलक, मसा आदि ) से युक्त शरीरके साथ, जिननाथके जन्म लेनेपर इन्द्रका आहृतदर्पं आसन काँप उठा । कल्पवासियोंने अपने स्वभावसे जान लिया । घण्टोंकी टंकार-ध्वनि होने लगी । ज्योतिषदेवोंके भवनों में दिग्गजोंको नष्ट कर देनेवाले निनाद हुए, व्यन्तरदेवोंके आवासों और शिविरोंमें पटह गरज उठे। भवनवासी देवोंके विमानोंमें शंखध्वनि होने लगी, विश्वमें क्षोभ फैल गया । ज्ञानसे इन्द्रने जान लिया कि भूलोकमें निष्पाप देवका जन्म हुआ है । उसके चित्तमें धर्मानन्द बढ़ गया । इन्द्र चला, सूर्य चला और चन्द्र चला। तब ऐरावत नामका मतवाला हाथी, जो वैक्रियिक शरीरके परिमाणवाला था, जो झरते हुए गण्डस्थलके मदजलसे गीला था, जो रुनझुन बजती हुई घण्टियों से ध्वनित था, जो वरत्रारूपी नक्षत्रमालासे स्फुरित शरीरवाला था, जो कानोंके चामरोंसे भ्रमराafont उड़ा रहा था, जो मन्दराचलके समान था, आ पहुँचा । लीलामोंसे पूर्ण बहुविध दांतोंवाला। उसके प्रत्येक दाँतपर, अपनी कान्तिसे आकाशके सूर्योको आलोकित करनेवाले सरोवर के कमल | पत्र-पत्रपर स्थूल स्तनोंवाली देवनारियाँ नृत्य कर रही थीं। इस प्रकार अलंघनीय उस ऐरावतको देखकर सौधर्म स्वर्गका इन्द्र उसपर शीघ्र चढ़ गया । सर्वत्र ध्वज छत्रोंसे सुन्दर था, सर्वत्र चमरोंसे आच्छादित था । सर्वत्र नाना यान जा रहे थे, सर्वत्र विमान दौड़ रहे थे, सर्वत्र मण्डप फैले हुए थे, सर्वत्र जयदुन्दुभिका शब्द हो रहा था, सर्वत्र स्वर और गीतोंकी मिठास थी । सर्वत्र उठी हुई मालाएँ थीं । तरुओंसे पल्लवित और कल्पवृक्षोंसे व्याप्त आकाश सर्वत्र सोह
रहा था ।
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[३.९.२१
महापुराण घत्ता-णवतणुरोमंचु दावइ उं, जिणभवि हरिसु वहति ।
तर चलदलपाणि णडइ व खोणि भावें बहुरसवंति ।।९।।
to
महिसे हिं मेसेहिं
आसेहिं भासेहिं । हंसेहिं मोरेहिं
कुररेहिं कीरेहि। सरहेहिं करहेहिं
दुरएहिं वसहेहिं । दीवीतरच्छेहिं
अरिंछेहिं मच्छेहिं । सारंगसीहेहिं
तरुगिरिहिं मेहेहिं । सिहि जम महाभीस
णेरिय समुद्देस । मारुय कुबेरंक
ईसाण णीसंक। मज्झम्मि खामाहिं
मुद्धाहि सामाहिं। छणयंदवैयणाहिं
णवणलिणणयणाहिं। थणघुलियहाराहिं
पसरियवियाराहिं। धयरट्ठगामिणिहिं
सोहंतकामिणिहिं। गयणोवडंतीहिं
सरसं णडंतीहिं। वजंतवज्जेहिं
कीलंतखुज्जेहिं। बाहूरविल्लेहिं
ढुक्कंतमल्लेहिं । बहुविह विलासेहिं
मंगलणिघोसेहिं। संचल्लिया एम्व
णाणाविहा देव । घत्ता-पावेवि अउज्झ परमदुगेज्झ परियंचेवि तिवार । ___फणि दिणेयर चंदु भणइ सुरिंदु जय णाहेय कुमार ॥१०॥
११
गयणग्गलग्गहिमणिहसिहरु जंपिवि पियवयणई णिवपवरे अमयासणगणसंमाणियए सहसक्ख दिट्ठउ परमपरु छज्जइ अण्णाणतमोहहरु णं बद्धउ सिवसुहकणयरसु णं सयलकलायरु उग्गमिउ देविइ दिज्जंतु णियच्छियउ
पइसेप्पिणु णाहिणेरिंदघरु । मायहि मायासिसु देवि करे। कढिउ देविइ इंदाणियए। कमेलसरे णं णवदिवसयरु । णं अंकुरत्ति थिउ धम्मतरु । णं पुरिसरूवि संठियउ जसु । णं एक्कहि लक्खणपुंजु किउ । सोहम्मिदेण पडिच्छिवउ।
८. MBP उच्चु । ९. MBP तरु वरदलपाणि । १०.१. BP कुरुरेहि । २. MB दुरहेहि । ३. MB रिच्छेहि। ४. B मारुव । ५. MBP वयणेहि ।
६. MBP°णयणेहि । ७. MBP गामणिहि । ८. MBP परदुग्गेज्झ । ९. MP°दिणयरु । ११. १. Mणरिंदु धरु । २. MB पोमसरे। ३. BP सयलु कलायरु। ४. MB णिज्जंतु ।
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३. ११.८ ]
हिन्दी अनुवाद
घत्ता - धरती, जिनेन्द्र भगवान् के जन्मपर हर्षं धारण करती हुईं, अपना नव तृणांकुरोंका ऊँचा रोमांच दिखाती है, और अनेक रसभावोंसे युक्त, वृक्षोंके चलदलवाले हाथोंवाली वह भावसे नृत्य करती है ||९||
१०
महिषों, मेषों, अश्वों, उलूकों, हंसों, मोरों, कुररों, कीरों, शरभों, करभों, गजों, बैलों, चमकती हुई आंखोंवाले रीछों, मत्स्यों, सारंगों, सिंहों, वृक्षों, पहाड़ों और मेघोंपर सवार होकर अग्नि, महाभयंकर यम, नैऋत्य, वरुण ( समुद्रेश ), मारुत, कुबेर और शंकाहीन ईशान आदि देव आये । मध्यमें क्षीण, मुग्धा पूर्ण चन्द-मुखी, नव- कमलोंके समान आँखोंवाली, स्तनोंपर हिलते हारोंवाली, प्रसरणशील विकारोंसे युक्त, हंसकी तरह चलनेवाली, आकाशसे उतरती हुई सरस नृत्य करती हुईं सुन्दर रमणियों तथा बजते हुए वाद्यों, क्रीड़ा करते हुए वामनों, बाहुओंसे शब्द करते आते हुए मल्लों, बहुविधविलासों और मंगल शब्दोंके साथ, इस प्रकार नाना प्रकारके देव चले |
५७
घत्ता - अत्यन्त दुर्ग्राह्य अयोध्या पहुँचकर तीन बार उसकी प्रदक्षिणा कर नाग, दिनकर, चन्द्र और सुरेन्द्र ने कहा, "हे नाभेय कुमार ! आपकी जय हो |” ||१०||
११
जिसके हिम सदृश शिखर आकाशके अग्रभागको छूते हैं ऐसे नाभिराजाके घरमें प्रवेश कर नृपश्रेष्ठ प्रिय बातें कर माताके हाथमें मायावी बालक देकर, देवोंके द्वारा सम्माननीय इन्द्राणी उसे बाहर ले गयी । इन्द्रने उन परमश्रेष्ठको देखा मानो नवसूयंने कमलसरोवरको देखा हो । अज्ञानरूपी अन्धकारके समूहको नष्ट करनेवाले वे ऐसे लगते हैं, मानो धर्मका वृक्ष अंकुरित हो उठा हो; मानो शिवसुखरूपी स्वर्णरस बांध दिया गया हो, मानो यश पुरुषके रूपमें रख दिया गया हो, मानो सम्पूर्ण कलाधर (पूर्णचन्द्र ) उग आया हो, मानो लक्षणों का समूह एक जगह
८
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[३.११.९
पण
महापुराण वरवंदारयवंदहिं णेविउ पणवेप्पिणु अंकग्गइ ठविउ । को ण गणइ पुण्णपरिप्फुरिउ ईसाणे धवलछत्तु धरिउ । चमरइं विवंति अमराहिवइ साणक्कुमारमाहिंदवइ । धत्ता-जगु जित्तउ जेहिं णिम्मिउ तेहिं अणुयहिं देवहु देहु ।
तं सुइरु णियंतु दससयणेत्तु बिम्हिउँ पुलइयदेहु ॥११॥
पुणु पभणइ महुं हयकम्ममलु बहुलोयणत्तु जायउ सहलु । एहउं तिहुयणपरमेसरहो
जं दिट्ठर रूवु जिणेसरहो। इय घोसिवि पुणु पुणु जोइयउ इंद अइरावउ चोइयउ । परमेठ्ठि लएप्पिणु भमियगहे सच्छरु सामरु संचलिउ णहे। भंयसयई सणउयइं जोयणहं महि मुइवि ठाणु तारायणहं । तेत्थाउ सुदंसहकरपसरु - जोयणहि पसाहियसरयसरु । उप्परि दहहिं जि रवि परिभमइ पुणु असियहिं ससि सई संकमइ । चउहु जि रिक्खोहु णिरिक्खियउ पुणु तेत्तिएहिं बुहु लक्खियउ । तिहिं सुक्कु तिहिं जि सुरगुरु भणमि तिहिं अंग तिहिं सणि गणमि। सउ एम दहुत्तरु लंघियउ
सद्धायास वि आसंघियउ। सहसाइं गंपि अट्ठाणवइ
अवरु वि जोयणसउ तियसवइ । एत्तेण जि सोहइ दीहरिय जोयण पण्णास पवित्थरिय । अद्वैव समुण्णय हिमविमल अद्धिंदुसरिच्छी पंडुसिल । जहिं तहिं पत्तेण पवित्ततणु जय जय पभणंतें परमजिणु । देवाहिवेण तेल्लोक्कहिउ
तहि उप्परि सीहासणि णिहिउ । घत्ता-पहु सहइ णिसण्णु कंचणवण्णु असहियतेयपसंगु ।।
णं कुरुहकरेहिं वेल्लिहरेहिं मंदरु ढंकइ अंगु ॥१२॥
जिणणाहहु भावे मेरुगिरि णं हरिसे दावइ णिययसिरि । णं पर्णमइ फलभरणमियतरु णं घेल्लइ चमरीमय चमरु । णं कोइलकलरवेण चवइ
णं फलिहसिलासणाई ठवइ । पक्खालंतु व पहुकमकमलु
आणइ जवेण णिज्झरणजलु । लिंपइ व सविणय पणयवसेण करिणिहसणचुयचंदणरसेण । जोयइ व रूवु सु सियासियहिं अहिणवणलिणच्छिहिं वियसियहिं । णच्चइ व पणच्चियणीलगलु
गायइ व रुणुझुणियरणिय भसलु । णं कुसुमामोएं णीससइ
णं रयणरयणपंतिहिं हसइ। ५. MBP णमिउ । ६. MB पुण्णपविप्फुरिउ । ७. MBP विभिउ । १२. १. T णयसयई and explains it as णयसयइं इति पाठेऽप्ययमेवार्थः । २. P सुदूसह । ३. B
णिरेखियउ । ४. M सहसई गंपिणु; BP सहसा गंपिणु। ५. M सवित्थरय; BP सवित्थरिय । १३. १. M पणवइ । २. M घल्लय । ३. M सुझुणिय । ४. MBP°रुणिय ।
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३. १३. ८ ]
हिन्दी अनुवाद
५९
रख दिया गया हो, दिये जाते हुए बालकको देवीने देखा, देवेन्द्रने उसे स्वीकार कर लिया । श्रेष्ठ चारणसमूह द्वारा वन्दनीय उन्हें प्रणाम कर गोदके अग्रभागमें रख दिया गया । पुण्यसे स्फुरायमान व्यक्तिको कौन नहीं मानता ? ईशान इन्द्रने उनके ऊपर धवलछत्र रख दिया । अमरेन्द्र सनतकुमार और माहेन्द्रपति उनके ऊपर चमर ढोरते हैं ।
घत्ता - "जिन अणुओं से विश्व जीता गया है, उन्हींसे देवका शरीर निर्मित हुआ है" - इस बात का देर तक विचार करनेवाला इन्द्र विस्मित और पुलकित हो उठा ।
१२
वह पुन: कहता है कि "मेरा कमंगल नष्ट हो गया है और मेरे अनेक नेत्रोंका होना सफल हो गया है कि जो मैंने त्रिभुवनके परमेश्वर जिनेश्वरका यह रूप देख लिया है ।" यह घोषित कर उसने बार-बार भगवान्को देखा और फिर अपने ऐरावतको प्रेरित किया। परमेष्ठी जिनेन्द्रको लेकर, अप्सराओं और देवोंके साथ वह भ्रमण करते हुए ग्रहोंवाले आकाशमें चला । सात सौ नब्बे योजन धरती छोड़ने पर तारागणों का स्थान है। उससे, दस योजन ऊपर असह्य किरणोंके प्रसारवाला शरद्कालीन सरोवरोंको खिलानेवाला सूर्यं परिभ्रमण करता है। उसके अस्सी योजन ऊपर चन्द्रमा निरन्तर परिक्रमण करता है। उससे चार योजन ऊपर अश्विनी आदि सत्ताईस नक्षत्र देखे जाते हैं । फिर वहाँसे उतनी ही दूरीपर बुध दिखाई देता है। वहीं में शुक्र और बृहस्पतिका कथन करता हूँ । वहीं मैं मंगल और शनिको गिनता हूँ । इस प्रकार एक सौ दस योजन चलनेपर उन्होंने शुद्ध आकाश पार किया। फिर वह एक हजार अट्ठानबे योजन जाता है । फिर इन्द्र एक सौ योजन जाता है । इतनी ही ( सौ योजन ) लम्बी और पचास योजन विस्तृत, आठ योजन ऊँची, हिमकी तरह स्वच्छ अर्द्धचन्द्रके आकारको पाण्डुशिला जहां शोभित है, वहाँ पहुँचनेपर, जय-जय-जय करते हुए देवेन्द्रने पवित्र शरीर, तीनों लोकोंका कल्याण करनेवाले परम जिनको उस शिलाके ऊपर सिंहासनपर स्थापित कर दिया ।
घत्ता - असह्य तेजवाले स्वर्णके रंगके स्वामी उसपर विराजमान ऐसे शोभित हो रहे हैं, मानो मन्दराचल, लताओंको धारण करनेवाले वृक्षरूपी हाथोंसे शरीरको ढकता है ||१२||
१३
जिननाथ के भावपूर्वक मानो वह हर्षंसे अपनी लक्ष्मी दिखाता है, मानो फलभारसे नमित वृक्षोंसे प्रणाम करता है । मानो उनपर चमरीमृग चमर ढोरते हैं। मानो कोयल सुन्दर शब्द में बोलती है, मानो स्फटिक मणियोंकी शिलाएँ स्थापित करता है । वेगसे झरनोंके जलको लाता है। और प्रभु चरण-कमलोंका प्रक्षालन करता है। हाथियोंके संघर्षणसे गिरे हुए चन्दनरससे जो प्रणयसे विनयपूर्वक जैसे लोपता है। जो अपनी सित असित अभिनव कमलरूपी आँखोंसे जैसे उनका रूप देखता है, नाचते हुए मयूरोंसे युक्त वह जैसे नाचता है, हैं, जैसे गाता है । मानो वह कुसुमोंके आमोदसे निश्वास लेता है, पंक्तियोंसे हँसता है ।
जिसमें गुनगुनाते हुए भ्रमर मानो वह रत्नरूपी दांतोंको
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१०
१०
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२०
२५
६०
महापुराण
घत्ता - संठिङ मणिरंगि मंदरसिंगि चंपवासविमीसे ॥ जिणु सासयसोक्खु णावइ मोक्खु थिड तेलोक्कहु सीसे ॥१३॥
१४
ता हयाई भेरिझल्लरीमुंइंगसंखतालकाहलोई बज्जयाई । खिभिसेहिं पाणिपायकुंचियाई णचियाई वामैणाई खुज्जयाई ॥ भूयजक्खकिंणरेहिं खेरेहिं रक्खसेहिं णायणाइणीस एहिं । आयएहिं पूरियं निरंतरं णहंतरं भवंतभावभाविएहिं ॥ बालहंसगामिणीहिं इंदचंदकामिणीहिं गाइयाई मंगलाई । दब्भदो पूयवीयमट्टिया कणेहिं ताई णिम्मियाई णिम्मलाई । उद्धबद्धणिद्धचारुचीरमंडवे फुरंतमोत्तिएहिं मंडिऊण । लोयतावकारणारं कुच्छियाई वंछियाई छेड्डिऊण ॥ सहिऊण णायरेण सायरेण सासणामरे वरे पओसिऊण । गंधधूवफुल्लदीवतोयतंदुलण्णजण मायए णिवेसिऊण ॥ सक्कचिश्चिकालणेरिअण्णवाणिले कुबेर सूँलिणे समचिऊण । मंतपुव्वियं विहिं सुहावहं समागमे समासियं समासिऊण ॥ जीय देव णंद वद्ध सिद्ध बुद्ध सुद्धसील सामिसाल भाणिऊण । दोएहिं दोघएहिं खंधएहिं चित्तवित्तसंथुई हिं माणिऊण || मंदरं छिवंतिया बद्धदेव पंतियाइ खीरसायरंतियाइ । वोमयं कर्मतियाइ धंतियाइ थंतियाइ जंतियाइ एंतियाइ || हारदोरे कंचिदाम वंभसुत्तकंके 'णालिकुंडलाहिं भूसिएहिं । आइबीयपपुंगमेहिं आसणासिएहिं सम्मयाहिला सिएहिं || अजोयणोयरेहिं एक्ककंठ वित्थरेहिं अन्भयं णिसुंभएहिं । हुंदहोपयच्छिएहिं पाणिणा पडिच्छिए उग्गयंबुथें भऐहिं ॥ चंदणेण चच्चिएहिं पुप्फदामवेढिएहिं णं घणेहिं संभएहिं । एकमेकढोइएहिं पोपत्तछाइएहिं सायकुंभकुंभएहिं || सिंचिओ पुचिओ मंसिओ पसंसिओ पसाहिओ महाइदेवो । कामको मोह लोहमाणडंभचे फलत्तवज्जिओ हयावलेवो ॥
घत्ता - जो णाणविसुधु जिणु सबुधु सो हाविउ लइ हाइ । झसवासहु तोउ भत्तउ लोउ सूरहु दीवउ देइ ॥ १४॥
१४. GK mention at the beginning पिंगलाणंदो णाम दंडओ; MBP have विगलाणंदो णाम छंदो । १. M मुयंग । २. MB काहलाइवज्जयाई । ३. MB बावणाई । ४. P दोन but gloss दुर्वा । ५. K इंडिकण । ६. M° । ७. BP लियो । ८. KT K मन्दिरं but corrects it to मन्दरं । १०. P डोर | ११. विभएहि, but gloss in P उद्गतोच्छलितजलबिन्दुभिः । १३. P पोमवत्तं । १४. P चप्पलत्तं ।
[ ३.१३. ९
एहिं । ९. MB मन्दिर; काहिं । १२. MBP
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३. १४. २६ ]
हिन्दी अनुवाद घत्ता-चम्पककी वाससे मिश्रित सुन्दर मन्दराचल शिखरपर स्थित जिन ऐसे मालूम हुए मानो शाश्वत सुखवाला मोक्ष त्रिलोकके ऊपर स्थित हो ॥१३।।
इतनेमें तूर्यवादक देवोंके द्वारा भेरी, झल्लरी, मृदंग, शंख, ताल और कोलाहल आदि वाद्य बजा दिये गये। अपने हाथ-पैर आकुंचित करते हुए वामन और कुबड़े नाचने लगे। आये हुए भूत, यक्ष, किन्नरों, विद्याधरों, राक्षसों, सैकड़ों नाग-नागिनियोंके द्वारा अनुरागसे भरकर निरन्तर आकाश गंजा दिया गया। बालहंसके समान चलनेवाली इन्द्र और चन्द्रकी महिलाओंके द्वारा मंगल गीत गाये गये । दर्भ, दूब, अपूप, बीज और मिट्टीके कणोंसे निर्मल मंगल रचे गये। ऊपर बंधे हुए चिकने और सुन्दर कपड़ेके मण्डपमें, चमकते हुए मोतियोंसे अलंकृत कर लोक-सन्तापकी कारणरूप कुत्सित इच्छाओंको छोड़कर, चतुर इन्द्रने आदरपूर्वक शासन-देवोंको आह्वान कर और सन्तुष्ट कर, गन्ध, धूप, फूल, दीप, जल, तन्दुल और अन्न आदि यज्ञांशोंको रखकर, इन्द्र, अग्नि, यम, नेऋत्य, अर्णव, पवन, कुबेर और ईशान दिग्पालोंकी अर्चना कर, मन्त्रपूर्वक जिनआगममें प्रतिपादित सुखद विधिका आश्रय लेकर, हे देव जियो, प्रसन्न होओ, बढ़ो, हे सिद्ध बुद्ध शुद्धाचरणवाले स्वामिश्रेष्ठ, यह कहकर दोहों, बोधकों, स्कंधकों, चित्रवृत्तोंवाली स्तुतियोंसे मानकर, मन्दराचलको छूनेवाली, तथा क्षीरसमुद्र तक फैली हुई, आकाशका अतिक्रमण करती हुई, दौड़ती हुई, ठहरती हुई, जाती हुई, आती हुई, बंधी हुई देवपंक्तिके द्वारा हार, दोर, स्वर्ण, करधनी, यज्ञोपवीत, कंगनपंक्ति और कुण्डल आभूषणोंसे अलंकृत, आसनोंपर स्थित सम्यक् अभिलाषा रखनेवाले, आठ योजन लम्बे और एक योजन विस्तृत मेघपटलको नष्ट करनेवाले, लो यह कहते हुए, प्रथम और द्वितीय स्वर्गके देवेन्द्रोंके द्वारा हाथसे दिये गये, जिनसे जलकी बूंदें गिर रही हैं, ऐसे चन्दनसे चचित, पुष्पमालाओंसे वेष्टित, जो मानो जलसे भरे मेघोंके समान हैं ऐसे एक दूसरेके द्वारा ले जाये गये, कमल पत्रोंसे ढके हुए स्वर्ण कलशोंसे, काम, क्रोध, मोह, लोभ, मान, दम्भ और चपलतासे रहित, पापसे दूर महान् आदिदेव ( ऋषभ ) को अभिषिक्त किया गया, पुनः पूजा गया, नमन किया गया, सराहा गया और प्रसाधित किया गया।
पत्ता-जो जिनेन्द्र ज्ञानविशुद्ध स्वयं बुद्ध हैं, उन स्नातको-समुद्रको जलस्नान कराता है। भक्त लोक सूर्यको दीपक दिखाता है ।।१४।।
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महापुराण
[३.१५.१
१५
णिम्मलहु जि पहाणु विराइयउ मंगलह जि मंगल गाइयउ । परमेट्ठिहि जाणियसंवरहो कि अंबरु दिण्णु णिरंबरहो। किं भूसणु भूसणि संणिहिउ किं जंगमंडणि मंडणु लिहिउ । पविसूइइ ववगयभवरिणहो विधेप्पिणु सवणजुयलु जिणहो । विच्छूढई मणिमयकुंडलई णं ससहरदिणयरमंडलइं। चयलब्भपिसायहु णट्ठाई
णाहेयहु सरणु पइट्ठाई। किं कोसिएण जगसेहरहो सिरि सेहरु बद्धउ मणहरहो। गलरेहाजित वलियएण
हेहामुहेण परिघुलियएण । हियउल्लउ हारें सेवियउ
जडजाएं किं पि ण भौवियउ । घत्ता-जो सालंकारु किमलंकारु सुरवर तासु करंति ।
महु हियवइ भंति णउ लजति रूवु काई ढंकंति ॥१५।।
किं बुद्धि ण हई सुरयणहो । मणिबंध महग्घउ कंकणहो। कडिसुत्तउ कडियलि वलइयउ किंकिणिसरु चवइ व पुलइयउ। किं सीहणियंबहु एह सिरि लइ अच्छइ तं सेवंतु गिरि । कमजुइ संणिहियउ झणझणइ मंजीरजुयलु इय णं भणइ । जं भव्वजीवसंतइसरणु
संसारमहाजलणिहितरणु । कोमलसरलंगुलिदलकमलु णहकिरणपसरहयतिमिरमलु । मई लद्धउ जिणवरपयजुयलु महु जायेउ भूसणत्तु सहलु । जं करणकालि सिहितावियउ तं तवहलु णं विहिदावियउ । घत्ता-सुरसायरतोउ णाहविओउ ण सहइ विरइयण्हाणु ।
मंदरगिरिगुज्झि महिरुहमज्झि णं घल्लइ अप्पाणु ।।१६।।
दूराउ वहंतु णियच्छियउ सीसेणे सुरेहिं पडिच्छियउ। वंदिजइ जिणतणु पेरिलु ढिउ कक्करकंदरणिवंडणि सुढिउ । णिजइ देवेहिं करेण करु
गुरुसंगें को णउ होइ गुरु । पंकयकेसररयधूसरिउ
कैस्सीरयराएं पिंजरिउ । वणकुंजरकुंभत्थलखलिउ
करडयलगलियमयपरिमलिउ । संचलियसिलिम्महचित्तलिउ णाणामणिकिरणहिं संवलिउ।
परिघोलइ सिहरिंदहु तणउं णं पंचवण्णु उप्परियणउं । १५. १. P जगमंडणु मंडणि । २. P विधेविण । ३. MBP जाणियउ । ४. EP ढक्कंति । १६. १. P सिंह । २. M भूसणत्तु जायउ । ३. P महिहर। १७. १. P सीसेहिं । २. MBP परिढुलिउ । ३. K°णिवडणसुढिउ । ४. P करेहिं । ५. PT कासीरयं ।
६. MBP सिलीमुह ।
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३. १७.७]
हिन्दी अनुवाद
निर्मलको भी स्नान कराया गया। मंगलका भी मंगल गाया गया। संवरको जाननेवाले दिगम्बर परमेष्ठीको अम्बर वस्त्र क्यों दिया गया ? जो भूषणस्वरूप हैं उन्हें भूषण क्यों पहनाया गया, जो जगमण्डन हैं उनपर मण्डन क्यों किया गया ? संसारके ऋणसे मुक्त जिनके दोनों कानोंको वज्रसूचीसे बेधकर मणिमय कुण्डल पहना दिये गये, मानो चन्द्र और दिनकरके मण्डल हों, जो मानो चंचल राहुसे भागकर नाभेयकी शरणमें आये हों। विश्वश्रेष्ठ सुन्दर ऋषभके सिरपर इन्द्रने मुकुट क्यों बांध दिया ? गलेकी रेखासे जीता गया, झुका हुआ अधोमुख आन्दोलित हारके द्वारा हृदयकी सेवा की गयी, जो जड़जात (जड़से उत्पन्न, और जलसे उत्पन्न मोती) को कुछ भी अच्छा नहीं लगा।
पत्ता-जो स्वयं सालंकार हैं, देवता उसे अलंकार क्यों पहनाते हैं, मेरे हृदयमें भ्रान्ति है कि उन्हें शर्म नहीं है, वे रूपको क्यों ढकते हैं ।।१५।।
१६ क्या देवोंको बुद्धि नहीं उपजी कि उन्होंने कंकणोंका महाघ मणिबन्ध और कटिसूत्र कटितलमें बांध दिया। किकिणीका स्वर रोमांचित होकर कहता है क्या सिंहके नितम्बमें यह शोभा है ? लो यही कारण है कि वह पहाड़की सेवा करता हुआ वहीं रहता है। दोनों चरणोंमें झन-झन करते हुए नूपुरोंका जोड़ा यह कहता है कि जो भव्यजीवोंकी परम्पराके लिए शरणस्वरूप हैं, जो संसाररूपी महासमुद्रसे तारनेवाले हैं, जो कोमल स्वरों और अंगुलियोंके दल कमलवाले हैं, और (ज्ञान रूपी) सर्यके प्रसारसे तिमिरमलको नष्ट कर देते हैं. मैंने ऐसे जिनवरके चरणयगलको पा लिया है, मेरा भूषण होना सफल हो गया। बनाये जाते समय मुझे जो आगमें तपाया गया, मानो विधाताके द्वारा दिखाया गया, यही मेरे तपका फल है।
पत्ता-स्नान करानेवाला क्षीरसमुद्रका जल अपने स्वामीका वियोग सहन नहीं करता इसीलिए मन्दराचलसे गुह्य वृक्षोंके मध्यमें अपनेको डाल देता है ॥१६॥
देवोंने दूरसे बहते हुए उसे देखा और अपने सिरसे उसे अंगीकार कर लिया। जिनके शरीरसे लुढ़का हुआ और कठोर गुफाओंमें गिरनेसे दुःखित उसे देवोंने हाथों हाथ ले लिया। गुरुके साथ कौन गुरु नहीं होता। कमलपरागकी धूलसे धूसरित केशरको लालिमासे पीला, वनगजोंके गण्डस्थलोंसे पतित, गजकपोलोंसे झरते हुए मदजलसे सुगन्धित, चलते हुए भ्रमरोंसे चित्रित नाना मणि-किरणोंसे मिश्रित स्नानजल ऐसा लगता है मानो सुमेरु पर्वका पचरंगा दुपट्टा उड़ रहा
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[३.१७.८
महापुराण णहिं णहयरेहिं महियलि णरेहिं पायालि पडतउ विसहरेहिं । धावंतु थंतु वियलंतु चलु
वंदिउ सव्वण्हुहि पहाणजलु । धत्ता-इच्छियगुरुसेव चउविह देव हरिसे कहिं मि णमंति ॥
उटुंत पडंत पुरउ णडंत वारवार र्पणवंति ॥१७॥
केण वि वाइत्तउं वाइयउ केण वि सुइमिट्ठउ गाइयउ। केण वि वहुसुकिउ संचियउ केण वि भावालउ णच्चियउ। सवलहण केण वि ढोइयउ केण वि आहरणु णिवेइयउ । केण वि थोत्सई पारद्धाइं
केण वि तोरणई णिबद्धाई। पडिहार को विहुउ दंडधरु कु वि पासि परिट्ठिउ खग्गकरु । पडु पढइ का वि अणुराइयउ ' केण वि मालउ उच्चाइयउ। कासु वि आलावणि णिद्धतणु . जहिं छिप्पइ तहिं तहिं करइ मणु । सरलंगुलिताडिय रणझणइ णिज्जीव वि जिणवरगुण थुणइ । तहिं अवसरि कयणाणावयणु थुइ गुरुहि करइ दससयणयणु । आयासु जि आयास रिसु उवमाणु ण तुझु को वि पुरिसु । जइ पई जि समाण पई भणमि ता परमेसर किं पई थुणमि । घत्ता-जो कहइ कएण कइ कन्वेण जिणवर तुह गुणरासि ॥
सो णिरु लहुएण करचुलुएण मूदु मवइ जलरासि ॥१८॥
तुह थोत्तवित्तस्स चित्तं गवं देमि अहमीस धिट्टत्तणेणेव वंदेमि । धणलाहलोलेहिं संगहियसंगेहिं परणारिहिंसामुसाणंदियंगेहिं । पसुमंसमजबुधाराविलुद्धेहिं कुलजाइविण्णाणगावावरुद्धेहिं । मयघुम्मिरच्छीहि मिच्छत्तिरूढेहिं ___ कह दीससे तं महामोहमूढेहिं । असिवत्तदुग्गंतराले घडताण णरयम्मि धंते महंते पडताण । जमपासणिप्पीडियाणं सवाहीण जिण को करालंवणं देइ देहीण । इणं मो जयंजम्मवासं णिहंतूण परमं पयं णेइ को तं पमोत्तूण । जय कालकालग्गिजालावलीकंद जय इंदणाइंदलच्छीलयाकंद । जय घोरसंसारकंतारणित्थार जय दुव्वपज्जायसंभावणासार । जय मारसिंगारपब्भारणिब्भेय जय दीहदालिद्ददोहग्गविच्छेय । जय दुग्विणीयंतरंगाण दुण्णेय जय णाह णीराय णीसल्ल जाहेय ।
जय देव कंठीरवुव्वूढपीढत्थ । जय कूरचित्तेसु भत्तेसु मज्झत्थ । ७. MBP कहव । ८. MBP पणमंति । १८. १. B णाणावयणु तणु । २. Pणरु । १९. १. K वंदासि । २. MBP°लाहलोहेहिं । ३. MBP °गारावलुहिं । ४. M मिच्छत्ति । ५. B
जयजम्म ।
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२. २१. १५ ]
हिन्दी अनुवाद
६५
हो । नभमें नभचरों, धरतीपर मनुष्यों और पातालमें विषधरोंने गिरते, दौड़ते, ठहरते, विगलित होते चंचल, सर्वज्ञके स्नानजलको वन्दना की ।
धत्ता - गुरुको सेवाकी इच्छा रखनेवाले चार प्रकारके देव हर्षसे कहीं भी जलका नमस्कार करते हैं । उठते-पड़ते सामने नाचते हुए वे बार-बार प्रणाम करते हैं ॥ १७ ॥
१८
किसीने बाजा बजाया, किसीने श्रुतिमधुर गाना गाया, किसीने प्रचुर पुण्यका संचय किया । किसीने भावपूर्ण नृत्य किया । किसीने विलेपन भेंट दिया। किसीने आभूषण दिये, किसीने स्तोत्र शुरू किये, किसीने तोरण बांधे । कोई दण्डधारी प्रतिहारी बन गया । कोई हाथमें तलवार लेकर पास खड़ा हो गया । धर्मानुरागसे युक्त कोई सुन्दर पढ़ने लगा । किसीने माला ऊँची कर ली । किसीकी वीणा स्निग्धतर हो उठी । जहाँ-जहाँ वह स्पर्श करता है वहीं मन हो जाता है । स्वर और अँगुलियोंसे ताड़ित वह रुनझुन करती है, निर्जीव होते हुए भी, जिनवरके गुणोंकी स्तुति करती है। उस अवसरपर सहस्रनयन इन्द्र अपने नाना मुख बनाकर गुरुकी स्तुति करता है, “आकाश आकाशके समान है, तुम्हारा उपमान कोई भी मनुष्य नहीं हो सकता । हे जिनवर, जब आप आपके ही समान कहे जाते हैं तो हे परमेश्वर, में आपको क्या स्तुति करूँ ? घत्ता - हे जिनवर, जो स्वनिर्मित काव्यसे तुम्हारी गुणराशिका कथन करता है वह मूर्ख अत्यन्त छोटे हाथरूपी करछलसे जलराशिको मापना चाहता है || १८ ||
१९
हे जिनवर, तुम्हारे स्तवन के आचरणमें में अपना नवीन चित्त देता हूँ । हे ईश, मैं धृष्टता से ही तुम्हारी वन्दना करता हूँ । जो धनलाभके लालची, संगृहीतका संग्रह करनेवाले, परस्त्रियोंकी हिंसा और अपहरणसे आनन्दित होनेवाले, पशुमांस और मद्यकी जलधारा में लुब्ध होनेवाले, कुल जाति और विज्ञानके गर्वसे अवरुद्ध, मदसे घूमती हुई आँखोंवाले, मिथ्यात्वपर चढ़े हुए और महामूढ़ हैं, उनके द्वारा वह कैसे देखा जा सकता है। असिपत्रोंसे दुर्गंम अन्तरालमें घटित होते हुए, महान्धकारमय नरकमें पड़ते हुए, यमके पाशसे अत्यन्त पीड़ित और सब प्रकारसे होन शरीरधारियोंके लिए है जिन, कौन हाथका सहारा देता है ? मेरे इस जगजन्मवासको नष्ट कर, तुम्हें छोड़कर कौन मुझे परमपदमें ले जा सकता है ? कालरूपी कालाग्निकी ज्वालावली के लिए मेघतुल्य तुम्हारी जय हो । इन्द्रों और नागेन्द्रोंकी लक्ष्मीरूपी लताके अंकुर आपकी जय हो । संसारके घोर कान्तारसे निस्तार दिलानेवाले आपकी जय हो; द्रव्यों और पर्यायोंकी सम्भावनाओंके सार, आपकी जय हो; कामके श्रृंगारके भारका भेदन करनेवाले आपकी जय हो; दीर्घं दारिद्रय और दुर्भाग्यका छेदन करनेवाले आपकी जय हो । दुर्विनीत हृदयवालोंके लिए अज्ञेय आपकी जय हो, वीतराग शल्यहीन हे नाभेयनाथ, आपकी जय हो । सिंहासनपर स्थित हे देव, आपकी जय । दुष्टचित्तों और भक्तोंमें मध्यस्थ चित्त, आपकी जय ।
९
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१०
१५
२०
६६
महापुराण
घत्ता - जय मंथरगामि तिहुयणसामि एत्तिउ मग्गिर देहि || जहिं जम्मु ण कम्मु पाउ ण धम्मु तहु देसहु मई हि ||१९||
देवं सुहविऊण
डु
दुणिकटि
भा करडा, संखेहिं तालेहिं काहल हिं बहिरियदसासेहिं
बहुवयणु बहुणयणु हरिसेण विच्छुरि विविहंगहारे हिं उप्पयइ परिवडइ
इय चिवि गिहिवि सहसिरि सच्छ सविबुहु लहु संचलिउ संगीय सहकोलाह लेण तणुकंतिभारवारिय विहुणा दीसइ अहत्थु णक्खत्तगणु
२०
भत्तीइ विऊण । दुगगघाहिं | धोकेहिं ।
लहिं ।
|
ढाका । झल्लरिहिं अहं असंखे जय तूर घोसेहिं । करपिहिय पिहुगयणु । तिरुणिपरियरिउ । रसभावसारेहिं |
आहंडलो डइ |
पयजुयणिवाण ।
धम्मापुराण
महिवी कडयss |
सुरमहिहरो फुड परिभमइ थरहरइ रोसे फुप्फुवइ विसजणु वित्थरs तावेण कढकढइ जलही यि झलझलइ
यिदेहु संवरइ | फणि फरुसु विसु मुयइ । धगधगइ हुरुहुरइ । जलयरकुलं लुढइ | सेरं समुल्लसइ ।
भत्ता - रिक्खइं णिवडंति दिसउ मिळंति महिविवरई फुट्टेति ॥ चं इंदे यणादें गिरिसिहर तुट्टति ||२०||
२१
आरूढु सवारणखंधि हरि । पवणंदोलियधयवडलुलिउ । खे धावतें सुरवरबलेण ।
उप्पर एंतेण देवपहुणा । णं हसरि फुल्लिङ कर्मैलवणु ।
२०. १. MB ठगदुगिग; P थगदुगिगं । २. MB दुणिकिट्टिमटकेहि; P दुणिकिट्टमटकेहि । ३. MBP भंभंत । ४. MBP मंदलहि । ५. MBP विप्फुरिउ । ६. P पडिवडइ । ७. MB पुप्फुवइ । ८. MBP जलणिहि वि । ९. MB सरसं ।
२१. १. P उपरि यंतेण but gloss
आगच्छता । २. B णहसिरफुल्लिउ; P णहसरफुल्लिउ । ३. K
कुसुमवणु ।
[ ३. १९.१६
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३. २१. ५ ]
हिन्दी अनुवाद
६७
घत्ता - हे मन्थरगामी त्रिभुवनस्वामी, आपकी जय हो, इतना माँगा हुआ दीजिए कि जहाँ जन्म नहीं है, कर्म नहीं है, पाप नहीं है और न धर्म है, उस देशमें मुझे ले जाइए || १९॥
२०
देवकी स्नान करा कर भक्तिसे प्रणामकर, पटुपडहके नादों, थारी-दुगिगके आघातों, दुणिकिटिम और टक्कों, झंझा और सघोक्कों, भेभंत भंभाहों, ढक्का और हुडुक्कों, करडों, काहलों, झल्लरियों, महलों, ताल और शंखों और भी असंख्यों दिशाओंको बहरा बना देनेवाले जयतुर्य घोषोंके द्वारा, जिसके अनेक मुख हैं, अनेक नेत्र हैं, जिसने हाथोंसे विशाल आकाशको आच्छादित कर रखा है, हर्षसे विह्वल तरुणीजनसे घिरा हुआ ऐसा इन्द्र रसभावोंसे श्रेष्ठ विविध अंग निक्षेपोंके द्वारा उछलता है, गिरता है, और धर्मके अनुरागसे नृत्य करता है। पैरोंके गिरने से
पर्वत फट जाता है। धरतीपीठ कड़कड़ होता है । शेषनाग घूमता है, थर्राता है, अपना शरीर सम्हालता है, क्रोधसे फुफकारता है, कठोर विष उगलता है, विषकी ज्वाला फैलती है, धक धक हुरहुर करती है, तापसे कड़कड़ करती है, जलचरसमूहको नष्ट करती है । समुद्र भी चमकता है, स्वेच्छासे उल्लसित होता है ।
घत्ता - नक्षत्र टूटते हैं, दिशाएँ मिलती हैं, महीविवर फूटते हैं, नेत्रोंके लिए आनन्ददायक इन्द्रके नाचनेपर गिरिशिखर टूट जाते हैं ||२०||
२१
इस प्रकार नृत्य कर और श्री ऋषभको लेकर इन्द्र अपने ऐरावतके कन्धेपर चढ़ गया । अप्सराओं और देवोंके साथ वह चला । वह पवनसे आन्दोलित ध्वजपटोंसे चंचल था । संगीतके कोलाहलके शब्दके साथ सुरबलके आकाशमें दौड़नेपर तथा शरीरकी कान्तिके भारसे चन्द्रमाको निवारण करनेवाले इन्द्रके ऊपरसे आनेपर नीचे स्थित नक्षत्रगण ऐसा दिखाई देता था, मानो
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[३. २१.६
महापुराण णं मोत्तियमंडवु मेइणिहि जिणु ण्हाणंतिहि मंदाइणिहि । सियजलकणणियरु समुच्छलिउ णं दीसइ दस दिसासु घुलिउ । उज्झाउरि झत्ति पराइयउ
रायंगणि लोउ ण माइयउ। उत्तरिवि करिहि हरि आइयउ मायापियरहुं सिसु ढोइयेउ । तिहुयणपरिपालणपरमविहि संगहिय तेहिं सो णाणणिहि । विसु धम्मु तेण भाइ त्ति पहु भासियउ पुरंदरेण विसहु । पत्ता-जगभरहु समत्थु पुण्णपसत्थु णंदणु लेवि अदीण ॥
सुरसंथुयपाय हरिसिय माय पुप्फयंति आसीण ॥२१॥
इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरइए महाभग्वभरहाणु
मण्णिए महाकव्वे जिणजम्माहिसेयकल्लाणं णाम तइओ परिच्छेओ सम्मत्तो ॥३॥
॥ संधि ॥३॥
४. MBP add after this foot : संतोसवसेण पलोइयउ; G gives it in the margin in second hand, but K does not give it at all, ५. M ताइत्ति । ६. BP पुप्फयंतआसीण । -
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३. २१.१३]
हिन्दी अनुवाद आकाशरूपी नदीमें कमलवन खिला हो मानो धरतीका मोतीमण्डप हो, मानो जिनके स्नानके अन्तमें मन्दाकिनीका श्वेत जलकणसमूह उछल पड़ा हो, और दसों दिशाओंमें व्याप्त दिखाई दे रहा हो। वह शीघ्र अयोध्या नगरीमें पहुँचा, लोक राजाके प्रांगणमें नहीं समा सका। ऐरावतसे उतरकर इन्द्र आया, और उसने माता-पिताको पुत्र दे दिया। ज्ञाननिधि उसने उनसे त्रिभुवनपरिपालनकी विधि संगृहीत की। चूंकि उनसे ( जिनेन्द्रसे) धर्म शोभित है, इसलिए इन्द्रने उन्हें वृषभ कहा।
___घत्ता-जगभारमें समर्थ, पुण्यसे प्रशस्त, और अदीन पुत्रको लेकर सुन्दर स्थानपर बैठे हुए, देवोंसे संस्तुत चरण मा हर्षित होती है ।।२१।।
इस प्रकार त्रिषष्टि पुरुषगुणालंकारवाले महापुराणमें, महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित महामव्य मरत द्वारा अनुमत इस महाकाव्यमें जिनजन्माभिषेक कल्याण नामक
तीसरा परिच्छेद समाप्त हुआ ॥३॥
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१०
१५
संधि ४
रवि यहिं परियणहिं जिणजम्मुच्छवु जो रइउ । तं पेच्छेवि विसहरु रु खयरु सुरवरु कोड ण विइ ॥ ध्रुवकं ॥
जंभेट्टिया - अणुरुवई देवि पत्थई
१
रंजियरूवई । भूसणवत्थई ॥१॥ थथण्णामयधारालियाउ । धोई समपिवि अच्छराउ । सिसुणाes frरु भावें णवेवि । पुज्जेवि पसंसिवि कुलिसपाणि । कोसलपुर वड्ढइ वालु ताम । णं सिद्धिहि केरउ णियइ पंथु । खेलंतें खेर्लइ दिहिविलासु । रंगते रंगइ समउ लच्छि । उडीहतें उग्गमइ कित्ति । बुद्ध बावण्ण वि अक्खराई । संभरियई पुवंग पयाई । विष्णाय चउसट्ठि वि कलाउ ।
घोलंतर मालइमालियाउ कंकेल्लिपल्लवाइयकराउ
किंकर गिव्वाण अनंत देवि तं गुरुजुयलुल्लडं विमलणाणि * पुच्छिवि गड सयमहु सघरु जाम उत्ताणसेज्ज णिमुक्कगंथु वतें वहिरिविसेसु बसंतें इसइ सिरि चलच्छि पसरतें पसरइ सुथिरकंति भासंतएण खलियक्खराई चिरु र्धरियई दरदेतें पयाई जिस सिणा लें तें तणुकलाउ घत्ता - करणिडिइ थिरसंभूयमइ मइइ सत्थु संमाणियउं ।
तं चिंतंतें परमेसरेण ओहिइ जगु परियाणियउं ||१||
GK have at the commencement of this Samdhi the following stanza :
सौभाग्यं शुचिता क्षमा भुजबलं शौयं वपुः सुन्दरं सत्यं सर्वजनोपकारकरणं वृत्तं स्वकं सन्मतम् । हे विद्वन् भरतस्य भूतिजननं विद्यार्थिनामाशु यस्यैकैकं गुणमङ्गमूर्जितधियां पुंसाम चिन्त्यं भुवि ॥
MBP have the following stanza :
आश्रयवशेन भवति प्रायः सर्वस्य वस्तुनोऽतिशयः । भरताश्रयेण संप्रति पश्य गुणा मुख्यतां प्राप्ताः ॥
१. १. MBP पेच्छिवि । २. M विसिहरु । ३. MB विभयउ P विभियउ । ४. MBP धाइयउ । ५. MB तग्गुरु ं । ६. P पुंछिवि । ७. Pणिमुक्क; K णिमुक्कं but corrects in to जिम्मुक्कं । ८. MBP खेल्लंतें खेल्लइ । ९. MBP चरियई । १०. MBP णं चितंतें ।
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सन्धि ४
घरमें फिरसे स्वजनों और परिजनोंके द्वारा जिनजन्मका जो उत्सव किया गया, उसे देखकर विषधर, नर, विद्याधर और देवेन्द्र कौन ऐसा था जो विस्मित नहीं हुआ ?
१
शरीरके अनुरूप और रूपको रंजित करनेवाले प्रशस्त भूषण और वस्त्र देकर, मालती - मालाओं को घुमाती हुई, स्तनोंमें दूधरूपी अमृतधारावाली, अशोक वृक्षके पल्लवोंके समान हाथोंवाली अप्सराओंको धायके रूपमें सौंपकर, अनन्तदेवोंको किकरके रूपमें देकर, अत्यन्तभावसे शिशु स्वामीको नमस्कार कर विमल ज्ञानवाले नाभिराज और मरुदेवी, दोनोंकी पूजा और प्रशंसा कर और अनुमति लेकर वज्रपाणि ( इन्द्र ) अपने घर चला गया, अयोध्यामें बालक दिन दूना रात चौगुना बढ़ने लगता है । सेजपर लेटा हुआ नग्न बालक ऐसा लगता है मानो सिद्धिके मार्गको देख रहा हो । बालकके बढ़नेपर ऋद्धि विशेष बढ़ती है, खेलनेपर धैर्यका विलास खेलने लगता है । उसके बैठनेपर चंचल आँखोंवाली लक्ष्मी बैठ जाती है । चलनेपर लक्ष्मी साथ चलती है । प्रसार करनेपर स्थिर कान्ति फैलने लगती है । उसके खड़े होनेपर कीर्ति उठ खड़ी होती है । स्खलित अक्षर बोलनेपर भी उसने बावन ही अक्षर जान लिये । धरतोपर थोड़े-थोड़े पद रखते हुए, चिर पूर्वांग-पद उसे स्मरण में आ गये। जिनरूपी चन्द्रमाके शरीरकी कलाएँ ग्रहण करते ही उसने चौसठ कलाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया ।
पत्ता -- इन्द्रियों की वृद्धिसे उनकी बुद्धि दृढ़ होती है, दृढ़ बुद्धिसे वह शास्त्रका सम्मान करते हैं । और शास्त्रका चिन्तन करते हुए परमेश्वरने अवधिज्ञानसे विश्वको जान लिया ||| १ ||
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१०
५
१०
७२
जंभेट्टिया - समदममूलउ सुकलुग्ामो
रु
अमरामएहिं सिंचिज्ज माणु देहे णिचं चिय णिम्मलत्तु णीसे विंदु सुरहित्तु वरवज्जरिसैहणारायणामु हं हं हं ज सोहाणिहाणु जंगसार सुरू' 'सुलक्खणत्तु अइसय दह जासु परं पसिद्ध णं परिसरुवपरिमाणु लधु
महापुराण
जंभेट्टिया-गुणगणसण्णेयं तोसियजणमणं
जो ससहरु सोहु कंतिपिंडु दियरुतहु ते जित्तु णाई जो सुरगिरि सो हु हवेणवी
जं
घत्ता - जसु को विण संणिहु भुवणयलि परमजिनिंदहु णिरुवमहो । ससि दियरु मंदरू मयरहरु किं उवमाणउं देमि तहो || २ ||
'जगु तं तहु जसपसरठाणु जो जलणिहि सो तहु कायकोंडु जो वरकरि सो वाहणु मयंधु पसु कामघेणु सहियहे उ
जो कप्परुक्खु सो कट्टु कट्ठ
२
जमसाहालउ |
जिर्णकद्दु मो ॥१॥ सोहइ पुण्णेण पवडूढमाणु । महमंदरधरणु अणंतु सत्तु । ang विहारणीहारगउरु । संघ पहिल पवधामु । तहुँ अवरु वि समचउरंसठाणु । पियहियमिव वेणु णिहित्तचित्तु । जम्मेण समर घम्में निबद्ध | विहिकरण भासविसेसु सिधु ।
वयदुणयं । को वण्णइ जिणं ॥१॥ चिंतंतु वहुउ सकलंकु खंडु | हयलि भमेवि अत्थवणु जाइ । महिमंडलु तं ते गीदु । जं हु तं तहु णाणप्पमाणु । जो वहु सो भयमुक्ककंडु ।
जो
सिंहाण णिबद्धु । सो वि पविट् ठु जीउ । देवेण समाणुण को विदिट्छु ।
घत्ता - सुर किंकर दासिउ अच्छरउ सुरवइ घरि वावारि जहिं । तिर्येण कुटुंब परमेसरहो सिरिविलासु किं भणमि तहिं ॥३॥
३
२. १. Bजिनु । २. MBP अनंतसत्तु । ३. MBP णिस्सेयं । ४. MBP पवरु but gloss in P प्रचुरः । ५. MBP ॰विसह । ६. MBP संहणणु । ७. MBP पवलथामु but gloss in P प्रचुरतेजः बलं वा । ८. MB तह; P तहुं । ९. MB जगसारसुरूवु; P जगसारसरूउ । १०. MBP सलक्खणत्तु । ११. MB वित्त and gloss in M निर्मलहृदय: P वयणविहितं and gloss आरोपितचित्तः । १२. MBP विसेससिद्धु but gloss in P "विशेषः सिद्धः ।
३. १. MBP पुण्णयं but gloss in P सान्वयम् । २. MBP वज्जियं but gloss in P व्यपगतं । ३. M णहयलु । ४. P तहु सो । ५. MBP ण्हाणपीठु । ६. MBP कायकुंडु P ण्हाणकुंडु । ७. P वग्घु विसो । ८. M पाविट्ठ । ९. MBP तिहुयणपहुत्तु ।
[ ४.२.१
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४.३.१२]
हिन्दी अनुवाद
७३
२
जिसका मूल समता और दम है, जिसकी यम नियमरूपी शाखाएं हैं। जिससे पुण्यरूपी फलोंका उद्गम होता है, ऐसा वह जिनरूपी कल्पवृक्ष, देवोंके अमृतसे सींचा गया और पुण्यसे बढ़ता हुआ शोभित है। उनके शरीरमें नित्य निर्मलता है, और मन्दराचलको धारण करनेकी अनन्त शक्ति है; स्वेद बिन्दुओंसे रहित, प्रचुर सुरभि है; जिनका रुधिर भी हार और नीहारकी तरह गौर वर्ण है। श्रेष्ठ वज्रवृषभनाराच संहनन नामका प्रबल शक्तिवाला उनका पहला शरीरसंघटन है। जहां-जहां भी देखो वहाँ शोभानिधान, उनका दूसरा समचतुरस्र संस्थान था। जगमें श्रेष्ठ सुरूप और सुलक्षणत्व, प्रिय-हितमित वचन और एकनिष्ठ चित्त। जिनके जन्मके समयसे हो निबद्ध प्रसिद्ध दस अतिशय हैं। मानो उन्होंने पुरुषरूपके परिमाणको प्राप्त कर लिया है ( उसकी उच्चताको पा लिया है ), और विधाताके निर्माणका अभ्यास विशेष उन्हें सिद्ध हो गया है।
पत्ता-निरुपम परम जिनेन्द्रके समान भुवनतलमें कोई नहीं है, उनके लिए चन्द्रमा, दिनकर, मन्दर और समुद्रका क्या उपमान हूँ ? ॥२॥
गुणगणसे युक्त, दुर्नयोंसे रहित, जनमनको सन्तुष्ट करनेवाले जिनका वर्णन कौन कर सकता है ? जो चन्द्रमा है वह उनकी कान्तिपिण्डका विचार करता हुआ कलंकित और खण्डित हो गया। सूर्य उनके तेजसे जीता जाकर मानो आकाशमें घूमकर अस्तको प्राप्त होता है। जो समेरुपर्वत है वह उनका स्नानपीठ है, जो धरतीमण्डल है, उसे उन्होंने ग्रहण कर लिया। जो जग है, वह उनके यशके प्रसारका स्थान है; जो नभ है, वह उनके ज्ञानका प्रमाण है; जो समुद्र है, वह उनके शरीरके प्रक्षालनका कुण्ड है। जो कामदेव है, उसने डरसे अपना धनुष छोड़ दिया है। जो ऐरावत है, वह मदान्ध वाहन है। सिंह भी उनके सिंहासनसे बांध दिया गया है। कामधेनु पशु है, जिसने अपने हितके कारणको नष्ट कर दिया है, जो बाघ है, वह भी पापी जीव है, जो कल्पवृक्ष है वह भी काष्ठ ( कष्ट ) कहा जाता है । देवके समान कोई भी दिखाई नहीं दिया।
घत्ता-जहाँ देव, अनुचर, अप्सराएँ, दासियां और इन्द्र घरमें काम करनेवाले हैं, और त्रिभुवन ही परमेश्वरका कुटुम्ब है, वहां मैं उनके विलासका क्या वर्णन करूं ? ॥३॥
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महापुराण
[४.४.१
जंभेट्टिया-सेसवलीलिया कीलणसीलिया।
पडणा दाविया केण ण भाविया ॥१॥ पविरइयविविहकोलावियार समयं रमति सुरवरकुमार। तणुतेओहामियतरणिबिंबु घग्घरमालालंकियणियंबु । धूलीधूसरु ववगयकडिल्लु सहजायकविलकोंतलज डिल्लु । णिवरमणिहिं लइउ महायरेण अमरिंदाणियहिं करकरेण । णिजइ चिरसंचियसुकयरयणु जेण जि अवलोइउ मुंद्धवयणु । सो तहिं जि णिबद्धउ केम ठाइ णवकमलालुद्धउ भमरु णाइ । केण वि पहसाविउ हंसगामि केण वि बोल्लाविउ भव्वसामि । केण वि काई वि खेलँणउं दिण्णु . कइ कीरु मोरु अवरु वि रवण्णु । गिव्वाणु को वि हुउ तंबचूलु। कुवि वरतुरंगु कु वि दिर्बु पीलु । कु वि मेसु महिसु मुयबलमहल्लु कुवि अप्फोडइ होएवि मल्लु । सोवंतउ कु वि सुइहारएण परियंदेई अम्माहीरएण । घत्ता-होहल्लेरु जो जो सुहं सुअहिं पई पणवंतउ भूयगणु ।
णंदइ रिज्झइ दुक्कियमलेण कासु वि मलिणु ण होइ मणु ॥४॥
केण विमो अवदिन्छुपा
जंभेट्टिया-धूलीधूसरो कडिकिंकिणिसरो।
णिरुवमलीला कीलइ बालउ ॥१॥ रंगंतु संतु जं कि पि धरइ इंदु वि ण हु तं थामेण हरइ । धरणिंदु वे चंदु व संवरेवि लहुयारी हत्थंगुलि धरेवि । बलु जोक्खइ को जि जिणेसरासु कंपावियमेइणिमहिहरासु । सो णीसासेण य जाइ तासु णहु लंघेवइ किर सत्ति कासु । पुणु चूलार्करणिज्जइ कयम्मि उम्मिल्लइ भल्लइ णववयम्मि । संपुण्णचंदमंडलमुहेण
मरुएविमहासइतणुरुहेण । देवंगंबरवरणिवसणेण
घोलंतविविहमणिभूसणेण । अयहेलंदोलियदिग्गएण
चलपाणिवेणुदंडग्गएण। हउ कंदुउ गयणे समुल्ललंतु णं दीसइ सयमहघरहु जंतु । णिम्मुक्कजीउ णिहिट्ठमग्गु
गुणिसंगे को णउ लहइ सग्गु । ४. १. MBP लंबियं । २. P चिरु । ३. MBP सुद्धवयणु । ४. M जेम । ५. MBP भसलु । ६. M
हंसगमणि । ७. MB खेल्लणउं । ८. MBP दिव्वु पीलु । ९. MBP महिसु मेसु । १०. B omits
this foot । ११. P परिइंदइ । १२. MB हुल्लरु । १३. M जो हो; BP होहो । ५. १. MBP तं ण हु । २. P वि चंदु वि। ३. MBP जो जि । ४. MBP करणुज्जइ। ५. MBP
देवंगवत्थवरं । ६. MBP भुयबलअन्दोलिय', but T हेला अनायासम् । ७. MBP दंडुग्गएण । ८. M गुणसंगें। ९. B लहउ ।
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४.५.१२]
हिन्दी अनुवाद
.
शैशवकी क्रीडाशील जो लीलाएँ प्रभुने दिखायीं वे किसे अच्छी नहीं लगीं। विविध क्रीड़ाविलास रचनेवाले सुरवर कुमार उनके साथ खेलते हैं, जिन्होंने ( जिनने ) शरीरके तेजसे सूर्यबिम्बको पराजित कर दिया है, जिनका नितम्ब (कटि प्रदेश) धुंघरुओंकी मालासे अलंकृत है, जो कटिसूत्रसे रहित और धूल-धूसरित हैं, जो सहज उत्पन्न कपिल केशोंसे जटा-युक्त हैं, ऐसे ऋषभ बालकको, राजरानियों और देवोंकी इन्द्राणियोंने हाथोंहाथ लिया। जिसने भी उनका मुग्ध मुख देखा उसने अपने चिरसंचित पुण्यरत्नको जान लिया, और वह वहीं ( मुखकमलपर ) निबद्ध होकर नवकमलोंपर लुब्ध भ्रमरकी भाँति रह गया। किसीने उस हंसगामीको हंसाया, किसीने उन्हें भव्य स्वामी कहा। किसीने उन्हें कोई खिलोना दिया-कपि, कीर, मोर और कोई दूसरा सुन्दर खिलौना। कोई देव मुर्गा बन गया, कोई श्रेष्ठ अश्व और कोई दिव्य गज। कोई मेष और महिष । कोई भुजबलमें श्रेष्ठ मल्ल होकर ताल ठोकता है, सोते हुए बालकको कोई कानोंको मधुर लगनेवाली लोरी गाकर झुलाता है।
घत्ता-हो-हो, तुम्हारी जय हो, सुखसे सोओ, तुम्हें प्रणाम करता हुआ भूतगण प्रसन्न रहता है, ऋद्धि प्राप्त करता है, और पापके मलसे किसीका भी मन मलिन नहीं होता ।।४॥
धूलसे धूसरित, कटिमें किंकिणियोंका स्वरवाला और अनुपम लीलावाला बालक क्रीड़ा करता है, चलते-चलते जो कुछ भी पकड़ लेता है, उसे इन्द्र भी अपनी पूरी शक्तिसे नहीं छुड़ा पाता। उनकी छोटी-सी अंगुली पकड़नेके लिए धरणेन्द्र और चन्द्र भी समर्थ नहीं हो पाते। मेदिनी और महीधरको कंपानेवाले जिनेश्वरके बलका कौन आकलन कर सकता है ? वह उनके निश्वाससे ही उड़ जाता है, आकाशको लांघनेको शक्ति किसके पास है ? फिर चूडाकर्म हो जानेपर भली नववय प्रकट होनेपर सम्पूर्ण चन्द्रमण्डलके समान मुखवाले, मरुदेवी महासतीके पुत्र श्रेठ, देवांग वस्त्र धारण करनेवाले, चंचल विविध आभूषणोंसे युक्त, बालकके द्वारा भुजक्रीड़ासे दिग्गजको हिलानेवाले, चंचल हाथसे वेणुके अग्रभागसे आहत गेंद आकाशमें उछलती हुई ऐसी दिखाई देती है, मानो देवेन्द्रके घर जा रही हो। जीव रहित, परन्तु निर्दिष्ट मार्गवाला कोन
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१०
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विडंतर संचारेवि णेइ पहरें पहरें सो " जाइ केम
जंभेट्टिया – कंचणगोरउ परिरक्खियपर
सिरिरमणीरमणुद्दाम रंगु वरुणोवर पाय परिट्ठवंतु पणैवंति पुरंदरि दिट्टि देतु जक्खिदचभर विज्जिज्जमाणु फणिदरवारिय विणिरुद्धदारु णं छणससि पवरूययाय लत्थु तहिं पत्त कुलयरु भणइ एम्ब किं ण हवइ कमि कमलसंडु आसामुहि मिहिरु महामऊहु हउं पिउ तुहु सुउ इयं किमहिमाणु भाय हुं पासि को महंतु यिणे अहव जडत्त
धत्ता - पडिछंदउ पुरिसरूवकरणे णाई विहाएं संगहिउ । नवजोव्वणभावि जाम चढिउ णायणरामरेहिं महिउ ||२५||
महापुराण
समवयसहुं तं छिवहुं मि ण देइ | दिसला संमुहु सूरु जेम ।
जंभेट्टिया - पविमलवोहिणा
लद्धसमाहिणा विहुणा उत्त
मणियमयणं
कयसंसारं
अट्टणणं पयलियमुक्तं उणिबद्धं
६
धीरो' गोरउ । णिवदियप ||१||
धरणिंदुच्छंगे णिवेसियंगु । पवणामरि करपल्लव धिवंतु । वसिहि सरसु णाडउ नियंतु । समभा उत्तासिय कुसुमबाणु | आलोइयतिय सत्थाणसारु । जहिं अच्छइ पहु सिंहासनत्थु । भो णिणि णिणि देवाहिदेव । पाहाणपुंजि णावकणयपिंडु | सिप्पिउडि विमेलि मोत्तियसमूहु । भुवणत्तs किर णाणु जि पहाणु । को तुझ वि अग्ग बुद्धिमंतु । हरं भणमि किं पि धिट्ठत्तणेण ।
घत्ता - बालत्तणु दूरज्झिउ जइ वि तो वि ण णारिहि उधरि मइ । किज्जइ विवाहु सुकुमार तुह जेण पवडूढइ लोयगइ ||६||
७
मोहविरोहिणा । हयदपाहिणा ||१||
तायण जुतं । एयं वयणं ।
मोहंधारं ।
कमलपुणं । सविलिप्तं ।
अणोद्धं ।
१०. M जाय ।
६. १. MBP धीरज । २ MBP पल्लउ । ३. MB पणवंत । ४. MBP वारु । ५. MBP विमल ।
६. MBP इउ। ७. MP बुद्धिवंतु । ८. MBP पवत्तइ ।
[ ४.५.१३
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७७
४.७.८]
हिन्दी अनुवाद गुणीकी संगतिसे स्वर्ग प्राप्त नहीं करता ? गिरती हुई बालको वह चलानेके लिए ले जाता है और अपने समान वय बालकोंको छूने तक नहीं देता। प्रहार-प्रहारमें वह इस प्रकार जाता है, जिस प्रकार दिशाकी मर्यादा
पत्ता-मानो पुरुषका रूप बनानेके लिए विधाताने प्रतिबिम्ब संग्रहीत किया था। जब वह नवयौवनको प्राप्त हुए तो नाग, नर और देवोंके द्वारा पूजे गये ॥५॥
स्वर्णकी तरह गोरे, समर्थ और ज्ञानरत, प्रजाको रक्षा करनेवाले, और राजाओंके द्वारा वन्दित चरण। लक्ष्मीरूपी सुन्दरीके रमणके लिए विस्तीणं रंगभूमि, धरणेन्द्रकी गोदमें अपना शरीर रखते हुए, वरुणके ऊपर पैर स्थापित करते हुए, पवनदेवपर हथेली डालते हुए, प्रणाम करती हुई इन्द्राणीपर दृष्टि देते हुए, उवंशीका सरस नाटक देखते हुए, कुबेरके चमरोंसे हवा किये जाते हुए, समभावसे कामदेवको त्रस्त करते हुए, नागेन्द्ररूपी प्रतिहारसे अवरुद्ध द्वारवाले, और देवताओंके स्थानसारको देखनेवाले प्रभु सिंहासनपर बैठे हुए ऐसे लगते थे, मानो पूर्णचन्द्र महान् उदयाचलपर
ब कुलकर नाभिराज वहाँ आकर इस प्रकार कहते हैं-'हे देवाधिदेव सुनिए, सुनिए, क्या कीचड़में कमलसमूह नहीं होता ? क्या पत्थरोंके समूहमें नवस्वर्णपिण्ड नहीं होता? दिशाके मुखमें महान् किरणोंवाला सूर्य, विमल सीप-सम्पुटमें मोती-समूह, नहीं होता ? मैं पिता, तुम पुत्र, यह कैसा अभिमान ? तीनों लोकोंमें ज्ञान ही मुख्य है। आकाश मार्गसे बड़ा कौन है ? तुम्हारे आगे बुद्धिमान कौन है ? अपने स्नेहसे अथवा जड़तासे धृष्टतापूर्वक मैं कुछ कहता हूँ।
पत्ता-यद्यपि तुम्हारा बचपन दूर छूट गया है तब भी तुम्हारी मति स्त्रियोंके ऊपर नहीं है। हे सुकुमार, विवाह कीजिए जिससे लोककी गति बढ़ सके" ॥६॥
तब प्रबल बोधवाले, मोहके विरोधी, समाधि प्राप्त करनेवाले और मनके दपंको दूर करनेवाले प्रभु बोले, "हे तात, कामका समर्थन करनेवाले ये शब्द युक्त नहीं हैं । संसारके बढ़ानेवाले मोहान्धकारसे युक्त, हड्डियोंसे कसा हुआ, कृमिकुलसे पूर्ण, प्रगलित मूत्रवाला, मांससे लिपटा,
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७८
[४.७.९
महापुराण लालागिल्लं
रुहिरजलोल्लं। बहुमलकलुसं
धरियपुरीसं। कुच्छियगंध
णवविहरंधं । णिहासत्तं
पडइ पमत्तं । णिसि णिहोणं
मडयसमाणं । उट्ठइ मुद्धं
धणकणलुद्धं । पहसमसंतं
कारिमजतं । हिंडइ दियहे
णिवडइ विरहे। तरुणियणकए असुहरणहए। वाहिविलीण
मुक्खारीणं। पित्तपलितं
सभपसित्तं । पवणपहग्गं
माणवियंगं। 'सेवंताणं
गणवंताणं। होइ ण सोक्खं वढइ दुक्खं । पत्ता-परसंभउं वाहासयसहिउं विच्छिण्ण रयबंधयरु ।
इहँ जं सुहं लद्धउं इंदियहिं तं कह सेवइ विउसु गरु ॥७॥
जंभेट्टिया-ता कुलकारिणा णायवियारिणा। सुहहलसाहिणा
भणियं णाहिणा ॥१॥ भो भो कयसुरणरखयरसेव सञ्चउ णरजम्मु ण रम्मु देव । वंछइ सुहं मुंजइ णवर दुक्खु वेडं ढते विहडइ बुद्धिचक्खु । चुक्कइ ण कयंतहो मरणभीरु सञ्चउ जि असुइसंभउ सरीरु । सच्चर इंदियसुहं सुहु ण होइ सञ्चउ तुहुँ परलोयावलोइ। सच्चउ संसारु असारु जइ वि लइ महु उवरोहें बप्प तइ वि । कलहंसवाणि वरवयणकमलु परिणहि सपंणय पणइणिहिं जैमलु । तं णिसुणिवि जिणु णियसीसु धुणिवि थिउ हेट्ठामुहु भवियव्वु मुणिवि । चिंतइ परमेसरु अवहिवंतु णयविर्णयचारि सिरिधरिणिकंतु। अज्ज वि महु चरियावरणु कम्मु तेसट्ठिलक्खपुत्वहं अगम्मु । ता जाणिवि णियतणयंतरंगु समहिच्छियरमणीरमणसंगु । सहसा कुलणाहें पेसिएहिं रयणाहरणोहविहूसिएहिं । घत्ता-ता कच्छमहाकच्छाहिवइधूयउ धणभरभग्गियउ ।
फलपत्तफल्लपल्लवकरिहिं मंतिहिं जाइविमग्गियउ॥८॥
७. १. MB णिहामत्तं । २. MBP विदाणं and gloss in P ग्लानम् । ३. B पहसमसत्तं । ४. B
कारिमजतं । ५. MBP हरणभए । ६. MP सिंभपसित्तं; B सिंभपलित्तं । ७. MBP इय।। ८. १. M वुड्ढते; BP वुड्ढत्तें । २. MB सयणहं; P सपणहं । ३. MBP जुयलु । ४. MBP ___विणयधारि । ५. MB चरियाचरणु । ६. MBP रमणरंगु ।
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४. ८. १५
हिन्दी अनुवाद
७९
स्नायुओं बद्ध, चमसे लिपटा, लारको खानेवाला, रक्तजलसे आर्द्र, प्रचुर मलसे कलुष, मैलेको धारण करनेवाला, कुत्सित गन्धवाला, नौ प्रकारके छन्दवाला, ( यह शरीर ) निद्रामें आसक्त होकर प्रमत्तकी तरह पड़ जाता है, रातमें, सोये हुए मृतक के समान । ( सबेरे ) मूखं उठता है, धनकणसे लुब्ध । कृत्रिम यन्त्रके समान, पथके श्रमसे थका हुआ, दिनमें घूमता है । प्राणोंको हरण करनेवाली युवतियोंके विरहमें पड़ता है । रोगसे ग्रस्त, भूखसे खिन्न, पित्तसे प्रदीप्त, श्लेष्मासे युक्त, पवन से भग्न, मानव-खियोंके शरीरका सेवन करते हुए गुणवानोंको सुख नहीं होता, दुःख बढ़ता है ।
घत्ता - दूसरेसे उत्पन्न, सैकड़ों व्याधियोंसे युक्त, क्षायिक कर्मरूपी बन्धका करनेवाला जो सुख इन्द्रियोंसे प्राप्त है, विद्वान् उसका सेवन क्यों करता है ?” ||७||
८
तब न्यायका विचार करनेवाले शुभफलके वृक्ष कुलकर स्वामी ( नाभिराज ) ने कहा, "सुर, नर और विद्याधरोंने जिनकी सेवा की है ऐसे हे देव, यह सच है कि मनुष्य जन्म सुन्दर नहीं है, वह सुख चाहता है, परन्तु दुःख भोगता है । बड़े होनेपर बुद्धिरूपी आँख चली जाती है, मौतसे डरता है, परन्तु यमसे नहीं चूकता। सचमुच मनुष्य शरीर अपवित्रतासे जन्मा है । सचमुच इन्द्रियसुख सुख नहीं होता । सचमुच तुम परलोकमें सुखकी इच्छामें कुशल हो । सचमुच यद्यपि संसार असार है तब भी हे सुभट, मेरे अनुरोधसे सुन्दर हंसकी तरह वाणीवाली श्रेष्ठ कमलमुखी दो प्रणयिनियोंसे प्रणयपूर्वक विवाह कर लो ।" यह सुनकर ऋषभजिन अपना सिर पीटते हुए और होनहारका विचार कर नीचा मुख करके स्थित हो गये । अवधिज्ञानी नय-विनयके विचारक लक्ष्मीरूपी गृहिणी कान्त परमेश्वर अपने मनमें सोचते हैं - " आज भी मुझमें चारित्रावरण कर्म है, जो तेरह लाख पूर्व तक अलंघ्य है ।" तब अपने पुत्रके अन्तरंगको, यह जानकर कि वह रमणियोंसे रमण करनेका इच्छुक है, कुलकर नाभिराजके द्वारा प्रेषित और रत्नाभूषणसे विभूषित
घत्ता - फल, पत्र, फूल और पल्लव हाथमें लिये हुए मन्त्रियोंने कच्छ और महाकच्छ राजाओंसे उनकी स्तनभारसे नम्र कन्याएँ मांगी ||८||
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८०
जंभेट्टिया - कयमहिराहहो दिज्ज सवलयं
ता कच्छमहाकच्छाहिवेहिं दिण्णउ णाहेयहु सुंदरी उ पारद्धहु परमेसहु विवाहु
जंभेट्टिया - भम्मपसाहिउ संझाउ
महापुराण
९
कत्थइ रुपयभित्तिर्हि सुहाइ कत्थइ विफलिहुज्जलु भूमिरंगु कत्थ व मुत्ताहलदिण्णछाउ कत्थ वि हरियाणमणिवरि अहिणवदुमपल्लवतोरणेहिं पवणुधुयणहयलघुलियकेउ पाडहियक रंगु लिणिहसणेण पडहुल्लड कुडुबें छित्तु तेम
तिहुयणणाहहो । कण्णाजुयलयं ॥१॥
कुसुमंज लहर लोयवाल कुंअरहि करि अंगुत्थलउ छूदु मुगुमियभमियचलमहुयरोहु माणिकमुकझुंबुकपुरिउ चंदोवचीणपट्टेहिं छइउ घत्ता - अमलिंदणीलमणिपंतियहिं णिविडकरोलिहिं भूसियउ । णं तिमिरहु रवियरतासियहो सरेणु णिवासु पयासियउ ||९||
घरु जाइवि सिरपेणवियपएहि । कामालवालरुह वेल्लरीड । आयउ सुरयणु हरिकरिविवाहु | हि बंधव पुणर्मेणोहराल । पहिलउ पेमंकुरु णं विरूतु । कर मंडर विविदुवारसोहु । णवसायकुंभखंभेहिं धरिउ । महिदेविइ णावइ मउडु लइउ ।
१०
विद्दुमसोहि । णं महिमोगउ ||१|| सरयग्भखंड णिम्मविउ णाई ।
गंगतरंगु पवित्तियंगु । णं णक्खत्तं चि गयणभाउ । आहंडलधणुमंडलु व दिडु । णावइ वसंतु माणिउ वणेहिं । णरणिय तूर मंगलणिणाउ । देककुंदकुंद कयणीसणेण । झं धोत्ति दो त्ति र हुयउ जेम ।
घत्ता - भंभाभेरीसरसंखुहिउ पहु पुण्णाणिलेण चलिउ । आपणुतहु मंडव तले णीसेसु वि तिहुयणु मिलिउ ॥१०॥
९.
१. Pपणमियं । २. K ° वेल्लरीउ । ३. MBP कय: MP कुसुमंजलियर । ४. MBP मणोरहाल । ५. MP कुवरिहि; B कुवरेहि । ६. MBP सरणं ।
१०. १. M संझसमेहउ । २. MBP महि आगउ । ३. MB ' तरंगपवित्तियं । ४. MBP हरियारुणु । ५. MBP दकुकुंदिकुं । ६. MBPT कुडवें ।
[ ४. ९. १
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४. १०.१२]
हिन्दी अनुवाद
"भूमिको शोभा बढ़ानेवाले त्रिभुवननाथको कंगन सहित अपनी दोनों कन्याएं दो।" तब कच्छ और महाकच्छ राजाओंने घर जाकर, सिरसे चरणोंमें प्रमाण करते हुए, नाभेय (ऋषभ) को कामकी आलवाल ( क्यारी ) में उत्पन्न होनेवाली लताओंके समान वे सुन्दरियां दे दीं। परमेश्वरका विवाह प्रारम्भ हुआ। अश्व, गज और पक्षियोंके वाहनवाला सुरगण विवाहमें आया । कुसुमांजलि लिये हुए लोकपाल (विवाहमें ) आये। पुण्यसे मनोहर सुधी बान्धवजन आये। कुमारियोंके हाथमें अंगूठियां पहना दी गयीं, मानो पहला प्रेमांकुर फूटा हो। जिसमें गुनगुनाता हुआ चंचल भ्रमरसमूह घूम रहा है, और जिसमें विविध द्वारोंसे शोभा है, ऐसा मण्डप बनाया गया, माणिक्य और मोतियोंके गुच्छोंसे विस्फुरित, नव स्वर्णस्तम्भोंपर आधारित । चन्द्र चीनांशुकसे आच्छादित मानो धरतीरूपी देवीने मुकुट बांध लिया हो।
__ पत्ता-सघन किरणोंवाली, स्वच्छ इन्द्रनील मणियोंकी पंक्तियोंसे अलंकृत वह मण्डप ऐसा जान पड़ रहा था, मानो रविकिरणोंसे त्रस्त अन्धकारके लिए शरण-स्थल बना दिया गया हो ॥९॥
स्वर्णसे प्रसाधित विद्रुमसे शोभित वह ऐसा लगता है जैसे भूमिगत सन्ध्यामेघ हो। कहीं चाँदीकी दीवालोंसे ऐसा लगता है जैसे शरद्के मेघ निर्मित कर दिये गये हों, कहीं स्फटिक मणियोंसे उज्ज्वल क्रीड़ाभूमि है, मानो पवित्र अंगवाली गंगाकी तरंग हो, कहीं मोतियों द्वारा की गयी कान्ति है, मानो नक्षत्रोंसे युक्त आकाश-भाग हो। कहींपर हरे लाल मणियोंसे वरिष्ठ. वह इन्द्रधनुष मण्डलके समान है । अभिनव वृक्षोंके पल्लव-तोरणोंसे ऐसा लगता है कि वनोंने वसन्तका उत्सव मनाया हो। हवासे उड़ती हुई पताकाएं आकाशतलमें व्याप्त हैं, मनुष्योंके द्वारा आहत तूर्योंकी मंगलध्वनि हो रही है, पटहवादककी अंगुलीके ताडन, दक कुन्द कुन्दकके शब्द और डण्डेसे पटह इस प्रकार ताडित हुआ कि जिससे झंधोत्ति दोत्ति शब्द हुआ।
घत्ता-भंभा और भेरियोंके शब्दोंसे क्षुब्ध प्रभु पुण्यरूपी पवनसे प्रेरित होकर चले। अशेष त्रिभुवन आकर उस मण्डपके नीचे मिल गया ॥१०॥
११
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१०
१०
८२
जंभेट्टिया - हे वइ सुहइउ रसइ मुइंगउ
महापुराण
११
दं दं दं दं टिविलाइ उत्तु अणुहुंजिउ जं भवैसइ भमंतु संसार जि वीणाणिकलत्तु वहुछिद्दवंसु जं विधु जेण किं मद्दलु जो भोयणउ लहइ काहलवयणई वित्थारियाई आऊरिय णीसासेण संख कंसालाई तालई सलसलंति आलग्गदोरेंदें टुल्लयाई घत्ता - संणद्धई पहरपडिच्छिरई आउज्जई गज्जंति हि । जिणणाहहु घारे रइरंगि हुए मयणराय सेण्णाई जिह ||११||
करडासद्दउ । इसइ अणंगउ ||१||
जिणु भणइ हउं मि देण भुत्तु । भास तं तं तं भणंतु । मणि संजोयें वल्लेहु कलत्तु । तं कह णाई महुरे रवेण । सो परु वि परस्स तलप्प सहइ । मुहपवणेोसारियाई । बहिरंध मूय पंगु वि असंख । विहडेपणु मिहुणा इव मिलंति । णं तूरिय णरतरुफुल्लयाई ।
जंभेट्टिया- - का विणियाणणं मंडई वहुवरं
१२
का व सहीयणं । कवि हु मंदिरं ॥ १॥ रणारीहिं मि पंकयकराहं । चामरु जि पडउ संजणियमाणु । संणिहियउ कलसचउक्कु धवलु ।
तुजसंग मुएइ । गोरंगइ पाणिउ धावमाणु । णावs चामीयररसु गलंतु । आहरणई ससहर रुइहियाई । दीसइ णं सुरगिरिसिहरु वियडु | लोइयमग्गे णिहियाई ताई । बद्ध कंकणु णं णेहबंधु ।
तातियसपुरंधिहिं बहुवराहं पाडियर सेलोण काईं लोणु गाइज्जइ मंगलु अवरु धवलु सो सुत्ते जि सुतिउ विहाइ तरुणिहिं उच्चीयवि कवउ न्हाणु सोइ लायों विप्रंतु सियम वत्थई परिहियाई मंदारोमालिङ लइउ मउडु देवहु देवठवणाई काई आणंदे चि सय बंधु धत्ता - भमराव लिजीयारवमुहलु मणसंखोहणेपुलइयउ || कंदप्पें रूसिवि जिणवरहो णिययसरासणु वलइयउ ||१२||
११. १. MBP हुवइ । २. MBP वुत्तु । ३. MBP भवसयभमंतु । ४. BP संजोइय । ५. MBP वल्लह कलत्तु । ६. MBP सरेण । ७. M° दोरहिं दुल्लयाई; BP दोरदिंडुल्लयाई ।
१२. १. M सलोयहु; BP सलोणहुं । २. BP उच्चाइवि । ३. MB मंदारमालउल्लइय; P मंदारयमालउ लइय । ४. MBP णच्चिय सयणबंधु । ५. MBP मणसंखोह |
[ ४. ११. १
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४. १२.१४]
हिन्दी अनुवाद
८३
डिमडिमका शब्द होने लगता है । मृदंग बजता है, कामदेव हँसता है। टिविली द-द-द-दं कहती है मानो जिन कहते हैं कि मैं भी नारीयुगलसे मुक्त हूँ। सैकड़ों भवोंमें घूमते हुए जो उन्होंने भोगा है, मानो, वही वही-वही बोलते हुए यही कहते हैं। संसार ही वीवाका शब्द है जो मनमें वल्लभ और कलत्र (पति-पत्नी) को जोड़ता है। जिस कारणसे बहछिद्र बाँसको ( बांसुरीके रूपमें ) बेधा गया है, मानो वही वह मधुर स्वरमें कह रहा है ( कि वधू ही एकमात्र रमण स्थल है)। वह मृदंग भी क्या जो भोजनक (?) (वादक) को प्राप्त होता है। वह श्रेष्ठ होते हुए भी दूसरेका करप्रहार सहता है । काहलके शब्द फैल गये हैं, मानो मुखके पवनके द्वारा वे दूर हटा दिये गये हैं। निःश्वासोंसे शंख आपूरित हो गये, असंख्य बहरे-अन्धे-मूक और पंगु भी आपूरित (धनसे सन्तुष्ट ) हो गये हैं। कंसाल और ताल सलसल करते हैं, मिथुनोंकी तरह अलग होकर फिर मिलते हैं । दरवाजोंपर लगे हुए वृत्त ऐसे मालूम होते हैं मानो मनुष्यरूपी वृक्षके फूल हों।
घत्ता-प्रहारकी प्रतिइच्छा रखनेवाले सन्नद्ध आतोद्य वाद्य इस प्रकार गरजते हैं मानो जैसे जिननाथके घर रतिरंग होनेपर कामदेवका सैन्य हो ॥११॥
१२ कोई अपने मुखको, कोई सखीजनको, कोई वधूवरोंको और कोई घरको सजाती हैं। देवोंकी इन्द्राणियों और मनुष्यनियोंने कमलकरोंवाले सुन्दर वधूवरोंके ऊपर नमक क्यों उतारा? संजनितमान चामर भी गिर पड़े। मंगल और धवल गीत गाये जाने लगे। धवल चार कलश रख दिये गये । सूत्रसे बँधे हुए वे ऐसे प्रतीत होते हैं कि जैसे निश्रुत ( श्रुतरहित = मूर्ख ) जड़के संगको नहीं छोड़ते। तरुणियोंके द्वारा उठाकर स्नान कराया गया, गोरे अंगोंपर दौड़ता हुआ और सौन्दर्यसे चमकता हुआ पानी ऐसा लगता है, मानो द्रवित स्वर्णरस हो, सफेद और सूक्ष्म वस्त्र पहना दिये गये और चन्द्रकान्तिके समान कान्तिवाले आभरण भी। मन्दारमालासे युक्त मुकुट पहना दिया गया जो मानो विशाल सुरगिरि-शिखरके समान दिखाई देता है। देवके लिए देवताओंकी स्थापना क्यों ? फिर भी लोकाचारसे वहां देवता स्थापित किये गये। स्वजन बन्धु आनन्दसे नाच उठे। स्नेहके बन्धनके प्रतीक रूपमें कंकण बांध दिया गया।
घत्ता-भ्रमरावलीकी डोरीके शब्दसे मुखर मनके क्षोभसे पुलकित कामदेवने क्रुद्ध होकर जिनवरके ऊपर अपना धनुष तान लिया ॥१२॥
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महापुराण
[४. १३.१
जंभेट्टिया-विरइयठाणउ संधियबाणउ ।
उग्गयरोमउ विलसइ कामउ ॥१॥ अमुणंतियाइ पुरिमिल्लु भाउ . हा कि रईइ पयडियउ राउ । हा वम्मह तुहुं मि णिवारिओ सि हा हे वसंत किं पेरिओ सि । किं वग्गहु लग्गहु अज्जु ईसि णिवडेसहु केइहिं वि तवहुयासि । णं गजिउ दुंदुहि भणइ एम्व किं तुज्झु वि रिउ देवाहिदेव । फणिसुरणरखयरकउच्छवेण विरसंततूरजयजयरवेण । संचल्लिउ परिणहुँ जिणकुमारु आवंतहु तहु तहिं धरिउ दारु । णं संसारहु घोसिउ णिसेहु . हा किं तुहुँ परिणहि चरमदेहु । तहि देवि णिवंधु चैवेवि चारु · भवणंति पइट्ठउ भुवणसारु । फेडिउ मुहवडु णं मेहपडलु दिट्ठउ मुहु णं छणयंदु विमलु । कंपिउ कुंअरिहिं णववरभएण करु धरिउ णाई तिलरिणकएण कच्छाहिवेण भिंगारु लेवि पालिज्जसु धवलच्छिउ भणेवि । घत्ता-जं पाणिउं छूढउं तासु करे विविहासासाहंचियउ॥
णं तेण मणालवालणिलउ मोहमहातरु सिंचियउ॥१३॥
जंभेट्टिया-कयसियसेविहे जसवइदेविहे।
वरहु अणिंदहे अवि य सुणंदहे ॥१॥ णयणेसु णयण लग्गा तिरिच्छ मच्छेहिं णाई पडिखलिय मच्छ । पियणेहाऊरिय वित्थरंति
णावइ सुइसुसिरहिं पइसरंति । चित्ताई चित्ति मिलियाई केम गयवर णइसलिलई सलिलि जेम । कमणीयकामिणीबद्धणेहि णियतणुपडिबिंबउ दइयदेहि । दिउ पडिवक्खासंकियाहिं तं कह व कह व वुज्झिउ पियाहिं । एक्केणुच्चाइय एक तरुणि
वीएण भएण दुइज घरिणि । बेण्णि वि लेप्पिणु णीसरिउ णाहु णं कप्परुक्खु वेल्लीसणाहु ।
औसीससयहिं संथुव्वमाणु वेइयमणिवट्टि जगेक्कभाणु । उक्कोइयकामरसोल्लियाहिं
आसीणउ सामउं वहुल्लियाहिं । घत्ता-वइसाणरु जासु गहेहिं सहुँ पणवइ पय महियलि घुलइ ॥
सो वरइत्तु जि कुलसंतियरु होमें धूमु जि संभवइ ॥१४॥ १३. १. MB तुहु वि णिवारिओ । २. MBPT कइयवि । ३. MBP विलसंत; K विरसंतु । ४. MBP
वारु। ५. MB चरेवि । ६. P छणइंदु । ७. MB कुवरिहिं; P कुमरिहिं । ८. MB मुणालवाल । १४. १. MB पडिबिबिउ । २. MBP आसीसएहिं । ३. M सोमें । ४. MBP संगिलइ ।
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४.१४.१३]
हिन्दी अनुवाद
जिसने मुट्ठी बांध ली है तथा बाणोंका सन्धान कर लिया है, और जिसे रोमांच हो आया है, ऐसा कामदेव विलसित है। अफसोस है कि पूर्वके भावको जानते हुए रतिने रागभावको क्यों प्रकट किया ? हे वसन्त, तुम भी निवारित कर दिये गये थे। हां, हे वसन्त, तुम क्यों प्रेरित हो रहे हो । क्यों उत्पात मचाते हो और ईश्वरके पीछे लगते हो? कभी भी तुम तपकी ज्वालामें पड़ सकते हो। मानो गरजती हुई दुन्दुभि यह कहती है कि हे देवाधिदेव, क्या तुम्हारा भी शत्रु हो सकता है ? नागों, सुरों और मनुष्योंके द्वारा किये गये उत्सव और बजते हुए तूर्यके जय-जय शब्दके साथ जिनकुमार ऋषभनाथ विवाह करनेके लिए चले। आते हुए उन्हें दरवाजेपर रोक लिया गया मानो संसारसे उन्हें मना कर दिया गया हो, कि हे चरम-शरीरी तुम क्यों विवाह करते हो ? वहां नेग (निबन्ध ) देकर और सुन्दर बात कर भुवनश्रेष्ठ वह भवनके भीतर प्रविष्ट हुए। उन्होंने मुखपट खोला, मानो मेघपटल उघाड़ दिया हो, उन्होंने मुंह देखा मानो पूर्णचन्द्र देखा हो । नव वरके भयसे कुमारियाँ कांप गयीं। स्नेहके ऋणके कारण उन्होंने उनका हाथ पकड़ लिया, कच्छके राजाने शृंगार लेकर और यह कहकर कि धवल आँखोंवाली इनका पालन करना।
घत्ता-जो उनके हाथपर पानी छोड़ा उसने विविध आशाओंरूपी शाखाओंसे सहित, और मनरूपी क्यारीमें स्थित मोहमहावृक्षको सींच दिया ॥१३॥
उसने कहा-'लक्ष्मीसे सेवित यशोवती देवी और अनिन्द्य सुनन्दा देवीका वरण करो।' उनके नेत्रोंसे तिरछे नेत्र इस प्रकार लग गये मानो जैसे मत्स्योंसे मत्स्य प्रतिस्खलित हो गये हों, प्रियके स्नेहसे भरी हुई उनकी आँखें इस प्रकार फैलती हैं जैसे कानोंके विवरोंमें प्रवेश करना चाहती हैं। चित्तोंसे चित्त इस प्रकार मिल गये जैसे गजवरसे गजवर और नदियोंके जल, पानी (समुद्र ) में मिल गये हों। सुन्दर स्त्रियोंमें जिसका स्नेह निबद्ध है ऐसे प्रियके देहमें उन्होंने अपना रूप प्रतिबिम्बित देखा। शत्रुपक्षकी आशंका रखनेवाली प्रियाओंने बड़ी कठिनाईसे उसे समझा। उन्होंने एक हाथसे एक तरुणीको उठा लिया, और दूसरेसे दूसरी तरुणीको। दोनोंको लेकर स्वामी निकले, मानो लताओंसे सहित कल्पवृक्ष हो। सैकड़ों आशीर्वादोंसे संस्तुत, विश्वके एकमात्र सूर्य, वह उत्पन्न कामरससे परिपूर्ण वधुओंके साथ बैठ गये।
पत्ता-दूसरे ग्रहोंके साथ अग्नि जिनके चरणोंपर गिरता है और धरतीपर लौटता है, वही वर कुलकी शान्ति करनेवाला है होम करनेसे तो केवल धुआं उत्पन्न होता है ॥१४॥
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महापुराण
[४.१५.१
जंभेट्टिया-मत्ताचारयं विग्घणिवारयं ।
परिरक्खियजयं तह वि हु तं कयं ॥१॥ देवासुरेहिं संगीयमाणु __ चलचामरेहिं विजिजमाणु । रमणिहिं सहुँ रमणु णिविट्ठ जाम रवि अत्थसिहरि संपत्तु ताम । रत्तउ दीसइ णं रइहि णिलउ णं वरुणासावहुघुसिणतिलउ । णं सग्गलच्छिमाणिक्कु लैलिउ रत्तुप्पलु णं णहसरहु (लिउ । णं मुक्कउ जिणगुणमुद्धएण णियरायपुंजु मयरद्धएण। अद्धद्धउ जलणिहिजलि पइटठ णं दिसिकंजरकंभयलु दिदछु। चुउ णियछविरंजियसायरंमु णं दिणसिरिणारिहि तणउ गब्मु । आहिं डिवि भुवणु अलद्धवासु
- णं गयउ रयणु रयणायरासु । लच्छीहि भरंतिहि कणयवण्णु णिच्छुट्टवि कलसु व जलि णिमण्णु । वारिहिरहल्लिमालोवणीउ णं उल्हाण जगभवणदीउ । घत्ता-पुणु संझादेवयसदिस महि रंजिवि राएं विप्फुरिय ।
कोसुं{ चीरु णं पंगुरिवि णाहविवाहई अवयरिय ॥१५॥
जंभेट्टिया-कज्जलसामलो
उडुदसणुज्जलो। पत्तउ भीयरो तमरयणीयरो॥१॥ वियलंतउ मुक्कचउत्थपहरु ते पीयउ संझारायरुहिरु। महिपंकयमयरंदु व घणेण आवंते अलिउलसंणिहेण । पुणु भुवणु तिमिरछण्णउं विहाइ रविविरहें थिउ कालउं जिणाइ। हालिद वत्थु णं परिहरेवि
थक्कउ णीलंबरु पंगुरेवि। ता उउ चंदु सुरवइदिसाइ सिरिकलसु व पइसारिउ णिसाइ। सई भवणालउ पइसंतियाइ तारादतुरउ हसंतियाइ। णं पोमाकरयलल्हसिउ पोमु णं तिहुयणसिरिलायण्णधामु । सुरउर्भवविसमसमावहारु तरुणीथणविलुलिय सेयहारु । णं अमेयविंदुसंदोहुँ रुंदु
जसवेल्लिहि केरउ णाई कंदु । माणियतारासयवत्तफंसु
णं णहसरि सुत्तउ रायहंसु । आयासरंगि ससहावगीदु णं कामएवअहिसेयवीहूं।
णं इंदहु धरियउ धवलछत्तु तद्देविइ णं दप्पणु णिहित्तु । १५. १. MBP मंतुच्चारयं । २. P णिबद्ध । ३. MBP पुलिउ । ४. MBP गलिउ । ५. MBP ... अरुणच्छवि-रंजियसारयन्भु । ६. MB णिच्छुड्ढिवि; P णिच्छुट्टिवि । ७. MBP णिवण्णु। ८. MBP
कोसुभचीरु । ९. MBP विवाहे । १६. १. MBP पत्तो। २. MBP तं। ३. M सुरवरदिसाइ। ४. B सुरतुन्भवं । ५. P अमिय ।
६. MPT °संदोइरुंदु । ७. BP जयं । ८. MB पीठु ।
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४.१६.१४]
हिन्दी अनुवाद
यद्यपि वह विघ्नोंको नष्ट करनेवाले और जगको रक्षा करनेवाले थे, फिर भी उन्होंने सीमित (मर्यादित ) आचरण किया। देवों और असुरों द्वारा जिनके गीत गाये जा रहे हैं, जिनपर चंचल चमर ढोरे जा रहे हैं ऐसे वे रमणियोंके साथ तबतक बैठे कि जबतक सूर्य अस्ताचल पहुँच गया। लाल-लाल वह ऐसा दिखाई देता है, मानो रतिका घर हो, मानो पश्चिम-दिशारूपी वधूका केशरका तिलक हो, मानो स्वर्गकी लक्ष्मीका माणिक्य गिर गया हो, मानो आकाशके सरोवरसे लाल कमल गिर गया हो, मानो जिनवरमें मुग्ध कामदेवने अपने-आप रागसमूह छोड़ दिया हो, समुद्रके जलमें प्रविष्ट सूर्यका आधा बिम्ब ऐसा मालूम हुआ है मानो दिग्गजका कुम्भस्थल हो, मानो अपने सौन्दर्यसे समुद्रके जलको रंजित करनेवाला, दिनलक्ष्मीका गर्भ च्युत हो गया हो, मानो विश्वमें घूमकर भी आवास नहीं पानेके कारण रत्न ( सूर्यरूपी रत्न) समुद्र में चला गया, मानो याद करती हुई लक्ष्मीका स्वर्ण वर्णका कलश छूटकर जलमें निमग्न हो गया हो, मानो समुद्रकी लहरोंकी लक्ष्मीके द्वारा लुप्त विश्वभवनरूपी दीप शान्त हो गया हो।
पत्ता-फिर सन्ध्यादेवताके समान धरती रागसे रंजित होकर इस प्रकार चमक उठी, .. मानो अपनी लाल साड़ी पहनकर वह स्वामीके विवाहमें आयी हो ॥१५॥
तब काजलकी तरह श्याम, नक्षत्ररूपी दांतोंसे उज्ज्वल भयंकर तमरूपी निशाचर प्राप्त हुआ। जिसने चौथे प्रहरको छोड़ दिया है, ऐसे विगलित होते हुए सन्ध्यारागरूपी रुधिरको उसी प्रकार पी लिया जिस प्रकार अलिकुलके समान काले आते हुए मेघके द्वारा धरतीरूपी कमलका पराग पी लिया जाता है। फिर अन्धकारसे आच्छन्न विश्व इस प्रकार शोभित है, जैसे सूर्यके विरहसे वह काला हो गया हो, और मानो वह अपना पीला वस्त्र छोड़कर तथा काला वस्त्र ( नीलाम्बर ) पहनकर स्थित हो । इतने में चन्द्रमाका उदय हुआ, मानो पूर्व दिशाने निशाके लिए लक्ष्मी कलशका प्रवेश कराया हो, कि जो (निशा ) ताराओंरूपी दांतोंसे हंसती हुई स्वयं (विश्वरूपी ) भवनमें प्रवेश कर रही हो । वह चन्द्र ऐसा मालूम होता है मानो लक्ष्मीके करतलसे छूटा कमल हो, मानो त्रिभुवनकी सौन्दर्य लक्ष्मीका घर हो, मानो सुरत क्रीड़ासे उत्पन्न विषम श्रमको दूर करनेवाला युवतीजनोंके स्तनतलपर हिलता हुआ स्वेदरूपी हार हो, मानो अमृतबिन्दुओंका सुन्दर समूह हो, मानो यशरूपी लताका अंकुर हो। मानो मणि तारारूपी कमलका स्पर्श हो, मानो आकाशरूपी नदीमें सोया हुआ राजहंस हो, मानो आकाशके रंगमंचपर अपने स्वभावसे युक्त कामदेवका अभिषेकपीठ हो। मानो इन्द्रके लिए रखा गया धवलछत्र हो, मानो उसकी देवी ( इन्द्राणी) के द्वारा धारण किया गया दर्पण हो।
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महापुराण
[४.१६.१५ घत्ता-वरतारातंदुल घिविवि सिरि ससि परिवद टुलु रइणिलउ । दिसिरमणिइ णिसिहि वयंसियहि णावइ दहिएं कउ तिलउ ॥१६।।
१७ जंभेट्टिया-ससहरकंतिइ दिसि पसरंतिइ।
___सोहइ लोयउ दुद्धं, व धोयउ ॥१॥ ता णिसि पेक्खणउ विलासवंतु पारद्ध, झसद्धयरिद्धि देतु। आउज्जहुँ जेण मुहेण वासु
सा पुग्विल्लीदिसमंडवासु । ताहाहिणि उत्तरैमुहणिविठु गावणु बतुंरु देवेहि दिट्छु । तहु संमुहियउ मउगाइयाउ उवइट्टउ सरसइआइयाउ । तहु दाहिणेण संठियउ सुसिरु तव्वामएसि वेणइयणियरु। इय एहउ अर्वणिणिवेसु गणित पञ्चाहारु वि सो चेव भणिउ । वजई मजिवि साहारणाइ
कम्मारवी य संमज्जणाइ। सहसा सुइसोक्खुल्लोलएण उहिक्खणु किउ हिंदोलएण । थिरवण्णछडयधाराविसेसु कउँ णञ्चणीहिं पुणु तहिं पवेसु । उठवसिरंभाणामालियाहिं
आहल्लामेणइवालियाहिं । घत्ता-आमेल्लियणवकुसुमंजलिहिं देविहिं रंगि पइट्ठियहिं ।। मोहिउ जणु मग्गणमोयणिहिं णं वम्महधणुलट्ठियहिं ॥१७॥
१८ जंभेट्टिया-अहिणयकोच्छरो । मुवैणिहियच्छरो।
पच्चइ सुरवई डोल्लइ वसुमई ॥१॥ विरइय णडेहिं णाणावियार चारी बत्तीस वि अंगहार । अण्णण्णदेहपरिठवणभिण्णु करणहं अट्ठोत्तरु सउ वि दिण्णु । चोइँह वि सीससंचालणाई भूतंडवाइं रंजियमणाई। णव गीर्वउ णयणसुहावियाउ छत्तीस वि दिहिउँ दावियाउ । अंतिमरसविरहिय जणियहाव अट्ठ वि रस सच्चेयणसहाव । एके ऊणा पण्णास भाव
अवर वि अउँव्य भावाणुभाव । फुरणइं वर्लंणइं अणिवारियाई णञ्चंतहि तहि अवयोरियाई। पुणु पत्तई वंदियपयरयाई 1°छंडणयपओएं णिग्गयाइं । मुद्धइं पेम्मंधइं रूसवंतु
णिण्णेहई मिहुणइं"तूसवंतु । तारातारावइरुइ हरंतु
"विहडियचक्कउलई मेलवंतु । ९. MP दिसरमणिइ। १७. १. M दुद्ध; BP दुद्धि । २. दिसि । ३. MBP उत्तरमुहु। ४. MBP कहव । ५. MBP किउ ।
६. B रंग। १८. १. MBPT अहिणव । २. KT भुयं । ३. MB चउदह । ४. BP गीयउ । ५. MBP दिट्टउ ।
६. MBPT भाव । ७. P अपुव्व । ८. M करणई। ९. MKT अवधारियाई। १०. MB छहुणयपओएं; PT छड्डणयपओएं। ११. MBP रूसवंतु । १२. BP विहडियचक्कउ ।
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४. १८. १२ ]
हिन्दी अनुवाद
८९
धत्ता - रतिका घर गोल-गोल चन्द्रमा ऐसा लगता है, मानो दिशारूपी नारीने श्रेष्ठ तारारूपी चावल छिटककर अपनी निशारूपी सहेलीके सिरपर दहीका टीका लगाया हो ॥१६॥
१७
दिशा में प्रवेश करते हुए, चन्द्रमाको कान्तिसे लोक ऐसा शोभित होता है, जैसे दूध से धुला हुआ हो। तब रात्रिमें विलाससे युक्त, कामदेवकी ऋद्धिको देनेवाला नाट्य प्रारम्भ हुआ । वाद्य जिस ओर रखे गये थे, वह पूर्वं दिशाका मण्डप था । उसके दायें उत्तरमें बैठे हुए तुम्बरु गायक देवोंके द्वारा देखे गये । उनके सामने कोमल शरीरवाली सरस्वती आदि बैठी हुई थीं । उनके दायें सुषिर आदि वाद्य वादक बैठे हुए थे, उनके बायीं ओर वीणावादकों का समूह था । यह इस प्रकार धरतीपर स्थानक्रम बताया गया, इसीको अन्यत्र प्रत्याहार कहा जाता है । वाद्योंकी मार्जन, सन्धारण और संमार्जन आदि कर्मारवी क्रिया कर सहसा कानोंको सुख देनेवाले हिन्दोलरागसे गान शुरू किया गया। फिर आनन्दित होती हुई उर्वशी, रम्भा, अहिल्या और मेनका आदि नर्तकियों ने स्थिरवर्णं छटक और धारासे ( त्रयताल ) युक्त प्रवेश किया।
घत्ता - जिन्होंने नवकुसुमोंकी अंजली छोड़ी है ऐसी, रंगशालामें प्रवेश करती हुईं देवियोंने कामबाणोंको छोड़ती हुईं कामदेवकी धनुषलताओंके साथ लोगों को मोहित कर लिया ||१७||
१८
अभिनय में निपुण, भुजाओंमें अप्सराओंको धारण कर इन्द्र नृत्य करता है, धरती हिल जाती है। नटने नाना प्रकारके चारी और बत्तीस अंगहारोंकी रचना की। एक दूसरेकी देह ( शरीरावयव ) की स्थापनासे विभक्त, एक सौ आठ करणों ( शरीरकी विभिन्न भंगिमाओं ) का प्रदर्शन किया । भौंहोंके संचालनसे मनको रंजित करनेवाला चौदह प्रकारका संचालन किया, तथा मनोंको रंजित करनेवाले भौंहोंके ताण्डव भी किये। नेत्रोंको सुहावनी लगनेवाली नौ ग्रीवाएँ; तथा छत्तीस दृष्टियाँ भी प्रदर्शित की गयीं । अन्तिम रस ( शान्त रस ) से रहित, हाव उत्पन्न करनेवाले सचेतन स्वरूपवाले आठों रसोंका ( प्रदर्शन ) किया गया। एक कम पचास अर्थात् उनचास (संचारी) भाव, तथा दूसरे और अपूर्वं भाव ( स्थायी भाव ) और अनुभावों का भी प्रदर्शन किया । नृत्य करती हुईं उन्होंने अनिवारित स्फुरण, बलन आदिकी अवतारणा की । फिर वन्दित पदरजको प्राप्त होती हुईं छडनक ( ताल विशेष ) के साथ चली गयीं । मुग्ध प्रेमान्धों को क्रुद्ध करता हुआ, स्नेहहीन जोड़ोंको सन्तुष्ट करता हुआ, ताराओं और चन्द्रमाको कान्तिका अपहरण करता हुआ वियुक्त चक्रवाक समूहका मेल कराता हुआ,
१२
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[४. १८.१३
महापुराण धत्ता-उट्ठिउ रविबिंबु दियहसिरिए अरुणकिरणमालाफुरिउ ॥
"उययइरि महारायहु उवरि"णवरत्तउं छत्तु व धरिउ ॥१८॥
जंभेट्टिया-ससिपायाहया दुक्खं पिव गया।
अलिरवरसणिया रुयइ व भिसिणिया ॥१॥
दंसइ पविमलं ओसंसुयजलं
तं' पसरियकरो पुसइ व तमिहरो॥२॥ णं सोहइ दीविये जंबुदीउ णहमहिसरावपुडि दिण्णु दीउ । अधुग्गमंतु णं लोयणयणु णं एंतहु सेसहु सीसरयणु । णं वाडवग्गि णहसायरासु णं दिसणिसियरिमुहमारूँगासु । णं ताहि ज़ि केरउ अहरबिंबु णं णिसिर्वहुवहि पयमग्गु तंबु । णं वासरविडवंकुरु विणित्तु णं जग करंडि पवलउ णिहित्तु । ता तहिं सोहणि संसारसारु कासु वि कडिसुत्तउ दोरु" हारु । कासु वि हयगयचेलिउ रवण्णु कासु वि धणु"धण्णु सुवण्णु अण्णु । जो जं मग्गइ तं "तासु दिण्णु काणीणदीणदालिदु छिण्णु । संमाणियाइं सुहिपरियणाई __ चोत्थइ दिणि मुक्कई कंकणाई। वित्तइ विवाहि विहवेण साहु थिउ रज्जु करंतु णएण णाहु । घत्ता-जसवइसुणंदरायाणियहिं पणएं हियवइ भावियउ ॥
"सियपुप्फयंतु सो रिसहपहु" भरहखेत्तणिवसेवियउ ।।१९।।
इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरइए महामन्वमरहाणु
मण्णिए महाकव्वे कुमारविवाहकल्लाणं णाम चउत्थओ परिच्छेओ सम्मत्तो ॥४॥
॥ संधि ॥४॥
१३. MBP उवयइरि । १४. MBP णं रत्तउ । १९. १. MBP रुवइ । २. BP पविउलं । ३. MBP ते । ४. MBP जं । ५. MBP दीवइ । ६. MBP
सरावि पुडदिण्णु । ७. MB दिसि । ८. MB मंसगासु; P°मंसु गासु । ९. MBP °वहुयहि । १०. M जगकरडंबे विद्रुमु; B जगकरंडि धवलउ; P जगि करंडि विद्रुमु । ११. MBP हारु दोरु । १२. M धणधण्णु; P धण्णु सुवष्णु । १३. M सो तासु। १४. MBP सिरिपुप्फयंतु । १५. MPP रिणहु पहु।
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४. १९.१६ ]
हिन्दी अनुवाद पत्ता-अरुण किरणमालासे स्फुरित सूर्यबिम्ब अपनी दिवसश्रीके साथ ऐसा उदित हुआ, जैसे उदयाचलरूपी महाराजपर नवरक्त छत्र रख दिया गया हो ॥१८॥
जो ( कमलिनी ) चन्द्रकी किरणों (पादों = पैरों किरणों) से आहत होकर दुःखको प्राप्त हुई थी, भ्रमरोंके शब्दोंसे गुंजित ऐसी कमलिनी जैसे रो उठती है, और अपने प्रचुर ओसरूपी आँसुओंको दिखाती है, अन्धकारका हरण करनेवाला सूर्य मानो उसके आंसुओंको पोंछता है। जम्बूद्वीपमें आलोकित वह (सूर्य) ऐसा शोभित होता है मानो आकाश और धरतीरूपी शरावपुटमें दीप रख दिया गया हो । मानो अधखुला लोकनेत्र हो, मानो आते हुए शेषनागके सिरका रत्न हो, मानो आकाशरूपी सागरकी वडवाग्नि हो, मानो दिशारूपी राक्षसीके मुंहका कौर हो, या मानो उस ( दिशारूपी राक्षसी) का अधरबिम्ब हो। मानो निशारूपी वधूका आरक्त पदमार्ग हो, मानो दिवसरूपी वृक्षका अंकुर निकल आया हो, मानो विश्वरूपी पिटारेमें प्रवाल रख दिया गया हो। ऐसे उस महोत्सवमें किसीको विश्वश्रेष्ठ कटिसूत्र, दोर (डोर ) हार, किसीको हृदयगत सुन्दर वस्त्र, किसीको धनधान्य, सुवर्ण और अन्न जिसने जो मांगा, उसे वह दिया गया। कानीनों और दीनोंका दारिद्रय दूर कर दिया गया। सुधीपरिजनोंका सम्मान किया गया। चौथे दिन कंगन छोड़ दिया गया। वैभवके साथ अच्छी तरह विवाह हो जानेपर स्वामी न्यायके साथ राज्य करने लगे।
घत्ता-यशोवती और सुनन्दा रानियोंके द्वारा प्रणय और हृदयसे चाहे गये श्वेतपुष्प ( जुही ) के समान वह ऋषभ, भरतक्षेत्रके राजाओंके द्वारा सेवित हुए ।।१९।।
इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त इस महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित तथा महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका कुमारीविवाह
कल्याण नामका चौथा परिच्छेद समाप्त हुआ ॥४॥
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संधि ५
पियमेलइ गयकालइ एक्कहिं दिणि सुहकारिणि ।। णिरुवमसइ सेंधुरंगइ णाहितणयमणहारिणि ।। ध्रुवकं ।।
रचिता-छणैसिसिरयरकिरणणिहदिहियरघरसर्यंणयलि सुत्तिया ।
पविमलसरलकमलदलवलयसुकोमलललियगत्तिया ॥१॥ जैसवइ जसेणाहियं सोहमाणाणवणलिणहंसी व णिहायमाणा। सुरवहुपयालत्तयालित्ततीरं णिवैडियदरीरंधगभीरणीरं। हरिसरहओरालिपूरियसुसाj ससिकंतपब्भारणिजित्तभाणुं । करिदसणणिभिण्णसोवण्णरायं सिविणयगयं पेच्छए सेलरायं । ससहरमलंकारभूयं णिसाए रविमवि मुहे णीहरंतं दिसाए । सयदलदलालंबिरुटत भिंगं
सरवरमसारिच्छतिगिच्छपिंगं । दसदिसि बहुप्पिच्छरंगतभंग जलखलणपक्खालियहिंदसिंग। अमरिसझसप्फालणुटुंतसहं करिमयरमालारउदं समुई। सयलमवि "आलोयए संविसंतं णियवयणपोमम्मि छोणीयलं तं । घत्ता-इय पेच्छिवि "परिहच्छिवि सुप्पहाइ सीमंतिणि ॥
"कयराहहो गय णाहहो घर" पुरंधिचूडामणि ॥१॥
GK have at the commencement of this Samdhi the following stanza :
भ्रूलीलां त्यज मुञ्च संगतकुचद्वन्द्वादिकं वक्षसा मा त्वं दर्शय चारुमध्यलतिकां तन्वनि कामाहता। मुग्धे श्रीमदनिन्द्यखण्डसुकवेर्बन्धुर्गुणैरुन्नतः
स्वप्नेऽप्येष पराङ्गानां न भरतः शौचोदधिर्वाञ्छति ॥ MBP have the same stanza, but M reads द्वन्द्वादिगर्वाक्षमा and BP read द्वन्द्वादि
गर्वक्रियां for द्वन्द्वादिकं वक्षसा and MBP read शौचाम्बुधिः for शौचोदधिः । १. १. MBP सिंधुर। २. M मयहारिणि । ३. M छणससिरयणकिरण; B°ससिरयरं । ४. MB
सयणयल । ५. MBP have before this line रमणीयलता नाम छंदो; GK have रमणीयलता। ६. M णिवडय; P णिविडिय। ७. MB ससीकंत। ८. MB °णिभिण्ण भाणुं । ९. BP° रुटुंत । १०. M°तिग्गंछ'; BP °तिगिछि । ११. B समालोवए; P मालोयए । १२. MBP परियच्छिवि । १३. M कयरायहो । १४. M घर।
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सन्धि
५
प्रियसे मिलाप करानेवाले समयके बीतनेपर एक दिन, अनुपम सती शुभकारिणी, ऋषभनाथकी अत्यन्त प्रिय, गजगामिनी, स्वच्छ कमल-समूहके समान कोमल शरीरवाली, पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान शीतल शयनतलमें, अपने यशसे अत्यधिक शोभित यशोवती इस प्रकार सो रही थी, मानो नवकमलोंपर हंसिनी सो रही हो । स्वप्नमें उसने एक शैलराज देखा, जिसके तट देवबालाओंके पैरोंके आलक्तकसे आरक्त थे, जिसकी घाटियोंके रन्ध्रोंसे गम्भीररूपसे जल गिर रहा था, जिसके शिखर सिंहों और श्वापदोंकी गर्जनाओंसे निनादित थे, अपने चन्द्रकान्त मणियोंकी आभासे जिसने सूर्यबिम्बको जीत लिया था। जिसने हाथीदांतोंसे स्वर्णरागको निस्तेज कर दिया था। (फिर उसने देखा) निशाके अलंकारभूत चन्द्रमाको, पूर्वदिशासे निकलते हुए सूर्यको, भ्रमरोंसे गूंजते हुए कमलोंसे युक्त और अद्वितीय परागसे पीले सरोवर को, जो अत्यन्त वेगशील लहरोंसे दशों दिशाओंमें चंचल है, जो जलोंके स्खलनसे गिरिशिखरोंका प्रक्षालन करनेवाला है, जिसमें अमर्षसे भरे हुए मत्स्योंका उत्फाल शब्द उठ रहा है, ऐसे मत्स्यों और मगरोंसे भयंकर समुद्रको उसने देखा । समस्त धरतीतलको अपने मुखरूपी कमलमें प्रवेश करते हुए देखा।
घत्ता-यह देखकर इन्द्राणियोंमें श्रेष्ठ वह सोमन्तिनी प्रेम करनेवाले अपने स्वामीके भवनमें सवेरे-सवेरे यह पूछनेके लिए गयो ॥१॥
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महापुराण
रचिता-पभणइ सुणसु पुरिसहरि सुरगिरि ससि रवि सरवरोयही।
मई णिसि सिविणयम्मि दिट्ठा पिययम गिलिया इमी मही ॥१॥ तं णिसुणेवि णराहिउ घोसइ चक्कवट्टि तुह तणुरुहु होसइ। मंदरेण दिद्वेण पियारउ
महिरायाहिराय गरुयारउ । ससहरेण सूहउ सोमाणणु कंतिवंतु कंतासुहमाणणु । सूरें सूरु पया। दूस
सरवरेण पयडियसिरिसंगहु । रयणायरेण सवंसपहायरु
चंडि चारु चोदहरयणायरु । महिआहार रिउ भंजेसइ
छक्खंड वि मेइणि भुंजेसइ । कइहिं मि दियहहिं होइ णिरुत्तर देवि ण चुक्कइ जं मई वुत्तउ । तो सम्बत्थसिद्धिहिहाणहु सई अहमिदु चलिउ सविमाणहु । पु०वपुण्णसंपयसंपुण्णउ
जसवइदेविहि गब्भि णिसण्णउ । घत्ता-मुवैणुब्भवि सिसुसंभवि जेहिं कयउ कालउ मुहं ।।
ते दुजण अवरु वि थण णिव डिहिंति हेट्ठामुहुः ॥२॥
१०
रचिता-सुयभरपसरमाणछेउउयरे वियलिययं वलित्तयं ।
तिहुयणवइजयंकरेहारहियं व कयं जयत्तयं ॥१॥ राएं गंब्भि थिएण ण णायउ पंडुरु तोंडु काई संजायउ। दियहि पसत्थि मुहुत्ति सुणिम्मलि णियठाणुण्णई गइ गहमंडलि। जसवइयहि वियसियपंकयमुहु णवमासहिं उप्पण्णउ तणुरुहु । ता तहिं णहि सुरदुंदुहि वजह णं संतोसें सायरु गज्जइ। दाणु देंति वारण वणि संठिय कीस ण माणुस हरिसुक्कंठिय । मेह सवंति सुगंधई सलिलई दिम्मुहाई णिरु जायई विमलई। आयासु वि दीसइ मलवजिउ णीलउ भायणु णं संमजिउ । मंदरदंडएण विथ रियउ। एकछत्तु णं कुयरहु धरियउ । तारामोत्तियदामहिं भूसिउ एहु जि राणउ सब्वहुं पासिउ। महि सई खल खलंति चउपासिहिं णं वज्जरइ महाणइघोसिहिं । घत्ता-सरणलिणहिं णं णयणहिं पइ णियंति महु रुच्चइ॥
मरुचलियहिं परिघुलियहिं वेल्लीभुयहिं पणञ्चइ ॥३॥
२. १. MBP णिसुणि । २. MBP°वरोवही । ३. M देव । ४. MBP अहिणाणहु । ५. T records
_ap सुयणुब्भवि and adds : सुयणुब्भवि इति पाठे सुजनानामुत्कर्षस्य भवः । ३. १. M छउओयर'; BP छउउयर, but gloss in P क्षामोदरे । २. MB गन्भित्थिएण; P
गभित्थई । ३. MBP तुंडु । ४. MBPK विच्छुरियउ । ५. MBP कुमरहु ।
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५. ३. १४ ]
हिन्दी अनुवाद
२.
वह बोली-हे पुरुषश्रेष्ठ, सुनिए। मैंने रात्रिमें स्वप्नमें सुमेर पर्वत, चन्द्रमा, सूर्य, सरोवर, समुद्र और निगली जाती हुई धरती को, हे स्वामी, देखा है। यह सुनकर राजा घोषणा करते हैं, "तुम्हारा चक्रवर्ती पुत्र होगा, मन्दराचलको देखनेसे प्रियकारक महान् महाराजाधिराज होगा। चन्द्रमाको देखनेसे सुभग और सौम्य मुखवाला, कान्ताका सुख माननेवाला और कान्तिसे युक्त होगा। सूर्यको देखनेसे शूरवीर और अपने प्रतापसे असह्य होगा। सरोवरको देखनेसे उसका स्पष्ट लक्ष्मीसंग्रह होगा। समुद्र देखनेसे वह अपने वंशका सूर्य होगा, प्रचण्ड सुन्दर और चौदह रत्नोंका आश्रय । पृथ्वीका अहार देखनेसे वह शत्रुका नाश करेगा और छह खण्ड धरतीका भोग करेगा। कुछ ही दिनोंमें हे देवी तुम्हारा पुत्र होगा, जो कुछ मैंने कहा है वह चूक नहीं सकता।" तब सर्वार्थसिद्धि नामक अपने विमानसे चलकर पूर्वपुण्यको सम्पत्तिसे भरपूर अहमिन्द्र स्वयं यशोवती देवीके गर्भ में आकर स्थित हो गया।
पत्ता-भुवनका उत्कर्ष है जिसमें ऐसे पुत्रका जन्म होनेपर जिन्होंने अपना मुंह काला कर लिया, ऐसे दुर्जन और स्तन अपना मुख नीचा करके गिर गये ॥२॥
पुत्रके भारके प्रसारसे क्षीण उदरकी त्रिबलि समाप्त हो गयी। मानो तीनों लोकोंको त्रिभुवनपतिकी विजयकी चिह्नरेखासे रहित कर दिया गया हो। यह नहीं जाना जा सका कि गर्भमें स्थित रागसे उसका मुख सफेद क्यों हो गया ? प्रशस्त दिन, निर्मल मुहूर्त और ग्रहोंके अपने-अपने स्थानपर स्थित होनेपर नौ माहमें यशोवतीके विकसित मुखवाला सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ। तब आकाशमें देवोंको दुन्दुभि बज उठती है मानो सन्तोषसे सागर गरजने लगता है, मानो (लोगोंके) दान देनेपर हाथी वनमें चले जाते हैं, मनुष्य हर्षसे क्यों उत्कण्ठित नहीं होते। मेघ सुगन्धित जल बरसाते हैं, दिआओंके मुख अत्यन्त निर्मल हो जाते हैं, आकाश भी मलसे रहित दिखाई देता है मानो नोले वर्तनको माजकर खूब साफ कर दिया गया हो, या मानो मन्दराचलके दण्डपर आधारित एकछत्र कुमारके ऊपर रख दिया गया है। "ताराओंके समान मोतियोंसे विभूषित यह राजा सबसे श्रेष्ठ है," मानो धरती चारों ओर महानदियोंके घोषोंसे कलकल करती हुई और दुष्टोंको हटाती हुई यही कहती है।
पत्ता-सरोवरके कमलोंरूपी नेत्रोंसे तुम्हें देखती हुई (धरती ) मुझे (कविको). अच्छी लगती है, हवाओंसे चंचल और आन्दोलित लतारूपी बाहुओंसे मानो वह नृत्य करती है ॥३॥
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महापुराण
[५.४.१
रचिता-णियगुणरयणप्पियरकरमंजरिधवलियणिवइवंसओ।
विसरिससेकयसाहिसाहासिउ वडइ रायहंसओ ॥१॥ गोमकरणचूलाकरणाइउ सव्वु वि कयउ विसेसविराइउ । जणणीजोवणफर्लंगोंछो इव विहलियलोय कप्पवच्छो इव । सुहिवयणामयबिंदुपवेसु व मित्तचित्तसंगहणणिवेसु व । गुणसंसापयासमग्गो इव
रोयसोयउज्झिउ सग्गो इव । पिउसहावसंचउ रूढो इव बंधुणेहबंधणवेढो इव । किंकरयणमँणचिंतामणि विव अरिमहिहरसिरसोदामणि विव । णिहिलणायसब्भावणिही विव हरणकरणउद्धरणविही विव । भारसोढु गरुययरे मही विव - भूरिभोयभारिल्लु अही विव । दुणिहालउ मज्झण्णरवी विव वजदेहु जंभारिपवी विव । लायण्णंबुपवाहसरो इव
विलयावंदहुँ कुसुमसरो इव । घत्ता-सिरि उरयलि महि असिदलि मुई जयसिरि जयकारिणि ।
जसु णिवसइ मुहि सरसइ कित्ति तिलोयविहारिणि ।।४।।
रचिता-गिरिसरिकलसकुलिसकमलंकुसविसझसलक्खणाहिओ।
सुरणरखयररमणिवीणारवगाइयजसपसाहिओ ॥१॥ णं सोहागपुंजु णिव्वडियउ णाई पया विहिणा घडियउ। जलिवि जलिवि उल्हाइ ण जीवइ जासु भएण णाई सिहि णीवइ । अइपमत्तु पुणरवि णासंघइ जडसंगु वि मज्जाय ण लंघइ । पालियवेलउ जसु मयरालउ जासु भएण जि थिउ जै कालउ । णायराउ खुल्लउ कीडुल्लउ
चंदु वि जायउ चंदगहिल्लउ । पक्खि पक्खि सो दीसइ भग्गउ पवणु वि गमणब्भासहु लग्गउ । इंदु वि इंधणुहु गुणिं णाणइ अज्ज वि तं तेहउ जणु जाणइ । णियकरि पहरणु कहिं मि ण दावइ विणएण जि णवंतु घर आवइ । घत्ता-अलिउलचल चुयमयजल महिहरभित्तिबियारण ।।
अविहियसर कुंचियकर जसु तसंति दिसिवारण ।।५।।
४. १. M सुकयं । २. MBP णामकरणु। ३. P चूडा। ४. MRP 'गुंछो। ५. P विहसियं ।
६. MB बुहवयणामय; P बुहणयणामयं । ७. MBP धणं । ८. P°सिरि । ९. MBP गरुययरु ।
१०. MBP भुयजुइ । ५. १. B पमुत्तु । २. MBP व । ३. MP जमु । ४. M इंदधणुहि गुण; BP गुणु । ५. MBP
दिसवारण ।
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२.१.१२]
हिन्दी अनुभव
अपने गुणरत्नसमूहकी किरणमंजरीसे राजवंशको धवलित करनेवाला और असामान्य पुण्य वृक्षकी शाखासे आश्रित वह राजहंस बड़ा होने लगा। नामकरण और चूड़ाकरण आदि उसका सब कुछ विशेष शोभाके साथ किया गया। जो माँके यौवनरूपी फलके गुच्छेके समान, विह्वल लोगोंके लिए कल्पवृक्षके समान, सुधि-वचनामृतके लिए बिन्दुप्रवेशके समान, मित्रोंके चित्तोंके संग्रहके लिए आश्रयस्थानके समान, गुणोंको प्रशंसाके लिए प्रकाशन मार्गके समान, रोग और शोकसे रहित स्वर्गके समान, पिताके स्वभाव संचयके समान, बन्धुस्नेहके बन्धनसे घिरे हुएके समान, अनुचर जनों के लिए चिन्तामणिके समान, शत्रुरूपी पर्वतोंके सिरोंके लिए गाजके समान, निखिल न्याय और सद्भावको निधिके समान, नाश, निर्माण और उद्धारमें विधाताके समान, भार सहन करनेवाली धरतीके समान, भूरिभोग (प्रचुर फन / प्रचुर भोग ) वाले नागके समान, दुदर्शनीय मध्याह्न रविके समान, इन्द्रके वज्रके समान वज्र शरीर, सौन्दर्य समुद्रके प्रवाहके समान, वनितासमूहके लिए कामदेवके समान था।
पत्ता-जिसके वक्षःस्थलपर लक्ष्मी, असिदलपर धरती, बाहुओंमें जय करनेवाली जयश्री और मुखमें सरस्वती निवास करती है और जिसकी कीर्ति तीनों लोकोंमें विहार करनेवाली है ॥४॥
जो गिरि, नदी, कलश, वज्र, कमल, अंकुश, वृषभ और मत्स्यके लक्षणोंसे अंकित है तथा जो सुरों, नरों एवं विद्याधरोंकी वनिताओंकी वीणाध्वनिमें गाया जाता है । जो यशसे प्रसाधित है। जो मानो (कसौटीपर) कसा गया सौभाग्यपुंज है, मानो जिसे प्रयाससे विधाताने गढ़ा है, जिसके भयसे आग जल-जलकर अंगार होती है, जीवित नहीं रहती, और अन्तमें शान्त हो जाती है। समुद्र यद्यपि प्रमादी है, फिर भी ( जिसके डरसे ) स्थिर नहीं रहता, जड़का (जल, जड़) संग करनेपर भी मर्यादाका उल्लंघन नहीं करता, जिस भरतकी मर्यादाका समुद्र पालन करता है, जिसके भयसे यम स्थिर हो गया है, जिसके लिए नागराज एक क्षुद्र कीड़ा है। चन्द्रमा भी जिसके लिए मयूरचन्द्रके समान है । वह (चन्द्रमा) पक्ष-पक्षमें क्षीण होता दिखाई देता है; और पवन भी जिसके भयसे चलनेका अभ्यास करने लगा है। इन्द्र भी अपने धनुषपर डोरी नहीं चढ़ाता, और आज भी लोग उसी रूपमें जानते हैं। वह अपने हाथमें शस्त्र कभी नहीं दिखाता । वह विनयसे विनम्र होकर घर आता है।
घत्ता-जो अलिकुलसे चंचल हैं, जिनसे मदजल चू रहा है, जो पहाड़ोंकी दीवारोंका विदारण करनेवाले हैं, जो गर्जना नहीं कर रहे हैं, जिनकी सूड़ें टेढ़ी हैं, ऐसे दिग्गज जिससे त्रस्त रहते हैं ॥५॥
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महापुराण
रचिता-करिसिरदलियरत्तलित्तुग्गयमोत्तियखइयकेसरो।
सिसुससिकुडिलचडुलविजुज्जलदाढाजुयलभासुरो ॥१॥ एहओ वि हरि विप्फुरियाणणु जासु भएण व सेवइ काणणु । णवजोव्वणि चडंतु परमेसरु सुरवरकरिकरथिरदीहरकरु । सो सिक्खविउ सपिउणा सव्वई कालक्खरइं गणियगंधव्वई। णाडयाइं बहुभावरसत्थई
णरणारिहि लक्खणई पसत्थई। तब्भूसायरणाइं विचित्तई वम्महचरियई हियवहुचित्तई। गंधपउत्तिउ रयणपरिक्खउ मंत तंत वरहयगयसिक्खउ । कोंतगयासिघायसंताणई
चक्कचावपहरणविण्णाणइं । देसदेसिभासालिविठाणई कइवायालंकारविहाणई। जोइसछंदतकवायरणइं
मल्लगाहजुज्झइं कयकरणइं। वेणिघंटोसहि वित्थारु वि बुज्झिउ सव्वलोयवावारु वि । चित्तलेप्पसिलवरतरुकम्मई एवमाइ अवराई मि रम्मई। घत्ता-पयणयसुरु तिहुयणगुरु जासु सई जि वक्खाणइ ।
अइविमलउ सो सयलउ कलउ कि ण परियाणइ ॥६।।
रचिता-पुणरवि णियसुयस्स सो णिवरिसि हवसेण भासए ।
गिरिथणिधरणितरुणिपरिपालणविहिविसयं पयासए ॥१॥ पभणइ पहु भो पढमणरेसर .. अत्थसत्थु णिसुणहि भरहेसर । ववसाएं सुसहाएं संपय
होइ णिरुत्तउ पयपाडियपय । अलसत्ते खलसंगें णासइ
सा मइ एह तुह सुय सीसइ । असहायहु जगि किं पि ण सिज्झइ हत्थि वे सुत्तसमूहें बज्झइ। जाइ णाव मारुइण विलग्गे जलइ जलणु तासु जि संसर्गे। मंति सूरु दुहसहु सुहि सहयरु तासु करेजसु कजि महायरु । जगि कज्जु जि मित्तारिहि कारणु तेण ण किजइ तहिं अवहेरणु । तं पि बुद्धिदारेण समुन्भइ बुद्धि वि वुड्डहं सेवइ लब्भइ । घत्ता-सिरपैलियहिं मुहवलियहिं मुँइ जराइ णिब्भच्छिय ।।
जे सत्थइ कम्मत्थइ कुसला ते मई इच्छिय ॥७॥
६. १. MBP णरणारी । २. P हयवरगय । ३. B वेज्ज । ४. MBP सयल । ७. १. MBP णिसुणिहि । २. MBP हत्थि वि। ३. MB सुहदुहसहु; P दुहसुहसहु । ४. MBP बुद्धि
चारेण । ५. B बुहसेवइ । ६. MP सिरि पलियहिं; B सरे पलियहिं । ७. MBP मुय ।
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५.७.१२]
हिन्दी अनुवाद
६.
हाथियोंके सिरोंसे दलित तथा रक्तसे लिप्त निकले हुए मोतियोंसे जिसको अयाल विजड़ित है, जो बालचन्द्रके समान कुटिल और चंचल बिजलोके समान उज्ज्वल अपनी दोनों दाढ़ोंसे भास्वर है, ऐसा तमतमाते मुखवाला सिंह भी, जिसके भयसे जंगलका सेवन करता है । ऐरावतकी सँड़के समान जिसके बाहु दोघं और स्थिर हैं ऐसा परमेश्वर भरत नवयौवनको प्राप्त होने लगा। उसके पिताने उसे सब सिखाया। काले ( स्याहीसे लिखित अक्षर) अक्षर गवित गन्धर्व विद्या, विविध भाव और रससे परिपूर्ण नाटक, नर-नारियोंके प्रशस्त लक्षण, उनकी भूषाओंके निर्माण, स्त्रियोंके हृदयको चुरानेवाले कामशास्त्रके चरित, गन्धको प्रयुक्तियां, रत्नपरीक्षा, मन्त्र-तन्त्र, श्रेष्ठ अश्व और गजकी शिक्षाएं, कोंत, गदा और तलवारोंके आघातोंकी परम्परा, चक्र-धनुष-प्रहरणोंके विज्ञान, देश-देशीभाषा-लिपि-स्थान, कवि वागलंकार-विधान, ज्योतिष-छन्द-तर्क और व्याकरण, आवर्तन-निवर्तन आदि करणों (पेचों) से युक्त मल्लग्राह युद्ध, वैद्यक-निघंटु, औषधियोंका विस्तार, और सर्वलोक-व्यवहार भी उसने समझ लिये। चित्रलेप, मूर्ति और काष्ठकला आदि दूसरे-दूसरे सुन्दर कम सीख लिये ।
पत्ता-जिसके चरणोंमें देव नत हैं ऐसे त्रिभुवनगुरु (ऋषभ जिन ) जिसे स्वयं शिक्षा देते हैं अत्यन्त विमल उन समस्त कलाओंको वह भरत क्यों नहीं जानेगा ।।६।।
फिर वह राजर्षि ऋषभ स्नेहके वशीभूत होकर अपने पुत्रसे कहते हैं और उसे, गिरि हैं स्तन जिसके, ऐसी धरतीरूपी तरुणीके पालन करनेको विधि और विषय बताते हैं। प्रभु कहते हैं, "हे प्रथम नरेश्वर भरतेश्वर, तुम अर्थशास्त्र सुनो। व्यवसाय और सहायक होनेसे सम्पत्ति होती है। प्रजा चरणोंमें नत रहती है। आलस्य और दुष्टकी संगतिसे वह नष्ट हो जाती है । हे पुत्र, तुम्हें मैं यह उपदेश देता हूँ। असहाय लोगोंका विश्वमें कुछ भी सिद्ध नहीं होता। धागोंके समूहसे हाथी भी बांध लिया जाता है। हवासे लगकर नाव चली जाती है, और उसी हवाके संसर्गसे आग जल उठती है, मन्त्री यदि शूर, असह्य सहन करनेवाला पण्डित और मित्र है, तो कार्यमें उसका महान् आदर करना चाहिए, उसमें उसके साथ उपेक्षाका बर्ताव नहीं करना चाहिए, क्योंकि दुनियामें शत्रु और मित्र होनेका कारण कार्य ही है। कार्य भी बुद्धिके द्वारा सम्भव और उत्पन्न होता है, बुद्धि भी वृद्धोंकी सेवा करनेसे मिलती है1. पत्ता-जिनके सिर सफेद हो चुके हैं, जिनके मुख टेढ़े हैं, जो जरासे निन्दित हैं उन्हें छोड़ो। जो स्वस्थ हैं, कर्म करनेमें कुशल हैं उन्हें मैं चाहता हूँ ॥७॥
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१०
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रचिता - नियमइणयणविहवपविलोइयपरणर छिद्दचारिणो । विरइयविसालदोसेसु पिहणय राहयारिणो ॥ १ ॥ मंतचारणिम्महियाहंडल |
.
बुद्धिलातोलियमहिमंडल बुड्ढा जेहिं ण सेविय भत्तिइ ते सुंदर जाण दुवियड्ढा होंति अबुह वुहसंगें बुद्धा बुहसेवाए बुद्धि उप्पज्जइ सुस्सूसा सवणु वि संधारणु तिहि होइ मंतहु संबंधिणि णि सुणिक्खा उस मंडणधय ताइ मंतु अवसे णिफॅज्जइ घत्ता-आढत्तइ कम्मत्तइ पढमुवाउ चिंतेवउ ॥ रसत्तिवि धणजुत्ति वि देसु कालु जाणेबउ ||८||
सुयद्धरण दुट्टणिग्गहणु वि जणवयदोससमणुजा सुच्चाइ किसि पसुपालणु सहुं वाणिजें चडवण्णासमु धम्मु तइत्तिय ते अपणु पईं पुरउ करेवा ता कम्मु जगसंतिपयास उ अय तिवरिस जव तेहिं हुणेवड जं जि पढेव तं जि करेवड
९
रचिता—अवि य सहरिस पुरिस देढपोरिस सुकयावायरक्खणं । अविरलमिलिय विउलफलसिद्धि वि जाणसु मंतलक्खणं ॥१॥ एं छट्ठासंगहणु वि । दंडणी सा पुत्त वुञ्चइ । वत्त भणिज्जइ महिवइपुजें । अज्ज व सुंदर होंति ण सोत्तिय । हीण दीण दाणेण भरेवा । जयभूय हयणसंतोसउ । जीवदयaणु भणेवउ । असि ण धरेवर दाणु लएवउ । तिण सुत्तु सरीरि ठेवैवउ । अण्णारि मई ताहं ण उत्ती । चिहोमु णिश्चातिहिभोयणु । ते खाहिंति जीउ मारिवि जड ।
णणणचरित् उ बंभचेरु अहवा कुलउत्ती चिण्हाणु जिणपडिमापूयणु इय मज्जाय विलंघवि लंपड
चंति कयाइ वि यत्तिइ । कुलबलसिरिमयजलणें दड्ढा । चंपयवासें तिले वि सुगंधा । सा सत्तविह कुमार कहिज्जइ । मो गणु णा णिच्छयमणु । सा वि वि जिगचिंतामणि । गुरुयणगय सुयगय नियमणगय । सो पंचविहु कहति महामइ ।
घत्ता- - सुयसंगहु करुणावहु दाणु घरणिजणधारणु ॥ इय इट्ठउ मई सिट्ठउ खत्तियकम्मवियारणु ॥९॥
८. १. MBP बहु । २. MBP तिल व । ३. MBP कहति । ४. MBP णिप्पज्जइ ।
९.
१. MBP दढपउरिस । २. MBP महगणं । ३. K वं षि पढ़ेंबड जंजि करेवउ । ४. MBP दंसणु णाणु चरितु । ५. MBP घरेवरं ।
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५.९.१६]
हिन्दी अनुवाद
अपनी बुद्धिरूपी नेत्रोंके वैभवसे, शत्रुपक्षके छिद्रोंको देखनेवाले, स्वामीको शोभा बढ़ानेवाले चरपुरुष उसके द्वारा किये गये विशाल दोषोंको ढकनेवाले होते हैं। अपनी बुद्धिरूपी तुलापर समस्त ब्रह्माण्डको तौलनेवाले तथा मन्त्रप्रयोगसे इन्द्रको पराजित करनेवाले वृद्धोंकी जिसने सेवा नहीं, की है, ऐसे उन कुलमूर्खाको कुल, बल, श्री और मदको ज्वालामें दग्ध समझो। पण्डितोंकी संगतिसे मखं भी पण्डित हो जाते हैं. उसी प्रकार जिस प्रकार 'चम्पा' की गन्धसे तिल सगन्धित हो जाते हैं। पण्डितोंकी सेवासे बुद्धि उत्पन्न होती है, यह सेवा सात प्रकारकी कही जाती हैशुश्रूषा, श्रवण, सन्धारण, मोदन, ग्रहण, ज्ञान और निश्चय मन ( तर्क-वितर्ककी शक्ति)। मन्त्रसे सम्बन्धित बुद्धि तीन प्रकारकी होती है, और जो तीनों लोकोंमें चिन्तामणि कही जाती है । हे इक्ष्वाकु कुलके मण्डन-ध्वज, सुनो-एक बुद्धि गुरुजनसे प्राप्त होती है, दूसरी बुद्धि शास्त्रसे और तीसरी अपने मनसे उत्पन्न होती है। इससे मन्त्र अवश्य सिद्ध होता है। महामति मन्त्रको पांच प्रकारका बताते हैं।
पत्ता-सुनो, कार्यको प्रारम्भ करनेपर पहले कार्यको चिन्ता करनी चाहिए । मनुष्यशक्ति, धन, युक्ति तथा देश-कालको जानना चाहिए ॥८
और भी, हे दृढ़पौरुष पुरुष, जिसमें अपायका रक्षण किया गया है तथा अविरल रूपसे विपुल फलकी प्राप्ति हो, तुम ऐसे मन्त्र लक्षणको जानो। सुजनका उद्धार, दुष्टोंका निग्रह, न्यायसे करके रूपमें छठे भागको ग्रहण करना, जनपदके दोषोंका शमन करना. इनका जो विचार करती है, हे पुत्र वह दण्डनीति कही जाती है । वाणिज्यके साथ कृषि और पशुपालनको राजाओंके द्वारा पूज्यने वार्ता कहा है। चतुर्वणं आश्रम और धर्म त्रयीविद्या है। श्रोत्रिय ( ब्राह्मण ) आज भी सुन्दर नहीं होते। उन्हें तुम अपनेसे आगे रखना, दीन-हीनोंको दानसे सन्तुष्ट करना। उनका काम जगमें शान्तिका प्रकाशन करना और भूतग्रहोंको शान्ति करना है। अज तीन वर्षके जोको कहते हैं उनसे यज्ञ करना चाहिए, लोगोंमें जीवदयाका प्रचार करना चाहिए। जो पढ़ा जाये उसीको किया जाना चाहिए। उन्हें दर्शन, ज्ञान और चरित्र कहना चाहिए। तीन डोरोंका जनेऊ शरीरपर धारण करना चाहिए। ब्रह्मचर्यसे रहना चाहिए. अथवा किसी कल-पत्रीसे विवाह का चाहिए, उनके लिए मैंने दूसरी स्त्री नहीं बतायी। नित्य स्नान, जिनप्रतिमाका पूजन, नित्य होम करना, नित्यप्रति अतिथिको भोजन देना । लेकिन वे लम्पट और जड़ इस मर्यादाका उल्लंघन कर जीव मारकर खायेंगे।
घन्ता-श्रुतसंग्रह, करुणपथ, दान और धरतीके लोगोंका पालन करना, इस प्रकार मैंने क्षत्रिय कर्मकी विचारणा की ॥९॥
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महापुराण..
१०
रचिता - वियलियमलमईहिं मंतीहिं कुमग्गगयं परिक्खियं । पेसुसम मिणमसेसमहिवलयमहो णरणाह रक्खियं ॥१॥
पढ़ेंणहवणदाणई वाणिज्जइं सुद्द णु वत्ताद्वाणु वि अवरु कुसीलकारुजीवित्तणु कम्मरहिउ जगि भदु ण मुंजइ मंतिठाणि कुबुद्धि चत्ता अंतेउरि पमत्त कामाउर ण थविज्जति काई वित्थारें पडवणेण तासु मइपसरणु सहवासेण सीलु जाणेवउ जाणेवा राएं पेसिवि चर सामभेयधणदंडस मागठ घत्ता - णियकज्जु वि परकज्जु वि कम्मर्द्धक्खसुइत्तणु ॥ जावर माणेव एत्तंउ पुत्त पहुत्तणु ॥१०॥
इय वणिहु कम्म णिरवज्जइं । वण्णत्तय पेसणसंमाणु वि । एम कम्मि संजोएवउ जणु । धम्मविवज्जिउ तं पिण किज्जइ । तिक्ख पक्ख पालणइ अभत्ता । लुद्ध घणाहियारि पसरियकर । णासइ पहु दुट्टै परिवारें । कल ण वि परियणपोरिसगुणु । ववहारेण सउच्च मुणेवउ । कुद्ध बुद्ध माणिय भीरुय पर । झत्ति रइज्जइ जं जसु जोग्गड ।
११
रचिता - कुणसु सकलुस वइरिणिवपेसियपणिद्दीपडिविहाणयं । परियणसयणमित्तसंतोसयरं संमाणदाणयं ॥ १ ॥
दुवि वि जण उवसग्गु हरेज्जसु भक्खि उपेक्खि वि मुणिज्जसु मित्त मज्झत्थु विभो अवलंबेजसु गुरुहिययत्तणु चवलत्तणु अयालगामित्तणु णारि जूउ मइरा मयमारणु अण्णाएं ण दविणु णासेवउ
पण वसतिद्देयउ इय सत्तविहु भरेण ण किज्जइ
तिविहसत्तिसम्भार करेज्जसु । णिग्गहु अवरु अणुग्गहु देज्जसु । सव्वणिओयसुद्धिसंदावहि । मुसु दिट्ठेकामुकामित्तणु । खलसंगु वि दुव्वसणपवत्तणु । कामुपण चविहु दारुणु । तिक्खदंडु सुफरुसु भासेवउ । मई महिवसासणि विष्णाय । रिव्वग्गहु हियँउ ण दिज्जइ ।
१०. १. T reads कमग्गगयं and explains it as पादाग्रे स्थितम्; it however records a p कुमग्गगयं and explains it as कुत्सितमार्गे प्रवृत्तम् । २. M पसुसिमं । ३. MBP पढाई घणदाणइं । ४. P पुणु । ५. MBP पेसणु संमाणु । ६. M मंतिट्ठाणेसु सुबुद्धिए चत्ता ; BP मंतिट्टाणि कुबुद्धि चत्ता । ७. MBP एत्तिउं ।
११. १. MBP विहावहि । २. MBP धिट्ठ but gloss in PT दृष्ट स्त्रीजने । ३. MBP अयालि । ४. MBP सुफरसु भासेवउ । ५. MBP रोसुप्पण्णु वसणु हिणेव्वउ | ६. Padds after this line : णिच्छउ मई हियवइ संभाविउ । ७. MP चित्तु ।
[ ५.१०.१
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.११.११]
हिन्दी अनुवाद
विगलित पापबुद्धिवाले मन्त्रियोंके द्वारा कुमार्गमें जानेवालोंकी रक्षा की जाये। हे नरनाथ, जिस प्रकार गाय, पशु आदि जानवरोंका पालन किया जाता है उसी प्रकार इस समस्त धरती. मण्डलका परिपालन करना चाहिए। पढ़ना, हवन करना, दान देना और वाणिज्य यह वैश्योंका अनवद्य कम है। शूद्रोंका काम है, वार्ताका अनुष्ठान और वर्णत्रयको आज्ञा मानना और उनका सम्मान करना । नटविद्या, शिल्पआजीविका आदिके कामोंमें लोगोंको लगाना चाहिए। दुनियामें भला आदमी बिना कर्मके भोग नहीं करता। लेकिन धर्मसे रहित कर्म भी नहीं करना चाहिए, मन्त्रीके स्थानमें कुल एवं बुद्धिसे हीन लोगोंको नहीं रखना चाहिए, हिंसक और दुष्ट लोगोंको ग्रामादिके पालनमें नहीं रखना चाहिए। अन्तःपुरमें प्रमादी और कामातुरों, लोभी और हाथ पसारनेवालोंको भाण्डागारकी रक्षामें नहीं रखना चाहिए। विस्तारसे क्या, दुष्ट परिवारसे राजा नाशको प्राप्त होता है, प्रतिवचनोंसे उसकी बुद्धिका प्रसार करना चाहिए, कलहमें परिजनोंका पुरुषार्थ गुण नहीं है । सहवाससे ही शोलको जानना चाहिए, व्यवहारसे ही पवित्रता जानी जाती है। राजाको चाहिए कि वह चर भेजकर यह जाने कि शत्रु कितना क्रुद्ध, लोभी, घमण्डी और भीरु है। साम, भेद, धन और दण्डके आनेपर, जो जिस योग्य हो वह उसके साथ शीघ्र करना चाहिए।
घत्ता-अपना कार्य, पराया कार्य और कार्याध्यक्षोंकी पवित्रताको जानना और मानना चाहिए । हे पुत्र, यही प्रभुत्व है ॥१०॥
११ पापबुद्धि रखनेवाले शत्रु राजाओंके प्रति प्रेषित चरपुरुषोंका प्रतिविधान किया जाये। स्वजनों, परिजनों और मित्रोंके लिए सन्तोषकर सम्मान दान देना चाहिए। जनताके दो प्रकारके उपसर्गोंको दूर करना चाहिए, तीन प्रकारका शक्ति सद्भाव ( मन्त्र, उत्साह और प्रभु शक्ति ) करना चाहिए । क्षयग्रस्त और उपेक्षितका भी विचार किया जाये, निग्रह और अनुग्रह दोनों किये जायें। शत्रु-मित्र और मध्यस्थका भी (राजा) विचार करे। सब नियोगोंमें शुद्धि दिखायी जाये ( अर्थात् जिसे जो काम करना है, उसे वह काम दिखाया जाये ), हृदयको गाम्भीर्यका सहारा लेना चाहिए। स्त्रियोंको देखकर उनमें कामुकता छोड़ दी जाये। चपलता और असमय गमन छोड़ दिया जाये, दृष्टकी संगति और दुव्र्यसनोंमें प्रवर्तन भी। नारी, जआ. मदिरा और पशुबध ये चारों दारुण और काम उत्पन्न करनेवाले हैं। अन्यायसे धनका नाश नहीं करना चाहिए। तोखा दण्ड, कठोर भाषण और क्रोधका उत्पन्न होना-ये तीन व्यसन हैं जिन्हें मैं राजाओंके शासनमें जानता हूँ। इन सात बातोंको अधिकसे न किया जाये, छह प्रकारके अन्तरंग शत्रुओंको भी हृदयमें स्थान न दिया जाये।
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१०४
घत्ता - मुइ कोहु विमउ लोहु वि माणु हरिसु सहु कामें । गुरु घोसइ सिरि होसइ एयहु खयपरिणामें ॥११॥
१२
रचिता – एक्कंतरिउ मित्त, निरंतेरु सत्त, भणति सूरिणो । तासु महंति मंतु पहुपेसिय गूढा लिंगधारिणो ॥ १ ॥
गूढ विपडिगूढहिं जाणेवा कीरइ कालि गमणु ववगयमलि विग्गहु 'हीर्णे अहव समानें दुग्गाणि समाणु वि किज्जइ एम अलद्धउ लब्भइ मंडलु उपाइज्जइ दव्वुपसत्थह तित्थर्हि धरि रज्जु थिरु अच्छइ सामि अमरठु धणु सुहि बलु उत्तंगु जेवण खिज्जइ घत्ता - इय भाविउ सिक्खाविड चक्कवट्टिलच्छीहरु | णियजणणें णं तवर्णे वियसाविउ कमलायरु ||१२||
१३
रेचिता - गुणमणिकिरणपसरभर पैस मियदुण्णय तिमिरमेलओ । हु वसवणपवणजमससिरविहुय वह वरुणलीलओ ॥१॥ धम्मत्थेसु कुसलु तेयं सिउ हियमियमहुरभासि णिवसंसिउ । अपणु बधुच्छाहु अरूसणु सुइ सुधीरु बलवंतु महासणु । Pisces समथु जत्तिंदिउ सहसुप्पण्णबुद्धि जगवंदिउ । दूरालोड अदीहरसुत्तर पुरिसाउ पसण्णु गुरुभत्तउ । थिरु संभरणसीलु णिम्मलवउ सच्छु अजिंभचित्तु अइसूहउ । थूललक्खु मेहावि सयाणउ किं वैण्णिज्जइ भारहराणच । पुणु सव्वत्थविमाणहु आयउ वसहसेणु णामें संजायत । जसवइदेविहि वीयउ णंदणु पुणु वि अनंतविजउ रिउमद्दणु । अवरु अनंतवीरु पुणु अच्चुउ Data सुवीरु मत्तरिकरभुउ । घत्ता -- गंयभंगहं चरिमंगह पुण्णपहावपउण्णरं ॥
गुणजुत्त स पुत्त एवभाइ उप्पण्णउं ॥ १३॥
जे विरुद्ध ते तर्हि णिहणेवा । आसणु बहुकणतणजलमहिवाल | बलवंतेण संधि कैदाणें । मित्तु वि पडिवक्खत्त ण णिज्जइ । परिरक्खिज्जइ कय चिंतियफलु । तं दिज्जइ अट्ठारह तित्थद्दं । रायाइल्लउ खयहु ण गच्छइ । भणु सत्तमचं दुग्गु हयपडिबलु । ते वय वसुम पालिजइ ।
[ १. ११.१२
१२. १. MBP रंतरु । २. MBPK दीर्णे । ३. M कयमाणें । ४. MBP दुग्मासिए संमाणु जि किज्जइ । १३. १. GK have दुबई for रचिता from this Kadavaka onwards to the end of the
Samdhi, २. P पयसमिय । ३. B मइविहिहरु । ४. B संतरणसीलु । ५. MBP सक्कु । ६. अजिंभवित्तु । ७. BP अच्चउ but gloss in P अच्युतः । ८. MBP सुधीरु । ९. MBPT यहं ।
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- ५.१३.१३] हिन्दी अनुवाद
१०५ पत्ता-क्रोध, मद, लोभ, मान और कामके साथ हर्षको छोड़ो, गुरु घोषित करते हैं कि इनके नाशके फलस्वरूप श्री होगी।
१२ आचार्य कहते हैं कि राजाका मित्र निरन्तर रूपमें एक देशान्तरमें रहते हुए शत्रु हो जाता है। राजाके द्वारा प्रेषित विविध रूप धारण करनेवाले गूढ़पुरुष उसके रहस्यका भेदन कर देते हैं। . गूढपुरुषोंको भी प्रतिगूढ पुरुषोंके द्वारा जानना चाहिए, और उनमें जो विरुद्ध हों उनको नष्ट कर
देना चाहिए । निर्दोषकालमें (राजाको) गमन करना चाहिए। प्रचुर अन्नकण, तृण और जलसे भरपूर महीतलमें ठहरना चाहिए। हीन अथवा समान व्यक्तिके साथ युद्ध करना चाहिए, शक्तिशालीसे दान देकर सन्धि करनी चहिए, दुर्गाश्रितके साथ भी सन्धि करनी चाहिए, मित्र होते हुए भी शत्रुत्वको न जानने दिया जाये। इस प्रकार अलभ्य देशमण्डल प्राप्त कर लिया जाता है। उसके परिरक्षित होनेपर अभिलषित फल किया जाये । प्रशस्त लोगोंको धन दिया जाये। उन्हें अठारह तीथं भी दिये जायें। तीर्थोंसे राज्य स्थिर रूपसे रखा जाता है, और राज्यालय नष्ट नहीं होता । स्वामी, अमात्य, राष्ट्र, धन, सुधि, बल और कहो सातवां शत्रुबलका नाश करनेवाला दुर्ग। हे पुत्र, जिस प्रकार यह सप्तांग राज्यक्षयको प्राप्त न हो इस प्रकार वसुमतीका पालन करना चाहिए।
___घत्ता-इस प्रकार चक्रवर्तीकी लक्ष्मीको धारण करनेवाले भरतको उसके अपने पिताने यह बात सिखायी, मानो सूर्यने कमलाकरको विकसित किया हो ॥१२॥
गुणरूपी मणियोंकी किरणोंके प्रसारभारसे शान्त हो गया है दुर्नयोंका अन्धकारसमूह जिसका, ऐसा भरत, कुबेर, पवन, यम, शशि, सूर्य, अग्नि और वरुणकी लीलाओंके समान लीला वाला हो गया। धर्म और अर्थमें कुशल तेजस्वी, हित-मित और मधुर बोलनेवाला, राजाओं द्वारा प्रशंसनीय, सज्जन, उत्साहसे परिपूर्ण क्रोध रहित पवित्र धीर, बलवान्, गम्भीर, बुद्धि और धैर्यका घर, समर्थ, जितेन्द्रिय, प्रत्युत्पन्नमति, विश्ववन्द्य, दूरदर्शी, अदीर्घसूत्री, पुरुषविशेषज्ञ, प्रसन्न, गुरुभक्त, स्थिर, स्मरणशील, पवित्र, व्रती, स्वच्छ, अकलुषितचित्त, अत्यन्त सुभग, वदान्य, मेधावी और सयाने, भारतके उस राजाका क्या वर्णन किया जाये ? उसके बाद सर्वार्थसिद्धि विमानसे आया वृषभसेन नामसे यशोवती देवीका दूसरा पुत्र हुआ, फिर और भी शत्रुका मदन करनेवाला-अनन्तविजय पुत्र हुआ। और भी अनन्तवीर्य, फिर अच्युत वीर-सुवीर मतवाले गजके समान भुजाओंवाला।
घत्ता-इस प्रकार उसके चरमशरीरी, अपराजित, पुण्यके प्रभावसे परिपूर्ण और गुणयुक्त सौ पुत्र उत्पन्न हुए ॥१३॥
१४
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१०६
महापुराण
[५. १४.१
१४
रचिता-घणथयणवयणकरकमयलसयलावयवसोहिया।
समियसविसयविरसेविसवेइणि सीलैंसिरीपसाहिया ॥११॥ धीय सलक्खण कोमलगत्ती णक्खकंतिणिज्जियणक्खत्ती। जसवइसइसरीरि संभूई
बंभी णामें अवर वि हुई। वियलियसोयहि भुंजियभोयहि पुणु वि सुणंदहि णंदियलोयहि । चुत सव्वत्थसिद्धि परमेसरु हुउ मणहरु णं मरगयमहिहरु । सिसु अविपिक्कवंससुच्छायउ बालउ बाहुबलि वि तहि जायउ । तुच्छबुद्धि अप्पउ अवगण्णमि पहिलट कॉमएउ किंवण्णमि । गज्जमाणजलहरजलणिहिसरु फलिहपईहथोरकरपंजरु। पुण्णमियंकवयणु जसहलतरु सिरिकीलागिरिंदसममुयसिरु । पुरकवाडपविउलवच्छत्थलु विससद्लखंधु अवियलबलु । दलियासामयगंलगलसंखलु णीलणिद्धमउपरिमियकुंतलु । तणुमज्झप्पएसि रइरंगउ । अंगें सहु जि अउव्वु अणंगउ । वियडणियंबु तंबबिबाहरु उच्छुचावजीयासंधियसरु । घत्ता-णवजोव्वणि जायइ घणि पंचहिं तेहिं पयंडहिं॥
पुरथीयणु कंपियमणु बिद्धउ कोसुमकंडहिं ॥१४॥
१५
१५ रचिता-पसरियमयणजलणहुयरसवससुसियंगेहिं कालिया।
विलवइ चलइ घुलइ सुहयस्स कए तहिं का वि बालिया ॥१॥ का वि पलोयइ पयणियतुद्धिर्हि मउलियललियहिं वैलियहिं दिदिहिं । का वि परसु पडती दीसइ
का वि सविणय किं पि संभासइ। का वि भणइ दिजउ आलिंगणु जइ मेल्लेसइ मेरउ प्रंगणु। ता होसइ तुह तायहु केरी । आण सुरिंदभयाइं जणेरी। चंचलि चेलंचलइ विलग्गइ क वि सोहग्गभिक्ख तहिं मग्गइ। कंठाहरणउं रयणणिउत्तउ । का वि देइ कंकणु कडिसुत्तउ । तग्गयणयण णियइ अवचित्ती क वि जामायहु साइउं देती। कवि तेल्लेणे पाय पक्खालइ धूवइ दुधु तक्कु ण णिहालइ । दोरि विलंबिउ के वि भीभूयइ घडु मण्णंति घिवइ सिसु कूवइ । काइ वि जोयंतिइ मयरद्धउ वच्छु भणिवि घरि मंडलु बद्धउ ।
काहि वि णीवीबंधणु ढलियउ पेम्मसलिलु ऊर्रुयलि गलियउ । १४. १. MB कणयवयण । २. MB'विरसवेइणि । ३. P सालसिरी । ४. MB पहासिया । ५. M
गिरिवरु । ६. MBP सच्छायउ । ७. MBP कामदेउ । ८. Mगलगयसंखलु । ९. P कोंतलु।। १५. १. MBP चवइ । २. MPK चलियहिं । ३. MBP मेल्लेसहि । ४. MBP पंगणु । ५. M तिल्लोण ।
६. MEP दोरं । ७. B कविलीभूयइ । ८. P उरुयायलि ।
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५. १५.१३]
- हिन्दी अनुवाद
१०७
१४ जो सघन स्तन, नयन, मुख, कर और चरणतल आदि समस्त अंगोंसे शोभित है, जिसने अपने विषयरूपी विषकी विरस वेदनाको शान्त कर दिया है, और जो शीलरूपी लक्ष्मीसे शोभित है.ऐसी अपनी नखकान्तिसे नक्षत्रोंको जीतनेवाली, सुलक्षणा, कोमल शरीरवाली, ब्राह्मी नामकी एक और कन्या यशोवती सतीके शरीरसे जन्मी। शोकसे रहित भोगोंको भोगनेवाली, लोकको आनन्दित करनेवाली सुनन्दासे, सर्वार्थसिद्धिसे च्युत सुन्दर परमेश्वर ( बाहुबलि) हुए, मानो पन्नोंका महीधर हो। नहीं पके हुए बांसके समान कान्तिवाला शिशु बालक बाहुबलि वहां उत्पन्न हुआ। मैं अपने-आपको तुच्छ बुद्धि मानता हूँ। पहले कामदेवका क्या वर्णन करूं। गरजते हुए मेघ और समुद्रके समान जिनका स्वर है, जिनके हाथ अगलाके समान दीर्घ और लम्बे हैं, जिनका मुख पूर्णचन्द्रके समान है, जो यशके कल्पवृक्ष हैं, जिनके हाथ और सिर लक्ष्मीके क्रीड़ागजके समान हैं, जिनका वक्षस्थल नगरके किवाड़ोंकी तरह विशाल है, जिनके कन्धे वृषभ और सिंहके समान हैं, जिनका बल अस्खलित है, जिन्होंने आशारूपी मदगजोंके गलेकी शृंखला चकनाचूर कर दी है, जिनके केश नीले स्निग्ध कोमल और परिमित हैं, जिनके शरीरके क्षीण मध्य प्रदेशमें रतिकी रंगभूमि है, जो अंग ( शरीर ) के होते हुए भी अपूर्व अनंग ( कामदेव ) हैं । जिनके नितम्ब विकट हैं, बिम्बारूपी अधर आरक्त हैं, जो इक्षुदण्डके धनुष और डोरीपर सर सन्धान करनेवाले हैं।
पत्ता-( ऐसे बाहुबलिके ) सघन नवयौवनमें आनेपर, ( कामदेवके ) उन पाँच प्रसिद्ध प्रचण्ड बाणोंसे, कम्पित मनवाली नगर स्त्रियाँ बिद्ध हो उठीं ॥१४॥
जो फैलती हुई कामरूपी आगके रस (प्रेम ) से शोषित अंगोंसे काली हो चुकी है, ऐसी कोई बाला अपने प्रियके लिए विलाप करती है, चलती है, गिरती है। कोई सन्तोष उत्पन्न करनेवाली कोमल सुन्दर मुड़ती हुई नजरोंसे देखती है। कोई पैरोंपर गिरती हुई दिखाई देती है, कोई विनयपूर्वक कुछ भी कहती है। कोई कहती है कि मुझे आलिंगन दो, यदि तुम मेरा आँगन छोड़ोगे तो तुम्हें पिताकी देवेन्द्रोंके लिए भयोंको उत्पन्न करनेवाली कसमें हैं। कोई चंचला वस्त्रांचलसे लग जाती है और वहां सौभाग्यकी भीख मांगती है। कोई रत्नोंसे बना कण्ठाभरण, कंकण और कटिसूत्र देती है, कोई उद्भ्रान्त मन होकर उनमें नेत्र लोन करके देखती है, कोई जामाताको आलिंगन देती है; कोई तेलसे पैरोंका प्रक्षालन करती है, कोई ( कढ़ीके लिए ) दूधको बघार देती है वह छांछ नहीं देख पाती, कोई रस्सीसे लटके हुए बालकको घड़ा समझते हुए भयानक कुएं में डाल देती है; कामदेवको देखते हुए किसीके द्वारा बछड़ा समझकर कुत्तेको घरमें बांध लिया गया। किसीका नीवी बन्धन खिसक गया, और प्रेमजल हृदयतलपर फैल गया।
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[५. १५. १४
महापुराण घत्ता-पइ भल्लां कडउल्लउं का वि देइ करि णेउरु ॥
___ उद्दामें इय कामें संताविउ सथलु वि पुरु ॥१५॥
१६
रचिता-कुलधणसयणमोहमाणुण्णइवीलाहरणववसियं ।
इसिवयमिव वहति रमणीयउ जस्स सिणेहविलसियं ॥१॥ जिह जिह सुंदरु खेल्लइ रच्छइ तिह तिह हियवउ हरइ वरच्छहिं । सोम्मे सुदंसणु पढसु कुमारउ पेच्छंतिइ वाहुबलि कुमारउ । काइ वि कउ कवोलि कर कोमलु तणुतावेण कढइ सरकोमलु । काहि वि विरहसिहिं पउलिउ पलु धवलु वि कमलु हुवउ णीलुप्पलु । सहइ कामु महुसमयागमणे - णिहय का वि पियसमयागमणे । मउलिय फुल्लिय मल्लिय काणणि मंडणू देइ पुरंधि ण काणणि । णिग्गय पल्लव णवसाहारहु मुयइ तत्ति विरहिणि साहारहु । पइ मेल्लेप्पिणु लवइ व कोइल सुहयत्ते किर भूसइ को इल। मुहमरुपरिमलमिलियसिलिम्मुह जे ते णं कंदप्पसिलिम्मुह । का वि चवइ पिय हउं तुह रत्ती अज्जु गइय महु दुक्खें रत्ती। का वि भणइ पिय करि केसग्गहु वियलउ मालइकुसुमपरिग्गहु । का वि कहइ लइ चुंवहि वयणउं अवरु मे देहि किं पि पडिवयणउं । घत्ता-णउ मेल्लइ कवि बोल्लइ म करहि काई वि विप्पिउ ॥
घरु वित्तु वि णियचित्त वि सयलु वि तुज्झु समप्पिउ ॥१६॥
रचिता-क वि रुणुरुणइ किं पि सुइसुहयरु मणरुहविसिहसल्लिया।
पिययमवयणकमलरसलंपडि तरुणीमहुयरुल्लिया ॥१॥ जो सूहउ महिलहिं माणिजइ कंदप्पु जि पुणु कहु उवमिजइ । गब्भि सुणंद हि रूवरवण्णी तासु बहिणि अवर वि उप्पण्णी । णवजोव्वणि चडंति सा छज्जइ चंदु कलंके वयणहु लज्जइ। रत्तुप्पलु पयसोहइ जित्तउ तेण वि अप्पउ सलिलि णिहित्तउ । भूवंकत्तणु थणथड्डत्तणु
अहरहु केरउ अइराइत्तणु । पडिआयहं दंतहं धवलत्तणु जणमारण णयणहुँ मि चलत्तणु । तुच्छोयरवासिहि गंभीरिम णाहिहि अवरु णियंबहु वडिम । कंचीदामएण दढबंधहु
रहियंगहु परलोयविरुद्धहु । सीसारूढकेसकुडिलत्तणु
पुरिसोवरि माणसकढिणत्तणु ।
१६. १. B हंति । २. MBP सोमु । ३. P विरहसिहिहिं । ४. B मंडलु । ५. K सिलीमुह । ६. MBP
कि पि देहि । १७. १. M अइरत्तत्तणु; BP अइरायत्तणुं । २. M कंचीदामणएण ।
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५. १७.११]
हिन्दी अनुवाद पत्ता-कोई पैरमें सुन्दर कड़ा और हाथोंमें नुपुर देती है। इस प्रकार सारा नगर मानो कामके द्वारा सताया गया ॥१५॥
१६ जिसमें कुलधन, स्वजन, मोह, मान, उन्नति और नीड़ा ( लज्जा ) के अपहरणकी चेष्टा है, ऐसे उसके स्नेह विलासको स्त्रियां मनिव्रतकी तरह धारण करती हैं। वह सुन्दर कुमार गलीमें ज्यों-ज्यों खेलता है, वैसे-वैसे हृदयका अपहरण करता है, सौम्य सुदर्शन उस प्रथम कुमार बाहुबलिको देखती हुई किसीके द्वारा गालपर किया गया कोमल कर शरीरके सन्तापसे सरोवर जल निकालता है । विरहकी ज्वालासे किसीका मांस दग्ध हो गया। और धवल कमल भी नीलकमल हो गया। वसन्त माहके आ जानेपर भी कोई स्त्रो कामको सहन करती है, कोई प्रियके आगमनपर भी ( मानके कारण ) आहत है। कानन ( जंगल ) में मुकुलित जुही खिल गयी है, कोई स्त्री मुखपर मण्डन नहीं करती। नव-सहकार वृक्षके पल्लव निकल आये हैं, विरहिणीने सहकारमें अपनी शान्तिका त्याग कर दिया है। पतिको छोडकर कोयल आलाप करती है, सन्दरतामें ( सुभगत्व ) कोन धरतीको विभूषित करता है ? मुख पवनको सुगन्ध (परिमल ) से मिले हुए जो भ्रमर हैं, वे मानो कामदेवके बाण हैं। कोई कहती है- "हे प्रिय, मैं तुममें अनुरक्त हूँ, आज मेरी दुःखमें रात बीती है। कोई कहती है, "हे प्रिय, तुम मेरे बालोंको बांध दो, बंधा हुआ मालतीका फूल गिर गिया है।" कोई कहती है, "लो शीघ्र मुख चूम लो और किसीको तुम प्रतिवचन नहीं देना।"
पत्ता-कोई उसे नहीं छोड़ती और कहती है, "कोई भी बुरी बात मत करना। घर, धन और अपना चित्त भी सब कुछ तुम्हें समर्पित करती हूँ" ॥१६॥
१७
प्रियतमके मुखरूपी कमलके रसकी लालची कोई तरुणीरूपी भ्रमरी कानोंको सुख देनेवाला कुछ भी गुनगुनाती है, जो सुन्दर कामदेव महिलाओंके द्वारा माना जाता है उसकी उपमा किससे दी जाय? सुनन्दाके गर्भसे, रूपमें रमणीय उसकी एक बहन और उत्पन्न हुई; नवयौवनमें चढ़ती हुई वह अत्यन्त शोभित है; कलंकके कारण चन्द्रमा उससे लज्जित होता है। उसने चरणोंकी शोभासे रक्तकमलको जीत लिया है, इसी कारण उसने अपनेको पानीमें छिपा लिया। भौंहोंका टेढ़ापन, स्तनोंकी कठिनता, अधरोंकी अतिलालिमा, एक बार गिरनेके बाद आये हुए दांतोंकी धवलिमा और नेत्रोंकी चंचलता लोगोंको मारनेवाली है। उसके तुच्छ उदरके बीच में रहनेवाली नाभिकी गम्भीरता, तथा सोनेको जंजीर ( करधनी ) से दृढ़ताके साथ बंधे हुए परलोकविरोधी (परलोककी साधना करनेवालोंके लिए बाधक ) और आच्छादित नितम्बोंकी बढ़ती; सिरपर उगे हुए केशोंकी कुटिलता, पुरुषोंके ऊपर मानसकी कठिनता, देख लिया है दोष जिसने ऐसा ( व्यक्ति) अवश्य अमध्यस्थ (पक्षपात करनेवाला ) होता है, उसका मध्य ( भाग ) इसीलिए अमध्यस्थकी
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१५
१०
११०
महापुराण
दिट्ठदो अवसें असमेहलु तुंगपयोहरविलुलियघणघण सिंचिय तेहिं णाई मइ सीसइ इरुवें जगणारिहि सुंदरि घत्ता - एकुत्तरु रणदुद्धरु सउ तणयहं
भावें णमसिद्धं पभणेपणु दोहिं मिणिम्मलकंचणवण्णह अत्थें सद्देण वि सोहिल्लाउ सक्कउ पायउ पुणु अवहंसर सत्यकलासित संग्गणिबद्धर अणिबद्धर गाहाइड अक्खिड बसई वक्खाणिउं जं जिह • सुयहं महंतु कहंतु अणेयई एम भडारड अच्छइ जइयहुं
मज्झु अमज्झत्थु व हुउ दुब्बलु । चलहाराव लिमोत्तिय जलकण । रोमराइ णववेल्लि व दीसइ । जाणविताएं कोक्किय सुंदरि । दुइ धूर्येउ ॥
कसेट्ठिहिं परमेट्ठिहिं जायउ अणुवमरूवउ ||१७||
१८
रचिता – जयवइजणणचरणमूलम्मि महारिउवंदे महणा बहुसुयणियरधरणपरिणयमइ जाया सयलणंदणा ||१|| दाहिणवामकरेहिं लिहेप्पिणु । अक्खरगणियई कहियई कण्णहं । दु अगदुदुवहु कव्वुल्लउ । वित्तउ उप्पाइड सपसंसउ । गाउ अक्खाइय हरिद्धउ । गेयवर्जे लक्खणु वि णिरिक्खिउ । कुंअरीजुयलें बुज्झितं तिह । विण्णाण णाण बहुभेयई । भग्गी पय दुक्काले तइयहुं ।
घन्ता - अविवेश्य घरु आइय चवइ चिणेण णिरिक्खिय || पहु दहविह सुरमहिरुह अवसप्पिणियइ भक्खिय ||१८||
१९
रचिता — सय महवियडमउडतडमणिगणवियलियविमलवारिणा । कमलजुल परमेसर पई मि महारिवारिणा ||१|| कप्पंधिवविणासि संहारहु जिuri अंबराई मलम लिई तणु लायण्णु वण्णु परिल्हसियउ लग्गणखंभु अण्णु को अम्हीं असणवसणभूसण संपत्तिहि णिहिलकलाविसेससर्पैत्तिहि तं णिसुणेवि जायकारुण्णें
उ परिरक्खिय भुक्खामारहु । कालें विहडियाई आहरणई । जढरहुयासें रुहिरु वि सुसियउ ।
सिर पट्ठा तुम्हहं । भवणजाणसयणासणजुत्ति हि । करि णिचित असेस हि वित्तिहि । देवें परणाण संपणें ।
३. Bताइएं । ४. MBP घीयउ ।
१८. १. MBP विद । २. MBP सग्गि णिबंद्धउ । ३. MBP कहरुद्ध उ । ४. MBP गेयवज्जु लक्खणु ।
[५.१७.१२
५. MBP कुमरी ।
१९. १. MBP दारिणा । २. MB संघारदु but PGKT संहारहु । ३. MBP को वि ण उ अम्हहं । ४. K णिप्फत्तिहि । ५. P णिच्चंत ।
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५. १९.९] हिन्दी अनुवाद
१११ तरह दुर्बल हो गया। उसके पयोधर (स्तन) सघन मेघोंको लुण्ठित कर देनेवाले हैं, उसकी मोतियोंकी चंचल हारावली जलकणोंके समान है। उनके (मोतीरूपी जलकणों) द्वारा सींची गयी रोमराजि, नयी लताके समान दिखाई देती है, ऐसा मेरे द्वारा कहा जाता है। इस रूपसे विश्वनारियोंमें सुन्दर मानकर पिताने उसका नाम सुन्दरी रख दिया।
पत्ता-इस प्रकार युद्ध में दुर्धर अनूपम रूपवाले एक सौ एक पुत्र और दो कन्याएँ सृष्टिके विधाता परमेष्ठी ऋषभनाथके उत्पन्न हुए ॥१७||
महाशत्रुओंके समूहका मदन करनेवाले सभी पुत्र विश्वपति पिताके चरणोंके मूलमें, अनेक शास्त्रसमूहके धारण ( अभ्यास ) से परिणत बुद्धिवाले हो गये। भावपूर्वक सिद्धोंको नमस्कार कर दायें और बायें हाथसे लिखकर अक्षरोंकी गणना उन्होंने निर्मल स्वर्ण वर्णकी कन्याओंको बता दी। अर्थसे और शब्दसे भी शोभित गद्य और अगद्य, दो प्रकारका काव्य, संस्कृत, प्राकृत और फिर अपभ्रंश, प्रशंसनीय उत्पाद्य वृत्त, शास्त्र और कलाओंसे आश्रित सर्गबद्ध काव्य ( प्रबन्ध काव्य ), नाटक और कथासे समृद्ध आख्यायिका, अनिबद्ध गाथादि, मुक्तक काव्य कहा। गेय और वाद्योंके भी लक्षणोंको देखा। आदिनाथने स्वयं जिस रूप में व्याख्या की. दोनों कमारियोंने उसे उस रूप ग्रहण कर लिया। अनेक शास्त्रों, बहुभेदवाले ज्ञान-विज्ञानोंकी व्याख्या करते हुए महान् और आदरणीय आदिनाथ जब इस प्रकार रह रहे थे कि तभी प्रजा दुष्कालसे भग्न हो गयी।
पत्ता नहीं जानते हुए वह ( उनके ) घर आकर कहती है कि 'हे प्रभु, अवसर्पिणीने दस प्रकारके कल्पवृक्ष खा लिये हैं।' जिनेन्द्रने इसे देखा ॥१८॥
इन्द्रके विकट मुकुटतटके मणिगणोंसे झरते हुए पवित्र जलसे धोये गये हैं चरणकमलयुगल जिनके, ऐसे हे परमेश्वर, महान् शत्रुओंका निवारण करनेवाले आपने भी, कल्पवृक्षोंके नष्ट होनेपर, प्रलय और भूखरूपी मारीसे हमारी रक्षा नहीं की । वस्त्र मलसे मैले और जीणं हो चुके हैं, समयके साथ आभरण नष्ट हो चुके हैं, शरीरका लावण्य और वर्ण चला गया है, पेटकी आगसे खून भी सूख गया है। इस समय हमारा आधारस्तम्भ कौन है ? हम आपकी शरणमें आये हैं । अशन, वसन, भूषण और सम्पत्तियोंवाली समस्त वृत्तियोंसे हमें निश्चिन्त करिए। यह
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११२
महापुराण
[५.१९.१० करिसणकरणु धरणु मयणिवहहं हरिकरिमेसमहिसविसकरहह । पडु घडु भोयणु भायणु रंजणु घर पर्यणविहि पीढ मणरंजणु । सेज्ज सरीरताणु जलेधारणु हार दोर केऊर सकंकणु । असि मसि सिप्पु वि जं जिह जेहर अक्खिउ लोयह तं तिह तेहउ । घत्ता-परमेसर "सुधरियघर आइपुरिसु कमलासणु ॥
जगु पेसिवि संतोसिवि पालइ खत्तियसासणु ॥१९।।
२०
रचिता-अवर वि भणिय वणियवर हलहर सुयरियकहियकुलवहा।
जड परिवडियधम्म चंडाल ति पयडियविविहर्पसुवहा ।।१।। लेहउ लोहयारु कुंभारु वि तिलपीलउ मालिउ चम्मारु वि । जेहिं जं जि णियकम्मु पयासिउ - ताह तं जि कुलदेवें भासिउ । पल्लव सेंधव कोंकण कोसल टक्का हीर कीर खस केरल । अंग कलिंग गंग जालंधर
वच्छ जवण कुरु गुज्जर वर । दविड गउड कण्णाउ धराड वि पारस पारियाय पुण्णाड वि । सूर सुरट्ठ विदेहा लाड वि
कोंग बंग मालव पंचाल वि । मागह ज? भोट्ट णेवाल वि उह पुंड हरि कुरु मंगाल वि देवमाउसासुम्भव ससलिल साहारण अणूव पर जंगल । गिरितरुसरिदुग्गेहिं दुसंचर अडइदेस वसिकयधर ससवर । पत्ता-वइधरियहिं वणहरियहिं महि सोहइ चउपासिहि ।
कSगामहिं आरामहिं छेत्तहिं एकदुकोसहि ॥२०॥
१०
.
२१ दुवई-चउविहगोउराइं चउदारई णयरइं भूमिभूसणो।
कारावइ पुराइं पुरुऐवजिणो सुरैदिण्णपेसणो ॥१॥ खेडई थियदुवासगिरिसरियइं कब्बडाई महिहरपरियरियई। पंचगावंसयसहियमडंबई
रयणजोणिपट्टणई अउवई । दोणामुहई जलहितीरत्थई
संवाहणई अहिसिहरत्थई। सुणिरूवियसविणयसेवायर वइरायरपहूइ जे आयर। पयणियरायसुरिंदाणंदें
ते रक्खाविय कुलयरवंदें। ६. K°संपुण्णें । ७. M°वस । ८. MBP परियणु वि । ९. MBT जलवारणु, but T records ap जलधारणु and remarks 'जलवारणु छत्रम्, अथवा जलधारणु वापीकूपतडागादिकम् ।
१०. MBP सुचरियधरु। २०. १. K पडिवडियं । २. P°पसुविहा; MB वसुवहा । ३. MBP वंग । ४. MBP बब्बर । ५. MBP
भट्ट । ६. MBP वसिकयवर । ७. MB कयगामिहिं । ८. MBP खेत्तहिं । २१. १. MBP call this couplet रचिता; GK eall it दुवई which it is. २. MB पुरएवं ।
३. B सुरवरदिण्णपेसणो। ४. MBP गाम । ५. K कुवलयचंदें।
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५. २१.८ ]
हिन्दी अनुवाद
११३
सुनकर उत्पन्न हुई है करुणा जिन्हें ऐसे प्रचुर ज्ञानसे सम्पूर्ण देवने खेती करना, घोड़ा-हाथी- मेषमहिष- वृषभ और अरण्य आदि पशुओंकी रक्षा करना, पट, घट, भोजन, भाजन, रंजन और घर बनाने की विधि, सुन्दर पीठशय्या, कवच, हार, दोर, कंचन सहित केयूर, असि-मषि आदि कर्म जो जिस प्रकार थे, उसकी वैसी व्याख्या की ।
धत्ता - धरतीको अच्छी तरह धारण करनेवाले आदिपुरुष ब्रह्म वह परमेश्वर विश्वको ( जनों को ) सन्तुष्ट कर और भेजकर क्षत्रिय शासनका पालन करने लगते हैं ।
२०
और भी अच्छे चरितवाले तथा कुलपथका कथन करनेवाले वणिक् और किसान कहे जाते हैं । धर्मंसे पतित तथा तरह-तरहके पशुवधको प्रकट करनेवाले जड़ चाण्डाल भी । लेखक, लुहार, कुम्हार, तेलो और चमार भी । जिन लोगोंने अपना जो कर्म प्रकाशित किया है, कुलदेव ॠषभने उन्हें वही घोषित कर दिया। पल्लव, सैन्धव ( सिन्धु ), कोंकण, टक्क, हीर, कीर, खस, केरल, अंग, कलिंग, जालन्धर, वत्स, यवन, कुरु, गुर्जर, वज्जर, द्रविड़, गौड, कर्णाटक, वराट, पारस, पारियात्र, पुन्नाट, सूर, सौराष्ट्र, विदेह, लाड, कोंग, वंग, मालव, पंचाल, मागध, जाट, भट, नेपाल, औण्ड्र, पुण्ड्र, हरि, कुरु, मंगाल, देवमातृक धान्य उत्पन्न करनेवाले, जलसहित धान्य उत्पन्न करनेवाले, साधारण ( दोनों प्रकारके ) अनूप और जंगली देश । पहाड़, वृक्षों और दुर्गे दुर्गम, धराको अधीन करनेवाले शवरों सहित अटवी देश ।
घत्ता - वृत्तियों और वनोंको धारण करनेवाले चारों ओरके पार्श्वभागोंसे रचित ग्रामों, उद्यानों, एक-दो कोसवाले क्षेत्रोंसे धरती शोभित है ॥२०॥
२१
भूमिके भूषण तथा इन्द्रको दी है आज्ञा जिन्होंने ऐसे पुरदेव जिनने चार प्रकारके गोपुर और द्वारवाले नगर और पुरोंकी रचना करवायी । नदियों और पर्वतोंसे दो ओरसे घिरे हुए खेड़े, पहाड़ोंसे घिरे हुए कव्वड ग्राम, गांवों सहित मण्डप, रत्नोंकी खदानवाले अपूर्व पट्टन समुद्रोंके तीर्थोंपर स्थित द्रोणमुख, पर्वतोंके शिखरोंपर स्थित संवाहन तथा अच्छी तरह निरूपित और सविनय सेवामें तत्पर वैराट प्रभृति जो खदानें हैं उनकी, राजाओं और इन्द्रोंको आनन्द
१५
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[१.२१.७
महापुराण वण्णचउक्कमग्गु उवएसिउ दंडे दोसु असेसु पणासिउ। तिहुयणरायहु महिरावत्तणु कवणु गहणु तहु मणुयपहुत्तणु। कम्मभूमिसंपर दरिसंतहु
कणयरयणधारहिं बरिसंतहु । पुत्वहुं वीस लक्ख गय जइयहुं बधु पटु जगणाहहु तइयहुं । णाहिणरिंदामरसंघायहिं । कच्छमहाकच्छाहिवरायहिं । घत्ता-सिंहासणि णिवसासणि आसीणउ परमेसरु॥
जयसिरिसहि पालइ महि बहुहलहरउवणीयकरु ॥२१।।
२२ रचिता-हयमलचरणकमलजुयणिवडियविसहरखयरभूयरो।
___अकलुसतियसतरुणिकरपल्लवचालियचारुचामरो ॥१॥ भोयविरामि छुहवेविरतणु उडियकरयलु णीसेसु वि जणु । घरि उच्छुरसु पियहुं जेणायउ - पहु इक्खाउवंसु ते जायउ । सोमप्पहु कोक्किउ कुरुराणउ सो जायउ कुरुवंसपहाणउ । हरि हरिकंतु कहि वि हरिवंसहु कउ'पुरिमिल्लु पुरिसु सपसंसहु । कासवु मघवु भणेप्पिणु घोसिउ उग्गवंसमूलिल्लु पयासिउ । अवरु अकंपणु सिरिहरु भाणिउ पाहवंसि सो पहिलउ जाणिउ । चोहमयकुलयरपियणंदणु मरुएवीमणणयणाणंदणु । फणिवरसिरमणिहयपयणेउरु सकलत्तउ सपुत्तु संतेउरु । कहियणरेसँरकुलहिं विराइउ अच्छइ रज्जु करंतु लहाइउ । पत्ता-पथ पालइ दक्खालइ णायमग्गु भाभासुरु ।।
सिरिअरुहें सहुँ मरहें पुप्फयंतु रिसहेसरु ॥२२॥
इय महापुराणे तिसटिमहापुरिसगुप्पालंकारे महाकइपुप्फयंतविरइए महामन्चभरहाणु
मण्णिए महाकव्वे आइदेवमहारायपट्टबंधो णाम पंचमो परिच्छेओ सम्मत्तो ।। ५॥
॥ संधि ॥५॥
२२. १. MBP पुरमिल्लु । २. MBP उग्गवंसु । ३. MBP चउदह : ४. M °णरेसरकुलेहिं;
Kणरेसकुलेहिं।
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५. २२. १३] हिन्दी अनुवाद
११५ देनेवाले कुलकर चन्द्र ऋषभने रक्षा करवायी। वर्णों के चार मार्गका उपदेश किया। दण्डविधानसे अशेष दोषको नष्ट कर दिया। उन त्रिभुवन राजाको धरतीका राजत्व प्राप्त था, मनुष्योंकी प्रभुता प्राप्त करने में कौन-सी बात थी। इस प्रकार कर्मभूमिको सम्पदाको दिखाते हुए, स्वर्ण और धनकी धाराओंको बरसाते हुए जब बीस लाख पूर्व वर्ष बीत गये तब जगनाथको नाभिराजा अमरसमूह कच्छ-महाकच्छ राजाओंके द्वारा राजपट्ट बांधा गया।
पत्ता-सिंहासन और नृप-शासनमें आसीन परमेश्वर, जिन्हें बहुत-से हलधर कर देते हैं, जो जय और लक्ष्मीको सखी धरतीका पालन करते हैं ॥१॥
२२
जिनके निर्मल चरणोंमें विषधर, विद्याधर और मनुष्य प्रणत होते हैं, और जिनपर पवित्र देवस्त्रियां अपने करपल्लवोंसे चमर ढोरती हैं, ऐसे वह ऋषभ धरतीका पालन करते हैं । भोगभूमिके समाप्त होनेपर भूखसे कम्पित शरीर समस्त जन अपने करतल उठाकर, जिस कारणसे घरपर इक्षुरस पीनेके लिए आये थे, उससे प्रभुका वंश इक्ष्वाकुवंश हो गया। सोमप्रभुको कुरुका राणा कहा गया इसलिए वह कुरुवंशका प्रधान हो गया। हरिको हरिकान्त कहकर उन्हें प्रशंसनीय हरिवंशका प्रथम पुरुष बना दिया गया। कश्यपको मघवा कहकर पुकारा गया और इस प्रकार उग्रवंशके मलको प्रकाशित किया गया। बौर अकम्पनको श्रीधर कहा गया, नाथवंशमें उसे पहला जानो। चौदहवें कुलकरके प्रियपुत्र, और मरुदेवीके मन बोर नेत्रोंको आनन्द देनेवाले, नागराजके शिरोमणिसे आहत है पदनूपुर जिनके, ऐसे आदरणीय वे कलत्र, पुत्र और अन्तःपुरके साथ तथा पूर्वकथित नरेश्वरकुलोंसे शोभित राज्य करने लगे।
पत्ता-आभासे भास्वर ऋषभेश्वर लक्ष्मीसे योग्य भरतके साथ प्रजाका पालन करते हैं उसे न्यायका मार्ग दिखाते हैं ॥२२॥
इस प्रकार ब्रेसठ पुरुषोंके गुणों और अलंकारवाले इस महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा रचित एवं महामव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका आदिदेव महाराज
पट्टबन्ध नामका पाँचवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ।।५।।
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१५
संधि ६
हंदि भवणि सुरवरहिं संथुड संपयगारउ ।
फणिदणुयहिं मणुयहिं सेवियउ थिउ अत्थाणि भडारउ || १|| ध्रुवकं । ।
१
मलयविलसिया - कंचणघडियइ हरिवरधरियs
आणि आसीणउ परम पहु दिors चारिपट्टासणई triचियाई लोहासणई एकेक पहाणाखणि मिलिय कुवि णरवइ घुसिणें समलहिउ कुविदीसइ चंदणधूसरिउ मयणाहि वित्ति को विरु
विकि घुलइ हारावलिय कासु वि पडंति चमरई चलई कप्पूरधूलि बहलुच्छल ईं सो केण वि एंतु णिवारियर
मलयविलसिया — जत्थ णिसण्णो सिंगारहरो
नियमति जणं जहिं भत्तियर पहुअग्गइ सेवादूसण उं
.
मणिगण जडियs | हविष्फुरिय ||१|| अम्हहिं किं वणिज्जइ रिसहु । सुविचित्तदित्तवेत्तासणईं । दंडुण्याई दंडासणई । तहिं संणिसण बहु मंडलिय । णं सिरिकामिणिराएं गहिउ । पंडुरु णं णियज सेण भरिउ । ससिरविभीयउ घरइ व तिमिरु । कसइ णं जलहरि विज्जुलिय ।
कित्तिभिसिणिहि सयदलई । ogics तहिं महरु घुलइ । तंबोलड पाणि पसारियउ ।
घत्ता - खगसामिहिं कौमिहिं सयलहि वि वंदारयबंदियणहिं || पणवं तहिं संतहिं रईणिवहिं जहिं विरोहु मणिकिरणहि ||१||
२
पणयपसण्णो । रामाणियरो ॥१॥
कट्ठियहर परेपडिहारणर । fushaणु जिंभणु पहसणडं ।
MBP give, at the commencement of this Samdhi, the following stanza; श्रीर्वाग्देव्यै कुप्यति वाग्देवी द्वेष्टि संततं लक्ष्म्यै । भरतमनुगम्य सांप्रतमनयोरात्यन्तिकं प्रेम ॥
GK do not.
१. १. MBP चाउरिवित्तासणइं । २. MBP सुविदित्त पट्टासणई । ३. G खणमिलिय । ४. MBPT कु विणिवरु । ५. MBP कामिहि कामिणिहि । ६. P रुइणिव हि ।
२. १. MBP वरं ।
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सन्धि
६
दूसरे दिन अपने भवनमें, सुरवरोंसे संस्तुत, सम्पत्तिका विधाता, नागों और दानवों तथा मनुष्योंके द्वारा सेवित आदरणीय ऋषभ दरबारमें स्थित थे।
स्वर्णनिर्मित मणिसमूहसे विजड़ित, प्रभासे भास्वर सिंहासनके आसनपर आसीन परमप्रभु ऋषभका हमारे द्वारा क्या वर्णन किया जाये? गादीके आसन, विचित्र चमकते हुए वेत्रासन, रत्नोंसे जडित लोहासन और दण्डोंसे उन्नत दण्डासन दे दिये गये। एकसे एक प्रमख राजा क्षण भरमें इकट्ठे हो गये, और बहुत-से माण्डलीक राजा वहां आकर बैठ गये । कोई राजा केशरसे चर्चित है मानो लक्ष्मीरूपी कामिनीके अनुरागसे अधिगृहीत है। कोई राजा चन्दनसे धूसरित सफेद दिखाई देता है मानो अपने ही यशसे भरा हुआ हो। कस्तूरीसे विलिप्त कोई राजा ऐसा जान पड़ता है कि जैसे सूर्य और चन्द्रमाके डरसे अन्धकारको धारण कर रहा है। किसी राजापर हारावली इस प्रकार व्याप्त है, मानो काले बादलमें बिजली हो। किसीपर चंचल चमर पड़ रहे हैं, जो ऐसे लगते हैं मानो कीर्तिरूपी कमलिनीके दल हों। उस दरबारमें कपूरकी प्रचुर धूल उड़ रही है, जिसमें मधुकर गुनगुनाता हुआ मंडरा रहा है। किसीने आते हुए उसे हटा दिया और पानके लिए अपना हाथ फैलाया।
___घत्ता-जहां विद्याधर स्वामियों, कामना रखनेवाले समस्त देवरूपी बन्दियों, तथा प्रणाम करते हुए रतिसमूहों (?) और मणि-किरणोंमें विरोध है (??) ॥१॥
जहाँ प्रणयसे प्रसन्न शृंगार धारण करनेवाला स्त्रीसमूह बैठा हुआ है। जहां यष्टि धारण करनेवाले भक्तिनिष्ठ श्रेष्ठ प्रतिहारी मनुष्य लोगोंका नियन्त्रण करते हैं। राजाके सामने थूकना, जंभाई लेना और हंसना सेवाका दूषण माना जाता है। पैर हिलाना, तिरछा देखना, हकारना,
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११८
[६. २.५
महापुराण कमकपणु अद्दु णिहालणउं हिक्कारउ भेउंहाचालणउं। खासणु धम्मिल्लामेल्लणउं
करमोडि परासणपेल्लणउं । अवठंभणु दप्पणदंसणउं
अइजंपणु सगुणपसंसणउं । सवियारउ कायणियच्छणउं इट्ठागमदेवदुर्गुछणउं। संकेयवयणअवयारणउं
परणिंदणु पायपसारणउं । अवरु वि जं विणएं विरहियउं तं म करह गुरुयणगरहियउं । मण्णहु माणुसु सामिहि तणउं ढंकहु दीणत्तणु अप्पणउं । घत्ता-इय लक्खिउ अक्खिउ सेवयहो अहिमाणिहिं वणु चंगउ ।
दउवारियपेरियदंडएण मा छिप्पउ तहु अंगउं ।।२।।
मलयविलसिया-सुरवरसारउ । एम भडारउ।
अच्छइ जावहिं सुरवइ तावहिं ॥१॥ संचिंतइ अवहीणाणधरु
बारहरविसंणिहकुलिसयरु । पुत्वहं परमेसरेण रमिय कुमरत्ते वीस लक्ख गमिय । भुंजंतहु महि तेसट्ठि गय
अज्जु वि अवलोयइ चवल हय । अज्जु वि मणि मण्णइ मत्त गय इच्छइ अज्जु वि संदण सधय । अज्जु वि घेरि रइ किंकरणिव हि अज्जु वि ण विरप्पइ कामसुहि । को हुयवहु इंधणेण धवइ
सरिसलिले सैरिणियराहिवइ । को भोएं जीवहु करइ दिहि बलवंतउ सव्वहुं कमविहि । जाणंतु वि मुज्झइ देउ जहिं अण्णाणु अवरु किं भणमि तहिं । घत्ता-रइराविउ भाविउ एउं जगु किं पि ण'याणइ जुत्तउ ।।
सकलत्तहिं पुत्तहिं मोहियउ णिवडइ हेट्ठाहुत्तउ ॥३॥
मलयविलसिया-दुढे धिटे। डझसु तिहे।
ण तुह धणेणं तित्ति इमेणं ॥१॥ अन्जु वि णउ फिट्टइ भोयरइ अज्जु वि णउ चिंतइ परम गइ। अन्जु वि पहुहियउ उ उवसमइ माणवरमणीरमणउ रमइ । सरणिहिसमाहं मइ पययिउ अट्ठारहकोडाकोडियउ । णट्ठाई धम्मकम्मतरई
दसणणाणइं चरियई वरई। २. M भउहाँ। ३. M करहि; BP करहु । ४. MBP माणसु । ५. MB अहिमाणहि । ३. १. MBP जइयहुं । २. MBP तइयहुं । ३. MBP रइ घरि । ४. B°णिवहो। ५. B कामसुहो ।
६. M सरणियरा। ७. MBP सव्वहं बलवंतउ। ८. MBP जाणंतउ । ९. K एहु ।
१०. MBPK एम। ११. MP ण जाइ: Bण जाणइ । १२. MBP हेद्राहंतउ । ४. १. MBP ण उवसमइ । २. T सरिणिहि । ३. B Omits this foot.
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हिन्दी अनुवाद भौंहोंका संचालन करना, खांसना, चोटी खोलना, हाथ मोड़ना, दूसरेके आसनको खिसकाना, सहारा लेना, दर्पण देखना, अत्यधिक बोलना, अपने गुणोंकी प्रशंसा करना, अत्यन्त विकारग्रस्त होना, शरीरको देखना, इष्ट, आगम और देवकी निन्दा करना, पैर फैलाना ( इसके सिवा ) और जो विनयसे रहित तथा गुरुजनोंके द्वारा गहित बातें हैं, उन्हें नहीं करना चाहिए। राजाके आदमीको मानना चाहिए और अपनी दीनताको छिपाना चाहिए।
पत्ता-मैंने ये सेवकके लक्षण कहे । परन्तु जो स्वाभिमानी है उसके लिए वन ही अच्छा। द्वारपालके द्वारा प्रेरित दण्ड उसका ( स्वाभिमानीका ) अंग न छुए ।।२।।
सुरवर श्रेष्ठ आदरणीय ऋषभ जब इस प्रकार विराजमान थे, तबतक अवधिज्ञानको धारण करनेवाला, तथा बारह सूर्योंके समान वजको धारण करनेवाला इन्द्र सोचता है कि परमेश्वरके द्वारा रमण किये गये बीस लाख पूर्व वर्ष कुमारकालमें बीत गये। और धरतीका भोग करते हुए त्रेसठ लाख पूर्व वर्ष चले गये। लेकिन वह आज भी चंचल घोड़ोंको देखते हैं। आज भी अपने मनमें मतवाले हाथियोंको मानते हैं, आज भी ध्वज सहित रथोंको चाहते हैं, आज भी उनकी घर और अनुचरसमूहमें रति है। आज भी वह कामसुखसे विरक्त नहीं होते। आगको इंधनसे कोन शान्त बना सकता है, नदियोके जलोसे समुद्रको कोन शान्त कर सकता है, भोगके द्वारा कौन जीवमें धैर्य उत्पन्न कर सकता है ? कर्मका विधान सबसे बलवान होता है। जब देव जानते हुए भी मोहग्रस्त होते हैं तब किसी अज्ञानीको मैं क्या कहूँ?
__घत्ता-रतिसे रंजित यह जग उन लोगोंके लिए अच्छा लगता है, कि जो और दूसरी युक्ति नहीं जानते । अपनी स्त्रियों और पुत्रोंसे मोहित यह जग नीचेसे नीचे गिरता है ।।३।।
दुष्ट और धृष्ट तृष्णामें तुम जलते हो, आज भी इस धनसे तुम्हारी तृप्ति नहीं हो सकती। आज भी भोगरति नष्ट नहीं होती, आज भी वह परम गतिकी चिन्ता नहीं करते। आज भी स्वामीका हृदय शान्त नहीं होता, वह मानव रमणियोंसे रमण करने में रमता है। अट्ठारह कोड़ाकोड़ी सागर समय बीत गया है । धर्म और कर्मका अन्तर नष्ट हो गया है, दर्शन, ज्ञान और श्रेष्ठ
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१२९
[६.४.७
महापुराण आयारई पंचमहन्वयई
अणुवयगुणवयसिक्खावयई। ण पयासइ णवपयत्थसहिउ सिद्धंतु अणाइ अरुहे कहिउ । इय चिंतिवि इंदें जाणियां अवहिए भवियव पमाणियउं । णाहहु अज्जु जि चरियावरणु धुउ णिम्मइ गेण्हइ वववरणु । पुण्णाउस णीलंजस णडइ
गयजीविय जइ अग्गइ पडइ । ती होइ विरायहु कारणउं इह दुविहु संजमुद्धारणउं । जिणधम्मपवत्तणु होइ जणे इय संभरेवि पुणु पुणु वि मणे । घत्ता-णीलंजस रइवस"मृगणयण इंदें भणिय अणिंदहो ।
तुहुं गच्छहि पेच्छहि कमजुयलु णच्चहि पुरउ जिणिदहो ॥४॥
मलयविलसिया-ता तुंगथणी सयमहरमणी।
रयणमयघरं साकेयपुरं ॥१॥ आया णहेण छउओयरिय
विजलिय णाई चलविप्फुरिय । पोडहियगाणसुरपरियरिय णाहेयणिहेलणि अवयरिय। पणवेप्पिणु पहु ओलग्गियउ पेक्च्ण यहु अवसरु मग्गियउ । णाडयपारंभि पढमु भणिउं वीसंगु वि पुव्वरंगु जणिउ । वाइयउ तिपुक्खरु सुंदरउ सुपसिद्धउ सोलहअक्खरउ । चउमग्गु दुलेवणु छक्करणु तियतिल्लउ तिलयउ मणहरणु । तिगयउ तिचारु तिजोयेयरु तिकरिल्लर पंचपाणिपहरु। तिपसारउ अवरु तिमजणउं वीसालंकारसलक्खणउं । अट्ठारहजाइहिं मंडियउ
एयहिं गुणेहिं अवलंडियउ । चच्चउडु भणिउं पुणु चाचउडु छप्पियपुत्तु वि मणहारि फुडु । इय तालहिं तीहिं अलंकरिउ वहुयहिं तब्भेयहि परियरिउ । वामुद्धालिंगियसंणियां
ओणद्धउं वज्जउं वणियउं । घत्ता-जहिं लोयण तिहुअणु जलहिसम सुइसंखाइ सुललियहिं ।
चर्लंबद्धर्हि अद्धहिं मुक्कियहिं वत्तावत्तंगुलियहिं ॥५॥
४. MBP महावयई। ५. MB अरुहकहिउ । ६. MBP तवयरणु । ७. P पुव्वाउस। ८. P तो।
९. MBPK इय but G इह with gloss संसारे । १०. MBP मयणयण । ५. १. MBP पाडहि गायणं । २. MB पेक्खणहो । ३. MB तिगइयउ । ४. MB तिचारु; P तिमचारु;
T तियचारु। ५. MBP तिजोयधरु। ६. MB छप्पिउ वुत्तु; P छप्पि उडु वुत्तु । ७. MB ताडहिं। ८. MBP चवलद्धहिं; T चवलद्धहि but explains it as स्थितमुक्ताभिः ।
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६. ५. १२ ]
हिन्दी अनुवाद
१२१
चारित्र्य भी नष्ट हो गये हैं, आचार, पाँच महाव्रत, अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत भी नष्ट हो चुके हैं । अन्त भगवान् के द्वारा कहा गया नौ पदार्थोंसे युक्त अनादि सिद्धान्त आज प्रकाश नहीं पा रहा है - यह सोचकर इन्द्रने यह जान लिया और अवधिज्ञानसे प्रमाणित कर लिया कि स्वामीको आज भी चारित्रावरणी कर्मका उदय है, उसके शान्त होनेपर ये निश्चित रूपसे तप ग्रहण करेंगे । यदि पूर्ण आयुवाली नीलंजसा ( नीलांजना ) नाट्य करती है और उनके सामने निर्जीव होकर गिर पड़ती है तो यह उनके वैराग्यका कारण होगा, और इससे दो प्रकार संयमका उद्धार होगा । लोगों में जिनधर्मका प्रवर्तन होगा - इस प्रकार अपने मनमें बार-बार विचारकर ।
घत्ता - रतिकी अधीन मृगनयनी नीलंजसाको इन्द्रने कहा - "तुम जाओ और अनिन्द्य जिनेन्द्र के चरणकमलोंके दर्शन कर उनके सामने नृत्य करो” ॥४॥
तब ऊँचे स्तनोंवाली इन्द्रकी रमणी ( नीलांजना ) रत्ननिर्मित घरोंवाली अयोध्या नगरी पहुँची । कृशोदरी वह आकाश मागंसे इस प्रकार आयी जैसे चंचल चमकती हुई बिजली हो । गान प्रारम्भ करनेवाले देवोंसे घिरी हुई वह नाभेय ( ऋषभनाथ ) के घर अवतरित हुई । प्रणाम कर उसने प्रभुकी सेवा की और नाट्याभिनयका अवसर मांगा। सबसे पहले उसके नाट्य के प्रारम्भ में अभिनीत होनेवाले बीसों अंगोंसे परिपूर्ण पूर्व रंगका अभिनय किया। तीन प्रकारके सुन्दर पुष्कर' वाद्य, तीन प्रकारके भांड़ वाद्य ( उत्तम, मध्यम और जघन्य ), सुप्रसिद्ध सोलह अक्षरोंवाला, चार मार्ग, दुलेपन, छह करण, तीन यतियों सहित, तीन लयोंवाला, सुन्दर तीन गतिवाला, तीन चारवाला, तीन योगको करनेवाला, तीन प्रकारके करोंसे युक्त, पांच पाणिप्रहार, त्रिप्रकार और त्रिप्रसार, और त्रिमज्जन (त्रिमाजनक ) इस प्रकार बीस अलंकारोंके लक्षणोंसे युक्त, अट्ठारह जातियोंसे मण्डित और इन गुणोंसे आलंगित नृत्यका प्रदर्शन किया। और भी चच्चपुट, चाचपुट और सुन्दर छप्पयपुट; इन तीन तालोंसे अलंकृत और उनके अनेक भेदोंसे सहित, वाम, ऊध्वं और आलिंगत संज्ञाओंवाला अनवद्य वाद्यका मैंने वर्णन किया ।
घत्ता - जहाँ द्विश्रुतिक त्रिश्रुतिक, और चतुःश्रुतिक श्रुति संख्याओंसे सुललित चलबद्ध अर्धमुक्त और व्यक्त और अव्यक्त अंगुलियोंके द्वारा करनेवाले आदरणीय देवोंने गीत प्रारम्भ किया ॥५॥
१. पुष्कर वाद्य ( चर्मावनद्ध वाद्य, उत्तम, मध्यम और जघन्य ); सोलह अक्षर ( क ख ग घ ट ठ ड ढ, त थ द ध सरल ह ); चार मार्ग ( आलिप्त, अदित, गोमुख और वितस्ति ); दुलेपन ( वामलेपन, ऊर्ध्वलेपन ); छह करण ( रूप, कृत, परिति, भेद, रूपशेषी और उद्य); तीन यतियाँ ( सम, श्रोतोगति, गोपुच्छ); त्रिलय (द्रुत, मध्य, विलम्बित ); त्रिगति ( वाम, नुत और ऊर्ध्व ); त्रिचार ( सम विषम, सम-विषम); त्रियोग ( गुरुसंयोग, लघुसंयोग, गुरुलघुसंयोग ); त्रिकर (गृहीत, अर्धगृहीत और गृहीतमुक्त ); मार्जनक ( मायूरी, अर्धमायूरी और कर्मारवी ) ।
१६
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१२२
महापुराण
मलयविलसिया-विरईपुसिरे वैजे सुसिरे।
नॅकयपसंसे जायउ वैसे ॥१॥ सरु जेत्थु झुणंति सुअत्थसुई थिय मुक्कंगुलि व सुअट्ठसुइ । कंपतियाइ उग्गंमु तिसुइ
मुक्कंगुलियइ हूयउ दुसुइ। वत्तंगलि मोक्खवसेण कय सेहुं सज्जें मज्झिमपंचमय । सरिसहुँ धेव' कंपंतियए "सामण्णसरंतरसंणियए। गंधारणिसायविचलिययाई अद्धइ मुक्कइ अंगुलिययाई । पयणियवेणू णाणायरेहिं
तुंबरुणारयसंणिहसुरेहि। पयडियउ जि देवागमि भणिउं णिक्कलु तेप्पु वि तंतीरणिउ । घणु कंसतालजुयलाइयउ समहत्थु देवि जहिं "चालियउ। अमरहिं "जिणमणसंमाइयहिं पारद्धउ गेउ महाइयहिं। उप्पण्णउ उरठाणंतरए
"बावीस सुई उ णहतरए। कमरइयपमाणहिं संछि
वड्ढंतु णाउ वुड्ढि हि घिवइ । सुइसु वि स रि ग म प ध"णी यणाम सर सत्त तेसु दोण्णि वि जि गाम । घत्ता-सुरपुज्जइ सज्जइ किंणरहिं जाइउ सत्त पउत्तउ ॥
एयारह सुयरह मज्झिमइ पीणियजणवयसोत्तउ ॥६॥
मलयविलसिया-सत्तेयारह इय अट्ठारह ।
जाइणिबद्धहं लेक्खविसुद्धहं ॥१॥ अंसह सउ चालीसाहियउ एक्कुत्तरु तं पि पसाहियउ। तहिं होतउ सवणरवण्णियउ गीईउँ पंच उप्पण्णियउ। सुद्धा भिण्णा पुणु वेसरिय भउडी साहारणिया सैरिय । तहिं गामराय अवर वि भणिया भयवयमयगुत्तितञ्चगणिया। इय तीस कमेण जि संगहिय उडुमाण जि माणवसवणहिय । पहिलारउ टक्कराउ कहिउ
अणुवेक्खासमभासहिं सहिउ । अट्ठहिं पंचमु वि पयासियउ 'बिहिं वि विहासहिं भूसियउ ।
६. १. MBP विरइयपुसिरे। २. MBPT वज्जियसुसिरे। ३. MBP णिकयपसंसे। ४. MBP जाओ।
५. MBP जेसु । ६. P सुअत्थवई। ७. BP कंपतियाउ । ८. MBP उग्गउ । ९. P सहं मज्झें । १०. MBP धेयउ T धइवउ । ११. M सामण्णे सरंतरसंतियए: B सरंतरसंनियए: सरंतरसंणियए। १२. M विचलियाइ; B विवलियाइ; P णिचल्लियाइ। १३. MB अंगुलियाइ; P अंगुल्लियाइ । १४. P तिपुन्वि । १५. MB समहत्थ । १६. K संचालियउ। १७. P जिणसमण । १८. MBP बावीस
वि सुइउ । १९. MP पधणीसणाम; B°पधणिणाम। २०. BP सुत्तपउत्तउ । ७. १. MBP लक्खु वि सुद्धहं । २. MBP गीयउ पंचउ । ३. MBP भणिय । ४. MBPT ढक्कराउ ।
५. MP बिहिं चेय विहासहि; B तिहिं चेय हिहासहिं ।
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६.७.९]
हिन्दी अनुवाद
१२३
६
विरतिके नाशक, मनुष्योंके द्वारा प्रशंसित बांसके सुषिर वाद्यसे स्वर उत्पन्न हुआ। जिसके ध्वनित होनेपर शाश्वत श्रुतियां (बाईस श्रुतियां षड्ज और मध्यम ग्रामोंमें से प्रत्येककी बाईस) मुक्त अंगुलीसे आठ श्रुतियाँ, कांपती अंगुलीसे तीन श्रुतियां उत्पन्न हुई और मुक्त अंगुलीसे दो श्रुतियां । व्यक्त अंगुलोके छोड़नेके कारण षड्जके साथ मध्यम और पंचम स्वर तथा सामान्य स्वरोंकी संज्ञाके समान काँपती हुई अंगुलीसे धैवत, गान्धार और विषाद स्वरोंसे संचालित, अर्धमुक्त ध्वनियाँ अंगुलियोंके द्वारा नाना आदरवाले, तुम्बरु और नारदके समान देवोंने ठीक की गयी वीणाको उस प्रकार प्रकट किया जिस प्रकार आगममें बताया गया है। दो प्रकारके वीणावाद्यों (विष्कल और त्रिपंच) घन वाद्यों ( कांस्यतालादि ) के द्वारा अनेक तालोंका एक साथ वादन हुआ। जिन भगवान्का मनमें सम्मान करनेवाले महादरणीय देवोंने गीत प्रारम्भ किया। नाभिस्थानमें उत्पन्न हुई वायु उरःस्थानमें क्रमशः नाद बनकर, कर्णस्थानमें बाईस श्रुतियां बनाती हैं, और क्रमसे रचित प्रमाणोंके द्वारा ( अर्थात् क्रमसे सात स्वरोंका उच्चारण करनेपर ) बढ़ता हुआ नाद वृद्धिको प्राप्त होता है। इन बाईस श्रुतियोंमें सा रे ग म प ध नि नामक सात स्वर और दोनों ग्राम कहे ( इनमें षड्ज ग्राम और मध्यम ग्राम हैं )।
पत्ता-देवोंके द्वारा पूजित षड्जमें किन्नरोंके द्वारा सात जातियां कही गयी हैं। और मध्यम ग्राममें लोगोंके कानोंको सुख देनेवाली ग्यारह जातियां कही गयी हैं। (इस प्रकार कुल अठारह जातियां होती हैं।)
सात और ग्यारह, इस प्रकार अट्ठारह जातियोंमें निबद्ध और लक्ष्य विशुद्ध अंगोंके एक सौ चालीस भेद होते हैं, उनका भी प्रदर्शन किया गया। उनमें कानोंको सुखद लगनेवाली पांच प्रकारको गीतियां होती हैं, जो शुद्धा, भिन्ना, वेसरा, गौड़ी और साधारणाके रूपमें जानी जाती हैं. इनमें और भी ग्राम राग कहे गये हैं। सात. पांच. आठ, तीन और सातकी संख्यासे गिने जाते हैं इस प्रकार क्रमशः तीस भेदोंका संग्रह किया। ये छह राग मानवोंके कानोंको सुख देनेवाले हैं, इनमें पहला राग टक्क राग कहा गया है, जो बारह भाषारागोंसे सहित है। आठ भाषारागों
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१२४
महापुराण
[६.७.१० आवाहियमोहियजगविलउ | हिंदोलउ चउभासाणिलउ । मालविकेसिउ छहि बुकियउ अवराहिं मि दोहिं मि अंकियउ। सुद्धउ सज्जु वि सत्तहिं कलिउ ककुहु मि तिहिं भासहिं संवलिउ । घत्ता-सुविहासहिं सरसहिं विहिं सहिउ सो गाइउ सुइलीणउ ।
मणहरियउ किरियउ दाघियउ जहिं परिगयपरिमाणउ ।।७।।
मलयविलसिया-दह चउगणिया संखा भणिया। भासाणं सा
छह वि विहासा ॥१॥ भणियउ रंजियबुहयणमणउ एयारह दहवर मुच्छणउ । एक्कुणवण्णास वि ताण जहिं . किं वण्णमि गेयारंभु तहिं । संजोय ताण बहुदिण्णरस
णीलंजस णञ्चइ विमलजस । भणु कासु ण सा दिहिहि भरइ णचंती जणहियवउ हरइ । तेरह विहु सीसु पणच्चियउ
छत्तीस दिहि परियंचियउ । णवतारउ परिपालियरइउ
अट्ठ वि रइयउ दंसणगइउ । तेत्तियविहु पुणरवि भावियउ । णंदप्पयारु फुडु दावियउ। भू सत्तभेय परहिययहर
छविह णासा कवोल अहर । सत्तविहु चिबुडे चउ मुहहु राय णव गल चउसहि वि करण भाय । सोलहविहु तिविहु चउविहु वि किउ करणमग्गु भुउ दहविहु वि । उरु सरविहु पासजुयलु तिविहु पोटटु वि पायडियउ तं तिविहु । कडियलु जंघा कमकमलाई तविहई जि णिहियई विमलाई। सउ करणहं वसुसंखाहियउ चलवत्तीसंगहारमियउ। चउ रेयय णडगुरुकित्तिधय सत्तारह पिंडीबंध कय । चारिउ सोलस दुअसंखियउ णचियउ जियक्खहिं अक्खियउ । वीस वि मंडलई पंयासियई ठाणाई तिणि संदरिसियई। पत्ता-संचरियहिं धरियहिं थाइयहिं भावहिं णडइ अणेयहिं ।।
भीसाइहिं जाइहिं णवरसहिं दावियणाणाभेयहिं ।।८।।
मलयविलसिया-वियलियहरिसं स हि णवमरसं।
झत्ति धरती दिट्ठ मरती ॥१॥ जिणणाहें सा णीलंजसिय
णं केण वि चित्ति कंदप्पति णं पंमुसिय
लायण्णतरंगिणि णं सुसिय। णं खणि विद्धंसिय रइहि पुरि णं हय जणणयणणिवाससिरि।। ८. १. MT विउउ; B चिवउ; GK चिउबु । २. M पसासियइं; P पसाहियई। ३. MBP आइहि ।
४. K हासाइहिं । ९. १. MB फुसिय । २. MBP पयपुसिय । ३. MB सुसुय ।
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६. ९.५]
हिन्दी अनुवाद
१२५
और दो विभाषारागों सहित पंचम रागका प्रदर्शन किया गया। समस्त विश्वकी स्त्रियोंको बाधित और मोहित करनेवाला हिन्दोलराग चार भाषारागोंका घर है । मालव – कैशिक राग छह जातियों में कहा जाता है और वह दो भाषारागोंमें अंकित है । शुद्ध षड्ज सात जातियोंमें रचा जाता है ।
घत्ता - इस प्रकार सरस सुविभास रागोंके द्वारा विधिपूर्वक कानोंको लीन करनेवाला वह ( गान ) गाया गया कि जिसमें सीमित परिमाणवाली सुन्दर क्रियाएँ दिखायी गयीं ||७||
८
दसमें चारका गुणा करनेपर चालीस भाषारागोंकी संख्या जाननी चाहिए । विभाषाराग छह कहे गये हैं । विद्वानोंके मनका रंजन करनेवाली, ग्यारह और दस, इस प्रकार कुल इक्कीस मूर्च्छनाएँ कही गयी हैं । जहाँ उनचास तानें कही जाती हैं, वहाँ में गीतारम्भका क्या वर्णन करूँ । उनके संयोगों से विभिन्न रसोंकी उत्पत्ति होती है । इस प्रकार विमल यशवाली नीलांजना नृत्य प्रारम्भ करती है । बताओ वह किसकी दृष्टिको आकर्षित नहीं करती ? नाचती हुई वह लोगों के हृदयका अपहरण कर लेती है। उसने तेरह प्रकारसे सिरको नचाया । छत्तीस प्रकारसे दृष्टिका संचालन किया, रागको पोषित करनेवाले नौ तारकों और आठों दर्शनगतियोंकी रचना की । फिर उसने तैंतीस भावोंका प्रदर्शन किया। और फिर नौ नन्दोंका प्रदर्शन किया । हृदयका हरण करनेवाला सात प्रकारका भ्रूसंचालन, छह प्रकारका नाक कपोल और अधरोंका संचालन, सात प्रकारका चिबुक और चार प्रकारका मुखराग, नौ प्रकारका कण्ठ और चौंसठ प्रकारके हस्तके भेदों का प्रदर्शन किया। सोलह, तीन और चार प्रकारके करण मार्ग और दस प्रकारके भुज-मार्ग बताये । उनके पाँच प्रकारों, पार्श्वयुगलके तीन प्रकारों और उदरके तीन प्रकारोंको प्रकट किया । कटितल, जांघों और चरण-कमलोंका प्रदर्शन भी उनके अपने भेदोंके साथ किया । इस प्रकार चंचल बत्तीस अंगहारोंके साथ एक सौ आठ कारणोंका प्रदर्शन उसने किया। चार प्रकारका रेचक, सत्तरह प्रकारके पिण्डीबन्धोंका, कि जो नटराजके कीर्तिध्वज हैं, प्रदर्शन किया । इन्द्रियोंको जीतनेवाले गणधरोंके द्वारा बतायी गयी बत्तीस प्रकारकी चारियोंका नृत्य किया । उसने बीस प्रकारके मण्डल और तीन संस्थानोंका सुन्दर प्रदर्शन किया ।
घत्ता - - धृति आदि संचारी भावों, स्थायी भावों, अनेक भाषाओं और जातियों, नाना भेदोंके प्रदर्शक नवरसोंसे नीलांजना नृत्य करती है ॥८॥
शीघ्र ही हर्षको विगलित करनेवाले नवम रस ( शान्त रस ) को वह धारण करती है, और ऋषभजिन उसे मरती हुई देखते हैं । जिननाथने उस नीलांजनाको देखा, उन्हें लगा मानो सौन्दर्यकी नदी सूख गयी हो, मानो क्षण-भर में रतिकी नगरी नष्ट हो गयी हो, मानो जननेत्रों में
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१२६
महापुराण णं रंगसरोवरि पउमिणिय कम्मेण कालरूवें लुणिय । णं चंदरेह णहि अत्यमिय
णं सुरधणुसिरि मरुणा समिय । रसवाहिणि दिण्णरवण्णसुह णं णासिय पिसुणे सुकइकह । णउ थण णञ्चणगुण णउ वयणु णउ विउलु रमणु संचियमयणु । णउ केसभारु णउ हारलय
णउ जाणहुं सुंदरि कहिं मि गय । सुण्णउं पंगणु हरिणीलयलु णं विजुविवजिउ मेहउलु । अमराहिवणारिरयणु मुयउ तं पेच्छिवि कोऊहलु हुयउ। हा हा भणंतु सोएं लइउ
अत्थाणु असेसु वि विम्हइउ । घत्ता-तहि मरणे करुणे कंपियउ भरहजणणु सवियकउ ।।
तुहिक्कउ थक्कउ तिजगगुरु कुसुमयंतु रइमुक्कउ ।।९।।
इय महापुराणे तिसहिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरइए महामव्वमरहाणु
मण्णिए महाकव्वे णीलंजलाविणासो णाम छट्टो परिच्छेओ सम्मत्तो ॥६॥
॥ संधि
४. MBP सरोवरं । ५. MBP णउ करकम । ६. M विभइउ; B विभयउ; P विभियउ । ७. MBP करणें । ८. MBP कुसुमयंत and gloss in P कुसुमवद्दन्ता या नीलंजसा तस्या रतेर्मुक्तः ।
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६.९.१५] हिन्दी अनुवाद
१२७ निवास करनेवाली श्री आहत हो गयी हो, मानो नाट्यरूपी सरोवरको कमलिनोको कालरूपी सर्पने काट लिये, मानो चन्द्रलेखा आकाशमें अस्त हो गयी; मानो इन्द्रधनुषको शोभाको हवाने शान्त कर दिया हो । न तो स्तन, न नृत्यगुण, न मुख और न संचित काम विपुल रमण, न केशभार, और न हारलता। मैं नहीं जानता सुन्दरी कहाँ गयो। नीलमणियोंसे विजड़ित आंगन सूना है, मानो बिजलीसे रहित मेघपटल हो। इन्द्रको रमणी मर गयी। यह देखकर उन्हें कुतूहल हुआ। हा-हा कहते हुए वह शोकग्रस्त हो गये । समूचा दरबार विस्मयमें पड़ गया।
घत्ता-उस मृत्यु और करुणासे काँपते हुए भरतके पिता विस्मयसे भर उठे। कुसुमके समान दांतोंवाले और रतिसे मुक्त त्रिजगगुरु चुप हो गये ॥९॥
इस प्रकार ब्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त इस महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महाभब्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका निलंजसा-विनाश नामक
छठा परिच्छेद समाप्त हुआ ॥६॥
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संधि ७
कयतिहुयणसेवें चिंतिउ देवें जगि धुउ कि पि ण दीसइ। जिह दावियणवरस गय णीलंजस तिह अवरु वि जाएसइ ॥१॥
खंडेयं-इह संसारदारुणे बहुसरीरसंघारणे ।
___वसिऊणं दो वासरा के के ण गया णरवरा ॥१॥ पुणु परमेसरु सुसमु पयासइ धणु सुरधणु व खणद्धे णासइ । हय गय रह भड धवलइं छत्तई सासयाई णउ पुत्तकलत्तइं। जंपाणई जाणई धयचमरइं। रविउग्गमणे जंति णं तिमिरई। लच्छि विमल कमलालयवासिणि णवजलहरचल बुहउवहासिणि । तणु लायण्णु वण्णु खणि खिज्जइ कालालिं मयरंदु व पिज्जइ । वियलइ जोव्वणु णं करयलजलु णिवडइ माणुसु णं पिक्कउ फलु । तृयहि लवणु जसु उत्तारिजइ सो पुणरवि तणि उत्तारिजइ । जो महिवइ महिवइहि णविज्जइ सो मुउ घरदारेण ण णिज्जइ। पत्ता-किर जित्तउ परबलु मुत्तउ महियलु पच्छइ तो वि मरिज्जइ॥
इये जाणिवि अधुंउ अवलंबिवि तउ णिज्जणि वणि णिवसिज्जइ ॥१॥
खंडयं-वइरिरायदप्पहरणं किं जोयइ मुयपहरणं।
___मण्णइ अप्पाणं घणं सरणविरहियं जयमिणं ॥१॥ जइ विधरंति वीर णर किंणर अरुण वरुण सपवण वइसाणर ।
गरुड जक्ख रक्खस विज्जाहर भय पिसाय णाय ससि दिणयर। MBP have, at the commencement of this samdi, the following stanza ;
हंहो भद्र प्रचण्डावनिपतिभवने त्यागसंख्यानकर्ता कोऽयं श्यामः प्रधानः प्रवरकरिकराकारबाहुः प्रसन्नः । धन्यः प्रालेयपिण्डोपमधवलयशोधौतधात्रीतलान्तः
ख्यातो बन्धुः कवीनां भरत इति कथं पान्थ जानासि नो त्वम् । MB read हंहे for हहो; प्रचण्डाधनि for प्रचण्डावनि; and °संख्यात° for °संख्यान । GK
do not give it. १. १. M reads खंडियं throughout। २. T ससमु but adds सुसमु वा शोभनोपशमयुक्तः ।
३. P खणद्धं । ४. MBP तियहिं । ५. B इउ । ६. B अधव: P अद्धउ । ७. MBP अवलंबियभुउ but gloss in P तपो गृहीत्वा ।
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सन्धि ७
१
त्रिभुवनकी सेवा करनेवाले ऋषभदेवने विचार किया कि संसारमें शाश्वत कुछ भी नहीं दिखाई देता जिस प्रकार नीलांजना नवरसोंका प्रदर्शन कर चली गयी, उसी प्रकार दूसरा भी संसारसे जायेगा ||१॥
खंडय - अनेक शरीरोंका नाश करनेवाले इस दारुण संसारमें दो दिन रहकर कौन-कौन नरश्रेष्ठ नहीं गये । फिर परमेश्वर शमभावको प्रकाशित करते हैं-धन इन्द्रधनुषकी तरह आधे पल में नष्ट हो जाता है । घोड़े हाथी, रथ-भट, धवल छत्र, पुत्र और कलत्र कुछ भी शाश्वत नहीं हैं । जंपाण, यान, ध्वज, चमर उसी प्रकार नाशको प्राप्त होते हैं जिस प्रकार सूर्यका उदय होनेपर अन्धकार चला जाता है । कमलके घरमें निवास करनेवाली विमल लक्ष्मी नवजलधरके समान चंचल और विद्वानोंका उपहास करनेवाली होती है । शरीर लावण्य और रंग एक पलमें क्षीण हो जाते हैं, कालरूपी भ्रमर उन्हें मकरन्दकी तरह पी जाता है । यौवन इस प्रकार विगलित हो जाता है मानो अंजुलीका जल हो । मनुष्य इस प्रकार गिर जाता है मानो पका हुआ फल हो । स्त्रियों के द्वारा जिसका नमक उतारा जाता है वही फिर तिनकोंपर उतार दिया जाता है । जिस राजाको दूसरे राजा नमस्कार करते हैं, वही मरनेपर घरकी स्त्रीके द्वारा नहीं पहचाना जाता है ।
घत्ता - चाहे शत्रुबल जीता जाये या महीतल भोगा जाये, बादमें तब भी मरना होगा । इस प्रकार अ ध्रुवत्व ( अनित्यता ) को जानकर, और तप ग्रहण कर एकान्त वनमें निवास करना चाहिए || १ ||
२
शत्रुराजके दर्पको चूर-चूर करनेवाले हाथ और हथियारको क्या देखता है । अपनेको समर्थ समझता है, यह जन शरणहीन है । यद्यपि इसे वीर नर, किन्नर, अरुण, वरुण, पवन सहित अग्नि,
१७
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१३०
महापुराण
[७.२.५
पडिबलकुलकाणणकालाणल इंद पडिंदहमिंद महाबल । पण्णारहखेत्तुब्भव जिणवर कुलयर चक्कवट्टि हरि हलहर । जइ वि धरंति देहभा भासुर पवराउहपवीण देवासुर । जइ परसइ मयरहरभंतरि किंकरहरिकरिरहवूहंतरि। सरसरिगिरिदरिकक्करकंदरि दुप्पवेसकुलिसायसि पंजरि । बहलतमंधयारमहिमूलइ
जइ पइसरइ गंपि पायालइ। तो वि जीउ कड्डिज्जई कालें हरिणा हरिणु व भिउडिकरालें। घत्ता-इय बुज्झिवि असरणु रुभिवि तियरणु जेण चरित्तु ण चिण्णउं ।।
तं माणुसवेसे वायविसेसें भमइ कलेवरु सुण्णउं ॥२॥
खंडयं-मित्तसयणसंजोयओ होउँ होइ विओयंओ।
एको च्चिय जगि जीयओ भमइ सकम्मविणीयओ ॥१॥ एकु जि जडु जञ्चंधु णउंसउ दुग्गउ दुठु दुबुद्धि दुरासउ । हुयउ कुमाणुसत्ति दुणिहालउ एक्कु जि जीउ चंडु चंडालउ । एक्कु जि धणुहरु सवरु वणंतरि एक्कु जि सुरवरु मणिमयसुरहरि । अप्पउ पुण्णहीणु पडिवज्जइ सयमहविहवपलोयणि झिज्जइ। एक जि णहि णहयरु थलि थलयरु एक जि बिलि विसहरु जलि जलयरु । एक्कु जि मूंगजोणिहि उप्पज्जइ परिहि तलिवि पउलिवि खणि खज्जैइ । उ दूसह दुम्मइ
णरयविवरि णारइयहिं हम्मइ । एक्कु जि तरइ मरइ वइतरणिहि चरइ जलणपज्जलियहि धरणिहि । घत्ता-एकु जि भवकद्दमि णिवडइ दुद्दमि रइसुहपंकयछप्पउ।।
एक्कु जि तवताविउ णाणे भाविउ होइ जीउ परमप्पउ ॥३॥
खंडयं-इय णिसुणिवि एयत्तणं गाढं णियमह णियमणं ।
___ एक्कु जि जीउ वरायओ सयलु वि अण्णु जि लोयओ ॥१॥ अण्णहिं परमाणुयहिं णिबज्झइ अण्णु जि पिंडु गब्भि संबज्झइ । अण्णु जीउ अण्णु जि दुक्कियमलु अण्णु जि सुक्कियउ अण्णु जि तहु फलु । अण्णहिं कुलि कलत्तु परिणिज्जइ अण्णु जि को वि पुत्तु णिप्फज्जइ । अण्णु जि मित्तु सयज्जि कयायरु अण्णु जि होइ सँणेहउ भायरु ।
अण्णु जि भिच्चु होइ धणलोहें जीउ तइ वि मोहिज्जउ मोहें। २. १. MBP पण्णारस । २. MBP देव भाभासुर । ३. MBP कुलिसायस । ४. MBP तमंधयारि ।
५. M कट्टिज्जइ। ३. १. Pसंजोयरु। २. P विओयरु। ३. MBP मिगजोणिहि। ४. M परिहि तलिज्जइ पउलिवि
खज्जइ। ५. B खिज्जइ । ४. १. MBP सुक्किउ । २. MBP पुत्तु को वि उप्पज्जइ । ३. MBP सकज्जि । ४. M सणेहें।
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७.४.७] हिन्दी अनुवाद
१३१ गरुड़, यक्ष, राक्षस, विद्याधर, भूत-पिशाच, नाग, चन्द्र, दिनकर, शत्रुओंके कुलरूपी काननके लिए कालानलके समान इन्द्र, प्रतीन्द्र और अहमिन्द्र, पन्द्रह क्षेत्रोंमें उत्पन्न जिनवर, कुलकर, चक्रवर्ती, हलधर और नारायण इसे धारण करते हैं। शरीरको कान्तिसे भास्वर तथा प्रवर आयुधोंमें प्रवीण देवासुर भी इस जीवको धारण करते हैं । यदि यह जीव समुद्रके भीतर, अनुचर ( सैनिक ), घोड़ों, हाथी और रथोंके व्यूहमें सरोवर-नदी, पहाड़-घाटी-कर्कश गुफामें, दुष्प्रवेश्य वज्र और लोहेके पंजरमें प्रवेश करता है या चाहे अत्यधिक तमवाली धरतीके मल या पातालमें जाकर छिप जाता है तब भी वह कालके द्वारा उसी प्रकार निकाल लिया जाता है, जिस प्रकार भृकुटियोंसे कराल सिंहके द्वारा हरिण।
पत्ता-यह अशरणभावना समझकर, मन-वचन और कायको रोककर जिसने चारित्र्य स्वीकार नहीं किया वह मनुष्यरूपमें वायुसे प्रेरित होकर व्यर्थ भ्रमण करता है ॥२॥
मित्र और स्वजनका संयोग होकर वियोग होता है, जगमें यह जीव अकेला ही परिभ्रमण करता है, अपने कमसे विनीत होकर । एक जीव जड़ जन्मान्ध नपुंसक दुर्गत दुष्ट दुर्बुद्धि और दुराशय, कुमनुष्यत्वमें होकर दुर्दर्शनीय होता है, एक जीव चण्ड और चाण्डाल होता है । एक वनके भीतर धनुर्धर भील होता है, एक मणिमय विमानमें देव होता है, अपनेको पुष्यहीन मानता है और इन्द्रके वैभवको देखकर क्षीण होता है। एक जीव आकाशमें नभचर और दूसरा स्थलमें स्थलचर । एक बिलमें सांप और जलमें जलचर। एक पशुयोनिमें जन्म लेता है, और दूसरोंके द्वारा खण्डित होकर तथा तलकर एक क्षणमें खा लिया जाता है। एक दुर्भग, दुःसह और दुर्गति, नरकविवरमें नारकियोंके द्वारा मारा जाता है। अकेला ही तरता है, अकेला ही वैतरणी पार करता है, और ज्वलित-प्रज्वलित धरतीपर विचरण करता है ?
पत्ता-जीव अकेला ही रतिसुखका भ्रमर बनकर दुर्दम, विश्वकीचडमें पड़ता है। जो अकेला ही तपसे संतप्त और ज्ञानसे भाषित होकर परमात्मा बनता है ॥३॥
इस प्रकार एकत्व भावनाको सुनकर अपने मनको प्रगाढ़ रूपसे नियमित करना चाहिए। बेचारा जीव अकेला है और समस्त लोकसे भिन्न है। भिन्न परमाणुओंके द्वारा बांधा जाता है और गर्भ में जो पिण्ड बंधता है, वह भिन्न है। जीव भिन्न है, और पापकर्ममल भिन्न है, पुण्य अलग है, और उसका फल अलग है। अन्यके द्वारा कुलमें स्त्री ले जायी जाती है। कोई दूसरा पुत्ररूपमें उत्पन्न होता है। अपने कार्यमें कृतादर मित्र दूसरा होता है, और स्नेही भाई दूसरा
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१३२
[७.४.८
महापुराण अण्णु जि भणइ महारउ मत्तउ उ जाणइ जिह सयलहिं चत्तउ । अण्णहिं जंति खणद्धे रहवर हयवरगयवरचिंध सचामर । परमत्थे ण को वि जगि कासु वि एक्कलउ जि जाइ पुहईसु वि। घत्ता-राएण णिबद्धउ इंदियलुद्धउ सुहु अण्णु जि महुँ भावइ ।।
ससहाउ ण पेक्खइ अण्णु जि कखइ जीउ महावइ पावइ ॥४॥
खंडयं-चउकसायरसरसियओ मिच्छासंजमवसियओ।
णाणाजम्मु वियारए आहिंडइ संसारए ॥१॥ णरयगइहिं उप्पण्णउ जइयहुं णारयणियरिहिं रुभिवि तइयहुँ । तिलु तिलु छिदिवि दिसिहि विहाइठ कवलिउ धुणिउ वणिउ विणिवाइउ । वारवार पच्चारिउ जूरिउ
विज्जुतरलतरवारिवियारिउ । एक्कु जि बहुयहि तहिं पारंभिउ खलिउ दलिउ पयमलिउ णिसुंभिउ । ओहामिउ भामिउ ओणामिउ सूलि कयंतदंति संकामिउ । अच्छोडिउ मोडिउ महिं पाडिउ विरसमाणु करवत्तहिं फाडिउ । लूरियंतु कोंतेहिं विहिण्णउ रुंदोदूह लि मुँसलहिं छुण्णउ । सत्तिहिं हूलिउ जंतिहिं पीलिउ जलियजलणजालोलिहिं जालिउ । वम्म विहेट्टणेहिं दुब्बोलिउ सेल्लभल्लिवावल्लहिं सल्लिउ। पूयकुंडि उप्पेल्लिवि घल्लिउ रुहिरोहलियदेहु ओणल्लिउ । घत्ता-मणि रोसु धरंतह रणि पहरंतह लग्गइ गत्तु विहत्तु वि ।।
सुहु णस्थि तमंधहं णारयसंढह णयणणिमीलणमेत्तु वि ।।५।।
खंडयं-सिंगीसु य पक्खीसु य
मुंजंतो भवसंगमं कायकंककोइलकारंडहिं सीहसरहसूयरसालूरहिं कीरकुररकुंजरसारंगहिं कुक्कुडमक्कडमहिसमरालहिं सेढासरढतरच्छहिं रिहिं तिक्खतिरिक्खदुक्खसंदाहिं बलजिम्मंथणु णियलणिबंधणु
दाढीसु य णक्खीसु य । ण लहइ जीवो णिग्गमं ॥१॥
सारसचासभासभेरुंडहिं। घारमोरमंडलमज्जारहिं । लावयपारावयहिं तुरंगहिं । मेसवसहखरकरहसियालहिं । मयरमहोरयकच्छवमच्छहिं । संभवंतु णाणाविहजोणिहिं । भारारोहणु णोणाबंधणु।
५. MBP एक्किल्लउ । ६. MB जणि; P मणि । ५. १. MRP संजमि वसियउ । २. MBP जम्म । ३. MB दिसहिं । ४. MBP मुसलें। ५. M
विहट्टणेण । ६. १. M लाययं । २. B कुंकुड। ३. MBP सेहा । ४. MP °रिच्छहिं । ५. MBP णासाविषणु ।
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७.६.९]
हिन्दी अनुवाद होता है । धन लोभसे अन्य भृत्य होता है, (यह) जीव मोहके द्वारा मुग्ध होता है । मतवाला वह, अन्यको कहता है कि यह हमारा है। नहीं जानता कि किस प्रकार वह सबके द्वारा छोड़ दिया जाता है। आधे पलमें रथवर, हयवर, गजवर और चामर सहित पताकाएँ दूसरी हो जाती हैं। परमार्थमें जगमें कोई भी किसीका नहीं है । पृथ्वीका ईश ( राजा ) भी अकेला होता है।
घत्ता-रागके द्वारा बाँधा गया इन्द्रियोंसे लुब्ध सुख भी मुझे अन्य प्रतीत होता है। अपने स्वभावको नहीं देखता, दूसरेकी आकांक्षा करता है इस प्रकार जीव महा आपत्ति पाता है ॥४॥
चार कषायरूपी रसमें आसक्त और मिथ्या संयमके वशीभूत होकर ( यह जीव ) नाना जन्मोंवाले संसारमें घूमता है। जब यह नरकगतिमें उत्पन्न होता है, तब नारकीय समूहके द्वारा अवरुद्ध होकर तिल-तिल टुकड़े कर दिशाओंमें विभक्त कर दिया जाता है। बार-बार पुकारा जाता और भत्सित किया जाता। विद्युत्की तरह चंचल तलवारोंसे विदारित किया जाता। अकेला ही बहुतोंके द्वारा आक्रान्त, स्खलित, दलित, पदमर्दित और फेंका जाता है। नीचे किया जाता, घुमाया जाता, झुकाया जाता, शूलीमें और यमके दांतोंमें। पछाड़ा और मोड़ा गया, धरतीपर गिर पड़ता है। चिल्लाता हुआ करपत्रों ( आरों) से फाड़ा जाता। भालोंसे विदारित टुकड़े-टुकड़े हो जाता। बड़े-बड़े ऊखलोंमें मूसलोंसे कूटा जाता। शक्तियोंसे पिरोया गया और यन्त्रोंसे पीड़ित किया जाता। जलती हुई आगकी ज्वालाओंसे जलाया जाता, मर्मभेदी अपशब्दोंसे बोला जाता, सेल, भालों और लौह-अंकुशोंसे छेदा जाता, पीप-कुण्डमें ढकेल दिया जाता, रक्तसे शरीर नहा जाता।
पत्ता-इस प्रकार मनमें क्रोध धारण करते हुए और युद्ध में प्रहार करते हुए उसका खण्डित शरीर होकर भी जा लगता है। इस प्रकार तमसे अन्धे नारकीय समूहमें पलमात्रका भी सुख नहीं है ॥५॥
शृंगधारी पशुओं-पक्षियों, दाढ़वाले और नखवाले पशुओंमें संसारके संगमको भोगता हुआ यह जीव निकल नहीं पाता। कौआ, बगुला, कोयल, चक्रवाक, सारस, चारभास, भैरुण्ड, सिंह, शरभ, सुअर, सालूर, घार, मोर, मण्डल, मार्जार ( बिलाव), कीर, कुरर, कुंजर, सारंग, लावा, पारावत, तुरंग, मुर्गा, वानर, महिष, मराल, मेष, वृषभ, खर, करभ, शृगाल, सेढ, सरढ, तरच्छ, रोछ, मगर, महोरग, कच्छप और मत्स्यों आदिकी तीखी तिर्यक् गतिके दुःखोंको देनेवाली नाना योनियों में उत्पन्न होता हुआ बलका नाश होना, बेड़ियोंसे जकड़ा जाना, भारका उठाना, नाना
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१३४
महापुराण
[७.६.१० छिंदणु भिंदणु ताडणु तासणु उक्त्तणु सरीरविद्धंसणु। सरपाहाणसंघसंघट्टणु
लोट्टणु आवट्टणु परिवदृणु । दृलणु मलणु मुसूमूरणु जूरणु पीलणु पउलणु दारणु मारणु । छह तिहाकिलेससंतावणु
भारारूढदेसपुरगामणु । एव दुक्खलक्खाइं सहेप्पिणु जीव तिरियगइ कह व मुएप्पिणु । घत्ता-णियकम्मवसायउ होइ चिलायउ पारसु बब्बरु सिंहलु ॥
हुणचीणणिवासउ अमणुयभासउ णउ पावइ अज्जवकुलु ॥६॥
खडयं-मेच्छो ण कुणइ णियहियं करइ दुर्लघं दुक्कियं ।
__ विहुरावत्तरउद्दए णिवडइ गरेयसमुहए ॥१॥ जइ वि लहइ अवियलु पविमलु कुलु हियइच्छिउ किं पि संपयफलु । खमदमसमसंजमसंजुत्तह तो वि ण लहइ संगु गुणवंतहं । कुगुरुकुदेवकुमग्गें मुज्झइ जिणवरवयणु कया वि ण बुज्झइ । जडविडकहियहु मयवहधम्महु लग्गइ काइं मि कुच्छियकम्महु । लुद्ध मुद्ध चंडिइ मंडिवि मिसु पियइ मज्जु कवलइ सरसामिसु । पसुबलि देतहं ण खमइ वइवसु मारउ मरिवि होइ पुणरवि पसु । विरसंतह सिरकमलु लुणिजइ सो वि तहिं जि अण्णे मारिजइ। पुत्वणिबद्धउ अग्गइ धावइ जो जं करइ सो जि तं पावइ । घत्ता-पसु फाडिवि खज्जइ वारुणि पिज्जइ सग्गु मोक्खु पाविजइ॥
जइ एण जि कम्में ता किं धम्में पारद्धि सेविज्जइ ॥७॥
खंडयं-हुर्यवहहुणिया सग्गयं जंति परावरमग्गयं ।
जाया देवा जइ अया एरिसया दियवरणया ।।१।। वेयकहियमंतहिं आयामइ तो अप्पाणउ कीस ण होमइ । सोत्तिउ सग्गंसोक्खु किं णेच्छइ किं कुसरीरें बद्धउ अच्छइ। णियडिंभइ मुइ धाहहि कंदइ छायैलु छावउ छम्मिउ छिंदइ । ताडिज्जइ संरुज्झइ बज्झइ वच्छु णिरोहिवि अण्णे दुंझइ । खाइ पुरीसु विबुद्धि वराई दुरियहलेण सुरहि संभूई।
लोयहु देवि भणिवि वक्खाणइ धुत्तु अधुत्तई वंचहुं जाणइ । ६. MBP छुहतण्हा । ७. M°गावणु । ८. MBP सिंघलु । ९. MBP अमुणियभासउ, but gloss in P नरभाषारहितः । ७. १. MBP मुणइ । २. B णरइ समुद्दए । ३. P°कुसम्में । ४. MBP कम्महु । ५. MBP धम्महु ।
६. MBT विलुज्जइ। ८. १. P हुयवहु । २. M सग्गभोग्गु; B सग्गजोग्गु; P सग्गभोग्गु । ३. MBP छायलछावउ । ४. MB
दुब्भइ। ५. MBP अधुत्तहं वंचइ ।
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७.८.८] हिन्दी अनुवाद
१३५ प्रकारके बन्धन, छेदन-भेदन-ताड़न, त्रासन-उत्कर्तन, शरीरका विध्वस्त होना, तीर और पत्थरोंसे संघर्षण, लोटना, घूमना-फिरना, दलन, मला जाना, मसला जाना, सताया जाना, पीड़ित होना, काटा जाना, फाड़ा जाना, मारा जाना, क्षुधा-तृष्णाके दुःखोंका सन्ताप और भारसे आरूढ़ होकर देश-पुर-गांवमें जाना, इस प्रकार लाखों दुःखोंको सहनकर जीव किसी प्रकार तिर्यक् गति छोड़कर
पत्ता-अपने कर्मके वशीभूत भील, पारसीक (पारसी(?)), बर्बर, सिंहल, हूण और चीनका निवासी होता है, मनुष्यकी भाषा नहीं जाननेवाला वह आर्यकुल नहीं पाता ॥६॥
म्लेच्छ भी अपना हित नहीं करता और वह अलंध्य दुष्कृत करता है, तथा दुःखोंके आवर्तसे भयंकर नरकरूपी समुद्र में पड़ता है। उसके बाद यद्यपि वह अविकल अत्यन्त पवित्र कुल पाता है और मनके द्वारा चाहे गये कुछ सम्पत्तिके फलको पाता है, तब भी गुणवानोंकी संगति प्राप्त नहीं करता। कुगुरु, कुदेव और कुमार्गमें मुग्ध होता है, जिनवरके वचनोंको कदापि नहीं समझता। मूखों और धूर्तोंके द्वारा कहे गये पशुवधधर्म और किसी भी कुत्सित कर्ममें लग जाता है, लोभी और मुग्ध वह चण्डिकाका बहाना बनाकर मद्य पीता है और सरस मांस खाता है। यम, पशुबलि देनेवालोंको क्षमा नहीं करता, मारनेवाला मारकर फिर पशु होता है। जो चिल्लाते हुए पशुओंका सिरकमल काटता है, वह भी दूसरोंके द्वारा वहां मारा जाता है। पहलेका संचित कर्म आगे दौड़ता है जो जैसा करता है वह वैसा ही पाता है।
पत्ता-पशु मारकर खाया जाता है, सुराका पान किया जाता है और यदि इस कर्मसे भी स्वर्ग-मोक्ष पाया जाता है, तो फिर धर्मसे क्या ? शिकारीको हो सेवा करनी चाहिए ॥७॥
आगमें होमे गये बकरे ( अज) स्वर्ग और मोक्ष गये हैं और देव हुए हैं, यदि ब्राह्मणोंका सिद्धान्त यह है, तो वेदोंमें कथित मन्त्रोंके द्वारा वह प्राणायाम आदि क्यों करता है ? अपनेको क्यों नहीं होम देता ? श्रोत्रिय स्वर्ग और मोक्ष क्यों नहीं चाहता, खोटे शरीरसे बंधा हुआ क्यों रहता है ? अपना पुत्र मरनेपर धाड़ मारकर रोता है, वंचक वह अज और उसके बच्चेका वध करता है, बेचारी गाय ताड़ित की जाती है, रोकी जाती है, बांधी जाती है, बछड़ेको रोककर अन्यके द्वारा दुही जाती है, मल खाती है। बुद्धिहीन और बेचारी पापके फलसे गाय हुई है, परन्तु देवी कहकर लोगोंसे उसकी व्याख्या करता है; धूर्तजन सीधे-सादे लोगोंको ठगना जानता है।
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१३६
महापुराण
[७.८.९ गाइ चउप्पय तणयरि जेही सूयरि हरिणि वि रोहिणि तेही । हा हा बंभणेण माराविय
रायह रायवित्ति दरिसाविय। पियरपक्खु पञ्चक्खु णिरिक्खइ मंसखंडु दियपंडिय भक्खइ। धोयंतउ दुद्ध पक्खालउ
होइ कहिं मि इंगालू ण धवलउ। एहु देहु किं सलिलें धुप्पइ हिंसारंभ डंभे लिप्पइ। अण्णपणे रंगे रंगिजइ
परमागमरसेण णउ भिज्जइ । मूढु जिणिदसेव कहिं पावइ सवणु गहणु धरणु वि ग विहावइ । पत्ता-मायारउ मण्णइ मुणि अवगण्णइ जीवहिंस पडिवज्जइ ॥
माणुसु वि हवेप्पिणु पाउ करेप्पिणु पुणु संसारि णिमन्जइ ।।८।।
खंडयं-ईसिणिउंचिय जोवणं कामकोहतवभावणं ।
काउं सेवइ जो वणं । सो पावइ तं भावणं ॥१॥ अवरु वि जायउ उववणठाणइ जोइसकप्पणिवास विमाणइ । वाहणु वेयालिउ छत्तियधरु वाइत्तयवायउ सब्भेयरु । णचणु गायणु सुईसुहदावउ अण्णु वि होइ असम्मयभावउ । णवर मरंतु संतु उग्विजइ वेवइ चलँइ घुलइ परिखिजइ । हा कप्पदुम हा माणससर हा णीहारहारसंणिहधर । हा अच्छरउलमणसंमोहण
हा परियणपडिवक्खणिरोहण । हर्यवलिपलियरोयसयसंचय हा हा दिव्वदेह हा णववय । हालंकारसार सहसंभव
हा गंधार महुर वीणारव । हा देवंगवत्थ णिच्चुजल
हा मंदारदाम चल सभसल । घत्ता-सम्मत्तविमुक्कहु जिणपयचुक्कहु अवसे हियउ ण सुज्झइ ।।
सग्गग्गु मुयंतहु पलयहु जंतहु कासु सरीरु ण डज्झइ ॥९॥
खंडयं-सुललियमइलियचेलयं
भोयविरोयणिबंधयं सयलजिणाहिसेयधुयमंदर हा हे कुलिसपाणि जगसुंदर
अइओहुल्लियमालयं । जायं मह खयचिंधयं ॥१॥ __ धूवधूमधूवियगिरिकंदर ।
ण रक्खिउ देव पुरंदर।
६. MBP हरिणी रोहिणि । ७. MBP दिउ पंडिउ। ८. MBP हिंसारंभि डंभि तो लिप्पइ ।
९. M विभावइ । ९. १. MT इसी and gloss मुनिर्भूत्वा; P इसि । २. MP सुदूसहदावउ । ३. MBP बलइ ।
४. MBP हा वलि । ५. MBP संचुय but gloss in P देह । ६. सोलंकार । ७. MB कासु ण
हियवउ; P कासु वि हियउ ण । १०. १. MBP विराय ।
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७.१०.४] हिन्दी अनुवाद
१३७ गाय जिस प्रकार चौपाया है और घास चरनेवाली है, उसी प्रकार सुअरनी, हरिनी और रोहिणी (मछली) भी। हा-हा, ब्राह्मणोंके द्वारा वे मरवायी जाती हैं और राजाके लिए राजवृत्ति दरसायी जाती हैं. पितरपक्षमें स्पष्ट देखा जाता है कि द्विज विद्वान मांसखण्ड खाते हैं. अंगार (के दूधसे धोनेपर भी कभी भी सफेद नहीं हो सकता। यह देह जो हिंसाके आरम्भ और दम्भसे लिप्त होती है, क्या पानीसे धोयी जा सकती है ? अन्य-अन्य रंगोंमें यह रंगी जाती है परन्तु परमागमके रसमें यह नहीं भीगती। मूर्ख जिनेन्द्रकी सेवा कैसे पा सकता है, उसे तो उसका सुनना, ग्रहण करना, धारण करना भी अच्छा नहीं लगता।
पत्ता-मायारत (मायावी ) को मानता है, मुनिको अवहेलना करता है, जीव हिंसा स्वीकार करता है, मनुष्य होकर भी पाप कर फिर संसारमें डूबता है ।।८।।
जो यौवन तथा काम-क्रोधसे सन्तप्त भावनाको थोड़ा नियन्त्रित कर वनमें तप करता है वह उस भवनवासी स्वर्ग में जन्म लेता है। और दूसरा उपवन स्थान, तथा ज्योतिष कल्पवास विमानोंमें उत्पन्न हुआ वाहन वैतालिक छत्रधारी वाद्य बजानेवाला भाँड़ आदि होता है। कानोंको सुख देनेवाला नृत्य और गायन करनेवाला असम्यक्वाला होता है। वह भी मरते हुएको चिन्ता करता है, कांपता है, चलता है और खेदको प्राप्त होता है। हाय, कल्पवृक्ष, हाय मानस सरोवर, हाय नीहारके समान घर । हाय अप्सराकुलका मन सम्मोहन करनेवाले, हाय परिजन और प्रतिपक्षका निरोध करनेवाले। इस त्रिबलि बुढ़ापा और सैकड़ों रोगोंके संचयका नाश करनेवाले, हाय दिव्य देह और नव वय । हाय, सहोत्पन्न अलंकारश्रेष्ठ। हाय, मधुर वीणा रववाले गन्धार । हाय, नित्य उज्ज्वल देवांग । हाय, चंचल भ्रमर सहित मन्दारमाला।
____ पत्ता-सम्यक्त्वसे विमुक्त और जिनपदसे चूके हुए व्यक्तिका हृदय शुद्ध नहीं होता, स्वर्ग छोड़ते हुए या प्रलयको प्राप्त हुए किस व्यक्तिका शरीर नहीं जलता ? ॥९॥
१०
सुन्दर मैले-कुचैले वस्त्रों और अत्यन्त झुकी हुई मालावाले मेरे मृत्युचिह्न ही शरीरसे विरक्त होनेका कारण बन गये हैं, जिनेन्द्रके जन्माभिषेकमें सुमेर पर्वतको धोनेवाले, और धूप
१८
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१०
१०
१३८
महापुराण
हा म माणुसेण होवउ सोविणिग्गमि दुक्खु णिएवउ हा हा देवलोय कहिं पेच्छमि जाउ मसाणहुत मणुयत्तणु अट्टरउद्दभाव संचोईय हा हा हा भiतु उर्भियकर
घत्ता - जिणधम्मपरंमुहु दुण्णयसंमुहु खयकाले अच्छोडिउ ॥ बहुविहमयमत्तें "इय मिच्छत्ते को भवगहणि ण पाडिउ || १०||
१०,
११
चोद्देहरज्जुपमाणयं । विस्सं णिचं णिश्ञ्चलं ॥१॥ केवलणाणविलोयणखेत्तइ ।
मिमलभेरियइ गभि वसेवउ । णारिउरोरुहछीरु पिएवउ । कुहियकलेवर वासु ण इच्छमि । वरे वणि होसमि चंदणु वंदणु । मिच्छादिट्ठि सुदिट्टिविओइँय । ऐम मरंत होंति सुर तरुवर ।
खंडयं - सारमेयवुडिंगयं
एसो कम्मले वरं अट्ठिलट्ठिकुड्डुयल णिउत्तर पार्सेलियातुलाहिं घणघडियउ पट्टिवस खंभुण्णय माणउ मेजैमंस चिक्खिल्ल विलित्तउ
खंडयं - तिप्पयारसंठाणयं
जीवाजीव सुसंकुलं थिउ आयासि अनंतानंतइ गादु गादु छहिं दव्वहिं भरियड पुग्गलजीवभावकयभेयहिं पहिलउ दाणवणरय णिवासउ atre ayaarक्खणिहेलणु कप्पाकप्पदेवणेवच्छउ मोक्खुवि आयवत्तसंहियरु परमाणु परमाणु ण पेक्खमि
घत्ता - चउगइहि मैरतें पुणु पुणु होंतें विहसिवि देवें वृत्त | सुहदुक्खणिरंतरि तिजगब्भंतरि जीवें काईं ण मुत्तउ ॥११॥
केण वि क ण ण वि धरियेउ । कालवसेण जाइ पज्जायहिं । पल्हत्थिय सराव संकासउ । वज्जोवमुपयत्थपरिघोलणु । तइयउ जगु मुईंगसारिच्छउ । जो तं पत्तउ सो अजरामरु । संसारियहु सोक्खु किं अक्खमि ।
१२ सारमेयसिवजोग्गयं । Hors तह विकलेवरं ॥१॥ दीहरणउणिवंधणवंतउ । सिंह खीयजडियउ । जंघायल मोड्डियथूणउ । णवदुवारु लोहियसंसित्तड ।
[ ७.१०.५
२. B भरियगभि । ३. MK खीरु । ४. MBP किं । ५. MBP वरि । ६. MBP संचोइउ |
O
९. M एम मरेवि होइ सुरु तरुवरु; BP एम मरेवि होइ
७. MBP विओइउ । ८. MBP करु । सुरतरुवरु; १०. MBP इह ।
११. १. MP चउदहं । २. Padds after this line : अच्छइ सयलु वि जीवहं भरियउ घियघड उल्लउ जिम तिम धरियउ । ३. M भवंतें; BP भभंतें ।
१२. १. MBP सारमेयवुड्ढीगयं । २. P तह व । ३. MBP णिबंधणवत्तरं । ४ MB पंसिलिया ; P पंसुलिया ं । ५. MBP खीलिहि । ६. BP समोडियं । ७. P मज्ज । ८. MBP दुवा ।
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७. १२.६] हिन्दी अनुवाद
१३९ धूम्रसे गिरि-गुफाओंको सुवासित करनेवाले हे इन्द्रदेव, तुमने भी मेरी रक्षा नहीं की। हाय, मुझे मनुष्य होना होगा तथा कृमियों और मलसे भरे गर्भमें रहना होगा। गर्भसे निकलनेपर दुःख देखना होगा ? नारीके स्तनसे निकलनेवाला दूध पीना होगा ? हाय-हाय देवलोक, मैं तुम्हें कहां देखूगा ? नष्ट होनेवाले शरीरमें मैं वास नहीं चाहता। वह मनुष्यत्व मरघटमें जाये, अच्छा है मैं वनमें चन्दन या वन्दन वृक्ष होऊँ। आठ प्रकारके रौद्रभावोंसे प्रेरित तथा सम्यक् दृष्टिसे विरहित मिथ्यादृष्टि, हाय-हाय करता हुआ दोनों हाथ उठाये हुए, इस प्रकार मरते हैं और देव वृक्ष बनते हैं।
पत्ता-जिनधर्मसे विमुख, दुर्नयोंके प्रति उन्मुख क्षयकालमें नष्ट हुआ कौन मनुष्य विविध मदोंसे मत्त मिथ्यात्वके द्वारा गहन संसारमें नहीं डाला जाता ॥१०॥
शराब आदिकी आकृतिवाला और चौदह राजू प्रमाण, तथा जीव और अजीव ( द्रव्यों) से अच्छी तरह व्याप्त यह विश्व नित्य और निश्चल है। अनादि-अनन्त तथा केवलज्ञानके अवलोकनका विषय आकाशमें स्थित है। जो सघन रूपसे छह द्रव्योंसे भरा हुआ है। उसे किसीने बनाया नहीं है, और न किसीने उसे उठा रखा है। पुद्गल जीव और भावसे निर्मित पर्यायोंसे कालके वशसे परिणमित होता रहता है। पहला ( अधोलोक ) दानव और नरकोंका निवास है जो उलटे सकोरेके आकारका है। दूसरा ( मध्यलोक ) वज्रके समान मनुष्योंका घर है। जिसमें पदार्थों (जीवादिकों) की प्रवृत्तियां होती रहती हैं। तीसरा लोक (ऊर्ध्वलोक ) मृदंगके आकारका है, और जिसमें कल्प-अकल्प देवोंका निवास है। मोक्ष भी छत्तेके आकारका है जो वहां पहुंच जाता है, वह अजर-अमर है । संसारीके सुखका क्या वर्णन करूं, मैं उसे परमाणुमात्र भी सुख नहीं देखता।
घत्ता-देवने ( गौतम गणधरने ) हंसकर कहा-चार गतियोंमें मरते हुए और बार-बार उत्पन्न होते हुए इस जीवने सुख-दुःखसे निरन्तर भरपूर इस त्रिलोकके भीतर क्या नहीं भोगा? ॥११॥
१२
प्रचुर मेदाके बढ़नेपर यह जीव कुत्ता और शृंगालके योग्य शरीरवाला बनता है। तब भी यह जीव संसारमें उस शरीरको श्रेष्ठ मानता है। हड्डियोंरूपी लकड़ियोंके ढाँचेपर निर्मित, लम्बीलम्बी स्नायुओंसे बंधा हुआ, पसलियोंरूपी तुलाओंसे अच्छी तरह कसा हुआ, जोड़ों-जोड़ोंपर कीलोंसे जड़ा हुआ, पीठरूपी बांसके खम्भेपर उन्नत मानवाला, मुड़ी हुई थूनियोंकी तरह जांघोंवाला,
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१४०
महापुराण
[७.१२.७ सेयसुकमंत्थिक्कदुगंधउ १°छिरतुंदाहिजालसंरुद्धउ । वोक्कयंतकिमिउलमलपोट्टलु वियलियरसवसवीस?" विट्टलु । अब्भंतरि किर केण पलोइउ वाहिरि चम्मपडलपच्छाइट। णिञ्चमुत्तलालाजलथिप्पिरु रोइ पूइ अधुउ संताविरु । सेंभपित्तमारुयदोसायरु
भूयगामदेहिहि देहु जि घरु । रमणीरमणरायरहसुच्छवु असुइ जि भक्खइ असुइसमुन्भवु । घत्ता-करिमयरहिं माणिइ गंगावाणिइ हाणिउ पहाणिउ मुज्झइ ।। . मयकामें कोहें मायामोहें मइलिउ देहु ण सुज्झइ ॥१२।।
खंडयं-दुविहतवम्मि सुलीणयं जइ करेह अप्पाणयं ।
असुइमिणं मणुयत्तयं ता हो होइ पवित्तयं ॥१॥ पंचिंदियसुहि मणु चोयंतहु तहु आसवइ कम्मु अतवंतहु । जाणावरणिउ पंचपयारउ दोवियपडपंगुरणवियारउ । णवविहदसणु गुणविणिवारउ तं णिजियणिसिद्धिपडिहारउ । दुविहु जि वेयणीउ गयसयणु व अमहु समहु असिधारालिहणु व । मोहणीउ मइरा इव मोहइ अट्ठावीसभेउ जिणु ईहइ। चउविहु चउगइगामिहिं ढुक्कइ आउसु हडि व णिरुभिवि थक्कइ । दोचालीसणामु णामंकउ
चित्तवण्णपरिणामासंकउ । दोविहु मइलसमुज्जललीलउ गोत्तु कुलालभाणभावालउ । अंतराउ चउएक्कविहायउ
लग्गइ कारिहिं वारियदायउ । पयडिट्ठिदिअणुभागपएसहिं बज्झइ चप्पिवि वंधविसेसहिं । घत्ता-गुणवंतु अणाइउ सुहुमु विवेइउ तिगइ दुअंगणिबद्धउ ।।
जिउ कत्तउ भोत्तउ भवतणुमेतउ उड्डेगामि संसिद्धउ ॥१३॥
खंडयं-एंतहु पावहु णिब्भरं जे विरयंति ण संवरं ॥
ताणं दुक्खवक्कडी पडिही सीसे णं तडी ॥१॥ रुज्झइ चित्तु झाणवित्थारें फासविलास धरणिसंथारें। रसु पसुपिंडग्गहणायारे
दिट्ठि ण घेप्पइ कहिं मि वियारें। ९. B°मथिक्क। १०. P थिर'; K छिर° but corrects it to थिर। ११. MBP वीउजि and gloss in P बीभत्सं अपवित्रम् । १२. M रमणीरमणु रायरहसुब्भउ; B°रहसुच्छउ;
P रहसूब्भउ but gloss उत्सवः । १३. १. MBP णाणावरणउ । २. T दंसियं । ३. MBP भेय । ४. M° अणुभाय । ५. M
बंधवसेसहिं । ६. MBP उद्धगामि । १४. १. P ए लहु and gloss ए आगमे प्रसिद्धः, तहु पावहु तस्य पापस्य । २. P°दुवक्कडी । ३. MBP
°विलासु । ४. MB रसवसु; P रस पसु ।
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७. १४.४ ]
हिन्दी अनुवाद
१४१
मज्जा और मांस की कीचड़से लिपटा हुआ, रक्तसे रंगे हुए नौ द्वारवाला, प्रस्वेद शुक्र और अस्थियोंसे दुर्गन्धित, शिराओंके कृमिजालसे संरुद्ध, विपरीत ढंगसे क्षरणशील कृमिकुलके मलका पोटला, विगलित रस और चर्बीसे युक्त अपवित्र यह शरीर है । भीतर इसे किसने देखा ? बाहर यह चर्मपटलसे आच्छादित है । नित्य ही मूत्र - लाररूपी जलसे चिपचिपा, रोगी, दुर्गन्धित और अत्यन्त सन्तापदायक । वात-कफ और पित्तके दोषोंका आकर, पृथ्वी आदि चार महाभूतोंके समूहका घर ही शरीर है । रमणीके रमणरागके हर्षसे आनन्दित यह जीव अपवित्रतासे उत्पन्न चीजों को खाता है।
घत्ता - हाथियों और मगरोंके द्वारा मान्य गंगाके पानी में नहा - नहाकर मोहको प्राप्त होता है । मद, काम, क्रोध, माया, मोहसे अपवित्र यह शरीर शुद्ध नहीं होता ॥ १२ ॥
१३
यदि वह दो प्रकारके तपमें अपनेको लीन करता है, तो यह अपवित्र मनुष्यत्व पवित्र होता है । पाँच इन्द्रियोंके सुखोंमें मनको प्रेरित करते हुए, और तप नहीं करते हुए जीवके कर्मका आस्रव होता है । ज्ञानावरणी पाँच प्रकारका है, जो वस्त्रके समान आवरण ( आच्छादन ) दिखाने वाला है; गुणोंका निवारण करनेवाला दर्शनावरणी नौ प्रकारका है; जो निर्जित और निषेध करनेवाले प्रतिहारीके समान है । रोगयुक्त शयनके समान वेदनीय दो प्रकारका है, जो मधुर सहित और मधुर रहित तलवारकी धारको चाटनेके समान सुखद और दुःखद है। मोहनीय कर्म मदिरा समान मुग्ध करता है, जिन भगवान् उसके अट्ठाईस भेद बताते हैं । चार प्रकारका आयुकम चार गतियों में जानेवालोंके द्वारा पहुँचता है और खोटकके समान वहीं अवरुद्ध होकर रह जाता है । नामकर्म बयालीस प्रकृतियोंका होता है और वह चित्रके रंगोंकी परिणति के समान परिणामोंसे युक्त होता है । कुम्हारके बर्तनोंके समान छोटे-बड़े आकारवाला गोत्रकर्म दो प्रकारका होता है - मलिन और समुज्ज्वल, ( उच्चगोत्र और नीच गोत्र ) । अन्तराय कर्म चार और एकपांच प्रकारका है जो करनेवालेको दानका निवारण करनेवाला होता है। तथा प्रकृति स्थिति अनुभाग प्रदेशवाले बन्ध विशेषोंसे बलपूर्वक जकड़ लेता है ।
घत्ता - गुणवान्, अनादि सूक्ष्म विवेकी, दो शरीरोंसे निबद्ध ( तैजस और कामण ) त्रिगतिवाला यह जीव कर्ता और भोक्ता उत्पन्न शरीर मात्र ऊर्ध्वगामी और स्वयं सिद्ध है ||१३||
१४
आते हुए पापका जो पूर्णं संवर नहीं करते, उनके ऊपर सिरपर बिजलीकी तरह असह्य वज्रपात होगा । ध्यानके विस्तार और धरतीपर सोनेसे स्पर्शविलासी चित्त रुक जाता है, पशुके पिण्डके समान आहार ग्रहण करनेसे रसना इन्द्रिय रुक जाती है, और वह दृष्टि विकारभावसे कुछ
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१४२
महापुराण
[७.१४.५
सवणु सुसरि दुसरेसु वि सरिसउ कीरइ पयलियरइआमरिसउ । णासारंधु गंधअविहत्तिइ मणवयकायदुरीह तिगुत्तिइ । दुरियहु सुयरिउ रक्खणु दिज्जइ रोसु खमाइ हो णियमिज्जइ । अविणयगारउ माणु मउत्तें मायाभाउ समुँज्जयचित्तें। लोहु सुपत्तदाणपविहाएं। अहवा सव्वसंगपरिचाएं। मर्यविब्भमु परगुणसंभरणे जिप्पइ हरिसु होंतु सुथिरमणे । देप्पु वि घोरवीरतवचरणे राउ रसियरामापरिहरणे । पत्ता-पिहियासवदारहु जुत्तायारहु अहिणउं कम्मु ण पइसइ॥
जं चिरु जीवासिउ तं पि अपोसिउ कायकिलेसें णासइ ॥१४॥
१५ खंडयं-मणमेत्ते वावारए एसो कीस ण कीरए ।
सासयसुहओ संवरो होहं होमि दियंबरो ॥१॥ पुणु परमेसरु सञ्चउ सुच्चइ काले अहव उवाएं पिञ्चेइ । जिह धरणीरुहहलु तिह दुक्किउ कामाकामियणिज्जरतक्किउ । तणयराहं सुसंहावें सोम्मह बंधणदारणमारणगम्महं। दूसहदुक्खभावभयभरियहं होइ अकामें णिज्जर तिरियहं । विरइजइ वेरम्मपहाणहिं
कामें णिज्जर रिसिसंताणहि । सिसिरायासणिवासायरणहिं रुक्खमूलअत्तावणकरणहि । थियपलियंकषित्तमहिदंडहिं गोदुहआसणेहिं गयसोंडहिं । पक्खमासवरिसंतुववासहिं 'देजवित्तिसंखाविण्णासहिं । घत्ता-ढोइयणीसासहि सुणितणुमूसहि खरतवजलणे तत्तउ ।।
जीविउ हेमुज्जलु थकइ केवलु बहुकम्ममले चत्तउ ॥१५॥
खंडयं-कुवहे जंतं रुभए णाणंकुसिण णिसुंभए ।
वयपायवणिल्लरणं साहू णियमणवारणं ॥१॥ ऐक्कगासदोगासाहारहिं
विविहावग्गहरसपरिहारहिं । दोहमंसुलोमहिं मलधरणहिं आयंबिलचंदायणचरणहिं । वोसट्टंगमुक्करइरंगहिं
वज्जियघरपुरदेसपसंगहि । सुण्णावासमसाणागारहिं
हयणेहहिं अणियत्तिविहारहिं । दंसमसयछुहतण्हासोसहि खलकयकण्णकडुयआकोसहिं । ५. MBP गंधु अं। ६. MBP एंतु। ७. M समुज्जल । ८. P मइविब्भमु । ९. B omits this
foot. १०. MBP रसिउ रामा। १५. १. मणमेत्तए । २. P पच्चइ । ३. MBP ससहावें। ४. BP सोमहं । ५. MEP पहाणहं । ६. M
सिरिसंताणहं; BP रिसिसंताणहं । ७. MBP वरिसधुवं । ८. MB वेज्ज । ९. कम्ममलें परि। १६. १. MBP कुपहे । २. P एक्कग्गासदुगासा । ३. M.
0
.
1
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७.१६.७] हिन्दी अनुवाद
१४३ भी ग्रहण नहीं करती। कान सुन्दर और असुन्दर स्वरोंमें समान हो जाते हैं, वे नष्ट राग-द्वेषवाले कर दिये जाते हैं। और गन्धके अविभाजन ( सुगन्ध-दुर्गन्ध आदि ) से नाक भी ( वशमें कर ली जाती है); तीन गुप्तियों ( मन, वचन और काय ) के द्वारा मन, वचन और कायकी दुश्चेष्टाओंको ( वशमें करना चाहिए ); सुचरितको पापसे संरक्षण दिया जाये, क्रोध होनेपर क्षमासे उसे नियमित किया जाये, मृदुतासे अविनय करनेवाले मानको, और सरलचित्तसे मायाभावको, सुपात्रको दान देकर लोभ अथवा सब प्रकारका परिग्रह छोड़कर। दूसरेके गुणोंको याद कर मदके विलासको और स्थिर मनसे होते हुए हर्षको जीतना चाहिए। घोर और वीर तपके आचरणसे दपंको और रसवन्ती स्त्रीके परित्यागसे रागको।
पत्ता-इस प्रकार जिसके आश्रवद्वार बन्द हैं ऐसे मुक्त आहार-विहारवाले जीवको कमका बन्ध नहीं होता, और जो पुराना संचित कम है अपोषित, वह काय-क्लेशके द्वारा नष्ट हो जाता है ॥१४॥
__ मनोमात्रके द्वारा आचरणमें ऐसा क्यों नहीं किया जाता कि शाश्वत सुखवाला संवर हो। "मैं दिगम्बर होता है।" फिर परमेश्वर सच सोचते हैं कि समय अथवा उपायसे जिस प्रकार वृक्षोंके फल पकते हैं, उसी प्रकार सकाम और अकाम निर्जरासे कल्पित पाप नष्ट होता है। स्वभावसे सौम्य शरीरधारियों, बन्धन, विदीरण और ताड़न आदि बातोंको प्राप्त होते हुए, असह्य दुःख भावसे भरे हुए तिर्यंचोंकी अनाम निर्जरा होती है। शिशिरमें आकाशके नीचे निवास करनेवाले, वृक्षोके मूलमें आतापन तपनेवाले, पर्यकासनोंमें स्थित और महीदण्डपर अपनेको निक्षिप्त करनेवाले गोदुह और गजशौंड आसनोंवाले, पक्ष-माह और वर्षके अन्त तक उपवास करनेवाले, देय और आहारको वृत्ति और संख्याकी रचना करनेवाले, वैराग्य प्रधान ऋषि सन्तानोंके द्वारा
घत्ता-श्वाससे चलते हुए मुनिके शरीररूपी धातुविशेष ( मूषा ) में तीन तपज्वालासे तपकर जीवन स्वर्णकी तरह उज्ज्वल और कर्ममलसे मुक्त होकर केवली होकर रह जाता है ॥१५।।
व्रतरूपी वृक्षको विदारित करनेवाले अपने मनरूपी हाथीको साधु कुमार्गमें जानेसे रोकता है और ज्ञानरूपी अंकुशसे उसे वशमें रखता है। एक या दो कोर आहार करनेवाला विविध अवग्रहों और रसोंका परिहार करनेवाले लम्बी दाढ़ी और बालवाले मलधारी, आताम्र और चान्द्रायण तपका आचरण करनेवाले, कायोत्सर्गसे रतिरंगको छोड़नेवाले, घर, पुर और देशके प्रसंगोंसे दूर रहनेवाले, शून्य आवास और मरघटोंको आवास बनानेवाले, स्नेहसे रहित और अनियमित विहार करनेवाले, दंश-मशक, भूख और प्यासको सहन करनेवाले, दुष्टोंके द्वारा
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१४४
[७. १६.८
महापुराण वायवहलुक्कंपियकायहिं
सीउण्हहिं परपहरणिहायहिं । केसालुंचणणिञ्चलत्तहिं
कंचणतणे सुहिरिउसमचित्तहिं विसमपरीसहसहणब्भासहिं रोयातंकर्हि कासहिं सासहिं । जम्मणमरणणिबंधुद्धाइउ एम खविजइ कम्मु पुराइउ । घत्ता-जिह हर्यणिज्झरणे बढे वरणे रविकरेहिं सरु सोसइ॥
तिह णियमियकरणे रिसितवचरणें भवकिउ कम्मु पणासइ ।।१६।।
खंडयं-इय काऊण णिज्जरं जे हणंति भवपंजरं।
णीरोयं अजरामरं ते लहंति सोक्खं वरं ॥१॥ जेण मोक्खफलु तं पाविज्जइ . सो धम्मंघिउ एहउ गिज्जइ । खैमखमायलंतुग्गयदेहउ
मद्दवपल्लउ अजवसाहउ । सञ्चसउच्चमूलु संजमदलु
दुविहमहातवणवकुसुमाउलु । चउविहचायपसारियपरिमलु पीणियभव्वलोयछप्पयउलु । दियसंदोहसद्दकयकलयलु सुरवरणरखेयरसुहसयफलु । दीणाणाहदीहसमणिग्गहु सुधु सोम्, तणुमेत्तपरिग्गहु । बंभचेरछायाइ सुहासिउ
रायहंसणियरेहिं समासिउ । एहउ धम्मरुक्खु लक्खिज्जइ जीवदयावईइ रक्खिज्जइ। झोणु ठाणु भल्लारउ किन्जइ मिच्छामयहुं पवेसु ण दिज्जइ । सीलसलिलधारइ सिंचिज्जइ एम पयत्ते वड्डारिज्जइ। घत्ता-कोवाणलचुक्कउ होइ गुरुक्कउ जाइं रिसिंदहिं सिट्ठई ॥
जगि ताई सुहंकरु धम्ममहातरु देइ फलाइं सुमिट्टई ॥१७॥
खंडयं-जहिं होहिम्मि भवे भवे तहिं देहम्मि णवे णवे ।
दुक्खलक्खणिण्णासणे होउ भत्ति जिणसासणे ॥१॥ अवरु णिरंतरु उज्झियगठवें इये मग्गेवउ मणुएं भवें । चित्तु धुत्तसिद्धंतपरंमुहुं
भवि भवि होउ जिणागमि संमुहूं। पंचिंदियपडिभडबलु भज्जउ भवि भवि विमलबुद्धि उप्पजउ । विसयकसायरायपरिचत्तउ भवि भवि होउ तिगुत्तिउत्तउ । आसापासणिबंधणु तुट्टउ
भवि भवि मोहजालु ओहट्टउ। ४. MBP° तिणं । ५. MB णिबंधे आइउ; P°णिबंधइ आइउ । ६. K हर and gloss हृत । १७. १. BPK परं । २. M खमखमायलतग्गयदेहउ; B खमखमायलु तुंगयदेहउ; P खमखमायलुत्तंगयदेहउ ।
३. MBP सुरणरवर । ४. MBP सोमु । ५. MP झाणठाणु; B झाणट्ठाणु । ६. B पवत्ते । ७. M
पट्टारिज्जइ ; बड्ढाविज्जइ । १८. १. MBP होहम्मि । २. B होइ । ३. P इउ । ४. MBP पयत्तउ।
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७. १८. ७ ]
हिन्दी अनुवाद
१४५
किये गये कर्णकटुक आक्रोशवाले, वायु और बादलोंसे उत्कम्पित शरीरसे युक्त मुनियोंके द्वारा शीतोष्ण पर-प्रहारके समूहों, केशलोंच और अचेलकत्वों (दिगम्बरत्व), स्वर्णं और तृण, मित्र और शत्रुमें समचित्तों, विषम परीषहोंके सहन करनेके अभ्यासों, रोगोंसे आक्रान्त खाँसी और श्वासोंके द्वारा, जन्म और मृत्युके प्रबन्धमें प्रवृत्त पुराने कर्मोंका इस प्रकार क्षय किया जाता है ।
घत्ता - जिस प्रकार झरना सूखने और पाल बंध जानेपर रविकी किरणोंसे सरोवर सूख जाता है, उसी प्रकार इन्द्रियोंको नियमित करने और ऋषिके तपका आचरण करनेसे संसार में किया गया कर्म नष्ट हो जाता है ||१६||
१७
1
इस प्रकार निर्जरा कर भव रूपी कारागृहको नष्ट कर देते हैं वे नीरोग अजर-अमर श्रेष्ठ सुख प्राप्त करते हैं । जिससे मोक्षरूपी फल प्राप्त किया जाता है वह धर्मरूपी वृक्ष इस प्रकार वर्णित किया जाता है । उसका शरीर क्षमारूपी पृथ्वीतलसे उत्पन्न है । मार्दव उसके पत्ते हैं, आजव उसकी शाखाएँ हैं, सत्य और शौच्य उसकी जड़ है, संयम उसका दल है, वह दो प्रकारके महातप रूपी नवकुसुमोंसे व्याप्त है, जिसका चार प्रकारके त्यागका परिमल प्रसारित हो रहा है और जो भव्य लोकरूपी भ्रमरकुलको प्रसन्न करता है, जिसमें मुनिसमूहके शब्दोंकी कलकल ध्वनि हो रही है, जो सुरवर, विद्याधर और मनुष्योंको शतशुभ फल देनेवाला है, दीन और अनाथोंके दीघं श्रमका निग्रह करनेवाला है, जो शुद्ध, सौम्य और शरीर मात्रका परिग्रह रखनेवाला है, जो ब्रह्मचर्यं की छाया ( कान्ति ) से शोभित है, राजहंसोंके समूहसे समादृत है । इस धर्मरूपी वृक्षको देखना चाहिए और जीवदयारूपी वृति ( बागड़ ) के द्वारा रक्षा करनी चाहिए। उसे ध्यानरूपी स्थाणुका सहारा देना चाहिए, मिथ्यात्वरूपी पशुओं को उसके पास प्रवेश नहीं देना चाहिए, शोलरूपी जलकी धारासे उसका सिंचन करना चाहिए। इस प्रकार प्रयत्नपूर्वक उसे बढ़ाना चाहिए ।
घत्ता - क्रोधरूपी ज्वालासे बचनेपर यह धर्मरूपी वृक्ष शीघ्र बड़ा हो जाता है, जिनकी रचना ऋषीन्द्रोंने की है, जगमें उन अत्यन्त मीठे फलोंको यह शुभंकर धर्मरूपी महावृक्ष देता है ||१७||
१८
मैं जन्म-जन्म में जहाँ होऊँ, वहां नये-नये शरीरमें लाखों दुःखों का नाश करनेवाले जिनशासनकी भक्ति हो । धूर्तों के सिद्धान्तोंसे पराङ्मुख चित्त जन्म-जन्म में जिनागमके सम्मुख हो । पंचेन्द्रिय प्रतिशत्रुओं का बल नष्ट हो, जन्म-जन्ममें विमल बुद्धि उत्पन्न हो, विषयकषाय और राग भावसे परित्यक्त तीन गुप्तियां जन्म-जन्ममें हों । जन्म-जन्ममें आशापाशका बन्धन टूटे और मोहजाल
१९
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१४६
महापुराण
[७. १८.८ संजयसाहुसंगसोहियमलि भवि भवि होउ जम्मु सावयकुलि । रँयमूढह संबोहणगारा
भवि भवि रिसि गुरु होंतु भडारा । दीणि करुण उप्पेक्ख दयंतइ भवि भवि रइ वड्डउ गुणवंतइ । वयजोग्गउ सरीरु संपज्जउ
भवि भवि तवसिहितावें झिजउ । धणु परियणु पुरु घरु मा ढुक्कउ भवि भवि उरि उवसमसिरि थक्कउँ । ण रमउ णारिंरूवि हियउल्लउ भवि भवि हवउ णिरहु णीसल्लउ । ओसारियदहपंचपमाएं
भवि भवि दियह जंतु सज्झाएं। दसणणाणचरित्तपयासे
भवि भवि मरणु' होउ संणासें। घत्ता-लद्धाइ समाहिइ भवि भवि वोहिइ जीवउ जीउ विरत्तउ ॥
संसारुत्तरणई जिणवरचरणइं भवि भवि मणि सुमरंतउ ॥१८॥
१५
खंडयं-इय जो चिंतइ णियमणे अणुवेक्खाओ थिउ वणे ।
मोत्तूणं भवसंपयं सो पावइ परमं पयं ॥१॥ महु पुणु सरणउं सिद्ध भडारा दकिम्मीरकम्मविणिवारा। अक्खसोक्खयुक्खे णिरु णिच्छिहँ भवसिप्पीरभारहुयवहसिह । इय चिंतंति वहति समत्तणु पउणंती रइभूमिणियत्तणु। सकें जिणमइ जाणिय जावहिं लोयंतिय संपाइय तावहिं । बंभसग्गलोयंतकयालय
देहकतिदीवियदिप्पालय। पुव्वजम्मकयधम्मपहावण
अणुदिणु संभाविय सुहभावण । घल्लियकुसुमंजलिकेसर्ररय
रयमहुयरउलसवलियपहुपय । ते भणंति भावे मउलियकर जय देवाहिदेव परमेसर । पई ण मुणिउं जं तं किर केहउ किं गिरि किं परमाणुउ जेहउ । सुसिरु अणंतु तिलोयणिवासउ किं आयासु अलक्खपएसउ । जीउ कम्मु पोग्गल वित्थिण्णउ भणु तुह णाणे काई ण भिण्णउ । तुहुं"सईभुससमाहि विसुद्धउ चारु चारु जं सई पडिबुद्धउ । इंदियपाणासंजमु छंडिवि अप्पउ सीलगुणोहें मंडिवि । घत्ता-उप्पाइवि केवलु अवियलु गयमलु तच्चु सुसच्चउ अक्खहि ॥
पायालि पडतउ पलयहु जंतउ मुवणु भडारा रक्खहि ।।१९।।
५. B°साहुसंगि । ६. MBP जम्मु होउ । ७. MBP रइमूढहु; T रयमूढहो । ८. MBP उप्पज्जउ ।
९. M थक्किउ । १०. MBP होउ । ११. MK मरण । १९. १. B परमप्पयं । २. P दिढं । ३. MBP पिक्खइ । ४. M णिप्पिह । ५. MBPT चित्तंति, gloss
in MT हृदयमध्ये, but in P चिन्तयति सति । ६. B संपावियभाविहिं; P संपाइय ताविहिं। ७. MBP दिव्वालय and gloss in MP दीप्तविमानाः; but T दिप्पालय दशदिक्पालाः । ८. P 'केसरिरय । ९. MBP परिमाणुउ । १०. BP पोग्गल । ११. MBP सयंभु । १२. MBP सुसमाहि।
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७. १९. १७] हिन्दी अनुवाद
१४७ कम हो । संयमी साधुओंके संगसे शोधित श्रावककुलमें मेरा जन्म, जन्म-जन्ममें हो। अनुरक्त मूल्को सम्बोधित करनेवाले आदरणीय ऋषि जन्म-जन्ममें मेरे गुरु हों। दीनमें करुणा, दशाशून्यमें उपेक्षा और गुणवान्में मेरी रति भव-भवमें बढ़े। जन्म-जन्ममें तपकी आगसे क्षीण मेरा शरीर व्रतके योग्य हो। जन्म-जन्ममें धन-परिजन, पुर और घर उपस्थित न हो, उपशमश्री मेरे मनमें स्थित हो। मेरा हृदय नारीके रूपमें न रमे, भव-भवमें वह निष्पाप और इच्छाओंसे शून्य हो। पाँच प्रकारके प्रमादोंको दूर हटानेवाले सत् ध्यानमें जन्म-जन्म मेरे दिन जायें, दर्शन, ज्ञान और चरितको प्रकाशित करनेवाले संन्याससे मेरा मरण जन्म-जन्ममें हो।
घत्ता-भव-भवमें रत्नत्रयकी एकता और प्राप्तिमें विरक्त जीव जीवित रहे। संसारसे उतारनेवाले जिनवरके चरणोंको जन्म-जन्ममें मनमें स्मरण करता रहूँ ॥१८॥
इस प्रकार जो वनमें स्थित होकर अपने मनमें अनुप्रेक्षाओंका चिन्तन करता है वह भवसम्पदाको छोडकर परमपदको प्राप्त करता है। मेरे लिए दढ और विचित्र कर्मोका निवारण करनेवाले, इन्द्रियोंके सुख वर्गमें अत्यन्त निस्पृह, संसाररूपी तृणभारके लिए अग्निज्वालाके समान, आदरणीय सिद्ध मेरे लिए शरण हों। यह सोचते हुए और सम्यक्त्व धारण करते हुए एवं रतिभूमिका निवर्तन करते हुए, जिनकी बुद्धिको जैसे ही इन्द्रने जाना वैसे ही लौकान्तिक देव वहां आ पहुंचे। जिनका घर ब्रह्मस्वर्गका लोकान्त था, जो शरीरकी कान्तिसे दिव्यालयको आलोकित करनेवाले थे, पूर्वजन्ममें धर्मकी प्रभावना करनेवाले, प्रतिदिन शुभभावनाओंकी सम्भावना करनेवाले, और जो फेंकी गयी कुसुमांजलिकी केशर रजमें लीन मधुकरकुलसे जिनचरणोंको शवलित करनेवाले थे। भावपूर्वक हाथ जोड़कर वे कहते हैं-"हे देवाधिदेव परमेश्वर, आपकी जय हो। जिसको आप नहीं जानते, वह कैसा है, क्या गिरिके समान है, या परमाणु जैसा। अलोकाकाश और त्रिलोकका निवासभूत लोकाकाश क्या अलक्ष्य प्रदेश है? जीवकर्म पुद्गलका विस्तार, बताओ तुम्हारे ज्ञानको क्या ज्ञात नहीं है ? अपनी समाधिसे विशुद्ध तुम स्वयम्भू हो, यह सुन्दर हुआ जो आप स्वयं प्रबुद्ध हो गये, इन्द्रिय और प्राणोंके संयमको छोड़कर, अपने आपको शीलगुणोंसे अलंकृत कर
घत्ता-अविकल केवलज्ञानको प्राप्त कर गतमल सच्चा तत्त्व कहिए । पाताललोकमें गिरते हुए और प्रलयको प्राप्त इस विश्वको, हे आदरणीय, बचाइए ॥१९॥
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१४८
महापुराण
[७.२०.१
२०
खंडयं-तुह वयणंसुपसाहिए जगकमले संबोहिए।
कुसमयखलखज्जोयया होंति देव हयतेयया ॥११॥ मोहजलणजालावलि णिरसहि धम्मामयअंबुहर पवरिसहि । पाववज्जलेवंतणिहित्तई
जरकसरा इव कद्दवि खुत्तई । उत्तारहि परमप्पय भूयई रंगणडा इव णाणारूवई। एम भणेप्पिणु गय लोयंतिय देवें परहियबुद्धि विचिंतिय । तहिं अवसरि बुह्यणिहिं समस्थिउ भरहु महीसरेण अब्भत्थिउ । पुत्त पुत्त लइ पालहि वसुमइ मई पुणु साहेवी पंचम गइ। तं णिसुणेवि कुमार वुत्तउं देव देव किं भणहि अजुत्तउं । जं तुहे भुत्तुज्झियआहारें ' तंण सोक्खु भोयणवित्थारें। जं तुह णियडासणइ णिविट्ठहु तं ण सोक्खु हरिवीढि बइठ्ठहु । जं महु तुह अग्गइ धावंतहु तं ण सोक्खु गयखंधहिं जंतहु । जं पायडियउ तुह पर्यछाहिइ तं ण सोक्खु महु छत्तहु छाहिइ । मंतिमहासेणावइपुज्ज
पई रहिएण ताय किं रज्जें। घत्ता-जंपियउ जिणेसें णाउ विसेसें जइ पहुपयहि ण जुज्जइ ॥
__ तो लोउ रउदें जुज्झवि महें मच्छे मच्छु व खज्जइ ॥२०॥
२१
खंडयं-कुरु कुरु धरणीपालणं णायाणायणिहालणं ।
धरि धरि महिवइसासणं एयं चिय मह पेसणं ॥१॥ तं णिसुणेवि णिरुत्तर जायउ थिउ तणुरुहु संभूयविसायउ । सोणंदेयहु दिण्णु सुहकरु पोयणपुरु पविहिण्णवसुंधरु । अण्णेकहुं अण्णण्णई दिण्ण
मंडलाई ढोइयधणधण्णई। एत्थंतरि संपेसिय राणा देवें जे एकेक पहाणा। छक्खंडावणिपसरियतेयहु लग्गा रायमहाअहिसेयहु । णरकरकोणाहयहिं गहीरहिं वज्जंतहिं चामीयरतूरहिं । धवलिहिं मंगलेहिं गिजंतिहिं खुजयवावणेहिं णचंतिहिं । कोमिणिमित्तगत्तरोमंचहिं होमदाणपारंभपवंचहिं। ससहरमणिमएहिं णिक्कलुसिहिं सयलतित्थजलभरियहिं कलसहिं । जय रायाहिराय पभणंतहिं अहिसिंचियउ भरहु सामंतिहिं । हासससंककाससंकासई
परिहाविउ सुइसुब्भई वासई। कण्णहि कुंडलाई आइद्ध
चंदाइच्चहं तेयसमिद्धई। करि कंकणु गलि हारु विलंबिउ सिरि सेहरु महुयरमुहचुंबिउ । २०. १. MBP धम्ममहामयजलहर वरिसहि । २. MBP°वज्जलेवत्त । ३. MBP कद्दमि । ४. MBP
भणिउं । ५. B तुहं भुत्तु उज्झियं । ६. P पयछाएं । ७. P छाएं । ८. K जुंजइ । २१. १. MBP वावणेहि । २. BMK कामिणिसित्त । ३. MBP पहिराविउ ।
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७. २१.१५] हिन्दी अनुवाद
१४९ २० आपकी वचनरूपी किरणोंसे प्रसाधित विश्वकमलके प्रबुद्ध होनेपर, हे देव मिथ्यामत और दुष्टरूपी खद्योत हततेज हो जायेंगे। मोहरूपी ज्वालावलीको हटाइए, और धर्मामृतरूपी मेघोंकी वर्षा कीजिए। पापरूपी वज्रलेपसे लिप्त बूढ़े गरियाल बैलके समान, (भव )-कीचड़में फंसे हुए तथा रंगनटकी तरह नानारूप धारण करनेवाले प्राणियोंका उद्धार कीजिए।" यह कहकर लोकान्तिक देव चले गये। दूसरेके कल्याणकी बुद्धिवाले देवने विचार किया। उस अवसरपर बुधजनोंके द्वारा समर्थित भरत महीश्वरसे अभ्यर्थना की, "पुत्र, पुत्र, लो, अब तुम पृथ्वीका पालन
मैं पांचवीं गति ( मोक्षगति ) का साधन करूंगा।" यह सुनकर कुमार बोला, "हे देवदेव, यह क्या अयुक्त कहते हैं, तुम्हारे खानेसे छोड़े गये आहार में जो सुख है, वह सुख भोजनके विस्तारमें नहीं है; तुम्हारे आसनके निकट बैठनेमें जो सुख है वह सुख सिंहासनपर बैठनेमें नहीं है। तुम्हारे सामने दौड़ते हुए मुझे जो सुख है वह सुख हाथोके कन्धोंपर जाते हुए नहीं है । तुम्हारे पैरोंको छायाने मुझमें जो सुख प्रकट किया है, छत्रको छायासे वह सुख मुझे प्राप्त नहीं है। मन्त्री और महासेनापतिके द्वारा पूज्य तुम्हारे नहीं रहनेपर, हे तात राज्यसे क्या ?"
__ पत्ता-यह जानकर जिनेश्वरने विशेष रूपसे कहा, "यदि तुम्हें राजाका पद अच्छा नहीं लगता तो जबरदस्ती भयंकर युद्ध कर मछलीके द्वारा मछलीकी तरह एक दूसरेको खा जायेंगे ॥२०॥
इसलिए तुम धरतीका पालन करो, न्याय-अन्यायको देखो। राजाके शासनको स्वीकार करो-मेरा तुम्हें यह आदेश है।" यह सुनकर भरत निरुत्तर हो गया। वह विषादसे खिन्न रह गया। सुनन्दाके पुत्र बाहुबलिको धरती विभक्त शुभ पोदन दिया गया। दूसरे-दूसरे पुत्रोंको धनघान्यसे परिपूर्ण दूसरे-दूसरे मण्डल दिये गये। इस बीच राजाओंको प्रेषित किया गया, जो एकसे एक प्रधान थे, छह खण्ड धरतीमें प्रसारित है तेज जिसका, ऐसे राज्याभिषेकमें लग गये। मनुष्योंके हाथों द्वारा डण्डे (वादन-काष्ठ) से आहत, बजते हुए स्वर्ण तूर्यों, गाये जाते हुए धवल मंगल गीतों, नृत्य करते हुए कुब्जों और बौनों, स्त्रियों और मित्रोंके शरीर रोमांचों, होम और दानके प्रारम्भके विस्तारों तथा स्फटिक मणियोंसे निर्मित, निष्कलुष समस्त तीर्थोके जलोंसे भरे हुए कलशोंके साथ 'जय राजाधिराज' कहते हुए सामन्तोंने भरतका अभिषेक किया। और हास्य चन्द्रमा और काशके समान (धवल ) पवित्रतासे बनाये गये वस्त्र उन्हें पहना दिये गये, सूर्य और चन्द्रमाके तेजसे समृद्ध कुण्डल कानोंमें बांध दिये गये; हाथों में कंगन और गलेमें हार पहना दिया गया और सिरपर मधुकरोंके मुखोंसे चुम्बित शेखर । रत्नकिरणोंसे चमकता हुआ कटिसूत्र कमरमें छुरीके
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१५०
महापुराण
[७. २१. १६ कडियलि रयणकिरणविप्फुरियइ बद्धउ कडिसुत्तउ सहुं छुरियइ। बंभमुत्तु उरि चारु चडाविउ तिलएं तइयउ जयणु व दाविउ । हरिकरिससिरविरूवणिबद्ध उभियाइं विमलई कुलचिंधई। परिमुक्कमलइं धवलइं छत्तई णं जिणकित्तिभिसिणिसयवत्तई। मय मायंग तुरंग सलक्षण पुज्जिय गह काणीण वियक्खण । घत्ता-उच्चाइउ आयहिं पइअणुरायहिं आसीवायणिघोसहिं ।।
सिरिभरहकुमारहु महिभत्तारहु बद्धउ पट्टु गरेसहिं ॥२१॥
२२ खंडयं-सीहासणसिहरासिओ सोहइ भुअणपसंसिओ।
गिरिकडए धुयकेसरो केसरि व्व भरहेसरो ॥१॥ दसदिसिवहसंपाइयसुरवरु तहिं अवसरि दीसइ विउलंबरु । बहुविमाणभारणं णवियउ धंयवडेहिं णावइ पल्लवियउ। आयवत्तुं फुल्लहिं णं फुल्लिउ तरुणीथणवलेहिं ओणलिउ । थियझसहंसचासवाहणगणु णावइ जिणवरपुण्णमहावणु । णं तुरयहिं धावंतहिं धावइ संदणेहिं रविभरियउ गावइ । कुंजरेहिं णं मेहहिं छइयउ
असिवरेहिं णं विज्जुवलइयउ । हरियारुणरुइल्लु णं सुरधणु णं अवलंबइ णवपाउसगुणु । विहुणिक्खवणपयासणयालइ एम परायउ सुरयणु लीलइ। गउ तहिं जहिं अच्छइ रंजिर्यसहु रिसहणाहु णिण्णाहु महापहु। पत्ता-कमलासणु केसवु ससहरु वासवु सिधु बुधु हरु दिणयरु ।।
चामीयरघडियइ रयणहि जडियइ पट्टि णिसण्णउ जिणवरु ।।२२॥
२३
खंडयं-केण वि गहिरं वाइयं केण वि महुरं गाइयं ।
केण वि सरसं णच्चियं पहुपयजुयलं अंचियं ॥१॥ अमरविलासिणिकरसंगहियहिं हविउ देहु घियदुद्धहिं दहियहिं । इंदजलणजमणेरियवरुणहिं पवणकुबेरतिसूलुद्धरणहिं । णलिणबंधुणाइंदहिं चंदहिं रुंदाणंदहरेहिं गरिंदहि ।
वयणुग्गीरियथोत्तवमालहिं णिग्गयखीरवारिधारालहिं । ४. MBP°विच्छुरियइ । ५. B पहुँ। २२. १. B°दिसिवई । २. MBP संपाइय । ३. M धयवडेण । ४. MBP आयवत्त । ५. M तरुणीथण
हरेहि ओहुल्लिउ; B थणहारेहि ओहुल्लि उ; P थणहलेहिं सुफलिल्लिउ; but T ओणल्लिउ । ६. B
भावइ । ७. P पावस घणु । ८. M रजियसुह। ९. MBP केसउ। २३. १. MBP देउ; K देहु but corrects it to देउ । २. M घयं । ३. T तिसूलधरणु । ४. M
भरेहि।
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७.२३.६] हिन्दी अनुवाद
१५१ साथ बाँध दिया गया। उरतलपर सुन्दर ब्रह्मसूत्र (यज्ञोपवीत) चढ़ा दिया गया। तिलक तीसरे नेत्रके समान दिखाई दिया। सिंह, हाथी, चन्द्रमा और सूर्यके रूपोंसे निबद्ध विमल चिह्न (कुलचिह्न) उठा लिये गये। मलसे रहित धवल छत्र ऐसे प्रतीत होते थे, मानो जिनेन्द्रको कीर्तिरूपी कमलिनीके कमल हों । मदगज, लक्षणोंवाले घोड़े, ग्रह और विचक्षण कानीन ( कन्यापुत्र ) पूजे गये।
. घत्ता-स्वामीके इन अनुराग चिह्नों और आशीर्वाद वचनोंके निर्घोषोंके साथ राजाओंने पट्ट ऊंचा किया और पृथ्वीके राजा श्री भरतकुमारको बांध दिया ॥२१॥
२२
विश्वके द्वारा प्रशंसित तथा सिंहासनके शिखरपर आसीन वह ऐसा शोभित होता है जैसे पर्वत शिखरपर अयाल हिलाता हुआ सिंह हो। जिसमें दसों दिशाओंके देव आये हुए हैं ऐसा विशाल आकाश उस अवसरपर ऐसा लगता था, मानो अनेक विमानोंके भारसे झुक गया हो। ध्वजपटोंसे मानो पल्लवित हो उठा हो, फूलोंसे खिला हुआ आतपत्र हो, मानो तरुणीजनके स्तनोंरूपी फलोंसे अवनत हो। जिसमें मत्स्य, हंस और चातकगण स्थित हैं ऐसा आकाश, जिनवरके पुण्यरूपी महासमुद्रके समान दिखाई देता है। वह मानो दौड़ते हुए अश्वोंसे दौड़ता है, स्यन्दनों (रथों) द्वारा सूर्योंसे भरा हुआ जान पड़ता है, हाथियोंके द्वारा मेघोंसे आच्छादित और तलवारोंके द्वारा बिजलियोंसे चमकता हुआ, हरी और लाल कान्तियोंके द्वारा, इन्द्रधनुष के समान जान पड़ता है, जो मानो नवपावसके गुणको धारण करना चाहता है। इस प्रकार देव विविध लीलाओंके साथ वहां पहुंचे जहां, सभाको रंजित करनेवाले सबके नाथ महाप्रभु ऋषभनाथ बैठे हुए थे।
पत्ता-ऋषभ जिनवर ( जो विष्णु, केशव, सिद्धबुद्ध, शिव और सूर्य हैं ) स्वर्ण रचित एवं रत्नजड़ित पट्टपर आसीन थे ॥२२॥
२३
किसीने गम्भीर वाद्य बजाया, किसीने मधुर गान गाया। किसीने सरस नृत्य किया, और प्रभुके चरणकमलोंकी पूजा की। देवस्त्रियोंके हाथों में धारण किये गये घी, दूध और दहीसे शरीरका स्नान कराया गया। इन्द्र, अग्नि, नैऋत्य और यम, वरुण, कुबेर, त्रिशूल धारण करनेवाले शिव, सूर्य, नागेन्द्र, चन्द्र तथा महाआनन्दसे भरे हुए राजाओंके द्वारा, मुखोंसे निकलते हुए स्तोत्रोंके
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[७. २३.७
१५२
महापुराण कंचणकुंभसहासहिं सित्तउ देससयट्टलक्खणसंजुत्तउ। सण्हउँ तिहुयणसामिहि जोग्गउ किं वणिज्जइ अंगि व लग्गउ । ढोइउ णिवसणु मुणु पंगुरण तणुतावइ णं णाणावरणउं । भूसणाई दिण्णाई ण मण्णइ मोहणिबंधणाई अवगण्णइ । संतहु किह रुच्चंति रसोल्लई वम्महपहरणाई फुडु फुल्लई। होउ पहुच्चइ संभावइ जिणु ___ मलविलेवसारिच्छु विलेवणु। घत्ता-पज्जलियपईवडं ससिरविभावहुं धूयंगारयधूमउ ।
णिग्गंतउ दीसइ सुकइ समासइ णं मलपडलविलेउ ॥२३॥
२४ खंडयं-दहिदूवंकुरचंदणं सियसिद्धत्थयचंदणं ।
वंदिवि मयणवियारओ ‘सिवियारूढ भडारओ ॥१॥ सत्त पयाई जाम जयवंदहि पढमुच्चाइय सिविय परिंदहि । तेत्तियइं जि भावेण णवंतहिं वरविज्जाहरेहिं विहसंतहिं । उट्ठियदेवमहाकुलकलयलि पुणु वंदारएहिं णिय णहयलि । चल्लिउ अणुमग्गे सियसेविइ णाहिणराहिउ सहुँ मरुएविइ । आरणालणवदलललियंगउ जसवइणंदउ पच्छइ लग्गउ । दोणि वि णावइ मोहणवेल्लिउ णं कामेण विमुक्कउ भल्लिउ । पियविच्छोयसोयखिज्जंतउ णयणंजणमलइलिज्जंतउ। वरकंचीकलावगुप्पंतउ
तणुपासेयबिंदुथिप्पंतठ । तुरिउ चलंतु खेलंतु विसंठुलु णीससंतु चलमोक्कलकोंतलु । घणथणजुयलणिवेसियकरयलु णिव.माणअणिहालियमेहलु । पयचालणझंकारियणेउरु
धाइउ णिरवसेसु अंतेउरु । एकवार णिउ णिब्भरभावहिं मंदरि ण्हाणिवि आणिउ देवहिं । पुणु तेण जि कमेण आवेसइ गैरवइ एत्थु जि पुरि णिवसेसइ । घत्ता-पउरयणे वुत्तउ मुणिउ णिरुत्तर एवहिं दुक्कर आवइ ।।
जैडमइलकुचेली धरणिमहेली गाहें विणु किह जीवइ ॥२४॥
१.
खंडयं-भरहबाहुबलिसंणिहं गलियंसुयधारामुहं ।
चलियं चोइयहयगयं एकूणं णंदणसयं ॥१॥ पराइओ जिणेसरो घणंबणालयं सुपोमसंपयाजेसोधणं वणालयं । विसौलवेल्लिजालरुद्धभाणुभावह महामुणिंदजोग्गयं सपावभावहं । ५. MBP दह । ६. P विलग्गउ । ७. MBP किं । ८. M°विलेविउ । २४. १. M दूवंकुरु वंदणं; BPK दूवंकुरवंदणं । २. M वसंतु व संबुलु; B खलंतु व संठुलु । ३. M णिवड___ माणु; P णिविडमाणु । ४. MP परवइ इत्थ णयरि; B णरवइत्थ णयरे । ५. MP जड; B जर। २५. १. P°पसोहणं । २. P विलासवेल्लिं ।
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८. २५.४] हिन्दी अनुवाद
१५३ कोलाहलों तथा दूध और जलकी गिरती हुई हजारों धाराओंसे युक्त हजारों स्वर्णकलशोंसे एक हजार आठ लक्षणोंसे युक्त जिनका अभिषेक किया गया। फिर शरीरमें लगे हुए के समान जिनवर स्वामीके योग्य सूक्ष्म वस्त्रका क्या वर्णन किया जाये ? लाया गया और पहना गया वह, शरीरको इस प्रकार सन्तप्त करता है, मानो ज्ञानावरण कर्म हो। दिये गये आभूषणोंको वह स्वीकार नहीं करते, उनकी मोहके बन्धनोंकी तरह उपेक्षा करते हैं, रससे आर्द्र, कामके प्रहरण ( शस्त्र ) पुष्प सन्तको किस प्रकार अच्छे लग सकते हैं। यह काफी है। जिन विलेपनकी सम्भावनाएँ, मलविलेपकी सदृशताके रूपमें करते हैं।
__ घत्ता-चन्द्रमा और सूर्यके समान कान्तिवाले प्रज्वलित प्रदीपोंसे निकलता हुआ धूपके अंगारोंका धुआं ऐसा दिखाई देता है, मानो सुकवि मलपटल विशेषको बांट रहा है ॥२३॥
२४
दही, दूर्वांकुर और चन्दन, श्वेत सिद्धार्थ (पोला सरसों) और रक्त चन्दनकी वन्दना कर कामदेवका नाश करनेवाले आदरणीय ऋषभ पालकीमें बैठ गये। अब विश्ववन्ध नरेन्द्रोंने सात कदमों तक शिविकाको उठाया। उतने ही कदम भावपूर्वक नमस्कार करते हुए और हंसते हुए विद्याधरोंने उठायो । हो रहा है देवोंका महान् आकुल कुल-कुल शब्द जिसमें ऐसे आकाशमें फिर देवगण उसे ले गये। उसके पीछे-पीछे श्रीसे सेवित मरुदेवीके साथ नाभि राजा चले। कमलके नवदलोंके समान सुन्दर अंगवाली यशोवती और सुनन्दा भी पीछे लग गयीं। मोहसे नवेली दोनों ऐसी लगती थीं मानो कामने दो बरछियां (भल्लियाँ) छोड़ी हों। प्रियके विछोहके शोकसे खेदको प्राप्त होता हुआ, नेत्रोंके अंजनमलसे मैला होता हुआ, श्रेष्ठ कटिसूत्रोंके समूहसे गिरता हुआ, शरीरके प्रस्वेद बिन्दुओंसे आर्द्र होता हुआ, शीघ्र चलता हुआ, स्खलित होता हुआ, शिथिल निःश्वास लेता हुआ, चंचल और बिखरे हुए बालोंवाला, सघन स्तन युगलपर करतल रखता हुआ, गिरनेसे धरतीको कपाता हुआ, पैरोंके संचालनसे नूपुरोंको झंकृत करता हुआ समस्त अन्तःपुर दौड़ा। एक बार परिपूर्ण भावोंवाले देवोंके द्वारा ले जाये गये थे और अभिषेकके बाद प्रासादमें ले आये गये थे। फिर इसी क्रमसे वह आयेंगे और राजा ऋषभ इसी नगरमें रहेंगे।
धत्ता-पौरजनोंने यह कहा और अपने मनमें सोचा कि अब उनका आना कठिन है। जड़, मैले और खराब वस्त्र धारण करनेवाली धरतीरूपी महिला स्वामीके बिना कैसे जीवित रह सकती है ॥२४॥
२५
जो भरत और बाहुबलिके समान हैं, जिनके मुखसे अश्रुधारा बह रही है, और जिन्होंने हाथी और घोड़ोंको प्रेरित किया है, ऐसे एक कम सौ, अर्थात् निन्यानबे पुत्र चले। जिनेश्वर ऋषभ उस वनमें पहुंचे, "जो आम्र और नालक वृक्षोंसे सघन था, जो अच्छे पत्तोंवाले लक्ष्मी वृक्षोंसे शोभित था, जिसमें विशाल लताजालसे सूर्यकी आभाका पथ रोक दिया गया था। जो
२०
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१५४
महापुराण
[७. २५.५ फलोवडंतवुक्करतबालवाणरं पियाविवज्जियाण कामुयाण बाणरं । लयाहरत्थकिंणरीसुरत्तमाणवं असोयचंपयाइरम्मरुक्खमाणवं । परूढबालकंदकंदलेहिं कोमलं पैसूणरेणुपिंगज्झरंतकोमलं । दिसुच्छलंतदंतिदाणवारिवासयं रमंतणायरायदाणवारिवासयं । महूहिं थिप्पिरं पसामियावणीरयं समाणियामरिंदचंदभाविणीरयं । महीरुहग्गसंणिसण्णमोरसारसंपएहिं इच्छिएहि लोयदिण्णसारसं । वहंतमंदगंधवाहकंपमाणयं जलम्मि पोमिणीण जत्थ कं पमाणयं । अलीहिं चंचलेहिं छण्णकंजकेसरे तरंति णो सुरासुरा वि जत्थ के सरे। पलोइऊण तं सरीतुसारसीयलं णहंगणावइण्णओ रिसी वसी यलं । घत्ता-तहिं हियइ पसण्णउ सिलहि णिसण्णउ णिविण्णउ णरजोणिहे ॥
ससिबिंबसमाणहि मलपरिहीणहि सिधु व सिवपयखोणिहे ॥२५॥
खंडयं-विविहञ्चणविहिकारिणा विप्फुरतपविधारिणा।
अइरावयकरिगामिणा पुणु पुजिउ सुरसामिणा ॥१॥ परमसिद्ध णियचित्ति धरेप्पिणु मुट्ठिउ पंच झडत्ति भरेविणु । जाई ताई ससहाब कुडिलई धुत्तविलासिणिकुलई व कुडिलई । आलुंचेविणु घित्तई केसई एम मुणंति धम्मु जगि के सई। चिहुर लुक्के जे हयतमपडले लेवि पुरंदरेण मणिपडलें। जणवयसंदरिसियझसमुद्दइ चित्त तुरंत खीरसमुद्दइ। परिसेसियउ मउडु रइरंगउ णं वम्महसिहरेहि सिहेरग्गउ । मुक्कई कुंडलाई मणिजडियई रविससिबिंबई णं णिव्वैडियई। कंकणु मुक्कउ मोत्तियहारें सहुँ णिज्जिय मियंकू णीहारें। मुक्कउ कडिसुत्तउ सहुं छुरियइ विज्जुलेया इव णहविप्फुरियइ । अंबराई मुक्काई अमोल्लई
जाई सरीरहु सुटहुँ सुहिल्लई। संसारासारत्तु मुणेपिणु पंचमहन्वय चित्ति धरेप्पिणु । किमलंकारें देहहु भारें
अप्पउ भूसिउ वयपब्भारे । मोहजाल जिह मेल्लिवि अंबरु झत्ति महामणि हवउ दियंबरु । उत्तरसाढरिक्खि गवमिइ दिणि महुमासहं पक्खम्मि सियेचंदिणि । दुविहु वि मणि पंडिवण्णड संजमु । गउ णियवासहु हरि हुयवहु जमु । परियं चिवि सामिउ णियमत्थउ अवरु वि जणु णामियणियमत्थउ । रायहं णेहालोइयवइयइं
खणि चालीससयई"पावइयई। अजयमल्लु महुणयरु पराइउ णियपुरवरु बाहुबलि पराइउ । ३. MB पसूर्य । ४. MB°पब्भरंत । ५. P पसम्मिया । २६. १. MBP मुक्क । २. MB सिहरंगउ । ३. BP णिब्विडियई । ४. MB मियंक । ५. BP विज्जुलदा।
६. MB अइविप्फुरियइ । ७. M सुद्ध । ८. MBP णवमइ। ९. MBP अचंदिणि and gloss in P कृष्णे । १०. MBP पव्वइयई।
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८. २६. २०] हिन्दी अनुवाद
१५५ महामुनियोंके योग्य था, जो पापभावका नाश करनेवाला था, जिसमें फलोंके ऊपर गिरते हुए बाल वानरोंकी आवाजें हो रही थीं, जो अपनी प्रियतमाओंसे रहित कामुकोंके लिए बाणभेदन करनेवाले थे, जिसमें लतागृहोंमें रहनेवाली किन्नरियोंसे मनुष्य अनुरक्त हैं, अशोक और चम्पा वृक्षोंकी अत्यन्त रमणीय शोभासे नया दिखाई देता था, जो उगे हुए बालकन्दोंके अंकुरोंसे कोमल है, जहाँ कुसुमोंके परागसे मिश्रित जल बह रहा है, जो दिशाओं में उछलते हुए हाथियोंके मदजलोंसे सुवासित है । क्रीड़ा करते हुए नागराजों, दानवों और शत्रुओंका जिसमें निवास है, जो मधुओंसे लथपथ है, जिसमें धरतीकी धूल शान्त है, जिसमें इच्छुक प्रजाओंको अपना धन दिया गया है, जो बहती हुई हवासे प्रकम्पमान है, जिसके जलाशयोंमें कमलिनियोंकी कोई सीमा नहीं है, जहां भ्रमरोंसे आच्छन्न तथा परागसे यक्त सरोवरोंमें कौन सुर और असुर नहों तैरता, जो गंगाके तुषारकी तरह शीतल था, ऐसे उस वनको देखकर जितेन्द्रिय ऋषि ऋषभनाथ आकाशके आंगनसे उतरकर
पत्ता-वहाँ शिलापर बैठे हुए हृदयमें प्रसन्न वह मनुष्य योनिसे उदासीन हो गये और सिद्धके समान शशिबिम्बके सदृश मलसे रहित शिवपदभूमिके लिए उत्सुक हो उठे ॥२५॥
२६
विविध पूजा विधियोंको करनेवाले और चमकते हुए वज्रके धारक ऐरावतगामी इन्द्रने फिर उनकी पूजा की। परमसिद्धोंको अपने मनमें धारण कर और शीघ्र ही पांच मुद्रियोंमें भरकर, जितने भी धूतं विलासिनियोंके समान कुटिल बाल थे, उन्हें उन्होंने उखाड़ दिया । संसारमें इस प्रकार कौन लोग धर्मका स्वयं विचार करते हैं। जो केश उखाड़े गये थे, उन्हें तमसमूहको नष्ट करनेवाले मणिपटलमें रखकर जनपदोंको मत्स्यमुद्रा नहीं दिखानेवाले क्षीरसमुद्र में इन्द्रने फेंक दिया। रतिसे क्रीड़ा करनेवाला मुकुट छोड़ दिया मानो कामदेवके शिखरका अग्रभाग फेंक दिया गया हो। मणिजड़ित कुण्डल छोड़ दिये गये मानो रवि और शशिके बिम्ब गिर गये हों। मोतियोंके हारने कंकण छोड़ दिया जैसे नीहारके साथ चन्द्रमा जीत लिया गया हो। क्षुरिकाके साथ कटिसूत्र छोड़ दिया गया मानो आकाशमें चमकती बिजली हो । अमूल्य वस्त्र छोड़ दिये गये जो शरीरके लिए अत्यन्त सुहावने लगते थे। संसारकी असारताका विचारकर पांच महाव्रतोंको चित्तमें धारण कर देहके भारस्वरूप अलंकारसे क्या ? व्रतके प्रभारसे उन्होंने अपनेको विभूषित किया। मोहजालकी तरह वस्त्रोंको छोड़कर वह शीघ्र ही दिगम्बर महामुनि हो गये। वसन्त माहके कृष्णपक्षकी नौंवीके दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्रमें उन्होंने दो प्रकारका संयम अपने मनमें स्वीकार कर लिया। इन्द्र, अग्नि और यम अपने घर चले गये। नियमोंमें स्थित स्वामीकी प्रदक्षिणा कर और भी दूसरे लोग अपना माथा झुकाते हुए ( चले गये )। पत्नियां जिनकी ओर स्नेहभावसे देख रही हैं ऐसे चालीस सौ राजा तत्काल दीक्षित हो गये। अजयमल्ल वह मधुपुर पहुंचे। बाहुबलि भी
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१५६
[७.२६.२१
महापुराण गय णियगेहहु णयणाणंदण _ अवर वसहसेणाइय गंदण । पियविरहाणलेण "अइतत्तउ णारीयण असेस परियत्तउ। जो वण्णहुं सक्किउ णाहीसे समउं तेण ताएं णाहीसे । घत्ता-रणवडहहु केरउ जगभयगारउ देतु दिसहिं भरहेसर ॥
थिउ गपि अउज्झहि"वइरिदुसज्झहि पुप्फयंतु भरहेसरु ।।२६।।
इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरइए महामन्वभरहाणु
मण्णिए महाकव्वे जिणणिक्खवणकल्लाणं णाम सत्समो परिच्छेओ सम्मत्तो ॥७॥
॥ संधि
॥७॥
११. MBK अइअत्तउ । १२. M वइरिदुगेज्झहि ।
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८. २६. २५] हिन्दी अनुवाद
१५७ अपने नगरमें चला आया। नेत्रोंको आनन्द देनेवाले वृषभसेन आदि दूसरे पुत्र भी तथा प्रियकी विरहाग्निसे अत्यन्त सन्तप्त अशेष नारीजन भी लौट आया। यदि नागराज उसका वर्णन कर सका तो वह उन नाभिराजके साथ ही।
पत्ता-विश्वके लिए भयजनक युद्धके नगाड़ोंका स्वर भरत क्षेत्रकी दिशाओंमें गुंजाता हुआ पुष्पदन्त भरतेश्वर जाकर शत्रुओंके लिए अग्राह्य अयोध्या नगरीमें स्थित हो गया ॥२६॥
इस प्रकार ब्रेसठ शलाकापुरुषों के गुणों और अलंकारोंसे युक्त महापुराणके महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महाभब्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य में जिन दीक्षा ग्रहण कल्याण नामका सातवाँ
परिच्छेद समाप्त हुआ ॥७॥
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१०
संधि
सीहोसणु णरवइसासणु महियलु तेणु अवियप्पिवि ।। गुणवंत तवसिरिकर्ते थिउ अप्पाणु समपिवि ॥१॥ ध्रुवकं ॥
१
आवली - धरिऊणं इसी सुणिग्गंथवेसयं दूरविमुक्कसंगयं जणियतोसयं । तिस्सा रइकरण परिसेसियंगओ एर्यन्तं भरेण झाणालयं गओ ॥ १ ॥
चिरु चरियई चरियई संभरेवि मणमार मार करिवि छेउ तणुभरण करणई णिज्जिणेवि घरवासहु पासहु णीसरेवि सहुं लोहें मोहें हवि खेरि संकुज्झिवि बुज्झिवि सई जि सिक्ख छम्मासमेरु मुणि मेरुधीरु कमजुयलि पविमलि विहत्थिमेत्तु
जगसामिणि गोमिणि परिहरेवि । असच तच मुणिवि भेउ । मय सिमिर तिमिरदं णिधुणेवि । विडंत जंत मणु धरेवि । णियजणणि व बहिण व गणिविणारि । सुइवइणी जँइणी लेवि दिक्ख । अणसणु अवसणु गेव्हिवि गहीरु । रंतरु अंतरु करिवि जुत्तु ।
GK give, at the commencement of this Samdhi, the following stanza :
एको दिव्यकथाविचारचतुरः श्रोता बुधोऽन्यः प्रियः एक: काव्यपदार्थ संगतमतिश्चान्यः परार्थोद्यतः ।
एकः सत्कविरन्य एष महतामाधारभूतो विदां
द्वावेतौ सखि पुष्पदन्तभरतौ भद्रे भुवो भूषणम् ॥
MBP, however, give this stanza at the beginning of IX with variants जनाः for विदाम् and भूषणौ for भूषणम् । At the commencement of this Samdhi they read the following :
मातर्वसुंधर कुतूहलिनो ममैत
दापृच्छतः कथय सत्यमपास्य साव्यम् ( शाठ्यम् ? ) । त्यागी गुणी प्रियतमः सुभगोऽतिमानी
किं वास्ति नास्ति सदृशो भरतार्यतुल्यः ॥
१. १. MBP सिंहासणु । २. MBP तणु व वियप्पिवि and gloss तृणमिव गणयित्वा । ३. P गुणहो । ५. M तस्सा । ६. MBP एयंतं and gloss in P एकान्तम् । ७. MB
वंतहो । ४. P जयणी ।
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सन्धि
८
सिंहासन, नरपतिशासन, महीतल और शरीरका विचार नहीं करते हुए, गुणवती तपोलक्ष्मीरूपी कान्ताके लिए उन्होंने अपने आपको सौंप दिया। दूरसे छोड़ दिया गया है परिग्रह जिसमें, तथा जो सन्तोष देनेवाला है, ऐसे परम दिगम्बर स्वरूपको धारण कर, शरीरकी ममता छोड़नेवाले महामुनि ऋषभ, तपस्यारूपी कान्ताके लिए, एकनिष्ठ होकर ध्यानालयमें चले गये। पुराने आचरित चरितोंकी याद कर, लक्ष्मी तथा धरतीका परित्याग कर, मन मारनेवाले कामका अन्त कर, अत्यन्त सत्य तत्त्वका रहस्य समझकर, शरीरका पोषण करनेवाली इन्द्रियोंको जीतकर, मदकी सेना और अन्धकारको नष्ट कर, गृहवासके बन्धनसे निकलकर, विघटित होते हुए मनको धारण कर, लोभ और मोहके साथ वैरका अन्त कर, नारीको अपनी मां और बहनके समान समझकर, शंका छोड़कर स्वयं शिक्षाओंको समझते हुए, श्रुत वचनोंवाली जैन दीक्षा लेकर, छह माहकी मर्यादावाला कठोर अनशन लेकर, मेरुके समान धीर और गम्भीर, पवित्र दोनों पैरोंके मध्य एक
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५
महापुराण
[८.२.१५ ओ?उडणिउडसंपुंडियवयणु आसासियणासियणिसियणयणु । भूभंगावंगपसंगरहिउ
खयरिंदफणिंदरिंदमहिउ। णिहंदु"नृयंदु विमुक्कतंदु लंबियमुउ सुरथुर जिणवरिंदु । घत्ता-वरतणुसिरि णं कंचणगिरि जगगुरु दुक्कियमंथउ ।।
थिउ सग्गहु अवि यपवग्गहु णं आरोहणपंथउ ।।१॥
आवली-विसयवसा तिसाछुहातावसोसिया
भीसणवग्धसिंघसरहेहिं तासिया। जे समयं वयम्मि लग्गा महारहा
ते भग्गा दिणेहिमसहियपरीसहा ॥१॥ अणब्भत्थसत्था महामंदमेहा पयंपंति एवं समोरुद्धदेहा । ण पहाणं ण फुल्लं ण भूसा ण वासं पहू पाणियं लेइ गाहारगासं । ण सीउण्हवाएण जित्तो महंतो ण णिहाइ मुक्खाइ तण्हाइ संतो। ण जंपेइ णालोयए के पि भिचं णिउब्भो थिरं संठिओ एम णिचं । ण याणेमि किं चिंतए चित्तमज्झे मई कम्मि संजोयए संदुसज्झे। ण दुक्खंति पाया फुडं वज्जकाओ ण ओमिज्जए केम रायाहिराओ । अहो हो किमेयस्स एएण होही वणंते कहं वा णिसाहाई णेही । पुणो पट्टणं किं व जाही ण जाही मणोहारि रजं पि काही ण काही। ण कंताकुडुंवेण मोहं विणीओ ण सदूलपंचाणणाणं पि भीओ। जडाजालधारी सपारोहसोहो घुलंतंगसप्पो वडो णं कुरोहो। मणूमण्णणिजो णियारी णिसुंभो इमो देवदेवो परो आइबंभो। इमस्सेरिसो धीरंधीरावहारो। परं दुव्वहो चारुचारित्तभारो। घत्ता-जं धवले अइअतुलबलें दुग्गुखुरेहिं णिभिण्णउं ॥..
"तहिं कसरहिं विहुणियस सिरहिं एक्कु वि पउ"णउ दिण्णउं ॥२॥
८. MBP ओढउडणिविड । ९. MB संपुरियं । १०. MBP णियंदु । २. १. MBP दिणेहिं असहियं । २. GK have before this line भुजंगप्पयावो णाम छंदो; MB
have भुअंगप्पयावो णाम छंदो; P भुयंगप्पयाणाम छंदो। ३. MBPT समें रुद्धदेहा। ४. MBP कं पि भिच्चं । ५ T संदुगेज्झे । ६. MB उन्विज्जए; P उग्विज्जई। ७. B णीही। ८. MBT धीरवीराबहारो, but gloss in T धीराणां धैर्यापहारकः; P वीरधीरावराहो, but gloss धीराणामपि धैर्यापहारः । ९. MB जें । १०. MB खुरहिं णिभिण्णउं । ११. P जरकसरहिं । १२. M"सुसिरहिं । १३. MBP ण वि।
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८.२.१८]
हिन्दी अनुवाद बीता अन्तर रखकर, छिद्र रहित ओठपुटसे मुखको बन्द कर, मुखपर आश्रित नाकपर नेत्रोंको धारण कर, भ्रूभंग और कटाक्षोंके प्रसंगोंसे रहित, नागेन्द्रों, विद्याधरेन्द्रों और नरेन्द्रों द्वारा पूजित, निर्द्वन्द, आलस्यसे रहित लम्बे हाथ किये हुए मनुष्य-श्रेष्ठ वह जिनवरेन्द्र देवोंके द्वारा संस्तुत थे।
धत्ता-श्रेष्ठ शरीरको शोभामें जो मानो कंचन गिरिके समान थे पापोंका नाश करनेवाले वह जगद्गुरु इस प्रकार स्थित थे मानो वह स्वर्ग और मोक्षके लिए चढ़नेका मार्ग हो ॥१॥
जिन महारथियोंने उनके साथ व्रत ग्रहण किये थे, विषयोंके वशीभूत वे प्यास-भूखके सन्तापसे शोषित तथा भीषण बाघों, सिंहों और शरभोंके द्वारा सन्त्रस्त होकर कुछ ही दिनोंमें परीषह नहीं सहनेके कारण शीघ्र भ्रष्ट हो गये। शास्त्रोंका अभ्यास नहीं करनेवाले महामन्द बुद्धि तथा श्रमसे अवरुद्ध शरीरवाले वे इस प्रकार कहने लगे, "न स्नान, न फूल, न भूषा और न वास, प्रभु न पानी लेते हैं और न आहारका कौर । वह महान् शीत और उष्ण हवाके द्वारा भी नहीं जीते जाते और न नींद, भूख और प्याससे श्रान्त होते हैं। किसी अनुचरसे न बोलते हैं और न किसी भृत्यको देखते हैं, अपने हाथ ऊपर किये हुए वह इस प्रकार नित्य स्थित रहते हैं। मैं नहीं जानता कि वह अपने चित्तमें क्या सोचते हैं ? मुझे अत्यन्त दुःसाध्य काममें लगा दिया है। स्पष्ट ही वह वज्र शरीर हैं, उनके पैर नहीं दुखते। राजाधिराज वह कुछ भी उन्मान नहीं करते। अरे, इससे इसका क्या होगा? वनमें हम किस प्रकार दिन-रात बितायें? फिर ये नगर जायेंगे या नहीं जायेंगे ? सुन्दर राज्य करेंगे या नहीं करेंगे ? न तो कान्ता और कुटुम्बके द्वारा उनमें मोह उत्पन्न होता है, और न वह सिंह तथा पंचाननसे डरते हैं ? वह ऐसे वटवृक्षकी तरह दिखाई देते हैं जो जटारूपो जाल धारण करता है, अपने प्रारोहोंसे शोभित है, और जिसके शरीरपर सर्प व्याप्त है । मनुओंके द्वारा पूज्य, मनुष्यों के निर्माता मनुष्यश्रेष्ठ यह देवदेव आदि ब्रह्मा हैं। धैर्यधोरोंके भी धैर्यका अपहरण करनेवाला इनका ऐसा अत्यन्त दुर्वह सुन्दर चारित्रभार है।
___घत्ता-जहां अत्यन्त अतुल बलवाले धवल (बैल) ने अपने खुरोंसे दुर्गको खोद डाला, वहां गरियाल बेल एक भी पैर नहीं रख सके बा२।।
२१
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१६२
महापुराण .
[८.३.
१
आवली-उब्भियधवलचिंधमहिमावसारओ .
करिवरजूहणाहपल्लाणभारओ। परजम्मंतरे वि परिरूढतेयओ
पियसहि रासहाण कह होइ णेयओ ॥१॥ गयगंडकंडेकंडुयणवाह
को वि सहइ किडिदाढावलेह । को वि सहइ फणिमुहचुंबियाई ताणं चिय कंठोलंबियाई।। को वि सहइ दूसह दंस मसय पोसियकसाय दुव्वार विसय । को वि सहइ जग्गत्तणु णिरासु णिञ्चं णिरसणु गिरिदुग्गवासु। पाउसजलधाराविप्पियाइं। को वि सहइ विजुझडप्पियाई। को वि सहइ सिसिरि पडंतु सिसिरु उण्हालइ दिणयरकिरणपसरु । परलोयकहाणी केण दिट्ठ
को वि सहइ एयहु तणिय णि? । अण्णेण उत्तु किं एत्थु मरमि घरु जाइवि तं णियरज्जु करमि । अण्णेण उत्तु संभरमि पुत्तु
घरु जाइवि आलिंगमि कलत्तु । अण्णेण उत्तु अलिचुंबियाई सलिलई मयरंदकरंवियाई । सरवरि पइसेप्पिणु पियमि ताम तहाइ ण वैच्चइ जीउ जाम । पत्ता-अण्णे माणगुरुक्के विहसिवि एहउ वुच्चइ ।।
परमेसरु ओलंबियकरु एकल्लँउ वणि किह मुच्चइ ॥३॥
आवली-झिज्जंते ससिम्मि झिज्जइ ससो सयं
वड्ढ़तम्मि जाइ वुड्डीपयं पियं । अच्छामो वणम्मि सहिऊण दंडणं
णरवइचरियमेव भिच्चाण मंडणं ॥१॥ विसमे वियणे तरुगिरिगहणे । परलोयरई
मोत्तण पई। गंतूण पुरं
तं विविहघरं । भरहस्स मुहं
पेच्छामु कह। सम्वेहि घणं
पडिवण्णमिणं। सुरणेवियपयं दहपंचमयं । उत्तुंगतj
पणवंति मणुं। ३. १. P किह । २. MBP चंड। ३. B कंठालंबियाई। ४. MB ससिरि but gloss in M
शीतकाले। ५. B वंचइ । ६. MB वियसिवि । ७. MBP एक्कू जि । ४. १. MB झिज्जैते; K सिज्जतें, but corrects it to झिज्जतें। २. MBP have before this
line ललियलया णाम छंदो; GK have ललिया णाम छंदो। ३. MBPT गई। ४. MBP पेच्छामि । ५. MBP °णमिय । ६. M adds this foot in the margin and MB read after it णाहेयसुयं धणुपंचसयं सो दिव्वमयं; after दहपंचमयं P reads परिगलियमयं धणुपंचसयं ।
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८.४.११]
हिन्दी अनुवाद
जिसने ऊँचे उठे हुए धवल ध्वजोंकी महिमाको हटा दिया है, दूसरे जन्ममें जिसका प्रभाव विख्यात है, ऐसा श्रेष्ठ हाथियोंके समूहके स्वामीका पर्याणभार, हे प्रियसखी क्या रासभोंके द्वारा ले जाया जा सकता है ? कोई हाथियोंके द्वारा कान और गण्डस्थल खुजाये जानेकी बाधा सहन करता है। कोई सुअरोंके दाढोंसे विदीर्ण होनेकी बाधा सहन करता है, कोई नागमखोंसे चूमा जाने और उनके गलेमें लपटनेको सहन करता है, कोई असह्य डाँस और मच्छरको सहन करता है, कोई कषायोंका पोषण करनेवालो दुर विषयोंको सहन करता है। कोई विवश होकर नग्नत्वको सहन करता है, कोई नित्य निराहार रहना और गिरिदुर्ग में रहना सहन करता है । कोई पावस जलधाराओंको अप्रिय बिजलियोंकी झपटोंको सहन करता है। कोई शीतलकालमें होनेवाली ठण्ड सहन करता है । उष्णकालमें सूर्यके किरण प्रसारको सहन करता है। परलोककी कहानी किसने देखी? कौन इनकी तपस्याको सहन कर सकता है। किसी एकने कहा-मैं यहाँ क्यों मरूं? घर जाकर अपना राज करूँ? किसी एकने कहा-मैं अपने पुत्रको याद करता हूँ, घर जाकर अपनी स्त्रीका आलिंगन करता हूँ। किसी एकने कहा-भ्रमरोंसे चुम्बित और मकरन्दसे प्रतिबिम्बित जलको सरोवरमें प्रवेश कर तबतक पीता हूँ कि जबतक प्यास नहीं जाती।
घत्ता-मानमें श्रेष्ठ एक व्यक्तिने कहा-अपने हाथ ऊपर किये हुए भगवान्को वनमें अकेला किस प्रकार छोड़ दिया जाये ? ॥३॥
चन्द्रमाके क्षीण होनेपर उसका शश (चिह्न) भी क्षीण हो जाता है और चन्द्रमाके बढ़नेपर वह भी बढ़तीके अपने प्रिय पदपर पहुंच जाता है। हम दण्ड सहन करते हैं, वनमें ही रहें। राजाओंका चरित ही भृत्योंके लिए अलंकारस्वरूप है। तरुओंसे गहन विषम और विजनमें परलोकसे रति करनेवाले तुम्हें छोड़कर तथा विविध घरोंवाले अपने उस नगरमें जाकर, भरतका मुख हम किस प्रकार देखेंगे? सबने उसके इस कथनको पूरी तरह स्वीकार कर लिया। सुरोंसे प्रणम्य हैं, चरण जिनके ऐसे तथा कामको जलानेवाले उत्तुंग शरीर मनु ( आदिनाथ ) को वे
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१६४
[८.४.१२
महापुराण रुंजियअलिहिं कुसुमंजलिहिं। गयजम्मरिणं पुजंति जिणं। जंपंति इम
धीरो सि तुम। ण मुएसि कम
गहियं णियमं। अम्हे चवला
पविलीणबला । तुह मग्गचुया
हा किं ण मुया। मणधरियगई
इय भणिवि जई। अज्जवसवणा
णिम्मियभवणा। थियहरिणगणे णिवसंति वणे। . कंदं पवरं
मूलं महुरं। मालूरदलं
भक्खंति फलं। सीयं विमलं
पपियंति जलं । सिरघुलियजडा वियरंति जडा। किर ते वि मुणी ता दिव्वझुणी। ससिरविसयणे
उग्गय गयणे। मा लुणह तरं
मा धुणह मरूं। मा खणह महिं
मा कुणह सिहिं। मा विसह सरं मा हणह परं। एसा ण विही
जइ णत्थि दिही। ता णिवसणयं
तणुभूसणयं। गेण्हह तुरियं
दुटुं दुरियं। असुविद्दवणे
भवसंकमणे। जं आसि कयं . तंजाइ खयं । घत्ता-जिणलिंगें उज्झियसंगें जं किउ पाउ दुरासें ।
तं तुट्टइ"कह वि ण फिट्टइ जीवहु जम्मसहासे ॥४॥
३५
आवली-ता लग्गा णराहिवा भासियक्खरे
दुमदलमोरपिच्छ वकलधरा परे । थियजिणवरणिरोहणिटोहयट्ठिया
जाणाविहवियारवेसेहिं संठिया ॥१॥ तो कच्छमहाकच्छहं तणूय पडिकूलपिसुणसिरसूलभूय । कामियकामिणियणकामकील मयमत्तचंडसोंडाललील। परबलबलगलहत्थणसमत्थ दोणि वि भायर करवालहत्थ । ७. P मणि । ८. MBP हरिणयणे । ९. MP विरयंति । १०. MBP कह व । ५. १. MRP पिंछ । २. M°णिट्ठपहट्ठिया; B पिट्ठाहपठिया । ३. MBP ता । ४. M गलघल्लणं;
B°गलत्थण।
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८. ५.७ ]
हिन्दी अनुवाद
१६५
प्रणाम करते हैं और भ्रमरोंसे गूंजती हुईं कुसुमांजलियोंके द्वारा जन्म ऋणसे मुक्त जिनकी पूजा करते हैं। वे इस प्रकार कहते हैं, "तुम धीर हो, तुम क्रम और गृहीत नियमको नहीं छोड़ते । हम चपल और नष्ट बल हैं । तुम्हारे मागंसे च्युत होकर हाय हम मर क्यों नहीं गये ।" इस प्रकार मनमें गतिको धारण करनेवाले सरल श्रमण मकान बनाकर हरिणसमूहसे युक्त वनमें रहने लगे। वे प्रवर कन्द, मधुर जड़ें, बेलका गूदा और फल खाते हैं, शीतल मधुर जल पीते हैं, सिरमें व्याप्त जटाओंवाले वे मूर्ख विचरण करते हैं, जबतक वे मुनि बनते हैं, तब तक सूर्य और चन्द्रमाके शयन और उद्गमके स्थल आसमान में दिव्यध्वनि होती है कि वृक्षोंको मत काटो, हवाको मत चलाओ, धरती मत खोदो, आग मत जलाओ, सरोवरमें प्रवेश मत करो, दूसरोंको मत मारो, यह विधि नहीं है । यदि धैर्य नहीं है, तो राजाके वसन और शरीर के आभूषण शीघ्र धारण कर लो । प्राणोंका दलन करनेवाले संसारके परिभ्रमणमें जो तुमने दुष्ट आचरण किया है, वह नष्ट हो जायेगा ।
घत्ता - परिग्रहसे शून्य जिनका वेश धारण कर, खोटी आशावाले तुमने जो पाप किया है, जीवका वह पाप, हजारों वर्षों तक न छूटता है और न नष्ट होता है ॥४॥
५
इन अक्षरों (दिव्यध्वनि ) के होनेपर बहुत-से राजा पेड़ोंके पत्ते और मयूरपिच्छ तथा वल्कल धारण कर दूसरे दूसरे मुनि बन गये। जिनवरके विरुद्ध विरोधनिष्ठासे अधिष्ठित उन लोगोंने अपने नाना विचार और वेष बना लिये। तब कच्छप और महाकच्छपके दोनों पुत्र ( नमि और विनमि), जो दुष्टोंके लिए प्रतिकूल और सिरदर्द थे, कामिनीजनके साथ कामक्रीड़ा चाहनेवाले और मदोन्मत्त प्रचण्ड हाथियोंकी लीलावाले थे, शत्रु सेनाको शक्तिको नष्ट करने में समर्थं
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[८.५.८
महापुराण आया तहिं जहिं णिम्मुक्कडंभु थिउ पडिमाजोएं सई सयंमु । पासहिं परिभमिवि महारिजूर णं जंबूदीवहु चंदसूर। णामें णमि विणमि णिबद्धणेह णं सिहरिहि णियैडणिसण्ण मेह । जयकारिवि तेहिं पवुत्तु एव णियसुयहं विहंजिवि पुहइ देव । दिण्णी अम्हहुं दिण्णउ ण किं वि महिमंडलु गोप्पयमेत्त जंपि । पई पालियखत्तियसासणेण पेसणयरपेसियपेसणेण । एवहिं पञ्चुत्तरु किं ण देसि भणु कवणु दोसु गुणरयणरासि । परमेहि पियामह तिर्जगताय अम्हारउ दुछु ण होइ राय । पत्ता-तुह चलणहं णं णवणलिणहं मणमहुयरु रुणुरुंटइ।
उम्मेलहि काई ण बोल्लहि जाम ण हियवउ फुट्टइ ।।५।।
आवली-पुणु पुणु पहुपसायदाणुग्गमे रया
पाएसुं पडंति गाढं कुमारया। सोहइ गुरुयणम्मि कयमाणवज्जणं
गिरिवरदारणम्मि करिदसणभंजणं ॥१॥ रयणमयमइंदासणसमेउ
पोमावइपरमाणंदहेउ। जिणपुण्णपवणपरिछित्तकाउ तहिं अवसरि कंपिउ णायराउ । णियणाणु पउंजिवि तेण मुणिउं जं साल एहिं जिणु पुरउ भणिउं । मग्गंति बाल किं भुअणभाणु जइ देइ देई ता तिजगदाणु । पर तेण विमुक्कु घरत्थकम्मु पारद्धउ विमलु सुणिंदधम्मु । सामंतमंतिसेविउ गरेसु
महिवइ संतोसिउ देइ देसु। देसवइ गामु गामवइ छेत्तु छेत्तवइ कि पि कुडएण भत्तु । घरवइ पुणु ढोवइ करमुहि तिहुयणवइ पाडइ पयहिं सिट्ठि । जइ पत्थिज्जइ ता को वि गरुउ लहुपत्थणाइ पर होइ चरुउ । लइ कयउ कुमारहिं जुत्तु साहु सो पत्थिउ जो तेलोकणाहु । सो पत्थिउ जसु जसु जगपयासु सो पत्थिउ जसु सुरवइ वि दासु । घत्ता-णिञ्चलमण समतणकंचण
मतणकंचण जेण वित्तु पडिवण्णउ ।। मोक्खत्थिउ सो जं पत्थिउ तं हर करमि अँसुण्णउं ।।६।।
आवली–णरलोयम्मि ते हमिह खोहकारणं
जायं किं भवामि सुकयावयारणं । अचवंता वि देति तरुणो महाहलं
सुपुरिसदसणं पि ण हु होइ णिप्फलं ॥११॥ ५. P "णिमुक्क। ६. MBP णियडणिविट्ठ। ७. MBP पणवेप्पिणु । ८. M तिजगभाय । ६. १. MBP सुंदरेहिं जिणपुरउ । २. MBP देउ । ३. P खेत्तु । ४. P खेत्तवइ । ५. MB कुलएण; ___P कुडएण in cecond hand । ६. MB तइलोक्क । ७. MBP ण सुण्णउं । ७. १. MBP भणेमि ।
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८. ७.४ ]
हिन्दी अनुवाद
१६७
थे, हाथमें तलवार लिये हुए उस स्थानपर आये, जहाँ दम्भसे रहित स्वयं आदिजिन प्रतिमायोगमें स्थित । महान् शत्रुओंको पीड़ित करनेवाले उन्होंने उनकी उसी प्रकार परिक्रमा दी, जिस प्रकार चन्द्र-सूर्यं जम्बूद्वीपकी परिक्रमा देते हैं। आपसमें बद्ध स्नेह और नामसे नमि-विनमि वे उनके पास उसी प्रकार बैठ गये जिस प्रकार पर्वतके निकट मेघ स्थित होते हैं । जयकार करके उन्होंने इस प्रकार कहा, "हे देव, आपने अपने पुत्रोंको भूमि विभक्त करके दे दी, हम लोगोंके लिए कुछ भी नहीं दिया । जिन्होंने छात्रधर्मका परिपालन किया है और जो अनुचरोंके लिए आज्ञाका प्रेषण करनेवाले हैं, ऐसे आपने गोपदके बराबर भी भूमि नहीं दी । इस समय आप उत्तर तक नहीं देते । हे गुणरत्नराशि, बताइए इसमें हमारा क्या दोष है ? हे परमेष्ठी पितामह त्रिजग पिता, हमारा राजा दुष्ट नहीं हो सकता ।
घत्ता - नव कमलोंके समान आपके चरणोंमें हमारा मनरूपी मधुकर गुनगुना रहा है जबतक हमारा हृदय नहीं फटता तबतक आप क्यों नहीं देखते और बोलते ?” ॥५॥
६
प्रभु प्रसाद और दान उत्पन्न करनेमें लीन वे कुमार बार-बार उनके पैरोंपर पड़ रहे थे । गुरुजनके प्रति किया गया उनका मानका परित्याग वैसा ही शोभित हुआ है जैसे गिरिवरके विदारणमें हाथी के दाँतोंका भंजन सोहता है । उस अवसरपर जिसका शरीर जिनवरके पुण्यरूपी पवनसे स्पष्ट है, और जो पद्मावतीके आनन्दका कारण है ऐसा नागराज धरणेन्द्र अपने रत्नमय सिंहासन के साथ काँप उठा । अपने अवधिज्ञानका प्रयोग कर उसने जान लिया कि जो कुछ सालों ( नमि और विनमि) ने जिनवरके सामने कहा था । भुवनसूर्य ( ऋषभ जिन ) से ये मूर्ख क्या माँगते हैं, वे जब देते हैं तो त्रिभुवनका दान कर देते हैं । परन्तु उन्होंने तो गृहस्थधर्मका त्याग कर दिया है और पवित्र मुनिधर्मं प्रारम्भ कर दिया है । सामन्त और मन्त्रियोंसे सेवित नरेश अथवा राजा सन्तुष्ट होनेपर देश देता है । देशपति ग्राम देता है, ग्रामपति क्षेत्र देता है, और क्षेत्रपति ( खेतका मालिक ) कुछ तो भी प्रस्थभर ( एक माप) चावल देता है, और गृहपति ( गृहस्थ ) एक मुट्ठी चावल देता है । त्रिभुवनपति तो प्रजाओंके लिए सृष्टि प्रकट करता है। यदि प्रार्थना ही करनी हो तो किसी बड़ेसे की जाये, क्योंकि किसी छोटेसे की गयी प्रार्थनासे वह सुन्दर होती है। लो, इन कुमारोंने अच्छा किया कि उन्होंने उनसे प्रार्थना की कि जो त्रिलोकनाथ हैं। उनसे प्रार्थना की जिनका यश विश्वप्रसिद्ध है । उनसे प्रार्थना की जिनका दास इन्द्र है ।
धत्ता - जो निश्चलमन हैं, तृण और कंचन में समभाव धारण करते हैं, जिन्होंने धनका परित्याग कर दिया है । चूँकि उन्होंने उन मोक्षार्थीसे अभ्यर्थना की है, इसलिए मैं उन्हें अशून्य करता हूँ ||६||
वे (नमि-विनमि ) मनुष्यलोक में हैं। मैं यहाँ हूँ । फिर भी वे क्षोभके कारण हुए । इनसे gora क्या अवतारणा कहूँ ? बिना कहे हुए ही वृक्ष महाफल देते हैं, सुपुरुषका दर्शन भी निष्फल
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___१६८
[८.७.५
महापुराण दुवई-ता णिग्गमणमेव धरणेण कयं संभरियजिणवरं।
फारफणाकडप्पफुक्कारुल्लालियसमहिम हिहरं ॥१॥ महिहररुंदकंदरायंपणणिग्गयकूरहरिवरं । हरिओरालिरोलवित्तासियणासियमत्तकुंजरं ॥२॥ कुंजरचडुलचरणपंडिपेल्लणपाडियपयडभूरुहं । भूरुहखंधबुंधखरणिहसणरुहपज्जलियहुयवहं ॥३॥ हुयवह विप्फुलिंगजालावलिजलियसैमत्तकाणणं । काणणसंणिसण्णमुणितावासंकियसयलसुरयणं ॥४॥ सुरयणभरियजलयजलधाराऊरियसुविउलंबर। अंबरयलफुरंततडिदंडाहंडलचावकब्बुरं ॥५॥ कब्बुरदिव्ववत्थवित्थिण्णुल्लोवयछइयसंदणं । संदणयलविलंग्गविसहरमुहलालियविंझचंदणं ॥६॥ चंदणकुसुमधुसिणफलदलजलतंदुलउवणियञ्चणं । "अञ्चणकामसामफणिरामारंभियसरसणञ्चणं ॥७॥ णच्चणमिलियललियलीलामरललणालुलियमेहलं । मेह लियाविलंबिचलकिंकिणिकलकलयलसुपेसलं ॥८॥ इय वरविवरकुहरतरुणहयलजलथलकंपकारिणा। वियडफणाहिरूढचूडामणिकुवलयभारधारिणा ॥९॥ एहुकमकमलणमियणमिविणमिणराहिवचोजदाइणा ।
झत्ति समागएण दिट्ठो रिसहो गरलहरराइणा ॥१०॥ पत्ता-आवेप्पिणु कर मउलेप्पिणु थुउ मुणिंदु थुइलक्खहि ॥
"मुहघुलियहिं अक्खरललियहिं जीहहिं दससयसंखहिं ॥७॥
अललियलजकलकलाकारिण
आवली-कंतामुहपलोइरं भोयलालसं
भुवणवणं डहेइ मोहो मलीमसं । जइ तुह वयणवारिणा णेय सित्तयं
ता कह जियइ मयणसि हिणा पलित्तयं ॥१॥ दूसियघरासमो . भूसियणियागमो। सोसियमईमलो
पोसियमहीयलो । मयगयाणयत्तओ
केयवयपयत्तओ।
२. P तो। ३. MBP °फडा। ४. Pउल्लासिय । ५. MBP°परिपेल्लण। ६. MBP °समंत । ७. M°तावससंकिय; B°तावसरसंकिय; P°तावसंकिय and gloss तापशङ्कित; K°तावासंकियं, but in secend hand तावसंसंकिय । ८. MBP °सविउल । ९. MBP वलग्गं । १०. MBP
अंचणं । ११. P मुहि । १२. MBP°वलियहिं । १३. P दुसहससंखहिं । ८. १.GK have before this line:-अमरपुरी छंदो; MBP have अमरपुरी नाम छंदो।
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44९] हिन्दी अनुवाद
१६९ नहीं होता । तब ( नागराजने जिसमें नागराजका स्मरण है ऐसा निर्गमन ( कूच ) किया। जिसमें फैले हुए फण समूहोंके फूत्कारसे धरती सहित पहाड़ोंको हिला दिया गया है, महीधरकी बड़ी-बड़ी गुफाओंके हिलनेसे क्रूर सिंहवर बाहर निकल पड़े हैं, जिसमें सिंहोंकी गर्जनाओंके शब्दोंसे मत्त हाथी त्रस्त और नष्ट हो गये हैं। हाथियोंके चंचल पैरोंके आघातसे स्पष्ट रूपसे वृक्ष उखड़ गये हैं। वृक्षोंके स्कन्धोंके बन्धोंके तीव्र संघर्षणके कारण वृक्षोंसे आग प्रज्वलित हो उठी है, आगके स्फुलिंगों और ज्वालावलियोंसे समस्त कानन जल चुका है, जिसमें काननमें बैठे हुए मुनियोंके सन्तापसे देवता आशंकित हो उठे हैं। देवजनोंके द्वारा भरित मेघोंकी जलधाराओंसे विशाल अम्बर आपूरित है। आकाशतलमें चमकते हुए विद्युद्दण्डवाले इन्द्रधनुषसे रंग-बिरंगापन है। जिसमें रंग-बिरंगे दिव्य वस्त्रोंसे विस्तीर्ण चंदोवोंसे रथ आच्छादित हैं, जिसमें रथोंके तल भागोंसे लगे हुए विषधरोंके मुखोंसे विन्ध्याके चन्दनवक्ष चुम्बित हैं, जिसमें चन्दन-पुष्प-केशर-फल-दल-जल और अक्षतसे पूजा की गयी है, जिसमें पूजाको कामनासे नागराजकी पत्नी पद्मावतीके द्वारा सरस नृत्य प्रारम्भ किया गया है। जिसमें नृत्यमें मिली हुई सुन्दर देवांगनाओंकी करधनियां च्युत हैं, जो करधनियोंसे लटकती हुई किकिणियोंकी कलकल ध्वनिसे कोमल है। इस प्रकार वर-विवर कुहर वृक्ष आकाशतलको कम्पित करनेवाले, तथा बिकट फनोंपर अधिष्ठित चूड़ामणिपर पृथ्वीमण्डलका भार उठानेवाले, प्रभुके चरणकमलोंमें नत नमि-विनमि राजाओंको आश्चर्य प्रदान करनेवाले, नागराजने शीघ्र आकर ऋषभनाथके दर्शन किये।
___ पत्ता-आकर, फन मोड़कर लाखों स्तुतियों और मुंहमें घूमती हुई, अक्षरोंको तरह सुन्दर दस हजार जिह्वाओंसे स्तुति की।
यह भुवनरूपी वन, जो कान्ताओंका मुख देखनेवाला, भोगका लालची और मैला है, इसे मोह जलाकर खाक कर देता। यदि तुम्हारे वचनरूपी जलसे यह नहीं सींचा जाता तो कामरूपी आगसे प्रदीप्त यह विश्व कैसे जी सकता है ? आप मृहस्थाश्रमको दूषित करनेवाले, अपने आगमको भूषित करनेवाले, बुद्धिके मैलको नष्ट करनेवाले, महातलका पोषण करनेवाले, मदरूपी गजको
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१०
१५
२०
२५
३०
५
१७०
भावियजयत्तओ खंचियविसायओ चिसो कुंचि गई हो माईखोओ
छंडियकुसंगओ इंडियस इंदिओ तवयरणपरियरो समसरणजोयओ
सज्जणाणग्गणी
संपयासंगमो
भवविणासी भवो चित्ततमहोइणो पावहारी हरो देवदेवो तुम गुणोणिर्द्धण
परहरावासओ माणओ मेच्छओ जाओ हं भवे तुम्ह पडिकूलमा
एम भुत्ता मए
महापुराणं
ताविययत्तओ । संचियविरायओ ।
वंचिदुरग्गहो । अंचियजसाव हो ।
आवईरोहओ । खंडियअणंगओ ।
पंडियपवंदिओ ।
जमकरणभयहरो । भवतरणपोयओ ।
णीसे संतासियामियणरिंदु हरं भुवणि पसिद्ध णायराउ लोउत्तम कुसुमसरंतयालु जयहुं णिव्वेइ मुक्करज्जु तं पेर्सिय केण वि कारणेण
सिद्धचिंतामणी । धम्मैपदुम सिवपयासी सिवो । दोस विजई जिणो । तं पराणं परो ।
ताहि दीणं ममं । दुई घणो । हिपरगाओ" ।
रोहिओ रिंछओ।
णारओ रउरवे ।
'
जा कया सा कमा । आसि काले गए ।
घत्ता - जिणु दिवि अप्पर णिदिवि णाएं तमु पक्खालिउ ॥ मिराहु विणमिसहायडु मुहससिबिंबु णिहालिउ ||८||
९
आवली - तेहि पयंपियं सया सुहावणं
महिमहि दारिऊण पत्तो सि किं वणं । करस तुमं सुसील अम्हाण संमुहं अणिमसलोयणेहिं किं पेच्छसे मुहं ॥१॥
तं णिसुणिवि पडिजंपइ फणिंदु | जंभारिणमंसिउ तिजगताउ । इहु देउ महारउ सामिसालु । तयहुं जि एण महु कहिउ कज्जु । विहलियजडजीउद्धारणेण ।
२. Mगत्तओ । ३. B omits this foot जीवआसासओ करणवलपोसओ; B adds only जीवआसासओ ।
९. १. MBP णीसास । २. B णिसुणवि । ३. MB मुक्कु रज्जु । ४. MBP संपेसिय ।
[ ८.८.८
४. MB णिक्षुणो । ५. MP add after this :
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८.९.९] हिन्दी अनुवाद
१७१ नियन्त्रित करनेवाले, व्रतोंका प्रवर्तन करनेवाले, भविष्यको जीतनेवाले, अपने शरीरको सन्तप्त करनेवाले, विषादको नष्ट करनेवाले, विरागको संचित करनेवाले, केश लोंच करनेवाले, दुराग्रहसे दूर रहनेवाले, गतिके मार्गको संकुचित करनेवाले, यशका पथ अंकित करनेवाले, लक्ष्मीको क्षुब्ध करनेवाले, आपत्तियोंको रोकनेवाले, कुसंगतिको छोड़नेवाले, कामको खण्डित करनेवाले, अपनी इन्द्रियोंको दण्डित करनेवाले, पण्डितोंके द्वारा वन्दनीय, तपश्चरणके परिग्रहवाले, यमको भय उत्पन्न करनेवाले, उपशमके घर, संसार तरणके पोत ( जहाज ), सच्चे ज्ञानमें अग्रणी, सिद्ध चिन्तामणि, सम्पदासे असंगम करनेवाले, धर्मके कल्पवृक्ष, भव (संसार) का नाश करनेवाले भव, शिवको प्रकाशित करनेवाले शिव, चित्तके तम-समूहको नष्ट करनेवाले सूर्य, दोषोंके विजेता जिन, पापका हरण करनेवाले हर और श्रेष्ठोंमें श्रेष्ठ हे देवदेव, आप मुझ दीनका त्राण करें। मैं निर्गुण, निर्धन, दुर्मति, निधिन, दूसरेके घरमें वास करनेवाला, दूसरोंके घरका कोर खानेवाला मैं मानव, म्लेच्छ, मत्स्य और रीछ हुआ हूँ, भव-भवमें। और रौरव नरकमें नारकी हुआ हूँ। हे जिन, बीते समयमें तुमसे जो मैंने प्रतिकूलता की थी, उसे मैंने क्रमसे भोगा है।
पत्ता-इस प्रकार जिनकी वन्दना कर और अपनी निन्दा कर, नागने अपना तम ( पापतम ) धो लिया। और फिर विनमि है सहायक जिसका, ऐसे नमि महाराजका मुखरूपी चन्द्रबिम्ब देखा ||८||
उन्होंने कहा, "हे सदा सुखकर सपंराज, धरतो फाड़कर आप वनमें आये। हे सुशील, तुम हमारे सम्मुख क्यों हो और अपलक नेत्रोंसे मुख किस लिए देख रहे हो?" तब समस्त अमित नरेन्द्रोंको सन्त्रस्त करनेवाला फणीन्द्र यह सुनकर बोला, "मैं भुवनमें प्रसिद्ध नागराज हूँ, इन्द्रके द्वारा प्रणम्य त्रिजगत्तात, लोकोत्तम, कामदेवका अन्त करनेवाले यह हमारे स्वामी श्रेष्ठ हैं। जब यह राज्य छोड़कर विरक्त हुए तब इन्होंने मुझसे एक काम कहा था कि विकल और जड़
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१७२
महापुराण
एहिंति वेव मणिविणमिणाम तुहुं देजसु ताहं णयासणाउ आसणथरहरणें ढलिउ संचु पायालु मुवि अवयरिउ एत्थु जो खंडइ लिंपइ सुरहिएण एवहिं सो दीसइ 'ध्रुवु समाणु घत्ता - लहु आवहं काई चिरावहं जोइ मुएवि सखयरई । मई सिट्ठई पहुडई भुंजह णाणाणयरई ||९|
मई मग्गहिंति सिरिसोक्खकाम | खगसेढि उत्तरदाहिणाउ । मई जाणि तुम्हारउ पवंचु । हउं अरुहदेव पेस समत्थु । देवें णिज्झाइयणियहिएण | परिचत्त पुठिवल्लउ विहाणु ।
विऊण सदोसारंभहरं जुज्झिय हिंडियविस हरिणउलं गणगणलग्गसिरं गरुयं उक्ख पुलिंदकंदारुणयं सीहाणुलग्गभीयर सरह तीरासियखयरी वाहणयं णेउररवभरियर्लेयाहरयं संदेरिसियवहुरत्तामरसं वीसरियहारभारियमहियं चारणमुणिदेसियधम्मसुई फणिवयणविमुक्कविसग्गिवह णरजुयलमलद्धपियालवणं पुव्वावर जलहिविलग्गसिरो
१०
आवली- - इयं वयणं कुमारवीरेहिं इच्छियं णवर हयले विमाणं णियच्छियं । मारुयधाव माणधुयधयवडंचियं झायाण णिम्मियं ॥१॥
सुरवरभवणेण सरंभहरं । दैवंकुर पीणियहरिणडलं । ओसहियसत्तसि रंगरुयं । हरिणहहयक रिकंदारुणयं । सुररमणीवाहियहं सरहं । दुमघट्टण हुहुयवाहणयं । वरखेrरपीयपियो हरयं । रवियरवियसावियतामरसं । जिप डिमाकयमहिमामहियं । झरझरियणिज्झरावाहसुरं । दरिदवियविविहविसग्गिवहं । णीयं सेलं सपियालवणं । कंदर मुद्देहिं वणयरगसिरो ।
घत्ता-भडभीसहिं णमिविणमीसहिं गिरि वेयड्दु पलोइउ ॥ रयणालए सायरवेलए तुलदंडु व संजोइड ॥ १०॥
५. MBP अरुहदासपेसणं । ६. MBP धुउ ।
१०. १. All Mss. have before this line : मात्रासमकं । २. MBP जुज्झिहिंडिर । ३. MBP दुव्वंकुरं । ४. M॰लयाहरहं । ५. M पियाहरयं । ६. P संदरसियं । ७. MBP दरिसावियं ।
[८९१०
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८.१०.१९] हिन्दी अनुवाद
१७३ जीवका उद्धार करनेके किसी कामसे भेजे गये कोई नमि-विनमि नामके दो जन आयेंगे, श्री और सुखकी कामना रखनेवाले जो मुझसे कुछ मांगेंगे। तुम उन लोगोंके लिए विजयार्ध पर्वत आश्रित उत्तर-दक्षिण विद्याधर श्रेणियाँ प्रदान कर देना। आसनके कांपनेसे मेरा शरीरबन्ध हिल गया, ( उससे ) मैंने तुम्हारा प्रपंच जान लिया। पाताल छोड़कर मैं यहां अवतरित हुआ हूँ, मैं अरहन्त देवकी आज्ञा पूरी करने में समर्थ हूँ। अपने हृदयसे ध्यान किया है जिन्होंने, ऐसे देवके द्वारा ( ऋषभ ) जो उन्हें खण्डित करता है या सुरभिसे लेप करता है, वह इस समय निश्चित रूपसे समान भावसे देखा जाता है, उन्होंने पहलेका विधान (प्रशासन ) छोड़ दिया है।
__ पत्ता-जल्दी आओ, देर क्यों करते हो, योगीको छोड़कर, प्रभुके द्वारा आदिष्ट और मेरे द्वारा निर्मित विद्याधरों सहित नगरियां हैं, उनका भोग करो" ॥९॥
१०
इन वचनोंको कुमार वीरोंने चाहा। केवल उन्होंने आकाशमें विमान देखा। हवासे दौड़ते हुए और प्रकम्पित ध्वजपटोंसे अंचित जिसे, गुणी नागराजने शीघ्र निर्मित किया था। अपने दोषोंके प्रारम्भका नाश करनेवाले (ऋषभ जिन) को नमन कर ऋषभनाथका प्रिय आलपन न पानेवाले वे दोनों देव विमानके द्वारा विजयाध शैलपर ले जाये गये, जो सरोवरका जल धारण करनेवाला था, जिसमें युद्ध करते हुए वृषभ, सिंह और नकुल घूम रहे थे। हरिणोंका समूह दुर्वांकुरोंसे प्रसन्न था, जिसके शिखर आकासको छूते थे, महान्, जिसने अपनी औषधियोंसे प्राणियोंके शिर और शरीरसे रोग दूर कर दिया था, जो शवरों द्वारा उखाड़े गये मूलोंसे अरुण थे, जो सिंहोंके नखोंसे आहत हाथियोंके मस्तकसे भयंकर थे, जहां भयंकर अष्टापद सिंहोंका पीछा कर रहे थे, जिसमें सुररमणियाँ हंसरथोंको हाँक रही थीं, जिसके तीरपर विद्याधरियोंके वाहन स्थित थे। जिसमें वृक्षोंके संघर्षसे उत्पन्न आग प्रज्वलित थी। जिसके लताघर नूपुरोंकी झंकारसे झंकृत थे, और श्रेष्ठ विद्याधर अपनी प्रियाओंके अधरोंका पान कर रहे थे, जो अपनी वधुओंमें अनुरक्त देवोंके सुखका प्रदर्शन कर रहा था, जिसमें रविकिरणोंसे कमल खिल रहे थे, जिसमें खोये हुए हारोंसे धरती पटी पड़ी थी, जो जिन भगवान्की प्रतिमाओंकी महिमासे पूज्य था, जो चारणमुनियोंके द्वारा उपदिष्ट धर्मसे पवित्र था जिसमें झरझर निर्झरोंका अबाध प्रवाह था, जिसमें नागोंके मुखोंसे निकली हुई विषाग्नि शान्त थी, जिसकी घाटियोंकी पक्षियों द्वारा स्वर्गपथ दिखाया जा रहा था, जो प्रियाल वृक्षोंके वनोंसे युक्त था। पूर्वी और पश्चिमी समुद्रों, डूबे हुए छोरोंवाला और गुफाओंके मुखोंसे वनचरोंकी लीलता हुआ
पत्ता-अटोंसे भयंकर विजयार्द्ध पर्वतको नमि और विनमिने इस प्रकार देखा, जैसे रत्नोंके घर सागर-तटपर तुलादण्ड रख दिया गया हो ।।१०।।
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१७४
आवली - वियसियविडविकुसुम किंजक्कपिंजरो मणिमयक यमं डिओ णं महीकरो । रयणाय पसारिओ सहइ सोहणो रयणायरवि लुद्धओ हवइ थीयणो || १ || अहवा गोगाइसरीरवंसु । पडिगयसं किरगय णिहयमेहु | देवहुं वल्लहु णं सग्गलोड । रसवाइ व सई णिवडियसुवण्णु । वासरि रवि मणिजलणेण जलइ । जहिं चक्कवाय ण मुणंति सोउ । पणास मूलि वित्थारु जासु । जो पंचवीस जोयणईं तुंगु । दीहत्ते लवणसमुदु जाम । सेढी दोणि विज्जाहराह
णं जगसिरिणट्टाधारबंसु गंगासिंधू विहिणदेहु रुक्खहु णावइ रुक्खाउवेउ उवलोस हिरस सिहिजोयवण्णु णिसि चंदयंत सलिलेहिं गलइ माणिकपहादिण्णावलोड र्ययमड सव्वु रयणियरभासु गैयणंगण लंग्गविचित्तसिंगु दोवासहिं तासु थियाउ ताम उत्तरदाहिणिय मणहराह
महापुराण
११
घत्ता - महि मोइवि दह वरि जाइवि दहजोयणवित्थिण्णी ॥ एक्की विवगुरुक्की णाणारयणरवण्णी ॥ ११ ॥
१२
आवली - तत्थ चउत्थकालठिदिसंविहाण यं पंचधणूसयाई मुणिरयणिमाणयं । कम्मै भूमिपरिणामजोयओ परविज्जाहलेण अहिओ विहोयओ || १||
कुलजाइकमेण समागयाउ पुव्वाड तार णिचं हियाउ
हिउवसग्गे धीरें समेण पारंभियमुद्दामंडलेण विज्जाहराहं नियमें वण सिद्धउ पण्णत्तिपहूइयाउ जहिं धम्मा इव संदिण्णकाम जहिं दक्खामंडवल सुयंति
दूसहतवताववसंगयाउ । अवराउ पयत्तें साहियाउ । सुइदेहें होमें संजमेण । रुगंध फुल्लचणेण । विज्जाउ होंति ससहावएण | आणन्तु करिति पइयाउ । नीरंतरसीमाराम गाम । हि पंथिय दक्खारपियंति ।
११. १. MBP गयणग्गलग्गसुविचित्तं । २. B° सेंगु । ३. MB सेढिउ दोण्णि वि; P सेढिउ बेण्णि वि । ४. MBP णाणाय ।
१२. १. P लट्ठदि । २. T भयराणिमाणयं, but notes a p : मुणिरयणीति पाठेऽप्ययमेवार्थः । ३. MBP कम्मभूमिणामं । ४. MBP सहिओवसग्गधीरें । ५. MB पुप्फच्चणेण; B पुष्पंचणेण । ६. MBP कमेण । ७. MBP सुदूइयाउ । ८, MBP रंतर । ९. M जहि ।
[ ८. ११. १
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८.१२. १२]
हिन्दी अनुवाद
१७५
विकसित वृक्षोंके पुष्पपरागसे पीला और मणिमय कटकसे शोभित वह विजयाध पर्वत मानो जैसे धरतीका हाथ हो। रत्नाकर तक फैला हुआ शोभन जो ऐसा लगता है मानो ( रतनागर ) विदग्ध पुरुषमें स्त्रीजन हो। जो मानो विश्वश्रीके नाट्यका आधारभूत बांस हो, अथवा पृथ्वीरूपी गायके शरीरका आधार हो; गंगा और सिन्धु नदियोंके द्वारा जो खण्डित शरीर है, जिसमें प्रतिगजोंकी आशंकामें गज मेघोंको आहत करते हैं, वृक्षोंके लिए जो पर्वत वृक्षायुर्वेद शास्त्र हो, देवोंके लिए प्रिय जो मानो स्वर्गलोक हो। धातु पाषाणोंके औषधि रसकी आगसे चमकते हुए रंगवाला जो, रसवादीकी तरह स्वयं स्वर्णमय हो गया है। जो चन्द्रकान्त मणियोंके जलसे रात्रिमें गल जाता है, और दिनमें सूर्यमणियोंकी ज्वालामें जल उठता है। माणिक्योंकी प्रभासे प्रकाश ( अवलोकन ) मिल जानेके कारण जहां चकवे शोकको नहीं जानते। जो समस्त रजतमय है, और चन्द्रमाको आमाके समान है, जिसका विस्तार पचास योजन है, जिसके विचित्र शिखर आकाशको छूते हैं, जो पचीस योजन ऊंचा है। लम्बाईमें वह अपने दोनों किनारोंसे वहां तक स्थित है कि जहां तक लवण समुद्र है। जिसकी उत्तर-दक्षिण श्रेणियां सुन्दर विद्याधरोंकी हैं।
घत्ता-जो धरतीको छोड़कर, दस योजन ऊपर जाकर दस योजन विस्तृत है, और नाना रत्नोंसे सुन्दर एक-एक वैभवमें महान् है ।।११॥
वहां हमेशा चतुर्थकालकी स्थितिका संविधान है। मनुष्योंकी ऊंचाई पांच सौ धनुष प्रमाण है । जहाँ कर्मभूमिके समान कृषि आदि कर्मसे उत्पन्न तथा श्रेष्ठ विद्याओंके फलसे अधिक भोग हैं। कुलजातिके क्रमसे आयी हुई, असह्य तपस्याके तापसे वशमें आयी हुई पूर्वकी विद्याएं उन्हें नित्य रूपसे प्राप्त हो गयीं और भी विद्याएं उन्होंने ( नमि-विनमिने ) प्रयत्नसे सिद्ध कर लीं। उपसर्गोंको सहन करनेका धैर्य शम, पवित्र देह, होम, संयम, मुद्रामण्डलके प्रारम्भ करनेसे नैवेद्य, गन्ध, धूप और फूलों द्वारा अर्चा करनेसे नियम और व्रत करनेसे विद्याधरोंको स्वभावसे विद्याएँ सिद्ध होती हैं। प्रज्ञप्ति आदि विद्याएं उन्हें सिद्ध हो गयी, और आकर उनकी आज्ञाओंका पालन करने लगीं। जहां सीमा उद्यानोंसे निरन्तर बसे हुए ग्राम धर्मोकी तरह कामनाओंको पूरा करनेवाले हैं।
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१७६
धवलूढ जंतपीलिज्ज माणु कइकवर व जणु पियइ ताम जहिं पिकलेकणिसई चरंति घत्ता - सिरिसयणहिं णं बहुवयणहिं
सप
पुंडुच्छुखंडरसु वहमाणु । तित्तीइ होइ सिरकंपु जाम । सुय दूयत्तणु हलिणिहि करंति । विलसंती दिणि रायइ ||
१२
जहिं पोमणि कलम हुरझुणि णं भाणुहि गुण गायइ ||१२||
10
१३
आवली - कंकणहारदोरक डिसुत्तभूसिया चिं गंधधूर्व मल्लोहवासिया । लच्छ भुंजिरं णरा देवयाणियं सोक्खं जं लहंति तं केण माणियं ॥ १ ॥
कुसुमियणंदणवणसं कडाई परिहातिएहिं परियंचियाई बहुदारगो रट्टालाई हालातोरणसोहियाई सोहासमूहमोहियसुराई पहिलउ किंणर णरगीड बीउ हरिके से वि रवण्णु सिरिवहु सिरिहरु लोग्गलोलु वज्जग्गलु वज्जविमोउ अवरु सोलहमी पुरि सय मुहि होइ रयविरयपउरखगजम्मखोणि अपरजिउ कंचीदासु दोण्णि झसइंध कुसुमपुरि संजयंति विजया खेमंकरु चंदभासु सुविचित्त महाघण चित्तकूडु ससिरविपुरि विमुही वाहिणी वि मज्झइ रहणेउर चकवाछु जायड" जयमंगलजयरवेण धत्ता - एकेकी पुरहिं विरिक्की
कीला गिरिंदसिहरु भडाई | पवणुधुयधयमालंचियाई । सोवण्णरयणरइयालयाई । दाहिणसेढिइ जसाहियाई । एय पण्णास जि पुरवराई । बहुके पुणु वि पुरु पुंडरीउ । सप्पारिकेउ णीहारवण्णु । अक्कु अरिंज सग्गलीलु । महिसारु पुरं जयपुरु वि पवरु ।
मुह बहुमुहि जाणंति जोइ । आहंडलणयरि विलासजोणि । सविनय हु खेमँयरीउ तिण्णि । सुक्कडरू जयंती वइजयंति । रविभासु सत्तभूय लणिवासु । to वितिकूड वसवणकूडु | सुमुहीपुरि णिज्जोइणी वि । तहिं सथलखयरकुलसामिसालु । मि फणिणा णिहि कच्छवेण । गामकोडिपडिबद्धी ||
राहु यणाय धम्में संपय सिद्धी ॥ १३॥
१०. MBP रसपवहमाणु । ११. M कलमकणसई; BP कलवकणिसई । १२. MBPK विसयंती । १३. १. MBP मल्लेह वासिया; T मल्लोह and gloss पुष्पसमूहः । २. P° गोउरुद्दालयाई ।
३. MBP सेउकेउ । ४. MB लोयग्गलीलु; P लोहग्गलालु and gloss लोहार्गलायुक्तम् । ५. B जउपुरु । ६. B सय मुहि । ७. M खेपुरीउ; BP खेमपुरीउ । ८. MBP सुक्कउरि । ९. P वइससणं । १०. P णेउरु चक्कवालु । ११. MBP जायेउ । १२. M विहवगुरुक्की; BP पुरहिं गुरुक्की 1
[ ८. १२ १३
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८. १३. २४ ] हिन्दी अनुवाद
१७७ जहाँ पथिक राखोंके मण्डपोंके नीचे सोते हैं और द्राक्षारस पीते हैं। जहां बैलोंके द्वारा संवाहित यन्त्रोंके द्वारा पेरा गया पौंडों और ईखोंका रस बह रहा है। जिसे कविके काव्य रसकी तरह जन तबतक पीते हैं कि जबतक तृप्तिसे उनका सिर नहीं हिल जाता। जहां तोते पके हुए धान्योंके कणोंको चुगते हैं और कृषक-स्त्रियोंका दौत्य कार्य करते हैं।
पत्ता-जहां कमलिनी बहुत-से कमलोंसे दिनमें इस प्रकार शोभित है मानो सुन्दर मधुर ध्वनिमें सूर्यका गुणगान कर रही हो ॥१२॥
कंगन-हार-दोर और कटिसूत्रसे भूषित, नित्य गन्ध-धूप और पुष्पसमूहसे सुवासित वहाँके लोग जो विद्याओंसे सम्पादित लक्ष्मीका उपभोग करते हैं और जो सुख प्राप्त करते हैं वह किसे मिला ? उसकी दक्षिण श्रेणीमें कुसुमित नन्दन वनोंसे व्याप्त, क्रीड़ा-गिरीन्द्रोंके शिखरोंसे उन्नत तीन-तीन खाइयोंसे घिरे हुए, हवासे उड़ती हुई ध्वजमालाओंसे शोभित बहुद्वार और गोपुरवाली अटालिकाओंसे यक्त. स्वर्ण और रत्नोंसे निर्मित प्रासादोंवाले. मख्य शालाओं और तोरणोंसे अंचित और यशमें प्रसिद्ध, अपने सौन्दर्य-समूहसे सुरवरोंको मोहित करनेवाले ये पचास पुरवर हैं। पहला किन्नर, दूसरा नरग्रीव, फिर बहुकेतु, फिर पुण्डरीक नगर, फिर सुन्दर हरिकेतु, श्वेतकेतु, फिर सारिकेतु और नीहारवणं । श्रीबहु, श्रीधर, लोहाग्रलोल तथा एक और स्वर्गकी तरह आचरण करनेवाला अरिंजय। वज्रार्गल, वज्रविमोद और धरतीमें श्रेष्ठ विशाल जयपुर। सोलहवीं भूमि शकटमुखी है, और भी चतुर्मुखी बहुमुखी नगरियाँ हैं, जिन्हें योगी जानते हैं। समविरागसे प्रचुर विद्याधरोंकी जन्मभूमि और विलासयोनि आखण्डल नगरी है, दो और हैं अपराजित और कांचीदाम; संविनय, नभ और क्षेमंकरी ये तीन नगरियां और हैं; झसइंध, कुसुमपुरी, संजयन्त, शुक्रपुर, जयन्ती, वैजयन्ती, विजया, क्षेमंकर, चन्द्रभारा ( सप्ततल भूमिनिवास), रविभास, सुविचित्र महाघन, चित्रकूट, और भी त्रिकूट, वैश्रवणकूट, शशिरविपुरी, विमुखी, वाहिनी, सुमुखीपुरी और नित्योद्योतिनी भी। और उसके बीच में रथनूपुर चक्रवालपुर है। उसमें समस्त विद्याधरोंके स्वामीश्रेष्ठ नमिको नागराजने उत्सव कर जय-जय मंगलके साथ प्रतिष्ठित कर दिया।
धत्ता-नगरोंसे विभक्त एक-एक नगरी करोड़ों ग्रामोंसे प्रतिबद्ध थी। इस प्रकार नाभेय ऋषभनाथकी स्तुति करनेवाले नमि राजाको धर्मसे सम्पत्ति फिर हुई ॥१३॥
२३
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१७८
महापुराण
[८.१४.१
आवली-पुरिसा भूयलम्मि विरला सुधीरया
परउवयारवावडा होंति धीरया। एक्को अहव दोण्णि पायालराइणा
सरिसा गैत्थि भद्द धरणिंदभोइणा ॥१॥ वारुणासामुहाओ फुडं जाणिमो वामसेढीपुराणावलिं भाणिमो। अजुणी वारुणी वइरिसंघारिणी अवि य केलासपुग्विल्लया वारुणी । विज् दित्तं पुरं गिलिगिलं पट्टणं चारुचूडामणी चंदभाभूसणं । वंसवैत्तं पुरं कुसुम चूलं पुरं हंसगभं पुरं मेहणामं पुरं। संकरं लच्छिहम्मं पुरं चामरं विमलमसुक्कयं सिवसमं मंदिरं । वसुमईणामयं सव्वसिद्धत्थयं . सूरसत्तुंजयं केउमालं कयं । इंदकंतं गहाणंदणासोययं वीयसोयं विसोयं सुहालोययं । अलयतिलयं च णहतिलययं मंदिरं कुमुदकुंदं च णहवल्लहं सुंदरं । "जुइतिलयमवणितिलयं सगंधव्वयं मुक्कहारं पुरं अणिमिसं दिव्वयं । अग्गिजालापुरं''गरुयजालापुरं सिरिणिकेयं च जयसिरिणिवासं पुरं। रयणकुलिसं वरिष्टुं विसिट्ठासयं दविणजयमवि सभई च भहासयं । फेणसिहरं पि गोखीरवरसिहरयं वेरिअक्खोहसिहरं च गिरिसिहरयं । धरणि धारणि सुदंसणपुरं रुंदयं दुग्गयं दुद्धरं हारिमाहिंदयं । विजयणामं पुरं पुणु सुगंधिणिपुरं "सुरयणायरपुरं रयणपुरभवि पुरं। सट्ठिगामाण कोडीहिं सहुं हारिणा "सट्ठि तुट्टेण" सुविसिट्ठसुहयारिणा । घत्ता-इय णयरइ णिवसियखयरइं धणकणजणपरिपुण्णइं ॥२०॥
अणुराएं रिसहपसाएं णाएं विणमिहि दिण्णइं ॥१४॥
२०
आवली-जाओ सोणहयराणं पहू पिओ
णेहणिबद्धओ संसुहिणा समं थिओ। सुयणुद्धारभारधरणुज्जुयंगओ
ते आउच्छिऊण धरणो धरं गओ ॥१॥ मुवणहु मंडणु अरहंतु देउ माणिणिमुहमंडणु मयरकेउ । वेसहि मंडणु वइसिउ णिरुत्तु __ ववहारहु मंडणु चायवित्तु ।
कुलमंडणु सीलु सुयस्स बुद्धि तवचरणहु मंडणु मणविसुद्धि । १४. १. M सरसा। २. MBP भद्द णत्थि । ३. MBP पुराणावली । ४. P विज्जदंतं । ५. MBP
किलिकिलं। ६. MP वंसवंतं; वसवंसं । ७. MBP सूरसंतुज्जयं । ८. MBP महा । ९. MBP कुसुमकुंद व्व । १०. M जुवइतिलयं सवणियं; P जुवइतिलयं सविणियं । ११. MBP गरुयआलापुरं ।
१२. P रुद्दय । १३. M सुरयणारय । १४. MBP सुट्ठ । १५. P सुविसुद्ध but gloss सुविशिष्ट । १५. १. B सुसुहिणा । २. P धरणुज्जयंगओ, but gloss ऋजुशरीरः । ३. BP वायवित्तु, aud gloss
in P वचनप्रतिपालनम् ।
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८.१५.७]
हिन्दी अनुवाद
भूतलपर ऐसे लोग विरल हैं जो सुधोजनोंमें रत, दूसरोंके उपकारमें चेष्टा करनेवाले और धीर होते हैं, एक या दो। पातालके राजा नागराज धरणेन्द्रके समान भला आदमी नहीं है। पश्चिम दिशाके मुखसे प्रारम्भ होनेवाली दक्षिणश्रेणीको पुराणावलीको मैं अच्छी तरह जानता हूँ, और उनकी नामावलीको कहता हूँ। अर्जुनी-वारुणी वैरि-सन्धारिणी, और भी कैलासके पूर्वको वारुणी, विद्युद्दीप्त नगर, गिलगिल (गिलगित ) नगर, चारुचूड़ामणि, चन्द्रमाभूषण, वंशवक्त्र, कुसुमचूलपुर, हंसगर्भ, मेघनामपुर, संकर, लक्ष्मी, हयं, चामर, विमल, मसुक्कय, शिवसम मन्दिर,
सिद्धार्थ, सर शत्रंजय, केतमाल-इन्द्रकान्त नभानन्दन, अशोक, बीतशोक, विशोक, शुभालोक, अलकतिलक, नभतिलक, सगन्धर्व, मुक्तहार, अनिमिष दिव्य, अग्निज्वालापुर, गरुज्वालापुर, श्रीनिकेत, जयश्री निवासपुर, रत्नकुलिश, वरिष्ठ, विशिष्टाशय, द्रविण जय सभद्र और भद्राशय, फेनशिखर, गोक्षीरवर शिखर, वैरि-अक्षोभ शिखर, गिरिशिखर, धरणीधारिणी, विशाल सुदर्शनपुर, दुर्गय, दुर्धर, हारिमाहेन्द्र, विजयनाम और फिर सुगन्धिनीपुर और भी रत्नपुर ये साठ नगर, साठ करोड़ गांवोंके साथ, सन्तुष्ट मनोज्ञ तथा सुविशिष्ट और शुभ करनेवाले ( नागराज धरणेन्द्रने)।
पत्ता-नृपश्री और खेचरोंसे युक्त धन-कण और जनसे परिपूरित ये नगर ऋषभके प्रसादसे विनमिको प्रदान किये गये ॥१४॥
१५
वह विद्याधरोंका प्रिय स्वामी हो गया, वह अपने हितैषियोंके साथ स्नेहबद्ध रहने लगा। सुजनोंके उद्धारभारको धारण करनेके लिए उद्यत वह धरणेन्द्र उन दोनोंसे पूछकर अपने घर चला गया ॥१॥
भुवनके मण्डन अरहन्तदेव हैं, मानवियोंका मुखमण्डन कामदेव हैं। वेश्याका मण्डन निश्चय ही वेश्यावृत्ति है; व्यवहारीका मण्डन त्यागवृत्ति है; कुलका मण्डन शील है, शास्त्रका
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१८०
[८.१५.८
महापुराण कुलवहुमंडणु भत्तारभत्ति
असि रायहु मंडणु मंतसत्ति । माणहु मंडणु अदीणवयणु . भवणहु मंडणु वरणारिरयणु । कइमंडणु णिवाहियणिबंधु गयणहु मंडणु ससि कमलबंधु । पियपेम्महु मंडणु पणयकोउ आरंभहु मंडणु खलविओउ। किंकरमंडणु पहुकज्जकरणु
णरवइमंडणु पाइक्कभरणु। सिरिमंडणु पंडिंययणु णिरुत्तु पंडियमंडणु णिम्मच्छरत्तु । पुरिसहु मंडणउ परोवयारु धरणिंदें पालिउ णिव्वियारु । उद्धरिय वे वि णमि विणमि भाय को पावइ एयहु तणिय छाय । अहवा किं होसइ किर परेण परिणवइ दइउ सव्वायरेण । घत्ता-किं किजइ अण्णे दिजइ सव्वहु पुण्णु जि सामिउ ।
ते कित्तणु भरहपहुत्तणु पुप्फयंतगैयगामिउ ॥१५॥
इय महापुराणे तिसटिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरइए महाभग्वभरहाणु
मण्णिए महाकव्वे णमिविणमिरजलंभो णाम अट्टमो परिच्छेओ सम्मत्तो ॥८॥
॥ संधि ॥८॥
।... ४. M सोहइ । ५. MBP होइ । ६. MBP°गई।
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८.१५.१८ ]
हिन्दी अनुवाद
१८१
मण्डन बुद्धि है, तपश्चरणका मण्डन चित्तको विशुद्धि है, कुलवधूका मण्डन अपने पतिको भक्ति है, राजाका मण्डन मन्त्रशक्ति है, मानका मण्डन अदैन्य वचन है, भवनका मण्डन श्रेष्ठ नारीरत्न है, कविका मण्डन अपने प्रबन्धका निर्वाह है । आकाशका मण्डन सूर्य और चन्द्र हैं, प्रियप्रेमका मण्डन प्रकोप है, प्रारम्भका मण्डन खलवियोग है। किंकरका मण्डन अपने स्वामीका काम करना है । राजाका मण्डन प्रजाका भरण करना है । निश्चयसे लक्ष्मीका मण्डन पण्डितजन हैं, और पण्डितजनका मण्डन मत्सरतासे रहित होना है । पुरुषका मण्डन परोपकार है। जिसका पालन धरणेन्द्रने निर्विकार भावसे किया है, ऐसे नमि और विनमि दोनों भाइयोंका उद्धार कर दिया, उसकी शोभाको कौन पा सकता है । अथवा दूसरेसे क्या हो सकता है ? देव ही सब रूपमें परिणत हो सकता है ।
।
घत्ता - दूसरा क्या देता है और क्या लेता है । पुण्य ही सबका स्वामी है । उसी पुण्यसे भरतकी कीर्ति प्रमुख और आकाशगामी है || १५॥
इस प्रकार सठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त इस महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा और महामन्त्री मरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका नमि-विनमि राज्यप्राप्ति नामका आठवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥८॥
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५
१०
१५
संधि ९
ता झाइ णिहु नियमणपेसरु परज्जिउ | yout छइ मासि णार्हे जोउ विसज्जिउ ॥१॥
१
दुक्कियं खवंतो । सुद्धही महंतो || १ || तिह माणुस सरीरु आहारें । सिद्धउ लत्तर काल भवतें । पुवं पच्छा संथुइभासहिं । देवयचरुयहिं वियलियधम्महिं । चोई हम वित्थारवियारहिं । परंभयवसउच्चाइयगासहिं । जिउ अवरेहिं मि बहुदोसहिं । रस रखें" संतु हिणेवउ । संजमजत्तामेत्तु " समत्तउ ।
कोडीविसुद्ध सुपरिक्खि उ" । चरियाचरणु जगहु दरिसेवउ । ण करमि भोयणु ॥ भज्जिहइ तवोवणु ॥ १ ॥
हेलो - परिचितइ जिणेसरो महिमापार मासिओ जिह तेल्लेण दीव तरु णीरें आहारु वि जो परह णिमित्तं उझ आहाक मुद्दे सहिं अज्झोवज्झहिं पूईकम्महिं लिंगिणीसणर सँत्तूगारहिं जीववहाइअसंजममीसहि गणहरगणयहिं छायालीसहि रसु सरसुण किंपि भणेवउ रूवतेय बलर्चिताचत्तड सुक्खु क्खु वीरब्भुक्खिउ पाणिपत्ति सई मई भुजेवउ घत्ता - जइ हउं अच्छमि अज्जु केम वि तो जिह ए र भग्गा" तिह
१२
२
हेला - आहारें वओ तिणा तवो तिणी जियक्खो । अक्खाणं जर समो होइ तेण मोक्खो ॥१॥ sos जो पमोत्तूण |
MBP give, at the bigfnaing of this Samdhi, the stanza एको दिव्यकथाविचारचतुरः etc, for which see notes on pege 121.
१. १. BP प सरपरज्जिउ । २. GK eall this couplet हेलादुवई only at this place; throughout the rest of the Samdhi they call it हेला । ३. MBP सुद्धधी । ४. BPK कालि । ५. P भमंतें । ६ B थुइभासहि । ७. K सत्तुग्गा रहि । B सत्तुउग्गारहि; P सत्तुगारहि । ८. MP चउदहं । ९. K पयभ । १०. MBP रसे रमंतु । ११. MBPT मेत्तसमत्तउ । १२. MBP सउवीरें भुक्खिउ; K सउवीरब्भक्खिउ । १३. M परिक्खिउ । १४. MBP भग्ग | २. १. MBP तवे ।
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सन्धि ९
तब स्वामीने अपने स्नेहहीन मन प्रसारका ध्यान किया, और उसे जीत लिया। छठा माह परा होनेपर स्वामीने अपना कायोत्सर्ग समाप्त कर लिया। महिमाकी अन्तिम सीमापर पहुंचे हुए शुद्ध बुद्धि, पापोंका नाश करनेवाले महान् जिन सोचते हैं जिस प्रकार तेलसे दीपक और नीरसे वृक्ष जीवित रहता है, उसी प्रकार आहारसे मनुष्य शरीर जीवित रहता है। आहार भी वही जो दूसरेके निमित्त बना हो, सिद्ध हो और समयपर मिल जाये, जो आहार कर्मके उद्देश्योंसे रहित हो, पहले और बाद, स्तुतिको भाषासे शून्य हो, अधिक जल और चावलोंके मिश्रणसे रहित हो, विगलित धर्म देवचरुओं, लिंगी, दरिद्री मनुष्योंके दरिद्रतापूर्ण उद्गारों, चौदह प्रकारके मलोंके विस्तार-विकारों, जीवोंके वधादिके असंयमोंके मिश्रणों, दूसरेके भयसे उठाये हुए ग्रासों, इस प्रकार गणधरोंके द्वारा कहे गये छयालीस और दूसरे बहुदोषोंसे रहित हो, और जिसे सरस-नीरस कुछ भी न कहा जाये, रसमें स्वाद देनेवाली जीभको रोका जाये, रूप-तेज-बलकी चिन्तासे मुक्त, भोजन-संयमकी यात्राके लिए ही किया जाये। रूखा-सूखा कांजीका बघारा हुआ, मन-वचन और काय, तथा कृत-कारित और अनुमोदन ( नवकोटि विशुद्ध ) से शुद्ध, अच्छी तरह परीक्षित, भोजन मैं पाणिरूपी पात्रसे खाऊं एवं चर्याका आचरण संसारको बताऊँ।
घत्ता-यदि मैं किसी प्रकार इसी तरह रहता हूँ और भोजन नहीं करता हूँ तो जिस प्रकार ये लोग नष्ट हो गये, उसी प्रकार दूसरा मुनिसमूह भी नष्ट हो जायेगा ॥१॥
आहारसे व्रत होता है, व्रतसे तप होता है और तपके द्वारा इन्द्रियां जीती जाती हैं। इन्द्रियोंकी विजयसे सम होता है और समसे मोक्ष। अपने मनमें यह स्वीकार कर और
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१८४
महापुराण
[९.२.४
सिद्धत्थणामाउ विहरेइ परमेहि जीवे ण दुम्मेइ रमणीयथामेसु तं विणयणयभरिय अन्मुवरसालीण भइयाइ कंपंति एसो महीराउ धणकणयधण्णाई मंडेलिय महियलई एयस्स पडिवत्ति इय भणिवि सहलई भमराहिरामाई कुंकुमई चंदणई सुरहियई सीलय सीसेण गहिऊण णाहस्स ते देति अण्णे पसत्थाई कैडिसुत्तकेऊरु कंकणई कुंडलई गलियावलेवस्स अण्णे कुलीणाउ लायण्णपुण्णाउ गररहतुरंगाई णिसियाई पहरणइं" वाइत्तजुत्ताई "ससिसंखपंडुरई अण्णे समप्पंति भो मयणमयवाह भो तरुणमिहिराह'
तम्हा वणंताउ। जुयमेत्ति गयदिहि। पेच्छंतु पउ देइ। गयरेसु गामेसु । पणमंति णायरिय । जोयंति गामीण। अण्णे पयंपंति । एसो महादेउ । एएण दिण्णाई। काऊण बहुहलई। उवयरह सहस ति। विविहाई फलदलई। णवकुसुमदामाई । भायणई भोयणई। भिंगारवरजलई। पंथम्मि णिहिऊण । बाला ण याणंति । देबंगवत्थाई। मणिहारु मंजीरु। णं सूरमंडलई। उवणेति देवस्स। मज्झम्मि खीणाउ। ढोयंति कण्णाउ। मायंगेंडुंगाई। उववणई पट्टणइं। चमरायवत्ताई। चिंधाई मंदिरई। अण्णे "पभासंति। भोणाणजलवाह। भो तवसिरीणाह।
१3
२. MBP जुयमेत्तु । ३. MB जीवं ण दुसेइ; PT जीवं ण दूमेइ। ४. MBP जोयंत । ५. MBP मंडलई। ६. MB करिसुत्तकेऊर; P कडिसुत्त केऊर । ७. MBP मणिहार मंजीर । ८. Mp वररह । ९. MBPT मायंगतंगाई and gloss in T समूहाः। १०. B omits णिसियाई पहरणइं; P adds it in the margin in second hand | ११. M adds after this : जोयंति किंकरई; P adds it in the margin iu second hand | १२. MBP add after this : पणयाई परियणई। १३. MBP ससिखंड । १४. MBP पहासंति । १५. MBPT °मिहराह ।
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९.२.३३]
हिन्दी अनुवाद
योगको छोड़कर सिद्धार्थ नामक उस वनसे परमेष्ठी ऋषभनाथ विहार करते हैं। चार हाथ धरतीपर गजदृष्टिसे देखते हुए पैर रखते हैं, जीवोंको नहीं कुचलते। रमणीय नगरों और ग्रामोंमें उन्हें विनय और नयसे भरे हुए नागरिक प्रणाम करते हैं। ग्रामीण अद्भुत रसमें लीन होकर उन्हें देखते हैं, भयसे कांप उठते हैं। दूसरे कहते हैं-"यह महाराज हैं, यह महादेव हैं। इन्होंने धन, स्वर्ण और धान्य दिया है, मण्डलों और महीतलोंको बहुफलोंसे युक्त किया है। इनकी प्रवत्ति सहसा उद्धार करती है।" यह सोचकर आर्द्र (ताजे) विविध फलदलों, भ्रमरोंसे अत्यधिक अभिराम नवकुसुम-मालाओं, कुंकुम, चन्दन, भाजन-भोजन, सुरभित चावल, भिंगारकोंमें उत्तम जलोंको अपने सिरोंपर लेकर, रास्तेमें खड़े होकर स्वामीको उक्त चीजें देते हैं, वे अज्ञानी नहीं जानते । दूसरे प्रशस्त देवांग वस्त्र, कटिसूत्र, केयूर, मणिहार, मंजीर, कंगन, कुण्डल, ( मानो सूर्यमण्डल हों) पापसे रहित देवके लिए लाते हैं, दूसरे लोग कुलीन कृशोदरी ( मध्यमें क्षीण ), लावण्यसे परिपूर्ण कन्याओंको भेटमें देते हैं, नर-रथ-तुरंग और गजोंके समूह, पैने प्रहरण, उपवन, नगर, वाद्योंसे युक्त चमर और आतपत्र (छत्र), चन्द्रमा और शंखोंके समान सफेद ध्वज और प्रासाद दूसरे देते हैं, और दूसरे देते हैं, “कामदेवरूपी मृगके आखेटक, ज्ञानरूपी जलके प्रवाह,
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३५
४०
१०
५
१८६
३. ४.
महापुराण
भो देवदेवेस णिग्गवेसेण णालवसि किं भवसि इ भणिवि अहिं बोलाविओ जइ वि परणिहियणियचित्तु
धत्ता - हिंडइ जाम जिनिंदु चरियामग्गि पइट्ठउ ॥ ता सेयंसणिवेण गयउरि सिविणउं" दिउ ||२॥
१६
भो परम परमेस । *णियदेहसोसेण । उ हससि णउ रमसि । चडुसज्जेहिं |
पहु चवइ उ तइ वि । महिdig विहरंतु ।
३
हेला - पल्लं कासिएण मउलंतणेत्तएणं । रणिविराम जाम
णीलजडाकलावओमालिउ एरावयर्केर संणिहबाहउ तावण्णहिं दिणि णयरि पइटुउ धावमाणजणपयसंमहें
को वि भइ अवलोयहि एत्तहि
संपत्तएणं ॥१॥ भवाणुबद्धधम्मणा । करीसरो सरोवरो । बद्ध माहिओ | रिऊण छेयणंकरो ।
महाभsो धणुद्धरो । विसों विसाणउज्जलो । घरे वितु मंद | पणट्ठदिट्टिमोहओ | माणसे विवेइओ | समासिओ सभाडणो ।
सहाणुजम्मिणा पिसायरो दिवायरो
मण्णव सुरंधिओ बाहुजित्तसंग रक्खमेककंधरो घुलंत पुच्छँ पच्छलो णियच्छिओ सकंदरो इमो सोह सिंत पलोइओ पहाय महाउ
घत्ता - तं णिसुणिवि कुरुणाहु सिविण्यलु आहासइ ॥ कवि जगतमु देउ ह मंदिर आवेसइ ॥३॥
४
हेला - ससिरविसुहडसीहस रेस रहिगोगुणालो । जंगममंदरु व्व गइहसियपीलुंलीलो ॥१॥
सिहरि व जलहर मालइ कालिउ । गोहु व ललंतपारोहउ । णारहिं णिरजणु दिट्ठउ । उट्ठिउ कलयलु जयजयस दें । हउं पंजलियर अच्छमि जेत्तहि ।
१६. B णिवं । १७. MBP भमसि । १८. M चडुयम्मसदेहिं । १९. BP सुइणउं ।
१. M बलधुरो । २. MBP भरेक्कमेक्ककंधरो । ३. MPK पुंछ । ४. MBP फलु |
०
१. M सरभूरुहगुणालओ; B सरसरेणे गुणालओ; P सरसरहिणा गुणालओ; T सरहि समुद्रः ।
२. MBP॰ पीलुलीलओ । ३. MBP अइरावय । ४. M करिं ।
[ ९२.३४
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९.४.७] हिन्दी अनुवाद
१८७ तरुण सूर्यके समान आभावाले, हे तपश्रीके स्वामी, हे देवदेवेश, हे परम-परमेश, दिगम्बर वेष अपने शरीरके शोषणसे क्या होगा, क्यों नहीं बताते । न हंसते हो न रमण करते हो।" यह कहकर चाटुकर्मसे सज्जित आर्योंने उन्हें बुलवाना चाहा परन्तु स्वामी तब भी नहीं बोलते । घरसे अपने चित्तको हटानेवाले वह धरतीतलपर विहार करते हैं।
पत्ता-चर्यामागंमें प्रवृत्त जब वह (आहारके लिए) घूमते हैं तभी राजा श्रेयांसने हस्तिनापुरमें स्वप्न देखा ॥२॥
पलंगपर सोते हुए, अपने नेत्र मलते हुए, रात्रिके अन्तिम प्रहरमें सोमप्रभके अनुज श्रेयांसन स्वप्न देखा-चन्द्र-सूर्य-महागज-सरोवर-समुद्र-कल्पवृक्ष, बलसे उत्कट सिंह, अपने बाहुओंसे युद्धको जीतनेवाला, शत्रुका छेदन करनेवाला, भार उठानेमें समर्थ कन्धोंवाला, धनुर्धारी महासुभट । पूंछका पिछला भाग हिलाता हुआ सींगोंसे उज्ज्वल वृषभ, और घरमें प्रवेश करते हुए गुफासहित मन्दराचलको देखा। इस प्रकार दृष्टिके आकर्षणको समाप्त करनेवाले स्वप्नसमूहको उसने रात्रिके अन्तमें देखा, उसने अपने मनमें विचार किया। प्रभातके समय उसने महाआयुवाले अपने भाई ( सोमप्रभ ) से संक्षेपमें कहा।
__ घत्ता-यह सुनकर कुरुनाथ स्वप्नफलका कथन करता है-कोई विश्वमें उत्तम देव तुम्हारे घर आयेगा-॥३॥
चन्द्र, रवि, सुभट, सिंह, सरोवर, समुद्र और वृषभके गुणोंसे युक्त सचल मन्दराचलकी तरह अपनी गतिसे महागजका उपहास करता हुआ, नीली जटाओंके समूहसे व्याप्त, मेघमालाओंसे श्याम पर्वतकी तरह, ऐरावतकी सूंड़के समान बाहुवाला, लटकते हुए प्रारोहोंसे युक्त वटवृक्षके समान वह, तब दूसरे दिन नगरमें प्रविष्ट हुए। नर-नारियोंने निरंजन उन्हें देखा। दौड़ते हुए जनपदके सम्मर्दन और जय-जय शब्दसे कलकल होने लगा। कोई कहता है-यहाँ देखिए जहाँ मैं
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१८८
महापुराण
[९.४.८
को वि भणइ सामिय दय किजउ एक्कवार पञ्चुत्तर दिज। को वि भणइ मेरउ घरु आवहि भिचभत्ति पहु किं ण विहावहि । चंदु व रिक्खि रिक्खि वियरंतउ जइवइ गेहि गेहि पइसतउ । घरिणिहि घरेप्रंगणु संप्राइउ ताउ व भाउ व देउ पलोइउ । णिग्गयाउ मणि तोसु वहतिउ एम चवंति ताउ पणवंतिउ। मजणु मज्जणहरि संजोइउ पोत्ति तेल्लु आसणु वि पढोइउ । ण्हाहि णाह लइ तणुउवयरणउं चंगउ चेलिउ हेमाहरणउं । बइसहि पट्टि सुसरससमग्गउ भुंजहि भोयणु तुज्झु जि जोग्गउ । बोल्लावियउ ण किं पि वि भासहि मुर्वणुबंधु किं अप्पउ सोसहि । धत्ता-पुरि कलयलु णिसुणेवि ससिभासें अहियारिउ ॥
कंचणदंडविहत्थु पुच्छिउ णियदउवारिउ ॥४॥
हेला-ता पडिहारएण भाणियं भवावहारो।
जो लच्छीकडक्खविक्खेवे वि णिव्वियारो॥१॥ सिरेण णवेवि सुरायलि ठवियउ जो तियसेसरेण सई ण्हवियउ। जेण पयासियाई मइगम्मई बहुभेयई जणजीवणकम्मई। भरहहु तुम्हहुं मेइणि दिण्णी जेण णवल्लवित्ति पडिवण्णी । सो आयउ तेलोकपियामहु तं णिसुणिवि उद्दिउ सोमप्पहु । सहुँ सेयंसकुमार णिग्गउ
ताम पलंबपाणि णं दिग्गउ । संमुहुं एंतु णिहालिउ जिणवरु णं वसुहंगणाए पैसरिउ करु । णहसरि रवि सररुहहु कयग्गहु णं जगभवणखंभु भयमयमहु । सामि सणेहभरेण भरेप्पिणु कर मउलेवि पणामु करेप्पिणु । सोमप्पहेण पलद्धपसंसे
देवि पयाहिण तहु सेयंसे । मुहं जोइयउ णेत्तसयवत्तहिं हरिसंसुयओसाकणसित्तहिं । घत्ता-अइपसण्णमुहु होइ संभासणु पडिवजइ ॥
पुत्वभवंतरणेहु जगदिट्ठिए जाणिज्जइ ॥५॥
हेला–जिणमवलोइऊण कुंयेरेण लोयसारो।
सिरिमइवजजंघजम्मंतरावयारो ॥१॥ पंउद्धो असेसो
सवासो देसेसो। मुणीणं पहाणं
बराहारदाणं । ५. M घरपंगणु संपाइउ; B घरिणिघरपंगणु संपाइउ; P घर पंगणु संपाइउ । ६. MBP हरिसु ।
७. M सरसु सुसमुग्गउ; B सुरसु समुग्गउ । ८. M सुयणबंधु । ५. १. MBP भणियं । २. MBP विक्खेवणिव्वियारो। ३. MBP पसरियकरु । ४. MBP भयमयवहु ।
५. MB सणेह भरेण । ६. BP अइपसण्णु । ७. P जणदिढ़ें। ६. १. MBP कुमरेण । २. M has before this line सोमराई छंद; BPGK have सोमराई;
MBPK पबुद्धो। ३. MBP सदेसो।
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हिन्दी अनुवाद
१८९ अंजलि बांधे हुए खड़ा हूँ। कोई कहता है-स्वामी, दया कीजिए, एक बार प्रत्युत्तर दे दीजिए। कोई कहता है-मेरे घर आइए, हे स्वामी ! क्या भृत्यकी भक्ति अच्छी नहीं लगती। जिस प्रकार चन्द्रमा नक्षत्र-नक्षत्रमें विचरण करता है, विश्वपति भी घर-घर में प्रवेश करते हुए गृहिणीके गृहप्रांगणमें आते हैं, तब उसने तात या भाईके समान देवको देखा, मनमें सन्तोष धारण करते हुए वह बाहर आया। तातको प्रणाम करते हुए इस प्रकार कहता है-"स्नानघरमें स्नान करिए, धोती-तेल और आसन रख दिया गया है, हे स्वामी ! स्नान कीजिए और शरीरके उपकरण लीजिए सन्दर वस्त्र स्वर्णके आभरण। आसनपटपर बैठिए, और सरस सामग्रीसे यक्त भोजन कीजिए, यह तुम्हारे योग्य है, बुलवाये जानेपर भी, कुछ नहीं बोलते ? हे भुवनबन्धु, अपनेको क्यों सुखाते हैं ?
घत्ता-नगरमें कलकल सुनकर राजा सोमप्रभने स्वर्णदण्ड है हाथमें जिसके, ऐसे अपने द्वारपालसे पूछा ॥४॥
तब प्रतिहारने कहा, "भवका नाश करनेवाले जो लक्ष्मीके द्वारा कटाक्ष करनेपर भी निर्विकार रहते हैं, इन्द्रने सिरसे प्रणाम कर जिन्हें मेरुपर स्थापित किया और स्वयं अभिषेक किया है, जिन्होंने नाना प्रकारके बुद्धिगम्य लोकजीवन कर्म प्रकाशित किये, जिन्होंने तुम्हें और भरतको धरती दी, और स्वयं नयी वृत्ति ( मुनिवृत्ति ) स्वीकार की, ऐसे वह त्रिलोक पितामह आये हैं।" यह सुनकर सोमप्रभ उठा, और श्रेयांसकुमारके साथ निकला। तबतक हाथ आये हुए, मानो दिग्गज हो, सामने आते हुए जिनवरको देखा, मानो वसुधारूपी अंगनाने हाथ फैला दिया हो, मानो आकाशरूपी सरितामें कमलोंके लिए कृताग्रह सूर्य हो, मानो भव-भवका नाश करनेवाला विश्वरूपी भवनका खम्भा हो । स्वामीके स्नेहके भारसे भरकर हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया। लब्धप्रशंस सोमप्रभ और श्रेयांसने उनकी प्रदक्षिणा कर, हर्षाश्रुरूपी ओसकणोंसे सिक्त नेत्ररूपी कमलोंसे उन्हें देखा।
पत्ता-अत्यन्त प्रसन्न मुख होकर वह बात करना छोड़ देता है। उनको देखकर वह पूर्वभवके स्नेहको जान लेता है ।।५।।
जिन भगवान्को देखकर कुमार श्रेयांसने लोकश्रेष्ठ अशेष, स्ववासी दशेश श्रीमती और वज्रजंघके जन्मान्तरके अवतारको ज्ञात कर लिया। मुनियोंके लिए जो मुख्य अनन्त पुण्यको
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महापुराण भवे जं विइण्णं
कयाणंतपुण्णं। समाहूयसकं
मणे तं पिथकं । पुणो तेण उत्तं
अहो हो णिरुत्तं । हुयं मज्झ गाणं
पणायं पुराणं। असूई अराई
अमाई अणाई। अमाणो अमोहो
अकोहो अलोहो। अछेओ अभेओ
अणेओ वि णेओ। विमुकंधयारो
अणंगावहारो। पवित्तो महंतो
अणंतो रुहंतो। असंगो अभंगो
जहाजायलिंगो। वुहाणं विहाओ
सुहाणं उवाओ। अहाणं विणासो
महाणं णिवासो। अभावो असावो
इमो देवदेवो। कयत्थो विवत्थो
समत्थो पसत्थो। सया वंदणिजो
इमो पुज्जणिज्जो। परो मोक्खगामी इमो मज्झ सामी। सुराहिंदपूओ
इमो पत्तभूओ। घत्ता-जगगुरु गुरुयणपुज्जु मोणव्वइ दिव्वासउ ।।
एंहु आहारणिमित्तु भइ समग्गपयासउ ॥६॥
हेला-अंबरमणिपसंडिदाणाई देति लोया।
ताई इमे ण लेति परिमुक्ककामभोया ॥५॥ कण्ण लेइ जो कामें गत्थर भूमि लेइ जो लोहें घेत्थउ । मंचयसेज्जायलई सभवणई गेण्हइ जो माणइ रइरमणई। गाइ देहि देहि त्ति पघोसइ जो घएण अप्पाणउं पोसइ । वित्तु लेइ जो इंदिय पुज्जइ मंसु खाइ जो पुट्ठि समजइ । बंभइ तावस संवसणभग्गा
पावयम्म संसारहु लग्गा। दुद्धरजीहोवत्थहिं दंडिय
अप्पउ पेरु वि हणिवि पासंडिय । दुक्कियभरपरियड्डणरीणा
सूईमुहि णिवडंति अयाणा। जे लेता ते विड विड देता ]उ जाणहुँ के गुणहिं महंता। पत्थरणाव ण पत्थर तारइ अवस कुपत्तु भवण्णवि मारइ । ४. M अजाई अमाई and adds : अणाई; B reads अजाई अमाई। ५. P वि एओ and gloss एकः । ६. M अताओ अभाओ and adds : अराओ असोओ; P अताओ अभाओ अराओ असाओ।
७. M सया । ८. MBP पडु । ९. B भणइ । ७. १. MBP घत्थउ । २. MB गुत्थउ; P गत्थउ । ३. P पेय खाइ । ४. MBP अवसण । ५. MBP
परु हणेवि । ६. परियट्टण; P°परिवड्ढणं but gloss परिकर्षण । ७. B णं जाणहु । ८. MBP कि ।
१०
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९.७.११] हिन्दी अनुवाद
१९१ करनेवाला उत्तम आहारदान दिया था और जिसमें इन्द्र आया था, उसके मनमें यह बात स्थित हो गयी। उसने फिर कहा, "अहो, निश्चय ही मुझे ज्ञान हो गया है और मैंने प्राचीन वृत्तान्त जान लिया है। अजन्मा, अरागी, अप्रमेय, अमादी, अमानी, अमोही, अक्रोधी, अलोभी, अच्छेद्य, अभेद्य, अनेक होकर भी एक, अन्धकारसे विमुक्त, कामदेवके विध्वंसक, पवित्र, महान्, अनन्त, अरहन्त, असंग, अभंग, दिगम्बर, बुधोंके विधाता, सुखोंके साधन, पापोंके नाशक, तेजोंके निवास, क्रोधादि भावोंसे शून्य, पीड़ाहीन, यह देवदेव हैं । कृतार्थ, विवस्त्र, समथं और प्रशस्त सदा वन्दनीय यह पूज्यनीय हैं । श्रेष्ठ मोक्षगामी यह मेरे स्वामी हैं। देवेन्द्र और अहीन्दके द्वारा पूज्य यह पात्रभूत (योग्य पात्र ) हैं।
पत्ता-विश्वगुरु, गुरुजनोंके पूज्य, मौनव्रती, दिशारूपी वस्त्र धारण करनेवाले, यतिमार्गको प्रकाशित करनेवाले यह आहारके निमित्त घूम रहे हैं ।।६।।
लोग उन्हें वस्त्र, मणि और स्वर्णका दान देते हैं, परन्तु कामभोगोंसे मुक्त ये उन्हें नहीं लेते ॥१॥ जो कामसे ग्रस्त है वह कन्या लेता है, भूमि वह लेता है कि जो लोभसे ग्रस्त है, भवन सहित खाट और शय्यातल वह ग्रहण करता है जो रतिक्रीडाको मानता है। गाय दो-दो, ऐसा वह कहता है, जो घोसे अपनेको पोषित करता है । धन वह लेता है, जो इन्द्रियोंकी पूजा करता है। मांस वह खाता है जो अपनी चर्बी बढ़ाना चाहता है। ब्राह्मण और तपस्वी अपने व्यसनोंसे ही नष्ट हो गये और पापकर्मा वे संसारमें फंस गये । दुधर जीभ और उपस्थसे पाखण्डी स्वयंको और दूसरोंको नष्ट कर दण्डित हुए। पापोंके भारको वृद्धिसे क्षीण अज्ञानी जन्ममुख ( संसार ) में पड़ते हैं। जो लेते हैं वे विट और जो देते हैं वे विट । हम नहीं जानते, वे किन गुणोंसे महान् हैं। पत्थरकी नाव पत्थरको नहीं तार सकती, अवश्य ही कुपात्र संसारसमुद्रमें मारेगा।
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१५
२०
५
१०
१५
१९२
जासु अबंभारंभं परिग्गहु धम्माभासु पाउ जो भावइ कत्थई मिच्छामग्गि पइट्ठउ सीले समत्तेण वि उज्झिउ सद्दहाणु णव पंचहुं सत्तहुँ ईसीसि विवउ जेण ण पालिउ मज्झिमु देसच रित्तालंकिउ "दूरुद्घयसप्पकंद पहिं भूसिड संचियसासय सोक्खहिं
१२
उत्तमुपत्तु एड पणविज्जइ
१४.
घत्ता
महापुराण
सरइ कयाविण इंदियणिग्गहु | to वि अण्णायि कारावइ । कुच्छियपत्त रिसीसहिं सिट्ठउ" । हवइ अवत्तु सई जि मई बुज्झिउ । करइ पयाहुं जिणेसपवृत्तहुँ । तं जघण्णु मं पत्तु णिहालिउ । सम्मसणि कहिं मिण संकिउ । णाणचरियसम्मत्तवियप्पहिं । सीलगुणचिउरासी लक्खहिं । पासुयभो दिज्जइ ।
१५
'कुच्छियवत्ति कुभोड दिष्णु अवत्तइ णासइ || "तहिं पत्तहिं फलु तिविहु इय सुंदरु आहासइ ||७||
८
हेला - मज्झिमु मज्झिमेण अहमो अहमेण णेओ । उत्तम उत्तमेण दाणेण होइ भोओ ॥ १ ॥
णिल्लोहत्तें चाएं भत्तिइ एहिं गुणेहिं तु दायारउ मउलियकरयलु अइअवमत्तउ गुणवंत परलोयासत्तउ ठा भणिविपणवियसिरु भासइ करइ चाडु संतहुं घण्णउं जणु मणवयत सुद्धिइ सुद्धासणु भेसहु सत्थु अभदाणे सहुं बहिरंधलयहं मूयहं लल्लह सव्वभूयहियकारणे गणे परमारा पाविट्ठ मुएप्पिणु देइ ण जो घरत्थु सो केहउ यिडिंभउं णियपोट्टु जि पोसइ
घत्ता - माणसु जं णिद्धम्मउ" तहिं उप्पेक्ख रइज्जइ ॥
१२
दुथियम्मि अणुकंप गुणवंत
पणविज्जइ ||८||
खंमविण्णार्णे सुद्धइ भत्तिइँ । मज्झइ अलोयइ दारउ । अच्छइ तिविहपत्तगय चित्तउ । सो पडिगाहइ गणपत्तउ । उच्चठाणि गउरविइ णिवेसइ । चरणधुवणु अञ्चणु पुणु पणमणु । देइ भरंतु जिदिहु सासणु । देइ सजीव चलु भण्णिवि लहु । काकुं मंहं वाल्लिहं । असणु वसणु दीण कारुण्णें । freeoवाणुसार सुयेरेप्पिणु । घरयारउ चिडउल्लउ जेहउ । मुवण जाणहुं कहिं जाएसइ ।
९. MB रंभु परिग्गहु | १०. MP दिउ । ११. MBP जहष्णु । १२. MBP दूरुज्झिय । १३. MB फासूय । १४. MB कुच्छियपत्ति । १५. MBP तिहि ।
८. १. M णओ; BP णाओ । २. MBP खमविण्णाणइ सद्धइ भत्तिइ । ३. MBP add after this
[ ९.७.१२
.
सीलवंतु जिणपेसणयारउ सारासारसख्ववियारउ । ४. MBP अवलोयइ दारउ । ५. T अपमत्तउ । ६. MP पंगणु पत्तउ; B पंगणे पत्तउ | ७. MBP ठाहु । ८. MBP कारणगण्णे । ९. MB सुमप्पणु । १०. MBP णिर्याडभई । ११. MBP गिद्धम्मु । १२. MBPK दुत्थियम्मि ।
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९.८.१७]
हिन्दी अनुवाद जिसके अब्रह्मचर्य, आरम्भ और परिग्रह है और जिससे कभी इन्द्रिय निग्रह नहीं सटता, धर्मका आभास देनेवाला पाप जिसे अच्छा लगता है, और भी दूसरे अज्ञानियोंसे कराता है, किसी मिथ्यामार्गमें प्रविष्ट हुए उसे ऋषीश्वरोंने कुत्सित पात्र कहा है। शील और सम्यक्त्वसे रहित अपात्र होता है, यह बात मैंने स्वयं देख ली है। नौ, पांच और सात तत्त्वोंका श्रद्धान करता हुआ, जिनेश्वरके द्वारा उक्त पदार्थों में विश्वास करता है, परन्तु जिसने थोड़ेसे भी थोड़े व्रतका पालन नहीं किया मैंने उसे जघन्य पात्रके रूपमें देखा है। मध्यम पात्र एकदेश चारित्रसे शोभित होता है, और सम्यक् दर्शनमें कहीं भी शंका नहीं करता, जो दर्प सहित कामदेवको उखाड़नेवाले ज्ञान-दर्शन और चारित्र्यके विकल्पों, शाश्वत सुखका संचय करनेवाले चौरासी लाख शीलगुणोंसे भूषित हैं ऐसे इन उत्तम पात्रको प्रणाम करना चाहिए, इसके लिए प्राशुक भोजन देना चाहिए।
पत्ता-कुपात्र को दिया गया दान कुभोग देता है। और अपात्रमें दिया गया दान नष्ट हो जाता है, परन्तु पात्रको दान देनेसे तीन प्रकारका फल होता है, यह सुन्दर कहा जाता है ।।७।।
मध्यमसे मध्यम, अधमसे अधम फल जानना चाहिए। उत्तम दानसे उत्तम भोग होता है। निर्लोभता, त्याग और भक्ति, क्षमा, विज्ञान और शुद्ध भक्ति इन गुणोंसे युक्त दाता ( श्रेयांस ) मध्याह्न (दुपहर) में द्वार देखता है। हाथ जोड़े हुए, अत्यन्त अप्रमादी, तीन प्रकारके पात्रोंको चित्तमें सोचते हुए, गुणवान्, परलोकासक्त वह वहां स्थित है, और आंगनमें आये हुए उन्हें पड़गाहता है, 'ठहरिए' यह कहकर प्रणत शिर वह बोलता है, और गौरवपूर्ण उच्च स्थानमें उन्हें ठहराता है, वह स्तुति करता है, “सन्तोंसे लोक धन्य है।" चरण धोना, अर्चा और फिर प्रणमन करता है । मन-वचन और कायकी शुद्धिसे शुद्धासन देता है। जिनेन्द्रके शासनकी याद करता हुआ अभयदानके साथ औषधि और शास्त्र देता है, अपने जीवनको चल और लघु मानकर । बहिरों, अन्धों, गूगों, अस्पष्ट बोलनेवालों, काने, बेकार, उद्यमहीनों और व्याधिग्रस्त दीनोंके लिए, गणनीय उसने सर्वप्राणियोंके हितके कारणभूत कारुण्यसे भोजन और वस्त्र दिये। परहिंसक और पापिष्ठोंको छोड़कर जो गृहस्थ अपने धनके अनुसार सोच-विचारकर दान नहीं करता, वह घर बनानेवाली उस गौरैयाके समान है जो अपने बच्चे और अपना पेट पालती है और यह नहीं जानती ' कि मरकर कहाँ जायेगी।
घत्ता-जो मनुष्य धर्महीन है वहाँ उपेक्षा करनी चाहिए, जो दुस्थित हैं, उनमें अनुकम्पा करनी चाहिए और गुणवानोंको प्रणाम करना चाहिए ॥८॥
२५
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१०
५
१०
१९४
महापुराण
९
हेला- - इय कहिऊण तेण जुवराइणा समग्गं । दाययदेजपत्तववहारसारमग्गं ॥१॥
सुइधोयदेवंगणिवस णणियत्थेण परिदिष्णधाराजलुद्धू अतावेण भवेभरणसंभरियमुणिदाणयम्मेण पियजंपणालोयणुब्भूयणेहेण इसिहि सूइसं भिण्णसोत्तेण कुरुजंगलावणिव इलहुयभाएण आओ गुरू सो ज्जि णंतेण सीसेण तारइ हियम्मिरइकुमुइणीजूरु असणेण तणु ताइ णिव्वहइ तवयरणु मलहरणि संभवइ केवलु महाणाणु पत्ता - इयचितिविसो थक्कु पत्तु तवेण विसुद्धउ | चिरु सेयंसवसेण सेयंस पर लद्धउ ||९||
·
१०
हेला - एवं कस्स ठाइ भवणम्मि भुअणणाहो । केण भवंतरम्मि चिण्णो तवो अमोहो ॥ १ ॥ वकलहोय कुंभगभाणिउं जसससियरधवलिय कुरुवंसें बंदिउ पायतोउ सुहगार उ इंदचंदणादपियारउ कुसधारहिं उच्छलियतुसारहिं' फुल्लहिं फुलुदूधुयशंकारहिं adravaहिं धूवंगारहिं अंब हलहिं जंबुजंबीरहिं रणिय वम्महणियल पुणु पणिवा करेपिणु भावें
- जलभरियदलपि हियभिंगारहत्थेण । सद्धम्मसेद्धावसुप्पण्णभावेण । वरचरमदेहेण विच्छिण्णजम्मेण । धरणीसतोसेण गुणरयणगेहेण । चंदक्कचारित्तचेंचइयगत्तेण । ममहुरणारण सेयंसराएण | ठाभणिउ जिणु णमिउ पणवंत सीसेण । तूसविय जगणलिणु हयमलिणु रिसिसूरु । तवयरणतावेण खंतीइ मलहरणु । विरमु सुहुँ परमु जइ जाइ णिव्वाणु ।
कुरुणा पल्हत्थि पाणिउं । पेय पक्खालि सिरिसेयंसें । जम्मजरामरणाव इहारउ । उच्चासणि संणिहिउ भडारउ । चंपयसिंदूर हिं मंदारहिं । अक्खयाहिं बहुगंधपयारहिं । करमरमाहुलिंगमालूरहिं । पहिं पूयष्फलकप्पूर हिं । पुज्जिर परमेट्ठिीहि पयजुयलउ । जो छेडिउ णं वम्महचावें ।
[ ९.९.१
९.
१. BP “सब्भावसुपसण्णं । २. MBP भवदिण्णं । ३. P दाणधम्मेण । ४. MBP सुई । ५. MB ॰गोत्तेण but gloss in M भूषितं गात्रम् । ६. MBP वणिवणिव । ७. M सुपरमु । १०. १. P पाय । २. M reads after this line : चंदणकुंकुमेहि घणसारहि, पयसंमलियई तेहि
कुमारहि; B also reads चंदणकुंकुमेहिं घणसारहिं, पयसमलियई तेहि कुमारहि; P reads चंदणकुंकुमेण घणसारहिं, चंपयसिंदूरहि मंदारहिं; फुल्लहि फुल्लंघुवशंकारहि, पय समलहियई तेहिं कुमारहिं । ३. MBT फुल्लंघुयं ; P फुल्लंघुव । ४. MBP अक्ख एहिं । ५. P चरुवहिं दीवयं । ६. MB छंडिउ वम्महु; B खंडिउ ण वम्म ।
णं
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९.१०.१२]
हिन्दी अनुवाद
१९५
इस प्रकार उस युवराजने दानकर्ता, दातव्य पात्र और व्यवहारका सारमार्ग समग्ररूपमें कहकर पवित्र धोये हुए दिव्य वस्त्र पहनकर जलसे भरा, पत्तोंसे ढका, भुंगार हाथमें लेकर, दी गयी जलधारासे तापको दूर कर, जिसे सद्धर्म और श्रद्धाके वशसे भाव उत्पन्न हो रहे हैं, पूर्वजन्मके स्मरणसे जिसे पूर्वजन्मका मुनिदानकर्म याद आ गया है, जो श्रेष्ठ चरम शरीरी है, जिसने जन्मका उच्छेद कर दिया है, प्रिय कहने और देखनेसे जिसे स्नेह उत्पन्न हो गया है, जो धरतीको सन्तोष देनेवाला गुणरूपी रत्नोंका घर है, जिसके कान, ऋषिके द्वारा कथित शास्त्रोंकी सूचीसे छेदे गये हैं, जो चन्द्राकं चारित्र्यसे शोभित शरीर हैं, ऐसे कुरुजांगल राजाके अनुज मधुर और कोमल न्यायवाले, श्रेयांस राजाने आये हुए उन गुरुको मस्तक झुकाकर 'ठा' (ठहरिए ) कहा। रतिरूपी कुमुदिनीको सन्तापदायक विश्वकमलको खिलानेवाले हतमलिन वह ऋषिरूपी सूर्य अपने मन में सोचते हैं कि आहारसे शरीर है, उससे तपश्चरणका निर्वाह होता है, तपश्चरणसे ताप और क्षमासे पापका नाश होता है। पाप नष्ट होनेपर महाज्ञान केवलज्ञान उत्पन्न होता है, और उससे अविनश्वर परम सुख होता है और मुनि निर्वाण-लाभ प्राप्त करता है।
पत्ता-इस प्रकार विचारकर तपसे विशुद्ध पात्र वे वहाँ ठहर जाते हैं। और पुण्य विशेषके वशसे श्रेयांस उन्हें पा लेता है ॥९॥
इस प्रकार भुवननाथ किसके भवनमें ठहरते हैं, जन्मान्तरके अमोघ तपको किसने पहचाना। कुरुनाथने नवस्वर्णके घटके भीतरसे लाया गया पानी छिड़का। यश और चन्द्रकिरणोंके समान धवलित कुरुवंशके श्री श्रेयांसने पैरोंका प्रक्षालन किया और जन्म, जरा तथा मृत्युकी आपत्तिका हरण करनेवाले शुभकारक चरणजलकी वन्दना की। इन्द्र, चन्द्र और नागेन्द्रोंके लिए प्रिय आदरणीय ऋषभको ऊँचे आसनपर बैठाया गया। उछलते हुए हिमकणोंवाली जलधाराओं, भ्रमरोंको गुंजारसे युक्त सिन्दूरों और मन्दारपुष्पों, नाना गन्धवाले अक्षतों, दीपक चरुओं, धूपांगारों, करमर माडलिंगों और मालूरों, आम्रफलों, जम्बूजंबीरों, पत्रों, पूगफलों और कपूरोंसे, नूपुरके समान कामदेवकी शृंखलासे च्युत, परमेष्ठीके चरणकमलकी पूजा की। फिर भावपूर्वक प्रणाम कर
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१५
१०
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१९६
जइवरतवसंद रिसियभंगें सो उच्छुरसु णिवारियदोसहु जुवराएं घडेण करि ढोइउ घत्ता- -देहालइ मणकुंडे रसु पिज्जंतर भणियउ || मयणसरासणसारु झाणजलणि णं हुणियउ ॥१०॥
पंचवण्णमाणिक्कविसिट्ठी
णं दीसइ ससिरविविंब च्छिहि मोहबद्धणव पेम्महिरी विव रयणसमुज्जलवरगयपंति व सेयंसहु धणएण णिउंजि पूरियसं वच्छरउवसें तहु दिवस अत्थेण समायउ घरु जायवि भरहें अहिदिउ पईं मुवि को गुरु संमाणइ पईं मुवि को चिंतहुं सक्कइ पईं मुवि दिसिपस रियज सँयरु जय सेयंसदेव पभणंतहिं
महापुराण
1
११
हेला - ता दुंदुहिरवेण भरियं दिसावसाणं । भेणियं सुरवरेहिं भो साहु साहु दाणं ||१|| धेरप्रंगणि वसुहार रिट्ठी । कंठभट्ट कंठिय हलच्छिहि । सग्गसरोयहु णालसिरी विव । दाणमहातरुहल संपत्ति व । एक्कहिं उडुमाला इव पुंजिय । अक्खयदाणु भणिउं परमेसें । अक्खयतइय णाडं संजायत । पदातित्थंकरु वंदिउ । पत्तविसेसदाणविहि जाणइ । परमप्पट कहु मंदिर थक्कइ । अण्णु कवणु कुरुकुलणहदिणयरु । संधु सुरणरवरसामंतहिं ।
·
जो णं सम्महुं णिउ सुतबहुयासहु । वारवार जिणणाहें जोइउ ।
हि हिउ अणंगें ।
घत्ता - महियलि धम्मरहासु एयई तोसियसक्कई ॥ जिणसेयंसकयाई वर्यदाणई वरचक्कइं ॥११॥
१२
हेला - धम्ममहारहो विलंबियदयावडाओ ।
एहिं विहिं मि वह हियंगारिराओ || १॥ एम भणेपिणु गड भरहेसरु एतहि महि विहरंतु जिणेसरु । तिहिं णाणिहिं सुद्धे परिणामें अचलचित्तु मणपज्जवणामें । अड्डाइज्जहिं दीवहिं जं जं चिंत जाण तं तं ।
[९. १०. १३
७. MB संमुहु; P संमुहु । ८. P झाणजले but gloss ध्यानाग्नौ । ११. १. M भाणियं । २. MBP घरपंगणि । ३. MBPT मोहणिद्ध ।
४. M adds after this line :--अहियं पक्ख तिण्ण सविसेसें । किंचूणे दिन कहिय जिणेसें । भोयणवित्ती लहीय तमणासें । दाणतित्थु घोसिउ देवीसें । ५. MBP पढ । ६. MBP पत्तविसेसु । ७. MB जयसरु । ८. MBP तवदाणइं । १२. १. M माणस; BP माणुसु ।
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हिन्दी अनुवाद यतिवरोंके तपमें भंगका प्रदर्शन करनेवाले कामदेवके धनुषके द्वारा जो पुनः छोड़ा गया, और जो फिरसे कामदेवके द्वारा धनुषपर नहीं धारण किया गया ऐसा वह इक्षुरस, मानो दोषोंका निवारण करनेवाली तपरूपी आगमें उपशम भावको प्राप्त हुआ। युवराजके द्वारा हाथपर ढोया गया और जिननाथके द्वारा बार-बार देखा गया।
धत्ता-देहरूपी घरके मनरूपी कुण्डमें पिये गये रसके बारे में यह कहा गया कि कामदेवके धनुषका सार ध्यानको आगमें होम दिया गया ॥१०॥
तब नगाड़ोंके शब्दोंसे दिशाओंके अन्त भर उठे। देवश्रेष्ठोंने कहा, "भो! बहुत अच्छा दान"। पांच प्रकारके रत्नोंसे विशिष्ट धनको धारा उसके घरके आंगनमें बरसी, जो मानो शशि
और सूर्यके बिम्बोंकी आंखोंवाली नभरूपी लक्ष्मीके कण्ठसे गिरी हुई कण्ठी हो, मोहसे आबद्ध नवप्रेमकी लज्जाके समान, स्वर्गरूपी कमलकी मालश्रीके समान, रत्नोंसे समुज्ज्वल उत्तम गजपंक्तिके समान, दानरूपी महावृक्षको फल सम्पत्तिके समान, श्रेयांसके लिए कुबेरके द्वारा दी गयी (पिरोयी गयो ) जो नक्षत्रमालाके समान एक जगह पुंजीभूत हो गयी हो। एक सालका उपवास पूरा करनेवाले परमेश्वरने उसे अक्षयदान कहा। उस दिनसे अक्षय तृतीया नाम सार्थक हो गया। घर जाकर भरतने श्रेयांसका अभिनन्दन किया, और उस प्रथमदान तीर्थंकरकी वन्दना की और कहा, "तुम्हें छोड़कर और कोन गुरुका सम्मान कर सकता है; तथा पात्र विशेषकी दानविधि जान सकता है। तुम्हें छोड़कर कौन सोच सकता है; किसके घरमें परमात्मा ठहर सकते हैं। दिशाओंमें अपने यशका प्रसार करनेवाले तुम्हें छोड़कर और दूसरा कौन कुरुकुलरूपी आकाशका सूर्य हो सकता है? हे श्रेयांसदेव, जय यह कहते हए सुरवर और नरवर सामन्तोंने उनकी संस्तुति की।
घता-धरतीतलपर धर्मरूपी रथके ऋषभ जिंन और श्रेयांसके द्वारा बनाये गये व्रत और दानरूपी ये सुन्दर चक्र, देवेन्द्रको भी सन्तोष देनेवाले हैं ॥११।।
१२ "लगी हुई हैं दयारूपी पताकाएं जिसमें, ऐसा कामदेवरूपी राजाका नाश करनेवाला धर्मरूपी महारथ इन दोनोंके द्वारा (व्रत और दान ) से चलता है।" यह कहकर भरतेश्वर चला गया। यहां जिनेश्वर धरतीपर विहार करने लगे। तीन ज्ञानों, शुद्ध परिणाम और मनःपर्यय ज्ञानसे अचल चित्त वह इस ढाई द्वीपमें मनुष्य जो-जो सोचता है, उसे जानते हैं।
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१९८
महापुराण उज्जयवंकहिययमुणियत्थउ देउ पराइउ णाणु चउत्थउ। पंचवीसवयमायउ भावइ । तिहिं गुत्तिहिं अप्पाणउं गोवइ । इरियादाणु किं पि णिक्खेवणु करइ कहिं मि कयसुकयालोयणु । रोसु लोहु भउ हासु पणासइ संग विवजइ सुत्तु जि भासइ । मिउ जोग्गउ अणुणायउ गेण्हइ भत्ति पाणि संतोसु जि मण्णइ । णारीकहदंसणसंसग्गहु
करइ णिवित्ति पु-वरइरंगहु । भुंजइ कहिं मि सुणिवियडिल्लउ बंभचेरु थिरु धरइ गुणिल्लउ । घत्ता-इंदियखलहं मिलंतु परमजोइ मेलावइ ।
खुभंतउ मणडिंभु रिसि णाणे खेलावइ ।।१२।।
१३
हेला हो हे चित्तडिंभ मा रमसु णारिरूवे ।
रेभिऊणं दड त्ति पडिहीसि मोहकूवे ॥१॥ जीयोजीयवत्थुभेयालइ
करणपोसणत्थि विरसालइ। संजमबायवुड्डजमैसिहि सिहु णिद्धंधंसु णित्तामसु णिप्पिहु । दिहिखमझाणजोयकयसंगहु वीसदुसंखपरीसहभरसहु । दसण णाण चरिय तव वीरिय आयार वि जे पंच समीरिय । तेहिं भडारउ अणुदिणु वड्ढइ हिययेहु तिणि वि सल्लई कड्डइ । अणसण वुत्तिसंख ओमोयरु रसपरिचाउ कालजोयायरु । इय वाहिरतवू चरइ सुदारुणु
अंतरंगसुद्धिहि सो कारणु । वेजावच्चि विणइ सज्झायइ तणुविसग्गि पच्छित्तणिओयइ । अब्भंतरतवि अप्पउ जोयेइ धम्मझाणु चउविहु णिज्झायइ । आणाविचउ णामणिग्गंथउ पुणु अवायविचयं पि महत्थउ । अवरु विवायविचउ वित्थारइ थिरु संठाणविचउ अवहारइ । घत्ता-इय विहरंतु धरग्गि सिद्धिवरंगणरत्तउ ॥
वरिससहासें णाहु पुरिमतालु संपत्तउ ।।१५।।
हेला-ता दिलु लवंगलवलीलयाहरालं ।
अलियालं पियालमालूरसायसालं ॥१॥ वणु विडंगणेवेत्थहिं छइयउ पियमाणुसु व सरस कंटइयउ । णिच्चोसोयउ कंचणवंतउ
बंधुपुत्तजीवेहिं महंतउ । २. MBP संगु । ३. B मेल्लावइ । ४. BP खेल्लावइ । १३. १. MBB भमिऊणं । २. MBP जीवाजीव । ३. MBP "जमसिहिं सहु। ४. P णिद्धंधस्सु; T
णिद्धधंसु and gloss निष्परिग्रहः । ५. P हिययहि । ६. P अणसणु । ७. MBP वित्तिसंख ओमोयरु ।
८. MP तव । ९. MBP जोवइ । १०. B अवायविरयं । १४. १. B तो । २. M विडंगणे कथहिं; B विणंगणेवच्छहि । ३. MBP माणुसु । ४. P सरसु । ५. MB
णिच्चासोयं ।
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९. १४.५] हिन्दी अनुवाद
१९९ ऋजु और वक्र हृदयके द्वारा विचारित अर्थको जाननेवाला चौथा ज्ञान स्वामीको प्राप्त हो गया। वे पचीस व्रतोंकी भावना करते हैं, तीन गुप्तियोंसे अपनी रक्षा करते हैं, वे ईर्यादान करते हैं और कुछ निक्षेपण करते हैं और कृत-सुकृतकी आलोचना करते हैं। रोष, लोभ, भय और हासका नाश करते हैं, संगका त्याग करते हैं, सूत्रोंकी व्याख्या करते हैं, मित योग्य और अनुज्ञात भोजन हाथमें ग्रहण करते हैं, और सन्तोष मानते हैं। नारियोंकी कथा दर्शन और संसर्ग तथा पूर्वरतिके रंगसे निवृत्ति करते हैं, कहीं भी अत्यन्त निर्विकार आहार ग्रहण करते हैं, और गुणोंसे युक्त ब्रह्मचर्य धारण करते हैं।
___घत्ता-इन्द्रियरूपी खलोंको मिलनेपर परमयोगी उन्हें ध्यानमें मिलाते हैं, और क्षुब्ध होते हुए मनरूपी बालकको ज्ञानसे खिलाते हैं ॥१२॥
१३
हे चित्तरूपी बालक, तू नारीरूपमें रमण मत कर। रमण करके तू शीघ्र ही मोहकपमें पड़ेगा कि जो ( मोहरूप या नारीरूप ) जड़ और चेतन वस्तुओंके भेदके आश्रयरूप, इन्द्रियोंका पोषण करनेवाला तथा विरसताका घर है। जिनके व्रतोंकी अग्नि, संयमकी वायुसे वृद्धिको प्राप्त हुई है, जो परिषहोंसे रहित हैं, तामस भावसे दूर हैं, और स्पृहासे शून्य हैं, जिन्होंने दर्शन, ज्ञान, चरित्र और तपको पुष्ट किया है और जो पांच प्रकारके आचार हैं, उन्हें प्रेरित किया है। इन आचारोंसे आदरणीय जिन प्रतिदिन बढ़ते हैं और हृदयसे तीन प्रकारकी शल्योंको दूर करते हैं; अनशन, वृत्तिसंख्या, अवमौदर्य, रसपरित्याग, त्रिकालयोगका आदर इस प्रकार वह बारह प्रकारके कठोर तपका आचरण करते हैं, जो अन्तरंग चित्तशुद्धिका कारण है। वैयावृत्त्य, विनय, सद्ध्यान, कायोत्सर्ग और प्रायश्चित-नियोजन इस प्रकार आभ्यन्तर तपमें आत्माको युक्त करते हैं। चार प्रकार धर्मध्यान करते हैं,। शब्दोच्चरणसे रहित, आज्ञाविचय (द्वादशांग आगमोंका हृदयमें चिन्तन ) और फिर महार्थक अपायविचय (मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्रादिसे जीवकी रक्षाका उपाय हो, इस प्रकारका चिन्तन ); और भी वह विपाकविचयका विस्तार करते हैं। (कमविपाकका चिन्तन करना) और वह लोक संस्थान ( लोककी संस्थितिका चिन्तन ) की अवधारणा करते हैं।
घत्ता-इस प्रकार सिद्धिरूपी वरांगनामें अनुरक्त प्रभु धरतीके अग्रभागपर विहार करते हुए एक हजार वर्षमें पुरिमतालपुर पहुंचे ॥१३॥
उन्होंने लवंग-लवली लतागृहों और भ्रमरोंसे युक्त प्रियाल, मालूर, साय और सालवृक्षोंसे युक्त वन देखा, जो प्रिय मानुषकी तरह, विडंगने पथ्यों (विडंग वृक्षोंरूपी आभरणोंसे; विटों (कामुकों) के अंगोंके आभरणों) से आच्छादित था, जो नित्य अशोक और कांचन वृक्षोंसे ( प्रिय मानुष पक्षमें, शोक रहित और कंचनसे युक्त) था, जो बन्धु-पुत्रोंके जीवनसे (वन पक्षमें वृक्ष विशेष)
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२००
महापुराण
रेहइ कुलु व समुण्णैइपत्तर सुरभवणु व रंभाइ पसाहिउ सुइवयणु व चंगर णिञ्चष्फलु यणु व अंजणेण सोहिल्लउ रर्मणिणिडालु व तिलयालंकि उ ता तूरु व सज्जें गेउ व णाय वेल्लिरुद्ध पायालु व अवसदु व केईवंदें लुक्क मह
•91
व महुलित्तउ धत्ता - कुसुमामोर्यामसेण जं संमुहउं " पवच्चेई ॥ पक्खिसरेहिं पहुहि श्रोतु णं सुच्चइ ||१४||
रक्खसपुरु व पलास णिउत्तर । उज्झाउ व सुसत्थहिं सोहिउ । संगा व वणवियसियउप्पलु । थणजुयलु व चंदणिण पियल्लउ । बहुबाहु व करवंदहिं संकिउ । मंद्दे सोहइ णिवइणिकेउ व । रत्तयंददाविरउ वियालु व । असि व सुणीरें णेय विमुक्कउ । सरयणभमियभुयंगहिं भुत्तउ ।
१५
हेला - तहिं णंदणवणम्मि णग्गोहरुक्खमूले | आसीणो सिलायले णिम्मले विसाले ॥१॥
णवकणियारकुसुमरयवण्णउ त्थ सोक्खु संसार विसिट्ठ अण्णा चंगउ कामु दे णु णत्तणु तं सिवसारु किंपि भाविज्जइ सोवेगा वीरिउ सुहुमत्तणु अरुयल हुयउ अव्वावाहउ एम सामि संभावियमग्गड तहिं दद्दपयडिहि मुक्कउ जावहिं लग्गड सुक्कझाणि पहिलारइ इसिणा संठिएण सविहत्तउ सुहुमसंपरायड पावेष्पिणु पुणु जी उवसंतकसायउ खीणकसायचेरि पडिवण्णउं तं सत्रियक्क एक "सवियारउ घत्ता -- इय तेसट्ठिपईहिं पहयहिं णाणसरूवउ ॥ परमप्पयहु सहाउ अमणु अर्णिदिउ हूवउ || १५ ||
सुयरइ पहु पलियंकणिसण्णउ । सोक्खायारु दुक्खु मई दिट्ठउ । आहरणे भारिज्जइ अंगड । गेयमिसेण रुयइ मूढउ जणु । जेण ण जीउ गब्भि उप्पज्जइ । सहुं समतें णाणु सदंसणु । झा वसुविहु सिद्धगुणोहउ | अप्पमत्ति गुणठाणि व लग्गउ । खणि अव्वु आरूढउ तावहिं । भेयवंति ससुए सवियारइ । अणि छत्तीस जि जित्तउ । तेण जि झाणें लोहु हणेपिणु । कययहलेण जलु व मुणिरायउ | वीrs सुकझाणु अव इण्णउं । सोलहपयइरयक्खयगारउ ।
६. P समुण्णयं । ७. MBP सुयसत्थें । ८. MP रमणिणिलाडु । ९. P मंडें । १०. MBP कइवंदह ।
O
११ MBP मुह इव । १२. M समुहउ । १३. B परच्चइ ।
१५. १. MP सुमरइ । २. M णट्टु व जिणं । B णट्टु अजिणं । ३. MBP घट्टणं । ४. MBP रुवइ । ५. P सोवग्गहु । ६. MBP अगुरुगं । ७. MP अण्णियट्टिहि । ८. P छंडिवि । ९. MBP चडिउ । १०. MBP अवियारउ ।
[ ९.१४.५
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९. १५. १९ ]
हिन्दी अनुवाद
२०१
महान था । जो कुलके समान समुन्नतिको प्राप्त होकर शोभित था । वह निशाचर-नगरकी तरह पलास से युक्त ( पलाश वृक्षोंसे युक्त, मांसभोजनसे युक्त ) था । जो सुर भवनके समान रम्भादि ( अप्सराओं, वृक्षों ) से प्रसाधित था। अयोध्या के समान सुयसत्थों ( शुकसमूहों, छात्र समूहों ) से सहित था । जो श्रुतिवचनके समान (नित्य फलवाला और सुन्दर) था, संग्रामकी तरह वन वियसियउप्पलु ( जलमें विकसित कमलवाला; व्रणोंसे ऊपर उछलते हुए मांसवाला ) था, नयनके समान जो अंजन ( आँजन वृक्ष विशेष ) से शोभित था, जो स्तनयुगलके समान चन्दन ( वृक्ष विशेष और चन्दन ) से प्रिय था, रमणीके ललाटकी तरह तिलक ( वृक्ष विशेष और तिलक ) से अंकित था, जो सहस्रबाहु की तरह करवृन्दों ( करों तथा करौंदी वृक्षों) से व्याप्त था जो तूयंके समान ताल ( वृक्ष और ताल ) से, और सज्ज ( सर्जं वृक्ष विशेष एवं षड्ज स्वर ) से गीतके समान, और मद्द ( वृक्ष और जबर्दस्तीका युद्ध ) से नृपतिके भवनके समान शोभित था, जो नागबेल्लि ( नागों की पंक्तियों और लता विशेषों) से पातालकी तरह; तथा सन्ध्याकी तरह रत्तयन्द दाविरउ ( लाल चन्द्रमा दिखानेवाला, रक्तचन्दन दिखानेवाला ) था । जिसे अपशब्दके समान कविवृन्दों ( कवि समूह, वानर समूह ) ने छिपा रखा था। जी तलवारके समान ( सुनीरसे मुक्त ) नहीं था । महीरूपी भामिनीके मुखके समान जो मधुसे लिप्त था, और रत्नोंसे सहित भुजंगों ( सांपों एवं गुण्डों ) से भुक्त था ।
घत्ता -जो कुमुदोंके आमोदके बहाने वह उद्यान जो कुछ कहता है, वह मानो नाना पक्षियोंके स्वरोंके द्वारा प्रभुको स्तोत्र कहता है || १४ ||
१५
उस नन्दनवनमें वटवृक्षके नीचे विशाल चट्टानपर बैठे हुए, नये कनेरकी कुसुमरजके समान रंगवाले तथा पद्मासनमें स्थित प्रभु सोचते हैं- " संसार में विशिष्ट सुख नहीं है, सुखके आकार में मैंने 'दुःख ही देखा है। अक्षयका नाश करनेवाला यह नाट्य अच्छा नहीं है । गहनोंसे शरीरका भार बढ़ाता है, काम देहका संघर्षण और क्षय । गीतके बहाने मूखं जीव रोता है । इसलिए उसे शिवश्रेष्ठकी भावना करनी चाहिए कि जिससे यह जीव दुबारा जन्म न ले । वह अवगाह, वीर्यं, सूक्ष्मत्व, समत्व, ज्ञान, दर्शन, अगुरुलघुत्व और अव्याबाधत्व सिद्धोंके इन आठ गुणोंके समूहका ध्यान करते हैं । इस प्रकार स्वामी मोक्षमार्गको सम्भावना कर अप्रमत्त गुणस्थानमें लगते हैं ( आरोहण करते हैं ), वहाँ जैसे ही दस प्रकृतियोंसे मुक्त होते हैं, वैसे ही वे एक क्षण में आठवें अपूर्व करण गुणस्थान में आरूढ़ हो गये । वह पहले शुक्लध्यान में लीन हो गये, वितर्कविचार लक्षण और श्रुतज्ञानसे सहित उसमें लीन मुनि ॠषभने सविभक्त अनिष्ट छत्तीस प्रकृतियाँ जीत लीं । फिर सूक्ष्म साम्पराय ( १०वां गुणस्थानको प्राप्त कर और उसके ध्यान से लोभको समाप्त कर, वह 'उपशान्त कषाय' हो गये । कतकफल जैसे जलमें होता है, उसी प्रकार वह हो गये । फिर वह क्षीणकषाय गुणस्थान में स्थित हो गये और दूसरे शुक्लध्यानमें अवतीर्णं हुए। सोलह प्रकारको प्रकृतियोंके रजका नाश करनेवाले शुक्लध्यानका एकत्व वितकं भेद ।
धत्ता - त्रेसठ प्रकृतियोंके नाश होनेपर मन रहित परमात्माके स्वभाववाले अनिन्द्य और ज्ञानस्वरूप हो गये ||१५||
१. अनन्तानुबन्धी आदि १० प्रकृतियाँ ।
२६
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१०
१०
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महापुराण
१६
हेला-ता दिट्ठ जिणेण तिजेगं पि एकसंधं । ૨ तिमिरुज्जोय वज्जियं गयणममियरंधं ॥१॥ पडिखoणविहीणें एक भावाभावपमाणें । पेक्ख जाणइ सहसा सव्वई । सोहइ केवल केवलणाणें । वीस तिणि अवरई भणियइं णव । आसणाई कंपियई सुरिंदहं । कुसुम संतोसेण मुयंति व । कप्पि कप्पि घंटाटंकारहिं । जो सवासहिं विणिय दुम्मइ । वर्तरेहिं पडुपडह समाहय । अणें अण्ण देव संबोहिय ।
कम सुहुमई दूरंतरिय दव्वई भाणु व भूरिकिरणसंताणें तहिं अवसर जिर्णेणाह भएण व असहंताई व गव्वु अणिदह सुरतरु साहाकर णचंति व संजयहिं दसदिसिवहपूरहिं surase उकाई वि सुम्मइ णिग्गय सीहणाय गयदिग्गय संखणी णाय संखोहिय धत्ता-उग्गइ णाणससंकि अमियगुणेहिं परंजिउ ।। बहुविहतूररवेण जगसमुदु णं गज्जिउ || १६ |
१७
हेला-ता सक्केण चिंतिओ पीणियालिविंदो । संपत्ती जवेण एरावओ गईंदो ॥१॥
१०
हारणीहारसुरसरितसारप्पहो गलियकरडयेलमय कसणगंडत्थलो कामचिंताई कामरूवी चलो कंठकंदलपएसम्मि परिवटुलो तंबालू हो चारुतुच्छोयरो दीय मेहणो दीहउट्ठासओ सर्वेणपल्लवपवणपडियमहुलिहउलो चाववंसो महारावदुंदुहिसरो मुक्क सिकारण सित्तसुरमेलओ
[ ९. १६. १
अर्द्धयंदाहविदुमविहाणिहणहो । अमर गिरिसिहरसंकासकुंभत्थलो । पबलपडिवक्खबलदलणदुम्म हबलो । दसणजुयलेहिं यणेहिं महुपिंगलो । दीर रंगुलि सरो व्व वरपुक्खरो । दोहयरवालही दीहणीसासओ । चलणपडिवलणखलख लिय पयसंखलो | धुलियघंटा झुणी तसिय दिर्स कुंजरो । लक्खण सुवजेणणिरंजणगुणालओ ।
१६. १. MBP तिजयं । २. MBP add after this : फग्गुणमासि किण्हएयारसि उत्तराढरिक्खि ( P उत्तरसादि रिक्खि ) जइ जाणसि । तहिं उप्पण्णु णाणु परमेट्ठिहि, लोयालोयपयासणसेट्ठिहि । ३. MBP जाणइ पेच्छइ । ४. MB जिणु णाहं । ५. MB गव्व । ६. MB सई जायहं | P सहजायहिं । ७. P विणिहिय but gloss विनिहतं । ८ MBP वितरेहि । ९. MBP अण्णाहि ।
१०. MBP अमयं ।
१७. १. P अद्धइंदाहं । २. P° करडयलकसणं । ३. MB दीहरंगुलिं । ४. MBP सरो व्व वरपुक्खरो । ५. MBPT मेहुणो । ६. M सवणपवणाहयपडियमहुलिहउलो; B सवणपडिवयणहयपडियं ; P सवणपवणायपाडियमहुं । ७. B॰पडिचलणखलियं । ८. M दिसिकुंजरो । ९. MP सुक्जिण; B वें ।
०
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९. १७.११]
हिन्दी अनुवाद
२०३
तब ऋषभ जिनने तीन लोकोंके एक स्कन्धके रूपमें देखा । अन्धकार और प्रकाशसे रहित अलोकाकाशको ( देखा )। क्रमसे अर्थों की प्रतीति करानेवाली इन्द्रियोंकी बाधासे रहित तथा भावाभाव प्रमाणवाले एक केवलज्ञानसे वह सूक्ष्म दूर और पासको द्रव्योंको देख लेते हैं और सबको जान लेते हैं। प्रचुर किरण परम्परासे जिस प्रकार सूर्य शोभित होता है, उसी प्रकार केवलज्ञानसे केवली ऋषभ जिन शोभित हैं। उस अवसरपर बोस, तीन और जो दूसरे नौ कहे जाते हैं, गवं नहीं सहन कर सकनेवाले ऐसे अनिन्द्य देवेन्द्रोंके आसन कांप उठे। शाखाओंके हाथोंवाले कल्पवृक्ष नाच उठे। स्वर्ग-स्वर्गमें उत्पन्न हो रहे, दसों दिशापथोंको आपूरित करनेवाले घण्टोंके टंकार-शब्दोंके साथ, शाखाओंके हाथोंवाले कल्पवृक्ष जैसे नृत्य करते हैं और पुष्पोंका विसर्जन करते हैं। ज्योतिषवासी देवोंके द्वारा आहत नगाड़ोंकी ध्वनियोंसे कानोंको कुछ भी सुनाई नहीं देता। व्यन्तर देवोंने पट-पटह बजाये, सिंहनाद और गजनाद होने लगा। शंखोंकी ध्वनिसे नाग क्षुब्ध हो गये । इसी प्रकार एकसे दूसरे देव सम्बोधित हुए।
पत्ता-अनन्त गुणोंसे युक्त ज्ञानरूपी चन्द्रके उदित होनेपर बहुविध तूर्योंके आहत होनेपर विश्वरूपी समुद्र गरज उठा ॥१६॥
१७
तब इन्द्रने अपने मनमें विचार किया और भ्रमर समूहको प्रसन्न करनेवाला ऐरावत गजेन्द्र वेगसे वहां पहुंचा। जिसकी कान्ति हार, नोहार, गंगा और तुषारके समान उज्ज्वल है; जिसके नख अर्धेन्दु और विद्रमके समान लाल हैं; जिसका गंडस्थल, कणंतलसे झिरते हए मदजलसे काला है, जिसका कुम्भस्थल सुमेरु पर्वतको शिखरके समान है, जो कामको चिन्ताके समान गतिवाला, कामरूप और चंचल है। जिसमें प्रबल प्रतिपक्षको सेनाके दलनका दुर्दम बल है, जो कण्ठ और कपाल प्रदेशमें गोल आकृतिवाला है; जो दशनों और दोनों नेत्रोंसे मधुपिंगल है, जो लाल तालु और मुखवाला है; सुन्दर और तुच्छ उदरवाला है, तथा दीर्घ कर और अंगुलियोंवाला । सरोवरके समान जिसकी श्रेष्ठ सूंड है । जिसकी दीर्घ शिश्न और दोघं चिबुक है । जिसकी दीर्घ पूंछ और दीर्घ निःश्वास हैं। जिसके कानोंके पल्लवोंसे आहत पवनसे मधुकरकुल गिर पड़ता है, जिसके चलने और मुड़नेसे पैरोंकी श्रृंखलाएं झनझना उठती हैं, धनुषवंशीय, जो दुन्दुभियोंके समान महान् स्वरवाला है। जिसपर घण्टोंकी ध्वनियां हो रही हैं, जिससे दिग्गज भयभीत हैं, जिसने शीत्कारके जलकणोंसे देवसमूहको आद्रं कर दिया है, जो लक्षणों, व्यंजनों और
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२०४ . महापुराण
[९. १७. १२ धित्तसिंदूरधूलीरयालोहिओ कक्खणक्खत्तगेज्जावलीसोहिओ। लक्खजोयणमहावडिमावडिओ दंसियारेहिं वीरेहिं परियड्ढिओ। झत्ति कल्लाणपयई समुद्धाइओ जत्थ संकंदणो तत्थ "संप्राइओ। घत्ता-मयणिज्झरण झरंतु चमरहंसकुलसुंदरु ।।
णं मायंगमिसेण आयउ वीयउ मंदरु ।।१७।।
१८ हेला-बत्तीसवरवयणसोहिल्लओ रसंतो।
वयणविवरविणिग्गयेहट्ठदंतवंतो ।।१।। दंति दंति सरु सरि सरि पोमिणि पोमिणि जा तूसावियगोमिणि । पोमिणियहि पोमिणियहि पोमई तीस दोण्णि छडयणरवरम्मई । लिणि णलिणि तेत्तियई जि पत्तई णावइ जिणवरलच्छिहि णेत्तई। पत्ति पत्ति एककी अच्छर
णच्चइ हावभावरसकोच्छर । तं पेच्छिवि सुच्छायउ सेंधुरु सच्छरु सामरु चडिउ पुरंदरु । इंदेसमिंदसमाण जि साहिय तायतिंस किर मंति पुरोहिय । परिसदेव देवेसकुमारा
आदरक्ख पुणु असिवरधारा। चलिय अणीयतियससेणा इव लोयवाल दुग्गंतणिवा इव । खिब्भिससुर पाडहिय पियारा अभिओय वि चल्लिय कम्मारा। अवर पइण्णय पर पयाणिह रिक्ख मियंक सूर तारा गह । जक्ख रक्ख गंधव महोरय किंणर किंपुरिसा वि पिसायय । भूयगरुडदीवुवहिकुमार वि अग्गिवाउतडिथणियकुमार वि । दिक्कुमार तवणीयकुमार वि णायकुमार वि असुरकुमार वि। आइय अवेतहं सविमाणहुं पेल्लावेल्लि जाय णहि जाणहुँ । घत्ता-संदाणियउ गएहिं हरिणकलंकु अजुत्तत ।।
ससि करडयलणिहठु मयचिक्खिल्लं लित्तउ ॥१८॥
हेला-'अजि वि सो सुहाइ तेणे य कालियंगो।
जिणजत्ताहलेण मलिणो वि को ण तुंगो।।१।। को वि भणइ मंगु किं पहि ढोयहि वग्घु महारउ एंतु ण जोयहि । को वि भणइ भो हत्थि म चोयहि जाउ सीहु किं मुहं अवलोयहि ।
को वि भणइ लइ अच्छमि लग्गउ हंसहु पक्खु वल भग्गउ । १०. MBP संपाइओ। १८. १. MBP दृट्ठदंतो । २. MB छडयणरवि रम्मई। ३. MB °कुच्छर । ४. MBP सिंधुरु । ५. Ms
इंदमहिंदसमाण। ६. MBP सेणावइ । ७. MB णिवावइ; P णिवासई। ८. MBP मयंक ।
९. MB आवंतें; P आवेंतहुं and gloss आगच्छताम् । १०. K चिक्खल्लें।। १९. १. MBP अज्ज । २. MB तेणेय । ३. MBP मिगु । ४. MB जासु । ५. M महुँ ।
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९. १९.५] हिन्दी अनुवाद
२०५ निरंजन गुणोंका घर है, जो फेंकी गयी धूलिसे लाल है, जो नक्षत्रमालाको ( घण्टावलियों) गीतावलिसे शोभित है, जो एक लाख योजनकी महावृद्धिसे विशाल है, जो महावतों और वीरोंके द्वारा परिवर्धित है, ऐसा वह कल्याणवाला महागज दौड़ा, और वहां पहुंचा जहां इन्द्र विद्यमान था।
घत्ता-मदका निझर बहाता हुआ, चमरोंरूपी हंसकुलोंसे सुन्दर वह ऐसा प्रतीत होता है मानो गजके बहाने दूसरा मन्दराचल आया हो ॥१७॥
बत्तीस वरमुखोंसे शोभित गरजता हुआ प्रत्येक मुख-विवरसे निकले आठ-आठ दांतोंवाला। प्रत्येक दांतपर सरोवर । सरोवरमें कमलिनी, कमलिनी वह, जो महालक्ष्मीको सन्तोष देनेवाली थी, कमलिनी-कमलिनीमें कमल थे। तीस और दो, बत्तीस कमल थे जो भ्रमरोंसे सुन्दर थे। कमलिनी-कमलिनी में उतने ही पत्ते थे, जैसे जिनवर लक्ष्मीके नेत्र हों। पत्ते-पत्तेपर एक-एक अप्सरा है। हाव-भाव और रसमें दक्ष वह नृत्य करती है। उस सुन्दर कान्तिवाले गजको देखकर, अप्सराओं और देवोंके साथ इन्द्र उसपर आरूढ़ हो गया। जो इन्द्रके सामानिक देव कहे जाते हैं, ऐसे तैंतीस प्रकारके मन्त्री, पुरोहित, स्पर्शदेव, देवेशकुमार और असिवर धारण करनेवाले आत्मरक्षक और अनीकदेव दुर्गान्तपालोंकी तरह लोकपाल, किल्विष, पाटहिक ( ढोलवादक ), प्रियकारक, अभियोग और कर्मकार देव चले। और भी प्रचुर प्रकीर्षक प्रजाके समान (?) ऋक्ष, चन्द्र, तारा, ग्रह, यक्ष, राक्षस, गन्धर्व, महोरग, किन्नर, किंपुरुष, पिशाच, भूत, गरुड़, दीपकुमार, उदधिकुमार, अग्निवायु, तडित् और स्तनित कुमार, दिक्कुमार, स्वर्णकुमार, नागकुमार और असुरकुमार भी आये। अपने-अपने विमानोंसे आते हुए आकाशमें विमानोंकी रेलपेल मच गयो।
पत्ता-गजों द्वारा संघट्टित और सँड़से रगड़ा गया चन्द्रमा मदको कीचड़से लिप्त हो गया, उसे मृगलांछन कहना गलत है ।।१८।।
आज भी इसीलिए वह काले अंगसे शोभित है । जिनवरकी यात्राके फलसे कौन मलिन व्यक्ति ऊंचा नहीं होता? कोई कहता है "मृगको पथमें क्यों लाते हो। क्या मेरे आते हुए बाघको नहीं देखते ?" कोई कहता है-"तुम हाथोको प्रेरित मत करो। यह सिंह है, मुँह क्या देखते हो"।
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२०६
महापुराण को वि भणइ किं मूसउ चालहि महु मज्जारु एंतु ण णिहालहि । को वि भणइ मा वाहहि विसहरु पेक्खहि किं ण णउलु कररुहकरु । को वि भणइ भो सणियउ चल्लहि चलँउ रिंछु गवएण म पेल्लहि । को वि भणइ संकडि किं पइसहि सरहें महुं सारंगु म तासहि। को वि भणइ आवेहि संमिच्छउ । पूसउ पूसएण सहुं गच्छउ । मोर मोरु सवक्खीहूएं
जाउ उलूवउ समउ उलूएं। को वि भणइ वेसाणरदूर
वहउ वरुणु किं एत्थ वियारें। को वि भणइ मारुय तुहुं ओसरु मा भंजहि मेरउ जलहरतरु । को वि भणइ वोलउ आहंडलु पविरलतियसु होउ णहमंडलु । पच्छइ पुणु अम्हई जाएसहुं जिणचरणारविंदु पणवेसहुँ । घत्ता-काइ वि देविइ लइयउ करि णीलुप्पलु दीसइ ।।
मउडुग्गयहिं सिएहिं ससिमणिकिरणहिं विहसइ ।।१९||
२० हेला-अवरा सुरविलासिणी गहियकुसुममाला।
णं बालासरूविणी मयणसत्थसाला ॥११॥ . अवरेक्का वि सचंदण दीसइ णं मलयइरिणियंबवणासई । सोहइ अवर वि कुंकुमपिंडे पुत्वदिसा इव सिसुमत्तंडें । अवर सदप्पण णं मुणिवरमइ अवर मयरचिंधे सरि णं रइ । अक्खयधारिणि णं मोक्खहु सहि थणदुहडी णं सुहधणणिहि महि । अवर सुसेयदेह णं सुरसरि अवर सहसमोर णं गिरिदरि। मलविरहिय अवर वि विज्जा इव । अवर सुरहि पप्फुल्लियजाइ व । णच्चइ अवर सरसु भावालउ गायइ अवर कूडताणालउ । । वायइ अवर तंतिवजंतरु | वण्णइ अवर परमतित्थंकरु । एम पसण्णपसाहियवयणहि
अच्छरकोडिहिं चलमृगणयणहिं । सोहम्माहिउ सत्तावीसहि ईसाणु वि परिमिउ चउवीसहि । एम देव संचल्लिय जावहिं धणएं समवसरणु किउ तावहिं । इंदाणइ तं णिम्मिउं जेहउ
मई जडेण किं सीसइ तेहउ । घत्ता-बारहजोयणरुंदु हरिणीले तलु बद्धउ ।
परिवट्टलउ विसुद्ध धूलीसालउ णेद्धउ ॥२०॥ ६. MBP मज्जारउ । ७. MBP चरउ । ८. MB समुच्छउ; P सइमुच्छउ, but gloss
सम्यगिच्छामि । ९. MBP अम्हइं पुणु । २०. १. MBP सुरूविणी। २. MB मलयगिरि। ३. MBPT add after this line : का वि
गहियकत्थूरय ( P कत्थूरिय ) वररइ, सामलंगि णावइ घणघणतइ ( B घणवणतइ ); T also notes an: घणघणतइ ति पाठे निबिडमेघपंक्तिः। ४. MP तालालउ। ५. MBP°मिग। ६. B णट्ठउ ।
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९. २०. १८] हिन्दी अनुवाद
। २०७ कोई कहता है-"लो मैं यह हूँ। हंसका पक्ष बैलसे नष्ट कर दिया है"। कोई कहता है-"चूहेको क्यों चलाते हो, क्या मेरे आते हुए बिलावको नहीं देखते"। कोई कहता है-"विषधरको मत चलाओ, रक्तरंजित हाथवाले नकुलको नहीं देखते"। कोई कहता है-"तुम धीरे-धीरे चलो, रोछ। गवयसे मत भिड़ो"। कोई कहता है-"भीड़में प्रवेश मत करो। अपने शरमसे मेरे सारंगको पीड़ित मत करो।" कोई कहता है-"आओ हम अच्छी तरह चलें । तोते तोतेके साथ चले। स्वपक्षीभूत मोरके साथ मोर, और उलूकके साथ उलूक"। कोई कहता है-"वैश्वानर ( आग ) से दूर रहनेवाले वरुणको आगे बढ़ाओ, यहां विचार करनेसे क्या ?" । कोई कहता है"हे पवन, इस समय तुम्हारा अवसर है, तुम मेरे मेघतरुको भग्न मत करो।" कोई कहता है"हे इन्द्र ! बोलो, आकाश देवोंसे भरा हुआ है, इसलिए हम बादमें आयेंगे, और जिनवरके चरणकमलोंकी वन्दना करेंगे।"
पत्ता-किसी देवीके द्वारा हाथमें लिया गया नीलकमल दिखाई देता है, मानो वह मुकुटोंके अग्रभागमें लगे चन्द्रमणि किरणोंके द्वारा हंसा जा रहा हो ॥१९।।
२०
एक दूसरी देवविलासिनी हाथमें कुसुममाला लिये हुए ऐसी ज्ञात होती है, मानो कामदेवकी सुन्दर छोटी-सी शस्त्रशाला हो। एक और स्त्री चन्दन सहित दिखाई देती है, मानो मलयगिरिके तटबन्धपर लगी हुई वनस्पति हो । एक दूसरी केशरपिण्डसे इस प्रकार मालूम होती है, मानो बालसूर्यसे युक्त पूर्व दिशा हो । एक और दूसरी दर्पण सहित ऐसी मालूम होती है, मानो मुनिवरकी मति हो। एक और दूसरी कामदेवके चिह्नसे रतिको समान जान पड़ती थी। अक्षत ( चावल, जिसका कभी क्षय न हो ) धारण करनेवाली कोई ऐसी मालूम हो रही थी मानो मोक्षकी सखी हो। ऊंचे स्तनोंवाली कोई ऐसी मालूम होती थी, मानो शुभधन ( कलश ) वाली भूमि हो। एक और प्रस्वेदयुक्त शरीरवाली ऐसी लगती थी, मानो गंगानदी हो। एक और हंस तथा मयूरसे सहित ऐसी लगती थी मानो गिरिघाटी हो। एक और मलसे रहित, विद्याके समान थी। एक और खिली हुई जुही पुष्पकी तरह सुरभित थी। एक और सरस और भावपूर्ण नृत्य करती है, एक और कूटतानमें भरकर गाती है। एक और वीणा वाद्यान्तर बजाती है, एक और परमतीर्थंकरका वर्णन करती है। इस प्रकार प्रसन्न और प्रसाधित मुखों और चंचल मृग नेत्रोंवाली सत्ताईस करोड़ अप्सराओंसे घिरा हुआ सौधम्यं इन्द्र, तथा चौबीस करोड़ अप्सराओंसे घिरा हुआ ईशान इन्द्र चला। इस प्रकार जबतक देव चले, तबतक कुबेरने समवसरणकी रचना कर दी। इन्द्रकी आज्ञासे उसने जिस प्रकार. उसे बनाया, मुझ जड़ कवि द्वारा उसका किस प्रकार वर्णन किया जा सकता है ?
पत्ता-बारह योजन विशाल जिसका तलभाग इन्द्रनील मणियोंसे निबद्ध था-गोल विशुद्ध वेष्टित परकोटेवाला ॥२०॥
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२०८
महापुराण
[९. २१.१
२१ हेला-मोत्तियदसणहसियसुरणाहचावलीलो।
रयणपंसुविणिम्मिओ सहइ धूलिसालो ॥१॥ सुयपिच्छेच्छवि कहिं मि विरेहइ कत्थइ अंजणपुंजु व सोहइ। कत्थइ लोहिउँ संझाराउ व कत्थइ पंडुरु कुंदणिहाउ व । अब्भंतरि जगईउ पहाणउ ताउ होंति सोलह सोवाणउ । चउगोउरभूसियउ तिसालउ पसरियणाणामणियरजालउ। माणखंभ ताहुप्परि संगय सँधय संचामर सघंटा णं गय । चउहुं मि दिसहिं चयारि समुण्णय । दसणमेत्तेण जि हयजयमय । अरुहणाहपडिमापरिवारिय फणिदाणवमाणवजयकारिय । पुणु वावीउ सकमल ससलिलउ . खगमाणियउ णाई खगमहिलउ । तीररयणकरमंजरिदित्तउ
चउपइयापरियम्मविचित्तउ । कुवलयधारिउ णं णिवसत्तिउ भमियरहंगउ णं रहगँत्तिउ । दिसधाइयपाणियकल्लोलउ पुणु खाइयउ रमियझसमालउ । घत्ता-पहसियसररुहएहिं वाउग्गर्यतिगिंछिहिं ॥
परिहउ णाई णियंति देवागमणु चलच्छिहिं ॥२१॥
२२ हेला-जेहिं महिउ रईए हसीहिं मत्तहंसो।
सुरवहुकैरिणियाहिं सुरहत्थिहत्थफंसो॥१॥ पुणरवि अंतरि णवदुमवेल्लिउ कुसुमालउ णं वम्महभल्लिउ । पंत्तिहिं रत्तउ णं वरवेसउ फलणमियउ णं सुहिपरिहासउ । कंटइयउ णं पिययममिलियउ णञ्चंति व मारुयसंचलियउ । णं वरकइवायउ कोमलियउ लाडालावडं पासिउ ललियउ ।
वित्थरियउ अहिणवरससारउ णं कामुयमईउ सवियारउ । २१. १. P पंसुणिम्मिओ । २. MB °पिछ; P पुंछ । ३. MBP सोहइ । ४. B सवय । ५. MBK सचमर।
६. MBP वावियउ। ७. M णिवजुत्तिउ; B°जोत्तिउ। ८. M तिगिच्छिहि. B तिग्गिछिहिं;
P तिगिंछहिं । .२२..१.. जाहि and gloss यासु खातिकासु । २. M हंसहि। ३. MBP करणियाहिं। ४. MBP
पत्तहिं।
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९. २२. ]
हिन्दी अनुवाद
२१
अपने मोतियों के दांतोंसे इन्द्रधनुषको लीलाका उपहास करनेवाला रत्नधूल से रचित धूलि - साल शोभित था । कहीं पर तोतोंके पंखोंकी छवि से शोभित होता है, कहीं पर अंजनके समूह समान शोभित है, कहीं पर सन्ध्यारागके समान शोभित है । कहींपर कुन्दपुष्पोंके समूह के समान सफेद है। उसके भीतर एकके ऊपर एक तीन पीठ हैं, उनमें सोलह सोपान हैं। चार गोपुरोंसे भूषित तीन परकोटे हैं, जिनमें तरह-तरहके मणियोंके जाल फैले हुए हैं। उसके ऊपर मानस्तम्भ है । ध्वजों, चामरों और घण्टोंसे युक्त जो मानो गज हों। चारों दिशाओंमें चार समुन्नत मानस्तम्भ स्थित हैं, जो दर्शनमात्रसे जयके मदका अपहरण करनेवाले हैं । जो अरहन्तनाथको प्रतिमासे घिरे हुए हैं और जिनका नाग, दानव और मनुष्य जयजयकार कर रहे हैं । फिर जल और कमलों सहित सुन्दर वापियां हैं । पक्षियोंके द्वारा मान्य, जो ऐसी लगती हैं मानो खग महिला हों । जो तीरोंमें विजड़ित रत्नोंकी किरणरूपी मंजरियोंसे आलोकित और चतुष्पथोंके रचना कमसे विचित्र हैं । जो मानो कुवलयधारक ( कमल, पृथ्वीरूपी मण्डल ) नृपशक्ति है, जो मानो भ्रमितरथ ( चक्रवाक, रथका पहिया ) रथको युक्ति है। दिशाओंको छूनेवाली, पानीकी लहरोंवाली, और क्रीड़ा करती मछलियोंसे युक्त खाई है । रत्नों की धूलिसे विनिर्मित तथा अपने मुक्तारूपी दांतोंसे इन्द्र के धनुषकी लीलाका उपहास करनेवाला जिसका परकोटा सोह रहा था । कहींपर शुकपंखोंकी छविवाला शोभित होता है, और कहीं अंजन समूहके समान शोभित होता है । कहीं सन्ध्याराग की तरह लोहित ( आरक्त ) है, कहींपर कुन्दपुष्पोंके समूहके समान सफेद है । उसके भीतर एकके ऊपर एक तीन पीठ हैं और उनकी सोलह-सोलह सीढ़ियाँ हैं, चार गोपुरों
भूषित त्रिशालाएँ हैं जो नाना प्रकारके मणियोंके किरणजालसे प्रसरणशील हैं, उनके ऊपर मानस्तम्भ हैं जो मानो ध्वजों, चामरों और घण्टोंसे सहित गज हैं। वे चारों दिशाओंमें चार खड़े हुए हैं जो देखने मात्रसे जयके अहंकारको चूर-चूर करनेवाले हैं । अरहन्तनाथकी प्रतिमाओं से घिरे हुए तथा नागों, दानवों और मनुष्योंके द्वारा जयजयकार किये जाते हुए। फिर वहाँ कमलों और वापिकाओं से सहित वापिकाएँ हैं, जो मानो पक्षियोंके द्वारा मान्य खगस्त्रियाँ हों। जो तीरोंके रनकिरणों की मंजरियोंसे दीप्त, चारों ओरकी सीढ़ियोंकी परिक्रमासे विचित्र हैं । जो मानो नृपशक्तिकी तरह कुवलय ( नीलकमल भूमिमण्डल ) को धारण करनेवाली, तथा रथकी युक्तिकी तरह घूमते हुए रथांगों ( चक्रवाकों और चक्रों ) वाली थीं। जो दिशाओं में दौड़ते हुए लहरोंसे रमण करती हुई मत्स्यमालाओं से युक्त थीं 1
२०९
घत्ता - हँसते हुए कमलों तथा हवाके लिए बाहर आते हुए मत्स्योंके बहाने जो अपनी चंचल आँखों से मानो देवागमन देख रही हैं ॥२१॥
२२
जहाँ रतिके द्वारा ( काम ), हंसिनियों के द्वारा मत्त हंस और सुरवधुओंकी हथिनियोंके द्वारा ऐरावतकी सूँड़का स्पर्शं चाहा जा रहा है । भीतर फूलोंकी घर नवद्रुम लताएँ मानो कामकी भल्लिकाओं के समान हैं । जो पत्रों ( पत्तों ओर पत्ररचना ) से मुक्त मानो वरवेश्या हैं । जो सुधीजनों के परिहासके समान फलोंसे नमित हैं । जो प्रियतमसे मिले हुएके समान कंटकित ( रोमांचित ) हैं, हवासे संचालित होनेके कारण जो जैसे नृत्य कर रही हैं । जो मानो श्रेष्ठ विकी वाणीके समान कोमल हैं, जो लाटालंकारके आलापोंसे भी अधिक सुन्दर हैं । जो अभिनव रससार की तरह विस्तृत हैं, जो मानो कामुकोंकी मतियोंकी तरह विकारोंसे युक्त हैं । वहाँपर
२७
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२१०
महापुराण
[९. २२.८ का वि वेल्लि तहिं वेढइ कंचणु सयल वि णारि समीहइ कंचणु।। लग्गी का वि ललंति असोयइ जिहे तृय तिह किर रमइ असोयइ । लग्गी का वि गंपि पुण्णायहु होई णियंबिणि फुडु पुण्णायहु । क वि मायंदहुँ संगु ण खंचंइ णिवरोहिणिहि लील णं संचइ । घत्ता-किसलयदलफलगोंछे चलचंचुइ णिल्लरइ ।।
१°अमरु कीरवेसेण तेत्यु को वि रइ परइ ॥२२॥
हेला-चिंतियवेसधारिणो जणियकामभावा।
वेल्लीवणलयाहरे जहिं रमंति देवा ॥१॥ पुणु हिरण्णरइयउ रुइरिद्धउ । जिणेण वयपरियरु बद्ध । अप्पवेसु णं कामकडक्खहु । गुरुपायारु पारु णं दुक्खहु । जहिं चउगोउराइं संविहियई जहिं बहुमंगलदळवई णिहियई। अट्ठोत्तरसयसंखासदई
णव वि णिहाणइं हयदालिदई । तहिं विंतर पडिहारसमत्था भीयरकुलिसगयासणिहत्था। पुणु पेणिहिउ उहयम्मि विसालउ चउदिसु दो दो णाडयसालउ । ताउ तिभूमिउ णवरसजुत्तउ णाई पउत्तिउ सुकइपउत्तउ । बहुवजउ वइरायरभूमिउ
आयउ णं ओलग्गहुँ सामिउ । घत्ता-उहयदिसहिं कुहिणीहि पुणु वि कया वि ण णिट्ठिय ॥
दो दो दिण्णसंधूव तहिं धूवहेड परिट्ठिय ॥२३॥
२४
हेला-दीसइ गयणमंडले णीलधूमरेहा।
___णं जिणकम्मकालिया भमइ मुक्कदेहा ॥१॥ पुणु खयरामररामारमियई चउणंदणवणाइं परिभमियई । वणि वणि विमलई सरिसरपुलिणइं कीलागिरिवरकेलीभवणई। चउगोउरतिसालपरियरियउ पीढु तिमेहलु मणिविप्फुरियउ । तित्थु असोउ असोयवणंतरि तहु पडिमाउ चयारि दियंतरि । कोहमोहमयमाण चत्तउ
सीहासणछत्तत्तयजुत्तउ। अस्थि अणेयदेवकयपुज्जउ णिहयणिरंगउ णिरु णिरवजउ ।
५. MB जिह तिह किर; P जिह तिय तिह and gloss यथा स्त्री; K तृय but corrects it to तिय । ६. MBP अवसें णारि होइ पुण्णायह। ७. BP खंचइ। ८. M अंचइ । ९. B गोच्छु ।
१०. MBP अमरु वि कीरमिसेण । २३. १. B वल्लीवण । २. MT पणिही; BP पणहीउ । ३. MBP सुकइणिउत्तउ । ४. MB सुध्य;
P सुधूवा। ५. M धूवहडण । २४. १. MBPT add after this: ककेल्लीचंपयसत्तयलहिं, संछण्णहिं साहारहिं सरलहिं ।
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९. २४.८ ]
हिन्दी अनुवाद
२११
कोई लता चम्पक वृक्षको घेर लेती है, ( ठीक भी है) सभी नारियां स्वर्णकी आकांक्षा रखती हैं, चाहती हुई कोई लता अशोक वृक्षसे लग जाती है, और जिस प्रकार स्त्री अशोक ( शोकरहित ) मनुष्यसे रमण करती है, उसी प्रकार रमण करती है । कोई लता जाकर पुन्नाग वृक्षसे लग गयी, और स्फुट रूपसे पुन्नाग ( श्रेष्ठ पुरुष ) की गृहिणी बन गयी । कोई मायंद ( आम्रवृक्ष ) के साथ नहीं लगती मानो वह चन्द्रमा और रोहिणीकी लीलाको धारण करती है ।
धत्ता - कोई देवता शुकके रूपमें पत्तों, दलों और फलके गुच्छोंको अपनी चंचल चोंच से नोचता है, और इस प्रकार अपनी कामनाको पूरी करता है ||२२||
२३
अपनी इच्छा के अनुसार वेश धारण करनेवाले, तथा जिन्हें कामभाव उत्पन्न हो रहा है, ऐसे देवता जहाँ लतावनोंके लताघरोंमें रमण करते हैं । फिर विशाल प्राकार, स्वर्णसे रचित और कान्तिसे युक्त जो ऐसा लगता था, मानो जिन भगवान् ने अपने व्रतोंका परिकर कस लिया हो । जो काम कटाक्षोंके लिए अप्रवेश्य था, और जो मानो दुखोंका अन्त था । जहाँ चार गोपुर-द्वार बनाये गये थे, जहाँ अनेक मंगल द्रव्य रखे हुए थे । एक सौ आठ संख्या शब्दोंवाले तथा दारिद्र्यका अपहरण करनेवाली नौ निधियां । जहाँ भयंकर वज्र और गदाएँ हाथमें लिये हुए व्यन्तर देव प्रातिहायका काम करने में समर्थ थे । फिर मार्गों के दोनों ओर चारों दिशाओं में दो-दो विशाल नाटकशालाएँ थीं । जो नवरसोंसे युक्त तीन भूमियोंवाली थीं, सुकवियोंके द्वारा कही गयी उक्तियोंके समान । अनेक वाद्योंसे युक्त वेराग्यभूमियां थीं जो मानो स्वामीकी सेवाके लिए आयी थीं ।
घत्ता - मार्गकी दोनों दिशाओं में अपनी-अपनी धूप देनेवाले दो-दो धूपघट स्थित थे जो कभी भी समाप्त नहीं होते थे ||२३|| -
२४
।
आकाशमण्डल में नीली घूमरेखा ऐसी दिखाई देती है मानो जिनके कर्मसे काली वह मुक्त देह घूम रही हो । फिर विद्याधरों और देवोंकी स्त्रियाँ जिनमें रमण करती हैं ऐसे चार नन्दन वन रच दिये गये । प्रत्येक वनमें नदी और सरोवर के किनारे हैं, क्रीड़ा पर्वत श्रेष्ठोंपर केलीभवन हैं । चार गोपुर और तीन परकोटोंसे घिरा हुआ तीन मेखलाओंवाला तथा मणियोंसे चमकता हुआ पीठ है । वहाँ अशोकवनके भीतर अशोक हैं, चारों दिशाओंमें वहां प्रतिमाएं हैं । क्रोध, मोह, मद एवं मानसे रहित जो सिंहासन और तीन छत्रोंसे युक्त हैं। जिनकी अनेक देवोंसे पूजा की गयी है,
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.
२१२
महापुराण
[९.२४.९
संझा इव सुवण्णरुइरोइय पुणरवि च उदुवा पुणु दिसि दिसि दह धय सुरसंथुय थिय गयणयललग्ग पवणुधुय । मालावत्थमोरकमलंकहिं
हंसगरुडहरिविसकरिचक्कहिं । भूसियपडिधयपहपइरिकहु अट्ठोत्तरु सउ सउ एक्ककहु । घत्ता-अण्णहु कासु तिलोए सोहइ णहि घोलंतउ ।।
कुसुममालधउ तासु कुसुमाउहु जे जित्तउ ॥२४॥
२५
हेला-कहइ व किंकिणीण घोसेण घोलमाणो ।
अहमिह सकुसुमो वि ण हु होमि कुसुमबाणो ॥१॥ देव देव मा मह रूसेन्जसु . कुसुमकरालहु करुण करेजसु । जो अंबरु तवचरणि ण भावइ अंबरचिंधु तासु ध्रुवु आवइ । जो सिहिवेसु कया वि ण इच्छइ सिहिजयंति सो अवसे पेच्छइ। जो णिवकमलहि होइ परंमुहु तहु कमलद्धउ णिच्छउ संमुहु । परमहंसु जो सञ्चउ बुज्झइ हंसु तासु धइ केम विरुज्झइ। अमयबंभपउ जो जइ दावइ विणयासुयवडाय सो पावइ । सीहेणेव जेण वणु सेविउ
सीहचिंधु तहु केण ण भाविउ । जेण ण पसु घाइउ णियमग्गइ तासु जि वसहु थाइ चिंधग्गइ। पसुवइ सो जि भडारउ वुच्चइ दुट्ट अवरु किं अप्पउ सुच्चइ । जो पंचिंदिय दुइम पीलइ पीलु तासु धयवडु अणुसीलइ । मोहचक्कु जे चप्पिवि चूरिउ चक्कु चिंधु तहु होइ अवारिउ । घत्ता-पुणु पायारु विचित्तु चउदुवार सुपसत्थ ॥
जहिं थिय णायकुमार मरगयदंडविहत्थ ॥२५॥
२६ हेला-पुणु वि धूवदोहडी पवरणट्टसाला ।
अहिणवभावसोहिया ताउ गवरसाला ॥१।। उठवसिरंभतिलोत्तिमणामउ | जहिं णडंति तियसाहिवरामउ । पुणु दीहर दहविह कप्पद्रुम दरिसियभोयसार णिरु णिरुवम । पुणु वेइय कलेहोयहु केरी पियकता इव सुहइं जणेरी। पुणु वि दुवारइं पुण्णपवित्तई दरिसावियबहुमंगलवत्तई। णिचु जि कीलियसुरसंघायहँ ___ भंभाभेरिपडहणिणायहं । पुणु पओलि लंधिवि पासायह पंति हारतारासुच्छायहं । णितोरणमालउ
पुणु फलिहमउ सालु सुविसालउ । २. MBP राइउ । ३. MBP वेइउ । २५. १. MBP धुउ । २. MBP चक्कचिंधु । २६. १. MBP पुणरवि धूयदोउडी। २. B कलहोइय । ३. MBP णिण्णायहं । ४. MBP पुणु तोरण ।
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९.२६.९] हिन्दी अनुवाद
२१३ जिन्होंने कामको नष्ट कर दिया है, और जो पापरहित हैं। सन्ध्याके समान स्वर्णकान्तिसे निर्मित, फिर भी चार द्वारवाली वनदेवियां हैं। फिर दिशा-दिशामें देवताओंसे संस्तुत, आकाशको छूती हुई, हवासे उड़ती हुई दस ध्वजाएँ स्थित हैं। माला, वस्त्र, मोर, कमलों, हंस, गरुड, हरि, वृषभ, गज और चक्रोंसे भूषित पटध्वजोंकी प्रभासे प्रचुर एक-एकपर एक सौ आठ ध्वज हैं।
__ घत्ता-आकाशमें उड़ती हुई कुसुममाला ध्वजा त्रिलोकमें क्या किसी दूसरेके लिए सोह सकती है, केवल उसके लिए सोह सकती है कि जिसने कामदेवको जीत लिया है ।।२४।।
२५ मानो वह ध्वज किकिणियोंके आन्दोलित घोषसे कहता है कि मैं वहाँ कुसुम सहित होकर भी कसमबाण (कामदेव ) नहीं हैं। हे देवदेव, मुझपर क्रोध मत कीजिए। कुसुमोसे कराल मुझपर करुणा करें, जो अम्बर ( वस्त्र ) तपश्चरणमें अच्छा नहीं लगता, उसके लिए निश्चित रूपसे वस्त्रध्वज आता है; जो स्त्रीवेषको कभी भी नहीं चाहते वह मयूरपताका अवश्य देखता है। जो राजारूपी कमलसे पराङ्मुख है उसके सम्मुख निश्चय ही कमलध्वज हैं। जो सच्चे परमहंस समझे जाते हैं ध्वज में उनका हंससे कैसे विरोध हो सकता है। जो अमृत ब्रह्मपद दिखाता है, वह गरुडध्वज पाता है, सिंहके ही समान जिसने वनकी सेवा की है सिंहध्वज उन्हें क्यों अच्छा नहीं लगता। जिन्होंने अपने मार्गमें पशुका आघात नहीं किया उनके लिए ध्वजके अग्रभागमें बेल स्थित है । वही आदरणीय पशुपति कहे जाते हैं, क्या और कोई दूसरा दुष्ट अपनेको क्यों शिव समझता है ? जो दुर्दम पांच इन्द्रियोंको पीड़ित करता है, गज उनके ध्वजपटका अनुशीलन करता है। जिसने मोहचक्रको चाँपकर चूर-चूर कर दिया, बिना किसी प्रतिवादके चक्र उसका चिह्न होगा।
धत्ताफिर चार द्वारोंवाला प्रशस्त और विचित्र परकोटा था। जहां पंन्नोंके दण्ड हाथमें लिये हुए नागकुमार देव खड़े हुए थे ॥२५॥
२६ फिर जिसमें धूपके दो घट हैं, ऐसी विशाल नाट्यशाला है। नवरसाला (नौ रसोंवाली) वह, अभिनव भावोंसे अत्यन्त शोभित है। जहाँ इन्द्रकी उर्वशी, रम्भा, तिलोत्तमा नामक नर्तकियां नृत्य करती हैं। फिर लम्बे दस कल्पवृक्ष हैं, श्रेष्ठ भोगोंको प्रदान करनेवाले अत्यन्त अनुपम । फिर स्वर्णकी वेदिका है जो प्रिय कान्ताके समान सुख देनेवाली है। फिर बहुमंगल द्रव्योंको बतानेवाले द्वार हैं। जिनमें नित्य देवसमूह कोड़ा करता है और भंभा, भेरि और नगाड़ोंका निनाद हो रहा है ऐसे हारों और तारोंके समान स्वच्छ प्रासादोंको पंक्ति और प्रतोली लांघकर मणियोंके
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२१४
१०
महापुराण
[९.२६.१० मणुउत्तरगिरि व्व गरुयारउ कप्पदेवपरिरक्खियदारउ । सुद्धायासफलिहसंपत्तिउ __ तहु आलग्गिवि सोलह भित्तिउँ । घत्ता-तहिं मंडवमज्झत्थु वेरुलिएहिं समारिउ ।।
सोलहपयठवणेहिं पीढु सुहाइ णिरारिउ ॥२६॥
२७
हेला-चउदिसु तासु उवरि कल्लाणदविणसारा।
__जक्खसुराहिवा वि सिरिधम्मचक्रधारा ।।१।। अवरु हिरण्णवीदु तहु उप्परि अटकेउपरिमिउ पयडियसिरि। रयणरहंगदुरयगोधारिहिं
आरणालसुसिचयहरिणारिहिं । उरयवइरिदामयतणुअंकहिं सोहइ धयहिं गलियमलपंकहिं । पुणु वि तितीरु रइउ पीढुल्लउ तासुप्परि सीहासणु भल्लउ। जंबुण्णयचामीयरघडियउ विमैलु समंतभद्दमणिजडियउ । मरगयणिम्मियदीहरदिवहिं सहइ लट्ठि कक्केयणपन्वहिं। छत्तई तिण्णि ताई उद्धरियई णिम्मलाई णं णाहहु चरियई। दिसिगयपंडुरकरणिउरुंबई तिण्णि वि णावइ ससहरबिंबई । भामंडलु मंडलु णं भाणुहि अइ आसंकेप्पिणु सन्माणुहि । णिण्णासियदुईसणदिविहि सरणु पइट्ठउ णं परमेट्ठिहि । रत्तपुप्फथवएहिं पसाहिउ जिमणणिग्गउ राउ व राइँउ । कंकेल्लि वं पल्लवसोहिल्लउ मत्तसकुंतमिहुणु रमियल्लउ । जिह जिह देवहुं दुंदुहि वज्जइ तिह तिह धम्मजलहि णं गज्जइ । घत्ता-णं आघोसइ एम दुंदुहिसरेण गहीरें ॥
"पणवहो तिहुयणणाहु जें मुच्चहु संसारें ॥२७॥
२
हेला-अविरलकुंदकुडयमंदारपंकयाई ।
सभसलसिंदुवारकणियारचंपयाई ॥१॥ जिह जिह कुसुमई पडियई गयणहु तिह तिह करसरणिवडियमयणहु । णवपसंडिदंडई सपसंसई
पीयंपासपडियाई व हस।। जक्खकरयलंदोलणचवलई गुणठाणारुहणाई व विमलई ।
५. B तित्तिउ । २७. १. M सुसिवयं; B ससिवयं । २. MPK सिंहासणु; B सिंघासणु । ३. MB विमलं । ४. B
सुब्भाणुहि । ५. B रत्तउ पुष्फं। ६. MBP जिणमयं। ७. MBPT राहिउ । ८. MBP वि । ९. M मत्तसुकुंभसिहु णरमियल्लउ; BP मत्तसकोंतमिहुणु रमियल्लउ, but T सकुंता पक्षिणः ।
१०. MBP पणवह । २८. १. MB पियपायसपडियाई; P पियपासपडियाई ।
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९. २८.५] हिन्दी अनुवाद
२१५ तोरणमालाओंसे युक्त स्तूप हैं। फिर स्फटिकमय विशाल साल ( परकोटा ), मानुषोत्तर पर्वतके समान विशाल, जिसका द्वार कल्पवासी देवोंके द्वारा रक्षित है। वहाँसे लेकर शुद्धाकाशके समान स्फटिक मणियोंसे बनी हुई सोलह दीवालें हैं।
___ धत्ता-उनके ऊपर वैदूर्यमणियोंसे निर्मित मण्डपका मध्यभाग है, सोलह पद स्थापनाओंके द्वारा जिसका पीठ अत्यन्त शोभित है ॥२६॥
२७ उसके ऊपर चारों दिशाओं में कल्याण और धनमें श्रेष्ठ तथा श्री और धर्मचक्रको धारण करनेवाले यक्ष और इन्द्र थे। उसके ऊपर एक और हिरण्यपीठ था, अपनी शोभाको प्रकट करता हुआ वह आठ ध्वजोंसे घिरा हुआ। चक्रवाक, हाथी, बैल, कमल, शोभा वस्त्र और सिंह, मयूर और पुष्पमालाओंसे चिह्नित ध्वजोंसे जो शोभित है। फिर भी तीन किनारोंसे ( एकके ऊपर एक) पीठ निर्मित है। उसके ऊपर सुन्दर सिंहासन है। स्वर्ण और चांदीसे निर्मित और समन्तभद्रमणिसे जड़ा हुआ। जिसकी यष्टि (हाथ टेकनेकी लकड़ी ) मरकत मणियोंसे निर्मित स्फटिक मणियोंको गांठोंसे शोभित है। उसके ऊपर तीन छत्र उठे हुए थे जो नाभेयके चरितके समान सुन्दर थे। दिग्गजोंके समान सफेद किरण-समूहोंवाले वे चन्द्रबिम्बकी तरह शोभित हैं। भामण्डल मानो सूर्यका मण्डल है। जो मानो राहुसे अत्यन्त भयभीत होकर दुदर्शनीयोंकी दृष्टिका नाश करनेवाले परमेष्ठीको शरणमें आ गया। अथवा जो लाल फूलोंके गुच्छोंसे प्रसाधित, तथा जिनके मनसे निकले हुए रागके समान शोभित है। जिसमें प्रसन्न पक्षियुग्म हैं, ऐसे पल्लवोंसे शोभित क्रीड़ा करते हुए अशोक वक्षके समान । जैसे-जैसे देवके लिए दुन्दुभि बजती है, वैसे-वैसे मानो धर्मरूपी समुद्र गरजता है।
घत्ता-मानो वह गम्भीर दुन्दुभिके स्वरसे इस प्रकार घोषित करता है कि यदि संसारसे मुक्त होना चाहते हो तो त्रिभुवननाथको प्रणाम करो ॥२७॥
२८ अविरल कुन्द, कुटक, मन्दार, कमल, भ्रमरसहित सिन्दुवार, कणिकार ( कनेर ) और चंपकपुष्प जैसे-जैसे आकाशसे गिरते हैं वैसे-वैसे कामदेवके हाथसे तीर गिरने लगे। नव स्वर्णमय दण्डोंवाले, यक्षोंके करतलोंके आन्दोलनसे चपल सफेद सुविशिष्ट और प्रशंसित चमर स्वर्णबन्धनमें
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२१६
[९. २८.६
महापुरान खीरतरंगा इव परिघुलियई कित्तिहि अंगा इव संचलियई। पंडुराई चमरई सुविसिट्टई दयवेल्लि हि फुल्लाई व दिट्ठई। जं जं सुंदरु लच्छिहि अंगउ जं जं कोई मि तिहुयणि चंगउ । तं तं सयलु वि तहिं जि समप्पिउ को वण्णइ जंभारिवियप्पिउ । णियपहणित्तेइयचंदक्कउ
समवसरणु गयणंगणि थक्कउ । पंचसहसधणुढच्छयमाणइ सेणिय कहियउ जिणवरणाणइ । घत्ता-जो उच्छेहु जिणिंदें धणुपंचसएहिं घल्लिउ ।
तरुघरगिरिखंभाई सो बारहगुणु वोल्लिउ ।।२८।।
२९
हेला-अटुगुणेण रुंदभावेण संपउत्तो।
. गाढं थूहवेइयाणं पि सो पउत्तो ॥१॥ इय धणएं वेउन्विउ जायहिं इंदें णविउ भडारउ तावहिं। जय जिण कण्ह रुह चउराणण जय तवरामारइसुहमाणण । जय कैलिकलिलसलिलसोसणरवि जय वासरईसरदेहच्छवि। जय मणतिमिरभारहरणखम तियसकिरीडमउडमंडियकम। जय तिसल्लवेल्लीवणछिंदण
जय कंदप्पदप्पभडमद्दण । कोहकलंकपंकओसारण
जय माणइरिसिहरमुसुमूरण । मायापावभावविद्दावण
जय लोहंधययारउडावण । तिहारयणीयरिसंघारण
जय सत्तभयकुरंगवियारण । जय मयमयगलकुलकंठीरव
जय जगबंधव महियतिगारव । पढमपुरिस परमप्पय संकर
जय जय रिसहणाह तित्थंकर । धत्ता-वंदिउ एम जिाणदु तहिं बत्तीसहिं सकहिं ।।
उज्जोइयभरहेहिं पुप्फयंतणामंकहिं ॥२९।।
इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरइए महाभश्वभरहाणु
मण्णिए महाकव्वे रिसहकेवलणाणुप्पत्ती णाम वमो परिच्छेओ सम्मत्तो ॥ ९ ॥
॥ संधि
॥९॥
२. MBP तिहयणि काइं मि। ३. MBP उण्णयमाणे । ४. MP add after this: विससहससोवाणविहाणे, चउदिसविरइयहत्थपमाणे, B adds these after सेणिय कहियउ जिणवरणाणइं। ५. MBP सेणिय कहिउ जिणे वरणाणे । ६. MBP पघल्लिउ; T पझुल्लिउ । ७. P पल्लिउ
and gloss कथितम् । २९. १. MBPK अट्ठउणेण । २. M कयकलिल । ३. M तिसल्लवल्ली । ४. MBP भावउड्डावण ।
५. MBP धयारविहाबण: P लोहभयारि विद्यावण ।
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९.२९.१५]
हिन्दी अनुवाद
२१७
पड़े हुए हंसों, क्षीरसागरकी आन्दोलित लहरों, कीर्तिके चंचल अंगों, और दयारूपी लताके फूलके समान दिखाई दिये । लक्ष्मीका जो-जो सुन्दर अंग है और विश्वमें जो-जो भला है, वह सब वहीं समर्पित कर दिया । इन्द्रकी रचनाका वर्णन कौन कर सकता है ? अपनी प्रभासे सूर्य और चन्द्रमाको निस्तेज करनेवाला - समवसरण पाँच हजार धनुष ऊंचाईके मानसे आकाशमें स्थित था । हे श्रेणिक, यह मैंने जिनवरके ज्ञानसे कहा ।
घत्ता--जो ऊँचाई जिनेन्द्रके द्वारा पाँच सौ धनुष कही गयी है वनवृक्ष गिरि (पर्वत) खम्भे ( पताकाओंके ), उससे ( ऋषभ जिनकी ऊँचाईसे) बारह गुना अधिक ऊँचे हैं ||२८||
२९
और इनकी मोटाई (ऊँचाईसे) आठ गुनी जाननी चाहिए। खम्भों और वेदिका के विषय में भी यह समझना चाहिए। इस प्रकार कुबेरने जब रचना की, तभी इन्द्रने आदरणीय जिनको नमस्कार किया - "हे जिन, कृष्ण, रुद्र, चतुरानन ! आपकी जय हो, तपश्रीरूपी रामासे रतिसुख माननेवाले आपकी जय हो । कलिके पापोंरूपी जलोंको सोखनेके लिए सूर्य, आपकी जय हो, सूर्यके समान शरीर कान्तिवाले आपकी जय हो, मनके अन्धकारभारका हरण करनेवाले आपकी जय हो, देवोंके किरीट और मुकुटोंसे अलंकृत चरण आपकी जय हो । त्रिशल्यरूपी लतावनका उच्छेदन करनेवाले आपकी जय हो, कन्दर्पके दर्परूपी भटका मर्दन करनेवाले आपकी जय हो, क्रोधरूपी कलंककी कीचड़ दूर करनेवाले आपकी जय हो, मानरूपी पर्वत के शिखर चूर-चूर करनेवाले आपकी जय हो, मायाके पापभावको नष्ट करनेवाले आपकी जय हो । लोभरूपी अन्धकारको उड़ानेवाले आपकी जय हो । तृष्णारूपी राक्षसीको मारनेवाले आपकी जय हो । सात भयरूपी कुरंगों का विदारण करनेवाले आपकी जय हो । मदरूपी मैगलके लिए सिंहके समान आपकी जय हो । विश्वबन्धु और तीन गर्वोको नष्ट करनेवाले आपकी जय हो । प्रथम पुरुष, परमात्मा, शंकर, ऋषभनाथ और तीर्थंकर आपकी जय हो ।
घत्ता - भरतको आलोकित करनेवाले तथा सूर्य-चन्द्रके समान शोभित पचासों इन्द्रोंने इस प्रकार जिनेश्वरकी वन्दना की || २९ ॥
इस प्रकार श्रेष्ठ पुरुषोंके गुण और अलंकारोंसे युक्त इस महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका ऋषभ केवलज्ञान उत्पत्ति नामका नौवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥९॥
२८
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संधि १०
परमेसरु थुणिउ पुरंदरेण परिसेसियभवभयमरणरिण ।। परमप्पय महु पसीय सुसम सेमवसरणपरियरिय जिण ॥ १॥ध्रुवकं ॥
दुवई-तुह पहु वंदणाइ संतोसु ण जिंदइ वहसि मच्छरं।
तह वि हु कुणसि अणयपणयाण दुहोहसुहोहवित्थरं ॥१॥ तहं वीयराउ णिङ्ख्यकम्मु तुहुं हिंसावजिउ परमधम्मु । जो पई सेवइ तहु होइ सोक्खु तुह पडिकूलहु संभवइ दुक्खु ।
मि मज्झत्थभाउ इह एहउ फुडु वत्थुहि सहाउ । णिदिजइ रवि पित्ताहिएहिं चंदु वि वारण णिवाइएहिं । ते दोण्णि वि एयह किं करंति ससहावें णहयलि संचरंति । ससिसूरोसहिसंघाउ जेम भुवणोवयारि जिण तुहुं मि तेम । सरु सिवि जो ण वि पियइ वारि तहु तण्हइ णिवडइ तिव्वमारि। जो रसइ तासु तिसणासु सज्जु सरवरहु ण एण ण तेण कन्जु । जिह गरुलमंतु गरलंतयारि तिह तुहुं वि सहावें दुरियहारि । अणवरउ भडारा भूयसामि जहिं तुम्हई तहिं हउं समउ जामि । जहिं तुहुं तहिं ससुरु समग्गु सग्गु जई हउं तहिं मणिमउ भूमिमग्रॅ । घत्ता-तहिं समवसरणि जंभारिकए परहियबुद्धिइ संचरइ ।।
सुरणरतिरियह सुहयरणु धम्मु भडारउ वजरइ ।।१।। All Mss. have, at the commencement of this Samdhi, the following stanza:
जगं रम्म हम्मं दीवंओ चंदबिंब धरती पल्लंको दो वि हत्था सुवत्था । पिया णिहा णिच्चं कव्वकीला विणोओ
अदीणत्तं वित्तं ईसरो पुप्फयंतो॥ MBP however read धरित्ती for धरत्ती; सुवत्थं for सुवत्था; and पुप्फदंतो for पुप्फयंतो in the above stanza. १. MB भवभवणरिण; P भवभमणरिण । २. MBP सिद्ध महामइ पढम जिण । ३. MBP पडिकलहं। ४.M इय। ५. Kणं तेण । ६. B तुम्हइंतहिं हउं सउं; P तुम्हइं हउं समउ । ७. MBP जहिं तुहँ तहिं; K जई हउँ but corrects it to जहिः ८. MBP add after this the following line : पई दिण्णाणइ वइसरमि जामि, तुह वयणामइ तित्ति ण जामि । ९. MBPT परिचितियसूवियारसह and gloss in T भव्यै श्चिन्तितार्थानां शोभनो विचारः सभायां यस्य, शोभनं विचारं वा सहते क्षमते यः स तथोक्तः, but P records in the margin ap परहियबुद्धिइ संचरइ । १०. MBP चउदेवणिकाहिं ( Mणिकायहं ) परियरिउ दिठ्ठ पह, but P records in the margin ap सुरणरतिरियहं सुहयरणु धम्म भडारउ वज्जरइ ।
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सन्धि १०
जन्म, भय और मरणके ऋणको समाप्त करनेवाले जिन परमेश्वरकी इन्द्रने स्तुति की"हे समवसरणसे घिरे हुए शान्त परमात्मा जिन मुझपर प्रसन्न हों। हे प्रभु, न तो तुम्हें वन्दनासे सन्तोष होता है, और न तुम निन्दासे मत्सर धारण करते हो; तब भी जो नत नहीं होते, या नत होते हैं, तुम उनके दुःखसमूह और सुख समूहका विस्तार करते हो। तुम कामको नष्ट करनेवाले वोतराग हो, तुम हिंसासे रहित परमधर्म हो। जो तुम्हारी सेवा करता है उसे सुख मिलता है, जो तुमसे प्रतिकूल है उसे दुःख होता है; परन्तु तुम दोनोंमें मध्यस्थभाव धारण करते हो, यह ऐसा स्पष्ट रूपसे वस्तुका स्वभाव है। अधिक पित्तवा
सूर्यको निन्दा की जाती है, वायुसे पीड़ितोंके द्वारा चन्द्रमाको निन्दा की जाती है। परन्तु वे दोनों (सूर्य-चन्द्र) इन लोगोंका क्या करते हैं, वे तो अपने स्वभावसे आकाशतलमें विचरण करते हैं। जिस प्रकार चन्द्रमा-सूर्य और औषधिका संघात संसारका उपकारी है, उसी प्रकार हे जिन तुम भी उपकारी हो। जो सरोवरको दोष लगाकर पानी नहीं पीता उसपर प्यासके मारे 'तीव्रमारि' आ पड़ती है। जो पानी पी लेता है, उसकी प्यासका शीघ्र नाश हो जाता है। सरोवरका न इससे प्रयोजन और न उससे प्रयोजन । जिस प्रकार गरुड़का मन्त्र विषका अन्त करनेवाला होता है, उसी प्रकार तुम भी स्वभावसे पापका हरण करनेवाले हो। हे अनवरत भूत स्वामी, जहां तुम वहाँ मैं भी साथ जाता हूँ ( जाऊँगा)। जहाँ तुम हो वहाँ देवों सहित समग्र स्वर्ग और मणिमय भूमिमार्ग हैं, वहीं मैं भी हूँ।"
पत्ता-इन्द्र द्वारा निर्मित उस समवसरणमें जिन भगवान् दूसरोंकी कल्याण कामनासे संचरण करते हैं और वे सुर-नर तथा तियंचोंका शुभ करनेका धर्म कहते हैं ॥१॥
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२२०
महापुराण
[१०.२.१
२
दुवई-आरूढो वरम्मि उवयद्दिसिरम्मि व हरिणलंछणो।
सोहइ सेंधुरारिवीढम्मि विहट्टियकम्मबंधणो ॥१॥ अइसय दह जाया सह भवेण चउवीस अवर णाणुब्भवेण । जगि अरहंतहु पर संभवंति जे ते एहा गणहर कहति । इंचयारि जाम
वित्थरइ.सुहिक्खु सुखेउ ताम । ण वि कासु वि प्राणिहि प्राणणासु गयणयलि गमणु परमेसरासु । गंउ भुत्ति पवत्तइ णोवसग्गु सरलक्खिपक्वपक्खेउ भग्गु । छाहियइ विवजिउ होइ गत्तु अवरु वि असेसु विजेसरत्तु । परिमिय थिय कररुह णील केस भूएस मेत्ति पिसुण वि ण वेस । भास वि णीसेससरीरिगम्म णाणाभासहिं परिणवइ रम्म । महु तित्त कडुय परिणइवसेहिं जलधारा इव बहुदुर्मरसेहिं । छक्कालसमयसंपयकरेण
महिरुह णमंति गुरुफलभरेण । आदसणसंणिह महि विहाइ परमाणंदें जणु जगि ण माइ । मंथरु सीयलु तरुसुरहिसारु जोयणपमाणु वियरइ समीरु । "अणुगच्छंतउ णाहहु सुहाइ पच्छइ लग्गउ घत्ता-जल"दुधु वहति तरंगिणिउ सामिउ विहरइ जहिं जि जहिं ॥
तणे कंटय कीडय पत्थर वि धूलि पणासइ तहिं जि तहिं ॥२॥
इ।
दुवई-सुरवइपेसणेण परिमलमिलियालिकुलेहिं माणियं ।
थणियकुमार मेह वरिसंति महावरगंधवाणियं ॥१॥ पहुअग्गइ पच्छइ परिघुलंति णलिणाई सत्त सत्त जि चलंति । जहिं देइ पाउ तहिं कणयकमलु सुरसंजोइउ संचरइ विमलु । एवड्डु पहुत्तणु भुवणि कासु हरि कुलिसधारि घरि जोसु दासु । अट्ठारह वरधण्णइंधरंति
रोमंचिय पञ्चइ णं धरित्ति । णहु सदिसु वि रेहइ मलविहीणु धोयंबणीलमाणिकभाणु। दिव्वझुणि पवियंभइ पवित्ति वसुसमसहासधणुमाणछेत्ति । जक्खिदसिरारूढउ विचित्तु रयणाररत्तु रविबिंबु दित्तु । लीलासंबोहियभवचक्कु
तह अंग्गग्गइ गच्छइ धम्मचक्क । जो पेच्छइ दूरहु माणु खंभु तहु विहडइ माणकसायडंभु । णिज्जियबहुसमयणयंतराई
परवाइ वि दति ण उत्तराई। २. १. MBP सिंधुरारि । २ B णाणुब्भरेण । ३ L°चयारि सयाई । ४. MBP सुभिक्खु । ५. MBP
पाणिहि पाण। ६. M ण व। ७. MBP विक्खेउ । ८. MBPT असेस । ९. P°दुमसरेहिं ।
१०. MBP अणुगच्छंतहु। ११. MB जलु दुर्छ । १२. B तिण । ३. १. P वरिसंत । २. MBP महारवं । ३ P संचलइ । ४. B एवड्डे । ५. MBP कासु । ६. MBP . रयणारादंतुरदिव्वदित्तु । ७. MB चक्खु । ८. MBP अग्गइ । ९ MB माणखंभु ।
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१०. ३. १२]
हिन्दी अनुवाद
२२१
श्रेष्ठ सिंहासनकी पीठपर विराजमान, कर्मबन्धनका नाश करनेवाले जिन ऐसे शोभित हैं जैसे उत्तम उदयाचलके शिखरके ऊपर चन्द्रमा हो । जन्मके साथ उनके दस अतिशय हुए थे ज्ञानके उत्पन्न होनेसे चौबीस और अतिशय उत्पन्न हो गये। जगमें जो केवल अरहन्तोंके होते हैं, उन्हें ( अतिशयोंको) गणधर इस प्रकार कहते हैं-'जहाँ तक चार सौ कोश होते हैं, वहाँ तक सुभिक्ष और सुक्षेत्र रहता है। किसी भी प्राणीका प्राणनाश नहीं होता। परमेश्वरका आकाशमें गमन होता है, न उनमें भुक्तिकी प्रवृत्ति होती है, और न उनपर उपसर्ग होता है; उनकी सरल आँखोंके पलक नहीं झपते । उनका शरीर छायासे रहित है, उनके पास समस्त विद्याओंका ऐश्वर्य होता है, उनकी अंगुलियां सीमित रहती हैं। वाल नीले, प्राणियोंके प्रति मैत्रीभाव, दुष्टोंके प्रति द्वेषभाव नहीं । समस्त शरीरसे निकलती हुई सुन्दर भाषा, जो नाना भापाओंमें परिणत हो जाती है, उसी प्रकार, जिस प्रकार जलकी धारा परिणमनके वशसे नाना वृक्षोंके द्वारा मीठी, कड़वी और तीखी हो जाती है । छहों ऋतुओंमें समृद्ध करनेवाले वृक्ष फलोंके भारसे धरतीपर झुक जाते हैं। धरती दर्पणके समान दिखाई देती है। परम आनन्दसे लोग जगमें नहीं समाते। मन्थर शीतल वृक्षोंको सुगन्धका जिसमें सार है ऐसी हवा एक योजन तक बहती है, स्वामीके पीछे जातो हुई ऐसी शोभित होती है, मानो स्नेहसे उनके पीछे लग गयी हो।
पत्ता-नदियां जलरूपी दूध प्रवाहित करती हैं। जहां-जहां स्वामी विहार करते हैं, वहाँ-वहां की तृण, काँटे, कीड़े और पत्थर तथा धूल नष्ट हो जाती है ।।२।।
इन्द्रके आदेशसे स्तनितकुमार मेघ, परिमलसे मिले हुए भ्रमरकूलोंसे सम्मानित उत्तम गन्धवाला जल बरसाते हैं ।।१॥ प्रभुके आगे-पीछे शोभित होते हुए सात-सात कमल चलते हैं। वह जहाँ पैर रखते हैं वहां देवोंके द्वारा संयोजित विमल स्वर्णकमल चलता है। भुवनमें इतनी बड़ी प्रभुता किसकी कि जिसके घरमें वज्र धारण करनेवाला इन्द्र दास है। धरती अट्ठारह श्रेष्ठ धान्योंको धारण करती है, मानो रोमांचित होकर नाच रही हो। मल विहीन आकाश भी दिशाओं सहित इस प्रकार शोभित है जैसे पानीसे धोया गया नीलम और माणिक्योंका पात्र हो। पवित्र दिव्यध्वनि प्रवर्तित होती है, जो आठ हजार धनुष बराबर मानवाले क्षेत्रमें प्रसारित होती है। यक्षेन्द्रके सिरपर स्थित विचित्र रत्नोंकी आराओंसे लाल, सूर्यके बिम्बके समान, तथा लीलासे भव्य जन-समूहको सम्बोधित करनेवाला धर्मचक्र उनके आगे-आगे चलता है। जो दूरसे भी मानस्तम्भको देख लेता है उसके मानकषायका दम्भ नष्ट हो जाता है। जिसमें अनेक मतोंक
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२२२
[१०.३.१३
महापुराण पडिहाहय 'भइयइ थरहरंति अविहंडिउ मोणव्वउ वहति । १ अवियारु पहादूसियछणिंदु दीसइ चउदिसहिं मुहारविंदु । बारहकोडेसु वि जे वसंति ते ते मुहं महु संमुहु भणंति । घत्ता-मउलियकराउ" पणवियसिरउ सच्छउ गव्वविमुक्कियउ ।
परिवाडिइ कोट्ठि णिविट्ठियउ' तहिं पयाउ हयदुक्कियउ ॥३॥
दुवई-गणहर कप्पवासिसुरमणिउ अज्जियसंघे गइरई ।
देविउ वणणिवासदेवाण वि भावणतरुणिसंतई ।।१।। पुणु दह कुमार वेंतरसुरिंद पुणु जोइस कप्पामर णरिंद । पुणु तिरिय वियडदाढाकराल केसरि कुंजर सदूल कोल । बैंइसति गणेसाइ व कमेण जिणभत्तिवंत भूसिय समेण । णव णव पंचविहहिं रूढएहिं सव्वहिं सविमाणारूढएहिं । सीहासणु मेल्लिवि खइयभाउ अहमिंदहिं थुउ विद्धत्थराउ । जसरवितोसियजगपंकएहिं उग्घोसियकुलणामंकरहिं । मउडावलिचुंबियमहियलेहिं घोलंतकुसुममालाचलेहि। उवगीईगाहाखंधएहिं
उच्चारियललियथुईसएहिं संथुउ सोहम्मीसाणएहिं
अवरेहि मि तियसपहाणएहिं । घत्ता-जय दुम्महवम्महणिम्महण दोसरोसपसुपाससिहि ।
जय सयलविमलकेवलणिलय हरणकरणउद्धरणविहि ।।४।।
दुवई-जय कंकालसूलणरकंदलविसहरविलयविरहिया।
जय भगवंत संत सिव सकिव णिवंचियचरण परहिया ॥१॥ जय सुकेइकहियणीसेसणाम भीमंथण णियरिउवग्गभीम । वामाविमुक्क संसारवाम
जय तिउरहारि हर हीरधाम । जय पयडियधुयससंयंभुभाव जय जय सयंभु परिगणियभाव । जय संकर संकर विहियसंति जय ससहर कुवलयदिण्णकति । जय रुद्द रउद्दतवग्गगामि
जय जय भवसामि भवोवसामि । महएव महागुणगणसाल महकाल पलयकालुग्गकाल । १०. MBP पडिभा'; T परिहा and gloss प्रतिभा । ११. B भइए। १२. MB अवियारपहा; B अविहारपिया । १३. MBP महु महु संमुहु । १४. MBP °करउ । १५. BP सव्वउ । १६. MP
परिवारिए । १७. MB णिविट्ठउ । ४. १. MBPK °संघु । २. MBP फुरिय । ३. M वइसंत । ४. MBP गणेसाइय । ५. M संथुउ ।
६. P°णामंकिएहि । ५. १. MBP वलयं । २. P सुकयं । ३. MBT हीरवाय and gloss in T धीरप्रसन्न, अथवा हीरो
रत्नविशेषस्तद्वन्मनोज्ञ । ४. MBP °ससइं । ५. B परिगलियं । ६. P गणविसाल ।
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१०.५.८] हिन्दी अनुवाद
२२३ तर्कोको जीत लिया गया है ऐसे उत्तर परवादी भी नहीं देते। प्रतिभासे आहत वे भयसे कांप उठते हैं और अखण्ड मौन धारण करते हैं । अविकारी, अपनी प्रभासे पूर्ण चन्द्रको फोका करनेवाला उनका मुखकमल चारों दिशाओंमें दिखाई देता है । बारह कोठोंमें जो बैठते हैं वे कहते हैं कि मुख मेरे सामने है।
__घत्ता-हाथ जोड़े हुए प्रणत सिर गर्वसे रहित स्वच्छ, नष्ट हो गये हैं पाप जिसके, ऐसी प्रजा परम्पराके अनुसार कोठेमें बैठ गयी ॥३॥
गणधर कल्पवासी देवोंकी स्त्रियाँ । आर्यिका संघ, ज्योतिष्क देवोंकी स्त्रियां; व्यन्तरदेवोंकी स्त्रियां, और भवनवासी देवोंकी देवियोंकी पंक्ति । फिर दस कुमार, फिर व्यन्तरेन्द्र । फिर ज्योतिषदेव, कल्पवासी देव और नरेन्द्र । फिर तिर्यंच । विकट दाढ़ोंसे विकराल सिंह, गज, शार्दूल, कोल और गणधर आदि क्रमसे बैठते हैं, जिनभक्तिसे भरित और श्रमसे भूषित । नव-नव पांच प्रकारसे प्रसिद्ध अपने-अपने विमानोंमें बैठे हुए अहमिन्द्रोंने रागको ध्वस्त करनेवाले सिंहासन छोड़कर जिनेन्द्र भगवान्की स्तुति की। अपने यशरूपी सूर्यसे विश्वरूपी कमलको खिलाते हुए, अपने कुलका नाम और चिह्न बताते हुए, मुकुटोंकी कतारोंसे महोतलको चूमते हुए, पुष्पोंकी चंचल मालाएं हिलाते हुए, गाथा और स्कन्धक गाते हुए, सैकड़ों सुन्दर स्तुतियोंका उच्चारण करते हुए सौधर्म और ईशान इन्द्रों तथा दूसरे देवप्रमुखोंके द्वारा उनको स्तुति की गयी।
पत्ता-दुर्मद कामदेवको जीतनेवाले दोष और क्रोधरूपी पशुपाशके लिए अग्निके समान समस्त विमल केवलज्ञानके घर और मिथ्यादर्शनादिका अपहरण और सम्यक् दर्शनादिका उद्धार करनेवाले हे विधाता आपकी जय हो ॥४॥
कंकाल, त्रिशूल, मनुष्यकपाल, सांप और स्त्रीसे रहित, आपकी जय हो। हे भगवान्, सन्त, शिव, कृपावान्, मनुष्योंके द्वारा वन्दित चरण और दूसरोंका भला करनेवाले आपकी जय हो। सुकवियोंके द्वारा कथित अशेष नामवाले, भयको दूर करनेवाले, अपने अन्तरंग शत्रुओंके लिए भयंकर आपकी जय हो । स्त्रीसे विमुक्त संसारके लिए प्रतिकूल त्रिपुर ( जन्म, जरा और मरण ) का अपहरण करनेवाले, धैर्यके धाम हे हर आपकी जय हो। शाश्वत स्वयम्भूभावको प्रकट करनेवाले और पदार्थों के ज्ञाता आपकी जय हो; शान्तिके विधाता और सुखकर आपकी जय हो, कुवलय ( पृथ्वीमण्डल, कुमुदमण्डल) को कान्ति प्रदान करनेवाले आपको जय हो। उग्रतपके लिए अग्रगामी आपकी जय हो, हे भवस्वामी और जन्मको शान्त करनेवाले आपकी जय हो। महान् गुणसमूहके आश्रय हे महादेव, आपकी जय हो। प्रलयकालके लिए उनकाल महाकाल आपकी
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२२४
महापुराण
[१०.५.९
जय जय गणेस गणवइजणेर जय बंभ पसाहियबंभचेर । वेयंगवाइ जय कमलजोणि आईवराह उद्धरियखोणि । सहिरण्णविहिपडिवण्णगब्भ जय दुग्णयणिहणण हिरण्णगब्भ । जय परमाणंतचउक्कसोह
भावंर्धयारहर दिवसणाह । जय जण्णपुरिस पसुजण्णणासि । रिसिसंसहिंसाधम्मभासि । जय माहव तिहुवणमाहवेस महुसूयण दूसियमहुविसेस । जय लोयणिओइय परमहंस गोवद्धण केसव परमहंस । जगि सो केसउ जो रायवंतु तुह णीरायहु कहिं केसवत्तु । के सव ते सव जे पई हसंति जड पावपिंड रउरवि वसंति । जय कासव का सवविहि तुमम्मि णेरंतर चितिं णिरोहु जम्मि । घत्ता-जय गयण हुयासण चंद रवि जीवय महि मारुय सलिल ।
अटुंगमहेसर जय सयल पक्खालियकलिमलकलिल ।।५।।
दुवई-जय जय सिद्ध बुद्ध सुद्धोयणि सुगय कुमग्गणासणा ।
__ जय वइकुंठ विट्ठ दामोयर हयपरवाइवासणा ॥१॥ णामाई पसिद्धई जाई जाँई तुह देव अवंझई ताई ताई। इंदें चंदें उरयाहिवेण
तुह णामहु लक्खिउ छेउ केण । मइविहवविहीणहिं आरिसेहिं . कि थुव्वसि तुहुं अम्हारिसेहिं । तोवेत्तहिं पैउरजसालएहिं
कंचुइधम्माउहवालएहिं । एक्कहिं खणि भरहहु कहिय वत्त मुंजहि महि महिवइ एक्कछत्त । सयरायरवत्थुवियप्पजाणु परमेट्ठिहि अचलु अणंतु णाणु । राणियहि पुत्तु पप्फुल्लवयणु आउहालहि वरचक्करयणु । उप्पण्णु भडारा पुण्णवंतु
तुहुं जासु जणणु अरहंतु संतु । ता राएं अवरेहिं मिणरेहिं पणविउ जिणवरु सिरकयकरेहिं । पुणु चिंतिउ कि जोयमि रहंगु किं तणयतों९ दरियारिभंगु । मज्झत्थु सच्छु णिम्मुक्कसंगु किं वंदमि मुणि सुद्धंतरंगु । धम्मेण सुरत्तु कलत्तु पुत्तु
पहरणु वि होइ णिहलियसत्तु । धम्में संपज्जइ पुह विरज्ज । करणिज्ज पहिल्लउं धम्मकज्जु । गंभीरणायणिम्म हियवेरि
देवाविव लहु आणंदभेरि। घत्ता-मायंगतुरंगहि णरवरहिं रहधयचमरहिं परियरिउ ॥
वेयालियकयकलयलमुहलु भर्रहणराहिवु णीसरिउ ॥६॥ ७. M पाबंधपारहर; BP पाबंधयारहर । ८. M रिससंस अहिंसा; BP रिसिसंस अहिंसा ।
९. MBP चित्तणिरोह । १०. MBP जीव मही।। ६. १. MBP मई विभव । २. MBP ता एत्तहिं । ३. P पवर । ४. MB°बालएहिं; P°पालएहिं ।
५. MBP एयछत्त । ६. MBP सालइ। ७. MBP तुंडु। ८. MP भरहु णराहिउ; B भरहणराहिउ।
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१०.६.२० ]
हिन्दी अनुवाद
२२५
जय हो । गणपतियों (गणधरों ) को जन्म देनेवाले आपकी जय हो, ब्रह्मचर्यकी साधना करनेवाले ब्रह्म आपकी जय हो । सिद्धान्तवादी ब्रह्मा, धरतीका उद्धार करनेवाले आदिवराह, जिनके गर्भके समय स्वर्णवृष्टि हुई है, ऐसे तथा दुर्नयका हनन करनेवाले हे हिरण्यगर्भं, आपकी जय हो । चार परम अनन्त चतुष्टयोंको शोभावाले अज्ञानका अपहरण करनेवाले हे सूर्य, आपकी जय हो । पशुयज्ञोंका नाश करनेवाले, ऋषियोंके द्वारा प्रशंसनीय, अहिंसाधर्मंका कथन करनेवाले यज्ञपुरुष ! आपकी जय हो । त्रिभुवनके माधवेश, माधव और मधुविशेषको दूषित करनेवाले मधुसूदन ! आपकी जय हो । लोकका नियोजन करनेवाले परमहंस, गोवर्द्धन, केशव और परमहंस आपकी जय हो । विश्व में वह केशव है जो रागवाला है, तुम विरागीके केशवत्व कैसे हो सकता है ? विश्व में शव कौन है, शव वे हैं जो तुम्हारा उपहास करते हैं । जो जड़ और पापशरीर हैं वे रौरव नरकमें रहते हैं । हे कासव ! तुम्हारी जय हो, तुममें मृतकका आचार ( शवविधि ) कैसा ? जिसके चित्तमें निरन्तर निरोध है |
घत्ता - हे गगन, अग्नि, चन्द्र, रवि, मेघ, मही, मारुत, सलिल आपकी जय हो । सबके कलियुग मल और पापको प्रक्षालित करनेवाले अष्टांग महेश्वर, आपकी जय हो ||५||
६
शुद्ध, बुद्ध, शुद्धोदन, सुगत और कुमार्गका नाश करनेवाले आपकी जय हो । वैकुण्ठ, विष्णु, दामोदर, परवादियों के संस्कारोंको नष्ट करनेवाले आपकी जय हो । हे देव, आपके जो-जो नाम हैं वे सब सफल नाम हैं । इन्द्र, चन्द्र और शेषनाग किसने तुम्हारे नामोंका अन्त पाया ? मति वैभवसे रहित और अव्युत्पन्न हम जैसे लोगोंके द्वारा तुम्हारी स्तुति कैसे हो सकती है ? तब कंचुकीधर्मं और आयुधों के रक्षकोंने एक ही क्षणमें भरतसे यह बात कही, "हे राजन्, आप एकछत्र धरतीका उपभोग करें । परमेष्ठी ऋषभको सचराचर पदार्थोंको जाननेवाला अनन्त केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है। रानीको खिले हुए मुखवाला पुत्र हुआ है, और आयुधशालामें श्रेष्ठ चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है । हे आदरणीय, आप पुण्यवान् हैं जिसके पिता अरहन्त सन्त हैं ।" तब राजा भरत और दूसरे मनुष्योंने अपने सिरोंसे हाथ लगाते हुए जिनवरको प्रणाम किया । फिर उसने सोचा, कि पहले मैं क्या देखूं - दृप्त शत्रुओं का नाश करनेवाला चक्र देखूं या पुत्रका मुख । या मध्यस्थ स्वच्छ परिग्रहशून्य शुद्ध - अन्तरंग मुनिको वन्दना करूँ । धर्मसे ही देवत्व, कलत्र, पुत्र और शत्रुओं का नाश करनेवाला अस्त्र उत्पन्न होता है । धर्मसे ही पृथ्वीका राज्य होता है । इसलिए पहले धर्मकार्यं करना चाहिए । तब उसने गम्भीर नादसे शत्रुओंका संहार करनेवाली आनन्दभेरी बजवा दी । . घत्ता — गज, तुरंगों, नरवरों, रथध्वज और चमरोंसे घिरा हुआ, और वैतालिकोंके द्वारा किये गये कलकलसे मुखर राजा भरत चला ||६||
२९
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२२६
महापुराण
[१०.७.१
दुवई-पत्तो समवसरणमहहरणं खयकालवारणं ।
मयराणणविणित्तमुत्ताहलमालालुलियतोरणं ॥१॥ हरिणाहिवासणासीणगत्तु तिउणियससिसमसेयायवत्तु । पउलोमीपियसेविजमाणु
चउसहिचमरविजिजमाणु । जिणणाहु दिठु भरहेस रेण णं णेसरु णवपंकयसरेण । णं मत्तमऊरें वारिवाहु
णं वाइएण रससिद्धिलाहु । णं सिद्धे संभावियउ मोक्खु णं हंसें माणसु जणियसोक्खु । कंपावियदिञ्चक्काहिवेण
पारधु थुणहुं चक्काहि वेण। जय मुवणभवणतिमिरहरदीव जय सुइसंबोहियभव्वजीव । जय भासियएयाणेयभेय
जय णग्ग णिरंजण णिरुवमेय । सकयत्थई कमकमलाई ताई तुह तित्थु पसत्थु गयाइं जाई । णयणाई ताई दिट्ठो सि.जेहिं सो कंठु जेण गायउ सरेहिं । ते धण्ण कण्ण जे पइं सुगंति ते कर जे तुहँ पेसणु करंति । ते णाणवंत जे पई मुणंति
ते सुकइ सुयण जे पई थुणंति । तं कव्वु देव जं तुज्झु रइउ
सा जीह जाइ तुह जाउं लइउ । तं मणु जं तुह पयपोमलीणु तं धणु जं तुह पूयाइ खीणु । तं सीसु जेण तुहं पणविओ सि ते जोइ जेहिं तुहुँ झाइओ सि । तं मुहूं जं तुह संमुहउं थाइ विवरंमुहं कुच्छियगुरुहुँ जाइ । 'तेल्लोकताय तुहुं मझु ताउ धण्णेहिं कहिं मि कह कह व णाउ । णिट्ठवियदुद्रुकम्मट्ठ सिट्ठ
दुट्ठोवसग्गणिहणेक्कणिट्ठ। घत्ता-पंचाणणकुंजरजलजलणविसविसहरसँयपयजुयणियेला ॥
पई संभरिएण जि परमजिण उवसमंति कयकलह "खला ॥७॥
१५
दुवई-जय वइसमणचमरवेरोयेणअसुरामरपसंसिया।
सुरगुरुसुक्कसवुहअंगारयगहणहयरणमंसिया ॥१॥ चरणइं तेरहगइभाविराई
णयणाई पंच पहदाविराई। एयारह सिंगई उण्णयाई
उज्झियइं तिणि किर णिण्णयाई। सीसाइं पंच अह भणमि एक्कु चउहुं मि परियरियउ तं जि थक्कु । वारह चोदह ढेक्कारियाई
विउसवियारियाई। रोमहं चउरासीलक्ख जासु दुग्गोवइकुल संजणिय तासु । ७. १. MBP °सरणं असुहहरणं; KT °सरणमसुहरसरण । २. B °विलित्त । ३. BK °ललियं ।
४. M तुव । ५. MBP णामु । ६. MBP तइलोक्क । ७. BPKT °कट्टकम्मट्ट । ८. MB°विसह
रपय: T रुय रोगाः । ९. MBPK°णियल । १०. MBPK खल । ८. १. MBP वइसवणं । २. MBP रइरोयण; K वैरोयण । ३. MB परियरिउ । ४. MPK चउदह ।
५. MBP अंगाई।
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१०.८.७]
हिन्दी अनुवाद
२२७
वह क्षयकालका निवारण करनेवाले और अशुभका हरण करनेवाले तथा जिसमें मगरके मुखकी आकृतिसे निकले हुए मोतियोंकी मालासे चंचल तोरण हैं, ऐसे समवसरणमें पहुंचा। सिंहासनपर आसीन शरीर, चन्द्रमाकी तिगुनी सफेदीके समान आतपत्र (छत्र) वाले, इन्द्रके द्वारा सेवित, जिनके ऊपर चौंसठ चमर ढोरे जा रहे हैं, ऐसे जिननाथको भरतेश्वरने इस प्रकार देखा मानो नवकमलवाले सरोवरने सूर्यको देखा हो। मानो मतवाले मयूरने मेघको, मानो रसायन निर्माताने रसके सिद्धिलाभको, मानो सिद्धने सम्भावित मोक्षको, मानो हंसने सुख देनेवाले मानससरोवरको । दिशाओंके लोकपालोंको कपानेवाले चक्राधिप भरतने स्तुति प्रारम्भ की, "विश्वरूपी भवनके अन्धकारके दीप, आपको जय हो, आगमसे भव्य जीवोंको सम्बोधित करनेवाले आपकी जय हो। एकानेक भेदोंको बतानेवाले आपकी जय हो। हे दिगम्बर, निरंजन और अनुपमेय आपकी जय हो। वे चरणकमल कृतार्थ हो गये जो तुम्हारे प्रशस्त तीर्थके लिए गये। वे नेत्र कृतार्थ हैं, जिन्होंने तुम्हें देखा. वह कण्ठ सफल हो गया. जिसने स्वरोंसे तम्हारा गान किया। हैं जो तुम्हें सुनते हैं, वे हाथ कृतार्थ हैं जो तुम्हारी सेवा करते हैं। वे ज्ञानी हैं जो आपका चिन्तन करते हैं, वे सज्जन और सुकवि हैं जो तुम्हारो स्तुति करते हैं। हे देव, वह काव्य है, जो तुममें अनुरक्त है । जीभ वह है जिसने तुम्हारा नाम लिया है। वह मन है जो तुम्हारे चरण-कमलोंमें लीन है। वह धन है जो तुम्हारी पूजामें समाप्त होता है, वह सिर है जिसने तुम्हें प्रणाम किया है । योगी वे हैं जिनके द्वारा तुम्हारा ध्यान किया गया। वह मुख है जो तुम्हारे सम्मुख स्थित है। जो विपरीत मुख हैं वे कुगुरुओंके पास जाते हैं। हे त्रैलोक्य पिता, तुम मेरे पिता हो। धन्योंके द्वारा तुम किसी प्रकार ज्ञात हो ? दृष्ट आठ कर्मों का नाश करनेवाले तथा दृष्ट उपसर्गोंको नाश करने में एकनिष्ठ हे श्रेष्ठ परम जिन
घत्ता-सिंह, गज, जल, अग्नि, विष, विषधर, रोग, बेड़ियां और कलह करनेवाले दुष्ट तुम्हारी याद करनेसे शान्त हो जाते हैं ।।७।।
N
. कुबेर, असुरेन्द्र, असुर और अमरोंसे प्रशंसित, बृहस्पति, शुक्र, बुध, मंगल आदि ग्रहों और नभचरों द्वारा प्रणम्य आपकी जय हो । तेरहगति भावनाएं ( पाँच महाव्रत, पांच समितियां और तीन गुप्तियां ) जिसके चरण हैं, प्रभासे दीप्त पांच ज्ञान जिसके नेत्र हैं, सम्यक्त्वादि ग्यारह गुणस्थान जिसके सींग हैं, तीन शल्य, जिसके ( मिथ्या दर्शन ज्ञान और चारित्र ) स्कन्ध कुटी और मस्तक हैं, पांच महाव्रत अथवा एक अहिंसाव्रत जिसका सिर है, चारों ओरसे घिरा हुआ जो वहीं स्थित है, बारह अंग और चौदह पूर्व, जिसका ढेक्कार शब्द है, विद्वानोंके द्वारा विचारित, उत्तम
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१०
१०
१५
२२८
महापुराण
जो कामधेणु सेवि सुधामु दुद्धरवयभारधुरग्गु धरिवि पित्थरिवि पराइड णाणतीरु जें लंघिउ भवदुष्पहु दुलंघु तहु सहहु कयपणिवांउ भाउ घत्ता - कयपंजलियरु पणमंतसिरु भत्तिहरिसवियसियवयणु । संसारदुक्खणि०वेइयउ जोयेवि मिलियड भव्वयणु ||८||
जें तोडिवि घल्लि मोहदामु । अपवत्तियतित्थवद्देण चरिवि । Water असोयहु मूलि धीरु जो धवल धवलवृंद महग्घु नियणिलइ णिसण्णउ भरहराउ ।
जं
सभेवाभव जीव दुभेय होंति चरासीजोणिहिं परिभमंति वियलिंदिय सयलिंदिय अणेय आहारसरीरिंदियमणाहं कारणु निव्वत्तणसमत्थु तं छव्विहु परमेसें उत्तु जिह णारएस तिह सुरवरेसु परमें तितीस सायरसमाई एइदिए चत्तारि होंति ता जाम असण्णिड पंचकरणु एयहिं जे पज्जप्पंति णेय पैज्जप्पंतहु लग्गइ खणालु घत्ता - ओरालिउ तिरियहुं माणवहुं
९
दुवई - ताणिग्गंतधीर दिव्व झुणितोसियफणिणरामरो । जीवाजीवणामकयभेयइं तचई कहइ जिणवरो ॥१॥ ते सभव सकम्में परिणमति । euror देहराएं रमंति । एक्विंदिय भासिय पंचभेय । आणाभासापरमाणुयाहं । तं पज्जत्ति त्ति भणति एत्थु । अहमेण ठाइ अंतोमुहुत्तु । दसैवरिससहास वसइ तेसु । मणुसु तिणि पलिओ माई । वियलिदिए पंच जि कहति । सणिउ पज्जत्तीछक्कधरणु । ते जंति अपज्जत्ता अणेय । जगि सव्वहु भिण्णमुहुत्तु कालु । सुरणारयहुं विउँवियर ।
आहारअंग का वि मुणिहि कम्मु तेउ सयलहं वि थियउ ||९||
१०
दुवई - तिरिय हवंति दुविह तस थावर थावर पंचभेयया । हवी आउ ते वाऊ वि य बहुविह हरियकायया ॥ १ ॥ मसुरिय कुसजल सूई कलाव परिधाविरधयसंठाण भाव । तोरणतरुवेइयगिरियलेसु सुरहरवसुसंखामहियलेसु ।
§. MB °
दुप्पउ । ७. M धवलचंदहु; B धवलवंदहु; P धवलविदहु and gloss समूहस्य | ८. MBPK कयपणिवायभाउ । ९. MB जाएवि ।
९.
१. B° तासि । २. M भव वाभव । ३. MBP परिणवंति । ४ MBP चउरासिलक्खजोणिहिं भमंति । ५. BP दहवरिसं । ६. MBP पज्जत्तहु लग्गइ इय खणालु । ७. MBP विउव्बिउ । ८. MBP थिउ ।
१०. १. K पुहई ।
[ १०.८.८
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१०. १०.४]
हिन्दी अनुवाद
२२९
क्षमादि जिसके अंग हैं। चौरासी लाख योनियाँ जिसके रोम हैं ऐसे उसके लिए दुष्ट गोपति समूह उत्पन्न हो गया । जो कामधेनु है, जिसने सुधामकी सेवा की है, जिसने मोहरूपी रस्सी तोड़कर फेंक दी है । और जो दुर्धर व्रतभारके घुराग्रको धारण कर, जो प्रवर्तित नहीं हुआ ऐसे तीर्थं पथपर चलकर और पार कर ज्ञानके तीरपर पहुँचा है, और जो धीर अशोक वृक्षके नीचे विश्राम कर रहा है, जिसने संसारके अलंघ्य पथको पार कर लिया है, जो धवल, धवलसमूहमें महाआदरणीय है उसके प्रति प्रणतभाव प्रदर्शित करते हुए भरतराज अपने कोठेमें बैठ गया ।
घत्ता - हाथोंकी अंजली जोड़ते हुए, सिरसे प्रणाम करते हुए तथा भक्ति और हर्षसे प्रफुल्लमुख भरत संसार दुःखसे विरक्त भव्य जनोंको देखकर उनमें जा मिला ||८||
९
1
तब निकलती हुई धीर दिव्य ध्वनिसे नाग, नर, अमरको सन्तुष्ट करनेवाले जिनवर जीव अजीव नामसे भेदवाले तत्वोंका कथन करते हैं-सभव और अभव ( जन्मा और अजन्मा ) दो प्रकार होते हैं । इनमें सभी जीव अपने कर्मके अनुसार परिणमन करते हैं। चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करते हैं। एक दूसरेके शरीरसे अनुराग करते हैं । विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय अनेक होते हैं । एकेन्द्रियके पांच भेद होते हैं, जो कारण रचना करनेमें समर्थ होता है उसे पर्याप्त कहते हैं । परमेश्वर जिनने उसे छह प्रकारका कहा है । पर्याप्तिके पूर्व होनेका काल एक अन्तर्मुहूर्त है । जिस प्रकार नारकियोंमें उसी प्रकार देवों में ( जघन्य आयुके रूपमें ) जीव दस हजार वर्षं जीवित रहता है। उत्कृष्ट आयु तैंतीस सागर प्रमाण है और मनुष्योंमें तीन पल्य बराबर आयु होती है । एकेन्द्रिय जीवोंके चार पर्याप्तियां हैं ओर विकलेन्द्रिय जीवोंके पांच इन्द्रियाँ कही जाती हैं । असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके पाँच पर्याप्तियां होती हैं और संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके छह । और इनके द्वारा जिनका कथन नहीं होता, वे अपर्याप्तक जीवके रूपमें जाने जाते हैं । पर्याप्तक जीवके लिए एक क्षणका समय लगता है । विश्व में सभी पर्याप्तियोंमें एक अन्तर्मुहूर्तं काल लगता है ।
धत्ता-तियंच और मनुष्योंका औदारिक शरीर होता है, देव और नारकीयोंका वैक्रियक शरीर । आहारक शरीर, तेजस ओर कार्मण शरीर सभीके होते हैं ||९||
१०
तियंच दो प्रकार के होते हैं- - त्रस और स्थावर । स्थावर पाँच प्रकारके होते हैं- पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक । जो क्रमशः मसूर, जलकी बूँद, सूइयों का समूह और उड़ती हुई ध्वजके आकारके होते हैं। तोरण, वृक्षवेदिका,
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१०
१०
१५
२३०
महापुराण
णाणाविहसीयर सरिसरेसु अवरेसु वि बहुछेत्तंतरेसु अइसरसरसातोयासएसु खरज णि ण भिज्जइ वालुयाइ दुवि वि मट्टिय कर पंचवण्ण घसा - कसिणारुण हरिय सुपीयलिय पंडुर अवर विधूसरिय । ही महिकाहुं मय महि पंचवण्ण मई वज्जरिये ॥१०॥
पणार जिणभैवभूयलेसु । बंतपरिट्ठियणहयलेसु । या कमेण जि होइ वासु । सही सिंचि खणि बंधु लेइ । जइ होइ होउ संकिण्ण अण्ण ।
११
दुवई - कंचण तेय तंब मणि रूप्पय खरपुहई पयासिया । वारुणिखीर खारघयमहुसम जलजाई वि भासिया ||१|| दूर दरिसावियधूममलिणु असी तडि रवि मणि जोई जलणु । उक्कलि मंडल गुंजाणणाउ दिसविदिसाभेएं भिण्णुं वाउ । गुच्छे गुल्ल पव्वे रुक्खसाहाघणेसु । " सुपसिद्धु वणासइकाउ एसु उप्पज्जइ जई घोसइ जईसु । पज्जत्तेयर सुहुमेरा वि दुमसाहारण पत्तेय के वि । साहारणाहं साहारणाई आणापाणई आहारणाई । पत्तेयहुं पत्तेयई गँयाई छिंदणदिणणिणं गयाई । बारहसहाससंवच्छराहुं सुहुमाहुं दह जि दह दो खराहुं । आउहि परमाउसु सत्त झुणइ अहरत्तई चिञ्चिहि तिण्णि भणइ । तइयद्दसहासई गंधवाहु दह सहसाईं जि वणसइसमूहु । परमेण जि अइअवरेण उत्तु सव्वहं जीवि अंतोमुहुत्त । दोहि कुक्ख किमि खुब्भ संख वीइंदिय" मई भासिय असंख । तीइंदिय" गोभिपिपीलियाई चउरिंदिय मच्छियमहुयराई |
घत्ता - परिवाडिए किं पि णाणभवणु एयहं जुत्तिइ सावडइ | सुगंधु णु फास उवरि एकेकडं इंदिउ चडइ ॥११॥
१२
दुवई - पज्जत्ती पंच कमसंठिय छह सत्तट्ठ प्राणया । तेसिं होंति एम पभणंति महामुणि विमलणाणया ||१||
[ १०.१०.५
२. MBP सायरौं । ३. MBP जिणवरमहियलेसु । ४. MB सित्तिय; P सेंचिय । ५. MBP कसणारुण । ६. P महिकाहुं जीवहु मउय मही ।
११. १. MBP तजय । २. MB मणिजाइ । ३. MBP दिसि
४. M दिण्णु; P भिण्णवाउ । ५. M सुवसिद्ध; BP सुपसिद्ध । ६. M जिइ; P जिउ । ७. MBPT पत्तेयंगयाई । ८. MBP णिहण | ९. M रुंदाहि सुक्ख; रुंदाहि कुक्लि; T तुंदाहि गण्डूपद । १०. MBP बेइंदिय । ११. MBP तेइंदिय ।
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१०. १२.२] हिन्दी अनुवाद
२३१ गिरितल देव, विमान आठ प्रकारको भूमियोंमें नाना प्रकारके समुद्रों, नदियों, सरोवरों, जिनवर-भूमियोंमें और भी दूसरे-दूसरे क्षेत्रोंमें लोकान्त तक स्थित आकाशतलमें, अति सरस रस और जलके आशयोंमें इनका एक क्रमसे निवास होता है। बालुका ( रेत ) खरजलसे भी नहीं भिदती, और जो कोमल मिट्टी सींचनेपर जल्दी बंध जाती है। इस प्रकार दो प्रकारको मिट्टी पांच रंगकी होती है, और दूसरेसे मिलनेपर दूसरे रंगकी हो जाती है।
पत्ता-काली, लाल, हरी, पीली, सफेद और भी धूसरित ( मटमैली)। इस प्रकार पांच पृथ्वीकायकी मृदु धरतीके पांच रंगोंका मैंने कथन किया ॥१०॥
स्वर्ण, ताम्र, मणि और चांदी आदि खर पृथ्वियां कही जाती हैं। वारुणी, क्षीर, खार, घृत, मधु आदि जल जातियाँ कही जाती हैं। वज्र, बिजली, सूर्य और मणिको दूरसे धूम्रका प्रदर्शन करनेवाली आग समझो। उत्कलि (तिरछी बहनेवाली वायु ), मण्डली (गोलाकार बहनेवाली वायु), गुंजा (गूंजनेवाली वायु), इस प्रकार दिशा-विदिशाके भेदसे वायु कई प्रकारकी होती है। गुच्छों, गुल्मों, लताशरीरों, पर्वोमें, वृक्ष शाखाओं आदिमें शुद्ध वनस्पतिकाय जीव उत्पन्न होते हैं, दुनियामें ऐसा यतिवर कहते हैं। ये पर्याप्तकसे भिन्न और सूक्ष्मसे भिन्न होते हैं। कोई वनस्पतिकायिक जीव साधारण और प्रत्येक भी होते हैं। साधारण प्रकारके वनस्पतिकायिक जीवोंके श्वासोछ्वास और आहारण होते हैं ( प्राण )। प्रत्येकसे उत्पन्न प्रत्येक उत्पन्न होते हैं जो छेदनभेदन और निधनको प्राप्त होते हैं। सूक्ष्म पृथ्यीकायिक जीवोंकी दस हजार; खर पृथ्वीकायिक जीवोंकी बीस हजार वर्ष आयु है। जलकायिक जीवोंकी आयु सात हजार वर्ष, अग्निकायिक जीवोंको तीन दिन, वायुकायिक जीवोंकी तीन हजार वर्ष, वनस्पतिकायिक जीवोंकी दस हजार वर्ष आयु होती है। यह परम आयु कही गयी। अत्यन्त निकृष्ट या जघन्य आयु सब जीवोंकी अन्तर्मुहूर्त मात्र कही गयी है। गण्डूपद, कुक्षी, कृमि, शम्बूक, शंख आदि दो इन्द्रिय जीवोंको मैंने असंख्य कहा है। तीन इन्द्रिय वीरबहूटी, पिपीलिका आदि, चार इन्द्रिय जीव मच्छर और भ्रमर इत्यादि।
पत्ता-परम्परासे इनमें युक्तिसे कुछ भी ज्ञानचेतना उत्पन्न होती है। रस, गन्ध, स्पर्श और दृष्टि इनमें से एक्त-एक इन्द्रियपर चढ़ती है ॥११॥
१२
दो इन्द्रिय जीवके पर्याप्तक अवस्थामें छह प्राण होते हैं, तीन इन्द्रिय जीवके पर्याप्तक अवस्थामें सात प्राण होते हैं और अपर्याप्तक अवस्थामें पांच प्राण होते हैं, चार इन्द्रिय जीवके पर्याप्तक अवस्थामें आठ प्राण होते हैं, और अपर्याप्तक अवस्थामें छह प्राण होते हैं। उनके लिए
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२३२
महापुराण
[१०.१२.३ पंचिंदिय सण्णि असण्णि दोण्णि मणवज्जिय जे ते धुवु असण्णि । . सिक्खालावाइं ण लेति पाव अण्णाणगूढदढमूढभाव । असु णव जि समत्तिउ पंच ताह वज्जरइ जिणिंदु असण्णियाहं। छहिं पज्जत्तिहिं पज्जत्तएहिं
संफासणलोयणसोत्तएहिं । मणवयणकायरसघाणएहिं
आणाप्राणाउ अाणएहिं । दहहिं मि जियंति सण्णिय तिरिक्ख अक्खमि णाणाविह दुण्णिरिक्ख । जलयर झसाइ पंचप्पयार
कच्छव मयरोहर सुंसुयार । णेहयर समुग्ग फुडवियडपक्ख अण्णेक चम्मघणलोमपक्ख । थलयर चउपय चउविह अमेय एकखुर दुखुर करिसुणहपाय । उरसप्प महोरयं अजगराइ किं ताहं गइंदु वि कवलु होइ । "मुयसप्प वि वक्खाणियं सभेय सरदुंदुरगोधाणामधेय । घत्ता-जलयर जलेसु खग तरुगिरिसु थलयर गामपुरेसु वणे ॥ ___ दीवोयहिमंडलमज्झि तहिं "पढमु दीवु भासंति जणे ।।१२।।
१०
१३ दुवई-जोयणलक्खु लक्ख'बहुपविउल पुणु गयगणियमेरया।
____ अस्थि असंखदीववरसायरवलयायारधारया ॥१॥ जंबूदीवो धादंइसंडो
पुक्खरवरदीवो गचंडो। मइरो खीरो घयमहुणामो गंदीसो अरुणोरुणधोमो। कुंडलसण्णो संखो रुजगो मुजगवरो अवरो वि हु कुसगो। कोंचो एवं दीवसमुद्दा
दूणपिहूँ दावियणियमुद्दा। एएसुं तिरियाणं ठाणं
जलयरथलयरणहयरयाणं । वियलिंदियपंचिंदिययाणं
एम्हि वोच्छं कायपमाणं । साहियजोयणसहसुच्छेहं
पउमं दीसह वडियदेह। अवि य दुकरणो को वि वरिट्ठो बारहजोयणदीहो दिहो। होइ तिकोसो तिकरणवंतो
चउकरणिल्लो जोयणमेत्तो। घत्ता-लवणण्णवि कालण्णवि विउले होंति सयंभूरमणि झस ।
सेसेसु णत्थि जिणभासियउ सेणिय णउ चुक्कइ अवस ॥१३॥
१०
१२. १. M मणि । २. MB मूढ धणगूढभाव; K मूढ घणगूढभाव but cirrects it to गूढ
धणमूढभाव । ३. MBP पाणाउ । ४. MBP अपाणएहिं । ५. M अहयर । ६. M पड; BP फड । ७. MBP दक्खर । ८. M महोयर। ९. MBP किर। १०. MBP सरिसप्प । ११..
2. MBP सरिसप्प । ११. MBP पढमदीउ । १२. M जिणे: K जिणे but corrects it to जणे। १३. १. MBB तह । २. P धाइयसंडो। ३. MBP मिगचंडो। ४. MBP णामें । ५. MBP धामें ।
६. MBP दूर्ण पि हु। ७. MB add after this : लवणोवहि कालोवहि सामें, सेस समुद्द ( B सो समुद्द वि ) वि दीवहु णामें ।
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१०.१३.१३] हिन्दी अनुवाद
२३३ प्राण होते हैं, इस प्रकार विमल ज्ञानवाले महामुनि कहते हैं। पांच इन्द्रिय जीव संजी-असंज्ञो दोनों होता है, जो मनसे रहित हैं, वे निश्चितरूपसे असंज्ञो होते हैं, वे पापी शिक्षा और बातचीत ग्रहण नहीं कर पाते, अज्ञानके आच्छादनके कारण उनका मूढभाव दृढ़ होता है। असंज्ञो पांच इन्द्रिय पर्याप्तक जीवके नौ प्राण होते हैं। सम्पूर्ण छह पर्याप्तियों स्पर्श, लोचन और श्रोत्रों, मन-वचन-कायरसना-घ्राण-श्वासोच्छ्वासों और आयु इन दस प्राणोंसे संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवित रहते हैं। दुदर्शनीय नाना प्रकारसे उनका मैं वर्णन करता हैं। जलचर पांच प्रकारके होते हैं-मछली, मगर, उहर, कच्छप और सुंसुमार । नभचर भी सम्पुट, स्फुट और विकट पक्षवाले होते हैं। दूसरे धने चमड़े और विलोम पक्षवाले होते हैं। थलचर चौपाये चार प्रकार के होते हैं एक खुर, दो खुर, तथा हाथी और कुत्तोंके पैर वाले। उरसर्प, महोरग और अजगर इनका क्या, हाथी इनके कौरमें समा जाता है। भुजसोका भी भेदोंके साथ वर्णन किया जाता है। ये सर ढुंदर और गोधा नामवाले होते हैं।
पत्ता-जलचर जलोंमें, नभचर वृक्षों-पहाड़ोंमें और थलचर ग्राम-नगरोंमें निवास करते हैं। द्वीप और समुद्रमण्डलके मध्य जिनोंके द्वारा प्रथम द्वीप कहा जाता है ।।१२।।
१३
पिछले गणितकी मर्यादाके विचारसे एक लाख योजन विस्तारवाला अत्यन्त विशाल जो असंख्य द्वीप और श्रेष्ठ सागरोंके वलय आकारको धारण करनेवाला। जम्बद्वीप, धातकी खण्ड, श्रेष्ठ पुष्कर द्वीप, मृगचण्ड-मदिर-खीर और घृत-मधु नामवाले। नदीश-अरुण-अरुणधाम, कुण्डलसंज्ञ, संख रुजग, भुजगवर और भी कुसग, तथा क्रौंच, इस प्रकार द्वीप समुद्र हैं, जो दुगुने विशाल और अपना आकार प्रकट करनेवाले हैं। इन द्वीपोंमें तिथंचोंका निवास है। अब मैं जलचर, थलचर, नभचर और विकलेन्द्रियोंके पंचेन्द्रियों के शरीरका प्रमाण कहता हूँ। पद्म मत्स्य, जिसकी एक हजार योजन ऊंचाई कही जाती है ऐसे विशाल शरीरवाला दिखाई देता है। और भी कोई वरिष्ठ दुकरण नामका है, जो बारह योजन लम्बा देखा गया है। त्रिकर्णवाला तीन कोशका होता है । चार कानोंवाला एक योजनका होता है।
पत्ता-लवणसमुद्र, कालसमुद्र और विशाल स्वयम्भूरमण समुद्रमें मत्स्य होते हैं, शेष समुद्रोंमें नहीं होते। हे श्रेणिक, जिनवरके द्वारा कहा गया कभी गलत नहीं हो सकता ॥१३।।
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१०
२३४
महापुराण
१४
दुवई - जाणसु जोयणाईं अट्ठारह लवणसमुद्दमच्छया । व वरसमुद्देसु छत्तीस जि कालोए दिसच्छया || १ || अवसा महणवि. जे वहति ते जोयण पंचसयाई होंति । गयणंगणचरहं थलंभचरहं संमुच्छिम गभसरीरधरहं । कइवयचावई काहूँ मिगणंति तणुमाणु एम मुणिवर भणति । कासु वि संमुच्छिमजलयरासु पज्जत्तिल जोयणसहासु । जलगब्भजम्मि मवियाई ताई पंच जि जोयणई सयाहयाई । यहं तीहिं मि संमुच्छिमाह परिवज्जियपज्जत्ती कमाहं । afras जिणेण दी सइ वित्थि परमेोग्राहण णरवित्थि । थलगब्भयदेहि तिगाउयाई परमेण माणभावहु गयाई । हुहु बाहुं मि ध्रुवुं पवण्णु अंगुल असंखभायउ जहण्णु ।
घत्ता
- जगि सुहूमणिगोयसमुब्भवहं अवि यसमत्तहुं ण वि रहिउ । सुमतें पहुणा उत्तिमु जलयराहुं कहिउ || १४ ||
for
[ १०.१४. १
इय महापुराणे तिसट्ठि महापुरिस गुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरइए महाभग्वमरहाणुमणि महाकवे तिरिक्खोगाहणो णाम दसमो परिच्छेओ सम्मत्तो ॥ १० ॥
॥ संधि ॥ १० ॥
१४. १. M णवर सरी; BP णव जि सरी । २. BP वसंति ३. Pकाहि । ४. MBP पंच वि । ५. M विहथि; BP वियत् । ६. MPT विअत्थि । ७. MB घुउ; P धुवं ; K धुवु । ८. M णिक्किट्ठकुसुमपयत्तें। ९. M उत्तम ; P उत्तमु । १०. MBP तिरिक्खोगाहणा ।
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१०. १४. १३ ]
हिन्दी अनुवाद
२३५
लवणसमुद्रके मत्स्य अट्ठारह योजनके होते हैं। गंगा आदि नदियोंके प्रवेश स्थानोंपर छत्तीस योजनके होते हैं; तथा कालोदसमुद्रमें दिशाओंको आच्छादित करनेवाले। अवसान ( अन्तिम स्वयम्भूरमण) समुद्र में जो मत्स्य बहते हैं, वे पांच सौ योजनके होते हैं। आकाशके आंगनमें विचरनेवालों, थल और आकाशमें चलनेवालों, संमूर्छन और गर्भज जन्म धारण करनेवालोंका शरीरमान कई धनुषोंका गिना जाता है, इस प्रकार मुनिवर कहते हैं। किन्हीं पर्याप्तक जलचरोंका शरीरमान एक हजार योजनका मापा जाता है, इस प्रकार पर्याप्ति क्रमसे शून्य इस संमूर्छन जीवोंकी अवगाहना, जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कही गयी दो हाथकी दिखाई देती है, इनकी परम अवगाहना नर विअस्थि होती है। गर्भधारी थलचरोंकी अवगाहन तीन गव्यूति (६ कोश ) परम मानसे होती है। सूक्ष्म बादर जीवोंकी जघन्य अवगाहना अंगुलीके असंख्य भागके बराबर होती है।
पत्ता-विश्वमें सूक्ष्म निगोदमें जन्म लेनेवाले अपर्याप्त जीवोंको भी उन्होंने गुप्त नहीं रखा। कामदेवका नाश करनेवाले उन्होंने जलचरोंकी उत्कृष्ट और जघन्य अवगाहनाका कथन किया है।
इस प्रकार ब्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त इस महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महामव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका तिर्यच अवगाहन नामक
दसवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥१०॥
महाकाव्यवापरायचे अवगाहन भागमदत द्वारा
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संधि ११ पुणु इंदियभेउ वम्महपसरणिवारएण ।। भासियउ असेसु लोयहु रिसहभडारएण ॥ ध्रुवकं ॥
जाणइ सण्णिउ जो पज्जत्तउ पुट्ठउ सुणइ सदु गेयसोत्तिउ । णिल्लोयणतिउ पुट्ठपविट्ठउ
रूदूं णियच्छइ अप्परिमट्ठउ। फासु गंधु रसु णवहि जि भावइ बारहजोयणेहिं सुइ पावइ । सत्तेतालसहस्सई दिटिट्टई अवरु वि दोणि सयई तेसहइं। चक्खिदियहु विसउ वक्खाणिउ जेहउ केवलणाणे जाणिउ । गंधगहणु अइंवत्तसमाणउं सवणु वि जवणालीसंठाणउं। दिट्ठिई पडिम णिएज्ज मसूरी अक्खिय जीह खुरुप्पायारी। "सहरियतसंदेहेसु पयासउ । फासु अणेयरूवविण्णायउ। 'समचउरंसु ठाणु सुरसत्थहु . हुंडु वि णारयगणहु अहत्थहु । मणुयतिरिक्खहु छप्पि पवुत्तई भोयभूमिवियलहु पढमंतई। "खुजउ वावणंगु णग्गोहउ उम्भासिउ तिरिक्खणररोहउ। एइंदिय"णारइय सुसंपुड- जोणिहिं होंति सकम्मसमुब्भड । वियलिंदिय वि वियडजोणीहव संपुड वियड होति गब्भुन्भव । "पासुयजोणि देवणारइयह मीसा गब्भणिवासें लइयहं । सीयलुण्ह उण्हेव हुयासह
ताहं विहि मि तिविहा पुणु सेसह । मंथरगमणहं ससहरवयणहं
संखावत्तजोणि थीरयणहं। पत्ता-तहिं जीव अणेय णउ लहति संपुण्ण तणु॥
णियकम्मवसेण होंति मरेप्पिणु जंति पुणु ॥१॥ MEP give, at the commencement of this Samdhi, the following stanza: -
सूर्यात्तेज गभीरिमा जलनिधेः स्थैर्य सुरातर्विधोः सौम्यत्वं कुसुमायुधाच्च सुभगं त्यागं बले: संभ्रमात् । एकीकृत्य विनिर्मितोऽतिचतुरो धात्रा सखे सांप्रतं
भरतार्यो गुणवान् सुलब्धयशसः खण्डकवेर्वल्लभः ।। M reads विधौ for विधोः; MB read कुसुमायुधात्सुभगता for कुसुमायुधाच्च सुभगं, and खण्डः कवेर्वल्लभः for खण्डकवेर्वल्लभः ।
GK do not give it. १. १. MP गयसुत्तउ; B गयसोत्तउ । २. MB णिल्लोयणु । ३. B तिउपुठ्ठ । ४. MBP रूउ ।
५. MBP सत्तेचालीससहसई । ६. MBP बिण्णि । ७. MBP अइमुत्तं । ८. MBP दिट्ठिहि । ९. M जीय। १०. BT सुहरिय। ११, MB तसदेवेसु । १२. MB°चउरंस । १३. MBP छप्पि य उत्तई। १४. K reads this line before line 12। १५. MBP णारयसुरसंपुड। १६. MBP फासुयं ।
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सन्धि ११
फिर काम के प्रसारका निवारण करनेवाले आदरणीय ऋषभ जिनने अशेष लोकके इन्द्रिय भेदका कथन किया ।
१
I
जो संज्ञी पर्याप्तक जीव है वह स्पष्ट श्रोत्रगत शब्दको सुनता है । नेत्रोंको छोड़कर तीन इन्द्रियाँ (स्पर्श, रसना और घ्राण ) पृष्ट और प्रविष्टको दूरसे जान लेती हैं । आँख अस्पष्ट रूपको देखती है । स्पर्श, गन्ध और रसको वे नो योजन दूरसे जान लेती हैं। कान बारह योजन दूरसे लेते हैं । दृष्टि (आँख) का इष्ट-विषय सैंतालीस हजार दो सौ त्रेसठ योजन है । यह चक्षु इन्द्रिय विषयका व्याख्यान किया, जैसा कि केवलज्ञानसे जाना गया । गन्धग्रहण ( नाकका अन्तरंग ) अतिमुक्तक पुष्पके समान है । और कान ( अन्तरंग ) जो की नलीके समान है । आँखमें मसूरकी आकृति जानना चाहिए; और जीभको अर्धचन्द्रमा के समान कहा जाता है । हरी वनस्पति और त्रसोंके शरीरोंमें प्रकाशित स्पर्शको अनेक रूपोंसे जाना जाता है। देवसमूहका शरीर सम चतुरस्र संस्थान होता है । अधोलोकमें स्थित नारकीयोंका हुंड शरीर होता है । मनुष्य और तियँचोंके छहों शरीर ही कहे जाते हैं । भोगभूमियोंका प्रथम अर्थात् समचतुरस्र संस्थान और विकलेन्द्रियोंका अन्तिम अर्थात् हुंड संस्थान होता है । कुब्जक, बावनांग और न्यग्रोधको तियंचों और मनुष्योंका रोधक कहा जाता है । एकेन्द्रिय और नारकीय सुसंवृत योनिमें उत्पन्न होते हैं और अपने कर्ममें उद्भट होते हैं । विकलेन्द्रिय भी विवृत योनिमें होते हैं, गर्भसे उत्पन्न होनेवाले संवृत और विवृत योनियोंमें उत्पन्न होते हैं । देव नारकीय अचित्त योनिमें होते हैं । गर्भ में निवास करनेवाले मिश्रित योनि भी ग्रहण करते हैं, किसीकी उष्ण योनि होती है और किसीकी शीतल । तैजसकायिक जीवोंकी उष्ण योनि होती है, देवों और नारकीयोंकी तीनों योनियाँ ( उष्ण, शीत और मिश्र ) होती हैं । शेषकी तीन योनियाँ होती हैं । मन्थरगमन करनेवाले, चन्द्रमुखवाले और स्त्रीरत्नोंकी शंखावतं योनि होती है । .
1
घत्ता - संसार में अनेक जीव सम्पूर्ण शरीर ग्रहण नहीं कर पाते, अपने कर्मके वशसे जो उत्पन्न होते हैं और मरकर चले जाते हैं ॥१॥
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२३८
महापुराण
[११. २.१
होंति अरुह कुम्मुण्णयजोणिहिं केसव राम चक्कि सुहखोणिहिं । अवरहि जोणिहि रुहिरावत्तहि पायडजणवंयवंसावत्तहि । इंदियजुयल जियंति सहरिसई मई विण्णायउ बारहवरिसइं। तीइंदियहु मि राइविमीसई एक्कणवण्णास जि किर दिवसई। चउरिंदियहु आउ छम्मासिउ णिसुणहि पंचिंदियहु वि भासिउ । मच्छहु पुत्वकोडि उवट्ठी कम्मभूमिभूयरह मि दिट्ठी। वासह वायालीससहासई उरय जियंति जायजीयासई । पक्खिहिं ताई दुसत्तरि भणियई। पलिओवमई तिण्णि परिगणियइं। खेत्तावेक्खइ कहिं मि तिरिक्खहं। एहउ उत्तमाउ पंचक्खहं । मायाविय कुपत्तदाणेण वि एए होंति अट्टझाणेण वि। घत्ता-इय कहिय तिरिक्ख एवहिं माणव वज्जरमि ।
पण्णारह तीस णवइ छ भेय वि संभरमि ।।२।।
तिरियलोयमज्झत्थु सुहासिउ मणुउत्तरगिरिवलयविहूसिउ । जोयणाहं णरखेत्त रवण्णउ । पणयालोसलक्खवित्थिण्णउ । जंबूदीउ सव्वदीवेसरु
एक्कु लक्खु जोयणपरिवित्थरु । छावीसाइं पंच अहिययरई जोयणसयई विहियणरणयरइं। दाहिणभरहु तेत्थु वित्थारें ऐरावउ भणु तेणायोरें। . उत्तरदाहिणाहं वेयड्डहं
पण्णास जि पिहुलत्तु गुणड्डहं । पंचवीस उच्छेहु समासिउ एक्कु सहसु हिमवंतहु भासिउ । सहुं बावण्णहुँ वित्थरु साहिउ सउ तुंगतें सिहरि वि साहिउ । पंचुत्तरसएण सहुँ लक्खिय दोण्णि सहस हिमवइयहु अक्खिय । अवरहिरण्णवंतु तम्माणउ साहिउ दोहिं मि एक्कु पमाणउ । होइ महाहिमवहु रुंदत्तणु चउसहासअहियउ उद्धत्तणु । दोणि दहोत्तराई धुवु सिट्ठउ 'रुम्मिय गिरिदि वि तेत्तिउ दिठ्ठउ । घत्ता-खेत्तहुँ गुरु खेत्तु गिरि गरुयारउ गिरिवरहो।
मा भंति करेज वयणु ण चुक्कइ जिणवरहो ॥३॥
२. १. P°जणवइ । २. MBP एकुणं । ३. P°जीवासई । ४. M°ओवम्मई । ३. १. MBP तिरियलोउ । २. MBP एक्कलक्खु जोयणहं पवित्थरु । ३. MBP छन्वीसाई। ४. MBP
अइरावउ । ५. MB तेणुपयारें P तेण पयारें। ६. MB पयासिउ; T पसाहिउ । ७. MBहइमवयहु । ८. MBP अवरु । ९. MBP एक्क' । १०. MBP धुउ । ११. MBP रुम्मिहि दुविहु वि । १२. P खेत्तहु चउगुणु खेत्तु गिरि वि चउगुणु गिरिवरहो; T seems to have the same reading : खेत्तेत्यादि-क्षेत्राद्गुरुः गुणं (?) क्षेत्र गिरेगिरिश्चतुर्गुणः ।
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हिन्दी अनुवाद
२
शुभ भूमि कूर्मोन्नत योनियोंमें अर्हन्त, केशव, राम और चक्रवर्ती आदि उत्पन्न होते हैं । और गर्भयोनिके वंशपत्र आकार में शेष प्राकृत मनुष्य उत्पन्न होते हैं। मैंने जान लिया है कि दो इन्द्रिय जीव प्रसन्नतापूर्वक बारह वर्ष तक जीवित रहता है। तीन इन्द्रिय जीव भी रात्रियों सहित उनचास दिन ही जीवित रहता है । चार इन्द्रियोंवाले जोवोंकी आयु छह माहकी होती है । सुनो, पंचेन्द्रियोंकी भी आयु बतायी गयी है । मत्स्यकी एक पूर्वं कोटी वर्ष आयु बतायी गयी है । कमभूमिज तिर्यंचोंकी भी एक करोड़ पूर्व वर्ष आयु होती है । साँप जीवनकी आशावाले बयालीस हजार वर्षं जीते हैं । पक्षी बहत्तर हजार वर्षं जीवित रहते हैं। मनुष्यों और तियंचोंकी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट आयु एक पल्य, दो पल्य और तीन पल्य गिनी गयी है। क्षेत्रकी अपेक्षा कहीं पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंकी यह उत्तम आयु है। मायावी ये कुपात्रदान और आर्तध्यान से भी होते हैं ।
११. ३. १४ ]
धत्ता - इस प्रकार तियंचोंकी आयु कही । अब मनुष्योंकी आयु कहता हूँ । उनके पन्द्रह, तीस, नब्बे और छह भेदोंको याद करता हूँ ||२||
२३९
३
लोकके मध्य में तिर्यक् (तिरछा ) रूपमें फैला हुआ और मानुषोत्तर गिरिवलय से विभूषित पैंतालीस लाख योजन विस्तारवाला मनुष्यक्षेत्र है । एक लाख योजन विस्तारका जम्बूद्वीप सबसे श्रेष्ठ है । कुछ अधिक पाँच सौ छब्बीस योजन ( ५२६१६ योजन ) वाले जिसमें मनुष्योंके नगर और नगरियां निर्मित हैं। उसके दक्षिण में भरत क्षेत्र है और उत्तरमें इतने ही विस्तार और आकारका ऐरावत क्षेत्र है । भरत क्षेत्रमें उत्तरसे लेकर दक्षिण तक, गुणोंसे भरपूर पचास योजन चौड़ाईवाला विजयार्धं पर्वत है । उसकी ऊँचाई पच्चीस योजन कही गयी है । हिमवन्त कुलाचल एक हजार बावन ( और १३ ) योजन विस्तारवाला है, ऊंचाई में सौ योजन है, शिखरी पवंत भी इतना है । दूसरा हैमवत क्षेत्र दो हजार एक सौ पाँच, पाँच बटा उन्नीस ( २१०५६ ) योजनवाला कहा जाता है और दूसरा हैरण्य । हिरण्यवत् ) क्षेत्र इसी मानवाला है, दोनोंको एक प्रमाणवाला कहा गया है । महाहिमवत् कुलाचलका विस्तार चार हजार दो सौ दस, दस वटा उन्नीस ४२९०) योजन | ( उसकी ऊँचाई दो सौ योजन ) कहा गया है । रुक्मि कुलाचलका भी मान इसी प्रकार देखा गया है ।
धत्ता - क्षेत्रसे बड़ा क्षेत्र, और पर्वतसे बड़ा पर्वत है, इसमें भ्रान्ति मत करो। जिनवरका वचन कभी चूक नहीं सकता ( गलत नहीं हो सकता ) || ३ ||
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१०
१०
२४०
चसयाई दिद्दतिसहासई अयि किं पि होंति हरिवरिस अटूट्ठसयई सोलह सहसालई साहियाई णिसिहु पिहुलत्तणु
लिहितं जण कोइ णिवारइ परमेसरु तेत्तीस सहासई अठसयाई सबायालीसई उत्तरकुरुसुरकुरुहुं पउत्तउ
पोमु णाम हिमवंत सरोवरु एक सहसु दीहत्तणु सुच्चइ
हु अक्खड आगमि जेत्तिउ अवरु महाहिमवंतु वरिल्लड तिविवि गुणेण उलक्खि उ तिंगिछेसरु वि सिहासीणउं णिद्धणीलणयरायणिविट्ठउ सोहइ रम्मरुम्मियठाणें
घत्ता-छह खेत्तई एम भोयमुत्तिसंतोसियई । st जंबूदी तिणिजि कम्मविहूसियई ||४||
महापुराण
पोममहापमहं तिगिछेह जलपूरियगिरिकंदरदरियउ गंगा सिंधु रोह भंगाली हरि हरिकंत सी सीओयय कँण कूल रुप्पयकूलाली
.
सहरिसहु |
एकवीस जोयणई पयासई । तं माणु रेम्म ताई जि जाहि बातालई । सायरसयइं भणिउं तुंगत्तणु । बिहिं म विदेहं रुंदिम ईरइ | उडुसयाई चउरासीमीसइं । अण्णु वि भणु एयारह सहसई । एउ माणु उ ल्हसइ णिरुत्तउ ।
५
घत्ता - सिरिहिरिदिहि कंतिकित्तिलच्छिणामालियउ ।। देवी वसंत सरवरि सुकयकीलियउ ||५||
पंचसयाई तासु परिवित्थरु | दहजोई गीरिम वुच्चइ | सिरिमहा पुंडरियहु तेत्तिउ । ओईल्लहु बिउणारउ भल्लउ । णामु महापोमु जि मई अक्खिर । हो महापोह उणरं ।
वड्डु जि केसरिसरु दिउ । पुंडरी त अद्धपमा ।
६
केसरिदोपुंडरियहं सच्छहं । सुण महाणई उ णीसरियउ । रोहियास मंथर गइ लीली । णारी रकता वि महोयय । रत्ता रत्तोया वि झसाली ।
४.
१. MBP होंति किं पि । २. MB रुम्मयहु । ३. MBP बाइत्तालई । ४. MBP णिसहहु । ५. MBP लहु । ६. BP तेतीस ।
[ ११.४. १
५. १. MBP पोमणामु । २. MBP हिमवंति । ३. MBP उवरिल्लहु । ४. MBP ओलक्खिउ । ५. MB तिग्गिच्छि वि सरु; P तिरिंगछि विसरु । ६. MBP महापउमक्खहु । ७. P महापुंडरीउ तह अर्द्ध ं । ८. MK ॰दिहिकित्तिबुद्धिलच्छि । ९. M सुहकयकीलड; BP सुहकयकीलियउ ।
६.
१. MBP तिग्गिछहं । २. Bomits this line. ३. B omits this line ४. P कसयकूल ।
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११.६.५]
हिन्दी अनुवाद
४
हरिक्षेत्र कुछ अधिक आठ हजार चार सौ इक्कीस, एक बटे उन्नीस योजन प्रकट किया गया है; रम्यक क्षेत्रका विस्तार भी इतना ही है । निषध पर्वतका विस्तार सोलह हजार आठ सौ बयालीस, दो बटे उन्नीस योजन है । उसकी ऊँचाई चार सौ योजन कही गयी है । नील कुलाचलका भी विस्तार और ऊंचाई इतनी ही है, उसका कोई निवारण नहीं कर सकता। दोनों (अर्थात् निषध और नील कुलाचल ) मिलकर विदेह क्षेत्रके विस्तारकी रचना करते हैं, जो तैंतीस हजार छह सौ चौरासी, चार बटा उन्नीस योजन है । और भी उत्तरकुरु तथा दक्षिणकुरुका विस्तार ग्यारह हजार आठ सौ बयालीस योजन कहा गया है, निश्चय ही यह मान कम नहीं होता । घत्ता - भोगभूमि से सन्तुष्ट रहनेवाले ये छह क्षेत्र हैं । इस जम्बूद्वीपमें कर्मभूमि से विभूषित तीन क्षेत्र हैं ||४||
२४१
५
हिमवत् पर्वतपर पद्म नामका सरोवर है, उसका परिविस्तार पांच सौ योजन है, एक हजार योजन उसको लम्बाई कही जाती है । और दस योजन गहराई । इस पद्म सरोवरका आगममें जितना विस्तार कहा गया है, शिखरी कुलाचलपर स्थित महापुण्डरीक सरोवरका भी यही विस्तार हैं । और श्रेष्ठ महाहिमवान् पर्वत है; उससे दुगुना । उसके ऊपर पद्म सरोवरसे तीन गुना महापद्म नामका सरोवर है, यह मैंने कहा । निषध पर्वत पर स्थित तिगिच्छ सरोवर महापद्म नाम सरोवरसे दुगुना होता है। स्निग्ध नील नगराजपर स्थित केशरी सरोवर भी उतना ही बड़ा है । रमणीय रुक्मी पर्वतपर स्थित पुण्डरीक सरोवर उससे आधा है ।
घत्ता - श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी नामकी पुण्य क्रीड़ा करनेवाली देवियाँ सरोवरोंमें रहती हैं ||५|
६
सुनो - पद्म, महापद्म, तिगिच्छ, केशरी, पुण्डरीक और महापुण्डरीक स्वच्छ सरोवर हैं । उनसे अपने जलसे पहाड़ी गुफाओं और घाटियोंको आपूरित करनेवाली महानदियाँ निकली हैंगंगा, सिन्धु, लहरोंवाली रोहित, मन्थरगामिनी रोहितास्या, हरि, हरिकान्ता, सीता, सीतोदा, महाजवाली और नरकान्ता । स्वर्णंकूला और रूप्यकूला तथा मत्स्योंसे भरपूर रक्ता और
३१
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१०
५
१०
२४२
एउ भणियउ चोह सरियउ अड्डाइज्जहं पंच जि मंदर
धत्ता - वक्खारगिरिंद कुंडलरुजगिरि सुकारगिरिं ॥ खेत्तं तहिं अस्थि बहुबिसिहरुद्ध रियसिरि ||६||
महापुराण
कुलिकण कण्णपावरण वि हरिमुह करिमुह झससामलमुह सदूलाणण मेसविसाणण सयल वि उज्जय पंकयलोयण अट्ठारहजाईहिं रवण्णा एक् जि 'पलिओमु जीवेप्पिणु हरिहिम लोहियपीयलवण्णा हारदो कंकण कुंडलधर मरंगहिं वीणापडहंगहिं भायण भोयणंगभवणंगहिं एकपक्aहिं महिं छज्जइ अझ मुत्तिम सुहसंगई एक्दु तिणि पल जीवेष्पिणु
वयगुणयउ सत्तरि वित्थरियउ । बहुवेयखयरकुलसुंदर ।
जंबूदीवहु बाहिरि थक्कई पढम सुसंकिण पुणु रुंदई यति गुणणें संजुत्तइं लवणसमुद्दि अट्ठचालीस इं बहुजोयणसयमाणविसेसई
पुरिस दो दो रइरत्तई विगयाहरणइ णिश्चेलक्कइ रम्म सोम णिञ्चपट्ठिइ घत्ता - एकोरुयधारि पुंछेधारि तहिं सिंगधर ॥ पुव्वादिसु होंति उत्तरदिसि णिब्भास णर ||७||
७
ठाणई जाईं सहावा मुक्कई । ताई होंति मेल्लपडिछंदइ । कम्मभोयभावेण विहत्तई । कालोय तेत्तिय जि देसई । संति कुभोयभूमि आवासई । भद्दसहावई मणहरगत्तई । कैves धवलई हरियई सक्कई । जिर्णेाहिं जिणागमि सिट्ठे ।
८
लंबकण्ण ससकण्ण कुमणुयवि । आदंसणमुह जंलहर कइमुह । सत्तारहत रुहलरसमाणण । rator गिरिमट्टियभोयण । aurasहिं खेत्तेहिं विहिण्णा । होंति भवणवणवासि परेष्पिणु । तीस सुभो भूमिवित्थिण्णा । दिव्ववत्थ सिरवलइयसेहर । विविहविहसणंगजुइअंगहिं । अंबरीव कुसुममालंगहिं । भो निरंतरु णुयहिं भुजेइ । ललियसहावs णिरु ललियंगई । होंति कप्पवासे चएप्पिणु ।
५. MP चउदह ।
७. १. M सल्लइडि । २. B कयतिहेण गुणणे P कयतिभेयगुणण्णे । ३. MBP किन्हई । ४. MBP जिणणाहेण । ५. MBP दिट्ठई । ६. MBP पुच्छधारि ।
८. १. P जहरमुह कई । २. MPK पलियओवमु । ३. MBP उप्पण्णा । ४. P° डोर । ५. MBP भोयणभायणं । ६. MBP एहि । ७. MBP रज्जइ । ८. B भाउ । ९. P भुंजइ । १०. BBP त् । ११. MBP मरेष्पिणु ।
[ ११.६.६
o
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११. ८.१३ ]
हिन्दी अनुवाद
२४३
रक्तोदा । ये चौदह नदियाँ कही गयी हैं । इनमें पाँचका गुणा करनेपर सत्तर हो जाती हैं । ढाई द्वीप ( जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड और आधा पुष्करद्वीप ) में पांच मन्दराचल हैं जो विजयार्ध पर्वत और विद्याधरकुलोंसे सुन्दर हैं ।
घत्ता — क्षेत्रोंके अन्तर्गत वक्षार गिरीन्द्र, कुण्डल, रुचकगिरि और सुकारगिरि हैं जो अपने विविध शिखरों पर श्रीको धारण करते हैं ॥६॥
७
जम्बूद्वीप के बाहर, अपने स्वभावको नहीं छोड़नेवाले बहुत-से अन्तद्वीप हैं। पहला सुसंकीर्णं, दूसरा रुन्द | वे शराव (सकोरे) के आकार के हैं, और उत्तम, मध्यम तथा जघन्य इन तीन भेदोंसे युक्त कर्मभूमि भावसे ( अपनी चेष्टासे फलादिका आहार ग्रहण करनेवाले ) विभक्त हैं । लवण समुद्र में अड़तालीस ओर कालोद समुद्र में भी उतने ही देश हैं। सैकड़ों योजनोंके मानसे विशिष्ट, कुभोगभूमियोंके आवास वहाँ हैं । रतिमें अनुरक्त वहाँ दो-दो स्त्री-पुरुष हैं, भद्रस्वभाव और सुन्दर शरीरवाले, आभरण और वस्त्रोंसे रहित, काले-सफेद-हरे और लाल । रम्य-सौम्य और नित्यप्रसन्न, जिनका जिननाथने शास्त्रोंमें कथन किया है ।
घत्ता - वहां कोई एक रोमधारी है तो कोई पूँछ और सींग धारण करनेवाला है । ये पूर्वं दिशामें शोभित होते हैं । उत्तर दिशामें निर्भाष ( बिना भाषाके ) मनुष्य होते हैं ||७||
८
शष्कुलिके समान कानवाले, कानोंके आच्छादनवाले, लम्बे कानवाले और खरगोशके कानवाले खोटे मनुष्य भी रहते हैं । अश्वमुख, गजमुख और मत्स्यके समान श्याम मुख, दर्पणमुख, मेघमुख, वानरमुख, सिंहमुख, मेषमुख और वृषमुखवाले, जो सत्रह प्रकार के फलोंका आहार ग्रहण. करते हैं। सभी अत्यन्त सीधे और कमलके समान आँखोंवाले, एक पैरवाले पहाड़ी मिट्टीका भोजन करते हैं । अठारह जातियोंवाले ये छियानबे क्षेत्रोंमें विभक्त हैं । ये एक ही पल्य जीवित रहते हैं और मरकर भवनवनवासी होते हैं । हरित, सफेद, लाल और पीले रंगोंके रत्नोंसे विजड़ित तीस भोगभूमियां फैली हुई हैं जिनमें हार, डोर, कंकण और कुण्डलोंको धारण करनेवाले दिव्य वस्त्रधारी सिरपर शेखर बांधे हुए देव रहते हैं । मद्यांग, वीणा-पटहांग ( तूर्यांग), विविध भूषणांग, ज्योतिरंग, भाजनांग, भोजनांग, भवनांग, अम्बरदीपांग ( प्रदीपांग ) और कुसुममाल्यांग, कल्पवृक्षोंसे, जिसकी धरती शोभित है । और जहाँ मनुष्य निरन्तर भोग करते रहते हैं । अधम, मध्यम और उत्तम सुखोंसे युक्त सुन्दर स्वभाववाले और सुन्दर अंगोंवाले होते हैं। एक-दो या तीन पल्य जीवित रहकर और च्युत होकर कल्पवासमें उत्पन्न होते हैं ।
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२४४
[ ११.८.१४
महापुराण घत्ता-तीसविह" पउत्त भोयभूमि धुअ मणुय जिह ।।
सई कालवसेण "अर्द्धव दहविह होंति तिह ।।८।।
दहपंचविह कम्मभूमाणुस. अज्ज मेच्छ इच्छामाणियरस । मेच्छ चीण हुण पारस वब्बर भासारहिय णिरूह णिरंबर । इड्डिअणिढिवंत अज्जणवर इड्डिवंत जिणवर चक्केसर । वासुएव बलएव महाबल
चारण विज्जाहर उज्जलकुल । होंति अणि ड्ढिवंत जाणाविह लिविदेसीभासावत्तण बुह । जिणु अहमेण जियइ बाहत्तरि अहिउ सहसु वरिसइं जीवइ हरि । तहु अहिययरउ सीरि पउत्तउ सत्ससयाई चक्कि णिक्खुत्तउ । पुत्वहं चउरासीलक्खेयह
परमाउसु जिणहरिबलरायहं । पुत्वकोडिसामण्णु वि थिरकरु जीवइ कम्मभूमिजायउ णरु । पक्खु मासु अयणई संवच्छर के वि जियंति कईवय वासर । णर णिसट्टदवियंगकउग्गम ते सज्जो मरंति संमुच्छिम । गन्भेसु वि गलंति तणु लेप्पिणु अवर वि कइवय दियह जिएप्पिणु । उत्तमेण धणुलयहं णिसीहा पंच संवायई सयईपईहा । सत्तहत्थ चउहत्थ तिहत्थ वि णिक्किटेण पउत्त दुहत्थ वि । तम्हाओ हि होंति लहुययरा अइरहस्स वामण खुजयरा। घत्ता-मणुएसु ण होंति सत्तममहिणारय विसम ॥
जिह ए तिह ते उ वाउकायकयभावतम ॥९॥
१०
होंति के वि दूसहणिहावस जोइसवणभवणंतर्हि तावस । चरयपरिवायय बंभामर
आजीव वि सहसारालय सुर। जंति तिरिक्ख वि तं जि जि वयहर णर सम्मत्ताराहणतप्पर । सावयवयहलेण सोलहमउ
सग्गु लहइ माणुसु दुह विरमउ । रिसिवएहिं विणु पुणु तहु उप्परि को वि ण मुंजइ अहमिदहं सिरि । सत्तुमित्तुतणमणिसमचित्ते संजमेण सुद्ध चारित्ते । जिणलिंगेण होंति वयभरधर अभविय उवरिमगेवज्जामर । आ सर्वत्थसिद्धि णिग्गंथहं होइ सूइ सम्मत्तपसत्थहं ।
१२. P तीस वि इह उत्त । १३. MBP अद्धय । ९. १. P वच्छर; but it records ap वन्वर । २. M अहउ । ३. M वरिसइं। ४. MBP बल
एवहं । ५. B णिसद्द; P विस? । ६. M धणुण्णयहं । ७. MB सवाइं सयाई; P सयाई सवाई।
८. MB णाराय । १०. १. MBPT चारय । २. MP जंत तिरिक्ख तं जि जि । ३. MBP वयधर । ४. MBP सव्वटुं ।
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११. १०.८ ]
हिन्दी अनुवाद
२४५
घत्ता - जिस प्रकार मनुष्योंको तीस भोगभूमियाँ निश्चित रूपसे बतायी गयी हैं, उसी प्रकार उससे आधी अर्थात् पन्द्रह कर्मभूमियां होती हैं ॥८॥
९
पन्द्रह कर्मभूमियोंके मनुष्य, आर्य और म्लेच्छ होते हैं, जो अपनी इच्छा के अनुसार रसका भोग करते हैं । म्लेच्छ चीन, हूण, पारस, बबर, भाषा रहित, निर्वस्त्र और विवेकहीन । आर्य लोग ऋद्धि सहित और ऋद्धि रहित होते हैं । इनमें ऋद्धिसे परिपूर्ण जिनेश्वर और चक्रवर्ती होते हैं । वासुदेव, बलदेव, महाबल, चारण और विद्याधर आर्यकुलमें होते हैं । ऋद्धियोंसे रहित मनुष्य नाना प्रकार के होते हैं, जो लिपि और देशी भाषा बोलनेवाले और पण्डित होते हैं । जिन ( अर्थात् अन्तिम तीर्थंकर महावीर ) बहत्तर वर्षं जीवित रहते हैं, हजारसे अधिक वर्षं नारायण जीते हैं, उससे अधिकतर वर्ष बलभद्रका जीना कहा गया है। उससे सात सौ वर्षं अधिक चक्रवर्ती निश्चित रूपसे जीते हैं । जिन, नारायण और बलभद्रकी परम आयु चौरासी लाख वर्षं पूर्व होती है । कर्मभूमिमें उत्पन्न हुआ स्थिरकर मनुष्य एक पूर्वकोटि सामान्य जीवन जीता है । कोई मनुष्य पक्ष, मास, छह माह और एक वर्षं तथा कुछ दिन जीते हैं। शरीर के पसीने आदिसे उत्पन्न होनेवाले जो सम्मूच्र्छन जीव होते हैं, वे जल्दी मर जाते हैं। कुछ शरीर लेकर गर्भमें गल जाते हैं, दूसरे कुछ दिन जीवित रहकर मर जाते हैं। दूसरे नृसिंह ( नरश्रेष्ठ ) सवा पांच सौ धनुष ऊँचे होते हैं, निकृष्ट रूपसे सात हाथ, चार हाथ, तीन हाथ और दो हाथ भी होती है । इससे भी छोटे कद मनुष्य होते हैं, अत्यन्त लघु, बौने और कुबड़े ।
धत्ता-सांतवें नरकके विषम जीव सीधे मनुष्ययोनि में उत्पन्न नहीं होते । जिस प्रकार ये, उसी प्रकार वायुकायिक और अग्निकायिक जीव भी सीधे मनुष्ययोनिमें जन्म नहीं लेते ||९||
१०
कोई तापस असह्य निष्ठाके कारण ज्योतिष और व्यन्तर भवनोंमें उत्पन्न होते हैं । आहिंडक, परिव्राजक, ब्रह्म स्वर्गंमें देव होते हैं और आजीवक सहस्रार स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं । व्रत धारण करनेवाले तियंच भी वहीं जाते हैं । सम्यक्त्वकी आराधना करनेमें तत्पर मनुष्य श्रावक व्रतोंके फलसे सोलहवां स्वर्गं प्राप्त करता है और दुःखसे विश्राम पाता है, लेकिन उसके ऊपर मुनिव्रतों के बिना कोई भी अहमिन्द्रकी श्रीका भोग नहीं कर सकता । अपने चित्तमें शत्रु और मित्रके प्रति समता भाव धारण करनेवाले संयम और शुद्ध चारित्र्य और जिनलिंगसे, व्रतोंका भार धारण करनेवाले अजन्मा, ग्रैवेयक स्वर्गमें देव होते हैं, सम्यक्त्वसे प्रशस्त निर्ग्रन्थोंकी उत्पत्ति
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२४६
महापुराण
[११.१०.९ णारउ मरिवि ण णारउ जायइ सुरु वि ण सुरु मुणिणाहु विवेयइ । अमरु ण णरयहु णारउ सग्गहु वञ्चइ सविहिविहंसियमग्गहु । होइ तिरिक्खु वि चउगइगामिउ जिह तिह माणउ दुक्खायोमिउ । पमियाउहुं तिरिवहुं तिरियत्तणु अविरुद्धउ मणुयहुं मणुयत्तणु । घत्ता-तिहिं गइहिं ण होति मणुय तिरिक्ख सोक्खचुयहिं ।।
पलिओवमजीवि सग्गु लहंति संइंमुवहिं ॥१०॥
संखाउस जे जीवाहारिय
अण्णोण्णण वियारिय मारिय । सरिसव जंति पढम वीयावणि पक्खि तइय 'वालुप्पह दुहखणि । पुहइ चउत्थी जति महोय । पंचमियहि केसरि मयमारय । महिलउ छ?हि वि हुरक्कमियहि होति मणुय मेच्छ वि सत्तमियहि । आयउ मघविहि लहइ णरत्तणु को वि अरिहहि देसँवयत्तणु । णिग्गउ अंजणाहि किर णिव्वुइ को वि कहिं मि पाबइ पंचमगइ। सेलहि वंसहि धम्महि आइउ होइ को वि तित्थयरु महाइउ । णर तिरिया सलायपुरिसत्तणु णउ लहंति णिम्मलु जसकित्तणु । सव्वत्थ वि माणेसु उप्पज्जइ एम पउत्तइ सुत्तु पउंजइ। राम उडूढ
ह सामिय केसव सव्व अहोगइगामिय । घत्ता-पडिसत्तु कयंत णउ णारायण पीणकर ॥
णरयहु णिग्गिवि होंति ण हलहर चक्कहर ।।११।।
१२ तिहिं काहिं णरत्त ण विरुद्धउ तिरियत्तु वि जिणबुद्धे बुद्धउ । बायरपुहइ तोय पत्तेयह
देव चवेवि होति किर एयहं । णउ लहंति सुरणियर सतामस पुण्णसिलोयत्तणु आजोइस । अक्खमि णरयवासु भीसावणु णाणादुक्खलक्खद रिसावणु । पढमासीयहिं सिर्छ सहासहिं पुणु बत्तीसहिं अट्ठावीसहिं । चउवीसहिं वीसहिं बिहिं अट्ठहिं अट्ठहिं णाणसहाउवइट्टहिं । एम सहससंखाहिउ घणु भणु खरपंकयलक्खु जि मंदत्तणु।
आयामु वि असंखु संखेवें पुहइहि पुहइहि अक्खिउ देखें। ५. T दुक्खायासिउ । ६. MT सयंभुवहिं । ११.१. Pविमणस सरढ पढम । २. Kवालयपह । ३. Pमहोयर । ४. MP मिगमारयः B मियमारय ।
५. MBP छद्विहि । ६. MP हुरक्किमयहि । ७. K देसवइत्तणु । ८. P महावउ । ९. K माणउ सु । १२. १. B पत्तेय वि । २. M देवत्तणु वि होइ किर एयहुं; B होति समागय देवत्तहु कि वि; P देवत्तणु - ण होइ किर एयहं । ३. MBPT पुण्णसलायत्तणु । ४. B सिद्ध समासहिं । ५. MB केवलणाण;
M records ap अद्वहिं for केवलं । ६. B omits this foot ; P reads it after 8 b । ७. MBP add after this : सोलह चोरासी सहस जि गुणु, एक्केक्कउ जि लक्कु रुदत्तणु ।
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११. १२.८] हिन्दी अनुवाद
२४७ सर्वार्थ सिद्धि तक होती है। नारकीय मरकर नरकमें नहीं जाता। और देव मरकर देव नहीं बनता, यह विवेचन मुनिनाथ करते हैं। जीव नरकसे सीधे स्वर्ग नहीं जाता और स्वर्गसे नरक नहीं जाता। क्योंकि वे अपनी विधिसे मार्ग ( पुण्य और पापका मार्ग) नष्ट करनेवाले होते हैं। तिथंच चारों गतियोंमें जानेवाला होता है. जिस प्रकार तिर्यंच. उसी प्रकार दःखसे पीडित मनष्य चारों गतियोंमें जा सकता है। सीमित आयुवाले तिर्यंचोंका तिर्यंचत्व और मनुष्योंका मनुष्यत्व अविरुद्ध है, अर्थात् एक दूसरेकी योनिमें जा सकते हैं।
घत्ता-सुखसे च्युत मनुष्य और तियंच, अपने द्वारा उपार्जित पुण्यसे तीन गतियों (नरक, तिर्यंच और मनुष्य में उत्पन्न नहीं होते, एक पल्यके बराबर जीकर स्वर्ग प्राप्त करते हैं ॥१०॥
जो संख्यात आयुका जीवन धारण करनेवाले हैं और एक दूसरेको विदारित करते और मारते हैं ऐसे सरीसपं पहले और दूसरे नरकमें जाते हैं। पक्षी दुःखकी खान तीसरे बालुकाप्रभ नरकमें जाते हैं। महोरग चौथे नरकमें जाते हैं। पशुओंको मारनेवाले सिंह पांचवें नरकमें जाते हैं । महिलाएं दुःखसे व्याप्त छठे नरक तक जाती हैं। म्लेच्छ और मनुष्य सातवें नरक तक जाते हैं। कोई छठे नरकसे आकर मनुष्यत्व प्राप्त करता है। कोई पांचवें नरकसे आकर देशव्रत धारण करता है। कोई चौथे नरकसे आकर निवेदको धारण करता है। कोई मोक्ष गति प्राप्त करता है। तीसरे-दूसरे और पहले नरकसे आया हुआ कोई जीव, महान् तीर्थकर होता है। मनुष्य और स्त्रियां निर्मल यश और कीर्ति तथा शलाकापुरुषत्वको प्राप्त नहीं कर सकते। मनुष्य सब कहीं उत्पन्न हो सकता है। सूत्र रूपमें यह बात कही जाती है। जितने राम (बलभद्र) हैं वे ऊर्ध्व गतिवाले और सुखके स्वामी हैं, जितने केशव (नारायण ) हैं, वे नरकगामी हैं।
___घत्ता-जो यमकी तरह प्रतिशत्रु हैं, (प्रति नारायण ) और स्थूलकर नारायण नहीं हैं, वे नरकसे निकलकर हलधर और चक्रधर नहीं होते ॥११॥
१२
तीन कायिक ( अर्थात् पृथ्वी, जल और वनस्पति कायिक ) जीवोंके लिए मनुष्यत्व विरुद्ध नहीं है, और तिर्यंचत्व भी नहीं, ऐसा जिनबुद्धने ज्ञात किया है। पृथ्वी, जल और प्रत्येक वनस्पतिमें देव च्युत होकर जन्म ले सकते हैं। ज्योतिष पर्यन्त तामसिक देवसमूह शलाकापुरुषत्वको प्राप्त नहीं कर सकता। अब मैं भीषण नरकावासका कथन करता हूँ जो भीषण और नाना प्रकारके लाखों दुःखोंको दिखानेवाला है। इनमें प्रथम नरकका विस्तार एक लाख अस्सी हजार योजन है। फिर क्रमशः बत्तीस हजार, अट्ठाईस हजार, चौबीस हजार, बीस हजार, सोलह हजार और आठ हजार योजन विस्तार है जो केवल ज्ञानियों द्वारा उपदिष्ट है। इस प्रकार
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२४८
[११. १२.९
महापुराण रैयणसकरप्पह वालुयपह पंकप्पह धूमप्पह तमपह । अवर वि अंतिमिल्ल तमतमपह णिञ्चपउंजियबहुणारयवह । एयउ घणतमजालणिरुद्धउ
सत्त णरयधरणीउ पसिद्धउ । घत्ता-पुहईसु बिलाहं होंति सहावभयंकरहं ।।
घणतिमिरहराहं अगणियजोयणवित्थरहं ॥१२॥
१३ तीस पुणु वि पणवीस जि लक्खइं पुणु पण्णारह दावियदुक्खई। दह पुणु तिण्णि एक्कु पंचूणउं लक्खु बिलोहं पंच अहिठाणउं । गारइयह तहिं भत्थायरइं दंसिय॑हरिकरिरूववियारइं। महिमयाई परिमउलियवत्तई हेट्ठामुहओलंबियगत्तई। लोहकीलकंटालिकरालई
दुग्गंधई दुग्गमतिमिरालई । एसु सुकिण्हणीललेसावस उप्पजंति तिरिय अह माणुस । लेंति देहु सहसत्ति मुहुत्ते
वेउव्विउ णिउत्त हुंडत्तें। हवइ विहंगणाणु तहिं मेच्छहं अवहिसहावें जिणमयदच्छह । कालिंगालपुंजसंणिहयर
पयडियदंतपंति दठ्ठाहर। विरइयभीमभिउडि रोसुब्भउ कबिलकेस परमारणकक्खड । जिह जिह ते मुणंति अप्पाणउं तिह तिह तं तं संभवठाणउं । दाढाभीसणु मुहुँ णिवायइ अहवा पाउ किं ग किर घायइ । घत्ता-हेट्ठामुह झत्ति ते पडंति असिपत्तवणे ॥
सई अण्णु हणंति अण्णहिं पडिहम्मति रणे ॥१३॥
१४
णउ मज्झत्थु मित्तु उवयारिउ जो जो दीसइ सो सो वइरिउ । खेत्तसहाउ तेत्थु कि भण्णइ जं सुयकेवलिसमु वि ण वण्णइ । सूइणिह तणु दुच्चर भूयलु उण्हु सीउ दुद्धरु चंडाणिलु । जं करेण लेतहुं जि मरिजइ वइतरणीविसु विसु कि पिज्जइ । खंडियकरचरणाणणगत्तई . रुक्खहं खग्गसमाई पत्तई। फलई वजमुट्ठि ब्व कढोरैई वैरि पडंति णिहलियसरीरई । महिहरकुहरहिं विप्फुरियाणण खंति विउठवणाइ पंचाणण ।
कुहिणिउ जलणजालपज्जलियउ जहिं वच्चइ तहिं खलयणु मिलियउ । ८. MBP रयणप्पह सक्कर वालुप्पह । ९. B°भयंकरइं । १०. MB°वित्थरई । १३.१. Pविलासइं। २. MPT अहठाणउं; B अहिठाणई। ३. M णरइयह; RP णेरइयहिं । ४. B
omits this foot. ५. omits this line. ६. P कंटाल । ७. P सुमरइ ठाणउं । ८. P कं ण ।
९. MB अण्ण। १४. १. P दुत्तरु। २. MBP जें। ३. MBP कठोरई। ४. M वर; P उवरि । ५. MBP महिकुहरंतरि ।
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११. १४.८ ]
हिन्दी अनुवाद
२४९
खर और पंकभाग ( रत्नप्रभा नरक) का हजार अधिक एक लाख योजन पिण्डत्व ( विस्तार ) है । प्रत्येक भूमिका असंख्य आयाम है, जिसे देवने संक्षेप में कहा है । रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और भी अन्तिम तमतमः प्रभा है जिसमें नित्य नारकीयों का वध किया जाता है । इस प्रकार ये अत्यन्त सघन तमजालसे निबद्ध सात नरकभूमियां प्रसिद्ध हैं । घत्ता - इन भूमियोंके बिल स्वभावसे भयंकर होते हैं, सघन अन्धकारोंके घर अगणित योजनोंके विस्तारवाले होते हैं ॥ १२ ॥
१३
फिर दस
लाख,
1
इनके क्रमश:, तीस और फिर पच्चीस लाख और फिर दुःख देनेवाले पन्द्रह लाख, 1 तीन लाख, फिर पाँच कम एक लाख अर्थात् निन्यानबे हजार नौ सौ पंचानबे, और अन्तिम नरकके पाँच बिल होते हैं । इनमें नारकीय जीव भस्त्राकारके होते हैं, सिंहों और हाथियोंके रूपोंका विदारण दिखाते हुए । जहाँ राजाओंके मुख सब ओरसे बन्द हैं, अधोमुख लटके हुए शरीरवाले । लोहेकी कीलों और कांटोंसे भयंकर । दुर्गन्धित और दुर्गम अन्धकारसे भरे हुए । इनमें अत्यन्त कृष्ण लेश्या के कारण मनुष्य या तियंच उत्पन्न होते हैं। सहसा एक मुहूर्तमें शरीर धारण करते हैं, जो हुंडक आकार वैक्रियक शरीर होता है । वहाँ अवधिज्ञानके स्वभावसे जिनमतका उच्छेद करनेवाले म्लेच्छों का विभंगज्ञान होता है । काले अंगारोंके समूहके समान काले, दाँतों को प्रगट करनेवाले और ओठोंको चबानेवाले, अपनी भौंहें भयंकर करनेवाले और क्रोधसे उद्धत, कपिल बालोंवाले और दूसरोंको मारनेमें कठोर। जिस प्रकार वे अपने बारेमें सोचते हैं, उस प्रकार वह स्थान उनके लिए उत्पन्न हो जाता है । दाढ़ोंसे भयंकर अपना मुँह फाड़ते हैं, अथवा पाप किसका क्या घात नहीं करता ।
घत्ता - अधोमुख होकर वे शीघ्र असिपत्रपर गिर पड़ते हैं । स्वयंको मारते हैं, दूसरेको मारते हैं और युद्ध में दूसरेके द्वारा मारे जाते हैं ||१३||
१४
उनका कोई मध्यस्थ या उपकार करनेवाला मित्र नहीं होता । जो-जो दिखाई देता है वह दुश्मन होता है। वहाँके क्षेत्रस्वभावको क्या कहा जाय ? जो श्रुतकेवलीके समान है, उसके द्वारा भी वर्णन नहीं किया जा सकता । सुईके समान तृण हैं और चलनेमें कठिन धरती । उष्ण शीत और प्रचण्ड पवन | जिसे हाथमें लेने मात्रसे जीव मर जाता है, वैतरणी नदीका ऐसा वह जल, विष है, उसे क्या पिया जा सकता है। जहाँ वृक्षोंके पत्ते हाथ पैर मुख और शरीरको खण्डित कर देनेवाले तलवारके समान हैं। जिनके फल वज्रकी मूठकी तरह कठोर हैं । शरीरको चूर-चूर कर देनेवाले वे ऊपर गिरते हैं। पहाड़ोंकी गुफाओं में से तमतमाते हुए मुखवाले विक्रियासे निर्मित सिंह खा जाते हैं । जहाँके मार्ग अग्निज्वालाओंसे प्रज्वलित हैं, वह जहां जाता है, उसे दुष्ट
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२५०
[११. १४.९
महापुराण हाइ जहिं जि तहिं दूमियपिंडई पूयरुहिरकिमिभरियई कोंडई। बिहिं तिहिं पंचहिं पीडिवि धरियहु ण्हायहु पूयदहहु णीसरियहु । घत्ता-उक्कत्तिवि तासु दिजइ कत्ति णियासणउं।
आयसवलयाई सिहितावियई विहूसणउं ॥१४॥
पेच्छइ जहिं जि तहिं जि जमसासणु बइसइ जहिं जि तहिं जि सूलासणु । मुंजइ जहिं जि तहिं जि दुग्गंधई णीरसाइं फरसाइं विरुद्धई। आहरियई पुग्गलई अकामहु . असुहत्तण जंति परिणामहु । णिसुणइ जहिं जि तर्हि जि दुव्वयणइं फंसइ जहिं जि तहिं जि खरसयणइं। जं चक्खई तं तं विरसिल्लउ जं चितइ तं तं मणसल्लउ । जं अग्धायइ तं कुणिमंगउ णारयखेत्ति णउ काई मि चंगउ । उर्द्धसासु अइखासु जलायरु अच्छिकुच्छिसिरवियण महाजरु । संभवंति दुक्कियलगेहइ
सव्वउ वाहिउ णारयदेहइ । घत्ता-अणुमीलेणु कालु सोक्खु ण लब्भइ किं पि जहि ।
सारीरउं दुक्खु काई कहिजइ राय तहिं ॥१५॥
१६
हउं णारायणु पडिणारायणु हर महिवइ होतउ सुहभायणु । एम भणंतु कयंतु व कुप्पइ
माणसिएं दुक्खे संतप्पइ। दाणवणिवहहिं पडिचोइज्जइ जुज्झमाणु सो एम भणिजइ । तुहुं अणेण चिरभवि सरदारिउ वरमहिमहिलाकारणि मारिउ । विझमहागिरिगेरुयपिंजरु सीहें एण हयउ तुहुं कुंजरु। पक्खि एण गिलिउ तुहुँ विसहरु महिसे णेण दलिय तुहुं अयवरु । अविरलखरणहरेहिं णिरुद्धउ वग्घेणेण हरिणु तुहुं खद्धउ । हणु हणु एहु एम पञ्चारिउ णं वाएण जलणु संचारिउ । जुज्झइ णारउ णारय गोंदलि णिवडमाणु कोंतोसणि सव्वलि । घत्ता-कंपणकणएहिं लंगलमुसलहिं रिउ दलइ ।
.णियदेहु जि ताहं पहरणरूवहिं परिणमइ ।।१६।। ६. MBPT दुम्मियं । ७. MBP कुंडई । ८. MBP कित्ति । ९. MBP°तावियउं । १५. १. P जहिं तहिं जिं। २. MBP कुणियंगउ । ३. MB णरयखेत्ति। ४. MBP उद्धखासु ।
५. BP अणुमीलणकालु । ६. MBP सारीरिउ । १६. १. MBP कुतासणि । २. MBPK कप्पण, but GT कंपण । ३. MP परिणवइ ।
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११. १६. ११] हिन्दी अनुवाद
२५१ मिलता है। जहां वह स्नान करता है वहीं पीप रुधिर और कीड़ोंसे भरे हुए कूण्ड और पीड़ित शरीर मिलते हैं। दो तीन पांच व्यक्तियों द्वारा पीड़ित कर वह पकड़ लिया जाता है और पोपके सरोवरसे नहाकर ( उसे )
पत्ता-काटकर चमड़ेका परिधान दिया जाता है । तपाये हुए लोहेके कड़े, उसके आभूषण होते हैं ॥१४॥
१५
वह जहां देखता है, वहीं यम शासन है । जहाँ बैठता है वहींपर शूलासन है । जहां भोजन करता है, वहीं दुर्गन्ध है । नीरस कठोर और विरुद्ध । जो चखता है वह विरस लगता है, जो सोचता है वही मनकी चिन्ता बन जाता है। जो सूंघता है वह बुरी गन्धवाला होता है, नारकीय क्षेत्रमें कुछ अच्छा नहीं होता। ऊध्वं श्वास, अति खांसना, जलोदर, आँखों, पेट और सिरका दर्द तथा महाज्वर ये सब होते हैं। पापोंके फलोंके घर नारकीयकी देहमें सब कुछ व्याधि है।
घता-पलक मारनेके समय तकका भी सुख जहाँ नहीं मिलता, हे राजन्, वहाँ शरीरके दुःखका क्या वर्णन किया जाय? ॥१५॥
"मैं नारायण हैं, मैं प्रतिनारायण हूँ, मैं सुखभाजन राजा हूँ" ऐसा कहते हुए उसपर यम क्रुद्ध हो जाता है और वह मानसिक दुःखसे सन्तप्त हो उठता है। दानव समूहके द्वारा वह प्रेरित किया जाता है और युद्ध करते हुए; उससे उस प्रकार कहा जाता है, 'तुम्हारा इसके द्वारा सिर फाड़ा गया था; श्रेष्ठ महिला और धरतीके लिए मारे गये थे। इस सिंहके द्वारा विध्य महागिरि के गैरिक ( गेरु ) से पिंजर तुम गज मारे गये थे। तुम विषधर इस गरुड़के द्वारा निगले गये थे। तुम अश्ववर इस भैंसेके द्वारा विदीर्ण हुए थे। बाघके द्वारा उसके अविरल नखोंसे तुम हरिण खाये गये थे। इस प्रकार तुम इसको मारो मारो, वह इस प्रकार बोला, मानो वायुने ज्वालाको प्रज्वलित कर दिया हो। नारकीयोंको लड़ाईमें नारकीय लड़ते हैं और भालोंके आसन तथा सब्बलों पर गिरते हैं।
पत्ता-कप्पण कमक (?) हलों और मूसलोंसे वह शत्रुको नष्ट करता है। उसका शरीर उन अस्त्रोंके रूपोंमें परिणमित हो जाता है ॥१६॥
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२५२
महापुराण
[११. १७.१
१७
अण्णे अण्णु सुसल्ले सल्लिउ अण्णे अण्णु मुसुंढिइ पेल्लिउ । अण्णे अण्णु तिसूले भिण्णउ अण्ण अण्णु रहंग छिण्णउ । अण्णे अण्णु हुआसणि चित्तउ अण्णे अण्णु पसु व्व विहितउ । अण्णे अण्णु खुरुप्पे खंडिउ अणे अण्णु वियारिवि छडिउ । अण्णहु अण्णे खग्गु विहाइउ तहु केरउ जि मासु तहु ढोइउ । लैइ लइ एवहिं काई णिरिक्खहि । मृग वराय मारिवि किं भक्खहि । तउ अउ तंबउ सीसउ ताविउ अण्णहु मज्जु भणेप्पिणु दाविउ । पिवसु पिवसु अरहंतु ण याणइ चंगउ कउलु तुज्झु वक्खाणइ । पत्ता-उम्मग्गें जंति ण णिवारिय णिद्धम्ममइ ।।
परघरिणि रमंति जिह पई रमिय णिबद्धरइ ।।१७।।
अग्गिवण्ण तत्तिय अइरत्ती लोहविणिम्मिय णं तुह रत्ती। तिह एवहिं आलिंगहि माणिणि एह करिंदकुंभपीणत्थणि । मण्णिवि णवजोवण परवाली अवरुंडहि सामरि कंटाली। खेत्तुब्भउ मोणसु तणुजायउ असुरोईरिउ अण्णोण्णायउ। एउ एम पावोहे लइयह
पंचपयारु दुक्खु णारइयहं । तेत्थु ण णारि ण पुरिसु सुयंसउ णग्गउ जिंदु असेसु णउंसउ । पढमहि पुढविहि णारयगत्तई भयधणुतिरयणिछंगुलमेत्तई । वीयहि पणारस दोवारहं । धणुरयणिउ अंगुलई वियारहं । घत्ता-भवहरदेहाउ पहरंतहु रणि रणरणइ ॥
गरुयारउ होइ णारयदेहु विउठवणइ ॥१८॥
१९
तइयहि एकतीसधणुतुंगई चोत्थियाहि 'रयणीदुयजुत्तई पंचमियहि धणुसउ पणवीसउ छट्टियाहि चावहं जिणभणियई देहुच्छेहु दुहोहढुंगमियहि एक्कु पहिल्लइ दुक्कियदुजइ
एक्करयणि भणु कयदुरियंगई। धुउ चावई बासहि पउत्तई । बड्ढिउ वउ आवइ आभीसउ । दोणि सयइं पण्णास जि गणियई। पंचसयाई होति सत्तमियहि । जलहिपमाणई तिण्णि दुइजइ ।
१७. १. MBP सुसेल्लें । २. MBP मुसंढिइ । ३. MBP read this line as अण्णे अण्णु रहंगें छिण्णउ,
अण्णे अण्णु तिसूलें भग्गउ । ४. MBP विहत्तउ । ५. MP लइ तइ एवहिं । ६. MBP मिग । १८. १. MBP तत्ती । २. MBP माणुस । ३. MBP पुहरहि । ४. MBP पण्णारह । १९. १. B रयणीअजुत्तई । २. MBP चावई । ३. B°दुग्गमियहि । ४. PK होइ।
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११. १९.६] हिन्दी अनुवाद
२५३ १७ एकके द्वारा दूसरा सेलसे पीड़ित किया गया, एकके द्वारा दूसरा भुशुण्डिसे ठेला गया। एकके द्वारा दूसरा त्रिशूलसे छेद दिया गया। एकके द्वारा दूसरा चक्रसे काट दिया गया। एकके द्वारा दूसरा आगमें फेंक दिया गया, एकके द्वारा दूसरा पशुके समान काट दिया गया। एकके द्वारा दूसरा खुरपेसे खण्डित कर दिया गया, एकके द्वारा दूसरा विदीर्ण करके छोड़ दिया गया है। एकके द्वारा दूसरा तलवारसे विभक्त कर दिया गया और उसीका मांस उसे खानेको दिया गया कि लो-लो, इस समय क्या देखते हो, तुमने बेचारे पशुओंको मारकर क्यों खाया था ? तप्त लोहा, तांबा, और सीसा तपाया गया, और एक दूसरेके लिए मद्यके रूपमें दिखाया कि पियो पियो, तूं अरहन्तको नहीं जानता, तुम्हारा कोल सुन्दर व्याख्यान देता है।
___घत्ता-धर्महीन मति खोटे मार्गपर जाते हुए तुमने अपना निवारण नहीं किया। और जिससे तुमने रति बांधकर दूसरीकी स्त्रीका रमण किया है ।।१८।।
१८
अग्निवर्णा, संतप्त अत्यन्त लाल लोहेसे बनी हुई । मानो यह तुममें अनुरक्त हो। गजराजके कुम्भके समान पीन स्तनोंवाली मानिनीका आलिंगन करो, नवयौवना परबाला मानकर इस कटीली शाल्मलीका आलिंगन करो। क्षेत्रसे उत्पन्न मानसिक शरीरसे उत्पन्न असुरोंसे प्रेरित और अन्यके द्वारा उन्नमित पाँच प्रकारका दुख पापोंके समूहसे गृहीत नारकीयोंको होता है। वहां न नारी है, न पुरुष है, और न सुन्दर शरीरावयव है, नंगा, निन्दनीय और अशेष नपुंसक । प्रथम भूमिमें नारकीयका शरीर सात धनुष तीन हाथ और छह अंगुलका होता है। दूसरी भूमिमें पन्द्रह धनुष छह हाथ और बारह अंगुल होता है।
___घत्ता-अरतिजनक युद्धमें जन्मको धारण करनेवाली देहसे प्रहार करते हुए विक्रियाके द्वारा नारकीयका शरीर भारी हो जाता है।॥१८॥
तीसरी भूमिमें इकतीस धनुष एक हाथ और दो अंगुल ऊंचा शरीर होता है । चौथी भूमिमें बासठ धनुष और दो हाथ ऊँचा। पांचवीं भूमिमें पच्चीस धनुष ऊंचा शरीर......."छठी भूमिमें जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कथित दो सौ पचास धनुष ऊंचाई होती है। दुःखके समूहसे दुर्गम सातवीं भूमिमें शरीरकी ऊंचाई पांच सौ धनुष होती है। दुष्कृतोंसे अजेय पहले नरकमें एक सागर प्रमाण
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१०
१०
१०
२५४
तिज्जइ णरइ सत्त चोत्थइ दह छट्ठइ पुणु बावीस ण रहियई घत्ता - कंदंत कणंत महिहि घुलंत सुहंतरिय || जीवंत हासणार तिलु तिलु कप्परिय ||१९||
महापुराण
अक्खमि सुर दहवसुपंचविह वि हरयणहि धरित्तिहि असुरवरहं चट्ठि समक्खई बाहत्तर लक्खाई सुवण्णहं दीव समुहणियत डिणामहं एकेक लक्खाई छहत्तर लक्ख णवइ लेसाहिय धीरहं कोड सत्तदुत्तर लक्खइं भावणभवणई एम पउत्तई भूयरक्खसावासविसेसई अवराई मि विमलसिरिहारइ वेंतेरणयरई "अयरमणीयइं
ते जियंति अहमेण अरम्महि महि 'उत्तिमुतं वंसहि जं वंसहि उत्तिमु तं सेलहि जं सेलहि उत्तिमुणिहिटूठउ जं अंजणाहि परमु पवियप्पिउ जंजि अरिहि किर परमाउसु जं पूरउ मघविहि दुहतवियहि विकिरिया सरीरविण्णासई होति' अहोहो रुंदई विवरई होंति अहोहो रणई' दुवेक्खै घत्ता - जुज्झतह ताहं पहरणकोडिहिं णिद्दलिय ॥ तणुलव लग्गंति सूँयलवा इव संमिलिय ||२०||
सायराई पंचमि सत्तारह । सत्तमि तीस तिअहियई कहियई ।
२०
फुड दह वरिससहासई घम्महि । आउ जहण दलिय सुहं स हि । आउ जहण्णउं रउरेवरोलहि । अंजणाहि तं किर णिक्किट्ठड। तं जि अरिट्ठहि अहमु वियैप्पिउ । तं मघवहि देसि अचिराउसु । तं आणु मरणु माघवियहि । होति अहोहो दीहाउस्सई । होंति अहोहो मंदइ तिमिरइ' । होंति अहोहो तिव्व दुक्खई ।
२१
सोलह दु णव पंचविह पुणरवि । विवरतरि बहुरइरसथत्तिहि । णायघरहं चउरासीलक्खई । भवणहं भूरिभासमा इण्णहं । आसाणलकुमारवरधामहं । अक्खइ एम मयणमयकेसरि । आवासाहं समीरकुमारहं । पिंडीकयई होंति पञ्चक्खई ।
दह सोलह सहस निरुत्तई । Paragraघोसई । वणगयणयलजलहिर्स रतीरइ | होति गणंतह संखाईयां |
[ ११. १९.७
२०. १. MBP उत्तमु and also elsewhere in this kadavaka २ P°लोलहि । ३. MBP पयंपिउ । ४. Bomits this foot ५. Bomits this line. ६. MBP दुपेक्खई । ७. P पारलवा ।
४. M बहत्तर । ५. K ९. MBP वितरं । १०.
२१. १. MBP धरत्तिहि । २ MBP असुरवरई । ३. MBP भाइणहं ।
चोद्दह । ६. K णिउत्तरं । ७. MB परिमलं । ८. MBP सरितीरइ । MBP अई; K अर्थ but eorrects it to अई ।
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११. २१. १२] हिन्दी अनुवाद
२५५ आयु होती है, दूसरेमें तीन सागर, तीसरे नरकमें सात सागर, चौथे नरकमें दस सागर, पांचवें रकमें सत्तरह सागर, छठे नरकमें बाईस सागर प्रमाण रहते हैं और सातवें नरकमें तैंतीस सागर प्रमाण आयु होती है।
घत्ता-आक्रन्दन करते, चिल्लाते हुए सुखसे रहित नारकीय जीव हताश होकर जीते हैं, और तिल-तिल एक दूसरेको काट देते हैं ॥१९॥
२०
वे नारकीय उस असुन्दर घर्मा धरतीमें जघन्य आयुसे दस हजार वर्ष जीवित रहते हैं। जो धर्माभूमिको उत्तम आयु है वह सुखोंके आशयोंको नष्ट करनेवाली वंशाभूमिकी जघन्य आयु है। जो वंशाभूमिकी उत्तम आयु है वह रौरव ध्वनियोंसे युक्त मेघाकी जघन्य आयु है। जो मेवाकी उत्तम आयु बतायी गयी है वह अंजनाकी निकृष्ट आयु है । जो अंजनाको उत्तम आयु कही गयी है वह अरिष्टाकी उत्तम आयु कही गयी है। जो आयु अरिष्टाकी उत्तम है वही मघवीकी अचिरायु ( जघन्य ) कहो गयी है। दुःखसे सन्तप्त मघवीको जो पूरी ( उत्कृष्ट ) आयु है, वह माधवी नरकभूमिमें आसन्नमरण ( जघन्य आयु ) है । इस प्रकार (ऊपरसे ) नीचे-नीचे विक्रिया शरीरकी रचना और दीर्घ आयुवाले बिल होते जाते हैं। नीचे-नीचे बड़े-बड़े बिल होते हैं, नीचे-नीचे सघन अन्धकार हो जाता है । नीचे-नीचे दुर्दशनीय युद्ध होता है । नीचे-नीचे तीव्र दुःख होता है।
पत्ता-युद्ध करते हुए उनके करोड़ों शस्त्रोंसे दलित शरीरकण, मिले हुए पारद कणोंकी तरह प्रतीत होते हैं ।।२०।।
२१
मैं दस, आठ, पांच, सोलह, दो, नौ और फिर पांच प्रकारके देवोंका वर्णन करता हूँ। प्रचुर रतिरसकी स्थितिवाली इस रत्नप्रभा भूमिके विवरके भीतर (खर और पंक भागमें) अवधिज्ञानियों या सर्वज्ञोंके लिए प्रत्यक्ष असुरवरोंके चौसठ लाख एवं नागकुमारोंके चौरासी लाख भवन हैं। सपर्णकमारोंके प्रचर आभासे व्याप्त बहत्तर लाख. द्वीपकमारों. उदधिकमारों. स्तनितकुमारों, विद्युत्कुमारों, दिक्कुमारों और अग्निकुमारोंके नौ लाख साठ हजार भवन हैं। इस प्रकार भवनवासियोंके कुल मिलाकर सात करोड़ बहत्तर लाख प्रत्यक्ष भवन हैं। भवनवासी देवोंका इस प्रकार कथन किया गया है। भूतों और राक्षसों, वीणा, वेणु और प्रणवके निर्घोषोंसे युक्त सोलह और चौदह हजार आवास विशेष होते हैं। दूसरे विशिष्ट तथा विमल लक्ष्मीको धारण करनेवाले देव वन, आकाशतल, समुद्र और सरोवरोंके किनारोंपर निवास करते हैं। व्यन्तरोंके सुन्दर निवास गिनती करनेपर संख्यातीत हैं।
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२५६
[११. २१. १३
महापुराण घत्ता-जोयण सय सत्त अण्णु वि णवइ मुएवि धर ।
णहि जोइसवास ते णरलोयहु उवरिचर ॥२१॥
अद्धकविट्ठसरिससंठाणई संखारहियइं होति विमाणई । पंचवण्णरयणावलिखइयई बोहल्लत्ते पुणरवि रइयई। जोयणसइ खेत्तम्मि दहोत्तरि अयलइ माणुसलोयहु बाहिरि । अवरइं लंबियघंटायारे
थियइं असंखदीववित्थारें। बत्तीस जि लक्खई सोहम्मइ अट्ठावीसीसाणि सुरम्मइ । दुदहँ सणक्कुमारि माहिंदइ अट्ठलक्ख परिभमियसुरिंदइ । अस्थि विमाणहं उवणियसोक्खई . बंभि संबंमुत्तरि चउलक्खई। पण्णास जि लंत वि काविट्ठइ सहसइं होंति जिणाहिवसिटइ । सुक्कमहासुंकइ चालीस जि छह सयारसहसारहिं सहस जि । आणय पाणय आरण अच्चुय चउकप्पहिं सत्तसय संथुय । हेहिमगेवजइ एयारह
अवरु वि सउ सुरपवरागारहं । सत्तुत्तरु मज्झिमहि भणिज्जइ णवइ एक्कु उवरिमहि गणिज्जइ । णव जि णउत्तरि पंचागुत्तरि पंच विमाणई सोक्खणिरंतरि । चउरासीलक्खाई णिकेयह
संत्ताणउदीसहासई एयहं । एकीकयई ण लेक्खि विरुद्धई अण्णु वि तेवीसई'लइ लद्धई । घता-गेहहं तुंगत्तु बिहिं कप्पहिं कवडेण विणु।।
जोयणहं सयाइं उडुमाणइं वजरई जिणु ॥२२॥
२३ पंचसयाई बिहिं मि उवरिल्लहिं चउ अड्ढे जि बिहि ताहं पहिल्लहिं । उप्परि बिहिं चत्तारि सउद्धई घरइं वरइं णाणामणिणिद्धई। पण्णासयई तिण्णि बिहिं अक्खमि सयई तिण्णि पुणु बिहिं जि णिरिक्खमि । पुणु चउकप्पहं हम्मुच्छेहउ अड्ढाइजसयाई संरेहउ । पुणु दुइ दुई दियड्ढे पुणरवि सउ पुणु पण्णास समीरिउ उच्छउ । पुणु उद्धत्ते उवरि विमाणइं पंचवीसजोयणइं पहाणई। सव्वठ्ठहु चूलिय लंघेप्पिणु बारहजोयणाई जाएप्पिणु ।
तम्मि तिलोयहु सिहरि णिसण्णी पणयालीसलक्खवित्थिण्णी । २२. १. MBPT वाहालत्ते पर ण वि and gloss in T परेण न विरचितानि केनापि । २. MBP
जोयणसय । ३. K अवरें। ४. MBP दोदह सणकुमारि । ५. MBP सुबंभोत्तरि । ६. P कापिट्ठइ। ७. MBP सत्तसयइं। ८. MP सत्ताणवदि । ९. MBP लेक्खविरुद्धई। १०. P अण्णु वि पुणु तेबीसई
लद्धई। ११. K तेवीस जि लइ । १२. K वज्जरिइ। २३. १. MBP अद्ध । २. MBP पइल्लाह। ३. MBP सुरेहउ; सुरेहउ but corrects it to
सरेहउ । ४. MBP पुणु । ५. MBP दिवड्दु ।
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११. २३.८]
· हिन्दी अनुवाद
२५७
1
घत्ता - आकाश में सात सौ नब्बे योजनकी ऊँचाईपर ज्योतिषदेवोंका वास है । ये मनुष्यलोकके ऊपर विचरण करते हैं ||२१||
२२
इनके आधे कवी ( कपित्थ ) के समान आकारवाले संख्याहीन विमान होते हैं जो पाँच प्रकारकी रंगावलियोंसे विजड़ित और प्रचुरतासे निर्मित एक सौ दस योजनके पटलक्षेत्र में, मनुष्यलोकके बाहर अतल लोकमें स्थित हैं । दूसरे विमान (वैमानिक देवोंके विमान ) लम्बे घण्टोंके आकारवाले तथा असंख्य द्वीपोंमें विस्तारवाले जिनचैत्य हैं । सोधर्मं स्वर्गमें बत्तीस लाख, सुन्दर ईशान स्वर्ग में अट्ठाईस लाख, सनत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में (जिनमें इन्द्र परिभ्रमण करते हैं ) क्रमशः बारह लाख और आठ लाख, ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में सुखपूर्ण चार लाख, लान्तव और कापिष्ठ स्वर्ग में पचास हजार जिन-चेत्यघर हैं। शुक्र और महाशुक्रमें चालीस हजार, शतार और सहस्रार में छह हजार होते हैं; आनत और प्राणत स्वर्गों तथा आरण-अच्युतमें सात सौ कहे जाते हैं ।' अधोग्रैवेयक में एक सौ ग्यारह, मध्य ग्रैवेयकमें एक सौ सात, ऊर्ध्वं ग्रैवेयकमें इक्यानबे, नो अनुदिशोंमें नो और सुखसे निरन्तर भरपूर पांच अनुत्तरोंमें पांच ( चैत्यगृह हैं ) । इस प्रकार चौरासी लाख सन्तानबे हजार तेईस निकेतन हैं। इनको एकीकृत करनेमें विरोध नहीं है ।
धत्ता - बिना किसी प्रकारके कपटके जिन भगवान् कहते हैं कि दोनों स्वर्गोंको ऊँचाई सात सौ योजन है ॥२२॥
२३
ऊपर के दो स्वर्गो की पांच सौ योजन उनसे पहलेके स्वर्गोंकी साढ़े चार सौ योजन उसके ऊपर के विमानोंकी चार सौ योजन ऊँचाई है, जिनमें नाना मणियोंसे स्निग्ध श्रेष्ठ विमान हैं । उनके ऊपर के तीन स्वर्ग साढ़े तीन सौ योजन ऊंचे हैं। उसके ऊपरके विमान तीन सौ योजन ऊँचे देखता हूँ। फिर चार कल्पस्वर्गके विमान शोभासहित अढ़ाई सौ योजन ऊँचे हैं, फिर दो-दो सौ योजन, फिर दोका आधा, सौ योजन, फिर उनकी ऊँचाई पचास योजन है । फिर उसके ऊपर प्रधान विमान पचास योजन ऊपर हैं । सर्वार्थसिद्धिकी चूलिकाको लांघकर बारह योजन जाने१. ब्रह्म ब्रह्मोत्तर ४ लाख ( क्रमशः १९००० + १०४०००), लौकान्तिक और कापिष्ठ ( क्रमशः २५०४२ + २४५८ = ५००० ) शुक्र- महाशुक्र ( २००२० + १९९८० ) शतार और सहस्रार ( ३०११ + २९८१ ) आणत प्राणत आरण और अच्युत ( पहले दो ४४० + अन्तिम दो २६० = ७०० ) ।
३३
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२५८
[११. २३.९
महापुराण ससहरहिमणिहछत्तायारी सिद्धथत्ति भव्वयणपियारी। जोयणाईजोइय णीसल्ले अट्ठमपुहइ अठ्ठ 'बाहल्ले । घत्ता-सविमाणहु मज्झि सयणि महारुहि समयमणु ॥
उववादसहावे भिण्णमुहुत्ते लेति तणु ॥२३॥
२४ मउडेहिं हारेहि
केऊरदोरेहि। कंचीकलावेहिं
मंजीररावेहिं । भूसापहासेहिं
अइसुरहिसासेहिं। वेडम्वियंरोहिं
लक्खणपसंगेहिं । चउरंसठाणेहि
माणवणिवाणेहिं। अणमिसहिं णयणेहिं ससिसोमवयणेहिं । विच्छिण्णतावेण
पुण्णप्पहावेण। कणयं व गयलेव
जायंति खणि देव। णक्खाई चम्माई ण सिराउ रोमाई। रत्ताई पित्ताई
ण पुरीसमुत्ताई। मीसियउ मासाई ण वलासकेसाई। मत्थिक्कसुक्काई
णउ अस्थि वोकाई। सोहग्गगेहम्मि
देवाण देहम्मि। उवहरकवाडाई
सई होंति वियडाइं। हरिसेण वग्गंति
सहस त्ति णिग्गंति । सुरजोणिसंपुडहु
मणिकिरणपायडहु । जय देव देविंद
जय णाह चिलं गंद। एवं पघोसंति
परियणइं तूसंति । सम्वहिं मि तणुमाणु उद्दिछु जिणणाणु । घत्ता-असुरहं पणवीस दह सेसाहं सतरह ॥
देहहु दीहत्तु सत्त जि धणु जोइससुरहं ॥२४॥
२०
बिहिं रयणीउ सत्त बिहिं छह भणु पुणु बिहिं पंच समुण्णउ सुरयणु । पुणु चउहुं मि चत्तारि जि गीयउ पुणरवि आहुठ्ठ जि बिहिं णीयउ । तिण्णेव य रयणिउ सवियप्पहिं दहपंचमसोलहमयकप्पहिं ।
दो पुण अड्ढ पढमगेवजहि मज्झस्थियहि दोण्णि जंगपुजहि । ६. MBP बाहुल्लें । ७. MPT सयणु। २४. १. P डोरेहिं । २. P°पसाहेहिं । ३. MBP अणिमिसहिं । ४. MBP सोम । ५. MBP तावेहिं ।
६. MBP 'प्पहावेहिं । ७. MK जायंत । ८. M णिरु । २५. १. MBP पुणु चहुँ; T पुंणु बिहिं । २. MBP जगि पुज्जहि ।
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११. २५.४] हिन्दी अनुवाद
२५९ पर वहां त्रिलोकके ऊपर शिखरपर स्थित पैंतालीस लाख योजन विस्तीणं चन्द्रमा और हिमके समान छत्राकार भव्यजनोंके लिए प्यारी सिद्धोंकी भूमि अर्थोंसे प्रचुर आठवीं पृथ्वी है।
घत्ता-अपने विमानके भीतर अत्यन्त मूल्यवान् शयनमें एक समयसे लेकर उपपाद स्वभावसे जो भिन्न मुहूर्तमें शरीर ग्रहण कर लेता है ॥२३॥
उसमें मुकुटों, हारों, केयूरों, दोरों, कांचीकलापों, मंजीर शब्दों, वेशभूषाके प्रसाधनों, अतिसुरभित साँसों, वैक्रेयक शरीरों, लक्षण प्रसंगों, समचतुरस्र संस्थानों, मानवी आकारों, अपलक नेत्रों, चन्द्रमाके समान सौम्य मुखों और सन्तापशून्य पुण्य प्रभावोंसे स्वर्णके समान विकारसे रहित देव एक क्षणमें उत्पन्न होते हैं। सौधर्म स्वर्गके देवोंके शरीरमें नखचर्म और सिरमें रोम नहीं होते। न रक्त न पित्त, और न पुरीष और न मूत । न मसें न मांस और न दाढ़ी केश होते हैं। न उनके मस्तिष्कमें शुष्कता होती है और न कलेजा ( यकृत ) होता है। उनके वासगृहोंके किवाड़ स्वयं खुल जाते हैं। ( इस प्रकार) मणिकिरणोंसे आलोकित देवयोनि-विमानोंसे देव अचानक निकल पड़ते हैं और हर्षसे उछलने लगते हैं, 'हे देव-देवेन्द्र, आपकी जय, हे स्वामी, आपकी जय । आप प्रसन्न हों" यह घोषणा करते हैं और परिजनोंको सन्तुष्ट करते हैं। इन सबके शरीरोंका मान जिनज्ञानके द्वारा निर्दिष्ट है।
___ घत्ता-भवनवासियोंमें असुरकुमारोंकी ऊंचाई पच्चीस धनुष और व्यन्तरों सहित शेष देवोंके शरीरकी ऊंचाई दस धनुष तथा ज्योतिष देवोंके शरीरकी सात धनुष है ॥२४॥
२५
(वैमानिक देवोंमें ) सौधर्म और ईशान इन दोनों स्वर्गों में शरीरकी ऊंचाई सात हाथ, सनत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में छह हाथ, फिर ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर. लान्तव और कापिष्ठ स्वर्गोंमें पाँच हाथ ऊंचे देवजन होते हैं। शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार स्वर्ग में चार हाथ, और फिर आनत और प्राणत स्वर्गमें साढ़े तीन हाथ होते हैं; आरण और अच्युत इन दो स्वर्गों में तीन हाथ । प्रथम ग्रैवेयक (अधोवेयक ) के विमानोंमें (३) ढाई हाथ; विश्वपूज्य मध्यम ग्रेवेयकके विमानोंमें
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२६०
[११.२५.५
महापुराण होइ दियड्ढ रयणि उवरिलहि अमरबोंदिपरिमाणु सुहिल्लहि । णव पंचाणुत्तरह मि सारउ एकु जि रयणि पउत्तु सरीरउ । अणिमामहिमालघिमापत्तिहिं ईसत्तणवसित्तगइसत्तिहिं । जुत्तकामरूवे कामाउर
कीलालोललील सयरामर । णउ खुज्जय वामण वड हुंडय । णारी पुरिस जि णउ ते पंडेय । आईसाणकप्पसंभवणउं
जावचुउ ता देविहिं गमणउं । भावणाइणाणातणुधारा
आईसाण कैप्पपडिचारा। घत्ता-फासें पडिचारु सणकुमारमाहिंदरुह ।
रूवेण करंति उवरिम चउकप्पय विबुह ॥२५॥
२६
पुणु चउकप्पसमुब्भव सुरवर __ होंति सहपडिचार सुहंकर । वरि चउकप्पहिं मणपडियारा एत्तो उवरिमणिप्पडियारा । सप्पडियार णिएवि अणिंदहु अतुलसोक्खु णिहिलहु अहमिदहु । अहमिंदहु पासाउ जिणिंदहु गयरायडं तिरायवइवंदहु । कह मि आउ तियसह सुहसंगमु । असुर जियंति एकु सायरसमु । णायहुं पल्लई तिण्णि वियाणसु वणदेवहुं पल्लु जि परमाउसु । अड्ढाइज पल्ल सोवण्णहं दीवहं दोणि पुण्णपरिपुण्णहं । सेसहं होइ दिवड्दु णिरुत्तउ चंदु जियइ लक्खें संजुत्तउ । एक्कु पल्ल 'सहुँ सहसे वरिसहुँ जीवइ दिणयरु वढियह रिसहुँ । एकु जि सुकु सएण समेयउ तारारिक्खहुँ ऊणउ णेयउ । पंच सत्त पुणु णव एयारह तेरह पण्णारह सत्तारह । एक्कुण एकवीस तेवीस वि. पंचवीस भणु सत्तावीस वि । चउँत्तीसेकताल अडदौल वि . पंचावण्ण जि पल्लई जगरवि । सोहम्माइहिं भणइ सतिलयहं आउ अञ्चुयंतहं सुरविलयहं । घत्ता-बे सत्त दसेव चोइँहठारह वि ॥
वीस जि बावीस उड्ढ एक्कु वढिमु केह वि ॥२६॥
१५
२७
ताम जाम तेत्तीससमुद्दई सव्वंद्वम्मि आउ कयभद्दई । कप्पह कप्पाईयई एहउ
अक्खमि णाणविसेसु वि जेहउ । सक्कीसाणहं अवहि पधावइ जाम पढममहिमंतु विहावइ। ३. MBP परमाणु । ४. MBP एक्क । ५. MB°मइसत्तहिं । ६. MBP सयलामर । ७. MBP
वावण । ८. M संढय । ९. MBP कायपडि । २६. १. MBPK अतुलु । २. MB णिराय। ३. MBP पल्ल परिपुण्णहं। ४. MBP चउतीसे।
५. MBP अडताल । ६. P सच्चुयंतहं । ७. MBP चउदह छद्दह अट्ठारह । ८. MBP उडु एक्कु ।
९. K कहमि । २७.१. MBP तेतीस । २. MBPT सव्वदहमि । ३. MBP °महिअंतु ।
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११. २७. ३ ]
हिन्दी अनुवाद
२६१
दो हाथ | ऊपरके अर्थात् अन्तिम ग्रैवेयक के तीन सुखद विमानों और ( अनुदिशों ) के देवसमूहका परिमाण डेढ़ हाथ, विजयादिक पाँच अनुत्तर विमानोंका श्रेष्ठ शरीर एक हाथ प्रमाण कहा गया है | अणिमा, महिमा, लघिमादि शक्तियाँ ईशित्व, वशित्व और गतिशक्तिके द्वारा, युक्त कामरूपसे आतुर समस्त देव क्रीड़ासे चंचल लीलावाले होते हैं। वे कुबड़े, वामन, न्यग्रोध संस्थानवाले और हुंड ( विकलावयववाले ) नारी-पुरुष और नपुंसक नहीं होते । च्युति ( च्यवन ) पर्यन्त देवांगनाओंके साथ गमन आदि ऐशान स्वर्ग तक सम्भव है । नाना शरीर धारण करनेवाले भवनवासी देवोंसे लेकर ईशान स्वर्ग तक शरीरसे कामसेवन किया जाता है ।
घत्ता - सनत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में स्पशंसे कामसेवन होता है; उससे ऊपरके चार स्वर्गों (पाँचवेंसे आठवें स्वर्गं तक ) में देव रूप देखकर कामको शान्ति करते हैं ||२५||
२६
फिर चार स्वर्गों (नोवेंसे लेकर बारहवें तक ) में शुभ शब्द - कामसेवन होता है । उसके बाद चार स्वर्गों ( १६ वें स्वर्गं तक मनके विचारोंसे कामसेवन होता है । यहाँसे ऊपरके देव कामसे रहित होते हैं । कामको नियन्त्रित कर अनिन्द्य निखिल अहमिन्द्रोंको अतुल सुख होता है । अहमिन्द्रोंकी तुलना में गतराग और त्रिभुवनपतियों द्वारा वन्दनीय जिनेन्द्रका सुख होता है । देवोंको सुखका संगम करानेवाली आयुका कथन करता हूँ । असुर एक सागरके बराबर जीते हैं । नागकुमारों को तीन पल्य आयु जानो । व्यन्तर देवोंकी उत्कृष्ट आयु एक पल्य ही है । सुपर्णकुमारोंकी आयु ढाई पल्य होती है । पुण्यसे परिपूर्ण द्वीपकुमारोंकी दो पल्य होती है। और शेषकी डेढ़ पल्य होती है । चन्द्रमा एक लाख वर्षं अधिक एक पल्य जीवित रहता है। सूर्य हर्षको बढ़ानेवाले एक हजार वर्ष अधिक एक पल्य जीवित रहता है। सौ वर्षं अधिक एक पल्य शुक्र जीता है, ताराओं और नक्षत्रों की कुछ कम एक पल्य ( अर्थात् नक्षत्रोंकी आधा पल्य, तारोंकी चौथाई पल्य ) जानो । फिर सौधर्मादि स्वर्गीके प्रत्येक युगल में क्रमशः सौधर्मं- ऐशानमें कुछ पांच सागर ( अधिक दो- सागर ) सानत्कुमार- माहेन्द्र स्वर्ग में सात सागर, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर में नौ ( दस ), लान्तव और कापिष्ठ में ग्यारह ( चौदह ), शुक्र-महाशुक्रमें तेरह ( १६ सागर ), शतार और सहस्रारमें पन्द्रह ( अठारह), आनत-प्राणतमें सत्रह (बोस), आरण और अच्युत में उन्नीस ( बाईस ), चौंतीस, इकतालीस, अड़तालीस सागर और पचपन पल्य आयु होती है । इस प्रकार विश्वसूर्यं जिन भगवान् सौधर्म आदि स्वर्गोंकी वनिताओं और अच्युतादि स्वर्गोंकी देवांगनाओंकी आयुका कथन करते हैं ।
घत्ता- -दो, सात, दस, चौदह, अठारह, बीस, बाईस, उससे एक ऊपर कुछ अधिक ||२६||
२७
वहाँ तक कि जहाँ तक, सर्वार्थसिद्धिमें कल्याण करनेवाले देवोंकी तैंतीस सागर आयु है । . कल्प और कल्पादिक स्वर्गके देवों जैसा ज्ञान विशेष है, वैसा कथन करता हूँ । सोधमं ओर ईशान स्वर्ग के देवोंके अवधिज्ञानकी गति वहां तक है कि जहां तक पहली भूमि धर्माका अन्त है । फिर
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५
१०
५
१०
२६२
महापुराण
पेच्छंति वि जाणंति वि णिम्मलु । संभूय चत्थी मेइणि । आरणच्चुयामर छँट्ठमियहि । ताम जाम सत्तमणरयंतड । तिजैगणाडि पेक्खति अणुत्तर । जाता देव मुति महागुणि । संखा जुत्तई जोइसवासहं । गणिय जोयणकोडिड असुरहं । चंदहं सूरहं गुरुअंगारहं । "संखाहिउ ओहिविसउल्लउ ।
पुणु दोसग्ग देव बीयहि तलु भणु चरकप्प तियस तइयावणि आणयपाणय सुर पंचमियहि व गेवज्ज मुति महंत सुद्ध ओहि अणुदिस सुंदर उपरि णियविमाणचूडामणि पंचवीस जोयणई वणेसह अरु वि हवइ ओहि कयसमरह te असुर तिह रिक्खहं तारह सुक्क पुणु में अक्खड भल्लउ घत्ता - णारयवि मुणंति जोयणेक्के' रयणप्पहहि || गाउय अद्धधु होइ हाणि से सहि महिहि ||२७||
२८
कम्माहारु असेसह जीवहं लेवाहरु विदीसइ रुक्खह ओजोहारु पक्खिसं घायहं अहमंद वि करंति तेत्तीस हिं वत्तीसेत्तीस पुणु तीस हिं एक्hes जि एम पsिहम्मइ आणिबंध महोव हि संखहिं पल्लजीवि पुणु भिण्णमुहुत्तें ऊससंति केई विपक्खेण जि सरसई सुरहियाई अइमिट्ठइं आहरति दवियाई सइत्तें घत्ता - संसारिय जीव चउविह चउगइभिण्ण जिह || इंदियभेण पंचपयार पउत्त तिह ||२८||
णोकम्माहरु वि भवभावहं । कवलाहारु णरोहतिरिक्खहं । मणभोयणु चउदेवणिकायहं । वोलीणहिं वरवरिससहासहिं । एक्कुतीसहिं अट्ठावीस हिं । सोलहमे बावीसहि जिम्मइ । णीससंति तेत्तियहिं जि पक्खहिं । णीससंति अंह ताहं पुहतें । असुर असंति अहिय सहसेण जि । सुहुमईसुद्धई णिद्ध इट्ठई । परिणमंति सहस त्ति तणुत्तें ।
O
४. K छमियहि । ५. P ते जिगणाडी । ६. MBP अवर । ७. P वह । ८. MB तिक्खहं । ९. MBP सई । १०. MP संखाई ओही विसयल्लउ; B संखाईउ ओहिविसयल्लउ । ११. MBP जोयक्कु । १२. M णीसे सहि ।
२८. १. B लोवाहरु । २. MBPK ओजाहारु । ३. MBP तेतीसहि ।
५. MBP पविहम्मइ । ६. MBPK सोलहमइ ।
९. MBP केड जि पक्खेण वि । १०. MBP सद्रसेण वि ।
[ ११.२७.४
७. MBP आउ णिबधु ।
४. MBP सेक्क तीस । ८. MBP पुणु ।
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११. २८.१३] हिन्दी अनुवाद
२६३ दो स्वर्गके देव ( सानत कुमार और माहेन्द्र ) दूसरी नरकभूमि तक निर्मल देखते हैं और जानते हैं, फिर चार स्वर्गके देव (ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव और कापिष्ठ), तीसरी भूमि फिर चार स्वर्गासे सम्भूत (शुक्र, महाशुक्र, सतार, सहस्रार) देव चौथी भूमि, आणत-प्राणत स्वर्गके देव पांचवीं धरतीको, आरण-अच्युत स्वर्गके देव छठी भूमि तक जानते हैं। नौ ग्रेवेयकके महान् देव वहां तक जानते हैं जहां तक सांतवा नरक है । अनुदिशके सुन्दर देव त्रिजगकी नाड़ीको अपने शुद्ध अवधिज्ञानसे जान लेते हैं। महागुणवान् अनुत्तरदेव ऊपर, अपने विमानके शिखर तक जानते हैं। व्यन्तर देवोंका अवधिज्ञान पच्चीस योजन तक जानता है ! ज्योतिषदेवोंका अवधिज्ञान संख्यायुक्त होता है; और भी युद्ध करनेवाले असुरदेवोंका अवधिज्ञान एक करोड़ योजन होता है। जिस प्रकार असुरोंका उसी प्रकार नक्षत्रों और तारों, चन्द्रों, सूर्यों, गुरु और मंगल ग्रहोंका। शुक्रका भी मैंने संख्याधिक विशेष अवधि बताया।
पत्ता-नारकीय भी रत्नप्रभा भूमिमें एक योजन तक देख लेते हैं, शेष भूमिमें आधीआधी गव्यूतिकी हानि होती है ॥२७॥
२८ कर्मका आहार सब जीवोंके लिए होता है, शरीरयुक्त जीवोंका नोकर्मका आहार (छह पर्याप्तियों और तीन शरीरोंके योग्य पदगलोंका ग्रहण ) होता है। लेपाहार वक्षों में भी दिखाई देता है। मनुष्यों और तिर्यंचोंका कवलाहार होता है। औद्य आहार पक्षीसमूहका होता है । चारों देव-निकायोंका मानसिक आहार होता है। अहमिन्द्र भी क्रमशः तैंतीस हजार उत्तम वर्ष बीत जानेपर मानसिक आहार ग्रहण करते हैं। फिर बतीस, इकतीस, तीस, उनतीस, अट्ठाईस, बाईस और सोलह हजार वर्षों में देव (भूखसे ) आहत होते हैं और आहार (मानसिक) ग्रहण करते हैं। जितने सागरोंकी संख्यामें उनकी आयु होती है, उतने ही पक्षोंमें वे निश्वास लेते हैं । पल्यजीवी देव एक भिन्न मुहूर्त में अथवा भिन्न मुहूर्तों में तीन मुहूर्तोंसे ऊपर और नौ मुहूर्तों के नीचे, कभी, निश्वास लेता है। कोई एक पक्षमें श्वास लेते हैं। असुर एक हजार वर्ष भोजन करते हैं। सरस-सुरभित अत्यन्त मीठा सूक्ष्म शुद्ध स्निग्ध इष्ट जो द्रव्य चित्त खाये जाते हैं वे शीघ्र ही शरीररूपमें परिणत हो जाते हैं।
घत्ता-संसारी जीव जिस प्रकार चार गतियोंसे भिन्न होनेके कारण चार प्रकारके होते हैं, उसी प्रकार इन्द्रियभेदसे पांच प्रकारके होते हैं ॥२८॥
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१०
१५
१०
२६४
काएं 'छवि चलथिरेण वि जलणिहिवि वि कँसाएं जाया संजमदंसणेण तिचउठिवह भव्वत्तेण विविह सम्मत्तें आहारे आहारिय जे जे केवलिसमुहय विग्गह गइगय ते लेंत आहारु वियारिय मग्गठाणई चोद्देहभेय इं मिच्छादिट्ठि पहिल्लउं गीयउं अविरयसम्माइट्टि चउत्थउं छट्ठउ पुणु पमत्तसंजमधरु अट्ठमु होइ अउठवु अउव्वरं दहम सुहुमराउ जाणिज्जइ बारहमउ परिखीणर्कसायर उझियतिविहसरीरभरंतरु घत्ता-णारय चत्तारि चत्तारि जि पुणु सुरपवर । तिरियंच वि पंच णीसेसम्मि" चडंति पर ||२९||
कम्मविहम्ममाण ससरीरा दंसणणाणसहाव पहट्ठा ताहं चेटू जा होइ समासम जेम तेल्लु सिहिसिहपरिणाम हु जीवें लइ जाइ जियत्तहु जिह सिहिभावहु वञ्चइ इंधणु असु असु सु सु संघइ अभव जीव जिणणाहें इच्छिय मइओहिमणपज्जव केवल णिद्दाणिद्दा पयलापयला
महापुराण
२९
तिविह तिविहजोएं वेएण वि । अ. विष्णाया । सापरिणामेण वि छव्विह । सण्णि असण्णी दो सष्णिन । चउसु वि इसु परिट्ठिय ते ते | अरुह अजोइ सिद्ध परमप्पय । सेस जीव जाहि आहारिय | निसुणहि गुणठाणाई मि एयई । सास वीडं मी वि तीयउं । पंचमु विरयाविरड पसत्थउ । सत्तमु अप्पमत्तु गुणसुंदरु । अणिर्यत्तिल्लउ णवमु अगव्वरं । यारह मुव संतु भणिज्जइ । तेरह सजोइजिणु जायउ । उवरिल्लडं अजोइ परु अक्खरु ।
३०
[ ११.२९. १
सासयकरणुज्जय विवरेरा । होंति जीव उक्किणिकिट्ठा । सा तद्दलियगणभावक्खम | तेम कैम्पोग्लु विणिसामहु | तिब्वकसायरसेहिं पमत्तहु । तिह कम्मेण जि कम्महु बंधणु । सिद्धैभडारउ किं पिण बंधइ । एक्कु ण ते वि अनंत नियच्छिय । 'णाणावरणविमुक्त सुणिक्कल । थी गिद्ध णिद्दा पुणु पयला ।
२९. १. MBP छव्विह थिरेण तसेण' वि; T चवलछिरेण चपलस्वभावानां स्थिरपृथिव्यादीनाम् । २. MBP " विहव । ३. MB कसायं । ४. MBP असणि दोण्णि । ५. MBPK चउदहं । ६. MBPK मिच्छाइट्ठि | ७. MBP संजमहरु | ८. MBP अणियट्ठिल्लउं णवजं । ९. MBP परिहीणं । १०. MBP णीसेसहं मि ।
३०. १. MBP कम्मु पोग्गलु । २. MB जाय जियत्तहु; P जियंतहु । ३. MBP सिद्ध भडारउ; K सिद्धभडारउ but corrects it to सिद्धु । ४. MBP ° सुइओहि । ५. MBP सुणिम्मल ।
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११. ३०. १०]
हिन्दी अनुवाद
२६५
२९
जीव चपल और स्थिर स्वभाववाले योगसे छह प्रकारका, तीन प्रकारके योगों और वेदों (पुल्लिग आदि) से तीन प्रकारका और कषायोंसे चार प्रकारका होता है। ज्ञानसे उसके आठ भेद हैं। संयम और दर्शनसे तीन और चार भेद हैं, लेश्याओंके परिणामसे भी छह प्रकार हैं। भव्यत्व और सम्यक्त्वके विचारसे दो-दो भेद हैं (भव्य-अभव्य, सम्यकदृष्टि-असम्यग्दृष्टि), संज्ञासे संज्ञी और असंज्ञो दो भेद हैं । जो-जो शरीरसे आहार ग्रहण करनेवाले हैं, वे चारों गतियोंमें प्रतिष्ठित हैं। समुद्घात' करनेवाले और विग्रहगतिमें जानेवाले अहंन्त, अयोगी सिद्ध, परमात्मा होते हैं, वे आहार ग्रहण नहीं करते। शेष जीवोंको आहारिक समझना चाहिए। मार्गणा और गणस्थानोंसे भी जीवके चौदह भेद होते हैं। अब इन गुणस्थानोंको सुनिए-इनमें मिथ्यादृष्टि पहला गाया जाता है। सासन-सासादन दूसरा, मिश्र तीसरा, अविरत ( असंयत) सम्यक् दृष्टि चौथा, देशसंयत पांचवां । प्रमत्त संयम धारण करनेवाला छठा। गुणोंसे सुन्दर अप्रमत्त सातवां, अपूर्वअपूर्वकरण आठवां, गर्वरहित अनिवृत्तिकरण नौवा, सूक्ष्म-साम्परायको दसवां समझना चाहिए, उपशान्त कषाय ग्यारहवां कहा जाता है । परिक्षीणकषाय बारहवां कहा जाता है, तेरहवां संयोगकेवली कहा जाता है, तीन प्रकारके शरीरभारसे रहित (औदारिक, तैजस और कार्मण) सबसे ऊपर अयोगकेवली परम सिद्ध होता है।
पत्ता-चार प्रकारके नारकीय होते हैं, और देव भी चार प्रकारके । तिर्यंच पांचवें गुणस्थानों तक चढ़ सकते हैं। मनुष्य समस्त गुणस्थानोंमें चढ़ सकता है ।।२९||
कर्मोसे आहत होकर संसारी जीव, शाश्वत परिणामोंमें उद्यत होते हुए भी विपरीत आचरणवाला हो जाता है। इस प्रकार दर्शन, ज्ञान और स्वभावसे प्रमृष्ट जीव उत्कृष्ट और निकृष्ट दो प्रकारके होते हैं। और इससे जो उनकी सम-विषम चेष्टाएँ होती हैं जीव उस प्रकारके भावोंको ग्रहण करनेमें सक्षम होता है। ( तरह-तरहके कर्मपरिणामोंको ग्रहण करता है )। जिस प्रकार तेल, आग और उसकी ज्वालाओंके अनुसार परिणमन करता है, उसी प्रकार कर्म पुद्गल भी भावोंके अनुरूप परिणमन करते हैं। इस प्रकार तीन कषायोंके रसोंसे प्रमत्त जीवनको यह जीव धारण करता है, जिस प्रकार ईंधन अग्निभावको प्राप्त होता है, उसी प्रकार कर्मसे कर्मका बन्धन होता है। अशुभकमसे अशुभकर्मका और शुभकर्मसे शुभकर्मको सन्धि होती है परन्तु सिद्ध भट्टारक कुछ भी बन्धन नहीं करते । जिननाथके द्वारा अभव्यजीव भी चाहे ( सम्बोधित किये ) जाते हैं, वे एक नहीं, अनेक देखे जाते हैं। मति श्रुति अवधि मनःपर्यय तथा केवलज्ञानावरण । केवलज्ञान जो अत्यन्त निष्कल और नाना आवरणोंसे मुक्त है। निद्रा, अनिद्रा, प्रचला १. दण्ड-कपाट-प्रतर-पूरणके द्वारा जब केवली त्रैलोक्यका भरण करते हैं उस समय वह अनाहारक होते हैं ।
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२६६
महापुराण
[११.३०.११ चक्खुअचक्खुदंसणावरणउ अवही केवलदसणवरणउ। तेहिं विणासिउ णवसंखायउ वेयणीयदुगु सायासायउं । दसणमोहणीउ सम्मत्तु वि मिच्छत्तु वि सम्मामिच्छत्तु वि । दुविहु चरित्तमोहु विक्खायउ णोकसाउ णामेण कसायउ। तं कसायजायउ सोलह विहु इयरु भणेसमि पच्छइ णवविहु । पढमकसायचउक्कु सुभीसणु सत्तमणरयगामि दिहिदूसणु । घत्ता-अइकोहु समाणु माया लोहु वि दुत्थयरु॥
उवसमहुँ ण जाइ जइ वि पबोहइ तित्थयरु ॥३०॥
१५
३१
अवरु अपञ्चक्खाण गरुक्कड
पञ्चक्खाणु चउक्कु विमुक्कउ । संजलणु वि जलंतु उल्हाविउ थीपुंसंढराउ उड्डाविउ । भैयरइयरइदुगुंछउ जित्तउ हासु वि संहं सोएण णिहित्त । सुर णर गरय तिरिय चउआउ वि बायालीसविहेयउं गाउं वि। गइणामउ वि जाईणामु वि भणु तणुणामउं पुणु तणुहि णिबंधणु । तणुसंघाउ तणुहि संठाणउं
तणुअंगोअंगु वि णामाणउं । तणुसंघडणु" "वण्णगंधिल्ल रसणामउं अवरु वि फासिल्लउँ । "आणुपुन्वि अगुरुलहु लक्खिउ उवघाउ वि परघाउ वि अक्खिउ । ऊसासु वि"आदावुज्जोयउ अण्णु विहायगइ वि तसकायउ । थावरु थूलुसुहुमु पज्जत्तउ
अण्णु वि मण्णिउं "अप्पज्जुत्तउ । पत्तेयंगणाउं साहारणु
थिरु अथिरु वि सुहणाउं सकारणु । असुहु सुभगु दुब्भगु सुसरिल्लउ दुस्सरु आदेजउ जगि भल्ल उ । णाउं अणादेजउ जसकित्ति वि तित्थयरत्तु णिमिणु मलकित्ति वि । घत्ता-चउगइजम्मेण गइणामउं अट्ठद्धविहु ।
___ इंदियइं गणेवि जाइणामु भणु पंचविहु ॥३१॥
३२
हणिवि पंच णामइं पंचविहई दो छह पुणु दो चउ अट्ठविहई समलामलई दोण्णि जगि गोत्तई दाणभोयउवभोयणिवारउ
एक्क तिभेयउ दो' दो दुविहई । उच्चारुयई जाई एक्कविहई। ताई मि जेहिं दूरि परिचत्तई। वीरियलाहु हेउसंघारउ ।
६. MBP देसणहरणउं । ७. K दुक्खयरु but corrects it to दुत्थयरु । ३१. १. MBP चउक्क । २. Pउण्हाविउ । ३. MBPT उद्दाविउ । ४. MBP भइरइअरई । ५. MBP
सह । ६. P विहित्तउ । ७. P णिरय । ८. MBP जाइणाउं । ९. MBP तणुअंगोबंगु वि णिम्माणउ । १०. K संघदणु । ११. P वण्णु गंधिल्लउ । १२. MBP अणुपुब्विय अगरुगलहु । १३. MBP आदा
उज्जोयउ । १४. MB अप्पज्जत्तउ । ३२. १. M दो पुण दुविहई । २. MBP °लाह; K लाहु but corrects it to लाह ।
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११. ३२. ४ ]
हिन्दी अनुवाद
अप्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्राप्रचला, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण उन्होंने नष्ट कर दिया । सातावेदनीय और असातावेदनीयके दुर्गको, दर्शनमोहनीय ( सम्यक्त्व प्रकृति, मिध्यात्व प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति ), चारित्र मोहनीय दो प्रकारका विख्यात है ( कषाय वेदनीय और नोकषाय वेदनीय ) उसमें कषाय वेदनीय सोलह प्रकारका है, और दूसरेका, जो नौ प्रकारका है, में बादमें वर्णन करूंगा। पहला जो कषाय चक्र ( अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ ) है, वह भाग्य के लिए दूषण और सातवें नरकका कारण है ।
घत्ता - अत्यन्त क्रोध, मान, माया और लोभ भी अत्यन्त दुस्तर होता है । वह उपशमको प्राप्त नहीं होता, भले ही तीर्थंकर उसको सम्बोधित करें ||३०||
२६७
३१
दूसरा अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभकषाय भी भारी होती है । प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया और लोभ भी चार हैं। उन्होंने जलते हुए-से ज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभको भी शान्त कर दिया । स्त्रीत्व और पुरुषत्वके भावको उड़ा दिया । भय, रति, अरति, जुगुप्साको उन्होंने जीत लिया । शोकके साथ हास्यको भी समाप्त कर दिया । सुर, नर, नरक और तियंच इन चार आयु कर्मों को भी और बयालीस भेदवाले नाम कर्मको भी, गतिनाम और जातिनाम, शरीरनाम और शरीरसंरचना, शरीर संस्थान, शरीर अंगोपांग और निर्माण, शरीरका बन्धन, वर्ण- गन्ध, रस-स्पर्श, आनुपूर्वी, अगुरुलघु भी लक्षित किया। उपघात और परघात भी कहा गया । उच्छ्वास, आतप, उद्योत, विहायोगति, त्रसकाय, स्थावर, स्थूल, सूक्ष्म, पर्याप्त और भी अपर्याप्त माना जाता है । प्रत्येकशरीर, साधारण शरीर, स्थिर अस्थिर, सकारण शुभ-अशुभ, सुभग, दुभंग, सुस्वर और दुस्वर । आदेय भी जगमें भला होता है, अनादेय यशः कीर्ति, अयशः कीर्ति और तीर्थंकरत्व |
घत्ता -चार गतियों में जन्मके नामसे गति नामकर्म आठका आधा चार होता है । इन्द्रियों के लेने से जाति नामकर्म पाँच प्रकारका है ||३१||
३२
इस प्रकार पाँच प्रकारके पांच नामों [ अर्थात् (१) औदारिक आदि पाँच शरीरोंका संघात, (२) कृष्ण - नील-पीतादि पाँच वर्ण, (३) कटु- तिक्त आदि पाँच रस, (४) ओदारिकादि शरीरनिबन्ध, (५) ओदारिकादि पाँच शरीर, औदारिक वैक्रियक और आहारक शरीरके अंगोपांग ( एकके त्रिभेद ) दो प्रकार दो ( सुभग, दुभंग, प्रशस्त, अप्रशस्त ), दो छह, (समचतुरस्र, वल्मीक न्यग्रोध कुब्ज वामन हुंड संस्थान और वज्रषंभनाराच, वज्रनाराच, नाराच असंप्राप्त अस्पृष्ट आदि संघट्टन), दो-चार ( नरकादि गतियां और गत्याद्यनुपूर्वियाँ), आठ प्रकार ( कर्कश - मृदुगुरु-लघु, शीतोष्ण-स्निग्ध-सूक्ष्म और स्पर्श नाम ), की प्रकृतियाँ जो नाम उच्चारण करनेपर एक-एक प्रकारकी हैं । संसारमें गोत्र भी ऊँच-नीच दो प्रकारका है, जिनको उन्होंने दूरसे त्याग दिया है। दान भोग उपभोगका निवारण करनेवाला, वीर्य और लाभके कारणोंका संहार करने
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२६८
महापुराण
[११. ३२.५ अंतराउ पंचविहु धुणेप्पिणु अडयालीस सउ विहुँणेप्पिणु । पयडिहिं माणवंगु मेल्लेप्पिणु सुद्धसहाउ सइंभु लहेप्पिणु । जे गये जीव परमणिव्वाणह दुहविरहिहु सासयठाणहु । चरमसरीरमाण किंचूणा
ववगयरोयसोय अविलीणा । हिम्मल णिरुवम णिरहंकारा जीवदव्वघण णाणसरीरा। उड्डंगमणसहावें गंपिणु
उड्डलोउ सयलु वि लंघेप्पिणु । अटुंमपुहईवट्ठि णिविट्ठा अभव जीव जिणदेवें दिट्ठा । घत्ता-ते साइ अणाइ दुविह अणंत जि विविहदुहे।
ते पुणु ण मरंति णउ पडंति संसारमुहे ॥३२॥
३३
णउ बाल णउ वुड्ढ णउ मुक्ख सुवियड्ढ़ । णीसाव णित्ताव
जिग्गाव णिप्पाव। णाणंग णिम्मेह
णिण्णेह णिद्देह । णिक्कोह जिल्लोह
जिम्माण णिम्मोह। णिवेय णिज्जोय
णीराय णिब्भोय। णिद्धम्म णिकम्म णिच्छम्म णिजम्म। णीराम णिक्काम
णिब्बाह णिद्धाम। णिव्वेस णिल्लेस
णिग्गंध णिप्फास। णीरस महाभाव
णीसह णीरूव। अव्वत्त चिम्मेत्त णिञ्चित णिन्वित्तु । ण छुहाइ घेप्पंति
ण तिसाइ छिप्पंति । ण सैयाइ झिजंति ण रईइ सिज्जंति । णाहारु भुंजंति
ओसहु ण जुजंति । ण मलेण लिप्पंति
ण जलेण धुप्पंति। णि ण गच्छंति
अणयणा वि पेच्छंति । अमणा वि जाणंति सयरायरं झत्ति । सिद्धाण जं सोक्खु तं कहइ चम्मक्खु।
किं माणवो को वि सुरै खयरु देवो वि। घत्ता-पंचिंदियमुक्कु परमप्पइ हूयँउ विमले।
जं सिद्धहं सोक्खु तं णं वि कासु वि भुवणयले ॥३३॥
२०
३. MBP विहणेप्पिणु। ४. B सिद्धसहाउ। ५. MBP सयंभु । ६. MB गय परम जोव ।
७. MBP दुक्खविमुक्कहु । ८. K उड्ढे गमणु । ९. K अट्ठमि । ३३. १. Pणीसास । २. MBP णीताव । ३. MBP रुवाइ। ४. B भुंजंति; P हुंजंति and gloss
योजयन्ति । ५. MBP अणयण जि। ६.MBP सुरु । ७. MBP हयइ। ८. MBP णउ ।
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हिन्दी अनुवाद
११. ३३. २०]
२६९ वाले पांच प्रकारके अन्तरायको नष्ट कर, इस प्रकार एक सौ अड़तालीस प्रकृतियोंको ध्वस्त कर, प्रकृतियोंसे मानवशरीरको मुक्त कर, स्वयम्भू शुद्ध स्वभाव प्राप्त कर, जो जीव दुःखसे विरहित शाश्वत स्थानमें गये हैं, वे चरमशरीरी किंचित् न्यून, रोग-शोकसे रहित सिद्ध स्वरूप नहीं छोड़ते हुए निर्मल अनुपम निरहंकार जीव द्रव्यसे सघन और ज्ञानशरीरी, ऊध्वंगमन स्वभावसे जाकर समस्त ऊर्ध्वलोकको लाँधकर आठवीं धरतीकी पीठ (मोक्षपीठ ) पर आसीन हो गये, ऐसे अजन्मा जीवोंको जिन भगवान्ने देख लिया।
पत्ता-अनन्त वे आदि और अनादिके भेदसे दो प्रकारके विविध दुःखवाले संसारके मुख में फिरसे नहीं पड़ते, उनकी मृत्यु नहीं होती ॥३२॥
३३
वहाँ न बालक हैं, न वृद्ध, न मूर्ख हैं और न पण्डित हैं, जो शाप और तप रहित । गर्व और पापसे रहित, काम और इन्द्रियबोधसे शून्य, देहचेतना और स्नेहसे रहित, क्रोध और लोभसे रहित, मान और मोहसे रहित, वेद और योगसे रहित. नीराग और निर्भोग. निर्धर्म-निष्कर्म. क्षमा और जन्मसे रहित, स्त्री और कामसे रहित, बाधा और घरसे रहित, द्वेष और लेश्यासे दूर, गन्ध-स्पर्शसे शून्य, नीरस महाभाववाले, शब्द और रूपसे हीन, अव्यक्त चिन्मात्र, निश्चिन्त निवृत्त, जो भूखसे ग्रहण नहीं किये जाते, जो प्याससे नहीं छुए जाते, जो रोगोंके द्वारा क्षीण नहीं होते और न रतिसे दुःखको प्राप्त होते हैं । आहार नहीं लेते, औषधिका प्रयोग नहीं करते। मलसे लिप्त नहीं होते और न जलसे धुलते हैं, नीदको प्राप्त नहीं होते, जो बिना आँखोंके भी देखते हैं, बिना मनके जान लेते हैं, शीघ्र ही सचराचर विश्वको। सिद्धोंको जो सुख है क्या उसे कोई चर्म चक्षुओंवाला मनुष्य, देव या विद्याधर कह सकता है।
पत्ता-पांच इन्द्रियोंसे मुक्त विमल परम पदोंमें सिद्धोंको जो सुख होता है वह सुख विश्वतलमें किसीको भी नहीं होता ॥३३॥
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२७०
महापुराण
[११.३४.१
एहा दुविह जीव मई अक्खिय कहमि अजीव वि जेम णिरिक्खिय । धम्मु अधम्मु दो वि रूवुज्झिय आयासे काले सहुं बुझिय । गइठाणोग्गहवत्तणलक्खण
के वि मुणंति सुणाण वियक्खण । संतु अणाइ समउ वटुंतेउ तीउँ कालु अगामि अणंतउ। तासु ठाणु भण्णइ णरलोयउ धूम्माधम्महं सवतिलोयउ । बिहिं मि लोयणहमाण वियप्पउ आयासु वि अणंतु सुसिरप्पउ । तं जि अलोउ जोइपण्णत्तउ पोग्गलु होइ पंचगुणवंतउ । सहें गधे रूवें फासें
जुत्तउ भिण्णवण्णविण्णासे । खंधु देसु अर्द्धद्धपएसु वि
परमाणुउ अविहाइ असेसु वि । घत्ता-तं सुहुमु वि थूलु थूलुसुहुमु पुणु थू लु भणु ।
थूलाण वि थू लु चउपयारु महुं मुणइ मणु ॥३४॥
गंधु वण्णु रसु फासु संसद्दउ थूलुसुहुमु जोण्डाछायाइउ थूलुथूलु पुणु धरणीमंडलु सुहुमई कम्माइयई सणामई वण्णाइयहिं रसेहिं अणेयहिं पूरणगलणसहावणिउत्तई भासिज्जंतउ परमजिणिदें वसहसेणु सुहभावे लइयउ सोमप्पहु सेयंसँणरेसरु इय रिसहहु परिमुक्कविसाया बम्ही सुंदरि अजियसंघहु दसणमोहणीयपंडिरुद्धउ तावस कंदाहारु मुएप्पिणु मोक्खमग्गगामिहि परमेसरु
सुहुमु थू लु वज्जरइ समद्दउ । थू लु सलिलु वीरेण णिवेइउ । सग्गविमाणपडलु मणिणिम्मलु। मणभासावग्गणपरिणामई। परिणमंति संजोयविओयहिं । पोग्गलाई विविहाई पउत्तई। णिसुणिवि धम्मु सुधम्माणंदें। पुरिमतालपुरवइ पावइयउ । थिउ पावज लेवि हयमयजरु । णिव चउरासी गणहर जाया। कंतियाउ जायाउ महग्घह। एक्कु मरीइ णेय पडिबुद्धउ । थिय कच्छाइय रिसिव्वउ लेप्पिणु । हुयउ अणंतवीरु अग्गेसरु ।
३४. १. MBP रूउज्झिय । २. P वढंतउ । ३. MB तीयउ; P तइयउ । ४. MBP धम्माहम्महं सयलु ।
५. MBPK माणु वि अप्पउ; T लोयणमाणु । ६. MBP अद्धधु । ७. M सुहुमुसुहमु तह सुहुमु वि
पुणु; B चउपयारु सुहु मुणइ मणु; P सुहुमु सुहुमु तह सुहुमु पुणु । ३५. १. M सुसद्दउ । २. MBP add after this : सुहुमुसुहमु परिमाणु विसेसई; लग्गहिं णिवडवि
अप्पपएसई। ३. P पव्वइयउ । ४. MBP सेयंसु णरेसरु । ५. MBP बंभी। ६. K परिरुद्धउ ।
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११. ३५. १४]
हिन्दी अनुवाद
२७१
३४.
इस प्रकार दो प्रकारके जीवोंका मैंने कथन किया। अब मैं अजीवका कथन करता हूँ कि जिस प्रकार मैंने देखा है। धर्म और अधर्म दोनों रूपसे रहित हैं, आकाश और कालके साथ, यह समझना चाहिए । गति, स्थिति, अवगाहन और वर्तना लक्षणवाले इनको कोई विलक्षण सुज्ञानी ही जानते हैं। काल सान्त और अनादि है। वर्तमान आगामी और भूत-ये कालके तीन भेद हैं।
( व्यवहार काल) समस्त नरलोक स्थान है। धर्म और अधर्म समस्त त्रिलोक है। उन दोनोंसे लोकाकाश व्याप्त है। आकाश भी अनन्त है और शुषिरके स्वरूपवाला है। अलोकाकाश वह है जो योगियोंके द्वारा ज्ञात है। पुद्गल पांच गुणवाला होता है। शब्द गन्ध रूप स्पर्श और भिन्न-भिन्न रंग-रचनाओंसे युक्त स्कन्ध देश-प्रदेशके भेदसे तीन प्रकारका है। स्वयं अशेष अविभाज्य है।
घत्ता-उसे सूक्ष्मस्थूल, स्थूलसूक्ष्म और फिर स्थूल कहो। और स्थूलोंका भी स्थूल, वह चार प्रकारका है ऐसा मेरा मन सोचता है ||३४||
गन्ध-वर्ण-रस-स्पर्श-शब्द सूक्ष्म स्थूल मार्दववाला कहा जाता है। स्थूल सूक्ष्म ज्योत्स्ना छाया और आतप, स्थूल जैसे पानी ऐसा वीर ( महावीर ) ने कहा है स्थूलस्थूल धरतीमण्डल मणि निर्मल स्वर्ग विमान पटल हैं। सूक्ष्म नाम सहित सभी कर्म मन भाषा वर्गणा और परिणामों, अनेक रसों-रंगों, संयोग-वियोगोंसे परिणमन करते हैं। पूरण-गलन आदि स्वभावसे युक्त पुद्गल अनेक प्रकारके कहे गये हैं-इस प्रकार परमजिनेन्द्र द्वारा कथित धर्मको धर्मके आनन्दसे सुनकर, वृषभसेनने शुभ भावसे ग्रहण किया। उसने पुरिमतालपुर में प्रव्रज्या ग्रहण की। सोमप्रभ श्रेयांस नरेश मदज्वरको नष्ट करनेवाली प्रव्रज्या लेकर स्थित हो गये । इस प्रकार विषादसे रहित चौरासी गणधर ऋषभ जिनवरके हुए; ब्राह्मो-सुन्दरी जैसो कान्ताएँ महाआदरणीय संघकी आर्यिकाएं बनीं । लेकिन दर्शन मोहनीय कर्मसे अवरुद्ध एक मरीचि नामका भरतका पुत्र प्रतिबुद्ध नहीं हो सका । वह उन्हें छोड़कर कन्दका आहार करनेवाला कच्छादिका मुनिपद ग्रहण कर तपस्वी बन गया । लेकिन मोक्षमार्गपर चलनेवालोंमें अनन्तवीर्य सबसे अग्रणी हुआ।
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२७२
[११.३५. १५
महापुराण धत्ता-सावउ सुयकित्ति सावइ देवि पियंवइय ।।
भरहेण वि पुज्ज पुप्फयंत एंह जिणि रइय ॥३५॥
इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरइए महाभग्वभरहाणु
मण्णिए महाकव्वे महावत्थुणिद्देसो णाम एयारहमो परिच्छेओ सम्मत्तो॥११॥
॥ संधि ॥११॥
७. MBP पह; K पह but corrects it to एह and gloss एतस्मिन् जिने ।
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११. ३५.१५] हिन्दी अनुवाद
२७३ घत्ता-श्रावक श्रुतकीर्ति और श्राविका देवी प्रियंवदा। जिसमें रत नक्षत्र-पल्य ये लोग भरतके द्वारा भी पूज्य हैं ॥३५॥
इस प्रकार ब्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त इस महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महाकन्च भरत द्वारा अजमत ग्यारहवाँ परिच्छेद समाप्त हआ॥११॥
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१०
१५
संधि १२
अविरणिद्दारण खत्तु द्वारणि तिजगलच्छिविजयाणउं ॥ विहलियाहारणि मेइणिकारणि भरहें दिण्णं पयाणउ || १ ||
छुड छुड सरयागमि अप्पमाणु fates ओमैथि अएण जगहरिणीलुल्लोउ बधु अइ द वि दिसा सई गयरयाई ससि कुंभगलियजोन्हाजलेण णिड्डहॅइ कमलु सरए ससंकु सो अज्ज वि दीसइ मलविरुधु ते जि रोसें रवि तिव्वु तवइ पंकक्खइ सुँक्कइ णलिणणालु कुवलयदि हिगार णाई राउ तरु कुसुमामोएं महमहंति अलि रुणुरुति पावाहपिंड
१
हुई घोयहरिणीलभाणु । सरब्भदहियखंडहुं कएण । तारामोत्तियझुंबुक्कणिधु ।
चारित्त सज्जणकयाइं । पखालियाई णं णिम्मलेन । तहु तेण जि लग्गड पिंडपं । यिडिंभपराहवि को ण कुधु । सररुह सुहि किं चिक्खिल्लु खवइ । अइउग्गत्तणु बंधवहं कालु । कयबंधुजीवसुच्छायभाउ । trafaes' सलिलइ वणि वहति । महुमत्ताणं गायंति सोंड ।
१
घत्ता - सारयमयलंछणु रुइरंजियजणु जइ मयमलिणु ण होंतउ ॥ तो " कसंतिहि जिणजस्यंतिहि एहु जि उप्परं देत ||१||
१२
पण वेष्पिणु लेपिणु सिद्ध सेस आपणु पइसेपणु अझ
ढोवि जोवितणयवयणु दालिदुरउपवासियाहं हिणिविवरेण चामीयरेण मंतिवि अहंगु पंचंगु मंतु परियाणिवि माणिवि वुड्ढ चारु safir मग्ग को ण कप्पु
२
अभिवि रुंभिवि सयल देस । परचकमुक्कपहरणदुगेज्झ । परियंचिवि अंचिवि चक्करयणु । काणी दीह देसियाह । णाणाविलासतो सायरेण । को सत्तु मित्तु को तव्विरत्तु । ओहारिविधारिवि रज्जभारु । ण विमुक्कु दप्पु ।
१.
१. MPT खेत्तुद्धारणि but gloss क्षत्रियधर्मप्रकटने । २. MBP दिण्णु । ३. P ओम्मत्थिउ । ४. P अइदिसं । ५. MBP णिद्दहइ। ६. MBP विबि पंकु । ७. MBP सुक्खइ । ८. T दिहिहारउ धृतेरपहारको धरकश्च । ९. MBP सच्छायं । १०. P पावोह ; T पायोह । ११. MP जइ । १२. MBP हैं ।
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सन्धि १२
शत्रुवरोंके निर्दलन, क्षात्रधर्मके उद्धार, विकलित जनोंके सहारा देने, ढाढस और धरती के लिए भरतने त्रिलोक लक्ष्मी और विजयका प्राप्त करानेवाला प्रस्थान किया || १ ||
१
शीघ्र ही शरद ऋतु आगमनपर धुल गये हैं सूर्य-चन्द्र जिसमें ऐसा आकाश अप्रमाण ( सीमाहीन ) हो उठा, जो ऐसा दिखाई देता है मानो शरद्के मेघरूपी दही खण्डके लिए ब्रह्मा के द्वारा झुका दिया गया हो । मानो विश्वरूपी घरमें तारारूपी मोतियोंके गुच्छोंसे स्निग्ध नील चन्दोवा दिया गया हो, दशों दिशाएँ रजसे इस प्रकार अत्यन्त शून्य हो गयीं, ( निर्मल हो गयीं ); मानो सज्जनोंके निर्मल चरित्र हों । मानो वे चन्द्ररूपी घड़ेसे प्रगलित ज्योत्स्नारूपी निर्मल जलसे प्रक्षालित कर दी गयी हों । शरमें शशांक - चन्द्रमा कमलको जलाता है, इसीलिए उसका
कमलका ) शरीर-पंक उसीको ( चन्द्रमाको ) लग गया । वह ( सूर्य ) आज भी मल विरुद्ध दिखायी देता है, अपने बच्चे के पराभवसे कौन क्रुद्ध नहीं होता ? क्या इसी क्रोधसे सूर्य तीव्र तपता है, और कमलबन्धु (सूर्य) कीचड़को सुखाता है, कीचड़के सूखनेसे कमलोंके नाल ( मृणाल ) सूख जाते हैं, अत्यन्त उग्रता बन्धुओंके लिए भी काल सिद्ध होती है ? जिसने अपने बन्धुओंके प्राणोंके लिए सुन्दर छायाका भाव किया है, ऐसा चन्द्रमा राजाकी तरह कुवलय ( कुमुदों और पृथ्वीरूपी मण्डल ) के लिए भाग्यकारक होता है । कुसुमोंके आमोदसे वृक्ष महक रहे हैं । परागसे पीले जल वनमें बह रहे हैं । पापके समान रंगवाले अर्थात् काले रंगके भ्रमर गुनगुना रहे हैं, मानो मधुसे मत्त मद्यप गा रहे हों ।
घत्ता - अपनी कान्तिसे जनोंको रंजित करनेवाला शरद्का चन्द्रमा, यदि मृगके लांछन से मैला नहीं होता, तो मैं ( कवि पुष्पदन्त ) उसकी शान्तिका विधान करनेवाले जिन भगवान् के
यशरूपी चन्द्रमासे उपमा देता ॥१॥
२
सिद्धों को प्रणाम कर और शेष तिल (निर्माल्य ) लेकर समस्त देशोंपर बलपूर्वक आक्रमण कर, उन्हें स्थापित कर और शत्रुमण्डलके द्वारा छोड़े गये अस्त्रोंके लिए दुर्ग्राह्य अयोध्या में प्रवेश कर, मनको लगाकर, पुत्रका मुख देखकर और चक्ररत्नकी परिक्रमा और अर्चना कर प्रवासियों परदेशियों और कन्यापुत्रोंका भयंकर दारिद्र्य, स्वर्णदान के द्वारा समाप्त कर, अभंग पंचांग मन्त्रकी मन्त्रणा कर कौन शत्रु है, कौन मित्र है, और कौन विरक्त ( मध्यस्थ ) है ? यह जानकर वृद्ध मन्त्रियोंके आचारको मानकर और विचारकर राज्य भार देकर ( वह चला ) बताओ, उसने
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२७६
महापुराण
[१२.२.९ भुयदंडचंडविक्कममएण
छक्खंडमंडलावणिकएण। गंभीरतूरलक्खई हयाई
दुप्पेक्खई रक्खई हेयमयाई । कयसमरहं अमरहं थरहरंति गत्तई सोत्तई बहिरत्तु जंति । असुरिंदहं णाइंदहं पियाई पायालई विउलई कंपियाई । तुट्टइं फुट्टई गिरिमहियलाई झलझेलियई वैलियइं सरिजलाई। थिरभावहं देवहं जाय संक ₹वपेल्लिय डोल्लिये रवि ससंक । घत्ता-तहु तिजगविमबहु तूरणिणहहु मिलिउ दुग्गणिव्वाहणु ।
परमंडलसाहणु गहियपसाहणु खणि चउरंगु वि साहण ॥२॥
१५
णिगयं णिवबलं धरियहलसव्वलं कणयकुंतुजलं
चंदणसुपरिमलं। सरसघुसिणारुणं खयंतरणिदारुणं। तुरुतुरियकाहलं
सुहडकोलाहलं । मुक्कहुंकारयं
फैसियअसिधारयं । बद्धतोणीरयं
अहियखोणीरयं । गहियसंणाहयं
णवियणियणाहयं । वलइयसरासणं
परिहियविहूसणं । वूदजंपाणयं
चोइयविमाणयं । जंतजक्खामरं
चलियचलचामरं। खुहियणाणाणिवं
जणियगमणुच्छवं। कामिणीसुललियं किंकिणीमुह लियं । रहियवाहियरह
छत्तछाइयणह। बंदिवण्णियगुणं दिण्णमणिकंकणं । पवणधुयधयवडं गिरिगरुयगयघडं। गहियमयगारवं
रणियघंटारवं। परिभमियमहुयरं मुक्कढकासरं। मलियफणिसेहरं
काललीलाहरं। णडियसुरणरणडं चडुलहयवरथडं। बहलधूलीरयं
धुलियमणिहारयं । घत्ता-कयरिउवहुविरहें जगजसँभरहे चलियएण पधाईंउ ।
वररहेमायंगहि भडहिं तुरंगहिं सेण्णु ण कत्थइ"माइउ ॥३॥ २. १. MBP भयगयाइं। २. MB झलिझलियई। ३. MBP चलियई। ४. MBP रह । ५. MP
जेल्लिय : ६. M परमंडलु । ३. १. MB°कंतुज्जलं । २. MBP खयतरुणि । ३. MP फुरिय। ४. M रूढं। ५. MBP °कंचणं ।
६. MBP °सुरवरणइं। ७. MBP जयभरहें चल्लतेण; T जगजसभरहें but records ap जगजयति पाठे जगति जयेनोपलक्षितो भरतस्तेन। ८. P पधाइयउ। ९. MBP वररहवरमायंगहि । १०.P माइयउ।
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१२. ३.२२ ]
हिन्दी अनुवाद
२७७
अतिगर्वित किससे कर नहीं मांगा, किस-किसने गवं नहीं छोड़ा ? भुजदण्डोंके प्रचण्ड विक्रम और मदवाले उसके द्वारा छह खण्ड धरतीमण्डलके लिए लाखों गम्भीर तूयं बजवा दिये गये, दुर्दर्शनीय रक्षक आहतमद हो उठे । युद्ध करनेवाले देवोंके शरीर थरथर काँप उठे। उनके कान बहरे हो गये । असुरेन्द्रों और नागेन्द्रोंकी प्रियाएं और विपुल पाताललोक काँप उठे । पहाड़ और धरतीतल टूट-फूट गये। नदियोंके चमकते हुए जल मुड़ गये । स्थिर भाववाले देवोंको शंका उत्पन्न हो गयी । शब्दों से आहत सूर्य और चन्द्रमा डोल उठे ।
धत्ता - त्रिजगका विमर्दन करनेवाले उस तूर्य शब्दके साथ दुर्गोंको ध्वस्त करनेवाला, शत्रुमण्डलको सिद्ध करनेवाला, साधनोंसे युक्त चतुरंग सैन्य भी जा मिला ||२||
३
जिसने हल-सब्बल ग्रहण किया है, जो स्वर्णकुन्तलोंसे उज्ज्वल है, जो चन्दनसे सुरभित है, सरस केशरसे आरक्त है, प्रलयकालके सूर्यके समान भयंकर है, जिसमें तुरु तुरिय और काहल वाद्य बज रहे हैं, सुभटों का कोलाहल हो रहा है, हुंकार शब्द छोड़ा जा रहा है, तलवारकी धारें चमक रही हैं, जो तूणीर ( तरकस ) बाँधे हुए हैं, जो शत्रुमें अत्यन्त आसक्त है, जिसने कवच धारण कर रखे हैं, जिसने अपने स्वामीके लिए प्रणाम किया है, जिसने धनुषको मोड़ रखा है, जिसने आभूषण पहन रखे हैं, जो जंपाण धारण किये हुए हैं, जो विमानोंको प्रेरित कर रही है, जिसमें यक्ष और देव चल रहे हैं, जिसमें चंचल चमर चल रहे हैं, जिसने अनेक राजाओंको क्षुब्ध किया है, जिसने प्रस्थानका उत्सव किया है, जो स्त्रियोंसे सुन्दर है, किंकिणियोंसे मुखर है, जिसमें सारथियोंके द्वारा रथ हाँके जा रहे हैं, जिसमें छत्रोंसे आकाश आच्छादित है, जिसमें चारणोंके द्वारा गुणोंका गान किया जा रहा है, जिसमें मणिकंकणोंका दान किया जा रहा है, पवनसे ध्वजपट उड़ रहे हैं, जिसमें गजघटा गिरिवरके समान भारी है, जिसने मदके गौरवको ग्रहण किया है, जिसमें घण्टोंका शब्द हो रहा है, जिसमें भ्रमर घूम रहे हैं, जिसमें ढक्काकी ध्वनि हो रही है, जिसमें नागों के फणामणि चूर-चूर हो गये हैं, जो कालकी लीलाको धारण करता है, जिसमें देवरूपी नट नचाये जाते हैं, जिसमें श्रेष्ठ अश्वोंकी घटा चंचल है, जिसमें अत्यधिक धूलिरज है, जिसमें मणिमय हार व्याप्त हैं, ऐसा राजसैन्य चल पड़ा ।
घत्ता - जिसने शत्रुवधुओंको विरह उत्पन्न किया है और जो विश्वयशसे भरित है, ऐसे राजा के चलते हो सैन्य दौड़ा और श्रेष्ठ रथों, गजों, भटों और अश्वोंके द्वारा वह कहीं भी नहीं
समा सका || ३ ||
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२७८
महापुराण
[१२.४.१
मणी कागणी कामिणी दंडरणं णिसीसकमाणिक्कभाभारभिण्णं । रहंगं णरिंदंगतुंगं पहारं
अजेयं सुतेयं करालं किवाणं । पियं छत्तचम्मं सुरम्मं महंत महावीरखंधारवित्थारवंतं । हरीकीरपिंछोहकतिल्लकाओ करी णिजियाणिंददेविंदणाओ। पुरोहो णिरोहो व्व भीमावयाणं णिवासो पयासो पयासंपयाणं । समे वेसमं वेसमे सामकारी ___चमूपुंगवो दुग्गमग्गावहारी। गिही को वि देवो मैहिड्ढीसमिद्धो महंतेण पुण्णेण रायस्स सिद्धो । सुरागारकिम्मीरकम्मावयारो परो को वि अण्णो णिकेऊहकारो। घत्ता-इय साहियभुवणहिं चोइँहरयणहिं सहुँ णरणाहहु इच्छइ ।।
हयगयरहवाहणु चल्लिउ साहणु सयलु रहंगहु पच्छइ ॥४||
मणिरहवरे चडिउ णं इंदु हि वडिउ। दढकढिणभुयजुयलु अइवियडवच्छयलु । किं भणमि पुरिसहरि बलतुलियकुलसिहरि। सदूलवरखंधु
बहिरंधजणबंधु। अलिणीलधेम्मेल्लु तेलोक्कपडिमल्लु। दूवंकुरालेण
दहिचंदणालेण । उक्खित्तसेसेण
मंगलणिधोसेण । संचलिउ भरहेसु
णं मयणु णरवेसु। घउ धइण पडिखलिउ णरु हरिहिं दैरमलिउ। भेसिउ अहद्देण
करहस्स सद्देण। करि धुणइ णियकंतु महि णिवडिओ मेंहुँ। भरओ रउद्देण
पित्तो बलहेण । भग्गाइं भायण
चुण्णाइं गोहणई। णवणलिणणेत्ताइ
वेसरि णिहित्ताइ। परिगलियचेलाइ हा भणिउ बालाइ। खरवडणपडियाइ महुसीहुघडियाइ। रसवणिय जूरंति
कह कह व वियरंति । अच्चंतपोढेण
तेल्लोकरूढेण। थिरथोरवाहेण
सेणाहिणाहेण । पप्फुल्लवयणेण
दढदंडरयणेणं । ४. १. B°पिच्छोह । २. M गिरी । ३. MBP महद्धी । ४. MP चउदह । ५. १. MB णहवडिउ । २. MBP°धम्मिल्लु । ३. P दलमलिउ । ४. MBP मेछ । ५. MBPK
वेसर। ६. MBPT खरचडुल । ७. MBP add after this : णवणलिणणयणेण । ८. MP add after this : वज्जण घडिएण ।
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१२. ५. २०]
हिन्दी अनुवाद
२७९
काकणी मणि, कामिनी, दण्डरत्न, सूर्यकान्त और चन्द्रकान्त मणियोंकी कान्तियोंसे मिश्रित चक्रवर्तीके शरीरकी ऊंचाईवाली भारी अजेय तेजस्वी भयंकर कृपाण, पीत छत्र, महावीरके स्कन्धावारके समान विस्तारवाला महान् सुन्दर चर्म, हरे कीरोंके पंखोंके समूहके समान कान्तिवाला, और देवेन्द्रके अनिन्द्य नागराजको जीतनेवाला गज, भयंकर आपत्तियोंका f करनेवाला और प्रजाओंकी सम्पदाओंका निवास और प्रकाशित करनेवाला पुरोहित, समतामें विषमता और विषमतामें समता स्थापित करनेवाला तथा दुर्गमार्गोंका अपहरण करनेवाला सेनापति, महाऋद्धियोंसे समृद्ध कोई देव गृहपति, महापुण्यसे राजाको सिद्ध हुआ। देवगृहोंके लिए विचित्र कर्मोंका अवतरण करनेवाला श्रेष्ठ कोई सूत्रधार अर्थात् स्थपति उसे सिद्ध हुआ।
___घत्ता-जिसने चौदह भुवनोंको सिद्ध किया है, ऐसे चौदह रत्नोंके साथ, राजाके चक्रके पीछे हय-गज और रथ वाहन हैं जिसमें ऐसी समस्त सेना इच्छापूर्वक चली ॥४॥
मणियोंके रथवरपर आरूढ़ राजा ऐसा जान पड़ता था मानो नभमें इन्द्र हो। जिसका बाहुयुगल दृढ़ और कठोर है, वक्षस्थल अत्यन्त विकट है, जिसने अपने बलसे कुलपर्वतको तोल लिया है, उस पुरुषसिंहके विषयमें क्या कहूँ। उसके कन्धे सिंहके समान हैं जो बहरे और अन्धोंका बन्धु है, जिसके केश भ्रमरके समान नीले हैं जो त्रिलोकका प्रतिमल्ल है, ऐसा वह भरतेश, दांकर. दही. चन्दन और शेषाक्षत ( तिल ) तथा मंगलघोषके साथ इस प्रकार चला मानो मनुष्यके रूपमें कामदेव हो। ध्वजसे ध्वज प्रतिस्खलित हो गया। मनुष्य अश्वोंसे कुचल गया । गज अपना कण्ठ धुनने लगा। महावत धरतीपर गिर पड़ा। भयसे भरा हुआ, बैलके द्वारा फेंका गया। पात्र टूट-फूट गये । गोधन चूर्ण-चूर्ण हो गये। जिसके नेत्र नवनलिनके समान हैं, जिसकी साड़ी खिसक गयी है, ऐसी खच्चरपर बैठी हुई बालाने 'हा' कहा। गधेके पतनसे गिरी हुई तथा मधुसुरासे चेष्टा करनेवाली उस बालाके द्वारा लोग कामसे घायल होते हैं और बड़ी कठिनाईसे चल पाते हैं। अत्यन्त प्रौढ़, त्रिलोकमें प्रसिद्ध स्थिर स्थूल बाहुवाले प्रफुल्लमुख सेना
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२८०
महापुराण
[१२. ५.२१
गिरिणो दलिजति मग्गा रइज्जति । दूरं समग्गेण
चक्काणुमग्गेण । संतोसपुण्णाई
गच्छंति सेण्णाई। णयणाहिरामाई
गामाई सीमाई। विसमाई मंठाई
विंझोवकंठाई। हलहरणिवासाई लंघंतु देसाई। पविसंतु रोहंतु
अहिणो विरोहंतु। णिक्खवियणियसत्तु सुरवरसरि पत्तु । पत्ता-पंडुर गंगाणइ महियलि घोलइ किंणरसरसुहभंतहो" ॥
अवलोइय राएं छुडु छुडु आएं साडी णं हिमवंतहो ॥५॥
णं सिहरिघरारोहणणिसेणि णं रिसहणाहजसरयणखाणि । णिम्मल णावई जिणणाहवाय मयरंकिय णं वम्महवडाय । णं विसमविर्डप्पभउत्तसंति धरणीयलि लीणी चंदकंति । णं णिर्द्धधोयकलहोयकुहिणि णं कित्तिहि केरी लहुय बहिणि । गिरिरायसिहरपीवरथणाहि णं हारावलि वसुहंगणाहि । वियलियकंदरदरिवडिय सच्छ धरणिहरकरिंदहु णाई कच्छ । सिय कुडिल तहु जि णं भूइरेह णं चक्कवट्टिजयविजयलीह । आयासहु पडिय धरित्तियाइ सुपडिच्छिय णं पियसहि पियाइ । पक्खलइ वलइ परिभमइ ठाइ णियठाणभंसचिंताइ णाई। णिग्गय णयवम्मीयह सवेय विसपउर णाई णाइणि सुसेय । हंसावलिवलयविइण्णसोह "उत्तरदिसिणारिहि णाई बाह । घत्ता-बहुरयणणिहाणहु सुह सुलोणहु धवलविमलमंथरगइ।
सायरभत्तारहु सई गंभीरहु मिलिय गंपि गंगाणइ ॥६॥
जहिं मच्छेपुच्छपरियत्तियाई सिप्पिउडुच्छेलियई मोत्तियाई । घेप्पंति तिसाहयगीयएहिं जलबिंदु भणिवि बैप्पीहएहिं । जलरिहहिं पिज्जइ जलु सुसेउ तमपुंजहिं णावई चंदतेउ । सोहइ रत्तुप्पलदलरुईइ
पुणु सो जि णाई संझारईइ । जहिं कीरउलई कीलारयाई दहिकुट्टिमि णावइ मरगयाई । जहिं कंकहारणीहारछाय
कल्लोल हंसपक्ख वि ण णाय । ९. MBP संठाई। १०. MB गेहंतु । ११. P भत्तहो। ६. १. MBP वम्महपडाय । २. P विडप्पइ भउ तसंति । ३.G सिद्ध but gloss स्निग्ध । ४. MBP
विवरियं । ५. MBP उत्तरदिस । ६. MBP सलोणहु । ७. १. MBPK °पुंछ । २. B°उडच्छलियई। ३. MBP वव्वीहएहि ।
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१२.७.६ ]
हिन्दी अनुवाद
२८१
पतिने दण्डरत्नसे पहाड़ों को विदीर्ण किया तथा मार्गोका निर्माण किया । चक्रका अनुगमन करते हुए सन्तोष से परिपूर्ण सैन्य अपने मार्गसे दूर तक जाता है, नेत्रोंके लिए सुन्दर ग्राम - सीमाओं, विषम निम्नोन्नत भूमियों, विन्ध्याके उपकण्ठों, कृषकोंके निवासभूत देशों को लांघता हुआ, घरोंमें प्रवेश करता हुआ, नागों को विरुद्ध करता हुआ, तथा जिसने अपने शत्रुका नाश कर दिया है ऐसा सैन्य गंगा नदीपर पहुँचा ।
घत्ता-सफेद गंगानदीको आगत राजाने इस प्रकार देखा मानो वह किन्नरोंके स्वरसुखसे भ्रान्त धरतीपर फैली हुई हिमवन्त की साड़ी ( धोती ) हो ॥५॥
६
मानो वह पहाड़के घरपर चढ़नेको नसैनी हो, मानो ऋषभनाथके यशरूपी रत्नोंकी खदान हो, मानो जिननाथ की पवित्र वाणी हो; मानो मकरोंसे अंकित कामदेवकी पताका हो; मानो राहु विषम भय से पीड़ित चन्द्रमाको कान्ति धरतीतलपर व्याप्त हो, मानो स्निग्ध निर्मल चांदी
गली ( पगडण्डी ) हो; मानो कीर्तिकी छोटी बहन हो, हिमालयके शिखर जिसके स्तन हैं, ऐसी वसुधारूपी अंगनाकी मानो वह हारावली हो; प्रगलित विवरों और घाटियों में गिरती हुई स्वच्छ वह (गंगा) ऐसी मालूम होती है, मानो पहाड़रूपी करीन्द्रको कच्छा हो । सफेद और कुटिल वह मानो उसकी भूतिरेखा हो, मानो चक्रवर्तीकी विजयलेखा हो, मानो आकाशसे आयी हुई प्रिय धरती की चिर प्रतीक्षित सखी हो। वह स्खलित होती है, मुड़ती है, परिभ्रमण करती है, स्थित होती है, जैसे मानो अपने स्थानसे भ्रष्ट होनेकी चिन्ता उसे हो। वह मानो सफेद नागिन के समान, पर्वतकी वाल्मीकि (बिल) से वेगपूर्वक निकली है, और विष ( जल / जहर ) से प्रचुर है । जिसे हंसावलियोंके वलय शोभा प्रदान कर रहे हैं, ऐसी वह मानो उत्तर दिशारूपी नारीकी बाँह हो ।
घत्ता - जो अनेक रत्नोंका विधान है और अत्यन्त सुन्दर है, ऐसे गम्भीर समुद्ररूपी पति से, धवल, पवित्र और मन्थर चालवाली गंगानदी स्वयं जाकर मिल गयी || ६ ||
जहाँ मत्स्योंकी पूँछोंसे आहत, सीपियोंके सम्पुटोंसे उछले हुए मोती, प्याससे सूखे कण्ठवाले चातकों के द्वारा जलबिन्दु समझकर ग्रहण कर लिये जाते हैं, जलकाकों द्वारा सफेद जल दिया जाता है मानो अन्धकारोंके समूहोंके द्वारा चन्द्रमाका प्रकाश पिया जा रहा हो । फिर वही (जल) लाल कमलों दलोंको कान्तिसे ऐसा शोभित होता है, मानो सन्ध्यारागकी कान्तिसे शोभित हो । जहाँ क्रीड़ारत की रकुल ऐसे जान पड़ते हैं, मानो स्फटिक मणियोंकी भूमिपर मरकत मणि हों । जिसकी लहरें कंकहार और नीहारको कान्तिवाली हैं, उनमें हंस पक्षी भी ज्ञात नहीं होते ।
३६
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२८२
महापुराण
[१२.७.७ जहिं पाणिइ पंडुरु अच्छराइ उप्परियणु दिढ ण जंतु जाइ। परिहाणु सहत्थे धरिउ ताइ जंपिउ हो ण्हाणे एत्थु माइ। मायंगहुं दाणे वहइ हु
जा तहु घिवंति तवसि वि सुदेहु । जडसंगें विउसु वि जडु जि होइ कमलावासेसु सुयंति भोइ। सिररयण धणासइ धरइ ते वि धणवंत बहुप्पिय सविस जेवि । दिव्वंगणघणथणजुयलखलिय. जिणण्हवणारंभदिणम्मि गलिय । उच्छलियबहलसीयलतुसार णं खीरमहोवहिखीरधार। घत्ता-एयहि महिणारिहि मुवणजणेरिहि ससिमणिरइयपहुज्जल ।
सायरगिरिरायहिं धरिवि सरायहिं णाई णिबद्धी मेहल ॥७॥
सरि पेच्छिवि महिपरमेसरेण पुच्छिउ सारहि भैरहेसरेण । झसणयणी विब्भमणाहिगहिर णवकुसुमविमीसियभमरचिहुर । मज्जंतकुंभिकुंभत्थणाल
सेवालणीलणेत्तंचलाल। तडविडविगलियमहघुसिणपिंग चलजलभंगावलिवलितरंग । सियघोलमाणडिंडीरचीर
पर्वणुद्धयतारतुसारहार । वित्थिण्णमणोहर पुलिणरमण णइ णाई विलासिणि मंदगमण । कवणेह भणसु सियकोमलंगि रइ जणइ विहंगहं णं विहंगि । तं णिसुणिवि रहिएं वुत्तु एम कमणीयसुकामिणिकामएव । धरणीसमउडमणिकिरणराइ रुइरंजियचरणणरेसराइ । दालिहपंकसोसणदिणेस
मुयबलकंपावियतिहुयणेस । पणईयणपयणियपरमपणय णिसुणसु णरिंद णाहेयतणयः। सुंधराधरिंदभेयणसमत्थ णं मंतिहि केरी मइ महत्थ । गंभीर पसण्ण सुलक्खणाल णं सुकइहि केरी कव्वेलील। रहवरसिरिव दरिसियरहंग किंण वियाणहि णामेण गंग । हिमवंतपोमसरणिग्गयंगि
णं महिवहुयहि परियाणभंगि। घत्ता-गिरिणहधरणियलहिं जलणिहि विवरहिं वहइ छाय ससिदित्तिहि ॥
भुवणत्तयगामिणि जणमणरामिणि एह सरिस तुह कित्तिहि ॥८॥
वणे जक्खिणी जक्खकीलावियारे तओ तम्मि गंगाणईचारुतीरे। पधावंतमायंगदाणंबुगंधं । . घुलंतुद्धपालिद्धयं चारुचिंध। • विसंकं जैसंकं कयारिंदसंकं बलं रायसेणाहिवाणाइ थक्कं ।
४. MBP जंतु ण दिछ । ५. MBPK सदेहु । ६. MBPT बहूपिय । ७. MBP एत्तहि । ८. १. M परमेसरेण । २. MBP पवणुद्धयं । ३. MBP कमणीयकामिणी । ४. MB सधरा । ५.
MBP कव्वमाल । ६. MBPK परिहाण and gloss in PK परिधानं। ७. MBPT विवलहिं । ९. १. MBP झसंकं ।
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१२. ९,३ ]
हिन्दी अनुवाद
२८३
जहां, जो अप्सरा पानीसे सफेद अपने बहते हुए दुपट्टेको नहीं देख पाती, उसके द्वारा परिधान अपने हाथ से पकड़ लिया जाता है और कहती है- "हे मां, यहां स्नान हो चुका ।" जिसमें मातंगों ( गजों और चाण्डालों ) को दानका स्नेह (चिकनापन और राग ) बहता है, और जिसमें तपस्वी भी अपने शरीरको डालते । जड़ ( मूर्ख और जल ) के साथ विद्वान् भी मूर्ख हो जाता है, जहाँ लक्ष्मीके आवासमें साँप शयन करते हैं। जो साँप और धनवान् सविष तथा बहुप्रिय ( वधुओंके प्रिय या अनेकके प्रिय ) हैं, उन्हें भी वह धनकी आशासे धारण करती है । जिन भगवान् के जन्माभिषेक के समय दिव्यांगनाके घन स्तनयुगलसे निकली हुई जो जिनेन्द्र भगवान् के स्नानाभिषेकके प्रारम्भिक दिनसे बह रही है, जिसमें प्रचुर शीतल हिमकण उछल रहे हैं, ऐसी वह मानो क्षीरसमुद्री क्षोरधारा के समान जान पड़ती है ।
घत्ता - सरागी समुद्र और हिमालय दोनोंने मानो मिलकर चन्द्रकान्त मणियोंकी प्रभासे उज्ज्वल इसे (गंगाको ) पकड़कर विश्वको जन्म देनेवाली इस धरतीरूपी नारीसे मेखलाके रूपमें बांध दिया है ||७||
८
नदीको देखकर धरती के परमेश्वर भरतेश्वरने सारथिसे पूछा, "मत्स्योंके नेत्रवाली, जलाaant नाभि गम्भीर, नवकुसुमोंसे मिले हुए भ्रमरोंके केशोंवाली, डूबते हुए गजोंके कुम्भोंके स्तनोंवाली, शैवालके नीले नेत्रांचलोंसे अंचित, किनारोंके वृक्षोंसे विगलित मधुकेशरसे पीली, चंचल जलोंकी भृंगावलीसे मुड़ी हुई तरंगोंवाली, सफेद और फैले हुए फेनके वस्त्रोंवाली, हवासे हिलते हुए स्वच्छ हिमकणोंके हारवाली, विस्तृत सुन्दर पुलिनोंसे सुन्दर, यह नदी मन्द चलनेवाली विलासिनी के समान जान पड़ती है, यह श्वेत कोमलांगी कौन है ? बताओ। यह विहंगी (पक्षिणी) की तरह विहंगोंसे प्रेम करती हैं।" यह सुनकर सारथि बोला - " हे सुन्दर कामिनियोंके लिए कामदेव समान, राजाओंके मुकुटमणियोंकी किरणोंसे शोभित, कान्तिसे रंजित प्रथम चक्रवर्ती राजन्, दारिद्रयरूपी कीचड़के शोषण के लिए दिनेश्वर, अपने भुजबलसे त्रिभुवन ईशको कंपाने वाले, प्रणयिनी स्त्रियोंसे परम प्रणय करनेवाले हे नाभेयतनय राजन्, सुनिए- क्या आप नहीं जानते कि यह गंगा नामकी नदी है, मन्त्रीकी महार्थवाली मतिकी तरह जो पृथ्वीके धरणीन्द्रों ( राजाओं - पर्वतों ) का भेदन करने में समर्थ है; गम्भीर, प्रसन्न और सुलक्षणोंवाली जो मानो सुकविकी काव्यलीलाके समान है ? और रथश्रीकी तरह रथांग ( चक्रवाक और चक्र ) को दिखानेवाली है ? हिमवन्त सरोवरसे निकलनेवाली जो मानो धरतीरूपी वधूके चलनेको भंगिमा है ।
घत्ता - यह पर्वत, आकाश, धरणीतलों और समुद्रके विवरोंकी शोभा धारण करती है । तोनों लोकों में परिभ्रमण करनेवाली जनमनोंके लिए सुन्दर यह चन्द्रमाकी दीप्तिवाली तुम्हारी कीर्ति के समान है ||८||
९
जिसमें यक्षिणियों और यक्षोंका क्रीड़ाविकार है ऐसे उस वनमें, गंगानदीके सुन्दर तटपर राजसेनाध्यक्षकी आज्ञासे सैन्य ठहर गया । वह सैन्य दौड़ते हुए महागजोंके मदजलसे गन्धयुक्त था, उड़ती हुईं तथा बाँसमें लगी हुईं पताकाओंसे सहित था, जो बैलों और यशसे अंकित था । उसकी
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२८४
महापुराण
[१२.९.४ पकीरंति दूरं समा भूमि एसा तडिजंति दूसाइं चंदोवहासा। गवक्खंतणिग्गंतधूमोहवासा रइज्जति संचारिमा भरिवासा। विमुञ्चति पल्लाणभारा हयाणं गयाणं पि ढक्कारवेणागयाणं । भरुम्मुक्कदेहा जहिच्छं वैलद्दा गया रासहा रासहीदिण्णसदा । तरूणं तणाणं पावंति दासा पलिप्पंति चुल्लीणिहित्ता हुयासा। पइज्जति णाणाविहा भक्खभेया णरा के वि मुंजेवि णित्तंगसेया। सरिच्छेण दीहेण पंथेण भग्गा पसुत्ता सह गहिणीकंठलग्गा। बलिज्जति दिज्जति गासा करीणं तणं भोयणं खोणलोणं हरीणं । पपेच्छंति अण्णे धयं साहिणाणं पयंपंति अण्णे पईहं पयाणं । ण संसंति अण्णे णरिंदस्स कामं भमामो कहं णिञ्च गामाउ गामं । इमो वेसरो वेसरी लेउ चारं परेणेव वुत्तो परो वारवारं।
कउद्घद्धगीवा वणते पयट्टा । लयापल्लवं पा हले होउ जत्ताइ पत्ता णिविग्धं पिए पेच्छ दूसाई आगच्छ सिग्छ । "इणं जत्थ केणावि रीणेण वुत्तं सवेसाणिवासं सचिधोवउत्तं । सहढे सटेंट सदेवं समिद्धं इमं एव राएण ठाणं णिबद्धं । घत्ता-णियथवइ विरइयइ मणिगणखइयइ सई सग्गहु उबइण्णउ ।।
णं "सुरवरसुंदरु देउ पुरंदरु पहु सउहयलि'"णिसण्णउ ॥९॥
१०
सामंत महासामंत जेवि सेणाहिवसिट्ठद्देसणिलइ हुय रयणि पुणु वि उग्गमिउ भाणु गयमयमलेण मइलिज्जमाणु छत्तंधयारछाइज्जमाणु झल्लरिभेरीरवगजमाणु णग्गोररेणुधवलिजमाणु मरगयपहाइ णीलिज्जमाणु असहं तिइ भडयणभरु महंतु अणंडुहवज्जरखरमाणिएण णाणावाहणरहसंकडेग
मंडलिय महामंडलिय तेवि । थिय रायपसाय विइण्णपुलइ । सगभत्थिजालजज्जल्लमाण । हरिलालाणीर धुप्पमाणु । पहरणविप्फुरणहिं दीसमाणु । मणहरकामिणियणगिजमाणु । 'वणधूलियाइ कवलिजमाणु । साणंदु सविक्कमु साहिमाणु । णं वसुहावणियइ पित्त वंतु । णरणियरकरहसंदाणिएण । चल्लियउ तुरिउ गंगातँडेण ।
२. MB णिग्गंति । ३. MB बलिद्दा । ४. MBP पवच्चति । ५. M खाणपाणं । ६. Kण पेच्छंति । ७. वयंसाहिणाणं । ८. M णमंसंति । ९. MBP णरिदं सकामं । १०. MB कओउद्धगीवा; P कओवद्ध । ११. PK उंटा। १२. MBP इमं । १३. BP विबद्धं । १४. MBP सुरवरु सुंदर देव
पुरंदरु । १५. M! णिसण्णिउ। १०.१. MBP णव । २. B omits णीलिज्जमाणु । ३. B omits this foot । ४. B omits this
line. ५. MP धित्तु वंतु । ६. B omits अणडुह । ७. MBP गंगायडेण ।
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१२. १०.११]
हिन्दी अनुवाद समतल भूमि दूर-दूर तक फैली हुई थी। कपड़ोंके तम्बू और मण्डप फैला दिये गये थे। जिनके गवाक्षोंसे धूम-समूह निकल रहा था, ऐसे तथा संचार योग्य प्रचुर गन्धवाले निवास बनाये गये । अश्वोंके जीन खोल दिये गये। और ढक्कार शब्दोंसे आते हुए गजोंके भी। भारसे मुक्त है शरीर जिनका, ऐसे बैल भी इच्छापूर्वक चले गये। गधोके लिए शब्द करते हुए गधे भी चल दिये। वृक्षों और घासके लिए दास दौड़ रहे थे। चूल्हों में दी गयी आग जल उठी । नाना प्रकारके भक्ष्यभेद बनाये जाने लगे। कितने ही लोग भोजन कर, तथा शरीरके पसीनेसे रहित होकर, समान दीर्घ पथसे थके हुए, गृहिणियोंके गलेसे लगकर सुखसे सोये हुए थे। हाथियोंको घास देकर सन्तुष्ट किया जा रहा था। घोड़ोंके लिए तृण, भोजन और खाननमक दिया जा रहा था। कोई अपने साथियोंसे पूछ रहा था, कोई लम्बे मार्गके बारेमें बात कर रहा था। कोई राजाके कामको प्रशंसा नहीं करते हुए कह रहे थे कि हम दिन प्रतिदिन एक गांवसे दूसरे गांव कहाँ तक घूमें। यह खच्चर और खच्चरी और चारा लो, ऐसा एकने दूसरेसे कहा। अपनी गरदनें ऊपर करके ऊँट जंगलमें चले गये और वहाँ लताओंके पत्ते तथा पानी लेने लगे। "हे प्रिय, अच्छा हुआ, यात्रासे निर्विघ्न आ गये । तम्बुओंको देखो और शीघ्र आओ।" वेश्याओंके निवाससे सहित, अपने-अपने चिह्नोंसे उपयुक्त, हर्षयुक्त, तम्बुओं और देवोंसे सहित, यह इस प्रकारका स्थान राजाने बनवाया है। इस प्रकार किसी खिन्न व्यक्ति ( सैनिक ) ने कहा।
पत्ता-अपने स्थपतिके द्वारा विरचित और मणिसमूहसे विजड़ित सौधतलपर बैठा हुआ राजा भरत ऐसा मालूम हो रहा था, मानो स्वर्गसे स्वयं उतरकर सुरवरोंमें सुन्दर इन्द्रदेव आकर बैठा हो ॥९॥
जितने भी सामन्त और महासामन्त, एवं महामाण्डलीक राजा थे वे भी इकट्ठे हुए। सेनाध्यक्षके द्वारा निर्दिष्ट और राजप्रसादसे पुलकित वे निवासमें ठहर गये। रात हुई, फिर अपनी किरणोंके जालसे चमकता हुआ सूर्य उग आया। गजमद-मलसे मैला होता हुआ, घोड़ोंके
से गीला होता हआ, छत्रोंके अन्धकारसे आच्छादित हआ, शस्त्रकी चमकमें दिखाई देता हुआ, झल्लरी और भेरीके शब्दोंसे गरजता हुआ, सुन्दर कामिनी जनोंके द्वारा गाया जाता हुआ, कपूरकी धूलसे धवल होता हुआ, वनकी धूलोंसे ग्रस्त होता हुआ, मरकत मणियोंसे नीला होता हुआ, सानन्द पराक्रमी और स्वाभिमानी वह सैन्य जो महान् भटजनके भारको सहन न करनेके कारण मानो वसुधारूपी वनिताके द्वारा पित्तकी तरह उगल दिया गया हो। जो बैलों, खच्चरों और गधोंके द्वारा मान्य है, नरसमूहों और ऊँटोंके द्वारा अवलम्बित है, और नाना वाहनों तथा
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२८६
महापुराण
[१२. १०.१२ चक्कीसचमूवइपेरियंगु
चक्कहु पच्छइ बलु चाउरंगु। आरुहि वि विजयगिरिवरकरिदि केसरिकिसोरु णं गिरिवरिंदि । खंधोवबद्धतोणीरजुयलु
करणिहियचावगुणरावमुहलु । संचलिउ विजयदुंदुहिणिणाउ सुरवइदिसाइ रायाहिराउ। घत्ता-उल्लंघिवि भीयरु उवरयणायरु पुणु थलमग्गे आइउ ।
"महिहरदरिवासई गोहणघोसई पहु गोउलइ पराइउ ॥१०॥
१५
जहिं मंथिज्जइ अइथधु दहिउं थेद्धत्तणु कासु वि होइ ण हिउं । जहिं कड्डिउ मंथउ गोवियाइ दीहें गुणेण णं पिउ पियाइ। चप्पेवि धरिउ मंदीरएण
परिभमइ णाई घणथणकएण । हो हो हलि गोविणि मई जि रमई मंथाणु ण तुह कामग्गि समइ । मा कड्डहि केयाकड्डणीइ
इय गजिउ जहिं णं मंथणीइ । अइमहणे सिढिलीहूउ देहु किं दहिउं ण अण्णु वि मुयइ णेहु । तक्कई एमेव जि जहिं घिवंति गामीयण तकहिं किं करंति । घयदुद्धई जहिं पंथिय पियंति गयपहसम सुँहु णिहइ सुयंति । जहिं गोविइ पेच्छिवि णरपहाणु वच्छुल्ल उ 'मेल्लिवि बधु साणु । मूरविउ° तक्कु"अविचित्तियाइ घिउ छडिउ''तग्गयणेत्तियाइ । महिवइमुहपंकयरमणतण्ह जहिं संठिय णीसासुण्ह सुण्ह । जहिं कुणरिंदहं रिद्धीउ जेम "महिसिउ खलेहिं दुझंति तेम । काह लियवंससई सुगंति
ण करइ घरकम्मु वि सिरु धुणंति । वच्चइ संकेयहु गोवि का वि मज्झप्पएसि बहुडिंभया वि । जहिं देति तालु कीलापयासु" मंडलिय"गोव गायति रासु। जहिं सिंगसमुक्खयतरुवरेहिं "ढक्कारिउ धीरु धुरंधरेहिं । घत्ता-तं गोह मुयंतें गहणि चरतें हरिणसिंगखयकंदहिं ।
मयमांसाहारई कुहरागारइं दिट्टई सवरपुलिंदहिं ॥११॥
दुवई-वामणर्थ द्धथोरवलवलियकलेवरसंधिबंधणा।
कढिणतिकंडचंडकोदंडकमागयजणणकुलहणा ।।१।। ८. MP केसरकिसोरु । ९. MB करि णिहियं । १०. MBPT°दरवासई । ११. १. MBP अइथड्ढ । २. MBP थड्ढत्तणु । ३. B मोदीरएण । ४. MBP गोमिणि । ५. MBP
सिढिलीहय । ६. B गामीणय । ७. MBP पंथिय जहिं । ८. B सुहणिद्दइ। ९. MBP मण्णिवि । १०. MBP सूरविउ । ११. MBP अवचित्तियाइ । १२. M छंडिउ । १३. MBP महिसीउ खलहिं ।
MBPK दुभंति । १५ M घरकम्मु वि सिरं; BP घरकम्मु सिरं। १६. MBP कीलावयासु । १७. M गीय । १८. MBP ढेक्कारिउ चारु । १९. M समरपुरिंदहि । १२. १. M has before this : छंद पथटिका । २. MBP थड्ढे । ३. MBP चलवलिय ।
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१२. १२.२] हिन्दी अनुवाद
२८७ रथोंसे संकीर्ण है ऐसे गंगातटके किनारे-किनारे, चक्रवर्तीके सेनापतिके द्वारा प्रेरित चतुरंग सेना रथके पीछे-पीछे चली। राजाधिराज भरत भी गिरिवरपर सिंहकिशोरकी तरह, विजयगिरि नामक गजवरपर आरूढ़ होकर, अपने कन्धोंपर तूणीरयुगल बांधे हुए और हाथमें लिये हुए धनुषकी प्रत्यंचाके शब्दसे मुखर होता हुआ नगाड़ोंके शब्दोंके साथ पूर्व दिशाको ओर चला।
__घता-भयंकर उपसमुद्रको पार कर वह फिर स्थलमार्गपर आया। वह राजा पहाड़ोंकी घाटियोंमें बसे हुए गोधन घोषवाले गोकुलोंमें पहुंचा ॥१०॥
जहां अत्यन्त गाढ़ा दही बिलोया जाता है। अत्यन्त घनत्व किसीके लिए भी हितकारी नहीं होता। जहां गोपीने मन्थक ( मथानी ) को खींच लिया है, वैसे ही जैसे गुणोंसे प्रियाके द्वारा प्रिय खींच लिया जाता है । सधन शब्द करते हुए मंदीरक ( सांकल ) से चांपकर पकड़ा हुआ वह मन्थानक घूमता है। "हो-हो, हला, गोपी मेरे साथ रमण करती है। लेकिन यह मथानी तुम्हारी कामपीड़ा शान्त नहीं कर सकती, इसे मत खींच।" रस्सीसे खींची गयी मथानीके द्वारा, मानो इस प्रकार गाया जाता है ? अत्यन्त मथे जानेसे शिथिल शरीर क्या केवल दही ही स्नेह छोड़ देता है, दूसरा कोई स्नेह नहीं छोड़ता? जहाँ तक्र (छाछ ) इसी प्रकार छोड़ दिया जाता है। ग्रामीण जन तक ( तर्क, विचार, और छाछ ) से क्या करते हैं ? जहाँ पथिक घो-दूध पीते हैं, और पथके कामसे मुक्त होकर सोते हैं। जहाँ गोपीने नरप्रमुखको देखकर बछड़ेकी जगह कुत्तेको बांध दिया। अपचित्त ( अस्त-व्यस्त चित्त) और प्रियमें लीन हुई गोपीने घी छोड़ दिया, और तक्र तपा दिया। जहाँ राजाके मुखरूपी कमलसे रमण करनेकी इच्छा रखनेवाली वध् गर्म उच्छ्वासोंके साथ बैठो हुई थी। जहां खोटे राजाओंकी ऋद्धिके समान भैसें, खलों ( खलों और दुष्टों ) के द्वारा दुही जाती हैं। कोई गोपी काहल और वंशीका शब्द सुनती हैं, वह घरका काम नहीं करतीं और सिर धुनती हैं। कोई गोपी कृशोदरी और अनेक बच्चोंवाली होकर भी संकेत स्थानके लिए जाती है । जहाँ क्रीडाका अवकाश देनेवाली ताली बजाते हुए गोप मण्डलाकार होकर रास गाते हैं
जहां अपने सागोसे तरुवरोको उखाड़नेवाले वृषभोंके द्वारा गम्भीर ढेक्का शब्द किया जाता है।
पत्ता-ऐसे उस गोकुलको छोड़कर, हरिणके सीगों और उखाड़ी हुई जड़ोंवाले शवर पुलिन्दोंसे गहन वनमें जाते हुए उन्होंने पशुओंके मांसाहारों और पहाड़ोंके मकानोंको देखा ।।११।।
१२
बौने तथा सघन स्थूल बलसे, जिनके शरीरोंके जोड़ गठित हैं; कठोर बाणोंसे प्रचण्ड धनुष जिनका कुलक्रमागत पितृकुलधन हैं; छोटे स्थूल और विरल दाँतोंसे उज्ज्वल, जिनके मुखपर,
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१०
१५
२०
५
२८८
[ १२. १२. ३
सुमडहथूलविरलदसणुज्जलमुह सिहि पिच्छे णिव सणा । गयमयपउरपंकचैश्चिक्किय गुंजादामभूसणा ॥२॥ झंपडकविलकेसरुहिरारुणदारुणतं बणयणया । तिक्खखुरुपपहर पवियारियमारियमोरहरिणया ||३|| इसुहय दंतिदंतकय मंदिरसं चियचारबोरया । तलतरुत्तरत्तणी लुप्पलविरइयकण्णपूरया ॥४॥ दिसिपसरतविमलस सियर णिणरवइज सभयंगया । सविसेसजायमुत्ताहल चमरीरुहकर गया ||५| पीयसुसीय कुसुमरय सुरहिय महिह रकंद भया । सबरीवयणकमलरसलंपडखंधुद्धरियडिंभया ||६|| हरगलगरलमलिणणवजलहरछविसारिच्छकायया । आया पहुसमीवि मडलियकर विविह किरायरायया ॥७॥ गुरुभयवसणिहित्तणिय देह महीयललग्गभालया । ते अवलोइऊण करुणेण णवंतवणंतवालया ||८|| हूंंततरंत क्खिथणघुसिणामोय मिलंतमहुयरं । चंचलसंगलंत कल्लोलगलत्थिय खयरवहुवरं ||९ ॥ कच्छवसुंसुयारमयरोहर पुंछुच्छलियणीरयं । पत्तो परियणेण सह महिवइ सुरवरसरिदुवारयं ॥ १० ॥ घत्ता - आवासिउ साहणु वणि सुपसाहणु णिसि पणविवि परमेसरु | णं जिणु जिणसासंणि थिउँ दब्भासणि उववासेण णरेसरु ||१२||
महापुराण
१३
अहिवासिउं राएं चक्करयणु सुवण्णु अहंगु तुरंगरयणु उग्गमिउ णहंगणि दुमणिरयणु कइवयणरेहिं सह सूरसंसु पहरणपरिपुण्णु महामहंतु चलपंचवण्णधयवडललंतु ओलंबिय किंकिणिरणझणंतु सलिल णिहिस लिधोइयपएहिं तक्कारिचम्मलंट्ठीहए हिं छक्खंडपुहइवलयाहि वेण घत्ता - हरिसेण व गज्जइ भरहु ण भज्जइ पहु ण कासु किर रुञ्चइ || मरुह्य कल्लोलहिं चलभुयडालहिं रयणायरु णं णचइ ||१३||
जिह तं तिह अवरु वि दंडरयगु । करिरयणु लोहे वलयंकरयणु आरूढ संदणि पुरिसरयणु । णं माणसपंकइ रायहंसु । परिभमियचक्कचिक्कारु देतु । णाणामणिकिरणहिं पज्जलंतु । तियसिंह मणि विम्हउ जणंतु । मुहसंमुहघुलियत रंगहिं । रहु डिउ मारुयजवहएहिं । अवलोइड जणणिहि पत्थिवेण ।
४. MBP पिछ । ५. P° चिच्चिक्क । ६. MBP यारियतित्तिरमोरं ।
तिलतरु but gloss ताडवृक्ष । ८. MBP ठिउ ।
१३. १. P॰वलियंक । २. MP परिपुण्ण । ३. MBP विभउ । ४. MBP सलिल सुणिहि ।
७. M तिलतरुं; T
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१२. १३. १२ ]
हिन्दी अनुवाद
२८९
मयूर पंखका आच्छादन है, गजमदको प्रचुर कीचड़में सनी हुई गुंजामालाएँ ही जिनके आभूषण हैं, जो घुंघराले और कपिल केशों तथा खूनसे लाल और भयंकर आताम्र नेत्रोंवाले हैं; जिन्होंने तीखे खुरपोंके प्रहारोंसे विदीर्ण कर मोरों और हरिणोंको मार डाला है; जिन्होंने, तीरोंसे आहत हाथियोंके दाँतोंसे निर्मित घरोंमें अचार और बेर इकट्ठे कर रखे हैं, जिन्होंने ताल वृक्षके पत्तों, लाल और नीले कमलोंके फर्णफूल बना रखे हैं, जो दिशाओं में फैले हुए विमल चन्द्रके समान राजाके यशसे भयभीत हैं, जिनके हाथोंमें वंश- विशेषमें उत्पन्न मोती और चमरी गायके बाल हैं, जो सुशीतल और कुसुमरजोंसे सुरभित महीधरोंकी गुफाओंका जल पीते हैं, जो शरियोंके मुखरूपी कमलोंके रसके लम्पट और कन्धों पर अपने बच्चोंको उठाये हुए हैं, जो शिव कण्ठविष के समान मलिन ( श्याम) और नवमेघोंकी छविके समान शरीरवाले हैं, ऐसे विविध किरातराज हाथ जोड़े हुए राजा भरतके पास आये । भारी भयसे जिन्होंने अपने शरीर और भालतलको धरतीपर लगा रखा है, तथा जो अपने बालकोंको झुका रहे हैं, ऐसे उन भील राजाओंको करुणापूर्वक देखकर वह राजा अपने परिजनके साथ उस गंगा नदीके द्वारपर पहुँचा, कि जिसमें नहाती और तैरती हुई यक्षिणियोंके स्तन - केशरके आमोदसे भ्रमर इकट्ठे हो रहे हैं, जिसमें चंचल और संघटित लहरोंके द्वारा विद्याधर-वधुओं को उछाल दिया गया है । जिसमें कच्छप, शिशुमार, मगर और मत्स्योंकी पूँछोंसे जल उछल रहा है ।
धत्ता - सुन्दर प्रसाधनोंसे युक्त सैन्य वनमें ठहर गया । रात्रिमें परमेश्वरको प्रणाम कर राजा भरत उपवासपूर्वक दर्भासनपर इस प्रकार बैठ गया, मानो जिन भगवान् जिनशासनमें स्थित हो गये हों ॥ १२॥
१३
राजाने चक्ररत्नकी पूजा की । जिस प्रकार उसकी, उसी प्रकार दूसरे दण्डरत्नकी पूजा की। शुकके रंगवाले अभंग अश्वरत्न, और लौह श्रृंखलाओंसे अलंकृत गजरत्नकी ( पूजा की ) । आकाश में सूर्य निकल आया । वह पुरुष रत्न (भरत) अपने रथपर आरूढ़ हो गया । वोरोंके द्वारा प्रशंसनीय, कतिपय मनुष्योंके साथ, ( मानो जैसे मानसरोवर के पंकमें राजहंस हो ) प्रहरणों ( शस्त्रों) से परिपूर्ण, अत्यन्त महान् घूमते हुए रथचक्रोंसे चिक्कार करता हुआ, चंचल फहराते हुए पंचरंगे ध्वजोंसे सुन्दर, नाना मणिकिरणोंसे आलोकित, लटकती हुई किकिणियोंसे रुनझुन करता हुआ, देवेन्द्रोंके मनमें भय उत्पन्न करता हुआ, वह रथ, जिन्होंने समुद्रके जलमें अपने पैरोंको धोया है, जिनके मुँहके सम्मुख तरंगें व्याप्त हैं ( आन्दोलित हैं ); जो सारथिको चर्मयष्टियों ( कोड़ों) से आहत हैं, ऐसे हवाके वेगचाले अश्वोंके द्वारा खींचा गया। छह खण्ड धरती के स्वामी राजा भरतने समुद्रको देखा 1
घत्ता - वह समुद्र हर्षसे गरजता है, भरतकी सेवा करता है। प्रभु किसके लिए अच्छे नहीं लगते । पवनसे आहत लहरोंरूपी अपनी सुन्दर हाथरूपी डालोंसे मानो रत्नाकर नृत्य कर
रहा है ॥१३॥
३७
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२९०
महापुराण
[१२. १४.१
१४
उक्खिवइ व मोत्तियतंदुलाई तोयई णं अग्धंजलिजलाई। भीएण व रायहु लइय वेल दावइ व विउलसलिलंतसेल । णं ढोयइ जलमयगल सैरंत जलणरकिंकरकररुहफुरंत । माणिक्कइं पवरपवालयाई णं दरिसइ तीरलयालयाई। णं बोहइ वडवाणलपईवु णं वेढिवि रक्खइ जंबुदीवु । संखाऊरउ जिह संखु धरइ पहुआणइ किंकरु किं ण करइ । उम्मुक्कविविहजलयरसणेहि णं जंपइ पायालाणणेहिं। किं विदुमराएं तुहुँ जि राउ तेलोकपियामहु जासु ताउ । मा जोयहि महिवइ तिक्खभल्लि तर तणिय वाय मजायवेल्लि । होएँप्पिणु अच्छउं एत्थु ताम . गंड लंघमि महियलि वसमि जाम। तुह मुद्दइ अंकिउ हउं समुदु मा किं पि करहि मच्छरु रउदु । घत्ता-खारत्तु ण मेल्लइ जणु किं बोल्लइ णत्थि सहावहु ओसहु॥
जसु णामु जि सायरु अवसें सायरु सो संभासई णिययपहु ॥१४॥
१५
तरुणीअंगाई व सलवणाई अहिसिंचियतीरलयावणाई। लंघेप्पिणु रयणायरवणाई पइसेप्पिणु बारहजोयणाई। ठाएप्पिणु पुणु तेत्तियहिं तेहिं तंबेहिं सरोसहि लोयणेहिं । रिउभवणु पलोइवि णिववरेण अप्फालिउ धणुहं धणुद्धरेण । अंदोलिय तारागहपयंग। महि चलिय विवरणिग्गयमुयंग। अच्छोडियबंधण विवलियंग णिण्णासिय तासिय रवितुरंग । थरहरिय धराहर धरण वरुण आसंकिये जम वइसवण पवण । संचालिय सरिसरसायरंभ गय मयगल मुडियालाणखंभ । णिवडिय पुरवर पायार गेह मुय कायर गर भैयंभंतदेह । वरवीरहिं खग्गहु दिण्ण दिह्रि अवर वि चवंति हा णट्ठ सिहि । दप्पिट्ट दुट्ठ मुयवलविमद्दु भडभीयरु भावइ भी सदु । किं मंदरसिहरु सठाणल्हसिउ किं जगु कवलिवि कालेण हसिउ । घत्ता-पायालि फणिदहिं महिहि गरिंदहिं सग्गि सुरिंदहिं कपिउँ ।।
धणुगुणटंकार अइगंभीरें कासु हूयउं विप्पिउँ ॥१५।। १४. १. P ढोयइ । २. MBP रसंत; K सरंत but corrects it to रसंत । ३. BP दरसइ । ४. MBP
पईउ । ५. MBP जंबुदीउ । ६. MBP संखाऊरिउ । ७. MBP तेल्लोक । ८. MBP होएविणु
अच्छमि । ९. ण हु। १५. १. MBP धराधर । २. M आसंकय; BP आसंकइ। ३. P भयवंत । ४. MBP मुट्रि। ५. MBP
भीमसद् । ६. Bण्हसिउ । ७. MBP णं जगु । ८. PK कंपियउ । ९. P विप्पियउ ।
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११. १५. १४ ]
हिन्दी अनुवाद
२९१
स्फरित
जैसे वह मोतीरूपी अक्षत फेंक रहा है, जल ऐसा मालूम होता है मानो अर्धांजलिका जल हो। भयके कारण जैसे उसने राजा ( भरत ) की मर्यादा ग्रहण कर ली हो, जैसे वह पानीके भीतरके पहाड़ दिखा रहा हो। मानो चलते हुए और जल-मानवरूपी अनुचरोंकी अंगुलियोंसे
त जलमदगज, प्रवर प्रवाल और माणिक्य उपहारमें दे रहा हो, मानो किनारोंके लतागह दिखा रहा हो, मानो बड़वानलरूपी प्रदीप जला रहा हो, मानो घेरकर जम्बूद्वीपकी रक्षा कर रहा हो। जिस प्रकार शंखोंको बजाता है, उसी प्रकार शंखोंको धारण करता है, प्रभुकी आज्ञासे किंकर क्या नहीं करता ? जिसमें विविध जलचरोंके शब्द हो रहे हैं, मानो ऐसे बड़वामुखोंसे वह कहता है कि हे राजन् ! आपको विद्रुमको ललिमासे क्या प्रेम ? कि जिसके पिता त्रिलोक पितामह हैं। हे महीपति, आप अपनी तीखी भल्लिकाकी ओर न देखें, आपकी बात मेरे लिए मर्यादाकी रेखा है। मैं जबतक यहां स्थिर होकर रहता हूँ तबतक महोतलका उल्लंघन नहीं करूंगा। मैं अब आपकी मुद्रासे अंकित समुद्र हूँ। इसलिए मुझपर कुछ भी भयंकर ईर्ष्या नहीं करिए।
पत्ता-वह अपना खारापन नहीं छोड़ता। लोग यह क्यों कहते हैं कि स्वभावको दवा नहीं होती। जिसका नाम समुद्र है ( सायर-सागर); वह अवश्य ही अपने स्वामीसे सायर ( सादर ) बात करता है ॥१४॥
जो तरुणियोंके अंगोंको तरह सलवण (लावण्यमय, सौन्दर्यमय ) है, और जिसके किनारोंके लतावन सिंचित हैं, ऐसे समुद्रजलोंमें बारह योजन तक प्रवेश कर और वहीं स्थित होकर अपने लाल-लाल तथा क्रोधसे भरे हुए नेत्रोंसे शुभ भवनको देखकर धनुर्धारी राजाने अपने धनुषको आस्फालित किया। उससे तारा ग्रह और पतंग (सूर्य) आन्दोलित हो उठे। जिसमें बिलोंसे नाग निकल आये हैं, ऐसी धरती चलित हो गयी। अपने बन्धनोंको खींचते हुए और कांपते हुए शरीरवाले सूर्यके घोड़े त्रस्त होकर नष्ट हो गये। पर्वत धरण ( इन्द्र) और वरुण थर्रा उठे। यम, वैश्रवण और यम आशंकित हो उठे। नदी, सरोवर और समुद्रका जल संचालित हो उठा, जिनके आलानस्तम्भ मुड़ गये हैं ऐसे मैगल हाथी भाग गये; पूरवर, परकोटे और घर गिर पड़े। भयसे भ्रान्त-शरीर कायर नर मर गये । श्रेष्ठ वीरोंने अपनी तलवारोंपर दृष्टि डाली। दूसरे कहने लगे कि हा, सृष्टि नष्ट हो गयी। दर्पिष्ठ, दुष्ट ! बाहुबलका मदन करनेवाला, योद्धाओंको डरानेवाला वह भयंकर शब्द ऐसा लगता है कि क्या मन्दराचलका शिखर अपने स्थानसे खिसक गया है ? क्या विश्वको निगलनेके लिए कालने अट्टहास किया है ?
घत्ता-पाताललोकमें नागेन्द्र और धरतोपर नरेन्द्र तथा स्वर्गमें सुरेन्द्र कांप उठे । अत्यन्त गम्भीर धनुषकी डोरीकी टंकारसे किसका हृदय भयाक्रान्त नहीं हुआ? ॥१५॥
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५
१०
२९२
महापुराण
१६
धेपणु rिoat किं पि ठाणु । रणा पेसिउ वज्जकंडु | गुणको डिविमुक्कर णं कुसीलु । उज्जेयगइ णं सुयणंतरंगु । असुद्धिवंतु णं सुक्कझाणु । अप्रहारिणं खलपसंगु ।
णं माणुसु कुसमयत्तिहयउ । अइगयणगमणु णं खेयरत्तु । अइकढिणभेइ णं णइपवाहु । हुंकारें चोणं सुमंतु ।
घत्ता - मागहरु लिणि हरिणीलंगणि खुत्तु कणयपुंखुज्जलु ॥ रुणिज्जियकज्जल जउंणाणइजलि णं पप्फुल्लिउ सयदलु ||१६||
घणुवेयजाणु परिछिण्णमाणु काले भासुरु कालदंडु धम्मुज्झिर पलयहुया सलीलु पिच्छंचिउ चंचलु णं विहंगु अइदूरगामि णं परमणाणु अदीहायारणं भुयंगु अगुणिह परंमुहुं "होवि गयउं अइलोहघडिउ णं लुद्धचित्तु अइमोक्खगामिणं चरमदेहु
वाउ णं तश्चिय महंतु
भूभंगभीसभिउडीहरेण सुरसमरसहासभयंकरेण देवेण समुद्दपरिग्गण भणु केणुष्पाडिय जमहु जीह णाय वलय विलेलंतु गीदु भ के कलिउ मंदरु करेण भणु के
खलि हि भाणु जंतु भणु का करोडिहि रिट्ठ रसिउ भणु के विहंडिल मज्झु माणु
१७
इय भणिवि तेण कड्ढि करालु पडुताडणखंडियभडे व मालु मुट्ठणवीडियउ वहइ वारि वसुणंदर ससिमंडलसरिच्छु
विप्फुरियदसणडसियाह रेण । दुणिक्खि विवक्खखयंकरेण । तं पेक्खवि गज्जि मागण । भणु के लुहिय खयकाललीह । भ के णिसुंभि धेरणिवीद वित्त सी केण । णिणि प्राण को जियंतु । भणु को कति वसिउ । केहु विसज्जिउ कुलिसबाणु ।
घत्ता - जेणेउं वियंभिउं रणु पारंभिउं सो महु अज्जु ण चुक्कइ || भिंगु जमाणणु भीड काणणु बिहिं वि एक्कु ध्रुवु दुक्कइ ॥१७॥
१८
धारालउ णावइ मेहजालु | असि अरिकरिमोत्तियदंतुरालु । दासु व विंझर व वंसधारि । उरि चप्पविउट्ठि लोहियच्छु ।
O
१६. १. MB जाण । २. MBP उज्जयं । ३. MBP अइसिद्धिवंतु । ४. MBP पाण । ५. MBP होइ । ६. MBP भंतिं । ७. MBP लुद्धरत्तु ।
१७. १. MBP विलुलंत । २. M धरणिपीढु । ३. MBP पाणहं । ४. B रिद्धु । ५. P दंतंतवसिउ ।
६. MBP धुउ |
१८. १. MBP ॰कवालु ।
[ १२. १६. १
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१२. १८.४]
हिन्दी अनुवाद
धनुर्वेदके अनुसार ज्ञात और निश्चित मानवाला बाण राजा भरतने किसी अनुपम स्थानको लक्ष्य बनाकर प्रेषित किया, मानो कालने भास्वर कालदण्ड प्रेषित किया हो। प्रलयको आगकी लीलावाला वह बाण धम्मुज्झित (धर्म और डोरीसे मुक्त ), कुशीलकी तरह मानो गुणकोटि से ( गुणोंकी परम्परासे मुक्त, डोरी और धनुषसे मुक्त ), विमुक्त वह (बाण) मानो विहंग (पक्षी) की तरह, पिच्छ (पंख और पुंख) से सहित था, सुजनके हृदयकी तरह अत्यन्त सीधी गतिवाला था, परम ज्ञानकी तरह अत्यन्त दूर तक गमन करनेवाला था। शुक्लध्यानकी तरह अत्यन्त शुद्धिवाला था, भुजंगकी तरह अत्यन्त बड़े आकारवाला था, दुष्टके प्रसंगको तरह प्राणोंका अत्यन्त अपहरण करनेवाला था। वह बाण अत्यन्त गुणी ( मुनि और धनुषसे ) से विमुख होकर इस प्रकार गया मानो खोटे शास्त्रोंकी भक्तिसे आहत मनुष्य हो, लोभीके चित्तके समान वह अति लोह घडिउ ( अत्यन्त लोभ, और लोहेसे रचित) था। वह विद्याधरत्वकी तरह मानो आकाशमें अत्यन्त गमन करनेवाला था। मानो चरमशरीरीकी तरह शीघ्र मोक्षगामी था। मानो नदीप्रवाहकी तरह अत्यन्त कठिन भेदनवाला था, वही ( तच्चिय ) नदीप्रवाह और महान् तात्त्विककी तरह ठाणालउ (नावोंसे युक्त और नमनशील ) था, वह मानो हुंकारसे प्रेरित सुमन्त्र था।
पत्ता-भरतने हरित और नीले मृणियोंसे रचित मागधराजके घरमें स्वर्णपुंखसे उज्ज्वल तीर फेंका, जो ऐसा लग रहा था मानो अपनी कान्तिसे काजलको पराजित करनेवाले यमुना नदीके जलमें शतदल कमल खिला हआ हो॥१६॥
भौंहोंके भंगसे भयंकर भृकुटी धारण करनेवाला, विस्फुरित दांतोंसे ओठोंको चबाता हुआ, हजारों देवयुद्धोंमें भयंकर दुर्दशनीय शत्रुओंको क्षय करनेवाला और समुद्रका परिग्रह करनेवाला वह मागधदेव उस तीरको देखकर गरज उठा। वह बोला-"बताओ यमको जीभ किसने उखाड़ी, बताओ क्षयकालकी रेखाको किसने पोंछा ? बताओ नागकुलके वलयके द्वारा गृहीत धरिणीपीठको किसने नष्ट कर दिया? बताओ किसने हाथसे मन्दराचल उठाया? सोते हुए सिंहको किसने जगाया? बताओ आकाशमें जाते हुए सूर्यको स्खलित किसने किया? कौन जीते जी अपने प्राणोंसे विरक्त हो गया? बताओ किसके सिरपर कोआ बोला है? बताओ यमके दाँतोंके भीतर कोन बसा हुआ है ? किसने मेरे मानको भंग किया है ? किसने यहां यह वज्रबाण छोड़ा है ?
घत्ता-जिसने यह तीर फेंका है और युद्ध प्रारम्भ किया है, वह आज मुझसे नहीं बच सकता, अनिष्ट यममुख या भयंकर कानन, दोनोंमें-से एक, निश्चित रूपसे उससे भेंट करेगा ॥१७॥
१८ यह कहकर उसने कुशल आघातसे जिसने योद्धासमूहको नष्ट किया है, जो शत्ररूपी गजके मोतीरूपी दांतोंवाली है, ऐसी भयंकर तलवार इस प्रकार निकाल ली जैसे धारावर्षी मेघजाल हो । मजबूत मुट्ठियोंसे पीड़ित जो दासकी तरह जल धारण करती है, जो विन्ध्याचलके समान वंश ( बांस और कुटुम्ब ) को धारण करनेवाली है, चन्द्रमण्डलके समाव उस तलवारको अपने
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२९४
महापुराण
[१२. १८.५ पहु पेच्छिवि केण वि लइउ कोंतु आरुढ को वि हणु हणु भणंतु । मोग्गरु मुसुंढि परसु वि तिसूलु केण वि करि लइयउ भिंडिमालु । वावेल्लु सेल्लु झसु सत्ति मुसलु हलु सव्वलु कंपणु जुज्झकुसलु । केण वि भुयंगु केण वि विहंगु केण वि तुरंगु केण वि मयंगु । केण वि अलियल्लि घुलंतजीहु केण वि खरणहरुक्के सीहु। केण वि संचोइउ करहु सरहु कु वि आहवि धाइउ जाम सरहु । घत्ता-ता मागहमंतिहिं कयकुलसंतिहिं पणवेप्पिणु उच्चाइउ ।।
छणससहरवयणहिं तारहिं णयणहिं रायसिलिम्मुहु जोइउ ॥१८॥ .
तेहिं लिहियई दिदुई अक्खराइं. सुरमणुयखयरदेसंतराई। जिणतणयहु विविहणिहीसरासु णियकालवैदृसंधियसरासु । रायहु भरहहु ण णवंति जाई। णिच्छउ दोहाइं मरंति ताई। मणु रंजिवि जुंजिवि अवहिणाणु दक्खविउ ससामिहि गपि बाणु । पुणु अक्खिउ खलयणमइयवट्टि उप्पण्णउ महियलि चक्कवट्टि। भो मागह किं जुज्झग्गहेण . मुइ पहरणु किं विणडिट गहेण । जइ अज्जु ण इच्छहि तासु सेव तो तुम्हइं णउ अम्हई मि देव । तुहुँ एक्कु ण अवरइं सुरसयाई तहु मंदिरि दासत्तणु गयाइं। लिहियहु किं किर कीरइ विसाउ दीसइ पणविवि रायाहिराउ। ते वयणे सो परिमुक्कदप्पु थिउ मंतपहावें णाई सप्पु । अवलोयवि संरलिविपतियाउ भावेप्पिणु मंतिपउत्तियाउँ । घत्ता-मागहिण अगावें सविणयभावें चक्केण व दिवसेसरु ।
पणविवि थुइवयणहिं णाणारयणहिं पूइवि दिगु गरेसरु ।।१९।।
सविहवविम्हावियसयमहेण . विहसेप्पिणु बोल्लिउ मागहेण । जय भरह महागयलीलगामि तुहुं इह जम्महु महु परमसामि । तुहुं इंदु इंदरिद्धीसणाहु तुहुं हुयवहु अरिवरदिण्णडोहु । २. MBP कुंतु । ३. MBPK पट्टिसु तिसूल । ४. P भिंडमालु । ५. MBP वावल्ल । ६. MBP
कप्पणु । १९. १. P तिहिं and gloss बाणे । २. MBP लेहियइं । ३. M कालवट्टि । ४. M जे वि । ५. M ते
वि । ६. B किंकर । ७. K पविमुक्कं ।। ८. MBP सरलियपंतियाउ । ९. MP add after this भरहेसरायणामंकियाउ, सुरणरखेयरभय ( M सय) गारियाउ, ता तेण वि चित्ति चमक्कियाउ, वाएप्पिणु अक्खरपंतियाउ; B adds : भरहेसरायणामंकियाउ, जुइणिज्जियरवियरकंतियाउ, ता तेण वि
चित्ति चमक्कियाउ, चक्कवइभरहणामंकियाउ । १०. M अकूडिल । २०. १. MBP °विभावियं । २. MBP°दाहु ।
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२९५
१२. २०.३]
हिन्दी अनुवाद उरमें चांपकर, लाल-लाल आंखोंवाला मागधेश वसुनन्द उठा। स्वामीको देखकर किसीने भाला ले लिया, कोई 'मारो-मारो' कहता हुआ क्रुद्ध हो उठा। किसीने मुद्गर, भुशुण्डी, फरसा, त्रिशूल, हल और भिन्दिमाल अपने हाथमें ले लिया। किसीने वावल्ल, सेल, झस, शक्ति, मूसल, हल, सव्वल और युद्धकुशल कम्पन ले लिया। किसीने भुजंग, किसीने विहंग (गरुड़), किसीने तुरंग, किसीने मातंग (गज), किसीने जीभ हिलाता हुआ बाघ,. किसीने तीव्र नखोंके समूहवाला सिंह, किसीने ऊंट और श्वापदको प्रेरित किया। कोई तबतक रथसहित युद्ध में दौड़ा।
___घत्ता-जिन्होंने कुलकी शान्ति स्थापित की है ऐसे मागध-मन्त्रियोंने प्रणाम कर उस तीरको उठाया और पूर्ण चन्द्रमाके समान मुखवाले उन्होंने स्वच्छ नेत्रोंसे राजा भरतके उस तीरको देखा ॥१८॥
उसने (मागधेश वसुनन्दने ) उसमें लिखे हुए हस्ताक्षर देखे-"जो देव, मनुष्य, विद्याधर और देशान्तरके विविध निधियोंके स्वामी तथा अपने कालपृष्ठ नामक धनुषपर तीर साधे हुए, ऋषभनाथके पुत्र राजा भरतको नमस्कार नहीं करते, वे निश्चित ही दो खण्ड होकर मरेंगे।" तब अवधिज्ञानका प्रयोग कर और अपने मनमें प्रसन्न होकर, उन्होंने अपने स्वामीको जाकर वह तोर दिखाया और कहा कि "दुष्टजनोंको चूर-चूर करनेवाला चक्रवर्ती राजा धरतीपर उत्पन्न हो गया है। हे मगधराज, युद्धके आग्रहसे क्या? शस्त्र छोड़ो, क्यों ग्रहसे प्रवंचित होते हो। यदि आज आप उसे स्वीकार नहीं करते, तो हे देव, न तो तुम हो और न हम लोग । तुम अकेले नहीं, हे देव, दूसरे भी सैकड़ों देवोंने उसके घरमें दासता स्वीकार कर ली है, जो भाग्यमें लिखित है, उसका क्या विषाद करना? प्रणाम करके राजाधिराजसे भेंट की जाये।" इन शब्दोंसे उसने अपना घमण्ड वैसे ही छोड़ दिया जैसे मन्त्रके प्रभावसे सांप स्थित हो गया हो। बाणकी सरल पंक्तियाँ पढ़कर तथा मन्त्रियोंके वचनोंका विचार कर
पत्ता-गवरहित मागध नरेशने विनयभावसे प्रणाम कर और नाना रत्नों और स्तुतिवचनोंसे पूजा कर राजाको उसी प्रकार देखा, जिस प्रकार चक्रवाकके द्वारा सूर्य देखा जाता है ॥१९॥
२०
1:- अपने वैभवसे इन्द्रको विस्मित करनेवाले मगधने हंसकर कहा, "हे महागजलीलागामी आपको जय हो, आप मेरे इस जन्मके स्वामी हैं, इन्द्र और कुबेरके स्वामी आप इन्द्र हैं। शत्रुप्रवर
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२९६
[१२. २०.४ तुहं जमु जमकरणु ण का विभंति तुहुं वरुणु सयलजणविहियसंति । तुहुं धणउ धैंण उ सुहिणिहियकामु तुहुं पंचणु पबलबलदलणथामु । ईसाणु महेसरणवियपाउ तुहुं एक्कु जि जगि रायाहिराउ । तुह असिजलधारइ हरियछाय । अरिणरवंइ तरु के के ण जाय । तुह असिजलधारइ उद्धसासु . वडारिउ मुवणंतरि ण कासु। तुह असिजलधारइ परिल्हसति बहुसलिल वि रयणायर तसंति । तह असिजलधारइ अइहयाई रिउवहणयणंसयबिंदयाई। तुह असिजलधारइ कुलि असोउ हूयउ णिचं चिय भुत्तभोउ । घत्ता-तुहं भरह पयावइ पढेममहीवइ महिणाहहिं मणि भाविउ ।
ताराणक्खत्तहिं पय पणवंतहिं पुप्फदंतु जिह सेविउ ।।२०।।
इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरहए महामश्वमरहाणु
मण्णिए महाकव्वे मागहपसाहणं णाम बारहमो परिच्छेओ सम्मत्तो ॥ १२ ॥
॥ संधि ॥१२॥
३. MBP धणई। ४. MBP महीसर । ५. B omits this line. ६. MPK अहिणरवइ । ७. B omits this line. ८. MP उड्ढसासु । ९. MBP पढमु । १०. M पुप्फयंतु; BP पुप्फयंत ।
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१२. २०. १३] हिन्दी अनुवाद
२९७ को दाह देनेवाले आप अग्नि हैं, आप दम और यमकरण हैं, इसमें किसी प्रकारको भ्रान्ति नहीं है। सुधियोंके लिए निहितकाम, आप धन देनेवाले कुबेर हैं, प्रबल शत्रुदलका दलन करनेकी क्षमता रखनेवाले पवन हैं ? राजाओंको अपने चरणों में झुकानेवाले ईशानेन्द्र हैं । आप ही विश्व में एकमात्र राजाधिराज हैं। तुम्हारी असिवररूपी जलधारासे कौन-कौन, शत्रुराजारूपी वृक्ष हरियछाय ( जिनकी छाया / कान्ति छीन ली गयो है, ऐसे तथा हरी-भरी कान्तिवाले ) नहीं हुए। आपकी असिजलधारासे विश्वमें किसकी साँस ( श्वास और सस्य ) नहीं बढ़ी ? आपकी असिरूपी जलधारासे अत्यधिक जलवाला होते हुए भी समुद्र त्रस्त हो उठता है और अपना गवं छोड़ देता है। आपको असिरूपी जलधारासे शत्रुओंकी अनेक आँखोंके अश्रुबिन्दु और अधिक हो गये। तुम्हारी असिरूपी जलधारासे कुलमें नित्य ही अशोक मुक्त-भोग हो गया।
धत्ता हे भरत प्रजापति और प्रथम महीपति, पृथ्वीनाथोंके द्वारा चाहे जाते, चरणोंमें प्रणाम करते हुए उनके द्वारा आप वैसे ही सेवित हैं, जैसे कि ताराओं और नक्षत्रोंके द्वारा जिन तथा सूर्यचन्द्र सेवित हैं ॥२०॥
इस प्रकार ब्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुरुषमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका मागध
प्रसाधन नामका बारहवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥१२॥
३८
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१०
१५
२०
संधि १३
सोहि माग सिमु णविवि पसिद्धसिद्धिणेयारहो ||
जीव धरणीसरो चलइ सिमिरं समुल्ललइ सुरसरिहरं कमइ हरिवयणलालाइ जणणियसंकेण चरणाई लिपति अइगरुयभारेण दसदिसिवहं भमइ इणि उरमइ कह कह व भरु सहइ
१ गरुडद्धओ घुलइ । धूली हे मिलइ | पडिबलई उवसमइ । करिदाणवेलाइ | तंबोलपकेण । हारेहिं गुप्पंति । सामंतचारेण ।
If
पुलं मइ । विसवाणियं वमइ |
फणिपुंगमो तसइ
णरवइभुए वसई परणिवबलं गसइ वरवाहिणी चरइ
मउ मुयइ गइ महइ । लवण्णवो रसइ । रणजयसिरी हसइ | विसमत्थलिं कसइ । दुग्गं पिपइसरइ |
जलदुग्गमं तर इ
गिरिदुग्गमं समइ
भडथडहिं तुरहिं अमरेहिं खयरेहिं छवि वि संकमइ रायस्स वसि करइ
तरुदुग्गमं हरइ | गयणंगणं कमइ । संदर्णादि दुरएहिं । रिउवग्गखयरेहिं | अरिपत्थवे दमइ | अवसो भिसं रमँइ ।
MBP give, at the commencement of this Samdhi, the following stanza :
तीव्रापद्दिवसेषु बन्धुरहितेनैकेन तेजस्विना संतानक्रमतो गतापि हि रमा कृष्टा प्रभोः सेवया । यस्याचारपदं वदन्ति कवयः सौजन्यसत्यास्पदं
हि भरहराउ गउ दाहिणदारहो ॥ ध्रुवकं ॥
सोऽयं श्रीभरतो जयत्यनुपमः काले कलौ सांप्रतम् ॥
GK do not give it.
१. १. P साहेप्पिणु । २. MB गहिवि समु; P महिवि समु । ३. P सुरसिहरि संकमइ । ४. MBP कह वि । ५. M दुग्गे पि । ६. MBP परपत्थिवे । ७. MBP मरइ; K रमइ, but writes above it मरइ |
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सन्धि १३
आक्रमण करने में विषम मागधराजको सिद्धकर तथा प्रसिद्ध सिद्धिके नेता जिन भगवानको प्रणामकर, सिंहके समान गर्जनाकर, राजा भरतने दक्षिण द्वारके वरदामा तीर्थके लिए प्रस्थान किया।
राजा चलता है । गरुड़ध्वज फहराता है। सेनाएं तेज गतिसे चलती हैं, धूल आकाशमें छाती है। सुरलक्ष्मीके घरका अतिक्रमण करती हैं। वह घोड़ोंके मुखोंकी लारों, हाथियोंकी मदजल-रेखाओंसे प्रतिबल सेनाओंको शान्त करती हैं। लोगोंको शंका उत्पन्न करनेवाले पानों (ताम्वूलों) की कीचड़से पैर लथपथ हो जाते हैं, हारोंमें उलझ जाते हैं। अत्यन्त भारी भारसे तथा सामन्तोंके चलनेसे दसों दिशापथ घूमने लगते हैं, पृथ्वीतल झुक जाता है। नागिनें रमण नहीं करती, विषको ज्वाला उगलने लगती हैं। किसी प्रकार भार सहन करती हैं, मद छोड़ देती हैं, कहीं भी जाना चाहती हैं। नागराज त्रस्त होता है। लवणसमुद्र गरजता है। रण-विजय-श्री राजाके हाथमें निवास करती है और हँसती है। शत्रु-राजाओंके सैन्यको ग्रस्त करती है, विषमस्थलोंको चूर-चूर करती है; श्रेष्ठ सेना चलती है, दुर्गमें प्रवेश करती है, जलदुर्गको पार करती है, तरुदुर्गोंका अपहरण करती है। गिरिदुर्गमोंको शान्त करती है। गगनांगनका अतिक्रमण करती है। भटघटाओं, घोड़ों, रथों, गजों, देवों, विद्याधरों, शत्रुवर्गके विद्याधरोंके द्वारा छह प्रकारकी सेना संक्रमण करती है और शत्रुराजाका दमन करती है, राजाको वशमें लाती है। जो सेना वशमें नहीं होती वह प्राणोंसे वियुक्त होती है।
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[१३. १. २३
महापुराण घत्ता-काणणि वईंजयंतिणियडे बलु आवासिउ परगहणायरु ॥
गज्जइ गज्जंतहिं गयहिं पलयकालि णं खुहियउ सायरु ॥१॥
उवजलहिजलहितीराइयउ गिरिगेरुयरेणंयराइयउ।। सालालइ गट्टसालसहिउ
तालालइ तूरतालमहिउ । उत्तुंगमडि कयमंडुवरु
रत्तासोयंकि असोयधरु । कंचणवंतइ कंचणफुरिउ
पुण्णायपउरि पुण्णायरिउ । ससिरीसि सिरीसपसाहियउ बहुवंसि णिवंसविराइयउ । संठियसुवेसि वेसाभवणु सभुयंगइ भमियमुयंगगणु । सिहिगलरवि मंगलरवगहिरु . संरिवहरिसु कूरवइरिवहिरु । सविसायइ अविसायउ सविहु माइंदथइइ मायंदणिहु। कइलुकइ कइहिं पसंसियउ . थिय हरिवरि हरिवरभूसियउ । परलच्छीगहणुकंठियउ
वणि साहणु सयलु वि संठियउ । अत्थमिउ सूरु तमभरियदिसि थिउ णिसि उववासें रायरिसि । घत्ता-महिणाहेण समच्चियइं णियकुलचिंधई चावई चक्कइ ।
झाइउ मंतु महारिहरु "दीवकवाडइं विहडिवि थक्कई ॥२॥
तहिं अवसरि दिणयरु उग्गमिउ भरहेसें जिणवरिंदु णमिउ । रहु वाहिउ सहसा तेण किह संपुण्णमणोहरु पुण्ण जिह । कसपहरतुरियपेरियतुरउ मरुफंसफारफरहरियधउ। विरसियरहंगरोसियउरउ पहरणपरिपुण्णसुवण्णमउ । मणिघंटाजालहिं झणझणइ भडभारकंतउ णं कणइ । कइवयजोयणई महासरहो जलु लंघिवि पुणरवि सायरहो। पव्वालंकरियउ णं वरिसु
कोडीसरु किं ण जणइ हरिसु । सुविसुद्धवंसु गुणणमियतणु सुकलनु व पहुणा लइउ धणु । गुणु कढिवि लीलइ जे णियउ करु सवणि ससि व्व सहइ थियउ । रेहइ सरु दिणयरणिम्मलहो णवणालु व कुंडलसयदलहो । घत्ता-कहइ व जाइवि णरवइहि महु संगेण वि वहइ खलत्तणु ।
गुणथिरकरपरियढियउ कण्णालग्गुं चावकुडिलत्तणु ॥३॥ ८. MPT वइजयंत; B वइजयंते । २. १. M मेरुयं , but records a p गेरुय । २. P°रेणुविराइयउ । ३. दूसासाल । ४. MB छत्तुंग
मड्डि । ५. MB°मड्डधरु; P मडवरु । ६. P रत्तासोयंकियसोय । ७. MP संठिउ । ८. MBP सरिवहिरिसु; K वहरिसु but corrects it to वहिरिसु । ९. MBP हरिवरेहि हरि भूसियउ ।
१०. MBP दो वि।। ३. १. MBP°मणोरह । २. MBP जोज्जियउ । ३. MBP°लग्गचाव ।
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. १३. ३. १२]
हिन्दी अनुवाद धत्ता-वैजयन्तके निकट वनमें उसने शत्रुको ग्रहण करनेवाली सेनाको ठहरा दिया, जो गजोंके गरजनेपर इस प्रकार लगती है, मानो प्रलयकालमें समुद्र क्षुब्ध हो उठा हो ॥१॥
उपसमुद्र वैजयन्त और समुद्रके किनारोंपर ठहरा हुआ पहाड़की गेरूकी धूलसे शोभित वह सैन्य शाल वृक्षोंके घरोंमें नृत्यशालाओंसे सहित था, तालवृक्षोंके घरमें तुर्योंके तालोंसे महनीय था, ऊँची अटवीमें वह बलात्कार करनेवाला था, रक्ताशोक वृक्षकी गोदमें अशोकको धारण कर रहा था। चम्पक वृक्षोंमें वह स्वर्णसे युक्त था। पुन्नागप्रवरमें श्रेष्ठ चरितवाला था। शिरीष वृक्षोंमें शिरीष ( मुकुट ) से प्रसादित था। अनेक वंशवृक्षोंमें जो नृवंशोंसे विराजित था, अपने सुन्दर रूपमें स्थित वह वेश्याभवनके समान था, भुजंग वृक्षोंसे सहित होनेपर उसमें लम्पट घूम रहे थे, मयूरोंके सुन्दर शब्दोंमें वह मंगल ध्वनिसे गम्भीर था। नदियोंके कूटतटोंपर वह क्रूर शत्रुओंके वधमें आदर करनेवाला था। शाकवृक्षोंसे सहित होनेपर प्रभुके साथ वह विषादहीन था। मातंग ( आम्रवृक्ष ) में स्थित होनेपर वह लक्ष्मी और चन्द्रमाके समान था। कवि ( राजा विशेष ) के छिपनेपर वह कवियोंके द्वारा प्रशंसनीय था, जो हरिवरके निकट होनेपर हरिवरसे भूषित था। दूसरोंकी लक्ष्मीको ग्रहण करने में उत्कण्ठित समस्त सैन्य इस प्रकार वनमें ठहर गया। सूर्य अस्त हो गया। दिशाएं अन्धकारसे भर उठीं। राजा रातमें उपवासमें स्थित हो गया।
पत्ता-पृथ्वीके स्वामीने निज कुलचिह्नों, धनुषों और चक्रोंकी पूजा की। महान् शत्रुओंका हरण करनेवाले मन्त्रका ध्यान किया। उस द्वीपके किवाड़ खुलकर रह गये ॥२॥
उसी अवसरपर सूर्य उग आया। भरतेशने जिनवरेन्द्रको नमस्कार किया। उसने शीघ्र अपना रथ इस प्रकार हांका कि जैसे सम्पूर्ण सुन्दर पुण्य हो। कोड़ोंके प्रहारोंसे घोड़े शीघ्र प्रेरित हो गये, हवाके स्पर्शके विस्तारसे ध्वज फहरा उठे। शब्द करते हुए चक्रोंसे साँप क्षुब्ध हो उठे। रथ प्रहरणोंसे परिपूर्ण और स्वर्णमय था। मणियोंके घण्टाजालोंसे जो झनझना रहा था, मानो योद्धाओंके भारसे आक्रान्त होकर शब्द कर रहा हो, महासर ( जल या स्वर ) वाले समुद्रके जलको कई योजनों तक लांघनेके बाद राजाने धनुष हाथमें ले लिया। कोटीश्वर (धनुष ) क्या पर्वको तरह, पर्वालंकृत ( उत्सवोंसे अलंकृत / गांठोंसे अलंकृत ) हर्ष उत्पन्न नहीं करता। वह सुकलत्रकी तरह सुविशुद्ध वंश (कुलीन बांस ) था, तथा उसका शरीर गुणोंसे ( दया नम्रतादि गुण | डोरी) से नमित था। डोरी खींचकर कानों तक लीलापूर्वक ले जाया गया हाथ ऐसा शोभित हो रहा था, मानो श्रवण नक्षत्रमें चन्द्रमा स्थित हो। उसपर तीर इस प्रकार सोह रहा था जैसे सूर्यसे निमंल (विकसित ) कुण्डलरूपी शतदलपर नव दण्ड नाल हो।
घत्ता-डोरी और स्थिर हाथसे आकर्षित कानों तक लगा हुआ वह ( तीर) जैसे जाकर राजाओंसे धनुषको कुटिलता कहता है कि वह मेरे साथ भी दुष्टता धारण करता है ॥३॥
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४
णं दियरु खरपसरियकिरणु । णं पेसिउ दूयेउ अप्पणउ । कह कह व ण लग्गउ तेंहु तणुहि । सो तेण लएवि पलोइयउ । दिgi reasणामक्खरई । महु आइजि सरणंदणहो । सो सो अहि रु अमरु वि मरइ । थोड यिपुण्णु दुछियउ ।
तहिं जहिं सई अच्छइ भरहु म रहरम ज्झि खंचियसरहु । घत्ता - अक्खिवि णाउँ सगोत्तु कुलु पणविड सो महिवइभत्तारहु । सुरहं मि तुच्छधम्मणि लग्गइ सिरि करु परपडिहारहु ||४||
जीवमुक्कु जीविहरणु बहुलक्खगाहि मो मग्गणउ raise सहमंडवि वरतणुहि कंचक्खेणुज्जोइय सुरदणुयदप्पलीलाहरई अरविंद चंद विमलाणणहो भरहु जो जो ण सेव करइ ता तेण जि तं जि समिच्छियउ
महापुराण
पप्फुल्लिय दुमरसदावणिय वरत सुरु जिणिवि सुहावणिय पुणु जयदुंदुहिहु मिलिउ पच्छिमदिसि संमुहु धाइयउ
५
पण वरतणुमहिलियतणु । तुह संधाणु जि कारणु महहो ।
इंदीवरलोयंणु सच्छमणु तुविग्गहु णिग्गहु विग्गहहो पईं सामिय संधिउँ जासु सरु पिड जासु अणिंदु जिनिंदु सई लइ लइ एयउ हारावलिउ लइ सुरधरणीरुहसंभवई लइ उराई लइ कंकणइं लइ दिव्वं वत्थई वरई धम्मु व जीवहु अब्भुद्धरणु तं सुणिवि भरहें बोल्लियउ जाहि एप्पिणु णिययवरु घत्ता - पूरइ महु महिवह जसेण दविणविलासु वासु किं वणिउ || उत्तमु जगि अहिमाणु धणु एउ वयणु किं पई णायणिउ ||५||
संधि भक्खर तहु खयरु । पुण्णहि विणु पहु को लहइ पईं । णं महिघुलियउ तारावलिउ । कुसुमई णिच्चं चिय णवणवई । as foas सत्थई घणघणईं । लइ खीरतरंगईं चामरई । परमेसर तुहुं जिम सरणु । एउ वि अवरु वि मोक्कल्लियउ । छह महु होइवि आणयरु ।
६
सुयपिंछरिंछ कोडावणिय | वे धरेवि दीवहु तणिय । सहुं राएं साह संचलिउ | सव्वत्थ जि कहिं म ण माइयउ ।
४. १. MBP जीयाइ मुक्क । २. MBP दूवउ । भत्ता रहु । ६. MBP सुरहम्मि धम्मतुच्छफलिण ।
५.
१. MBP तुहु ं । २. B संधिय । ३. M चउसंधिउ । ४ MBP देवंगई । ५. MP मोकल्लियउ । ६. M विलास । ७. MBP अहिमाणं । ८. MBP पई किं 1
६. १. MP सुयरिच्छपिच्छ; B सुर्यारिछपिछ । २. B दिसमुह ।
[ १३.४. १
o
३. M तउ । ४. MP पुंखेणु । ५. MBP महिवहु
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१३. ६.४]
हिन्दी अनुवाद
३०३
ज्या (प्रत्यंचा ) से विमुक्त जो जीवनका हरण करता है, मानो प्रखर प्रसरित किरणोंवाला सूर्य हो । वह मानो मार्गण ( बाण | याचक ) है जो बहुलक्ष्यग्राही है। मानो अपना प्रेषितदूत है। वह जाकर वरदामतीर्थके राजाके सभामण्डपमें गिर पड़ा। उसके शरीरमें किसी प्रकार लगा भर नहीं। स्वर्णपुंखसे आलोकित उसे राजाने उठाकर देखा। देवों और दानवोंकी दलीलाका अपहरण करनेवाले राजाके नामके ये अक्षर उसने उसमें देखे-"अरिविन्द और चन्द्रमाके समान विमलमुख आदि जिनेश्वरके पुत्र मुझ भरतकी जो-जो सेवा नहीं करता, वह चाहे नाग, नर और अमर हो, मुझसे मरेगा।" तब उस राजाने भी इसकी इच्छा की और अपने थोड़े पुण्यको निन्दा की। वह स्वयं वहां गया जहां राजा भरत सागरके मध्यमें तीरोंसे अंचित था।
पत्ता-अपना नाम, गोत्र और कुल बताकर उसने शत्रुका प्रतिहार करनेवाले धरतीके राजाको प्रणाम किया। देवोंको भी तुच्छ धर्मके फलसे लक्ष्मी हाथ लग जाती है ॥४॥
इन्दीवरके समान नेत्रवाला स्वच्छ मन वरतनुकी धरतीपर अपने शरीरको झुकाते हुए वह कहता है-"तुम्हारा शरीर युद्धोंका निग्रह करनेवाला है, तुम्हारा सन्धान पूजाका कारण है। हे स्वामी, तुमने जिसपर सर-सन्धान किया है उसके शरीरकी सन्धियां गीध खा जाता है। जिसका पिता स्वयं अनिन्द जिनेन्द्र हैं, हे स्वामी ! पुण्योंके बिना तुम्हें कौन पा सकता है ? लो यह हारावलि, स्वीकार करो, मानो यह धरतीपर पड़ी हुई तारावलि है। लो देवभूमिके वृक्षों (कल्पवृक्षों) से उत्पन्न नित्य नव-नव पुष्प लीजिए। नूपूर लें, कंकण लें, धन-धन दिव्य शस्त्र लें। श्रेष्ठ दिव्यांग वस्त्र लें, दूधकी तरंगोंकी तरह चामर स्वीकारें, जिस प्रकार जीवके लिए अभ्युद्धरण है, उसी प्रकार तुम्हीं मेरे लिए शरण हो।" यह सुनकर भरतने कहा, "इसे और दूसरेको मैंने बन्धनमुक्त किया, इसे लेकर अपने घर आओ और मेरे आज्ञाकारी होकर रहो।"
पत्ता-"मेरा राजा यशसे पूरित रहता है, द्रव्यविलास और नाशका क्या वर्णन करूं। विश्वमें अभिमान धन ही उत्तम है, क्या यह वचन तुमने नहीं सुना" ॥५॥
खिले हुए वृक्षोंके रसको दरसानेवाली, शुकसमूहके पंखोंकी कतारसे कुतूहल उत्पन्न करनेवाली, द्वीपकी सुहावनी सीमाओंको ग्रहण कर, वरतनु देवको जीतकर, फिर जयके नगाड़ोंके शब्दोंसे मिली हुई सेना राजाके साथ चली। वह पश्चिम दिशाके सम्मुख दौड़ी। सर्वत्र वह कहीं
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३०४
[१३.६.५
महापुराण हयमुहपयलियफेणुज्जलउ
सव्वत्थ जि भंडथडसंकुलउ । सम्वत्थ जि गयमयसिंचियउ सम्वत्थ जि धयमालंचियउ । सव्वत्थ जि गेज्जावलिरणिउ सम्वत्थ जि बंदिविंदझुणिउ । सम्वत्थ जि छत्तणिरुद्धदिसु सव्वत्थ जि सुरहिगंधेसरसु । सम्वत्थ जि भमियमंमिरभमरु सव्वत्थ जि चलियचवलचमरु । सव्वत्थ जि परिधाइयअमरु सम्वत्थ जि संचरंतखयरु । सव्वत्थ जि कामिणिगीयसरु सम्वत्थ जि विलसियकुसुमसरु । घत्ता-रुक्ख मलंतु दलंतु गिरि जलु सोसंतु णिवेण णिवेई उ ।।
साहणु एम चलंतु पहे सिंधुमहाणइदारु पराइउ ॥६॥
अयलोइय राएं सिंधु किह . विब्भमधारिणि वरवेस जिह । दावियमय णावइ हथिहड विवुहासिया वि संगहियजड । गिरितवसिहि णं परिघुलियजड रणवित्ति व सोहइ झसपयड । अइकुडिल णाई सुरमंतिमइ मलणासणि णं पंचमिय गइ। धणुलहि य दीसइ मुक्कसर बहुरायहंसपिय णाई धर। कमलेण कोसलच्छि व धरइ जा महिवइसत्तिहि अणुहरइ । चलसारसजुयलपयोहरिय कणइल्लपक्खिपतिहिं हरिय। रंगंतबयावलिपंडुरिय
पवहंतकुसुमरयपिंजरिय। णं गहियविचित्तवरुत्तरिय अहवा णं मंडणकवुरिय । गयहयचंदणरसपरिमलिय चंदकवकलावसुकोतलिय । जा मिलिय गंपि रयणायरहो रत्ती धुत्ति व रय णायरहो। घत्ता-ताहि तीरि मुक्कउ सिमिर तामत्थइरिसिहरु संपत्तउ ॥
णं वारुणिदिसिकामिणिहि णिवडिउ मित्तु णिरारिउ रत्तउ ॥७॥
१०
अत्थमिइ दिणेसरि जिह सउणा तिह पंथिय थिय माणियसउणा। जिह फुरियउ दीवयदित्तितउ तिह कंताहरणहदित्तियउ। जिह संझाराएं रंजियउ
तिह वेसाराएं रंजियउ। जिह मुवणुल्लउ संतावियत तिहे चक्कउलु वि संतावियउ। जिह दिसि दिसि तिमिरइं मिलियाई तिह दिसि दिसि जारइं मिलियाई । जिह रयणिहि कमलई मउलियई तिह विरहिणिवयणई मउलियई। ३. B णडथड । ४. M वंदविंद। ५. MBP°गंधरसु । ६. MBP° भमरिभमरु । ७. M परिधा
वियं । ८. B विओइउ; P णिवोइउ ।। ७. १. B हत्थिघड। २. P सुरमंतमइ। ३. MPणासिणि पंचमियं ।। ४. MBP कोसु । ५. P
बहुत्तरिय । ६. MBP चंदक्कं । ७. MBP सिहरि । ८. MBP वारुणदिसि । ८. १. P दीवउ । २. Bomits this foot.
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१३.८.६]
हिन्दी अनुवाद भी नहीं समा सकी। घोड़ोंके मुखोंसे निकलते हुए फेनसे उज्ज्वल वहं सर्वत्र भेटघटा व्याप्त भी। सर्वत्र हाथियोंके मदजलोंसे सिंचित थी। सर्वत्र ध्वजमालाओंसे अंचित थी। सर्वत्र गीतावलिसे मुखरित थी। सर्वत्र चारण समूहसे ध्वनित थी। सर्वत्र छत्रोंसे दिशाएँ अवरुद्ध थीं। सर्वत्र सुरभिका रसगन्ध प्रसरित था। सर्वत्र भ्रमर मंडरा रहे थे, सर्वत्र चंचल चमर चल रहे थे। सर्वत्र विद्याधरोंका संचार हो रहा था । सर्वत्र स्त्रियां गीत गा रही थीं। सर्वत्र ही कामदेव विलसित था।
घत्ता-वृक्षोंको मलते, पहाड़ोंको दलते, जलको सोखते हुए राजाके द्वारा निवेदित सैन्य रास्तेमें चलता हुआ सिन्धु महानदीके द्वारपर पहुंचा ॥६॥
भरतने सिन्धुनदीको इस प्रकार देखा, जैसे विभ्रमको धारण करनेवाली वरवेश्या हो । जैसे मदका प्रदर्शन करनेवाली हस्तिघटा हो, विबुधों ( देवों/पण्डितों ) के आश्रित होते हुए भी जिसने जड़ ( मूर्ख | जल ) संगृहीत कर रखा है। वह वनको आगकी तरह है जो परिधुलियजड (जिसमें जड़ नष्ट हो गया/जल घुल गया है, वह युद्धवृत्तिकी तरह झसपयड (जिसमें प्रकट है मछली और तलवार ) शोभित है। जो मानो बृहस्पतिकी मतिकी तरह अत्यन्त कुटिल है, जो मानो मोक्षगतिको तरह मलका नाश करनेवाली है, जो धनुर्यष्टिकी तरह मुक्तसर (मुक्त बाण और मुक्त तीर ) है, जिसके लिए धराकी तरह अनेक राजहंस (श्रेष्ठ राजा और हंस ) प्रिय हैं, जो कमलकी तरह कोशलक्ष्मीको धारण करती है, जो राजाको शक्तिका अनुसरण करती है, चंचल सारसरूपी पयोधरोंको धारण करनेवाली जो शुकके पंखोंकी कतारोंसे हरित है ( हरी है ) खेलते हुए बलाकाओंसे जो सफेद है, बहते हुए कुसुमोंके परागोंसे जो नीली है, मानो जिसने विचित्र श्रेष्ठ उत्तरीय धारण कर रखा है, अथवा जो शृंगारके कारण रंग-बिरंगी है। गज, अश्व और चन्दनके रससे मिश्रित और मयूरपिच्छोंके कुन्तलोंवाली जो जाकर रत्नाकरसे उसी प्रकार मिल जाती है, जिस प्रकार कोई धूतं स्त्री रत नागरजनसे मिल जाती है।
पत्ता-उसके किनारे भरतने डेरा डाला, इतनेमें सूर्य अस्ताचलपर पहुँच गया। मानो पश्चिम दिशारूपी कामिनीमें अत्यन्त अनुरक्त मित्र (सूर्य) गिर पड़ा हो ॥७॥
दिनेश्वरके अस्त होनेपर जिस प्रकार पक्षी स्थित हो गये उसी प्रकार शकुनको माननेवाले पथिक भी स्थित हो गये। जिस प्रकार दीपकोंकी दीप्तियां स्फुरित हो उठीं उसी प्रकार कान्ताओंके अधरों और नखोंकी दीप्तियां भी। जिस प्रकार सन्ध्यारागसे लोक रंजित हो उठा, उसी प्रकार वह वेश्यारागसे। जैसे विश्व सन्तापित हुआ, उसी प्रकार चक्रकुल भी। जिस प्रकार दिशा-दिशामें अन्धकार मिल रहे थे, उसी प्रकार दिशा-दिशामें जार मिल रहे थे। जिस प्रकार रात्रिमें कमल मुकुलित हो गया, उसी प्रकार विरहिणियोंके मुख मुकुलित हो गये थे। जिस
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३०६
महापुरान
[१३.८७ जिह घरहं कबाडइंदिण्णाई तिह वजहखेवई दिग्णाई। जिह चंदें णियकरपसरु किउ विह पियकेसहिं करपसरु किउ । जिह कुवलयकुसुमई वियसियई तिह कीलियमिहुणई वियसियई। जिह पीयई पाणई महुराइं तिह अहरई महुरसमहुराई। जिह जिह गलंति जामिणिपहर तिह तिह विइण्ण मउरइपहर । जिह णहि सुकुग्गमु दरिसियउ तिह विडि सुक्कुंग्गमु दरिसियउ । घत्ता-ता चक्कउलहं पंकयहं तंबकिरणपूरियभुवणोयरु ।
विरयहं णरणारीयणहं जीविउ देतु समुग्गउ दिणयरु ॥॥
सिंधूसरिदारइ सुरहिसमीरइ सुरभवणे कोइलकुलकलयलि वियसियसयदलि रभवणे । उपवासु करेप्पिणु जिणु पणवेप्पिणु पीणमुउ गरवइ जयमायरु कयणियमायर रिसइंसुउ । जमभउंहाभावई चकई चावई जियरणई अहिअंचिवि दिव्वइं हयरिउगवई पहरणई। णं भूरिपहायर चंडु दिवायरु णहवडिउ । मणिगणवेयडियइ कंचणघडियइ रहिं चडिउ । पेरिय जोत्तारें हरि हुंकारें तिक्खमइ मणपवणमहाजव अमुणियखुररव गयणगइ । कयभडकडवंदंणु वाहियसंदणु चपलधर करिमयररउद्दहु लवणसमुबहु मज्झि गड। ता खंचिउँ रहवर भेसियजलयरु सलिलबहे जोयंति सुरासुर किंणर खेयर जक्ख णहे। राएं सुइसोक्खर णियणामस्वरभूसियउ . थिरु ठाणु णिबंधिवि सरु गुणि संधिवि पेसियउ। अवरण्णवणाहहु लच्छिसणाहहु पडिउ घरे तडिदंडु व भीसणु काणणणासणु गिरिसिहरे । सो णिवडिउ महियलि सहसा करयलि ढोइयउ सुरर्वइसंकासें बाणु पहासे जोइयउ । ता तम्मि विसिट्टई लिहियई दिदुई अक्खरइं णं मत्तावित्तई मत्ताजुत्तई णायरइं।
३. MRP खेमइं। ४. MB अवरई महरइं; M records ap महुरइं; for महरइं; P अहरई
महुरई । ५. MP सुक्कग्गमु । ६. MP सुक्कग्गमु । ९. १. M चिकम; B चिकमइ । २. P°मद्दणु । ३. MBP धवलं । ४. MBP मज्झि समुद्दहु सो ज्जि - गउ । ५. MBP खंचियं । ६. MBP थक्क । ७. P गुणु। ८. MBPK सुरवरं ।
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१३. ९२२]
हिन्दी अनुवाद
३०७
प्रकार घरोंमें किवाड़ दे दिये गये थे, उसी प्रकार प्रियोंको आलिंगन दिये गये थे। जिस प्रकार चन्द्रमा अपनी किरणोंका प्रसार कर रहा था, उसी प्रकार प्रियाके केशोंमें करप्रसार किया जाता था । जिस प्रकार कुमुद कुसुम विकसित हो गये, उसी प्रकार कोड़ा करते हुए जोड़े विकसित थे । जिस प्रकार मधुर पानी पिया जाता था, उसी प्रकार मधुरसके समान मधुर अधर पिये जाते थे । जिस-जिस प्रकार रात्रिके प्रहर समाप्त हो रहे थे, उसी उसी प्रकार कोमल रतिके प्रहर भी बीत रहे थे । जिस प्रकार आकाशमें शुक्र नक्षत्र उगा हुआ दिखाई दे रहा था, उसी प्रकार विटमें शुक्र (वीर्य) का उद्गम दिखाई दे रहा था ।
घत्ता - तब चक्रकुलों, पंकजों और विरत नर-नारीजनोंको जीवनदान देता हुआ तथा अपनी रक्त किरणोंसे भुवनलोकको आपूरित करनेवाला सूर्य उदित हुआ || ८||
९
सिन्धु नदीके द्वारपर सुरभित पवनवाले सुरभवनमें कोकिलकुलके कलकलसे पूर्णं तथा खिले हुए कमलदलवाले रम्भावनमें, उपवास कर और जिनकी वन्दना कर स्थूलबाहु विजयलक्ष्मीका सम्पादन करनेवाला, अपने ऐश्वयंको बढ़ानेवाला ऋषभपुत्र राजा भरत, यमकी भौंहों के समान भयंकर चक्र और युद्धको जीतनेवाले धनुष और शत्रुओंका गर्व हरण करनेवाले प्रहरणोंकी पूजा कर मणिसमूह जड़ित और स्वर्णनिर्मित रथपर इस प्रकार चढ़ गया मानो अत्यन्त प्रकाश फैलाता हुआ प्रचण्ड सूर्य आकाशमें आ पड़ा हो । जोतनेवालोंसे प्रेरित, हुंकारोंसे तीक्ष्णमति, मन और पवनके समान महावेगवाला, खुरोंके शब्दोंको नहीं गिननेवाला गगनगति, भटसमूहका मर्दन करनेवाला चपलध्वज, रथको भगाता हुआ अश्व, जलगज और मगरोंसे रौद्र लवण समुद्रके मध्य गया । तब जंलचरोंको भयभीत करता हुआ रथ जलपथमें स्थित हो गया । आकाशमें सुर, असुर, किन्नर, विद्याधर और यक्ष देखने लगे । राजाने कानोंके लिए सुखकर अपने नामाक्षरोंसे विभूषित तीर स्थिर स्थानको लक्ष्य बनाकर और डोरीपर चढ़ाकर प्रेषित किया। वह लक्ष्मीसे सनाथ पश्चिम समुद्रके घरमें जाकर इस प्रकार गिरा, जिस प्रकार वनका नाश करनेवाला भीषण विद्युद्दण्ड गिरिशिखरपर गिरा हो । धरतीपर पड़े हुए तीरको सहसा हाथमें ले लिया और इन्द्रके समान राजा प्रभासने बाणको देखा। तब उसमे उसमें लिखे हुए विशिष्ट अक्षरोंको
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३०८
[१३.९.२३
महापुराण हउं दाणवमद्दणु कासवणंदणु चक्कवइ महु भरहहु केरी जगभयगारी सेव जइ। तुहुं करहि पियारी परिहवगारी तो जियहि णं तो असिबाणिउ जयसिरिमाणिउ "ध्रुवु पियहि । इय तेण पवाइउ कज्जु विवेइउ गयउ तहिं. अमरिंदसमाणउ पुहइहि राणउ थियउ जहिं । पविमुक्पहासे" दिट्ट पहासे भरहु किह ...
भविएं सपणामें सुहपरिणामें अरहुँ जिह । घत्ता-कुसुमई कप्परुक्खफलइं"वाहणइं मि वरवाहणवाहहो ।
रयणइं वत्थई भूसणइं दिण्णइं तेण वसुंधरिणाहहो ॥९॥
१०
सुरसिंधुसरिहिं देहेलिय धरिवि पइसरणु करिवि । पुव्वावरेसु परिसंठियाई
वइरट्ठियाई। वेयड्ढ गिरिहि ओइल्लयाई सुधणिल्लयाई। चंडाइ मेच्छखंडाई ताई
दोसाहियाई। करवालें णिजिउ अजखंडु पट्टविवि दंडु। मालव मागह वंगंग गंग
कालिंग कोंग। पारस बब्बर गुजर वराड
कण्णाड लाड। आहीर कीर गंधार गउड
णेवाल चोड। चेईस चेर मरु र्दुहरंडि
पंचाल पंडि। कोंकण केरल कुरु कामरूव सिंहल पहूय। जालंधर जायव पारियाय णिजिणिवि राय । पञ्चंतवासि णीसेस लेवि
णियमुह देवि। हेलाइ तिखंडावणि हरेवि
असि करि करेवि। विजयद्धहु संमुहु चलिउ राउ सेणासहाउ। . दियहिहिं पत्तु तं सिहरि केम मणि मोक्खु जेम।
दिट्ठउ महिहरु सुसरेण सुसरु कुहरेण कुहरु। सरहेण विहंडिय:भीमसरहु समहेण समहु। कडयंकिएण कडेयंकियंगु.. तुंगेण तुंगु ।
गुरुवंसु गरुयवंसुब्भवेण .... थावरु थिरेण । ,. ९. MBP ता । १०. MBP धुउ । ११. MBP °सहासें and T स्वोपहासेन स्वमाहात्म्येन वा ।
१२. MBP अरुहु । १३. P वाहणाई वर । १०.१.M देहल; BPT देहलि । २. MBP सुवणिल्लयाई। ३. MBP कुंग । ४. MBP ददुरंडि ।
५. M हेलाइ वि खंडावाणि ।.. ६. MBP तहं। ७. MBP मुणि; K मणि but corrects it ... to मुणि। ८. MB ससुरेण ससुरु । ..९. कडियंकियंगु ।
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१३. १०.१९]
हिन्दी अनुवाद पढ़ा जो मानो मात्रावृत्तवाले मात्राओंसे युक्त नागर अक्षर हों। "मैं दानवोंका मर्दन करनेवाला ऋषभका पुत्र चक्रवर्ती हैं। यदि तम मझ भरतको विश्व में भय उत्पन्न करनेवाली प्रियकारी और पराभव करनेवाली सेवा करते हो तो जीवित रह सकते हो, नहीं तो तुम विजयश्रीको माननेवाले मेरी तलवारके पानीको निश्चित रूप पिओगे।" उसने उसे इस प्रकार बांचा और अपना काम समझ लिया। वह वहां गया जहां देवेन्द्रके समान पृथ्वीका राणा स्थित था। अपनी कान्तिको छोड़ देनेवाले राजा प्रभासने भरतको इस प्रकार देखा जिस प्रकार शुभ परिणाम भव्यने प्रणामपूर्वक अरहन्तको देखा हो।
पत्ता-श्रेष्ठ वाहनोंमें चलनेवाले उस वसुन्धरानाथको कुसुम, कल्पवृक्षोंके फल, रत्न, वस्त्र और भूषण उसने प्रदान किये ।।९।।
गंगा और सिन्धु नदियोंके द्वारा अपनी सीमा निश्चित कर पूर्व और पश्चिम दिशामें प्रवेश कर उसने वैरभाव धारण करनेवालोंको परिस्थापित किया। विजयाध पर्वतके ऊपर स्थित अत्यन्त सम्पन्न, दोषोंसे प्रचुर उन म्लेच्छ खण्डोंको तलवारसे जीतकर, आर्यखण्डमें दण्ड स्थापित कर मालव, मागध, बंग, अंग, गंग, कलिंग, कोंग, पारस, बब्बर, गुर्जर, वराड, कण्णाड (कर्णाटक), लाट, आभीर, कीर, गान्धार, गौड़, नेपाल, चोड ( चोल), चेदीस, ( चेदि ), चेर, मरु, दुन्तरणी, पांचाल, पण्डि (पाण्डु ?), कोंकण, केरल, कुरु, कामरूप, सिंहल, प्रभूत, जालन्धर, यादव और पारियात्रके राजाओंको जीतकर, समस्त प्रत्यन्तवासियोंको लेकर, अपनी मुद्रा देकर, खेल-खेलमें तीन खण्ड धरती जीतकर, तलवार अपने हाथमें लेकर सेनाको सहायतासे भरत विजयाद्ध पर्वतके सम्मुख चला। कुछ दिनोंमें वह उस पर्वतके शिखरपर इस प्रकार पहुँचा जैसे मन मोक्षपर पहुँचा हो । उसने पर्वत देखा। सुस्वर उसने सुसरोवर, और पर्वतने राजाको देखा। रथ सहित उसने भीमसरोवर ( मानसरोवर ) नष्ट कर दिया, और पूजा सहित उसने मधुयुक्त को। कटक (सेना) से अंकित उसने कण्टकित भागको, तुंग उसने तुंगको, गुरु ( महान् ) वंशमें उत्पन्न उसने
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२०
२१
१०
३१०
महापुराण
उभियधरण | सरओरएण ।
गज्जियगड पडिगज्जियगएण" हिंसितुरंग सतुरंगएण अश्चंत सावर सावएण आसंधिउ पत्थि पत्थिवेण
पालियवरण |
विजयहु कण |
धत्ता - गिरि सोहइ दीहत्तणेण पुव्वावरसमुदु" संपत्तउ ॥ तिहिं तिहिं खंडहिं मेइणिहि मेरादंड व दइवें वित्त ॥१०॥
११
तर्हि अवसरि गुहदारहु दूरे आवासिउ गहणि सँडंगु बलु महिसउलमद्दर्केद्दविउ सरु आलुंखियाई पिक्कई फलई गोमंडलेहिं चि तणईं डावियाई कोइलकुलई ल्लिकई मुक्कई सयदलई मयवंदई रुंदई णिग्गयई सुत्त रत्ताई रँईहरहिं विकरहिं वियारिय विंझकरि घत्ता - वणसिरि उठवासिय सुरु एवहिं जणवरण णिरु णिवसइ || पेच्छिवि भरहाविणिवइ "कुंदपुप्फयंतहिं णं विहसइ ॥ ११ ॥
सुरतरुवरकर ढं कियेसूरें | करिदसणपहरकलुसियउ जलु । कम्मयरकुढारहिं छिण्ण तरु । गिल्लूरियाई सहलदलई । मुसुमूरियाई अंबयवणई । भयत सियई रसियई णाहलई । दसदिसु गयाई सडयणकुलई । तहि तेहि सहसा गयाई रमिहुई व वेल्लीहरहिं । डेहिं हि जति हरि ।
[ १२.१०.२४
इय महापुराणे तिसट्ठिमहा पुरिस गुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरहए महाभग्वभरहाणुमणिए महाकवे तिखंडवसुंधरापसाहणं णाम तेरहमो परिच्छेओ समत्तो ॥ १३ ॥
॥ संधि ॥ १३ ॥
१०. GK add after it उब्भूयधउ । ११. MBPT सतुरंगवयणु । १२. MB ११. १. MBP अवरगुहादा रहु सदूरि । २. MBP ढंकियइ सूरि । ३. MB सडंग । ४. MBP कद्दमिउं । ५. MBPK सुक्कई । ६. MBP सहसई । ७. MBP रईयरेहि । ८ MBP वल्लीहरेहि । ९. MB रुजंत; P रुजंति । १०. BPK पुप्फदंतहि ।
०
०
|
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१३.११.१२]
हिन्दी अनुवाद
३११
गुरुवंशको, स्थिरने स्थावरको प्रतिगर्जन करनेवाले गजने गरजते हुए गजको, ऊर्ध्वध्वज और तुरंग सहित उसने हिनहिनाते अश्वको, प्रतिज्ञा पालन करनेवाले उस श्रावकने अत्यन्त श्वापदों को और राजाने राजाको विजयके लिए नष्ट कर दिया ।
घत्ता - पूर्व और पश्चिम समुद्र तक फैला हुबा पर्यंत अपनी लम्बाईसे ऐसा शोभित है, मानो तीन-तीन खण्डों के लिए देवने भूमिका सोमादण्ड स्थापित कर दिया हो ॥१०॥
११
उस अवस पर गुहाद्वारसे दूर, जहां सुर-तरुवरोंके कारण सूर्य ढका हुआ था, ऐसे गहन वनमें षडंग सेना ठहरा दी गयी। वहीं जल हाथियोंके दांतोंके प्रहारसे कलुषित था, सरोवर भैंसों के समूह मर्दन से कीचड़मय था, वृक्ष काटनेवालोंके कुठारोंसे छिन्न थे । पके फल चख लिये गये, आर्द्र पत्ते तोड़ लिये गये, गोमण्डलोंके द्वारा घास चर लिया गया, आम्रवन मसल दिये गये, कोकिलकुल उड़ा दिये गये, भयसे त्रस्त होकर भील चिल्लाने लगे । कमल तोड़कर छोड़ • दिये गये । भ्रमरकुल उड़कर दसों दिशाओं में चले गये । सुन्दर मृगकुल भाग गये, यहाँ-वहाँ सहसा तितर-बितर हो गये । रतिघरोंमें और नवलताघरोंमें अनुरक्त नरमिथुन सो रहे थे । राजा के हाथियोंने विन्ध्याके गजको विदीर्ण कर दिया । और गरजते हुए सिंहको सुभटोंने मार डाला ।
घत्ता - वनश्री अच्छी तरह उजाड़ दी गयी इस समय जनपद यहां निवास करेगा, यह देखकर भरताधिप राजा मानो कुन्दपुष्पोंके द्वारा हँस रहा था ॥ ११ ॥
इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारवाले इस महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा रचित और महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका त्रिखण्ड वसुन्धरा प्रसाधक नामका तेरहवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ १३ ॥
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१०
१५
२०
संधि १४
वरतणुमयमहेण जिय मागण मुयबलणिद्दलिय पहासें । हयपरमहिवइहि सेणावइहि आएसु दिष्णु भरहेसें ॥ध्रुवकं ॥
१
सो पण पणविसरु संहरिसु वर्घेण नियम हुरमणहरै गिरु भोकयविजयविजय गिरि उत्तर. तिखंड चंडरिउखंडण सिहरिगुहादुवार उग्वाडहि
दुबई - 'ससिविरु जाम 'तेत्थु पहु णिवसइ सिद्धतिखंडमंडलो । ता पत्तो मयासि मणिसेहरु सवणविलंबिकुंडलो ॥१॥ मुहससिकिरणसरधबलिय दिसु । सुयणु भुयणभरधरुणिरुवमु णिरु । दिसि अवर वि सुर णर रवि तुह धर । भो णायतणय कुलमंडण । कुलिस दंडखरपहरें ताडहि । पुण्णु तुहारउ गरुयउ दीसइ । जासु अहं पि दासु संजायउ । जसवइपुतें पेणु अक्खिउ ।
तो मग्गु भडारा होसइ जय गिरिवरसिहर्रग्गणिकेयड ता चमुपमुहहु वयणु णिरिक्खिउ भो मेहेर करहि महत्त निविडु विहंडिवि पडउ विसदृउ सपहुमणोरहकरणुक्कंठिउ "परिणयसुयतणु मरगयह रियइ वरभडसंगरपहरणपोढउ जावि पट्टि देवि गिरिदार हु घत्ता -
fe गिरिंदवाडु णिरुत्तउ । जिह हयदुज्जणमणु, तिह फुट्टउ । सोपा पणंतु समुट्ठिउ । णाणागमविलास हुं भरियइ । चडुलतुरंगरयणि' आरूढउ । धरिवि र संमुहं खंधारहु ।
- अवहत्थिवि छलेण णियमुयबलेण हुंकारिवि णिरु रत्तच्छे | परणरपडिखoणु महिहरदलणु उम्मुक्कु दंड परिहच्छें ॥१॥
MBP give, at the commencement of this Samdhi, the following stanza :केलासुब्भासिकन्दा धवलदिसिगउग्गिण्णदन्तङ्कुरोहा साहबद्धमूला जलहिजससमुब्भूयडिण्डीरवत्ता । बम्भण्डे वित्थरन्ती अमयरसमयं चन्दबिम्बं फलन्ती
फुल्लन्ती तारओहं जयइ णवलया तुज्झ भरहेस कित्ती ॥
M however reads 'पिण्डीर' for 'डिण्डीर' । GK do not give it.
१.
णझुणियं ।
१. MB संपइ जाम; P एतहि जाम । २. P सुहरिसु । ३. B पसरिं । ४. MBPT ५. K मणहरि । ६. MBP साधि । ७. MBP तउ । ८. P सिहरणिकेयउ । ९. MBP करि महु वृत्तउ । १०. M परियणं । ११. MB रयणभरूढउ । १२. P परिखलणु महिहरवलमलणु ।
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सन्धि १४
जिसने मगधराजको जीता है और अपने भुजबलसे प्रभासको दलित किया है, ऐसे वरतनुके मदको चूर करनेवाले भरतेशने परम शत्रु-राजाओंको नष्ट करनेवाले सेनापतिको आदेश दिया।
दुवई-तीन खण्ड धरतीको जीतनेवाला राजा जब अपने शिविरके साथ निवास कर रहा था, तभी कानोंमें कुण्डल पहने हुए मणिशेखर नामका देव वहां आया। अपने मुखरूपी चन्द्रमाकी किरणोंसे दिशाओंको धवलित करनेवाला वह प्रणामपूर्वक बोला, "नवमेघके समान गूंजती हुई मधुर और सुन्दर वाणीवाले तथा भुवनका भार उठानेवाले हे अत्यन्त अद्वितीय सज्जन, तथा विजयाध पर्वतपर विजय करनेवाले हे देव, उत्तरदिशामें जो देव मनुष्य-सूर्य और तीन खण्ड धरती है यह भी तुम्हारी है। प्रचण्ड शत्रुओंको खण्डित करनेवाले कुलमण्डन हे नाभेयतनय देव, तुम यदि पर्वतके गुहाद्वारको खोलते हो, वज्रके तीव्र दण्डप्रहारसे उसे प्रताड़ित करते हो, तो हे आदरणीय, मार्ग हो जायेगा ! तुम्हारा पुण्य महान् दिखाई देता है कि विजया पर्वतके शिखरके अग्रभागपर रहनेवाला मैं भी, जिसका दास हो गया हूँ।" तब राजा भरतने सेनापतिका मुख देखा। यशोवतीके पुत्रने उसे आदेश दिया, "हे मेघेश्वर, मेरा कहा करो। निश्चित रूपसे तुम पहाड़के किवाड़को प्रताड़ित करो। वह अच्छी तरह विघटित होकर, उसी प्रकार खुल जाये जिस प्रकार आहत दुर्जनका मन फूट जाता है।" अपने स्वामीके मनोरथको पूरा करनेके लिए उत्कण्ठित वह (सेनापति ) 'जो प्रसाद' यह कहता हुआ उठा। तरुण तोतेके शरीर और पन्नेके समान हरे तथा नाना प्रकारके गमनके विलासोंसे भरे हुए उस चंचल. अश्वरत्नपर श्रेष्ठ योद्धाओंके युद्ध में प्रहारोंसे प्रौढ़ वह सेनापति आरूढ़ हो गया। जाकर गिरिद्वारको पीठ देकर स्कन्धावारके सम्मुख अश्वको थामकर
पत्ता-लाल-लाल आंखोंवाले उसने हुंकारते हुए ( उस दरवाजेको) हटानेके लिए शत्रुमनुष्योंको प्रतिस्खलित और पहाड़को चूर-चूर करनेवाला वह दण्डरत्नपूरे वेगसे फेंका ॥१॥
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१०
३१४
१५
सद्गुलरोलभीमं ।
भीमु भापब्भारभरियकुहरं तणिग्गयाहिंद सुंदरी मुक्कसिचयपयडियपयोहरुल्लि हियैहिययरइसियतावसुद्ध रियैचरियभारहारं ।
हारवमुयंत सवरी पुलिंदसि सुदीस माणकेस रिकिसोरणह कुलिसकोडिदारियकुरंग रुहिरं - १० भवाहदुग्गं जायं गुहादुवारं ।
घत्ता- - डज्झतहं खगहं महिहरमृगहं घोसेणप्पाणडं जिंदइ । विणिच्चेयणु वि णं दंडे ताडिउ कंदइ ||२||
अयि
महापुराण २
दुवई - मुक्कई पहरणम्मि हरि णिग्गउ खुरदरमलियकाणणो । पुंग वि वि णरणियरहिं जगजयपहसियाणणो ॥१॥ ता दंडरयणणिडुरपहार विडियकवाडकिंकारसह संमद्दखुद्द विद्दविय सप्पमुहमुक्कफारफुक्कार जोलिय विर्सेसि हिजालं ।
जालामालाकलावद्देलापलित्तणासंतमत्तकरिचरण पेल्लणुल्ललियमणिसिलावर्डेणकुद्धरुंजंत
३
दुबई - ता मंजीरहार के ऊरकिरीडफुरंतभूसणो ।
अमरो अमरसमरसं घट्टविहट्टियवइरिसासणो || १ || छडियोamar shifal | आगओ तुरंतो । तग्गिरिंदणामो । सुद्धसेवासो । तेण वीरेंचंदो । दिव्व पुष्पदामं ।
रिद्धिबुद्धिवंत भूयैमतिका सेलसिंगवासो
वंदिओ परिंदो
हारमिंदुधामं कंकणं किरोड पंडुरं पत्थं कुंजरारिवृढं हित्त कंजलील सव्वलोय मोल्लं
चामरेण जुत्त
हास हंसवणं मंगलं पहाणं रुक्खरोहिया
कुंभभैणी । चारु हारि वत्थं । मरणैवढं । भम्मदंडणालं | कित्तिवेल्लिफुल्लं । णि मलायवत्तं ।
[ १४.२. १
राइणो विइण्णं । तित्थतोयण्हाणं ।
भूपसे ।
२. १. MBP जणियं ।
२. M विसग्गिसिहि । ३. MBP वडणरुटुरुजंत ( P रुजंत ) मत्त सद्वलं । ४. MBP भीमुण्हां । ५. B°ल्लिहियरई । ६. B° रिभा । ७. P हाहारव । ८. G° दुगं । ९. MBP मिगहं ।
o
३.
१. MB °संहट्ट' । २. MB छंडियां । ३. P भूपं । ४ MB वीरवंदो । ५. MB ° मंडणीडं । ६. MBP हेमवर्णं ।
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१४. ३. १७ ]
हिन्दी अनुवाद
३१५
अस्त्रके फेंके जानेपर अपने खुरोंसे वनको रौंदता हुआ अश्व चला। जिसका मुख विश्वविजयके लिए हंसता हुआ है, ऐसा बलमें श्रेष्ठ भी वह नरसमूहके द्वारा नम्र बना दिया गया। तब दण्डरत्नके निष्ठुर प्रहारसे विघटित किवाड़ोंके किंकार शब्दके कोलाहलसे क्षुब्ध और दलित साँपोंके मुखोंसे छोड़ी गयी फूत्कारोंसे विषाग्निकी ज्वाला जल उठी, ज्वालामालाओंसे एक साथ प्रदीप्त और नष्ट होते हुए, हाथियोंके पैरोंकी चपेटसे उछलती हुई मणिशिलाओंके पतनसे क्रुद्ध और गरजते हुए सिंहोंके शब्दोंसे जो भयंकर हो उठा। भयंकर तापके भारसे भरित गुफाओंके भीतरसे निकलती हुई अहीन्द्र सुन्दरियों ( नागिनों) के द्वारा मुक्त सिचय ( वस्त्र, केंचुल ) से प्रकट हुए स्तनोंसे विदारित हृदयवाले रतिरसिक तपस्वियोंके चरित्रभारके हरणको जो धारण किये हुए है। 'हा' रव (शब्द) कहते हुए शबरी पुलिन्दोंके शिशुओंके द्वारा देखे गये सिंह किशोरोंके नखरूपी वज्र कोटिके द्वारा विदारित हरिणोंके रक्तरूपी जलके प्रवाहसे वह गुहाद्वार दुर्गम हो उठा।
पत्ता-दग्ध होते हुए पक्षियों, पहाड़ोंके पशुओंके घोषसे वह ( सेनापति) अपनी निन्दा करता है कि वेदनाको नहीं जाननेवाला अचेतन भी यह दण्डरत्नसे ताड़ित होनेपर आक्रन्दन करता है ॥२॥
- तब मंजीर, हार, केयूर और किरीटके चमकते हुए आभूषणोंवाला तथा देवताओंके युद्ध में संघर्षके द्वारा जिसने शत्रुशासन समाप्त कर दिया है, ऐसा देव अहंकार छोड़कर चरणोंकी सेवा चाहता हुआ ऋद्धि और बुद्धिसे सम्पन्न शीघ्र वहां आया। प्रचुर भक्तिका अभिलाषी विजयाधं
शैलके अग्रभागका निवासी और शद्ध श्वेत वस्त्रधारण करनेवाला। उसने वीरश्रेष्ठ नरेन्द्रको वन्दना की। चन्द्रमाकी तरह स्वच्छ हार, दिव्यपुष्पदाम, कंकण मुकुट, जलका नीड घट, सफेद धवल प्रशस्त सुन्दर उत्तम वस्त्र, स्वर्णनिर्मित सिंहासन, कमलकी लीलाका हरण करनेवाला स्वर्णदण्डनाल, चामरोंसे सहित निर्मल आतपत्र कि जो मानो कीर्तिरूपी लताका फूल था, जिसका मूल्य समस्त लोक था और जो हास और हंसके रंगका था, राजाको दिया। तीर्थमें जलका स्नान ही मुख्य और मंगलमय होता है । वृक्षोंसे आच्छादित देवदार वृक्षवाले उस भूमिप्रदेशमें वह राजा
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३१६
महापुराण
[१४.३.१८
अच्छिओ छमासं देवदारुवासं। वल्लरीललंतं
माणियं वर्णतं । णिग्गयग्गिजालं मंदधूममालं। मुक्कदीहसासं णं महीहरासं। दावियंघयारं तं गुहादुवारं। णटुताववेयं
सिट्ठमग्गभेयं । लग्गसीयवायं सोयलं च जायं। घत्ता-चंदणचच्चियउ कुसुमंचियउ ता पेसिउ पालियखत्ते॥
आरासयफुरियउ सुरपरियरिउ संचलियउ चक्कु पयत्त ।।३।।
२५
दुवई-पुणु चक्काणुमग्गलग्गंतमहाभडकरितुरंगयं ।
चलियं साहणं पि रहभमियरहंगाहयमुयंगयं ॥१॥ वसहकरह रवलइयभरु हरिखुरदलियमलियवणतणतरु । मयगलमयजलपसमियरयमलु दसदिसिमिलियमणुयकयकलयलु । कसझसमुसलकुलिससरकरयलु जणवयपयभरपैणवियमहियलु। असिवरसलिलपवहधुंयपरिहवु सतिलयविलयवलयखणखणरवु । मसिणधुसिणरससुपुसियउरयलु पवणपहयधेयचयचियणहयलु । चवलचमरवियलणपसरियकरु परिमललुलियललियमहुलिहसरु । मरुवहविगयखयरसुरवरघरु अमरिसकसणपिसुणजयसिरिहरु । सहपरिभमियजिमियसुरमियसहु पहुसुहजणणकहियमणहरकहु । पहरविर्हरु सुमरिवि मयभययरु णिवबलु गिलइ व गुहमुह गिरिवरु । पत्ता-तेण जि रिउमहहो मग्गियपहहो घेर आयहु फणिवहुलालिउ ।।
भरहहु भयवसेण सगुहामिसेण "णिय हियवउं दक्खालिउ ॥४॥
दुवई-कज्जलणीलबहलतमपडलविणासियणयणमग्गए।
___वच्चइ वाहिणीह ण सुहेण महीहरकुहरदुग्गए ॥१॥ इय चिंतिवि करि ढोइवि कागणि चमुपमुहेण लिहिय ससि दिणमणि । ते सोहंति विवरघरभित्तिहि णावई णयणई गरवइकित्तिहि । करणियरेण ताहं तमु सारिउ णिसि दिवसई सोहंति णिरारिउ । वहइ सेण्णु जयदुंदुहि वज्जइ पलयकालि गं जलणिहि गजइ। ७. MBP सिद्धमग्ग। ४. १. B°मग्गलग्गं महा । २. B°खरखुरवलइयं । ३. MBP पणमियं । ४. B°चुवपरि । ५. M
धयचयवियणहलु; P°धयचुंबियणहलु । ६. P"वियलिण । ७. MBP पहसुह । ८. MBP विहुर । ९. MBP घर । १०. MBP हियवउं णं दक्खालिउं ।
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३१७
१४. ५.६]
हिन्दी अनुवाद छह माह रहा। लताओंसे शोभित उस वनका उसने आनन्द लिया। जिसकी अग्निज्वाला शान्त हो चुकी है, धूममाला मन्द पड़ चुकी है, जो दीर्घ सांसे छोड़ रहा है मानो पर्वतका मुख हो, जो अन्धकारको दिखा रहा है, ऐसे उस गुहाद्वारका तापवेग समाप्त हो गया, उसमें मार्गका भेद बन गया, हवा ठण्डी लगने लगी और वह शीतल हो गया।
पत्ता-तब चन्दनसे चर्चित, फूलोंसे अंचित सो आराओंसे चमकता हुआ देवोंसे घिरा हुआ चक्र उसने भेजा। वह भी प्रयत्नपूर्वक चला ||३||
चक्रके पीछे लगे हुए महाभट, हाथी और तुरंग हैं जिसमें, ऐसी तथा रथोंके घूमते हुए पहियोंसे सोको आहत करती हुई सेना चली। जिसमें बैलों, ऊँटों और खच्चरों द्वारा भार ढोया जा रहा है, घोड़ोंके खुरोंसे वनके तृण-तरु चकनाचूर हो गये हैं, मदवाले गजोंके मदजलसे रजोमल शान्त हो गया है, दसों दिशाओंमें मिले हुए लोगोंका कलकल शब्द हो रहा है, जिसके हाथमें कशा, झस, मूसल और तीर हैं, जिसने जनपदोंके पदभारसे धरतीको झुका दिया है, असिवरोंके जलप्रवाहमें पराभव धो दिया गया है, तिलक सहित चूड़ियोंके समूहका खन-खन शब्द हो रहा है, मसृण केशररससे उरतल सुपोषित है, जिसमें पवनसे आहत ध्वजसमूहसे आकाश आच्छादित है, चंचल चामरोंको हिलानेके लिए हाथ उठे हुए हैं, परिमलपर झूमते हुए सुन्दर भ्रमरोंका स्वर हो रहा है, आकाशमार्गसे जिसमें देवों और विद्याधरोंके घर (विमान ) छोड़ दिये गये हैं, जो अमर्ष, कठोर और दुष्टोंकी विजयश्रीका अपहरण करनेवाली है, जिसमें सुरसभा साथ रहती, घूमती और खाती है, जिसमें स्वामीके लिए शुभ करनेवाली कथाएँ कही जा रही हैं, प्रहारसे जो विधुर है, ऐसा मद और भय उत्पन्न करनेवाला राजाका सैन्य स्मरण कर गुहाके मुख-विवरको जैसे निगल रहा है।
पत्ता-इसी कारण मानो रास्ता भोगनेवाले शत्रुओंमें महान् और घर आये हुए भरतके लिए डरकर अपनी गुहाके बहाने बहुतसे नागोंसे सुन्दर उसने अपना हृदय दिखा दिया ||४||
काजल और नीलके समान प्रचुर तमपटलसे जिसमें नेत्रोंका मार्ग नष्ट हो गया है, महीधरके ऐसे गुहादुर्गमें सेना सुखसे नहीं जा पा रही थी-यह सोचकर कागणी मणि लेकर सेनाप्रमुखने सूर्य-चन्द्र अंकित कर दिये। वे विवरकी दीवालोंपर इस प्रकार शोभित हुए मानो जैसे राजाकी कोतिकी आंखें हों। किरणसमूहसे उन्होंने अन्धकार-समूह हटा दिया और रात्रिमें दिन अत्यन्त रूपसे सोहने लगा । सेना चलती है। जयका नगाड़ा बजता है, मानो प्रलयकालमें समुद्र गरज रहा
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३१८
[१४.५.७
महापुराण उग्गमतपडिरवगंभीरहिं
दुरयघडाघटाटंकारहिं । संदणमुक्कचकचिक्कारहिं
धाविरवीरधीरहुंकारहिं । महिहरविवरमग्गु णं फुट्टइ रोल तिहुयणु णाई विसट्टइ। इंदु वरुणु वइसवणु विसूरइ मेइणि कह व भारु साहारइ । सायरु कह व ण महीयलु रेल्लइ । मंदरु कह व ण ठाणहु चल्लइ । चंदाइञ्चजुयलु णहि झुल्ल३ णीलु णिसहु केलासु वि हल्लइ । एम सेण्णु गच्छंतउ दिउ अद्धगुहाधरणियलि पइट्ठउ । घत्ता-रायहु केरएण परिवारएण पहि जंतें परमयसाडे।
मणि आसंकियउ मुहं बंकियउ फणिसंखकुलियकक्कोडें ।।५।।
दुवई-किंणरगरुडभूयकिंपुरिसमहोरयजक्खरक्खसा।
: पहुणो तण्णिवासि संजाया वेतर के ण के वसा ॥१॥ तओ दोण्णि भूमीहरते णईओ सुकारंडभेरुंडलीलारईओ। समुम्मग्गणिम्मग्गणामालियाओ जलावत्तकीलंतमीणालियाओ। तडालग्गडिंडीरपिंडुग्गयाओ गिरिंदस्स गुज्झंतरा णिग्गयाओ। विसुल्लोलवेलावलीवं कियाओ पहेस्संतरे राइणो थकियाओ। महाणायरायस्स णं णाइणीओ असुप्पिच्छसिंधुस्सरीजाइणीओ। अभग्गाइं दुग्गाई णित्थारएणं सविण्णाणिणा संकमेणं करणं । सरीसारतीराई संदाणिऊणं पुरो भिश्वसंचारयं जाणिऊणं । दरीमाणियं पाणियं लंघिऊणं परं पारमाधारमासंधिऊणं । घत्ता-गिरिकुहरंतरहो रमियामरहो णिग्गंतउ सालंकारउ।
सहइ महारुहहो वियलिउ मुहहो बलु कन्वु व सुकइहि केरउ ॥६॥
दुवई-ता णिग्गंति भरहि भेरीरवकंपियमेच्छमंडलं।
परबलदलणवीरकोलाहलमिच्छियसमरगोंदलं ॥१॥
गुलुगुलंतचोइयमयंगपयभूरिभारभारिजमाणभूकंपेणमियणाइंदमुक्कपुक्काररावधोरं।
जं हिलिहिलंतवाहियतुरंगखरखुरखयावणीचलियधूलिणासंततियसतरुणीविचित्तघोलंतचेलचित्तं ।
१. १. MBP धीरवीर । २. MBP वि जूरइ । ३. Bणीलि णिसहु; Kणीलणिसहु । ४. K धरणियलु ।
५. P कंकोड़ें। ६. १. MBP वितर। २. M पहासंतरे; B पहाभंतरे। ३. MB झसुप्पतिसिंधूसरी'; P झसोपित्थ
सिंधूसरी; T उपित्थ उल्बण । ४. BP पारमावार । ७. १. MBPK °णविय । २. MP°फुकार; B सुंकार; K°पुंकारं । ३. MP 'खुरखरखयावणी ।
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१४.७.६ ]
हिन्दी अनुवाद
३१९
है । उठते हुए प्रतिशब्दोंसे गम्भीर गजघटाके घण्टोंकी टंकारों, रथोंसे छोड़ी गयी चीत्कारों, दोड़ते हुए हुंकारोंके द्वारा मानो महीधरका विवरमार्ग फूट पड़ता है और कोलाहलसे त्रिभुवन जैसे ध्वस्त होना चाहता है । इन्द्र-वरुण वैश्रवण अफसोस करते हैं, धरती किसी प्रकार भारको सहन करती है । समुद्र किसी प्रकार धरतीपर नहीं बहता, मन्दराचल किसी प्रकार अपने स्थानसे नहीं डिगता, चन्द्रमा और सूर्य दोनों आकाशमें काँपते हैं । नीला असहाय कैलास भी हिलने लगता है । इस प्रकार चलता हुआ सैन्य दिखाई देता है, वह आधी गुफाके धरतीतलपर पहुँच जाता है ।
घत्ता- - शत्रुके मदका नाश करनेवाले राजाके परिवारके पथमें जानेपर नाग, शंख, कौलिय और कर्कोट जातिके नागों को मनमें शंका हो गयी और उन्होंने अपना मुख टेढ़ा कर लिया ||५||
६
वहाँ निवास करनेवाले किनर, गरुड़, भूत, किंपुरुष, महोरग, यक्ष, राक्षस और व्यन्तर कोन कोन देवता प्रभुके वशमें नहीं हुए। उस समय पर्वतके मध्यमें, जिनमें सुन्दर कारण्ड ( हंस ) और भेरुण्ड लीला में रत हैं, जलोंके आवतमें मीनावलियां क्रीड़ा कर रही हैं, जो तटमें लगे हुए फेनसमूहसे उग्र हैं, ऐसी समुन्मग्ना और निमग्ना नामवाली पर्वतराजके मध्यसे निकलनेवालीं, जलकी लहरावलियोंसे वक्र दो नदियाँ राजाके रास्ते के बीच आकर इस प्रकार स्थित हो गयीं, मानो जैसे महानागराजकी दो नागिनें हों जो मानो मत्स्योंसे उत्कट सिन्धु नदीके लिए जा रही हों । तब अभग्न दुर्गोंसे निस्तार दिलानेवाले, कुशल स्थपतिरत्नके द्वारा निर्मित सेतुबन्धसे नदियोंके श्रेष्ठ तीरों को बांधकर, नगर में सेनाका संचार जानकर, घाटियोंके द्वारा मान्य पानीको लाँघकर श्रेष्ठ उस पार के आधारको पार कर
धत्ता - जिसमें देव रमण करते हैं ऐसी पहाड़की गुफामें से निकलता हुआ अलंकार सहित सैन्य इस प्रकार शोभित हो रहा था, जैसे मुँहसे निकलता हुआ महायोग्य सुकविका काव्य हो ॥६॥
.
७
भरतके निकलनेपर नगाड़ोंकी ध्वनियोंसे म्लेच्छ मण्डल काँप उठा । शत्रुसेनाके दलन के लिए वीरोंमें कोलाहल होने लगा, युद्धकी भिड़न्त चाही जाने लगी । चिग्घाड़ते हुए और चलाये जाते हुए हाथियोंके पैरोंके भूरिभार के दबावसे उत्पन्न भूकम्पसे नमित नागराजोंके द्वारा मुक्त फूत्कार शब्दोंसे जो भयंकर हो उठा है। हिनहिनाते हुए और चलाये गये घोड़ोंके तीखे खुरोंसे खोदी गयी धरतीसे उठी हुई धूलसे नष्ट होती हुई देवांगनाओंके वस्त्र और चित्र-विचित्र हो रहे हैं ।
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३२०
गयणभायं ।
महापुराण
[१४.७.७ जं हैणुभणंतपक्कलपढुक्कपाइक्कमुक्कलल्लेकहक्करिउसुहडविहडणुग्घुट्ठरोलफुटुंत
रहियमुक्कपग्गहविसेसरंगतरहरसाचलणपँडियगुरुसिहरिसिहरचुण्णजाय१० चंदणकुचंदणोहं ।।
जं हारदोरकेऊरकडयकंचीकलावमउडावलंबिमंदारदामसोभंतजक्खजक्खीविमाणछण्णं।
_जं भीयर वराराकरालचक्काणुगामिमंडलियसूरसामंतकोंतकरवालचावसंघाय१५ जं दंतिदाणधारापवाहपसमंतरेणुदीसंतदसदिसाणणभरतसेणाणरुद्धरियविविह
छत्तचिंधं । _जं भिन्चदेहपरियलियसेयणीसंदबिंदुहयफेणसलिलचिक्ख°ल्लतल्लखुप्पंतसयडसंकिण्णकुहिणिदेसं। घत्ता-तं पेच्छिवि पबलु उत्थरिउ बलु बोल्लिज्जई" मेच्छकुलेसहिं ।।
एवहिं को सरणु ढुक्कउ मरणु रिउ घाइय चउहुँ मि पासहिं ॥७॥
संकडिल्लं।
दुवई-गिरिदरिसरिमुहाई जो लंघइ पहु सामत्थवंतओ।
सो अम्हारिसेहिं कि जिप्पइ णिज्जियदह दियंतओ ॥१॥ बहुकालहु दइवेण णिवेइउ हा हा पलयकालु संप्रौइउ । वयणु सुणिवि आवत्तचिलायह मेच्छमहामंडलमहिरायहं । धीरे मंते एउ पवुच्चइ
आवईकालइ धाह ण मुञ्चइ। सव्वु सहिज्जइ जं जिह दुक्का हयविहि विहियहु को वि ण चुक्कइ । जहिं भंडणु तहिं अवसे खंडणु धीरत्तणु जि मणूसहु मंडणु। विसहर परणरसेण्णवियारा ते तुम्हहं कुलदेव भडारा। सुमरहु सामिसाल सब्भावें किं भएण किं किर बलगावें। तेहिं मि ए आलाव विवेईय णाय मेहमुह मणि णिज्झाइय । वियडफडाकडप्पदप्पुब्भड गरलाणलपलित्तगिरितडवड । उल्ललंततधूममलीमस
सिरमणिगणमऊहदीवियदिस । अग्घकुसुमरसवासुद्धाइय
चलँवलंत ते झत्ति पराइय । घत्ता-बोलिउ उरगइणा विसहरवइणा किं पाडमि गहणक्खत्तई ।।
कीलियसुरवरहो माणससरहो णिल्लूरमि किं सयवत्तई ।।८।। ४. MBP हणुहणुभणंत । ५. MBP°ललक्क । ६. P रंगततुरयरह । ७. MP°चलणवडिय; B °चलणचडिय' । ८. MBP°सिहरसयचुण्ण । ९. MB भीयरंबदाढाकराल; P भीयरावदाढाकराल ।
१०. MBP °चिक्खिल्ल। ११. MBP वोलिज्जइ। . ८. १. MBP°दहदिहतओ । २. MBP संपाइउ । ३. MBP आवइकालि धाह णउ मुच्चइ । ४. MBP
णिवेइय । ५. मेहमुहु । ६. MBP उल्ललंतबहुधूम । ७. K चलचलंत ।
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१४. ८.१३] हिन्दी अनुवाद
३२६ मारो-मारो कहते हुए समथं और प्रौढ़ पैदल सेनाके द्वारा मुक्त भयंकर हुंकारोंसे शत्रुसुभटोंके विघटनसे उठेहए शब्दोंसे आकाशमार्ग विदीर्ण हो गया है। रथिकों द्वारा छोडी गयी विशेषलगामसे चलते हुए रथोंसे डगमगाती हुई धरतीपर गिरे हुए पहाड़ोंके शिखरोंसे चन्द्रमा और रक्त चन्दन वृक्षोंका समूह चूर्ण-चूर्ण हो गया है। हार-दोर-केयूर-कटक-करधनी-कलाप और मुकुटोंपर अवलम्बित मन्दार मालाओंसे शोभित यक्ष तथा यक्षिणियोंके विमानोंसे जो आच्छादित है; जो श्रेष्ठ आराओंसे कराल चक्रोंका अनुगमन करते हुए माण्डलीक सूर सामन्त भालों, तलवारों और चापसमूहसे संकीणं और भयंकर है। गजोंके मदजलके धाराप्रवाहसे धूलके शान्त हो जानेपर, दिखाई पड़नेवाले दसों दिशाओंके मुखोंको भरते हए सैनिक नरों द्वारा विविध छत्रचिह्न उठा लिये गये हैं। जहां अनुचरोंके शरीरसे परिगलित स्वेद निर्झरकी बूंदों और अश्वोंके फेन-जलोंसे गीले तलभागमें गड़ते ( खचते हुए ) शकटोंसे मार्गप्रदेश संकीर्ण हो चुका है।
पत्ता-(ऐसी) उस प्रबल सेनाको आक्रमण करते हुए देखकर म्लेच्छकुलके राजाओंने कहा-"अब कौन शरण है, मरण आ पहुंचा है, चारों ओर शत्रु दौड़ रहा है ॥७॥
जो सामर्थ्यवान् राजा गिरिघाटी और नदियोंके मुखोंका उल्लंघन करता है, दसों दिग्गजोंको जीतनेवाला है, ऐसा राजा हम-जैसे लोगोंसे कैसे जीता जा सकता है। हा-हा, बहुत समयके बाद दैवसे निवेदित प्रलयकाल आ पहुंचा।" इस प्रकार म्लेच्छ महामण्डलके अधिराजों, आवर्त तथा किलातोंके वचन सुनकर धीर मन्त्रीने कहा,-"आपत्तिके समय 'हा' नहीं करना चाहिए, जिस प्रकार जीवनमें जो प्राप्त हो, उस सबको सहन करना चाहिए, हतभाग्य विधातासे कोई नहीं बचता। जहां युद्ध होगा, वहाँ मारकाट अवश्य होगी। इसलिए धैर्य ही मनुष्यका मण्डन है। दूसरेकी सेनाका विदारण करनेवाले जो विषधर हैं, वे तुम्हारे आदरणीय कुलदेव हैं। हे स्वामीश्रेष्ठ, तुम उनका सद्भावसे स्मरण करो। भयसे क्या, और बलके गर्वसे क्या ?" उन म्लेच्छराजाओंने भी इन वचनोंको समझ लिया। उन्होंने मेहमुख नामक नागोंका अपने मनमें ध्यान किया, जो विकट फनोंके समूहसे उद्भट, विषको ज्वालाओंसे गिरितटके वटवृक्षोंको दग्ध करनेवाले उठते हुए धुएंके समान मैले, अपने शिरोमणियोंकी किरणोंसे दिशाओंको आलोकित करनेवाले थे। अर्घ्य पुष्पोंकी रसवाससे दौड़कर आते हुए वे शीघ्र चिलबिलाते हुए वहां पहुंचे।
पत्ता-विषधरोंके राजा सर्पने कहा, "क्या ग्रह-नक्षत्रोंकों गिरा दूं ? जिसमें सुरवर क्रोड़ा करते हैं ऐसे मानसरोवरके क्या कमल तोड़ लाऊँ" ॥८॥
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महापुराण
९
दुवई - ता मेच्छाहिवेण भणिया फणिणो गज्जंतगयवरं । हि वेरिसेण्णमिणमो तरुणीकर चलियचामरं ॥ १ ॥ ताणायहिं वेउठिवर पाउसु । पीलु सामलु विलसइ सुरधणु । पवसिय पियहि पियहि तप्पइ मणु । तिम्मइ तम्मइ मणि जूरइ जणु । तरु कडess फुडइ विहडइ गिरि । अइरय सुरइ भरइ पूरें सरि । गुग्गुण कंपवणायउ । विरहें मंथिय पंथिय विंधइ ।
धावारहु उप्पर अहणिसु
मयलु तसइ रसइ वरिसइ घणु महिणीहरि हरि वड्ढइ तणु फुल्लकैलंबतंबु दीसइ वणु as assइ पडइ रुंजइ हरि जलु परियलइ घुलइ घुम्मइ दरि जलु थलु सयलु जल जि संजाय सरु कुसुमसरु णिरारिउ संघइ
घत्ता - पाणिउ णीयगइ विज्जु वि डहइ धणु णिग्गुणु कुडिल सुरिंदहो । पाउसु हयमणो समु दुज्जणहो जो वरिसइ उवरि गरिदो ॥९॥
१०
दुबई - सेलिलुत्थल्लरेल्लपडिपेल्लणहयदुमविगयरिंछओ । णवघणरात्रमुइयचंदक्ककलावुद्धसियपिंछओ ॥१॥
दीसइ लग्गड वासारतउ असिजलि णिव डिवि जलु पुणु धावइ तहिं तं ण मिलइ गमणु जि मग्गइ धुवइ किं पि अलिपिंछहिं दलियउ को मंडणू विसes रिघरिणिहि वंस वंस तुहुं मई वड्डारिउ महु सरु प्राणहारि णावइ सरु धोइ मयमा गहं दाणई थक्क सचक्कवाय रह णं सर तौ पभणइ णरणाहपुरोहिउ
हु पडिविहाणु लहु किज्जइ ताराएं बलवइमुहुं जोइउ
सेणामहिलहि णावर रत्तउ । भडभुयदंडहु संमुहुं आवइ । लोहें गिलियहु को किर लग्गइ । वहुमुह लिहिउ पत्तावलियड । ढाइ सिरसिंदूर करिणिहिं । raft परचिंधे वेयारिउ । इय गज्जंतु व पभणइ जलहरु । दुम्मेहहं रुचंति ण दाणई । तो तरंति ण के के किर गर । लोउ देव उवसग्गे रोहिउ । अणु वारिवारणु चिंतिज्जइ । ते व पेस झत्ति विवेइउ ।
धत्ता - नियमणि चिंतियउ तेलि घित्तियउं तं चम्मरयणु जणभरधरु । उप्परि पुणु थविउ जगगउरविड धवलीयवत्तु जियससहरु ||१०||
[ १४.९. १
९. १. MB हिणिवि । २. MBP तणु । ३. BP 'कलंबु तंबु । ४. MBP अमग्गु वि किपि ण णायउ । १०. १. K सलिलुच्छलं । २. MB पाणहारि; P पाणिहारि । ३. MBP ताम भणइ । ४. M अणु । ५. MBP घत्तियउ । ६. K आयपत्तु जिह ससहरु ।
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१४.१०.१६ ]
हिन्दी अनुवाद
९
तब म्लेच्छराजने नागों से कहा- 'जिसमें गजवर गरज रहे हैं, और तरुणीजन द्वारा स्वर्ण चामर ढोरे जा रहे हैं, ऐसी इस शत्रुसेनाको मार डालो।" तब नागोंने स्कन्धावारके ऊपर विद्यासे दिन-रात वर्षा शुरू कर दी। पशुकुल त्रस्त होता है, घन-कुल गरजता है और बरसता है, पीला और श्यामल इन्द्रधनुष शोभित है । मही निखर उठी है, हरी घास बढ़ रही है, प्रोषितपतिकाओं का मन पियके लिए सन्तप्त हो रहा है, बान खिले हुए कदम्ब वृक्षोंसे आरक्त दिखाई देते हैं, गीला-गीला होकर जन-मनमें खेदको प्राप्त होता है, बिजली तड़तड़ पड़ती है, सिंह गरजता है, वृक्ष कड़कड़ करके टूटते हैं, पहाड़ विघटित होता है । जल बहता है, फैलता है, घाटीमें घूमता है । वेगसे दोड़ता है, नदी पूरसे भरती है, जल और थल सब कुछ जलमय हो गया । मार्ग-अमार्ग कुछ भी नहीं मालूम पड़ता । कामदेव अपने तीरका अच्छी तरह सन्धान करता है और विरहसे पीड़ित पथिकको विद्ध करता है ।
३२३
धत्ता - पानी निम्नगति है, बिजली भी जलाती है, देवेन्द्रका धनुष निर्गुण और कुटिल है । पावस हतमन दुर्जनके समान है कि जो राजाके ऊपर बरस रहा है ॥९॥
१०
जिसमें जलकी धाराओंकी रेलपेलसे वृक्ष आहत है और पशु चले गये हैं, जिसमें नवमेघों की ध्वनिसे अपने चन्द्रकलाप फैलाकर मयूर नाच रहे हैं, ऐसी वर्षा ऋतु आ गयी दिखाई देती है, जैसे वह सेनारूपी महिलापर आसक्त हो । तलवारके जलपर गिरकर पानी फिर दौड़ता है, और योद्धाओंके भुजदण्डों के सम्मुख आता है, वह वहाँ भी नहीं ठहरता और वहांसे जाना चाहता है, लोभसे ग्रस्त कौन किससे लगता है, वह भ्रमरोंके पंखोंसे दलित होकर वधुओंके मुखोंपर लिखित पत्रावलीको कुछ-कुछ धोता है । शत्रुकी गृहिणी के मण्डनको कौन सहन करता है, वह हथिनियों के सिका सिन्दूर ढोर देता है । "हे ध्वजदण्ड, तुम्हें मैंने बड़ा किया है इस समय दूसरोंके ध्वजचिह्नोंसे शोभित हो, मेरा सर (स्वर) अब प्राणहारी ( प्राण धारण करनेवाला / प्राण हरण करनेवाला ) सर ( सर/तीर) के समान है ।” मानो मेघ गरजते हुए इस प्रकार कह रहा है । वह मैगल गजोंके मदजलको धोता है, मानो दुष्ट मेघोंके लिए दान अच्छा नहीं लगता । चक्रवाक सहित रथ ठहर गये हैं मानो सरोवर हों, पानी में कौन-कौन मनुष्य नहीं तिरते । राजाका पुरोहित तब कहता है- "हे देव, लोक उपसर्गसे अवरुद्ध है, इसका कोई प्रतिविधान करना चाहिए, पानीका निवारण करनेवाले चर्मरत्नकी चिन्ता की जाये ।" तब राजाने सेनापतिका मुख देखा, वह भी शीघ्र आदेश समझ गया ।
घत्ता - अपने मनमें विचारकर, जनोंके भारको धारण करनेवाले चर्मरत्नको उसने तलभाग में डाल दिया । और ऊपर जगके गौरव, चन्द्रमाको जीतनेवाले धवल आतपत्र स्थापित कर दिया || १०||
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५
१०
१५
३२४
महापुराण
११
दुवई - बारह जोयणाइं वित्थारें सिविरु कुलीरमाणिए । पविउलछत्तचम्मकय संपुडि थिउ वैरिसंतु पाणिए ॥१॥
गण धरणिय गिरिसिहरु रेल्लियउ पडिएण पउरेण तोएण पेल्लियउ । अइणायवत्तेहिं रइए समुग्गम्मि विसंति णरवइणरा णाई सग्गमि । ते दोण वरिसंति ते णेय जाणंति मिट्ठाई सोक्खाई माणंति । रोयरे साहणं जाम संचरइ अरविंदगन्भम्मि अलिउलु व रइ करइ । खलबलहरोवाय हिययम्मि संभरइ कागणिकया इश्च्चस सियरहिं वावरइ । सत्ताहरत्ते गए णवर कुद्धेहिं चूडामणिल्लेह मारणविरुद्धेहिं । ईंगालहरिणील कालिंदिकाले हिं मुहकुहरणिम्मुक्कगर लग्गिजाले हिं । उत्तुंगभूभंगभंगुरियभालेहिं सिसुसँसहरायारदाढाकरालेहिं । वियपर दंड जमदंडदीहिं आरत्तलोलंतेंचलजमलजीहेहिं । गरुयाहिंमाणेहिं परिगहियमेच्छेहिं कलहिच्छदुप्पेच्छरोसारुणच्छेहिं । णीसास विसलवमलालित्तचं देहिं मरु मरु भणतेहिं मरुगासिवंदेहं । हरिकरिमहाजोह सामंतपब्भारु विउणयरु तिउणयरु वेढियउ खंधारु | रामा हिरामेण संगामधुत्तेण रूसेव देवाहिदेवस्स पुत्तेण ।
घत्ता - परणरदुज्जयहो राएं जयहो वीरपट्ट सई बद्धउ ।
λ
सो विसंहरवरहं "णवजलहरहं जुगेखयकयंतु णं कुद्धउ || ११||
१२
दुबईई-ता सोलेहसहासजक्खामरविरइयगंधवाहिणं ।
भग्गा सलिलवाह पीलू विव चलयरहरिणणाहिणं ||१|| च वइरिमहाभड छिण्णा तं अवलोयवि गय भयवस फणि मेच्छरिंदहिं सकरुणु रुण्णउं विसभरियहं किं किर सुयणन्तणु छिसिहिं को रंजिज्जइ चरणविवज्जिड को जसु पावइ रणजइ जउ गज्जिउ घणणाएं
[ १४.११.१
दवें णाई दिसाबलि दिण्णा । गय नवघण गय सा सोदामणि । दोजीयहुं किं कि पडिवण्णउं ।
aise किं गुणकित्तणु । अणिलासिहिं किं परु पोसिज्जइ । निश्चयंग णिश्च जि आवइ । घणणाउ जि सो कोक्किउ राएं।
११. १. MBP वरिसंत । २. MBP °विलुद्धेहिं । ३. B॰ससिहरापारं । ४. MBPK'चोलंत' । ५. MBP "मलालित्त देहेहिं । ६. MBP मरुगासिभंडेहि । ७. P°देवेसपुत्तेण । ८. MBP स वीरपट्टु सिरि बद्धउ । ९. MB रहं; Pधारहं । १०. हारह; GK omit णवजलधरहं । ११. MBP जुगखइ कयंतु ।
१२. १. MBP सोलस । २. MBP दोजीहहि । ३. MB किंकर । ४. P विसहरियहं । ५. P छिद्दा - सिहि । ६. MBP कोक्किउ सो ।
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१४. १२.९]
हिन्दी अनुवाद
३२९
११
मत्स्योंके द्वारा मान्य पानीमें वह शिविर बारह योजन तक, विस्तृत विशाल छत्र और चमं निर्मित सम्पुटमें वर्षाकालके समय स्थित हो गया। गिरते हुए प्रचुर पानीके दबावसे आकाशतल, धरणीतल और गिरिशिखर जलमय हो गये। लेकिन चर्मरत्न और आतपत्रोंके सम्पुटमें राजाके लोग इस प्रकार रह रहे थे, मानो स्वर्गमें स्थित हों। मेघ बरसते हैं, वे यह नहीं जानते। वे इष्ट और मीठे सुखोंको मानते हैं। रत्नोंके भीतर सेना चलती है और जो कमलोंके गर्भमें भ्रमरकुलकी तरह रति करती है । वह शत्रुकी शक्तिके हरणका उपाय अपने मनमें सोचता है और कागणीके द्वारा निर्मित सूर्य और चन्द्रकी किरणोंका प्रयोग करता है। सात दिन-रात बीत जानेपर चूड़ामणि धारण करनेवाले मारने के लिए विरुद्ध, कोयला हरि नील कालिन्दी और कालके समान काले, मुंहरूपी कुहरसे विषाग्नि ज्वालाओंको ऊंचे भ्रूभंगोंसे भंगुरित ( टेढ़े ) भालवाले शिशु चन्द्रमाके आकारकी दाढ़ोंसे विकराल, दूसरोंके दण्डको नष्ट करनेवाले यमदण्डके समान दीर्घ, आरक्त चंचल लपलपाती दो जीभोंवाले, भारी अभिमानवाले, म्लेच्छोंका परिग्रहण ( आश्रय ) लेनेवाले, कलहके इच्छुक दुर्दर्शनीय और क्रोधसे आरक्त नेत्रोंवाले, निश्वासोंके विषकणोंके भालसे चन्द्रमाको आलिप्त करनेवाले, मारो-मारो कहते हुए सांपोंके द्वारा, अश्वगजों, महायोद्धाओं और सामन्तों के प्रभारवाले स्कन्धावार दुहरा-तिहरा घेर लिया गया। तब रमणियोंके लिए सुन्दर संग्राममें चतुर-देवाधिदेवके पुत्र भरतने क्रुद्ध होकर
पत्ता-शत्रुपुरुषके लिए अजेय जयका वीरपट्ट ( राजाने ) स्वयं बोध लिया, मानो विषधरवरों और नवजलधरोंपर युगका क्षय करनेवाला कृतान्त ही क्रुद्ध हो उठा हो ॥११॥
१२
तब सोलह हजार यक्षामरोंके द्वारा विरचित पवनोंके द्वारा मेघ उसी प्रकार नष्ट हो गये, जिस प्रकार चंचल हरिणोंके स्वामी ( सिंह ) से गज नष्ट हो जाते हैं। चक्रसे शत्रु महायोद्धा इस प्रकार छिन्न हो गये, मानो देवने दिशावलि छिटकी हो । यह देखकर नाग डरकर भाग गये। नवघन चले गये और वह बिजली चली गयी। तब म्लेच्छ राजाओंने करुणापूर्वक रोना शुरू कर दिया कि द्विजिहोंने यह क्या किया? जो विषसे भरे होते हैं उनमें क्या सज्जनता हो सकती है ? जो टेढ़ी गतिवाले हैं उनका क्या गुणकीर्तन ? छिद्रोंका अन्वेषण करनेवालोंसे कौन प्रसन्न हो सकता है ? जो हवाका पान करते हैं, उनसे दूसरोंका क्या पोषण होगा? चरण ( चारित्र पैर ) से रहित कोन यश पा सकता है ? नित्य भुजंगों ( गुण्डों और सांपों) को नीचता ही आ सकती है। युद्धके
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३२६
महापुराण
[१४. १२.१० सिरचूलाचुंबियभूभायहिं दूरंतरहु णमंसियपायहिं। दिण्णहिरण्णवत्थसंघायहिं दिठु राउ आवत्तचिलायहिं । साहिवि मेच्छराउ गंजोल्लिउ अणुतीरें सिंधुहि पुणु चल्लिउ । पहु हिमवंतु पराइउ जावहिं आइय सिंधु भडारी तावहिं । देवय दिव्वदेह णउ सा सरि सिंधुकूडवासिणि परमेसरि । राउ णिहालिवि कलसविहत्थइ लहु भद्दासणि णिहिउ पसत्थइ। घत्ता-सिंधूदेवयए जलयरधयए अहिसिंचिवि थुउ मउलिवि कर ॥ __दिण्णी माल तहो भरहाहिवहो णवपुप्फयंत थिय॑महुयर ।।१२।।
इय महापुराणे तिसढिमहापुरिस गुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरहए महामव्वमरहाणुमण्णिए महाकव्वे आवत्तचिलायपसाहणं णाम चोदहमो परिच्छेओ सम्मत्तो ॥१४॥
॥ संधि ॥१४॥
७. P सिंधुवदेवइ। ८. B °पियमहुयर ।
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१४. १२.१०]
हिन्दी अनुवाद जीत लेनेपर राजा घननाद गरजा, राजाने घननादको भी बुलाया। अपने सिरोंके चूड़ामणियोंसे भूमिका भाग छूते हुए, दूरसे पैरोंमें नमस्कार करते हुए, हिरण्य वस्तु-समूहका दान करते हुए आवतं और किरात राजाओंने राजासे भेंट की। इस प्रकार म्लेच्छराजको साधकर हर्षसे उछलता हुआ वह सिन्धु नदीके किनारे-किनारे फिरसे चला। जब राजा हिमवन्तके निकट पहुँचा तब आदरणीय सिन्धु देवी आयी। वह नदी नहीं, दिव्य स्वरूप धारण करनेवाली देवी थी, जो परमेश्वरी सिन्धकूटमें निवास करतो थी। राजाको देखकर उसे भद्रासनपर बैठाकर कलश हाथमें लिये हुए प्रशस्त
घत्ता-जलचर ध्वजवाली सिन्धु देवीने अभिषेक कर दोनों हाथ जोड़कर उसकी स्तुति की । और उस भरताधिपके लिए नवपुष्पोंपर स्थित मधुकरोंवाली पुष्पमाला अर्पित की ॥१२॥
इस प्रकार वेसठ महापुरुषों के गुणों और अलंकारोंवाले इस महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यमें
आवर्त-किलात प्रसाधन नामका चौदहवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥१४॥
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संधि १५
मेल्लिवि सिंधुसरि पणवेप्पिणु रिसहजिणिदहो । पुणु संचलिउं पहु भयरसु जणंतु अमरिंदहो ॥१॥ध्रुवकं ॥
सेणासेणाहिवपरियरिय हिमवंतु धरेप्पिणु संचलिय। सोहइ गच्छंती पुज्वमुह
कुरुवंसणाहपत्थिवपमुह ।। दीसइ सेलथल काणणउं महिसीदुधु व साहाघणउं । णाणामहिरहफलरसहरई
कत्थइ किलिगिलियेई वाणरई। कत्थइ रइरत्तई सारसई
कत्थइ तवतत्तई तावसई। कत्थइ झरझरियई णिज्झरई कत्थइ जलभरियई कंदरई । कत्थइ वीणियवेल्लीहलई
दिटुइं भज्जंतई णाहलई। कत्थइ हरिणई उल्ललियाई पुणु गोरीगेयहु वलियाई। कत्थइ हरिणहरुक्कत्तियई
करिकुंभुच्छलियई मोत्तियई । कत्थइ सुम्मइ जक्खिणिझुणिउं खयरीकरवीणारणरणिउं। कत्थइ भसलउलहिं रुणुरुणिउं कत्थइ सुएण किं किं भणिउं । धत्ता-कत्थइ किंणरहिं गाइज्जइ सवणपियारउ ॥
रिसहणाहचरिउ फणिणरसुरलोयहु सारउ ॥१॥
णिक्खित्तसुरासुररइणियले णवचंपयकुसुमावासियउ बहुदोरहिं दूसई ताडियई
हिमवंतकूडतलधरणियले । साहणु सडंगु आवासियउ । रणवडहसहासई ताडियई।
MBP give, at the commencement of this Samdhi, the following stanza:
त्यागो यस्य करोति याचकमनस्तृष्णाङ्करोच्छेदनं कीर्तिर्यस्य मनीषिणां वितनुते रोमाञ्चचचं वपुः । सौजन्यं सुजनेषु यस्य कुरुते प्रेमान्तरां निर्वृति
श्लाघ्योऽसौ भरतः प्रभुर्वत भवेत्क्वाभिगिरां सूक्तिभिः ॥ MB read प्रेम्णोऽन्तरां for प्रेमान्तरां. G does not give it.
U K give it at the commencement of Samdhi xcv. १. १. MB महिरुहरुहरस; P°महिरुहफलरस, but records a p महिरुहरुहरसं । ४. MBF ___किलिकिलियई । ३. MBP कुंभत्थलियई ।
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सन्धि
१५
सिन्धु नदीको छोड़कर और ऋषभ जिनेन्द्रको प्रणाम कर राजा भरत अमरेन्द्रोंको भयरस उत्पन्न करता हुआ चला ।
सेना और सेनापतिसे घिरा हुआ हिमवन्तको अपने अधीन कर वह चल पड़ा। जिसमें कुरुवंशके स्वामी राजा प्रमुख हैं ऐसी सेना पूर्वकी ओर मुख किये हुए शोभित है। शैलके स्थलमें कानन इस प्रकार दिखाई देता है, मानो महिषीके दूधके समान साहाघन ( शाखाओं और दुग्धधारासे सघन ) है, कहींपर नाना वृक्षोंके फलरसको चखनेवाले वानर किलकारियां भर रहे हैं, कहीं सारस रतिमें रक्त हैं, कहीं तपस्वी तपसे सन्तप्त हैं, कहीं निर्झर झर-झर बह रहे हैं, कहीं गुफाएँ जलसे भरी हुई हैं, कहीं झुके हुए बेलफल हैं जो भीलोंके द्वारा भग्न होते हुए दिखाई देते हैं, कहीं हरिण चौकड़ी भर रहे हैं, फिर गौरीके गीतसे मुड़ते हैं, कहींपर सिंहके नखोंसे उखाड़े गये मोती हाथियोंके गण्डस्थलोंसे उछल रहे हैं। कहीं पर यक्षणियोंकी ध्वनिलहरी सुनाई देती है, कहींपर विद्याधरीके हाथोंकी वीणा रुनझुन कर रही है। कहींपर भ्रमरकुलोंके द्वारा गुंजन किया जा रहा है, और कहींपर शुक 'किं किं' बोल रहा है।
____घत्ता-कहींपर किन्नरियोंके द्वारा कानोंको प्रिय लगनेवाला नाग, नर और सुरलोकमें श्रेष्ठ ऋषभनाथ चरित गाया जा रहा है ॥१॥
जहां सुर-असुरोंकी रति शृंखलाएँ निक्षिप्त हैं ऐसे हिमवन्तके कूटतलके धरातलपर नवचम्पक कुसुमोंसे सुवासित छह अंगोंवाले सैन्यको ठहरा दिया गया। बहुत-सी रस्सियोंसे तम्बू ठोक दिये गये, हजारों युद्धपटह बजा दिये गये। गजशाला और नाट्यशालागृह और प्रवरशाला
४२
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३३०
महापुराण
[१५.२.४ करिसालाणडसालाहरई उब्भियई पउरसालाहरई। हरिवरमंदुरउ समुंडियउ णं घडदासीउ सुमुंडियउ। ठवियइं मणिमंडवियासयई अवराई मि दिव्वइं आसेयई। दुव्वारवइरिमयपहरणई
अहिवासिवि भूसिवि पहरणई। दक्खालियसंसहररयणियहि पोसहु पडिवजिवि रयणियहि । कुससयणि पसुत्तउ सई भरहु उग्गमिउ दिणाहिवु णहि भरहु । करि धरिउ सरासणु राणएण बहु विहरिउ मंडलराणएण । आरुहिवि रहँग्गि ण संकियउ वइसाहठाणु सई संकियउ । जो लोहवंतु परमग्गणउ
सो गुणि संणिहियउ मग्गणउ । किं अच्छइ णवर उद्घ गयउ हिमवंतकुमारहु णं गयउ। घत्ता-पडिउ संपंगणए उप्पुंखु बाणु अवलोइउ ।।
चिंतिउ तेण मणे को एहउ काले चोइउ ॥२॥
किं पाणि पसारिउ फणिमणिहे तडयडिहे णहि सोदामणिहे । दीहरजालामालाजलिउ
पलयाणलु केण पेडिक्खलिउ । केसरिकेसरु उल्लूरियर
कालोणिलु केण वियारियउ । किउ केण गरुडपक्खाहरणु भणु केण णिसुंभिउ जमकरणु । दलवट्टिउ माणु पुरंदरहो किं सिहरु पलोट्टिउ मंदरहो। णियहत्थें णिम्मथिउ जलहि पडिकूलिउ केण हवंतु विहि । दिट्ठीविसवयणु णिरिक्खियउ के हालाहलु विसु भक्खियउ । जगि केण भाणु णित्तेइयउ महु केण रोसु उपाइयउ । को पारु पराइउ णहयलहो
को सुपहुत्तउ णियमुयबलहो । कि ण मरइ करवालेण हउ
ण वियाणहूं किं सो वज्जमउ । सरु मझु वि केण विसज्जियउ। खंयडिंडमु कासु पवजियउ । घत्ता-जेण विमुक्कु सरु अइदीहु समाणु फणिदहो ।
सो महु मरइ रणे जइ पइसइ सरणु सुरिंदहो ॥३॥ २. १. P reads after this : मिहुणइं रमंति रत्तासयई, अवराई मि दिव्वई आसयई, णियपहणिज्जय
देवासयहिं । २. MB read after this : मिहुणइं रमंति रत्तासयइं, णियपहणिज्जियदेवासयई। ३. BP ससिहररयणियहि । ४. P रहंगि । ५. MBP उद्धगयउ। ६. M पपंगणए; B पसंगणए। ७. MB उप्पंखु । १. MBPK पडिखलिउ। २. MBP कालाणलु । ३. M णिमत्थिउ; BP णिम्मत्थिउ । ४.P हणंतु । ५. MBP किं । ६. MBP खयडिडिमु । ७. M विमुक्क सरु ।
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१५. ३.१३] हिन्दी अनुवाद
३३१ गृह खड़े कर दिये गये । दोनों ओर उत्कीर्ण काष्ठोंसे युक्त अश्वशाला ऐसी मालूम होती थी मानो सुमुण्डित घटदासी हो। मणिमय मण्डपोंके घर स्थापित कर दिये गये, और भी दूसरे घर निर्मित कर दिये गये । दुर्वार वैरियोंके मदपर प्रहार करनेवाले अस्त्रोंको अधिष्ठित और भूषित कर दिया गया। अपने चन्द्रमारूपी चूड़ामणिको दिखानेवाली रात्रिमें उपवास स्वीकार कर स्वयं भरत कुशासन पर सो गया। सवेरे आकाशमें नक्षत्रोंको ढकनेवाला दिनाधिप उग आया। राजाने धनुष अपने हाथमें ले लिया, मण्डल राणाने खूब क्रीड़ा की। रथके अग्रभागपर चढ़ते हुए उसने शंका नहीं की। उसने स्वयं वैशाख-स्थान किया।' जो लोहवन्त ( लोभ और लोहेसे युक्त) ऐसे उस मग्गण ( बाण और याचक ) को गुणि ( डोरी | गुणी व्यक्ति ) पर रख दिया गया। क्या वह रहता है, नहीं केवल वह ऊपर गया मानो हिमवन्त कुमारके पास गया हो।
पत्ता-अपने आंगनमें पड़े हुए पुंख सहित बाणको उसने देखा और अपने मन में विचार किया यह कौन है जिसे कालने प्रेरित किया है ? ॥२॥
क्या उसने नागमणिके लिए हाथ फैलाया है, या आकाशमें कड़कती हुई बिजलीके लिए? दीर्घ ज्वालमालाओंसे प्रज्वलित प्रलयाग्निको किसने छेड़ा है ? सिंहकी अयालको किसने उखाड़ा है ? कालानलको किसने क्षुब्ध किया है ? किसने गरुड़के पंखोंका अपहरण किया है ? बताओ किसने जमकरणको नष्ट करना चाहा है ? किसने देवेन्द्रका मान चूर-चूर किया है, क्या उसने मन्दराचलके शिखरको उलटाया है ? किसने अपने हाथसे समुद्रका मन्थन किया है, होते हुए भाग्यको किसने प्रतिकूल कर लिया है ? दृष्टि और विषमुख किसने देखा है ? किसने हालाहल विष खाया है ? विश्वमें सूर्यको निस्तेज किसने बनाया ? मुझे किसने क्रोध उत्पन्न किया है ? आकाशतलके पार कोन जा सका है ? अपने बाहुबलके लिए अत्यन्त पर्याप्त कौन है ? क्या वह तलवारसे आहत होकर भी नहीं मरता ? हम नहीं जानते कि क्या वह वज्रमय है ? मुझे किसने यह तीर विसर्जित किया ? किसका क्षयका नगाड़ा बज उठा है ?
पत्ता-जिसने नागेन्द्रके समान अति दीर्घ लम्बा तीर छोड़ा है वह युद्धमें मुझसे मरेगा, भले ही वह देवेन्द्रकी शरणमें चला जाये ? ॥३॥ १. बायें पैर और घुटनेको धरतीपर रखकर, दूसरेके ऊपर उठाना वैशाख स्थान कहलाता है।
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इय तेण गज्जिय पिंछेहिं पत्तिय चित्तेण चित्तियेड हिययम्मि चिंतियउ गंधेहिं चचिय पुणेहिं संचिय वेरसंता
ता तमि लिहियाई णिज्जियदियंताई वाईसिअंगाई बिंदुयहिं चप्पिय वेल्ली वलियाई गाढं विसिट्ठाई
दिट्ठाई अरिसीहसरहस्स जो जियइ सो जियइ अइरेण अवयरइ पुणु पुणु वि जोएवि सह समियसमरेहिं
रणारहिं पुज्जियउ सो किंतु मणि रवि गउ हरिससुभीमगुहाहर हो दीes गिरिमेह लघुलियघणु णिज्झरजलदुद्धपवाहधरु
महापुराण
रइगारउ णावइ कुसुमसरु रसवंतु णा च पवरु बहुविमोहु णं मयरहरु बहुकंकणं महिमेहिलियरु
४
पुणु कज्जु सज्जिय । दित्तीइ दित्तीयउ । मंते मंतियउ । राएण घत्तिय । फुल्लेहिं अंचियेड | केण वि ण वंचियउ । अवलोइओ बाणु । सुरणियरमहियाई । परिछेयैवंताई ।
छंदानुलग्गाई ।
मत्तावियप्पियई ।
अक्खरइं ललियाई ।
सरसाईं मिट्ठाई ।
पिट्ठाई |
धत्ता - दिट्ठर चकवइ चमरहिं चामीयर दंडहिं ॥ रहिं मोतियहं पणवंतें जियभुय दंडहिं ||४||
आणाइ भरहस्स । इयरस्स खयणियइ ।
सुवि ध्रुवु मरइ | इय ते वाव । अवरहिं म अमरेहिं ।
५
हिमवंतु कुमारु विसज्जियउ । राण पुणु तिहुयणलद्धजउ । सई औउ वसहमहीहरहो । णं धरणिहि केरउ एक्कु थणु । रुि णाहलडिंभ हुं सोक्खयरु । मयवंतु णाइ कुपुरिसपसरु | बहुणावालंकि बहुविवरु | बहुफलपयासि णं पुण्णभरु । बहुओस हिल्लु णं भिसयवरु |
४. १. MK चितियउ । २. M अच्चियउ । ३. MP परिच्छेयवत्ताइं । ४. MBP पइट्ठाई । ५. MBP घुउ । ६. MBP अवरेहिं । ७. MBP पणवंतहि ।
५. १. MBP हिमवंत । २. B कि करंतु । ३. MBP आयउ । ४. M एक्क । ५. MBP णञ्च ।
६. MBP महिलयरु ।
[ १५.४. १
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१५.५.९]
हिन्दी अनुवाद
४
उसने इस प्रकार गर्जना की और फिर अपना काम सम्हाला । उसने वैरी परम्पराका अन्त करनेवाले बाणको देखा, जो पुंखोंसे पत्रित, दीप्तिसे दीप्त, चित्रसे चित्रित और मन्त्रसे मन्त्रित था, जो हृदयमें सोचा गया और राजा ( भरत ) के द्वारा छोड़ा गया था । गन्धसे चर्चित, फूलोंसे अंचित और पुण्योंसे संचित उसे कोई नहीं बाँच सका। तब उसमें लिखे हुए सूरसमूहके द्वारा महनीय, दिग्गजों को जीतनेवाले निर्णायक वागेश्वरी देवीके अंगस्वरूप छन्दोंमें रचित, बिन्दुओंसे युक्त मात्राओंसे रचित, पंक्तियोंमें मुड़े हुए सुन्दर, सघन रूपसे लिखे गये सरस और मीठे और इष्ट, सुन्दर अक्षरोंको उसने देखा । वे हृदय में प्रवेश कर गये । "शत्रुरूपी सरभके लिए सिंहके समान भरतकी आज्ञासे जो जीता है वही जीता है, दूसरेका क्षयकाल शीघ्र आ जाता है, यम भी निश्चित रूप से मरता है ।" बार-बार उस पत्रकी देखकर और इस प्रकार उसे पढ़कर युद्धको शान्त करनेवाले दूसरे देवोंके साथ
३३३
घत्ता - चामरों, स्वर्णंदण्डों, रत्नों, मोतियोंके द्वारा और अपने भुजदण्डों से प्रणाम करते हुए उसने चक्रवर्तीसे भेंट की ||४||
५
राजाने रत्नोंसे पूजा कर हिमवन्त कुमारको विसर्जित कर दिया । वह दासता स्वीकार कर चला गया । त्रिभुवनमें जय प्राप्त करनेवाला राजा भरत सिंहकी गर्जनासे भयंकर गुहारूपी घरवाले वृषभ महीधरके निकट आया । पहाड़की मेखलासे व्याप्त घन ऐसा दिखाई देता है, मानो धरतीका एक स्तन हो । निर्झरके जलरूपी दूधके प्रवाहको धारण करनेवाला जो भीलोंके बच्चोंके लिए अत्यन्त सुखकर है, कामदेवके समान रतिकारक है, कुपुरुषके प्रसारके समान मदवाला है, प्रवर नृत्यके समान रसमय है, बहुत-से नामोंसे अलंकृत बहुविवर ( बहुछिद्रवाला, बहुत श्रेष्ठ पक्षियोंवाला ) है । जो मानो वहुविद्रुमोघ ( प्रवालोध, विशिष्ट द्रुमोघ ) वाला समुद्र है, जो मानो बहुपुण्य प्रकाशित करनेवाला पुण्यका भार है, मानो अनेक कंकणवाला धरतीरूपी महिलाका
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१०
१०
१५
३३४
हरिसेविउ णं जिणु परमपरु । करिणमुसलणिभिण्णतणु सुरदाणवरमणीप्राणपिङ
महापुराण
णं को वि महाभडु रइयरणु । णं णिवजससासणखंभु थिउ ।
घत्ता—तहु महिहरउ तडु पन्छाइड चउहुं मि पासहिं । रलिक्खिरहिं गयपत्थिवणामसहासहि ||५||
क्खहु विण लब्भइ यत्ति जहिं मई जेहा पत्थव को गणइ परमेस महायणु जेण गउ पर फेडवि जिह घेप्पइ पुहइ ता बालमराललीलगइणा राएं राहु ओहारियउ करकागणिरेहादावियउ रिसहहु रइरमणखयंकर हो
६
मोक्खु व गिरिंदु मुणिगण महिउ । कामु लिहिज्जइ महु तणउ । tes वसुमधुत्तियइ । मोहु मुज्झइ तो वि मइ । जो हु पoas मुवि धर । हरं विडिउ सिरिपुण्णालियइ । मयमइरइ मत्ती मुच्छ गय । अहिसिंचिय मंगलघडसयहिं । जा छत्ते छाइय णउ णियइ । अंकुससंग किम वहइ ।
लव गणु पासि सरहो । आसतंपुरिस रावणिहि । वारिहि करिणीरय पीलु जिह | हुं अच्छइ । समउ ण गच्छइ ||६||
हिंदीस तहिं अक्खरस हिउ चितइ भरहा हिउ बहुगुणउ अण्णा रायहिं भुत्तियइ वोलाविय के के उ णिवइ tors परमेसरु एक्कु पर बहुणरवइकरयलला लियइ सत्तंगरेज्जभारेण हय धारागलंत लीलावयहिं जा विज्जिय चलघमरहिं जियइ असिवाणियकक्कसत्तु महइ चवलत्तणु कुलधयवर्डेवर हो सिक्खियउ जाइ तहि गोमिणिहि विडंति महंत विझत्ति किह घत्ता-ताएं भुत्त चिरु पुणु पुत्ते सहुं वसुमइ झेलिय जगि केण वि
७
किं णाउं लिहिज्जइ एत्थु तहिं । जे जे गय ते पुरोहु भणइ । सो पंथु जयमि ण केण केउ । तिह णामु वि फेडिज्जइ णिवइ । वीलाल मेलिणेण वि पइणा ।
हुका व उत्तारियउ । णियैणाउं गिरिंदि चडावियउ । हउं पुत्तु पढमैं तित्थंकर हो ।
७. MBP पाणपिउ ।
६. १. MBP इय । २. MB रज्जहारेण । ३. MBP असिपाणियं । ४. MBP वडधरहो । ५. MBP
परहो । ६. MF आसत्तु पुरिसु; B आसत्तपुरिसु । ७ MBPT झिदुलिय । ७. १. P किउ । २. MB "मलिणाणण वि पइणा; P मलिणाणणपणा । ४. MB पदमु ।
[ १५.४. १
३. MBP यिणामु ।
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१५.७.८]
हिन्दी अनुवाद हाथ है, जो मानो वैद्यकी तरह कई औषधियोंवाला है। जो मानो हरि सेवित (देवेन्द्र और सिंह) जिनवर हो । हाथियोंके दांतोंके मूसलोंसे आहत शरीर जो मानो कोई युद्ध करनेवाला महासुभट हो । देव, दानव और मनुष्योंकी पत्नियोंके लिए प्राणप्रिय जो मानो जिनवरके शासनका स्तम्भ स्थित हो।
पत्ता-उस महीधरका तट चारों ओरसे मनुष्योंके द्वारा लिखे गये अक्षरों और विगत राजाओंके हजारों नामोंसे आच्छादित था ।।५।।
जहां दिखाई देता है वहाँ अक्षर सहित है, वह पर्वत मोक्षकी तरह मुनिगणके द्वारा पूज्य है। बहुगुणी भरत अपने मनमें सोचता है कि मेरा नाम कहां लिखा जाये ? दूसरे-दूसरे राजाओंके द्वारा भोगी गयी इस धूतं धरतीके द्वारा कौन-कौन राजा अतिक्रमित ( त्यक्त ) नहीं हुए ? तब भी मोहान्ध मेरी मति मूछित होती है ? केवल एक परमात्मा धन्य हैं जो धरती छोड़कर प्रवजित हुए। अनेक राजाओंके हाथोंसे खिलायी गयी इस लक्ष्मीरूपी वेश्यासे मैं प्रवंचित किया गया। सप्तांग राज्यभारसे यह आहत है, मदरूपी मदिरासे मत्त और मूर्छाको प्राप्त है। धाराओंमें गिरते लीलारूपी जलोंवाले सैकडों मंगल घटोंसे अभिसिंचित है, जो चंचल चमरोंके द्वारा हवा की जाती हुई जीवित रहती है, जो छत्रोंसे आच्छादित होनेके कारण नहीं देख पाती, तलवारके जलकी कर्कशताको महत्त्व देती है । अंकुशके साथ टेढ़ी चलती है, कुलध्वजोंके श्रेष्ठ पदोंकी जो चंचलताको धारण करती है, और जो गुण छोड़कर दूसरेके पास जाती है। शिक्षित भी पुरुष इस धरतीमें आसक्त होकर नरकभूमिमें जाता है। बड़े-बड़े लोग भी शीघ्र किस प्रकार गिर पड़ते हैं जिस प्रकार हथिनीमें अनुरक्त हाथी गड्ढे में गिर पड़ता है।
घत्ता-पिताके द्वारा बहुत समय तक भोगी गयी, यह फिर पुत्रके साथ सुखपूर्वक रहती है। यह धरती वेश्याके समान किसीके भी साथ नहीं जाती ॥६॥
जहां एक नखके लिए भी स्थान नहीं है, वहां यहां मैं अपना नाम कहाँ लिखू ? मेरे-जैसे राजाको कोन गिनेगा, जो-जो राजा जा चुके हैं, उन्हें पुरोहित कहता है ? जिस रास्ते परमेश्वर महाजन (ऋषभ ) गये हैं, जगमें उस मार्गका अनुसरण किसीने नहीं किया। दूसरेको नष्ट कर जिस प्रकार धरती ग्रहण की जाती है हे राजन्, उसी प्रकार नाम भी मिटाया जाता है। तब बालहंसके समान लीलागतिवाले तथा लज्जारूपी मलसे मलिन स्वामी राजाने किसी राजाकी अवधारणा अपने मन में की और किसी दूसरे राजाका नाम उतार दिया (मिटा दिया ), तथा हाथके कागणी मणिकी रेखासे प्रदीप्त अपना नाम पहाड़पर चढ़वा दिया कि "मैं कामका क्षय
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१५
१०
३३६
९.
णामेण भरहु भरहाहिवइ हिमवंत जलहिपेरंत सईं तातियसहि साहुकारियउ पई जेह को विण चक्कवइ
अग्ग धावs कमलकरि दालिहारि किर कासु वसु अस का इरिविसय रु पइ मेल्लिवि णाणहु कवणु घरु घत्ता-रूवें विक्कमेण गोत्र्त्ते वले तुज्झु समाणु तुहुं किं अणें
१०
महापुराण
ससिरयणमए
उववणगहिरे
खगणिय रहरे विसइ गुणिणी
बोल पर महियलि अत्थि जइ । छक्खंड वि णिज्जिय वसुह मई । भरसरु जयजयकारियउ । को एम ससंकि गाउं थवइ । कमलालव कमलाणणिय सिरि । जिजगत्तगामि किर कासु जसु । पईं मेल्लिवि को किर कप्पयरु । पप्पुका देउ पिरु ।
"यजुयते ॥ माणुसमेते ||७||
८
सरवरजलकीलियसारसयं काणणपरिहिंडिय कुंजरयं फलभारोणयसुरतरुविडवं ओस हिओसारियविसहरयं मोत्तूर्णं तममलं धरणिहरं चलियं सह पहुणा पउरहयं अहिमाणवंतु णीसंकमइ हिमवंत लेण जि चिक्कमइ गोग हरि करिमसियल णियवsहि णिहालिवि चंदबलु जगसंसियअसिधारासियहिं घत्ता - दीसइ पंडुरउ हिमवंतसिहरि सिंगग्गउं ॥ भरहुतउं जसविलसिउं सग्गि विलग्गउं ||८||
दरिसावियचं पयसारसयं । गणगणविगणिकुंजरयं । रइयरेणिलयहिं खेयरविडवं । वणसुरहिसमीहियविसहरयं सधयं सेण्णं परधरणिहरं । सारहिकर कसचोइ रहयं ।
दिसभाएं संकमइ । दियहिं जंतु वसुहं कमइ । अबठभिवि रुंभिवि महि सयल । मंदाइणिपुलिइ थियउ वलु । अणु विखंधारासियहिं ।
९
परिभमियम | विरह सुरसरिसिहरे । अमरेवरमणी ।
५. P बहुअग्गइ । ६. M दारिद्दहरि । ७. MBP तिजगंत । ८. MBP वइरिवीरंतयरु | ९. MBP परमप्पु । १०. MB कुलेण । ११. MBP णयजुत्तें ।
८. १. MBPT लिएहिं । २. MP add after this : सिंगग्गवत्तु धुयविसहरयं, जं सहइ चक्कि - जसविसहरयं; सई सेवियविसहरसेहरयं, महिवहुसिरि णं मणिसेहरयं B adds after this : सई सेवियविसहर से हरयं, सिंगग्गवत्तु धुयविसहरयं; जं सहइ चक्किजसविसहरयं, महिवहुसिरि णं मणिसेहरयं । ३. MBP मोत्तूणं तलमलघरणिहरं । ४. MP परयरणिहरं । ५. MBP मणुर्याह ।
१. MK अमरवररमणी but T अमरवइरमणी ।
[ १५.७.९
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१५.९.४]
हिन्दी अनुवाद करनेवाले प्रथम तीर्थंकर ऋषभ जिनका पुत्र हूँ, नामसे भी भरत, जो धरतीतलपर श्रेष्ठ भरताधिपति कहा जाता है, और मैंने हिमवन्त समुद्र पर्यन्त छह खण्ड धरतीको स्वयं जीता है।" तब देवोंने साधुकार किया और भरतका जयजयकार किया कि तुम्हारे समान कोई चक्रवर्ती नहीं है, कौन इस प्रकार चन्द्रमामें अपना नाम अंकित करता है, कमल हाथमें लिये कमलमें निवास करनेवाली और कमलमुखी लक्ष्मी किसके आगे-आगे दौड़ती है ? किसका धन दारिद्रयका अपहरण करनेवाला है? किसका यश त्रिलोकगामी है? किसकी तलवार शत्रका ध्वंस करनेवाली है ? तुम्हें छोड़कर कौन कल्पवृक्ष है ? तुम्हें छोड़कर ज्ञानका घर कौन है ? और किसका पिता परमात्मा देव है ?
___ पत्ता-रूप, विक्रम, गोत्र, बल और न्याय-युक्तिमें तुम तुम्हारे समान हो दूसरे मनुष्य मात्रसे क्या? ॥७॥
जिसमें (पर्वतमें ) सारस सरोवरोंमें क्रीड़ा कर रहे हैं, चम्पक वृक्षोंकी लक्ष्मी दिखाई दे रही है, काननमें गज परिभ्रमण कर रहे हैं, कुंजोंका पराग आकाशके आंगनमें छा गया है, कल्पवृक्ष फलोंके भारसे नत हो गये हैं, सुखकर लतागृहोंमें विद्याधर विट हैं, औषधियोंसे नाग हटा दिये गये हैं, वन सुरभियां (गायें ) वृषभरतिको चाह रही हैं, ऐसे उस स्वच्छ पर्वतको छोड़कर, ध्वज सहित दूसरोंकी धरती छीननेवाली, प्रचुर अश्वोंवाली और सारथियोंके द्वारा होके गये रथोंसे युक्त सेना अपने प्रभुके साथ चली। अभिमानी और निःशंक मति वह पूर्व दिशाको ओर प्रस्थान करता है। वह हिमवन्तके तलभागसे जाता है। और जाते हुए कुछ ही दिनोंमें धरतीका अतिक्रमण कर जाता है। जिसमें गो. गर्दभ. गज और महिषदल हैं. ऐसी समस्त भमिका आश्रय लेकर और रौंधकर सैन्य अपने स्वामीका चन्द्रबल देखकर मन्दाकिनी नदीके किनारे ठहर गया। विश्वमें प्रसिद्ध तलवारोंकी धाराओंके समान निर्मल राजाको छावनियोंमें स्थित अनुगामी सैनिकोंसे
___घत्ता-हिमवन्त पहाड़के शिखरका सफेद अग्रभाग ऐसा दिखाई देता है मानो भरतका स्वर्गमें लगा हुआ यशविलास हो ॥८॥
जो चन्द्रकान्त मणियोंसे युक्त है, जिसमें पशु विचरण करते हैं, जो उपवनोंसे गम्भीर है, जिसमें बादलोंसे रहित घर हैं, जो पक्षि-कुलको धारण करती है, ऐसी गंगाके शिखरपर गुणी
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३३८
महापुराण
[१५.९.५
चलहारमणी
जणमणदमणी। छणससिवयणा
कुवलयणयणा। वरगयगमणा
कयजिणण्हवणा। पविउलरमणा
पीवेरसिहिणा। पंकैयचलणा
सिरकयसुमणा। पसरियपुलया
वणसुरकुलया। विरइयतिलया
मसियणिलया। णरणवियपया
चलमयरधया। मुणिमइविमला
हिमकरधवला। घत्ता-गंगा णाम सइ सरसंदरिणयणपियारी।
रूवें जोव्वणेण देवाहं मि विम्हयगारी ।।९।।
परवइचरियं
गुणविप्फुरियं हियेए धरियं
चलिया तुरियं । तिवलितरंगा
देवी गंगा। णिवसामीवं
पीणियभावं। पत्ता धीरा
सालंकारा। मुवणपसत्था
मंगलहत्था। दुत्थियमित्तो
परहियजुत्तो। जगगुरुपुत्तो
पंकयणेत्तो। उत्तमसत्तो
गुरुयेणभत्तो। जायविवेओ
भावियभेओ। ढोइयदाणो
कयसंमाणो। खलकुलचंडो
दावियदंडो। भासियसामो
ससिरविधामो। रामाकामो
पायडणामो। हयसिरिविरहो
दिट्ठो भरहो। भत्तिभराए
कुसुमकराए। थोत्तगिराए
णवियसिराए। दिण्णासीए
पुणरवि तीए। घत्ता-वरुणदिसासियहो णं पुण्णिमाइ ससिकंदहो ।
अमयभरिउ कलसु पल्हत्थिउ सीसि णरिंदहो ॥१०॥ २. K omits पीवरसिहिणा । ३. K omits पंकयचलणा । ४. MBP विभयं । १०. १. MBP हियवइ । २. Kगुणयणभत्तो ।
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३३९
१५. १०. २०]
हिन्दी अनुवाद इन्द्राणी निवास करती है। चंचल हारमणिवाली जो लोगोंके मनका दमन करनेवाली है। पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान मुखवाली जो कमलनयनी है। उत्तम गजके समान चलनेवाली, जिनेन्द्र भगवान्का अभिषेक करनेवाली, अत्यन्त सुन्दरी स्थूल स्तनोंवाली, कमलोंके समान चरणवाली, सिरमें फूल गूंथनेवाली, प्रसरित पुलकवाली, व्यन्तरकुलमें उत्पन्न हुई, तिलकको रचनावाली, कामदेवकी घर, जिसके चरणोंपर नर नत हैं, ऐसी चंचल मकरध्वजवाली, मुनियोंकी बुद्धिके समान पवित्र हिम-किरणोंकी तरह धवल
घत्ता-गंगा नामकी नेत्रोंको प्यारी लगनेवाली सती सुरसुन्दरी थी, जिसने अपने रूप और यौवनसे देवोंको आश्चर्यमें डाल दिया था ||९||
१०
नरपतिके गुणोंसे विस्फुरित चरितको हृदयमें धारण कर, त्रिवलो तरंगोंवालो देवी गंगा तुरन्त चली। सालंकार धीर भुवनमें विख्यात मंगल हाथमें लेकर वह प्रीतिभावसे राजाके समीप पहुँची । दुःस्थितोंके मित्र, परकल्याणसे युक्त विश्वगुरुके पुत्र, कमलनयन, उत्तम सत्त्ववाले, गुरुजनोंके भक्त, विवेकशील, भेदको जाननेवाले, दानकर्ता, संग्राम करनेवाले, दुष्टकुलके लिए प्रचण्ड, दण्डका प्रदर्शन करनेवाले, कान्ति और लक्ष्मीके स्वामी, रमणियोंके द्वारा काम्य, प्रकटनाम, लज्जाकी श्रीसे रहित भरतको उसने देखा। फिर भक्तिसे भरी हुई कुसुम हाथमें लिये हुए, स्तोत्रोंकी वाणीमें प्रणाम करते हुए, आशीर्वाद देते हुए उस स्त्रीने.. घत्ता-राजाके सिरपर अमृतसे भरा हुआ कलश इस प्रकार उड़ेल दिया मानो पश्चिम दिशामें स्थित चन्द्रमापर पूर्णिमाने कलश उड़ेल दिया हो ॥१०॥
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३४०
महापुराण
[१५.११.१
११
कड़उल्लउ कडयोणंदु करे
कर मउलिवि मैउलु वि णिहिउ सिरे । मणहारु हारु णीहारणिहु उरबंधु बंधु माणिकसिहु। हिमवंतसिहरिसिहरेसरिए दिण्णउ देविइ सुरवरसरिए । जिह बंभसुत्तु तिह बंभसुए ण सहइ परम्मि आयारचुए। रसणा महुरसणा घंटियहिं
मालो अलिमालालंटियहि । सोहंती दिण्णी णरवइहि
उल्लंघियचउसायरवइहि । पंतीउ विइण्णउ सुरयणहं
रंजिउ हियउल्लउ सुरयणहं । छत्तई सयवत्तई सिरिलयहे वत्थई णेवत्थई भणमि तहे । घत्ता-इय गेण्हिवि विवेण मणहरमराललीलागइ।
पुजिवि पट्टविय णियभवणु गय गंगाणइ ।।११।।
१२ पहु विजयलच्छिआलंगियउ भणु केण ण दंसणु मग्गियउ। सुरसरि साहेप्पिणु णीसरइ बलु दिण्णदाणु कयणीसरइ। सरितीरेण जि पुणु संचरइ हा हरिणवंदु तहिं किं चरइ । जहिं धूलि होति गिरि तरुवर वि उल्ललियरओहें रहिउ रवि । सरि छज्जइ उग्गयपंकयहिं । बलु छज्जइ चित्तछत्तसयहिं । सरि छज्जइ हंसहिं जलयरहि बलु छज्जइ धवलहिं चामरहिं । सरि छज्जइ संचरंतझसहिं बलु छज्जइ करवालहिं झसहिं । सरि छज्जइ चक्कहिं संगयहिं
बलु छज्जइ रहचकहिं गयहिं । सरि छज्जइ सरतरंगभरहिं बलु छज्जइ जलतुरंगवरहिं । सरि छज्जइ कीलियजलकरिहिं बल छज्जइ चल्लियमयकरिहिं । सरि छज्जइ बहुजलमाणुसहिं बलु छज्जइ किंकरमाणुसहिं । सरि छज्जइ सयडहिं सोहियहिं बलु छज्जइ सयडहिं वाहियहिं । घत्ता-जिह जलवाहिणिय तिह "महिवइवाहिणि सोहइ ॥
"महिहरभेयणिहिं "एयहिं किं किर को णउ बीहइ ।।१२।। ११. १. MBP कडयाणंद । २. B मउलिवि । ३. MB मणहार । ४. MB°सिहरसिहरे । ५. B मालइ ।
६. B पत्तीउ। १२. १. MBP°आलिंगियउ । २. MBP दिण्णदाण । ३. MBP हरिणविंदु किं तहिं । ४. MBP गय ।
५. MBP चिंधछत्त । ६. M चक्कहिं हंसगयहिं । ७. P तरंगतरहि, but gloss तरङ्गसमूहः। ८. M adds after this : बलु छज्जइ कीलियजलकरिहिं, which obviously is the scribe's mistake. ९. MB कि किर। १०. MBP णिववर। ११. M महिहरभोयणिहिं । १२. MBP एयह किर।
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१५. १२. १४]
हिन्दी अनुवाद
३४१
११
सैन्यको आनन्द देनेवाला कड़ा हाथमें, और हाथ जोड़कर सिरपर मुकुट रख दिया। नोहारके समान सुन्दर हार और माणिक्योंका ब्रह्मसूत्र हिमवन्त पर्वतकी शिखरेश्वरी देवी गंगा नदीने दिया। जिस प्रकार ब्रह्मसूत्र ब्रह्मपुत्रको शोभा देता है, आचारसे च्युत दूसरे आदमीको शोभित नहीं होता। दी गयी क्षुद्रघण्टिकाओंसे गूंजती हुई करधनी, भ्रमरमालासे निनादित सुमनमाला, चारों समुद्रपतियोंका अतिक्रमण करनेवाले राजाको शोभा देती है। देवरत्नोंकी मालाएँ दी गयीं। देवजनोंके हृदय प्रसन्न हो गये । कमल ही उस लक्ष्मीलता गंगाके छत्र, वेष और वस्त्र थे।
घत्ता--इस प्रकार उन्हें ग्रहण कर राजाने सुन्दर हंसके समान चालवाली गंगानदीकी पूजा कर उसे भेज दिया, वह अपने घर चली गयी ॥११॥
१२ विजयरूपी लक्ष्मीसे आलिंगित उस स्वामीका दर्शन बताओ किस-किसने नहीं मांगा। गंगानदीको प्रसन्न कर दरिद्रोंसे प्रेम करनेवाला और दान देनेवाला सैन्य वहांसे कूच करता है। हरिणसमूह वहां क्या चर सकता है, कि जहाँ वृक्ष और पेड़ धूल हो जाते हैं, उछलती हुई धूलसे सूर्य ढक गया है। उगे हुए कमलोंसे नदी शोभा पाती है और सेना रंग-बिरंगे सैकड़ों छत्रोंसे । नदी, हंसों और जलचरोंसे शोभा पाती है, और सेना धवल चमरोंसे। नदी शोभित है, तैरती हुई मछलियोंसे, और सेना शोभित है तलवारों तथा झस अस्त्रोंसे । नदी शोभित है संगत जलावर्तोंसे, सेना शोभित है रथचक्रों और गजोंसे । नदी शोभित है स्वरों और तरंगोंके भारसे, सेना शोभित है श्रेष्ठ जल तुरंगोंसे । नदी शोभित है क्रीड़ा करते हुए जलगजोंसे, सेना शोभित है चलते हुए मैगल गजोंसे । नदी शोभित है बहु जलमानुसोंसे, सेना शोभित है किनर मानुसोंसे। नदी अपने तटोंसे शोभित है, सेना शोभित है चलाये हुए शकटोंसे।
__ घत्ता-जिस प्रकार जलवाहिनी ( नदी ) शोभित है, उसी प्रकार महीपतिवाहिनी ( राजाकी सेना) शोभित है। महीधरों (पर्वतों) का भेदन करनेवाली इन दोनोंसे कहाँ कौन नहीं डरता ? ॥१२॥
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३४२
महापुराणे
[१५. १३.१
अक्खिउ णिग्गमणपवेसु जहिं पत्तउ णरणाहु दिणेहि तहिं । वेयड्ढगिरिंदहु पच्छिमहे । जिह आसि तिमीसहि दुग्गमहे । मृगमग्गलग्गअलियनियहि कंडयगुहाहि पुब्विल्लियहि । तैहि णियडउ सेण्णु णिसण्णु किह। ण विलग्गइ गिरिकुँहरुम्ह जिह, । णिहिणाहें भणिउ बलाहिवइ तुहु जोग्गउ पेसणु दिण्णु लइ। हणु दंडे पुणु वि कवाडु तिह विहडेप्पिणु वच्चइ झत्ति जिह । पञ्चंतु पसाहिवि एहि लहु
जज्जाहि तुरयसेण्णेण सहु । छम्मास वसेवउ एत्थु मई जाएसमि पडिआएण पइं। असिजलधाराधुयजसवडेण ता चमुपमुहेण महाभडेण। घत्ता-पुत्वकमेण पुणु हरिर्रयण चडेवि पयंडे ॥
आरूसिवि हयउ गिरिगुहकवाडु पविदंडे ॥१३॥
१४
जिणदंसणि जिह दुक्कियपडलु जिह दिवसयरुग्गमि तिमिरमलु । जिह सुद्धसहावें मयणसरु जिह पिसुणे दूसिउ णेहभरु । सुकइंदसमागमि कुकइ जिह विहडिउ कवाडु फुडु झत्ति तिह। तहिं सद्दु भीमु जो णीहरिउ तहु भइयइ को वि ण थरहरिउ । तेत्थु जि सिहरत्थलि रइयपुरु सिरिणट्टमालि णामेण सुरु । पडिहार रायहु दरिसयउ कमकमलालोयणहरिसियउ । बलवइणा साहिय मेच्छमहि वसि हुई तहु जयलच्छिसहि । आवेवि णमंसिय पहुहि पय तहिं णिर्वसंतहुं छम्मास गय । घत्ता-ण वर गुहाकुहरु णरवइगइजोग्गउ जायउ॥
सव्वहं सीयलउ णं दीसइ कज्जु परायउ ॥१४॥
ता मंतिहिं गुज्झ ण रक्खियउ परमप्पयतणयहु अक्खियह अक्खिय । तुह माउयाहि मंथरगइहि । ते दोणि वि भायर जसवइहि । णामें णमि विणमि कुमारवर गंभीर धीर रणभारधर । णहयरवइ हूया अवियलहे णिवसंति एत्थु गिरिमेहलहे।
हल्लियसाहाफुल्लियवणई पण्णास सहि खगपट्टणई। १३. १. M णिग्गमणु । २. MBP मिग। ३. MBPK तिह । ४: MB°कुहरुंभ; P कुहरुभु; K कुहर्रम्ह ।
५. MBP पुवकवाडु । ६. P जाजाहि । ७. MBP तुरिय सेंण्णेण । ८. MBP हरिरयणि । १४. १. MBP णीसरिउ । २. MBP को व ण । ३. MBP लोयणि । ४. MBP णिवसंतहिं । ५. P
"जोग्गा। १५. १. MBP गुज्झु ।
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१५. १५.५]
हिन्दी अनुवाद
१३ जहाँपर निर्गम प्रवेश कहा जाता है, कुछ दिनोंमें राजा वहां पहुंचा। विजयाधं पर्वतकी दुर्गम पश्चिम दिशामें जहाँ तिमीस गुहा थी। मृगोंके मार्गमें लगे हुए हैं व्याघ्र जिसमें ऐसी पूर्वकी कंडय गुहाके निकट सैन्य इस प्रकार ठहर गया, मानो जैसे गिरिकुहरकी ऊष्मा हो। निधियोंके स्वामीने सेनापतिसे कहा-'लो तुम्हारे योग्य आदेश दे रहा हूँ, दण्डरत्नसे किवाड़को फिर इस प्रकार आहत करो जिससे वह खुलकर रह जाय । तुरग सेनाके साथ शीघ्र जाओ और इस प्रत्यन्त देशको सिद्ध कर शीघ्र आओ। मैं यहां छह माह रहूँगा और तुम्हारे लौटनेपर जाऊँगा।" तब असिधाराके जलसे अपने यशरूपी वस्त्रको धोनेवाले सेनाप्रमुख महायोद्धाने
पत्ता-पूर्व क्रमके अनुसार अश्वरत्नपर चढ़कर और क्रुद्ध होकर वज्रदण्डसे गिरिगुहाके किवाड़को आहत किया ॥१३॥
१४
जिस प्रकार जिन भगवान्के दर्शनसे पापपटल, जिस प्रकार सूर्यके उद्गमसे अन्धकार-मल, जिस प्रकार शुद्ध स्वभावसे काम, जिस प्रकार दुष्टतासे स्नेहभार दूषित होता है, जिस प्रकार
के समागमसे कुकवि विघटित हो जाता है, उसी प्रकार शीघ्र वह किवाड़ विघटित हो गया। वहां जो भयंकर शब्द हुआ उसके भयसे कौन नहीं थर्रा उठा? वहीं शिखरस्थल पर श्रीनृत्यमाल नामका देव अपना घर बनाकर रहता था। प्रतिहारने उसे राजाको दिखाया, वह चरणकमलोंको देखकर प्रसन्न हो गया। सेनापतिने म्लेच्छ धरती सिद्ध कर ली और उसे विजयलक्ष्मीकी सहेली सिद्ध हो गयी। आकर उसने प्रभुके चरणोंमें नमस्कार किया। वहाँ रहते हुए भरतके छह माह बीत गये।
पत्ता-लेकिन वह गुहाकुहर राजाके जानेके योग्य नहीं हो सका। उसे सब कुछ शीतल दिखाई दिया, जैसे पराया कार्य हो ॥१४॥
तब मन्त्रियोंने राजासे कुछ भी छिपाकर नहीं रखा और परमात्मा (ऋषभ ) के पुत्र (भरत ) से कहा, "तुम्हारी मन्थरगतिवाली माता यशोवतीके वे दो भाई हैं, कुमारवर, नामसे नमि और विनमि, धीर-वीर और युद्धभार उठानेमें समर्थ वेइस अविचल गिरिमेखला ( पर्वत
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३४४
महापुराण
उद्दामहंगामहं तेत्तियउ
कोडिउ धरणेण विहत्तियउ । मुंजंति रमति गमति दिणु पणवंति तुहारउ जणणु जिणु । तं णिसुणिवि भूसियसमरधुर पहुणा पेसिय गणबद्ध सुर । गय तेहिं भणिय खयराहिवइ छक्खंडमंडलावणिविजइ । महियलि उप्पण्णउ चक्कवइ । जो रिसहणाहु मुवणाहिवइ । तहु पुत्तु भरहु लहु अणुसरहो अहिमाणु मडप्फरु परिहरहो । घत्ता-पत्थिववित्ति जइ णउ सयणवित्ति पडिवज्जइ ।।
गुरुहुं सडिंभेहं मि दोसिल्लहं दंडु पउंजइ ॥१५॥
२
तो बंधुणेहभउ भावियउ खयरिंदहिं कज्जु विहावियउ । हियउल्लउ धीरु वि कंपियउ पणएण णएण पयंपियउ । तणुतेयपूरपिंगलियणहु
जिह देवदेउ तिह पुणु भरहु । अम्हहं आराहणिज्जु हवइ भणु तवणहु उप्परि को तवइ । भणु जलणहु उप्परि को जलइ भणु पवणहु उप्परि को चलइ । भणु मोक्खहु उप्परि कवण गइ भणु भरहहु उप्परि को नुवइ । इय घोसिवि ताई विसजियई आयई अमरउलई पुज्जियइं। तूरई गुरुरवई वियंभियई
कुलचिंधसयाई समुब्भियई। चोइय हरिकरिवरसंदेणई आहूयई णियणियपरियणई। खणि वे वि सहोयर णीह रिय दिभित्तिचित्तजाणहिं भरिय। घत्ता-खेयरकिंकरहिं परिवारिय देव समाणहिं ॥
जहिं णिवसइ णिवइ तहिं आइय रयणविमाणहिं ॥१६।।
मउलियकरहिं पणवियसिरेहि पहु बोल्लि उ णमिविणमीसरेहिं । अम्हारउ णिव कुलसामि तुहुँ पई दिट्ठह णयणहं होइ सुहुँ। पई दिइ आवइ ओसरह पई दिट्ठइं घरि सिरि पइसरइ । तुह तायहु हयवम्मीसरहो आएसें परमजिणेसरहो। चामीयरमणिणिम्मियधरई अइरम्मई खेयरपुरवरइं। अहिराएं आसि विइण्णाई जइ एवहिं पई पडिवण्णाई। तो मुंजहुँ णं तो 'तुहुँ जि लइ अम्हहं पुणु देइयंबरिय गइ । तं णिसुणिवि राएं भासियउ अप्पाणउं जंण विणासियउ । मेहु आणावयणु ण णिरसियउ तं तुम्हहिं चंगउ ववसियउ । २. P सडिंभरहं। १६. १. MBP ता । २. MBP णिवइ । ३. P दंसणइं । ४. MBP णीसरिय । ५. M दिहिभित्तिचित्तं;
B दिहिचित्तिचित्तं; P दिभित्तिहि । ६. MBP अमरविमाणहिं । १७. १. M आवय । २. MBP तुहुं मि लइ । ३. MB दईयंबरिय । ४. B णु । ५. B पहुं ।
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१५. १७.९] हिन्दी अनुवाद
३४५ श्रेणी ) के विद्याधरपति होकर रहते हैं। झुकी हुई शाखाओं और खिले हुए वनोंवाली यहाँ पचास साठ विद्याधर पट्टियां हैं। और वह उतने ही करोड़ उद्दाम गांवोंको धारण करनेके कारण विभक्त हैं। वे ( दोनों भाई ) वहाँ भोग करते हैं, रहते हैं, दिन बिताते हैं और तुम्हारे पिता ऋषभ जिनको प्रणाम करते हैं।" यह सुनकर राजा भरतने युद्धकी धुरासे अलंकृत गणबद्ध सुर वहां भेजे । वे गये। और उन्होंने विद्याधरपतिसे कहा कि छह खण्ड भूमिमण्डलका विजेता चक्रवर्ती राजा भूमितलपर उत्पन्न हो गया है। और जो भुवनाधिपति ऋषभनाथ है, उसके पुत्र भरतका तुम शीघ्र अनुगमन करो, अभिमान और घमण्ड छोड़ दो।
धत्ता-यदि पार्थिववृत्ति नहीं, तो स्वजनवृत्ति स्वीकार कर लो, क्योंकि दोषी चाहे गुरु हों या अपने गोत्रवाले, वह दण्ड प्रयोग करता है ॥१५॥
१६
तब वे बन्धके स्नेह और भयको समझ गये। विद्याधर राजाओंने अपना काम समझ
उनका धीर हृदय भी कांप गया। उन्होंने प्रणय और न्यायसे निवेदन किया-"अपने शरीरके तेजके प्रवाहसे आकाशको पीला कर देनेवाले देवदेव ऋषभ जिस प्रकार हैं, उसी प्रकार भरत भी हम लोगोंके लिए आराध्य हैं, बताओ सूर्यके ऊपर कौन तपता है ? बताओ आगके ऊपर कौन जलता है ? बताओ पवनके ऊपर कौन चलता है ? बताओ मोक्षके ऊपर कौन-सी गति है ? बताओ भरतके ऊपर कौन राजा है ?" यह घोषित करनेपर उसके द्वारा विसर्जित पूजनीय अमरकुल आये, महाशब्दवाले नगाड़े बज उठे। सैकड़ों कुलचिह्न उठा लिये गये; अश्व, गज और रथ हांक दिये गये। अपने-अपने परिजनोंको बुला लिया गया। शीघ्र ही वे दोनों भाई निकले, दिशारूपी दीवालोंके चित्रयानोंसे भरे हुए।
घत्ता-विद्याधरोंके अनुचरों, घिरे हुए अपने रत्नविमानोंसे मानवाले वे वहाँ आये, जहाँ राजा निवास कर रहा था ।।१६॥
हाथ जोड़े हुए और सिरसे प्रणाम करते हुए नमि और विनमि राजाओंने राजासे कहाहे नृप, आप हमारे कुल स्वामी हैं, आपको देखनेसे हमारी आँखोंको सुख मिलता है, आपको देखनेसे आपत्ति दूर हो जाती है, आपको देखनेसे लक्ष्मी घरमें प्रवेश करती है । कामदेवको नष्ट करनेवाले परम जिनेश्वर तुम्हारे पिताके आदेशसे स्वर्ण और मणियोंसे निर्मित घरोंवाले अत्यन्त रमणीय विद्याधर-पुरवर, अत्यन्त स्नेहके कारण, हमें दिये गये थे, यदि इस समय आप इन्हें देते हैं तो हम इनका भोग करते हैं, नहीं तो आप ही इनको ले लें, हम फिर दिगम्बर दीक्षा ग्रहण करते हैं।" यह सुनकर राजा बोला, "जो तुमने अपनापन नष्ट नहीं किया, मेरे आज्ञावचनको नहीं
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महापुराण
[१५.१७.१० जिह मउडुग्गयचूडामणिणा चिरयालि महायरेण फणिणा। तिह एवहिं मह वि समप्पियई पालहि खेयरणयरई पियई। घत्ता-जिणवरणंदणहो बलवंतहु रिद्धिसणाहहो ।
णमिविणमीसरेहिं पडिवण्ण सेव णरणाहहो ।।१७।।
१८
रायहु कंपावियतिहुयणहो पणवेप्पिणु गय सणिहेलणहो । ते बंधव सिरिधव पट्ठविवि रणधीरइं वइरइं णिट्ठविवि । संचल्लइ डोल्लइ धरणियलु उद्धरियसूलकरवालहलु । मरुचलियलुलियचलचिंधैबलु गुहदारि उदारि ण माइ बलु । णउ जंपइ कंपइ फणिणिवहु पहु वञ्चइ णञ्चइ तियसवहु । पउ गुप्पइ घिप्पइ आहरणु । परिघोलइ लोलइ पंगुरणु । अइमल्हइ मेल्लइ सद्दु करि रहु थक्कइ वंकइ कंछ हरि । तहु दाणे फेणे समिय रय चिक्खल्लँइ खोल्लइ खुत्त पय । घत्ता-बंदिण पढिएहिं जयणंदवड्डणिग्योसहिं ।।
गज्जइ गिरिविवरु वज्जतहिं पडहसहासहिं ॥१८॥
जणु जूरइ पूरइ मग्गु ण वि णरलिहियउ णिहियउ चंदु रवि । कोगिणियइ घणियइ मट्टियइ अंधारवियारविहट्टियइ। उज्जोयउ जायउ उज्जलउ
खंधारु वीरु धारियपुलउ । संकेमेण कमेण जि संचरइ सैरभरियउ सरियउ उत्तरइ । तहु कुहरहु कुहरहु णिग्गयउ केलासगिरीसहु लहु गयउ । सुरणियरहिं खयरहिं परियरिउ णिज्झरझरंतवारिहिं भरिउ । गंधव्वहिं भव्वहिं सेवियउ सिहिजालहिं चवलहिं तावियउ । तरुजालहिं णीलहिं छाइयउ कइबुक्कारेहिं णिणाइयउ । घत्ता-सो महिहरपवरु दीसइ गयणंगणि लग्गउ ।।
महिकामिणिहि मुयदंडु पदंसियसग्गउ ॥१९॥
जो अच्छरचित्तालिहियसिलु विसहरसिररयणारुणियबिलु । जो दरिसियसीहसिलिंबसुहु सदूलपसाहियरुंदगुहु।
जहिं दि?ई द्रुमसाहागयई किंणरवीसरियहारसयइं। १८. १. P कंपाविउ । २. MBP रणवीरई । ३. P°चिंघउलु । ४. MBT उयारि, P उयरि । ५. B वंचइ
णंचइ। ६. M खंध; BP कंधु । ७. MBP चिक्खिल्लइ । ८. MBP वद्ध । ९. P गिज्जइ। १९. १. MBP कागणियह मणिमइ । २. MB सकमेण । ३. MBP जलभरियउ। ४. MB णिण्णाइयउ । २०. १. MBP मुहु । २. MBP दीसहिं दुम ।
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१५. २०.३]
हिन्दी अनुवाद
३४७
टाला, यह तुमने अच्छा किया। मुकुटमें उत्पन्न है चूड़ामणि जिसके, ऐसे महादरणीय धरणेन्द्रने पूर्वकालमें जिस प्रकार समर्पित किये थे, उसी प्रकार में भी समर्पित करता हूँ, अपने प्रिय विद्याधर नगरोंका तुम पालन करो ।”
इस प्रकार नमि और विनमीश्वरके द्वारा जिनवरके पुत्र बलवान् और ऋद्धिसे सम्पन्न नरनाथ भरतकी सेवा स्वीकार कर ली गयी ॥१७॥
१८
1
वे दोनों त्रिभुवनको कँपानेवाले राजाको प्रणाम कर अपने घर चले गये । लक्ष्मीके स्वामी अपने उन दोनों भाइयोंको भेजकर तथा युद्धमें धीर शत्रुओंको नष्ट कर जिसने शूल, करवाल और हल उठा रखा है और जो हवासे चलते-उड़ते चंचल ध्वजोंवाला है, ऐसा सैन्य चलता है, धरती हिल जाती है। उधर गुहाद्वारमें सैन्य नहीं समाता । नागसमूह काँप उठता है परन्तु कुछ कहता
प्रभु चलता है, देववधू नृत्य करती है । पैर जमाती है, आभरण ग्रहण करती है, घूमती है, साड़ी हिलाती है । हाथी धीरे-धीरे चलता है, ओर शब्द करता है, रथ रुक जाता है, ओर घोड़ा गर्दन टेढ़ी करता है । गजके दान ( मदजल ) और घोड़ेके फेनसे रज शान्त हो जाती है । परन्तु कीचड़ भरे गड्ढे में पैर फँस जाता है ।
घत्ता – वन्दीजनोंके द्वारा पठित जय हो, प्रसन्न रहो, बढ़ो, आदि शब्दोंके घोषों और बजते हुए सहस्रों नगाड़ोंसे गिरिविवर गरजने लगता है || १८ ||
१९
लोग पीड़ित हो उठते हैं, परन्तु मार्ग समाप्त ही नहीं होता । तब मनुष्यके द्वारा लिखित सूर्य-चन्द्र रख दिये गये, अन्धकारके विकारको नष्ट करनेवाली मट्टिय कठिन कागणीमणिके द्वारा उजला प्रकाश कर दिया गया । स्कन्धावार और वीर भरत पुलकित हो उठा। वह सेतुबन्धके द्वारा क्रमसे चलता है और जलसे भरी हुई नदी पार करता है । उस पर्वतकी गुफासे निकलकर शीघ्र ही वह कैलास गिरीशपर पहुँच गया । सुरसमूहों और विद्याधरोंसे घिरा हुआ निर्झरोंके झरते हुए जलोंसे भरा हुआ भव्य गन्धर्वोके द्वारा सेवित, चंचल अग्निज्वालाओंसे सन्तप्त, हरे वृक्षसमूहों से आच्छादित वानरोंकी आवाजोंसे निनादित -
घत्ता - वह प्रवर महीधर आकाशसे लगा हुआ ऐसा दिखाई देता है मानो धरतीरूपी कामिनीका स्वर्गको दिखानेवाला भुजदण्ड हो ॥ १९ ॥
२०.
जिसकी चट्टानें अप्सराओंके चित्रोंसे लिखित हैं, जिसके विल विषधरोंके शिरोमणियों से आलोकित हैं, जो सिंह शावकोंको सुख देनेवाला है, जिसकी विशाल गुफाएँ सिंहों से प्रसाधित हैं,
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३४८
महापुराण
[१५. २०.४ अलि झंकारेहिं ण रडि मुयइ. जहिं णाहलडिंभउ सुहुं सुअइ। जहिं सलहिज्जति अमच्छरहिं सवरीरुवाइं वि अच्छरहिं । जहिं मणिभित्तिहि पेच्छिवि सयणु महिसिहिं कीरइ पडिवक्खमणु । जहिं दोमेवीदु मण्णिवि तरुणु मरगयवट्ठहु धावइ हरिणु । जहिं चंदणमहिरुहु परिहरिवि णहयरबहु सुत्ती संभरिवि । मुहसासवासु विसहरु पियइ अवरहु वि मुयंगहु एह मइ। घना-पेच्छिवि जममहिसु जहिं जक्खिणिसीहु ण रूसइ ॥
जिणमाहप्पएण पडिवक्खपक्खि खम दीसइ ॥२०॥
१०
२१
जहिं इंदणीलरुइरंजियउ सिहि मज्जारेण विभंजियेउ । किं मोत्तिउ किं वै तुसारकणु जहिं संकइ संजउ सीलहणु । जहिं ओसहिदीघउ पजलइ रयणिहिं पुलिंदु सुहं संचलइ । जहिं जाय गुणगणमंडियउ मुणिसंग सुयउलु पंडियउ। जिणणाहें घोसिय जीवदय जहिं पसु वि चिलाय वि धम्मरय । सुरहस्थिणि सेवइ जासु तडु जहिं हिंडइ चक्केसरिगरुडु। पोमावइहंसु कडक्खियउ
जहिं वरुणहु मयर णिरिक्खियउ। जसु तीरइ पवणहु तणउ मउ सिहि मेसे सहुं कीलाणिरउ । बारहको?हिं अहिट्ठियउ
जहिं समवसरणु सई संठियउ। घत्ता-तहु गिरिवरहु तले धरणीसें सिविरु विमुक्कउं ।। णावइ मंदरहो चउदिसु तारायणु थक्कउँ ॥२१॥
२२ मणिमउडपट्टभूसहरिहिं सुरवरकरिकरदीहरकरहिं । कंठोलंबियमुत्तावलिहिं
उच्चाइयणेवकुसुमंजलिहिं । तणुतेउज्जलियवणथलिहिं उवसमवंतहिं पसमियकलिहिं । कइवयणिवेहिं सहुँ सुद्धमइ पहु गिरिसिहरारोहणु करइ। आवंतहु रायहु सो सिहरि णिज्झरजलधाराभरियदरि । सीहासणचमरीचामरई
छायादुमछत्तई सुंदरई। मयणिब्भर वर गज्जंत गय वणयर किंकर गंडय गवय । णं दरिसणु अग्गग्गइ ठवइ
णं कोइल कलरवेण लवइ। घत्ता-तरुवत्तें गिरिणा फलु फुल्लु पत्तु णं दिण्णउं ।
महिहरु महिहरहु अवसे पालइ पडिवण्णउं ।।२२॥ ३. M झंकारेण णं रडि; B झंकारण णं रडि; P°झंकारेण ण रडि । ४. MB अमरच्छरहिं ।
५. MBP स्वाइं वरच्छरहिं । ६. MBP दोवपीढ । ७. MBP महिरुह । २१. १. B मज्जारेण । २. MBPT विहंडियउ and gloss in T विवेचितः । ३. P च । ४. MBP
पोसिय । ५. P सिमिरु । ६. MBP पमुक्कउ । ७. B थक्कइ । २२. १. MBP हरहिं । २. B°णउकुसुमं । ३. MBP सह । ४. MBP सिंहासण । ५. MB तरुवंतें।
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१५. २२.१०] हिन्दी अनुवाद
३४९ जहां वृक्षोंकी शाखाओंपर किन्नरोंके द्वारा विस्तृत सैकड़ों हार दिखाई देते हैं, जहां भ्रमर झंकारोंसे अपना गान नहीं छोड़ता, जहाँ भीलका बच्चा सुखसे सोता है, जहां अप्सराओंके द्वारा बिना किसी ईर्ष्याभावके शबरियोंके रूपकी सराहना की जाती है, जहां मणिभित्तियोंमें अपने ही प्रिय ( स्वजन ) को देखकर पट्टरानियोंके द्वारा सापल्यभाव धारण किया जाता है। जहाँ मरकतमणिके पृष्ठ (खण्ड ) को दुबका समूह मानकर तरुण हरिण दौड़ता है, जहां सांप चन्दनवृक्षको छोड़कर सोती हुई विद्याधर वधूको ( चन्दनवृक्ष ) जानकर उसके मुखके श्वासवासको पीता है दूसरे भुजंगको भी यही बुद्धि हो रही है।
पत्ता-जहां यममहिषको देखकर यक्षिणीका सिंह क्रोध नहीं करता, जिन भगवान्के माहात्म्यसे प्रतिपक्ष और पक्षमें क्षमाभाव दिखाई देता है ॥२०॥
२१
जहाँ इन्द्रनील मणिको कान्तिसे रंजित मयूरको मार्जार नहीं जान सका । जहाँ शीलधनवाले संयमी मुनिको भी यह शंका होती है कि यह मोती है या हिमकण । जहाँ औषधिरूपी दीप प्रज्वलित है, और रात्रिमें शबरसमूह सुखसे चलता है। जहाँ मुनियोंके संगसे शुक समूह गुणगणसे मण्डित और पण्डित हो गया है। जहाँ जिननाथने जीवदया घोषित कर दी है, जहां पशु भी और किरात भी धर्ममें रत हैं। जिसके तटकी सेवा देवहथिनी करती है, जहां चक्रेश्वरीका गरुड़ भ्रमण करता है । पद्मावतीका हंस कटाक्ष मारता है। जहां वरुणका मगर देखा जाता है, जिसके तीरपर पवनका मृग और मयूर मेंढेके साथ क्रीड़ानिरत हैं। जहां बारह कोठोंसे अधिष्ठित स्वयं समवसरण स्थित है।
पत्ता-उस कैलास गिरिवरके नीचे धरणीशने अपना शिविर ठहरा दिया मानो मन्दराचलके चारों ओर तारागण स्थित हों॥२॥
२२ तब शुद्धमति राजा भरत मणि, मुकुट, पट्ट और भूषण धारण करनेवाले ऐरावतकी सूड़के समान दीर्घ बाहुवाले, कण्ठमें मुक्तामालाएं धारण किये हुए, नव कुसुमोंकी अंजलियोंको उठाये हुए, अपने शरीरके तेजसे वनस्थलीको उजला बनाते हुए, शान्त और कलहका शमन करते हुए कुछ राजाओंके साथ कैलास पर्वतके शिखरपर आरोहण ( चढ़ाई ) करता है। निझरोंकी जलधाराओंसे जिसकी घाटी भरी हुई है, ऐसा वह पर्वत आते हुए राजाके लिए सिंहासन, चमरी, चामर, सुन्दर छायाद्रुमरूपी छत्र, मदनिर्भर गरजते वर गज, गंडक (गेड़ें )-गवय आदि वनचररूपी किंकरोंको उपहाररूपमें आगे-आगे स्थापित करता है, मानो कोयल कलरवमें आलाप करती है।
पत्ता-वृक्षवाले गिरिने मानो फल-फूल और पत्ते उसे दे दिये मानो महीधर (राजा) महीधर (पर्वत ) की स्वीकृतिका अवश्य पालन करता है ।।२२।।
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३५०
महापुराण
[१५. २३.१
२३
आरुहिवि धरोहरवरसिहरु अइरुंदचंदकररासिहरु। परमप्पय पयपइ पइसरह
जिणसमवसरणि तहिं पइसरइ । दिट्ठउ परमेसर णिहेयसरु तिसिएण व हरिण कमलसरु । भरहें बहुछंदपसंगिरए
थुउ सुट्ट सलक्खणाइ गिरए । अरहंत अणंत भन्वभवइ
तुह सेवइ सोक्खु समुब्भवइ । तिट्ठासरितीरु पराइयउ
तुहं कामें पर ण पराइयउ। पई रोसजलणु उवसामियउ तुहुँ रिसि मुवणत्तयसामियउ। पई पेच्छिवि देउ अहिंसवरु ण हणइ दंडेण अहिं सवरु । णं वि भक्खइ तं कया वि णउलु महिसंतयारि वग्घहं ण उलु । घत्ता-पई संबोहियज्ञ केलासवासँवउ लेप्पिणु ॥
थक्कई खेयरइं केलासवास मेल्लेप्पिणु ॥२३॥
२४ तुह वयणु विणीसिउ काणणए णिसुणेप्पिणु इह गिरिकाणणए । ण पवत्तइ कत्थ वि जीववह जय संदरिसियपरलोयेपह । सीहु वि सरहु वि एक्कहिं वसइ सिहिचुयपिच्छैई सवरी वसइ। कलुं गेउ ण गायइ सावयहो सामिय पई लाइय सा वयहो। पई मंसगिद्धि मज्जारयह सोंडत्तणु महुमज्जारयहं । परयारु वि वारिउ जारयह तुहुं णाहु सुट्ट विज्जारयहं । जं अणुहरियउ अलियंजणहो तं गादु पाउ अलियं जणहो । मुहणिग्गंतउ पई खंचियउ तुह संभवि देवहि खं चियउ । घत्ता-इय भरहेण थुउ परमेसरु जियपंचिंदिउ ।।
अमरासुरमणुयखगपुप्फेदंतफणिवंदिउ ॥२४॥
इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरइए महामश्वभरहाणु
मण्णिए महाकव्वे उत्तरमरहपसाहणं णाम पण्णरहमो परिच्छेओ समत्तो ॥१५॥
॥ संधि ॥१५॥
-
२३. १. MBP धराधरं । २. MB परमप्पय पइपइ पयसरइ; T पयपइ प्रजापतिः; P परमप्पय पयवइ . पइसरइ and gloss परमात्मपादौ प्रजापतिर्भरतः स्मरति। ३. BP णिहियसरु । ४. MBP
सुलक्षणाइ। ५. K रोसु जलणु । ६. Kणउ । ७. MBP बासवउ । २४. १. MBP तुह । २. Kलोयवह। ७. MBPK पिछई। ४. MBP कलगेउ । ५. B सा चिय;
Pसा विय; T साविय स्वामिन्, अथवा साविय श्राविका; K सा मि य and gloss सा शबरी । ६. P मंजारयहं । ७. MBP परदारु णिवारिउ । ८. B जिउ पंचि । ९. KBP पुप्फयंत ।
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१५. २४.१०]
हिन्दी अनुवाद
३५१
२३
अत्यन्त विशाल चन्द्रमाकी किरणराशिका हरण करनेवाले पर्वत शिखरपर चढ़कर परमात्माका पुत्र प्रवेश करता है और जहां समवसरण है वहां पहुंचता है। कामदेवका नाश करनेवाले परमात्माको उसने इस प्रकार देखा जैसे प्यासे हरिणने कमलसरोवरको देखा हो। तब भरतने तरह-तरहके छन्दोंके प्रस्तारवाली सुलक्षण वाणीमें खूब स्तुति की, हे अरहन्त अनन्त, भव्यरूपी नक्षत्रोंके चन्द्रजिन, तुम्हारी सेवासे सुख होता है, तुम तृष्णारूपी नदीके तीरपर आ गये, परन्तु काम तुम्हारे पास नहीं पहुंचा। तुमने क्रोधकी ज्वालाको शान्त कर दिया है। हे ऋषि, तुम भुवनत्रयके स्वामी हो, हे अहिंसाश्रेष्ठ देव, तुम्हें देखकर शबर दण्डसे सांपको नहीं मारता। उसे नकुल भी कभी नहीं खाता और व्याघ्रोंका समूह, महिषोंका अन्त करनेवाला नहीं होता।
घत्ता-हे कैलासवासी, आपके द्वारा सम्बोधित खेचर कैलासपर रहनेका व्रत लेकर, कैलासवास ( मद्यभाजन और मद्य पोनेको आशा ) छोड़कर स्थित हैं ॥२३॥
हे ब्रह्मन्, तुमसे निकले हुए वचन सुनकर इस गिरि-काननमें कहीं भी वध नहीं होता। हे परलोक पथको दिखानेवाले आपकी जय हो । यहाँ सिंह और शरभ एक साथ रहते हैं, मयूरोंके च्युत पंखोंमें शबरी निवास करती है । हे स्वामी, उसने आपसे व्रत ग्रहण कर लिया है अतः वह श्वापदोंके लिए ( वधके ) गीत नहीं गाती । हे स्वामी, तुमने मार्जारोंको मांसगृद्धि ( लोभ ) और मधु ( सुरा ) के मार्जारों ( मद्यपों) को मदिरा, जारोंको परदाराका निवारण कर दिया । तुम विद्यारतोंके अच्छे स्वामी हो। हे स्वामी, आदमीका जो पाप और झूठ भ्रमर और अंजनका अनुकरण करता है (पाप लिप्त होता है ) उसे मुंहसे निकलते ही तुम पकड़ लेते हो। हे देव, आपके होनेपर आकाश देवताओंसे व्याप्त हो जाता है।
घत्ता-इस प्रकार अमरों, असुरों, मनुजों, पक्षियों, नक्षत्रों और नागोंके द्वारा वन्दित पंचेन्द्रियोंको जीतनेवाले परमेश्वरको भरतके द्वारा स्तुति की गयी ॥२४॥
इस प्रकार वेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त इस महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित तथा महामव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका उत्तर भरत प्रसाधन
नामक पन्द्रहवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥१५॥
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१०
१५
संधि १६
पणवेपि णिव रकमकमलु ओयरेवि कइलासहो ॥ साहु मुहुं संचलिउ घरणिणाहु णियवासहो ॥ ध्रुवकं ॥
१
आरणालं - रविणिह कण्णकुंडला रंयणमेहला मउडपट्टधारा । चलिया मंडलेसरा खयरसुरणरा कंठबद्धहारा ॥ १ ॥
होइ गिरित्थलु णिविसें समथलु किण किंण किर संचरिउ वणु किंण किंण संतरु लंघिउ for forपहरणु अवलोइड किणकिण वरवाह वाहिउ कणय दंड मंडियपडिहारे पुरणारिहि आहरणु लइज्जइ कुंकुमेण छडउल्लउ दिज्जइ घिris कुसुमकरं स सँडयणु घरि घरि गाइज्जर जिणणंदणु दप्पणु कलसु धरिज्जइ अण्ण सलहिज्जंतु महंतु सुरिंदहि करिवरकंधरत्थु "मणहारिहि
१०
किं ण किं ण किर कैद्दमियउं जलु । किं णकिण धूली जायउ तणु । किणकिण दुग्गुवि आसंघिउ । किणकिण पडिसेण्णु णिवाइउ । किणकिण परमंडलु साहिउ । औवेंतें पहुखंधाबारें ।
देववत्थु परिहिज्जइ । कप्पू रंगावलि किज्जइ । बज्झइ सुरतरुपल्लवतोरणु । दोवेदहियसिद्धत्थय चंदणु । उग्घोसिउ मंगलु सुरकण्णहिं । सहुं क्खिदखगिंदणरिदहि । विज्जिज्जत चामरधारिहि
1
13
घत्ता - महि सयल वि खग्र्गे णिज्जिणिवि कयदिग्विजयविलासहि ॥ उज्झहि "भरहाहि पइसरइ सट्ठिहिं वरिससहासहि ||१||
१४.
GMBP give, at the commencement of this Samdhi, the following stanza :प्रतिगृहमटति यथेष्टं बन्दिजनैः स्वैरसंगता वसति ।
भरतस्य वल्लभा सा कीर्तिस्तदपीह चित्रतरम् ॥
MBP read स्वैरसंगमा for स्वैरसंगता; and वल्लभासौ for वल्लभा सा । K does not give it.
१. १ MBP खयरणरसुरा । २. M अवसें; B णिवसें; P णिवसि and gloss निमेषेण; T णिविसें । ३. कद्दावियउं । ४. M संचूलिउ । ५. MBP आवतें । ६. M देवंगु वत्यु । ७. P ससयडणु but gloss सषट्चरणः । ८. MBP घाइज्जइ । ९. MB दुव्व ; P दोव्व । १०. MP दप्पण । ११. M मणिहारिहिं । १२. MBP धारहिं । १३. MBP विलासिहि । १४. MBP भरहेसरु ।
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जिनवरके चरणकमलोंको प्रणाम कर और कैलाससे उतरकर पृथ्वीका स्वामी भरत अपने निवास साकेत के सम्मुख चला ।
सन्धि १६
१
सूर्यके समान कणकुण्डल और रत्नोंकी मेखलावाले, मुकुटपट्ट धारण किये हुए और गले में हार पहने हुए मण्डलेश्वर, विद्याधर, सुर और मनुष्य चले । गिरि-स्थल एक पलमें समतल हो गया। कौन-कौन जल कीचड़मय नहीं हुआ ? कौन कौन-सा वन चूर-चूर नहीं हुआ ? कौन-कौन तृण धूल नहीं हुआ । किस-किस देशान्तरको उन्होंने नहीं लांघा ? किस-किस दुर्गका आश्रय नहीं लिया ? किस-किस आयुधको नहीं देखा ? किस-किस शत्रुसेनाका प्रतिपतन नहीं किया ? किसकिस श्रेष्ठ वाहनको नहीं चलाया ? किस-किस शत्रुमण्डलको नहीं साधा ? स्वर्णदण्डोंसे अलंकृत है प्रतिहार जिसमें, प्रभुके ऐसे स्कन्धावारके आनेपर पुरस्त्रियां अपने आभरण ग्रहण कर रही हैं । कोमल देवांग वस्त्र पहने जा रहे हैं। केशरका छिड़काव किया जा रहा है । कपूरसे रांगोली की
रही है । भ्रमर सहित कुसुम फेंके जा रहे हैं, देववृक्षों ( कल्पवृक्षों ) के पल्लव-तोरण बांधे जा रहे हैं । घर-घर में जिनपुत्रका गान किया जा रहा है। दूध, दही, तिल और चन्दन, दर्पण, कलश धारण किये जा रहे हैं । दूसरी देव कन्याओं द्वारा मंगलघोष किया जा रहा है । यक्षेन्द्र, खगेन्द्र और मानवेन्द्रों के साथ सुरेन्द्रोंके द्वारा प्रशंसा की जा रही है । गजवरके कन्धेपर बैठा हुआ सुन्दर चमर धारण करनेवाली स्त्रियोंके द्वारा हवा किया जाता हुआ
घत्ता - समस्त धरतीको तलवारसे जीतकर साठ हजार वर्षों तक दिग्विजय-विलास करने के बाद भरत राजा अयोध्या नगरीमें प्रवेश करता है ॥ १ ॥
४५
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५
१०
३५४
महापुराण
२
आरणालं - उ पइसरइ पुरवरे रयणमेयहरे जयसिरीवरंगं ॥ भंगुर भासुरारयं णिसियधारयं राइणो रहंगं ॥१५॥ थक्कड चक्कु ण पुरि परिसक्कइ को वाणलजालामंडलु भरहपयावें कार्यैरिजायउ इंदचंदप डिकूलणसीलउ एहु जि चक्कवट्टि अवलोयहु मणिमऊहमालावेला उलु सुरहिगंधु सिरिसेविउ सभसलु वलयायारहु णिरु सच्छायहु घत्ता - तं चक्कु ण णयरिहि पइसरइ वेसहि जणियवियारठ ॥ हिउल्लउ कवडसयहं भरिउ णावइ धुत्तहं केरउ ||२||
कुकइहि कव्वु व उ चिम्मक्कइ । णं पुरच्छिइ परिहिउ कुंडलु । भाबि छज्जइ आयउ । धगधगंतु खयहुयवहलीलउ । रें दी. धरि णं लोयहु । रायदिवायरपुण्णय रुज्जलु ।
हसरि विसिउ रत्तप्पलु । अवसें देइ धरणि कँर आयहु ।
३
आरणालं - फणिणरसुरपसंसियं जसविहूसियं गुणगणोहदित्तं । दुविणीयमाणसे पिसुणमाणुसे सुयणसच्छवित्तं ॥१॥ ras इवें खीलिवि मुक्कउ । सुघरि णं अण्णायविढत्तउ । परदासत्तणम्मि सवसित्तु व । पत्तदाणि पाविट्ठहु चित्त व ।
अक्कमिक्कड बाहिरि थक्कउ उपइसइ पुरि चक्कु णिरुत्तर परपुरिसाणुराइ सइचित्तु व मायाणेहणिबंधणि मित्तु व चुणविलीणइ दिण्ड भत्तु व सुद्धसिद्ध मंडल जमकरणु व णिब्बलणीस निलणि सरणु व उवस मिल्लि सामरिसायरणु व णिसिसमयागमि रवि उग्गमणु व पुण्णहीणि जिणगुणसंभरणु व
रसतुरियइणव कलत्तु व । पत्थणिसे विरि रुव वित्थरणु व । दुरियमणिमणि पंडियमरणु व । व्विरित भूसीयर व । वुड्ढत्तणि तरुणीयणरमणु व । णिणि णिग्गुणि विलुद्धरणु व ।
धत्ता - थिउ चक्कु ण पुरवरि पइसरइ णावइ केण वि धरियउ ।। सिबिंबु व हि "तारायणहिं सुरवरेहिं परियरियउ ||३||
२. १. MBP महरे । २. MB भासुराययं । ३. MBP कायरु जायउ । ४. MBP धरिउ दीउ । ५. K 'वेलाजलु । ६. MBP वियसिउ । ७. MBPKT करु । ८. M हियडुल्लउ ।
३. १. M माणुसे । २. B पिसुणु माणुसे । ३. M° चित्तं । ४. B मियंकओ । ५. MP णिरुतरु । ६. M सुइघणि । ७. M णिच्चल; BP णिव्वलं । ८. Breads this foot after 11. ९. K भूसाकरणु । १०. MBP तारासर्याहि सुरणरेहिं ।
[ १६.२.१
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हिन्दी अनुवाद
२
विजयश्री की लीला धारण करनेवाला, क्षण-क्षणमें प्रदीप्त होनेवाला, और पैनी धारवाला राजाका चक्र रत्ननिर्मित पुरवर में प्रवेश नहीं करता । चक्र स्थित हो गया, वह नगर में प्रवेश नहीं कर सकता, कुकविके काव्य की तरह चमत्कार उत्पन्न नहीं करता । मानो कोपरूपी आगका ज्वालामण्डल हो, मानो नगरलक्ष्मीने कुण्डल पहन लिया हो । भरतके प्रतापसे कायर हुआ मानो आया हुआ भानुबिम्ब शोभित है । इन्द्र और चन्द्रमाको प्रतिकूल करनेवाला मानो धकधक करता हुआ प्रलय कालकी लीलाके समान है । इस चक्रवर्तीको देख लो मानो लोकने ( इसके लिए) नगर में दीपक रख दिया है। मणियोंकी किरणमालाओंके ठहरनेका तट, राजारूपी दिवाकरके पुण्यरूपी हाथों ( करों) से उज्ज्वल, सुरभित गन्ध और लक्ष्मीसे सेवित तथा भ्रमर सहित जो चक्र मानो आकाशरूपी नदीका रक्त कमल है । वलयकी आकृतिवाले सुन्दर कान्तिसे युक्त इसके लिए धरती अवश्य कर देगी ।
१६. ३. १४ ]
घत्ता - वह चक्र नगरीमें प्रवेश नहीं करता उसी प्रकार, जिस प्रकार सैकड़ों कपटोंसे भरा हुआ धूर्तका विकारग्रस्त हृदय वेश्यामें प्रवेश नहीं करता ॥२॥
३५५
३
मानो जैसे नाग-नर और देवों द्वारा प्रशंसित, यशसे विभूषित और गुणगण समूहसे दीप्त, सज्जनका स्वच्छ चरित्र, दुर्विनीत मानसवाले दुष्ट मनुष्य में प्रवेश नहीं करता । सूर्यका अतिक्रमण करनेवाला वह चक्र बाहर ऐसा स्थित हो गया, मानो देवने उसे कीलित करके छोड़ दिया हो । निश्चित रूपसे चक्र घरमें प्रवेश नहीं करता, मानो अन्यायसे उपार्जित धन पवित्र घर में प्रवेश नहीं कर रहा हो, जैसे सतीका चित्तपर पुरुषके अनुरागमें, जैसे स्वतन्त्रता दूसरोंकी दासतामें, जैसे मायावी स्नेह बन्धनमें मित्रके समान, पात्रदान में पापीके चित्तके समान, अरुचिसे पीड़ित व्यक्तिमें दिये गये भांतके समान, रतिसे व्याकुल मनुष्य की नयी विवाहित दुलहिन के समान, शुद्ध सिद्ध मण्डल में यमकरणके समान, पथ्यका सेवन करनेवालोंमें रोगके विस्तारके समान, दुर्बल और धनहीनके घर में शरणके समान, पापसे मलिन मनमें पण्डितमरणके समान, उपशान्त व्यक्तिमें क्रोधपूर्ण आचरणके समान, निर्विकारमें शरीरकी भूषाके समान, निशा समयके आगमन में सूर्योदय के समान, बुढ़ापे में तरुणीजनके रमणके समान, पुण्यहीनमें जिनगुणोंके स्मरणके समान, निर्धन और निर्गुण व्यक्तिमें विह्वल के उद्धारके समान
घत्ता - चक्र स्थिर हो गया, पुरवरमें वह प्रवेश नहीं करता । जैसे किसीने उसे पकड़ लिया हो । सुरवरोंसे घिरा हुआ वह ऐसा लगता है जैसे तारागणोंसे घिरा हुआ आकाशमें चन्द्रमा हो ||३||
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१०
५
१०
१५
३५६
महापुराण
૪
तं णिसुणेपिणु भणइ पुरोहिउ अक्खमि तं णिसुणहि परमेसर भुयजुयबलपडिबलविवद्दवणह ओहामियचंद दिणेसह कित्तिस त्तिणमेत्तिसहायहं सेव करंति ण णहभाईवई देति ण कर भरु केस रिकंधर अज्जवि ते सिज्झति ण जेण जि
आरणालं - ता भणियं णिराइणा रूढराइणा चंडवाउवेयं । किं थियमिह रहंगयं णिञ्चलंगयं तरुणतरणितेयं ॥ १ ॥ जेहु गइपसरु जिरोहिउ । देवदेव दुज्जय भरहेसर । पयभरे थिरमहियलकंपवणहं । जणणदिण्णम हिलच्छिविलासहं । डिल्लु एत्थु भायहं । ण णवंति तुह पयराईवई ।
पर मुहियइ भुंजंति वसुंधर । पइसइ पट्टणि चक्कु ण तेण जि ।
घत्ता - रइवरु परमेसरु उच्छुधणु धरणिहरणरणपरियरु ।। कासव तरु णवणलिणमुहु भुवणुद्धरणधुरंधरु ||४||
५
आरणालं - विलसियकुसुममग्गणो गरुयगुणगणो तरुणिहिययथेणो | सरिसवमसाहसो वसि हयालसो णिहयवेरिसेणो || १ || अणु वि जसव इतयहं जेट्ठउ सुहितुणिट्ठउ । सायरु जिह तिह मयरधयालउ चावहं चारुवेणु चरियालउ | पंचसयाई सवाय तुंगउ tors संहिं सोजि अनंगड । बालु बंभसुंदरिहि सहोयरु पिर्डेपयपयरुहरयरउ महुयरु I हरिदेहु णं मरगयगिरिवरु अरिकरिदसणमुसलपस रियकरु । विमलकुलालवालसुरतरुवरु चरमैदेहु सासय सुह सिरिहरु । गुरुचरणारविंदरइरसवसु मंदकंदरं तगाइयजसु । दुत्थियदीणाणाहं दिहियरु नरहरिसरणागयपविपंजरु | लीलादलियम हायलमयगलु कढणबाहु बाहुबलि महाबलु ।
घत्ता - सो अच्छइ उवसमु धरिवि मणे जइ रणि कई वि वियंभइ ॥ तो सहुं च सहुं साहणेण पई मि णरिंद णिसुंभं ||५||
६
आरणालं- जो जिप्पइ ण हारिणा कुलिसधारिणा पयडसुहडरोलें । सो णिम्महइ माणवे जिणइ दाणवे देव कलहकाले ॥१॥
४.
१. MBP पयथिरभर ।
५. १. MBP वण । २. MBP संपइ । ३. M बाल । ४. B पिउपयरुह । ५. MBP हरियवष्णु । ६. K चरिमं । ७. BPK महिलु । ८. MBP कह व ।
[ १६. ४. १
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१६. ६.२]
हिन्दी अनुवाद
३५७
तब प्रसिद्ध मनुष्यराजा भरतने कहा, “प्रचण्ड वायुके समान वेगवाला, तरुण तरणिके समान तेजवाला यह चक्र निश्चलांग क्यों हो गया ?" यह सुनकर पुरोहित बोला, "जिस कारणसे इसके गति प्रसारका निरोध हुआ है उसे मैं बताता हूँ। हे नरेश्वर, देव-देव, हे दुर्जेय भरतेश्वर, सुनिए, जिन्होंने अपने बाहुबलसे शत्रुओंका दमन किया है, पैरोंके भारसे धरतीतलको कपाया है, तेजसे सूर्य और चन्द्रको पराजित किया है, पिताने जिन्हें महीलक्ष्मीका विलास दिया है तथा कीर्ति, शक्ति और जनमात्रा जिनकी सहायक है. ऐसे तम्हारे भाइयोंका यहां प्रतिमल्ल कौन है नखोंको कान्तिसे प्रदीप्त तुम्हारे चरणकमलोंको वे नमस्कार नहीं करते। सिंहके समान कन्धोंवाले जो तुम्हें कर नहीं देते, वे व्यर्थ ही धरतीका उपभोग करते हैं। जिस कारणसे वे आज भी सिद्ध नहीं हो सकते हैं, उसी कारण चक्र नगरमें प्रवेश नहीं कर रहा है।
___घता-कामदेव परमेश्वर इक्षुधनुषसे युक्त धरतीके अपहरण और युद्धके परिकरवाला, कासवका पुत्र, नवकमलमुखी और भुवनके उद्धारमें धुरन्धर-॥४॥
कामदेवसे विलसित, भारी गुणोंसे युक्त, युवतियोंके हृदयको चुरानेवाला, असामान्य विषम साहसवाला, वशी, आलस्यको नष्ट कर देनेवाला और शत्रुसेनाको समाप्त कर देनेवाला । और भी यशोवतीके पुत्रोंसे जेठा परन्तु तुमसे छोटा, सुनन्दाका पुत्र, जिस प्रकार कामदेव, उसी प्रकार, मकरध्वजालय ( मकररूपी ध्वजोंका घर, कामदेवका घर ), सुन्दर मुख, चरित्रका आश्रय, और सवा पांच सौ धनुष ऊँचा, उसीको इस समय कामदेव कहा जाता है, ब्राह्मी सुन्दरीका भाई, पिताके चरणरूपी कमलोंमें रत भ्रमर, श्याम शरीर जैसे मरकतका पहाड़ हो, शत्रुरूपी गजोंके दांतोंरूपी मूसलोंके लिए हाथ फैलानेवाला, पवित्र कुलरूपी आलबाल (क्यारी) का कल्पवृक्ष, चरमशरीरी, तथा शाश्वत सुखश्रीको धारण करनेवाला, गुरुके चरणकमलोंके प्रेमरसके अधीन, पर्वतोंकी गुफाओं तक जिसका यश गाया जाता है, दुस्थित दीन और अनाथोंका भाग्यविधाता, मनुष्यश्रेष्ठ, शरणागतोंके लिए वज्रपंजर ( वज्रकवच ), महापर्वतों और मदवाले महागजोंको खेल-खेलमें दलित कर देनेवाला। दृढ़बाहु और महाबली बाहुबलि।
___घत्ता-वह मनमें उपशम भाव धारण कर स्थित है। यदि वह कहीं भी युद्ध में भड़क उठता है तो चक्रके साथ, सेनाके साथ हे राजन्, वह तुम्हें भी नष्ट कर देगा ॥५॥
प्रकट है सुभट शब्द जिसका, ऐसे उत्तम वज्र धारण करनेवालेसे जो नहीं जीता जा सकता, हे देव जो कलहकालमें मनुष्यमें सम्मान पाता है और दानवको जीतता है। जिसने
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३५८
महापुराण
[१६.६.३ हित्तभिण्णमहिवइसामंत दसदिसिवहपेसियसामंते। रूवरिद्धिरंजियरामोहें
अइपरिवढियसुधरामोहें। णियमुयसत्तिपरजियभरहें तं णिसुणेवि पयंपिउ भरहें। जमहु जमत्तणु को दरिसावइ मई मुएवि किर कवणु रसावइ । एम को वि किं जगि संतावइ को किर सिहि सिहाहि सं तावइ । कहु महु तणउं पहुत्तु ण भावइ के पडिखलिउ जंतु गैहि भावइ । केर महारी को णावजइ
एह पुहइ को किर णावज्जइ । आसमुद्दमेइणिकरवालहु
को णासंकइ महु करवालहु। को किर भिश्च महारा मारइ को विणिवारइ मज्झु वि मारइ । किं किर वण्णिएण कंदप्पे
अणवंतहु णिवडइ कंदप्प । घत्ता-इय जंपिवि राएं णिक्करुणु अविणयविहियमणोजहं ॥
सयलह मि सयलसंपयंधरहं लेहु दिण्णु दाइजहं ॥६॥
आरणालं-ता विगया बहुयरा जणमणोहरा णिवकुमारवासं।
___दुमदललैलियतोरणं रसियवारणं छिण्णभूमिदेसं ॥१॥ तेहिं भणिय ते विणउ करेप्पिणु सामिसालतणुरुह पणवेप्पिणु । सुरणरविसहरभयई जणेरी करहु केर णरणाहहु केरी। पणवहु किं बहुवेण पलावें पुहइ ण लब्भइ मिच्छागावें। तं णिसुणेवि कुमारगणु घोसइ 'तो पणवहुँ जइ वाहिण दीसइ । तो पणवहु जइ सुसुइ कलेवरु तो पणवहु जइ जीविउ सुंदरु। तो पणवहु जइ जरइ ण झिज्जइ तो पणवह जइ पुट्टि ण भज्जइ। तो पणवहु जइ बलु णोहट्टइ, तो पणवहु जइ सुइ ण विहट्टइ। तो पणवहु जइ मयणु ण तुट्टई तो पणवहु जइ कालु ण खुट्टइ । कंठि कयंर्तवासु ण 'चुहुट्टइ तो पणवहु जइ रिद्धि ण तुट्टइ। घत्ता-जइ जम्मजरामरणई हरइ चउगइदुक्खु णिवारइ ।।
"तो पणवहु तासु णरेसहो जइ संसारहु तारइ ॥७॥
१०
६. १. MB °सेहाहि । २. MBP किं । ३. P णहु । ४. MBP किर को। ५. M करि । ६. MBP
संपयहरहं। ७. १. MBP वओहरा; T वउहरा दूताः । २. BPK °लुलियं । ३. MBP बहुएण । ४. MBP तइ
and throughout elsewhere in this Kadavaka | ५. MBP सुथिरु but T सुसुइ । ६. MBP फिट्टइ । ७. MBP आउ । ८. MBP कयंतपासु। ९. MBP चहुट्टइ। १०. MBP दुक्खई वारइ। ११. MP ता; B तहो। १२. MBPK णरेसरहो।
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१६.७.१३]
हिन्दी अनुवाद महीपति सामन्तोंको पकड़ लिया है और उखाड़ दिया है, जिसने दसों दिशाओंमें अपने सामन्त भेजे हैं, जिसने अपनी रूपऋद्धिसे रमणी समूहको रंजित किया है, जिसमें पृथ्वीका मोह अत्यन्त बढ़ रहा है, जिसने अपने बाहुबलसे भरत क्षेत्रको पराजित कर दिया है, ऐसे भरतने यह सुनकर कहा-"यमको यमत्व कोन दिखाता है ? मुझे छोड़कर पृथ्वीपति कौन है ? इस प्रकार जगमें कौन सन्ताप पहुंचा सकता है ? आगको ज्वालाओंसे कौन अपने आपको सन्तप्त करना चाहता है, किसे मेरी प्रभुता अच्छी नहीं लगती, आकाशमें स्खलित होकर जाते हुए किसे अच्छा लगता है ? कौन मेरी सेवा नहीं ग्रहण करता, यह धरती कौन नहीं अजित करना चाहता, समुद्र पर्यन्त धरतीसे कर वसूल करनेवाली मेरी तलवारसे कौन आशंकित नहीं होता, कौन मेरे अनुचरोंको मारता है ? कौन प्रतिकार करता है और मुझे भी मारता है ? कामदेवका वर्णन करनेसे क्या ? नहीं प्रणाम करते हुए किसका सिर दर्पसे गिरता है ?"
घत्ता-यह कहकर राजाने अविनयके कारण अमनोज्ञ समस्त सब प्रकारकी सम्पत्ति धारण करनेवाले शत्रुओंको कठोर लेख दिया ॥६॥
तब जनोंके लिए सुन्दर दूत, जहाँ द्रुमदलोंके सुन्दर तोरण हैं, गज चिग्घाड़ रहे हैं, और जिनका भूमिप्रदेश ढका हुआ है, ऐसे नृपकुमारोंके आवासपर गये। स्वामीश्रेष्ठके उन पुत्रोंको प्रणाम करते हुए उन्होंने विनयके साथ निवेदन किया, "सुर-नर और विषधरोंमें भय उत्पन्न करनेवाली राजाकी सेवा करो और उन्हें प्रणाम करो, बहुत प्रलापसे क्या? मिथ्या गर्वसे धरती प्राप्त नहीं की जा सकती।" यह सुनकर कुमारगण घोषित करता है-"हम तब प्रणाम करते हैं यदि उसमें कोई व्याधि दिखाई नहीं देती। तब प्रणाम करते हैं यदि उसका शरीर पवित्र है, तब प्रणाम करते हैं यदि उसका जीवन सुन्दर है। तब प्रणाम करते हैं यदि वह जरासे क्षीण नहीं होता। तब प्रणाम करते हैं यदि वह पीठ देकर नहीं भागता, तो प्रणाम करते हैं यदि उसका बल नष्ट नहीं होता, तो प्रणाम करते हैं यदि उसको पवित्रता नष्ट नहीं होती, तो प्रणाम करते हैं यदि कामदेव नष्ट नहीं होता. तो प्रणाम करते हैं यदि काल समाप्त नहीं होता, तो प्रणाम करते हैं यदि गलेमें यम नहीं लगता और ऋद्धि समाप्त नहीं होती।
घत्ता-यदि वह जन्म-जरा और मरणका अपहरण करता है, चार गतियोंके दुःखका निवारण करता है, और संसारसे उद्धार करता है तो हम उस राजाको प्रणाम करते हैं।" ॥७॥
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३६०
महापुराण
[१६.८.१
आरणालं-पुणरवि तेहिं गहिरयं सवणमहुरयं एरिसं पउत्तं ।
आणापसरधारणे धरणिकारणे पणविउं ण जत्तं ॥१॥ पिंडिखंडु महिखंडु महेप्पिणु किह पणविज्जइ माणु मुएप्पिणु । वक्कलणिवसणु कंदरमंदिरु वणहलभोयणु वर तं सुंदरु । वैर दालिद्दु सरीरहु दंडणु णेउ पुरिसहु अहिमाणविहंडणु। परपयरयधूसर किंकरसरि असुहाविणि णं पाउससिरिहरि । णिवपडिहारदंडसंघट्टणु
को विसहइ करेण उरलोट्टणु । को जोयइ मुहुँ भूभंगालउ किं हरिसिउ कि रोसें कालउ । पहु आसण्णु लहइ धिटुत्तणु पविरलदसणु णिण्णेहत्तणु । मोणे° जडु भडु खंतिइ कायरु "अज्जवु पसु पंडियउ पलाविरु । अमुणियहिययचारुगरुयत्ते कलहसीलु भण्णइ सुहडत्त । महुरपयंपिरु चाडुयगारउ __ केम वि गुणि ण होइ सेवारउ | घत्ता-अइतिक्खहं धम्मगुणुज्झियह "वम्मवियारणवसणहं ॥
को बाणहं संमुहुँ थाइ रणे को महिवइधरि पिसुणहं ।।८।।
आरणालं-अहवा तेहिं किं हयं जं समागयं दुल्लहं णरत्तं ।।
तं जो विसयविसरसे घिवइ परवेसे तस्स कि बुहत्तं ॥११॥ कंचणकंडे जंदुउ विधइ
मोत्तियदामें मंकैडु बंधइ। खीलयकारणि देउल मोडइ
सुत्तणिमित्त दित्त मणि फोडइ । कप्पूरोयरुरुक्खु णिसुंभइ कोद्दवछत्तहु वइ पारंभइ । तिलखलु पयइ डहिवि चंदणतरु विसु गेण्हइ सप्पहु ढोयवि करु । पीयइ कसणई लोहियसुक्कई तकं विक्कइ सो माणिक्कई । जो मणुयत्तणु भोएं णासइ तेण वमाणु हीणु को सीसइ । चित्तु समत्तणि णेय णियत्तइ पुत्तु कलत्तु वित्तु संचिंतइ । मरइ रसणफंसणरसदड्ढउ मे मे मे करंतु जिह मेंढंउ । खज्जइ पलयकालसद्ले
डज्झइ दुक्खहुयासणजाले । मंजरु कुंजरु महिसउ मंडलु __ होइ जीउ मक्कडु माहुंडलु ।
८. १. B. omits धरणिकारणे; P महिहि कारणे । २. MBP वरि । ३. MBP वरि । ४. M दारिहु ।
५. MBP ण हि । ६. MBP सिरि and a long note in M: यथा वर्षाकालनदी परः अन्यहीनस्थाना झिल्लरादिपयैः (?) मलिनै रजोभिः धूसरिता मलिना प्रवह ति हिरि अतिलज्जाकारिणी, तथा किंकरश्रीः शोभा परपदरजोभिः धूसरिता। ७. MBP असुहावणि । ८. MBP हिरि; K°हिरि but corrects it to हरि । ९. P भूसंगां । १०. MBP मउणें । ११. MBP अज्जउ ।
१२. KBP मम्म। ९. १. P°रसो । २. P परवसो । ३. MBP मक्कडु । ४. MBP दित्तमणि । ५. MBP कप्पूरायररुक्ख ।
६. MBP अप्पइ पर। ७. M मिढउ; BP मेढउ । ८. MBP मंकडु ।
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१६.९.१२]
हिन्दी अनुवाद
३६१
उन्होंने और भी गम्भीर कानोंके लिए मधुर इस प्रकार कहा कि धरतीके लिए और आज्ञाका प्रसार करनेके लिए प्रणाम करना उचित नहीं है। शरीरखण्ड या धरतीके खण्डको महत्त्व देकर और मान छोड़कर क्यों प्रणाम किया जाये। वल्कलोंका पहनना, गुफाओंका घर, और वनफलोंका भोजन, यह सुन्दर है। दारिद्रय और शरीरका खण्डन अच्छा, परन्तु मनुष्यका अभिमानको खण्डित करना ठीक नहीं। किंकररूपी नदी दूसरोंके पदरजसे धूसरित है। पावसकी श्रीको धारण करनेवाली असुहावनी है। राजाओंके प्रतिहारोंके दण्डोंका संघर्षण और हाथ उरको स्पर्श करना कौन सहे ? भौंहोंसे टेढ़ा मुख कौन देखे कि वह प्रसन्न है या क्रोधसे काला है, यदि राजाके निकट है तो वह ढोठपनको प्राप्त होता है, यदि कभी-कभी दर्शन करता है तो स्नेहहीन समझा जाता है, मौन रहनेसे जड़ ( मूर्ख ) और शान्तिसे रहनेपर कायर, सीधा रहनेपर पशु और पण्डित होनेपर प्रलाप करनेवाला, अपने हृदयकी सुन्दर गुरुताको न समझनेवाली शूरवीरतासे कलहशोल कहा जाता है और मीठा बोलनेपर चापलूस । इस प्रकार सेवामें रत व्यक्ति किसी भी प्रकार गुणी नहीं होता।
घत्ता-अत्यन्त तीखे धर्मरूपी गुणसे रहित/डोरीसे रहित, वम्म ( मर्म कवच ) के विदारणके स्वभाववाले बाणोंके सम्मुख रणमें और दुष्टोंके सम्मुख राजाके घरमें कौन खड़ा रह सकता है ॥८॥
अथवा उनसे क्या, जिन्होंने प्राप्त दुर्लभ मनुष्यत्वको नष्ट कर दिया। और जो उसे परवश होकर नष्ट करता है, उसका क्या पाण्डित्य ? वह स्वर्णके तीरसे सियारको बेधता है, मोतीकी मालासे बन्दरको बांधता है, कीलके लिए देवकुलको तोड़ता है, सूत्रके लिए दीप्त मणिको फोड़ता है, कपूर और अगुरु वृक्षको नष्ट करता है और ( उनसे ) कोदोंके खेतकी बागर बनाता है। चन्दन वृक्षको जलाकर तिल खलोंकी रक्षा करता है। सांपको हाथमें लेकर उससे विष ग्रहण करता है, पीले, काले, लाल और सफेद माणिक्योंको छाछमें बेचता है, जो मनुष्यत्वको भोगमें नष्ट करता है, उसके समान हीन व्यक्ति कौन कहा जाता है। जो अपने चित्तको समतामें नियोजित नहीं करता, पुत्र-कलत्र और धनकी चिन्ता करता है, रसना और स्पर्शरसमें दग्ध होकर उसी प्रकार मर जाता है, जिस प्रकार मे-मे-मे करता हुआ मेंढक मरता है। प्रलयकालरूपी सिंहके द्वारा खाया जाता है, दुःखरूपी आगकी ज्वालासे जला दिया जाता है। यह जीव मार्जार, कुंजर, महिष, कुक्कुर, बन्दर और सर्प विशेष उत्पन्न होता है।
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३६२
[१६.९.१३
महापुराण घत्ता-केलासहु जाइवि तवयरणु ताएं भासिउ किजइ ॥
जेणेह सुदूसहतावयरि संसारिणि तिस छिज्जइ ॥९॥
१०
आरणालं-इय भणियं कुमारया मारमारया समरमा पसण्णा ।
दरिवियरियवराहयं सवरराहयं काणणं पवण्णा ॥१॥ दिट्ट तेहिं केलाँसि जिणेसरु संथुउ रिसहणाहु परमेसरु । जय रिसिणाह वसह वसहद्धय जय तियसिंदमउलिलालियपय । जय जाणियपरमक्खरकारण जय जिण मोहमहातरुवारण । जय सुहवास दुरासावारण जय ससहरसियवारिणिवारण । पुणु वि पंच परमेहि णवेप्पिणु पंचमुहि सिरि लोउ करेप्पिणु । पंचमहारिसिवयई लएप्पिणु पंचासवदाराई पिहेप्पिणु। पंचिंदियपमाउ वजेप्पिणु पंच वि सर मयणहु तज्जेप्पिणु । पंचायारसारु पावेप्पिणु पंचपंचविहु धम्मु धरेप्पिणु। घत्ता-दढगुणि मणमग्गणु संणिहिउ मोक्खहु संमुहं पेसिउँ॥
संतहिं अरहंतहु तणुरुहहिं अप्पउ चरिएं भूसिउँ ॥१०॥
आरणालं-ता पत्तो चरो पुरं णिवइणो घेरं मणइ सुणसु राया।
इसिणो तुह सहोयरा सीलसायरा अज्जु देव जाया ॥१॥ एक्कु जि पर बाहुबलि सुदुम्मई णउ तउ करइ ण तुम्हहं पणवइ । तं णिसुणेवि पुरोहें उत्त
भडसामंतमंतिसंजुत्तउं । कोसु देखें परियेणु पयभत्तउ मणहरु अंतेउरु अणुरत्तर । कुलु छलु बलु सामत्थु सुइत्तणु णिहिलजणाणुराउ जसकित्तणु । विणउ वियारहारि ब्रुहसंगमु पोरिसु बुद्धि रिद्धि दइवुज्जमु । . कुंजर णावइ महिहर जंगमु अस्थि तासु रह करह तुरंगमु । अत्थसत्थु जावज वि ण सरइ जाम सहायसहासई ण करइ। जाम ण लग्गइ खलसंसग्गे खत्तधम्मणिम्महणुम्मग्गे। . घत्ता-जावज्ज वि चाउ ण करि धरइ तोणाजुयलु ण बंधइ॥
णिमजिए भालसेयलवहि जाम ण गुणि सरु संधइ ॥११॥
१०. १. MBP भणिओ। २. MBP समरमापवण्णा and gloss in MP उपशमलक्ष्मी प्राप्ताः । ३.
MP सवररायह, but T सवरराहये शबराणां भासो भा यत्र । ४. MP केलास । ५. B लहेप्पिण ।
६ Bदारइं रुंभेप्पिणु । ७. MBP पेसियउ । ८. MBP भूसियउ । ११. १. MBP हरं । २. MBP स दुम्मइ । ३. MBP वुत्तउं । ४. MBP दोसु । ५. MB परयणु ।
६. MBP बुह । ७. M रिद्धि बुद्धि दइउज्जमु । ८. MBP णिम्मज्जियं ।
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१६. ११. १२] हिन्दी अनुवाद
३६३ घत्ता-पिताके द्वारा कहे गये तपको कैलास पर्वतपर जाकर करना चाहिए, जिसके कारण अत्यन्त सन्तापकारी संसारके प्रति तृष्णा क्षीण होती है ।।९।।
१०
यह कहकर कामको मारनेवाले उपशमरूपी लक्ष्मीके धारक और प्रसन्न कुमार, जिसकी गुहाओंमें वराह विचरण करते हैं और जो शवरोंकी शोभासे युक्त है ऐसे वनमें चले गये। उन्होंने कैलास पर्वतपर जिनेश्वरके दर्शन किये और परमेश्वर ऋषभकी स्तुति की-“हे वृषभ वृषभध्वज, आपकी जय हो। देवोंके मुकुटोंसे ललितचरण आपकी जय हो। परम अक्षयपदके कारणस्वरूप आपकी जय हो। मोहरूपी महावृक्षका निवारण करनेवाले हे जिन आपकी जय हो। सुखमें वास करनेवाले, दुराशाका निवारण करनेवाले आपकी जय हो। चन्द्रमाके समान श्वेत छत्रवाले आपकी जय हो।" फिर पांच परमेष्ठियोंको नमस्कार कर, पांच मुट्ठी केशलोंच कर, पांच महामुनियोंके पांच महाव्रत लेकर, पांच आस्रवके द्वारोंको रोककर, पांच इन्द्रियोंके प्रमादोंको छोड़कर, कामदेवके पांच बाणोंको त्यागकर, पांच आचारश्रेष्ठोंको पाकर, दस प्रकारके धर्मोको धारण कर
पत्ता-मनरूपी तीरको दृढ़ गुण ( गुण डोरी ) में रखकर मोक्षके सम्मुख प्रेषित किया। इस प्रकार अरहन्त ऋषभके सन्त पुत्रोंने आत्माको चारित्रसे विभूषित किया ॥१०॥
११
तब दूत राजा भरतके घर आया और बोला-“हे राजन् सुनो, शीलके सागर तुम्हारे भाई, हे देव आज ही मुनि हो गये हैं, एक बाहुबलि ही दुर्मति है, न तो वह तुम्हें प्रणाम करता है और न तप करता है।" यह सुनकर पुरोहितने भट, सामन्त और मन्त्रियोंके लिए उपयुक्त यह कहा, उसके ( बाहुबलिके ) पास कोश, देश, पदभक्त,. परिजन, सुन्दर अनुरक्त अन्तःपुर, कुल, छल-बल, सामर्थ्य, पवित्रता, निखिलजनोंका अनुराग, यशकीर्तन, विनय, विचारशील बुधसंगम, पौरुष, बुद्धि, ऋद्धि, देवोद्यम, गज, राजा, जंगम, महीधर, रथ, करभ और तुरंगम हैं। जबतक वह अर्थशास्त्रका अनुसरण नहीं करता और जबतक सैकड़ों सहायकोंको नहीं बनाता, जबतक दुष्टोंकी संगति और क्षात्रधर्मके निर्मूलनके मार्गमें नहीं लगता।
पत्ता-जबतक वह धनुष हाथमें नहीं लेता, तरकस युगलको नहीं बांधता और भाल तथा कान तक निमज्जित होनेवाली डोरपर तीरका सन्धान नहीं करता ॥११॥
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१०
१५
१०
३६४
महापुराण
१२
ताम तासु दूयंउ पेसिज्जइ तो पुणु बाहुबलि धरिज्जइ एम मंतु जं तेण पउँजिउ विरत संविद्धंणु दे सजाइकुलसुद्ध पसिद्धउ विविहविसयभासाभासिल्लउ तेयवंतु रक्खियपहुतेयउ गैंउ दूयउ परिचोइयपत्तर जहिं वणतरुसाहहिं महु वियलइ अइदीहरप्रवाससममहियहिं रसविसेसधारामहमहियई
आरणालं - ण हु मारइ महाहवे जा महाहवे दाइओ समत्थो । जाण हरइ णिराउलं तुह महीयलं तिक्खखग्गहत्थो ||१|| जइ पइ पणवइ तो पालिज्जइ । बंधि कारागार णिहिज्जइ । ताराएं तहु दू विसज्जिउ । सुहड सुलक्खणु सोमु सुदंसणु । पंडिउ पडु पहुलच्छिसमिद्धउ । दिठुत्तरु महिमाइ महल्लउ । महुरवाणि देउ अजेयउ । पोयणपुरु बहुदिवसहिं पत्तउ । चलकं केल्ली पल्लवु विलुलइ । पसंतहिं वि सं मंतहि पहियहिं । जहिं खजति फलाई सुरहियई । दिसु रुणुरुति इंदिंदिर ।
हिंगुइ माल विहिंडिर" घत्ता - सरु मेल्लिव करेण नियड्ढयउ रत्तु पवड्डुलु" रसियउ । बिंबीफलु" अहरु व वणसिरिहे जहिं कणइल्ले डसियउ ॥ १२ ॥ ॥
१३
१०
आरणालं - वरेकेदारदारए सालिसारए कसणधवलपिच्छा । झणझणघणकणं कणिसमणुदिणं जहिं चुणंति रिंछा || १ || वित्तु जहिं चंदे दाविउ माणुस कत्थ य विहाविउ । जहिं विहारु पासाङ पियारउ उणारियणकंठु रइगारउ । उववासु वि चडएण रइज्जइ rs रोएं दुक्कालिं किज्जइ । जहिं केण विकीरण सुरागमु हो गुणीण गुणेहिं सुरागमु । दि सिहाछेउ वि रिसिदिक्खहि उ माणिक्कम ऊहपरिक्खहि । असिलाहरू जहिं लेप्पइ विसिम रणसंकप्पइ । वहइ सया णवत्तु वैणु जोर्वेणु उ णिरुवद्दउ णिवसंत जणु । गई ' णासवारि णउ रायवयं गइ | धरणु निवडणु जहिं अहरुल्लइ ।
"द्धत्तणु निवडणु थणउल्लइ
[ १६. १२. १
१२. १. MBP दूवउ । २. M पत्तु विद्धंसणु । ३. MBP आदेय । ४. MBP गयउ दूउ । ५. MBP ● दियहहि । ६. MBP पल्लउ | ७. MBP समत्तर्हि | ८. MP add after this : णं कामिणिवयणई अइसरसई, पुणु पिज्जहिं जलाई सरिसरसहि । ९. MBP गुंफइ । १०. MBP विडिर । ११. MBP पवट्टलु । १२. MBP बिबीहलु |
१३. १. MBP वरुं; T केयार । २. MBP पिछा। ३. MBP चरंति । ४. MBP णारियणदेहु । ५. MBP° हवरूवउं; K हवरूवउं but corrects it to रूउं । ६. MBPT धणु । ७. MBP जोव्वणु । ८. MT कुसादूसण । ९. P णीसग्गह । १०. MBP थड्ढत्तणु ।
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१६. १३.११]
हिन्दी अनुवाद
३६५
१२
जबतक महायुद्ध में समर्थ शत्रु तुम्हें युद्ध में नहीं मारता और जबतक तीखी तलवार हाथमें लिये हुए वह तुम्हारी निराकुल धरतीका अपहरण नहीं करता, तबतक आप उसके पास दूत भेजें । यदि वह प्रणाम करता है तो उसका पालन किया जाये, नहीं तो फिर बाहुबलिको पकड़ लिया जाये और बांधकर कारागारमें डाल दिया जाये।" जब उसने (पुरोहितने ) यह मन्त्रणा दी तो राजाने उसके पास दूत भेजा। वह दूत अपने स्वामीमें अनुरक्त शत्रुका विध्वंस करनेवाला सुभट, सुलक्षण, सौम्य, सुदर्शन, देश-जाति और कुलसे सिद्ध-प्रसिद्ध, पण्डित, चतुर, प्रभुको लक्ष्मीसे समृद्ध, विविध विषय और भाषाओंका बोलनेवाला, उत्तरको देख लेनेवाला और महिमासे महान्, तेजस्वी, प्रभुका तेज रखनेवाला, मधुरभाषी, आदरयुक्त और अजेय था। अपने वाहनको प्रेरित कर दूत चल दिया और कई दिनोंमें पोदनपुर नगर पहुंचा। जहाँ वनतरुओंकी शाखाओंसे मधु निकल रहा था, चंचल अशोक वृक्षोंके पत्ते हिल रहे थे। अत्यन्त लम्बे प्रवासके श्रमसे सब ओरसे प्रवेश करते हए पथिकोंके द्वारा रस विशेषकी धारासे महकते हए जहां सुरभित फल खाये जाते हैं। पुष्पोंके द्वारा मालाएँ गूंथो जाती हैं और भ्रमणशील मधुकर चारों दिशाओंमें गुनगुना रहे हैं।
घत्ता-जहाँ शब्द करके और चोंचरूपी करसे खींचकर रसीले लाल-लाल वनश्रीके अधरके समान कुंदरु फलको शुकने काट खाया ॥१२।।
१३
धान्यके श्रेष्ठ खेतोंके मार्गमें काले और सफेद बालवाले रीछ झनझनाते हुए घन कणोंवाले धान्यको प्रतिदिन चुगते हैं। जहां निर्धनता (स्निग्धत्व ) चन्द्रमाके द्वारा दिखायी जाती है मनुष्यमें निर्धनता दिखाई नहीं देती। जहां विहार शब्द प्रासादोंमें प्रियकारक होता है, प्रेम उत्पन्न करनेवाला नारीजनके कण्ठ विहार (हार रहित) नहीं है। जहाँ चटकके द्वारा (गौरैया ) उपवास ( गृहोंके भीतर वास ) किया जाता है, वहाँके लोग रोग और दुष्कालके कारण उपवास नहीं करते। जहाँ किसीके द्वारा सुरागम नहीं किया जाता ( मदिरापान ), गुणियोंके गुणोंसे सुरागम ( देवागम ) होता है। जहाँ मुनि दीक्षामें ही शिखाउच्छेद होता है माणिक्योंकी किरण परीक्षामें शिखाच्छेद नहीं होता है। जहां लेपकर्ममें असिलाभवरूप ( अमूर्तसे उत्पन्न रूप ) होता है, विशिष्ट मारण संकल्पमें नहीं। जहां वन और यौवन सदैव नवत्व धारण करते हैं, निरुपद्रव रूपसे रहता जन नवत्व धारण नहीं करते ( पुरानी व्यवस्थाका त्याग नहीं करते ) । जहाँ अनासंग ( संसारसे विरक्त ) मुनियोंके लिए कुसादूषणु ( पृथ्वी और लक्ष्मी दूषण है ) अश्वारोही और राज्यपदको प्राप्त व्यक्तिके लिए पृथ्वी और लक्ष्मी दूषण नहीं है। जहां स्तनोंमें सघनता और पतन है, वहां लोगोंमें सघनता और पतन नहीं है। जहां अधरोंमें धरण ( पकड़ा जाना) और निष्पीड़न है, वहाँके जनोंमें ये बातें नहीं हैं।
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३६६
[१६.१३.१२
महापुराण घत्ता-पुक्खरिणिहिं कीलागिरिवरहिं जलखाइयपायारहिं ।।
जं सोहइ मोत्तियतोरणहिं मंडिउ चउहुं मि दारहिं ॥१३॥
आरणालं-तहिं सुरगुरुसुरूयओ रायद्यओ पट्टणे पइट्ठो ।
, रायालयदुवारए हिययहारए णायरेहिं दिट्ठो ॥१॥ कणयदंडेयरु भल्लउ भाविउ तहिं पडिहारु तेण बोल्लाविउ । बुद्धिवंतु अञ्चब्भुयभूयउ
भणु अच्छइ दुवारि पहुदूयउ। तं णिसुणिवि गउ लट्ठिविहत्थउ कहइ कुमारहु पंणमियमत्थउ। अच्छइ दारि णरिंदवओहरु अत्थि णत्थि भणु सामिय अवसरु । ता कंद भणिउं म वारहि भायरकिंकरु लहु पइसारहि । ता कट्ठियहरेण जसणिम्मलु पइसारिउ पसण्णमुहमंडलु । बाहुबलीसु देउ कयमंडलु
दूएं दिट्ठउ णं आहंडलु। संथुउ मउलियपंजलिपोमें
को वसि ण कियउ तुह परिणामें । घत्ता-तुह धणुगुणटंकारएण केणं ण माणु णिहित्तउ ।। __ पई वम्मह पंचहिं मग्गणहिं सयलु वि तिहुयणु जित्तउ ॥१४॥
१५
आरणालं-पियवयणं पि भासियं सुइसुहासियं मुत्तकामभोया।
तुह जयवडहसदेणं जगविमदेणं णउ सुणंति लोया ॥१॥ जय कुसुमाउह रइरमणीवर अलिमालाजीयासंधियसर । पई पेच्छिवि घोलइ उप्परियणु वियलइ णारिहि णीवीबंधणु । चिहुरभारु दढबंधु वि पसिढिल हवइ रयंबु सवइ सोणीयलु । चलइ वलइ लोयणजुयलुल्लउ दीसइ अंगु वूढसेउल्लउ । रंभा णवरंभा इव डोल्लइ
रइवाएं आहल्ल वि हल्लइ । देव तिलोत्तिम तिलु तिलु खिजइ विरहें उठसि उव्वेइज्जइ । मेणई मीणि व थोवइ पाणिइ पिय संतप्पइ रवियरमाणिइ । एम थुणंतहु दिण्णउं आसणु . णिवसणु भूसणु किउ संभासणु । हिमइरिजलहिमज्झि महिरायहु कुसलु खेउं भरहहु महु भायहु । कुसलु खेउं कुरुवंसणरेसहु कुसलु खेमु जलहरणिग्घोसहु । कुसलु खेमु णमिविणमिकुमारहु कुसलु खेउं पत्थिवपरिवारहु । दूर्व वुत्तउ कुसलु गरिंदहु ___ कुसलु णाह णिहिलहु णिवविदहु । एक्कु जि अकुसलु सुहिउक्कंठिउजं तुहुं देवं दूरि परिसंठिउ ।
१४. १. MBPT सरूयओ । २. MB सयालए। ३. MBP दंडकरु । ४. MBP पणमियं । ५. MBP
बारि । ६. M टंकारवेण । ७. MBP केणहिमाणु ण चत्तउB T णिहित्तउ त्यक्तः । १५. १. MB जयवडसद्देण । २. B सिढिलु । ३. P देवि । ४. MBP उब्वस । ५. MBP मीणइ ।
६. MBP दूरि देव ।
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१६. १५. १५ ]
हिन्दी अनुवाद
३६७
घत्ता - जो पुष्करिणियों, क्रीड़ागिरिवरों, जलखाइयों, प्राकारों तथा मोतियोंके तोरणोंवाले चारों द्वारोंसे अलंकृत - शोभित है ||१३||
१४
ऐसे उस पोदनपुर नगर में बृहस्पतिके समान रूपवाला प्रवेश करता हुआ राजदूत राज्यालयके सुन्दर द्वारपर लोगोंके द्वारा देखा गया। वहां स्वर्णदण्ड धारण करनेवाले सुन्दर विचारशील आश्चर्यचकित एवं बुद्धिमान् प्रतिहारसे वह बोला, "राजासे कहो कि द्वारपर प्रभुका दूत खड़ा है ।" यह सुनकर लाठी हाथमें लिये हुए मस्तक से प्रणाम कर प्रतिहार कुमारसे कहता है, " द्वारपर राजाका दूत स्थित है, हे स्वामी अवसर है कि 'हां-ना कुछ भी कह दें ।" तब कामदेव बाहुबलिने कहा, “ मना मत करो। भाईके अनुचरको शीघ्र प्रवेश दो ।" तब यष्टि धारण करनेवाले प्रतिहारीने यशसे निर्मल प्रसन्न मुखमण्डल दूतको प्रवेश दिया। सभा के बीच बैठे हुए बाहुबलीश्वरको दूतने इस रूपमें देखा मानो इन्द्र हो । हस्तकमलोंकी अंजलि जोड़कर उसने संस्तुति की - "तुमने अपने परिणामसे किसको वशमें नहीं कर लिया ।"
घत्ता - तुम्हारी धनुष - डोरीके टंकारसे किसने मान नहीं छोड़ दिया । हे कामदेव, तुमने अपने पांच ही तीरोंसे समस्त त्रिलोकको जीत लिया ||१४||
१५
"काम और भोगोंको जिन्होंने भोगा है ऐसे लोग कहे गये श्रुतिमधुर प्रिय वचन और जगका विमर्दन करनेवाले तुम्हारे विजयके नगाड़ोंका शब्द नहीं सुनते । हे रतिरूपी रमणीके वर कामदेव, आपकी जय हो । भ्रमरबालाको डोरीपर सर-सन्धान करनेवाले आपको देखकर नारीके ऊपरका वस्त्र गिर जाता है, और नीवि निबन्धन खुल जाता है। पक्का बँधा हुआ भी केशभार खुल जाता है, रज होने लगता है, श्रोणीतल खिसक जाता है। नेत्रयुगल चंचल होकर मुड़ने लगता है, शरीर पसीना-पसोना हो जाता है । रम्भा नवकदलीकी तरह हिलने लगती है, रतिकी हवासे और अधिक कँपने लगती है । हे देव, तिलोत्तमा क्षण-क्षण खेदको प्राप्त होती है और विरहसे उर्वशी खेदको प्राप्त होती है । हे स्वामी, मेनका थोड़े पानीमें मछली की तरह सूर्यकी किरणोंके सन्तापसे सन्तप्त हो उठती है ।" इस प्रकार स्तुति करते हुए दूतको उसने आसन, वसन और भूषण दिये और सम्भाषण किया - "हिमगिरिसे लेकर समुद्र पर्यंन्त, महीराज मेरे भाई भरतका कुशल-क्षेम तो है ? कुरुवंशके राजाका कुशल-क्षेम तो हैं, समुद्रके समान निर्घोषवाले ( उनका ) कुशल-क्षेम तो है । नमि-विनमि कुमारका कुशल-क्षेम तो है, राजाके परिवारका कुशलक्षेम तो है ।” दूत बोला - "हे राजन्, कुशलक्षेम है, समस्त राजसमूहका कुशलक्षेम है ? सुधीजनोंमें उत्कण्ठा पैदा करनेवाला एक ही अकुशल है और वह यह कि हे देव आप बहुत दूर हैं ?
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१०
३६८
महापुराण
घत्ता - दूर त्यहं बंधुहुं गेहु जइ णासइ पिसुणकयंतरु | रवि मल्लइ किरण पंकयहं ताइं णिवारइ जलहरु ||१५||
१६
आरणालं - भो भो दणुयणिम्मेहा सुणसु वम्महा कुणसु चारु चित्तं । सह गुरुण भाइणा तिजगताइणा रूसिउं ण जुत्तं ॥१॥ को ससहरु को किर करमेलउ को समुद्द को जलकल्लोलs | कोतुहुं भरहु व किर वुच्चाइ एह बुहं विपुण रुच्चइ | कपरुक्खु किं कुसुमहिं अंच रयणायरु करसलिलें सिंचमि । सुरहु अग्गइ दीवउ बोहमि उहिणु किं पईं संबोहमि । ताहु अच्छइ भरहु जि राणउ तुहुं जुराउ जगेपहाणउ | माणे मरट्ट विसट्ट मुएप्पिणु जीवहु एकमेक अणुणेपिणु । तरुणिकंठकंटइयपवैट्ठहिं अरिवरदंतिदंत परिहट्ठहिं । आढियह कोदंडहिं आलिंगियउ जेहिं भुयदंडहिं । तेहिं ण पुणरवि रणि जुज्झिज्जइ गुरुणि अविणण लज्जिज्जइ ।
घत्ता - कुलसामि महाबलु सुयणु गुणि णउ णवंति जे राणउ ॥ घर ताहं होइ दालिद्दडउ अह जमपुरिहि पयाणडं ||१६||
१७
आरणालं - जो वरचरमकुलयरो पढमणिववरो पंकयच्छियाए । जिणवंसो पयासिओ जेण भूसिओ रायलच्छियाए ॥१॥ जासु दंडु परदंडु णिरुभइ ।
तुर तुरिउ हियएं सहुं गच्छइ । थवइ थवई तिहुयणु जइ इच्छइ । असि असु कडूढइ सत्तुहुँ केरउ | सेणावइ सेणावइ णासइ । णिज्जिउ सुरु वेयड्ढणिवासु वि । सिंधुदेविअहिमाणु पलोट्टिउ । पुणु आइ सरिसुतीरहु । छाहिछलेण व ससिणा गहियउ । faणामंकित भ्रमइ ससंकउ । जित्तई मेच्छेडलई सामरिसई । पुणु भउ जणियउं गंगाकूडहु |
जासु चक्कु रिउचक्कु णिसुंभइ जासु पुरोहु पुराइड पेच्छइ कागणि दिमणि ससि वि दुगंछइ छायs छत्तु तु विवरेरउ चम्मु चमू धरंतु अइभासइ मागहु वरतणु जेण पहासु वि जेण तिमीसकवाडु विहट्टिउ दिण्ण केर हिमवंतकुमारहु तर्हि अप्पणउं गाउं संणिहियउ तं तहिं दीसइ ण उण कलंकड विसहरउलई सविसहर व रिसई पायसेल किडहु
[ १६. १५. १६
१६. १. Mणम्हा । २. MBP गरुण ।
३. MB हउं मि हीणु । ४. MP जगेक्कु पहाणउ ।
५. MBPK माणु मरट्टु विसट्टु । ६. P परिवट्टहि and gloss परिघृष्टैः । ७. MBP पयंड । ८. MBP गुरुयणं ।
१७. १. MBP अइहासइ । २. MBP वसहइरिउ तीरहु । ३. MBP णामंकउ । ४. MBP मिच्छाउलई ।
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१६. १७.१४ ]
हिन्दी अनुवाद
३६९
घत्ता- दुष्टोंके द्वारा अन्तर पैदा कर देनेपर दूरस्थ भाइयोंका स्नेह नष्ट हो जाता है, सूर्यं कमलोंके लिए किरणें भेजता है परन्तु जलधर उनका निवारण कर देता है || १५ ||
१६
हे दानवोंको नष्ट करनेवाले कामदेव, सुनो और अपना चित्त सुन्दर बनाओ । त्रिलोकको सतानेवाले अपने बड़े भाई से रूठना ठीक नहीं । चन्द्रमा कौन और उसकी किरणोंका समूह कौन ? समुद्र कौन और उसकी जलतरंगें कौन ? तुम कौन और भरत कौन ? पण्डितोंको यह विकल्प (या भेदभाव ) अच्छा नहीं लगता। क्या में कल्पवृक्षकी फूलोंसे पूजा करूँ ? क्या समुद्रको हाथ के जलसे सोचूँ ? क्या सूर्यके आगे दीप जलाऊँ, मैं हीन हूँ क्या तुम्हें सम्बोधित करूँ ? तात ( ऋषभ ) के बाद भरत राजा है और तुम भुवनमें एकमात्र प्रधान युवराज हो । अतः चित्तभेद मान और अहंकार छोड़कर जीवको एकमेक मानकर, तरुणीजनोंके कण्ठोंको कण्टकित करने वाले, शत्रुरूपी गजोंके दाँतों को परिभ्रष्ट करनेवाले, प्रदीर्घ धनुषों को आकर्षित करनेवाले जिन बाहुओंसे ( जिस भरतका ) आलिंगन किया है उन्हीं बाहुओंसे उसके साथ युद्ध में नहीं लड़ा जाना चाहिए, गुरुजनमें अविनय लज्जित होना चहिए ।
घत्ता - जो राजा, कुलस्वामी, महाबल, सुजन और गुणी व्यक्तिको नमस्कार नहीं करते उनके घर में दरिद्रता बढ़ती है और उनका यमपुरीके लिए प्रस्थान होता है ||१६||
१७
जो परम चरमशरीरी कुलकर है, पहला राजा है, जिसने जिनके वंशको प्रकाशित किया है, और कमलनयनी राजलक्ष्मीसे भूषित किया है। जिसका चक्र शत्रुचक्रको नष्ट कर देता है, जिसका दण्ड शत्रुदण्डको रोक देता है, जिसका मन्त्री आगेकी बात देख लेता है, जिसका तुरग हृदय के साथ दौड़ता है, जिसका कागणी मणि सूर्य और चन्द्रमाकी भी अपेक्षा नहीं रखता, जिसका स्थपति चाहे तो त्रिभुवनकी रचना कर सकता है। विरुद्ध होनेपर वह छत्र छा लेता है, और शत्रुओंके तलवारसे प्राण निकाल लेता है । चमू ( सेना ) को पकड़ते हुए उसका वर्म अत्यन्त शोभित होता है, जिसने मागध और वरतनुको जीत लिया है और विजयार्ध पर्वत निवासी देवको भी जीत लिया है। जिसने तिमिस्राके किवाड़ोंको विघटित कर दिया और सिन्धु देवीका अभिमान चूर-चूर कर दिया । हिमवन्त कुमारको आज्ञा ( अधीनता) देकर फिर वह कैलास पर्वतके तटपर आया । वहीं उसने अपना नाम लिखा, जिसे छायाके छलसे चन्द्रमाने ग्रहण कर लिया, वही नाम चन्द्रमामें दिखाई देता है वह कलंक नहीं है, राजा भरतके नामसे अंकित होकर चन्द्रमा सशंकित परिभ्रमण करता है । मेघकुलोंको बरसानेवाले नागकुलों और अमषंसे भरे हुए म्लेच्छकुलों को जिसने जीत लिया है, और मानो जिसने हिमशिखरके मुकुटवाले गंगाकुटको भी भय उत्पन्न कर दिया है ।
४७
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१५
५
१०
१५
३७०
महापुराण
घत्ता - दुक्की मंदाइणि कलसकर लोएं" दीसइ केही ॥
थिय न्हाणकरणमणणिवणियडि मज्जणवालिणि जेही ||१७||
१८
जं
मालि साहि मालायरु असमु वइरु किं तेण समाणडं पिंछकमंडलुमंडियहत्थहु चक्कट्टि गुणमणिरयणायरु मा पज्जल तासु कोवाणलु हामा दुररएहिं विहिज्जे उ मा उच्छल छइयादिस मेरउ मा धातु महंत महारह काउ कंदलाव लिहि म विरसउ देह agreg हप्पिणु तं णिसुणेपिणु बाहुबली सें घत्ता - कंदपु अदप्पु ण होमि हउं दूययकरउ निवारिउ || सो महु केरण पहु डज्झिहइ णिरारिउ || १८ ||
आरणालं - जस्सायासग्रामिणो खयरसामिणो विहियेहिययसल्ला । मिविणमी सणामया णिरह णिम्मया जायया वसिल्ला ॥१॥ पुणु वेढहु कुलिसें ताडिउ पुव्वैकवाडु जेण उग्घाडिउ । जुइ पाडणं पायडणरु । 'माणुसु रित्तर उत्ताणडं । रोज तं मुणिवरसत्थहु | आउ जहुँ अवलोयहि भायरु । मा हिउ तुहारउ भुयबलु । पोयणपुर पायारु दलिज्जउ । हँरिखुरखयखोणीधूलीरउ । मा पिसुहं पूरंतु मणोरह | पलयकालु सोणिउँ मा र्करिसउ । पेक्खु भरहु भावें पणवेष्पिणु । पडिजंपिउं भूभंगविहीसें ।
१९
आरणालं - जं 'दिण्णं महेसिणा दुरियणासिणा णयरसमेत्तं । तं मे लिहियसासणं कुलविहूसणं हरइ को पहुतं ॥१॥ केसरिकेसरु वरसइथणयलु सुहहु सर मज्झ धरणीयलु । जो हत्थेण छिवइ सो केहउ किं कथंतु कालाणलु जेहउ । महिखंडेण कवण परमुण्णइ । किं मंदरगिरिसिहरि समचिउ । सिरिसरणिय किं रोमं चिउ । महु पुणु णं कुंभार केरउ ।
सो पर्णेमि को सो भण्णइ किं जम्मणि देवहिं अहिसिंचिउ किंत अग्गइ सुरवइ णञ्चि चक्कु दंडु तं तासु जि सारउ
[ १६. १७.१५
५. M records at राएं for लोएं । १८. १. MB विहयं । २. M पुव्विकवाडु ।
३. MP णं माणसु B माणुसु । ४. MBP 'कमंडल' । ५. MBP णिद्दलउ । ६. B वहिज्जउ । ७. BP हयखुर । ८. MBP वरिसउ । ९. MBP णियदप्पु हरेपणु ।
१९. १. MBP दिण्णउं । २. Bomits तं मह लिहियसासणं । ३. M वरहइ, but records a b वरसई । ४. MBP पणवउं । ५. MBP सइरिणियइ सो रोमंचिउ । ६. BP add after this : हरिगद्दहकिंकरछेलयहि |
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१६. १९.८] हिन्दी अनुवाद
३७१ पत्ता-कलश हाथमें लेकर गंगानदी वहां पहुंची, लोगोंको वह ऐसी दिखाई दी जैसे स्नान करनेकी इच्छा रखनेवाले राजाके निकट स्नान करानेवाली दासी खड़ी हो ॥१७॥
१८
आकाशगामी नमि-विनमि नामके विद्याधर स्वामी हृदयमें शल्य धारण कर, बिना किसीके मदके जिसके वशीभूत हो गये, जिसने फिर विजयाध पर्वतको वज्रसे आहत किया, जिसने पूर्वकिवाड़का उद्घाटन किया, जिसने नृत्यमालको सिद्ध किया और मालाकरको एक प्राकृत जनकी तरह अपने दोनों पैरोंमें गिरनेके लिए बाध्य किया। उसके साथ असम ( विषम ) वैर क्याजो ऊर्ध्वमुख मनुष्यको रिक्त करता है वह पिच्छी और कमण्डलसे मण्डित हाथवाले मनुवर-समूहको भी क्रोध उत्पन्न कर देता है। वह गुणरूपी मणियोंका समुद्र चक्रवर्ती है। आओ भाईको चलकर देखें। उसके क्रोधकी आग न भड़के और तुम्हारा बाहुबल न जले, हा तुम हाथीके दांतोंसे विभक्त न हो, पोदनपुरके परकोटे नष्ट न हों, दिशाको मर्यादाओंको आच्छादित करनेवाला, घोड़ोंके खुरोंसे क्षत धरतीका धूल-समूह न उछले, महान् महारथ न दौड़े, दुष्टोंके मनोरथ पूरे न हों। मनुष्योंके कपालके ऊपर कौआ न बोले। प्रलयकाल रक्तको न खींचे ? इसलिए दर्पहीन होकर कर दो, और भावपूर्वक प्रणाम कर भरतसे मिलो। बाहुबलीश्वरने यह सुनकर भौंहोंके संकोचसे भयंकर वह बोला
पत्ता-मैं कन्दर्प ( कामदेव ) हूँ, अदर्प ( दर्पहीन) नहीं हो सकता। मैंने दूत समझकर मना किया। मेरे संकल्पसे वह राजा निश्चित रूपसे दग्ध होगा ||१८||
१९
पापोंको नाश करनेवाले महर्षि ऋषभने जो सीमित नगर देश दिये हैं वह मेरे कुलविभूषित लिखित शासन है, उस प्रभुत्वका कौन अपहरण करता है ? सिंहकी अयाल, उत्तम सतीके स्तनतल, सुभटकी शरण और मेरे धरणीतलको जो अपने हाथसे छूता है, मैं उसके लिए यम और कालानलके समान हूँ ? मैं उसे प्रणाम करूं, वह कौन है ? धरतीखण्डसे कौन-सी परम उन्नति कही जाती है। क्या जन्मके समय, देवोंने उसका अभिषेक किया? क्या सुमेरु पर्वतपर उसकी पूजा
की गयी? क्या उसके सामने सुरपति नाचा। वह स्वेच्छाचारिणी लक्ष्मीसे इतना रोमांचित क्यों .. है? वह चक्रदण्ड उसीके लिए श्रेष्ठ हो सकता है, मेरे लिए तो वह कुम्हारका चक्का है। हाथी
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३७२
महापुराण
[१६.१९.९ करिसूयररहवरडिंभयरह
पर णिहणमि रणि जे वि महारह । भरहु हर: किं मज्झु भुयाभरु तई चुक्कइ जइ"सुयरइ जिणवरु । घत्ता-तहु मेइणि महु पोयणणयरु आइजिणिंद दिण्णउं ॥
अभिडउ पडउ असि सिहिसिहहिं जइ ण सरइ 'पडिपवण्णउं ॥१९॥
आरणालं-ता दूएण जंपियं किं सुविप्पियं भणसि भो कुमारा।
बाणा भरहपेसिया पिंछभूसिया होति दुण्णिवारा ॥१॥ पत्थरेण किं मेरु दलिन्नइ किं खरेण मायंगु खलिज्जइ । खेज्जोएं रवि णित्तेइज्जइ
किं घुटेण जलहि सोसिंजइ । गोप्पएण किं णहु माणिजइ अण्णाणे किं जिणु जाणिज्जइ । वायसेण किं गरुडु णिरुज्झइ णवकमलेण कुलिसु किं विज्झइ । करिणा कि मयारि मारिजइ किं वसहेण वग्घु दारिजइ । किं हंसें ससंकुधवलिजइ किं मणुएण कालु कवलिजइ । डेंडुहेण किं सप्पु डसिज्जइ किं कम्मेण सिधु वसि किज्जइ । किं णीसासें लोउ णिहिप्पइ किं पई भरहणराहिउ जिप्पइ । घत्ता-हो होउ पहुप्पइ जंपिएण राउ तुहुप्परि वग्गइ ।
करवालहिं सूलहिं सब्वलहिं परइ रॅणंगणि लग्गइ ॥२०॥
२१ आरणालं-ता भणियं सहेउणा मयरकेउणा एत्थ कहिं मि जाया।
जे परदविणहारिणो कलहकारिणो ते जयम्मि राया ॥१॥ वुड्ढउ जंबुउ सिवे सहिजइ एण णाई महु हासउ दिजइ । जो बलवंतु चोरु सो राणउ णिब्बलु पुणु किज्जइ णिप्राणउ । हिप्पइ मृर्गेहु मृगेण जि आमिसु हिप्पइ मणुयहु मणुएण जि वसु । रक्खाकंखइ जूहु रएप्पिणु एकहु केरी आण लएप्पिणु । ते णिवसंति तिलोईंगविट्ठउ सीहहु केरउ वंदु ण दिट्ठउ । माणभंगि वर मरणु ण जीविउ एहउ दूय सुट्ठ मई भाविउ ।
आवउ भाउ घाउ तहु दंसमि संझाराउ व खणि विद्धंसमि । ७. MBPT भरइ । ८. M भुयातरु; T भुयाहरु बाहुसामर्थ्यम् । ९. MBP ता । १०. M सुमरइ ।
११. MBP पडिवण्णउं। २०. १. MBPK किं खज्जोएं । २. P सोखिज्जइ । ३. P मण्णिज्जइ। ४. MBP डिंडहेण । ५. MBP
भरहु । ६. MBP पहुच्चइ । ७. K रणंगणु मग्गइ । २१. १. MBP सिउ। २. M णिब्बल । ३. MBP णिप्पाणउ । ४. MBP मिगह मिगेण । ५. MRE
वह । ६. B तिलोउ । ७. MBP विदु । ८. MBP वरि। ९.M भामिउ । १०. MBPK राउ Gus but writes above it 13 in second hand.
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१६. २१.९]
हिन्दी अनुवाद
३७३
रूपी सुअरों और रथवररूपी छकड़ोंके जो भी महारथी मनुष्य हैं, उनको मैं मारूंगा ? भरत मेरे भुजाभरका क्या अपहरण करेगा ? वह तभी बच सकता है कि जब जिनवरकी याद करता है ? धत्ता - उसकी धरती और मेरा पोदनपुर नगर, दोनों आदिजिनेन्द्रने दिये । यदि वह स्वीकार किये हुएको नहीं मानता, तो वह तलवार से लड़ता हुआ, अग्निकी ज्वालामें पड़ेगा ? ॥१९॥
२०
तब दूत ने कहा, "हे कुमार, यह अप्रिय क्या कहते हो ? भरतके द्वारा प्रेषित पुंखविभूषित तीर दुर्निवार होंगे? पत्थरसे क्या सुमेरु पर्वत दला जा सकता है ? क्या गधे से हाथी स्खलित किया जा सकता है ? जुगुनूके द्वारा क्या सूर्य निस्तेज किया जा सकता है ? क्या घूँटसे समुद्र सोखा जा सकता है, गोपदसे क्या आकाश मापा जा सकता है ? अज्ञानसे क्या जिनको जाना जा सकता है, कोएके द्वारा क्या गरुड़ रोका जा सकता है ? नवकमलसे क्या वज्रको वेधा जा सकता है ? हाथी के द्वारा क्या सिंह मारा जा सकता है ? क्या बैलके द्वारा बाघ विदीर्ण किया जा सकता है ? क्या मनुष्यके द्वारा काल कवलित किया जा सकता है ? मेंढकके द्वारा क्या सांप डसा जा सकता है, क्या कर्मके द्वारा सिद्धको वशमें किया जा सकता है ? क्या विश्वाससे लोकको आहत किया जा सकता है ? क्या तुम्हारे द्वारा भरत नराधिप जीता जा सकता है ।
धत्ता-हो-हो, बकनेसे क्या समर्थ हुआ जा सकता है ? राजा तुम्हारे ऊपर आक्रमण करता है, करवालों शूलों और सब्बलोंके द्वारा सबेरे तुमसे खांगण में मिलेगा ||२०||
२१
तब कामदेव बाहुबलि युक्तिके साथ कहता है- " चाहे यहाँ, या और कहीं विश्व में जो कलह करनेवाले और दूसरोंका धन अपहरण करनेवाले हैं, वे ही राजा हुए हैं ? बूढ़ा सियार शिवकी बात करता है, जैसे यह मुझे हंसी प्रदान करता है, जो बलवान् चोर है, वह राजा है, और जो निर्बल हैं वे निष्प्राण कर दिये जाते हैं । पशुके द्वारा पशुका मांस अपहृत किया जाता है और मनुष्यके द्वारा मनुष्यके धनका अपहरण किया जाता है। रक्षाको आकांक्षासे व्यूह रचकर, एककी आज्ञा लेकर वे राजा निवास करते हैं । लेकिन यह बात त्रिलोक में गवेषित है कि सिंहका कोई समूह दिखाई नहीं देता । मानभंग होनेपर मर जाना अच्छा है, जीना नहीं ।" हे दूत, यह बात मुझे बहुत अच्छी लगती है । भाई आये, मैं उसे आघात दिखाऊंगा और सन्ध्याराग की तरह
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३७४
महापुराण
[१६. २१. १० सिहिसिहाहं देविंदु वि ण सहइ महु मणसियहु विसिह को विसहइ । एक्कु जि परउवारु णरिंदहु जइ पइसरइ सरणु"जिणयंदहु । घत्ता-संघट्टमि लुट्टमि गयघडहु दलमि सुहड रणमग्गइ ।।
पहु आवउ दावउ बाहुबलु महु बाहुबलिहि. अग्गइ ॥२२॥
२२
आरणालं-ता दूउ विणिग्गओ णियपुरं गओ तम्मि णिवणिवासं।
सो विण्णवइ सायरं सारसायरं पणेविउं महीसं ॥१॥ विसमु देव बाहुबलि णरेसरु णेहु ण संधइ संधइ.गुणि सरु । कन्जु ण बंधइ बंधइ परियरु संधि ण इच्छइ इच्छइ संगरु । पई णउ पेच्छइ पेच्छइ मुयबलु आण ण पालइ पालइ णियछलु । माणु ण छंडइ छंडइ भयरसु दयवु ण चिंतइ चिंतइ पोरिसु । संति ण मण्णंइ मण्णइ कुलकलि पुहइ ण देइ देइ बाणावलि । तुज्झु ण णवइ णवइ मुणितंडउ अंगु ण कड्ढइ कड्ढइ खंडउ । देव ण देइ भाइ तुह पोयणु पर जाणमि देसइ रणभोयणु । ढोयइ रयणई णउ करिरयणइं ढोएसइ ध्रुवु णरउररयणइं। पत्ता-संताण कलक्कम गरुकहिउ खत्तधम्म णउ बज्झह ॥
मज्जायविवजिउ सामरिसु अवसें दाइउ जुज्झइ ।।२२।।
२३ आरणालं-ता परिल्हसिउ दिणमणी णं सिरोमणी गयणकामिणीए ।
____ अत्थं पडि णिवेइओ रुइविराइओ णाइ जामिणीए ॥१॥ मावेसहि भणेवि अइरत्तउ दिवसहु दिण्णु दीवु' सिहितत्तउ। णं चउपहरहिं वणु अहिकतिहि जायउ लोहियदु णहदंतिहि । णाई पवालकुंभु दिसणारिइ धरिवि मुक्कु दिक्करिगणियारिइ । पउलिवि तलिविदलिवि दलवट्टिवि जीवरासि जगभायणि घट्टिवि । दंडरहियजणलोहियलित्ती कालेडो विव दिसिर्वहि पित्ती। , उग्घाडिवि ससहरमुह णिद्धहि संमुहियहि तियसासामुद्धहि । णं सिंदूरकरंडु झसच्छिइ दाविउ लवणजलहिजललच्छिइ । मयरंदुल्लोलु व जगकमलहु णिउ वारण वरुणमुहकमलहु । गोमिणीइ हरिरइरसभरिउं पोमरार्यवत्तु व वीसरिउ । अत्थ मियउ जाइवि अवरासइ
रत्तु मित्तु णं गिलियउ वेसइ । ११. M सिहसिहहिं देविदु ण वि ण सहइ। १२. MT विसह । १३. MBPK जिणइंदह । २२. १. MBP दूवउ । २. MB पणवउ; P पणविओ। ३. MBP दहउ । ४. BPP मग्गइ मग्गइ । ५.
MBP धुउ । - २३. १. MBP दीउ । २. MBP कुंभ । ३. MBP मुक्क । ४. MBP मलिवि। ५. B कालिं दाविय ।
६. MB दिसवहि; P दिवसहि । ७. MBP भरियउ । ८. MBP पत्तु । ९. MBP वीसरियउ ।
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१६. २३. १२] हिन्दी अनुवाद
३७५ एक क्षणमें उसे नष्ट कर दूंगा ? आगकी ज्वालाओंको देवेन्द्र भी नहीं सह सकता, मुझ कामदेवके बाणको कौन सहता है ? राजाका एक ही परोपकार हो सकता है कि यदि वह जिनेन्द्रकी शरण में चला जाये।
घत्ता-संघर्ष करूँगा, गजघटाको लोटपोट करूंगा और रणमार्गमें सुभटोंको दलन करूंगा। राजा आये और मुझ बाहुबलिके आगे बाहुबल दिखाये ? ॥२१॥
२२ तब दूत अपने नगरके लिए गया और वहाँ राजाके निवासपर लक्ष्मी और पृथ्वोके आकर राजासे सादर निवेदन करता है-“हे देव, बाहुबलि नरेश्वर विषम है, वह स्नेह नहीं बांधता, गुणपर तोर बांधता है ( संधान करता है. ) वह कार्य नहीं बांधता, अपना परिकर बांधता है, वह सन्धि नहीं चाहता, युद्ध चाहता है। वह तुम्हें नहीं देखता, अपना भुजबल देखता है, आज्ञाका पालन नहीं करता, अपने कौशलका पालन करता है, मान नहीं छोड़ता, भयरस छोड़ता है, दैवको चिन्ता नहीं करता, वह अपने पौरुषको चिन्ता करता है, वह शान्ति नहीं चाहता, वह गृहकलह चाहता है, वह धरती नहीं देता, बाणावलि देता है, वह तुम्हें प्रणाम नहीं करता, मुनिसमूहको प्रणाम करता है, वह अंग नहीं निकालता, अपनी तलवार निकालता है, हे देव, भाई तुम्हें पोदनपुर नगर नहीं देता, परन्तु मैं जानता हूँ कि वह रण भोजन देगा, वह रत्नों और गजरत्नोंको उपहारमें नहीं देता वह मनुष्य-वक्षोंके रत्नोंको लेगा।
__घत्ता-वह परम्परा कुलक्रम गुरु द्वारा कथित क्षात्रधर्म नहीं समझता, मर्यादा विहीन सामर्ष वह शत्रु अवश्य युद्ध करेगा ।।२२।।
२३
इतनेमें दिनमणि ( सूर्य ) खिसक गया, मानो गगनरूपी कामिनीका चूड़ामणि हो, जैसे यामिनीने शान्तिसे शोभित उसे अस्ताचलके प्रति निवेदित किया हो। 'प्रवेश मत करो' यह कहनेके लिए जैसे उसने दिवसके लिए आगसे सन्तप्त दीप दिया हो, मानो चार प्रहर तक अभिक्रान्त करते हुए नभरूपी गजसे वन लोहसे लाल हो उठा। जैसे दिशारूपी नारीने प्रवालोंका घड़ा धारण कर दिग्गजकी हस्तिनीके ऊपर फेंक दिया हो, मानो विश्वरूपी भाजनमें फैलकर तलकर दलकर चूरचूरकर और घोंटकर, कालने, दण्डरहित जनरक्तसे लिप्त जीवराशि दिशापथमें फेंक दी हो, मानो सामने आयी, स्निग्ध पूर्वदिशारूपी मुग्धाका चन्द्रमुख उघाड़कर, मछलियोंकी
आंखोंवाली लवणसमुद्रकी जलरूपी लक्ष्मीने उसे सिन्दूरका पिटारा दिया हो, मानो पवनने वरुणके मुख कमल, और विश्वरूपी कमलके चंचल पराग उड़ा दिया हो अथवा गोपिनीके द्वारा कृष्णकी क्रीड़ा रससे भरा हुआ पद्मरागपात्र भुला दिया गया हो, पश्चिम दिशामें जाकर लाल सूर्य अस्त हो गया, जैसे वेश्याने उसे निगल लिया हो।
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३७६
[१६. २३. १३
महापुराण घत्ता-पुणु दीसइ संझारायएण मुवणु असेसु वि रत्तउ ॥
सहुँ "गिरिदरिसरिणंदणवणहिं लक्खारसि णं वित्तउ ।।२३।।
२४ आरणालं-आसोसियखमारसो खवियतावसो तरुणिदंसणाओ।
___णं णरमणि ण माइओ दिसहिं धाइओ सहइ मयणराओ ॥१॥ संझारायजलणु जो भमियउ सो तमजलकल्लोलहिं समियउ। संझारायघुसिणु जं संकिउ तं तमोहमयणाहें ढंकिउ । संझारायविडवि जो फुल्लिउ सो तमतंबेरमवइपेल्लिउ । चंदमइंदें तमकरि भग्गउ
किं जाणहुं सो तासु जि लग्गउ । मयणिहेण दीसइ सुहयारउ तप्पवेसु वईरिहिं भल्लारउ । विसइ गवक्खहिं थणय लि घोलइ वहुहारु व सैसितेउ णिहालइ । रंधायारु थियउ अंधारइ दुद्धसंक पयणइ मज्जारइ । रइपासेयबिंदु तेणुजलु
दिट्ठ मुयंगहि णं मुत्ताहलु । दिट्ठउ कत्थइ दीहायारउ
घरि पइसंतउ किरणुक्केरउ । मोर पंडरु सप्पु वियप्पिवि मुद्धे कह व ण गहिउ झडप्पिवि। घत्ता-गंगासरि हंसपक्खदलई पिर्यविरहिणिगंडयलई ॥
जायई ससियरपक्खालियइंधवलाई जि णिरु धवलई ॥२४॥
आरणालं-मम्मणमणियजंपिरं मयणकंपिरं पणयविणयवंतं ।
रइरसरहसरंजियं पिययमा पियं रमइ णिसि रमंतं ॥१॥ केण वि घणथणि णिहियउ करयलु कणयकलसि णावइ रत्तुप्पलु । काइ वि को वि'सुहउ आलिंगिउ मैडमडमुहचुंबणु मग्गिउ । णीहरंति पडिवहुरोसुब्भवि
केण विका विधरिय करपल्लवि । पणपकलहि रमणीचरणंगउ को वि सकुंकुमेण पाएं हउ। सोहइ विडु अइरा रिउ संकिउ णं मयरद्धयमुद्दइ अंकिउ । हार बद्ध का वि सयणालइ ताडिय णाहें चंपयमालइ । बिंबाहररसघयसंसित्तउ
काहं वि मयणहुयासु पलित्तउ । उल्हाविउ रइसलिलपवाहें काइ वि किलिकिंचिउ उच्छाहें । का वि रयावसाणसमरीणी चंदणकदमवाविहि लीणी। को वि का वि सवहहिं रंजइ गुणि अक्कसमाण मज्झु परपणइणि ।
१०. MBP गिरिसरसरि । २४. १. MBP जं। २. P वेरिहि । ३. M सियतेउ । ४. B omits this foot। ५. M रंधायार ।
६. M पियविरहिणं । २५. १. B रहसजंपियं । २. MBPK सुहडु । ३. MBP मंडमंड । ४. MBP कासु । ५. P°रयावसाणि ।
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१६. २५. १२ ] हिन्दी अनुवाद
३७७ घत्ता-पुनः अशेष भुवन सन्ध्यारागसे आरक्त दिखाई देता है, मानो पहाड़ों, घाटियों, नदियों और नन्दनवनोंके साथ वह लाक्षारसमें डुबा दिया गया हो ।।२३।।
२४.
क्षमारूपी रसको सोख लेनेवाला, तापसोंका नाशक, युवतियोंको पीड़ित करनेवाला मदनराज चूंकि मनुष्यमनमें नहीं समाता हा, मानो दिशाओंमें दौड़ रहा है। सन्ध्यारागरूपी जो आग घूम रही थी, उसे अन्धकाररूपी जलतरंगोंके द्वारा शान्त कर दिया गया, जिस सन्ध्यारागरूपी केशरकी आशंका की गयी थी, उसे तमःसमूहरूपी सिंहने ढक दिया। सन्ध्यारागरूपी जो वृक्ष खिला हुआ था उसे अन्धकाररूपी गजराजने उखाड़ डाला, चन्द्रमारूपी मृगेन्द्रने अन्धकाररूपी गजको भगा दिया। क्या जाने वह उसीको लग गया जो मृगलांछनके रूपमें शुभ करनेवाला दिखाई देता है । तल्पवेशमें जो शत्रुओंको अच्छा लगता है। गवाक्षोंसे प्रवेश करता है, स्तनतलपर गिरता है, शशिका तेज अनेक हारोंके समान दिखाई देता है, अन्धेरेमें रन्ध्राकार दिखाई देता है. और मार्जारोंके लिए दधकी आशंका उत्पन्न करता है, उससे ( चन्द्रमा) रतिका प्रस्वेदजल उज्ज्वल दिखाई देता है, जो मानो सर्पिणीके मोतीके समान जान पड़ता है। कहीं पर घरमें दीर्घ आकारमें प्रवेश करता हुआ किरण-समूह दीख पड़ता है, मयूरने उसे सफेद सांप समझकर किसी प्रकार झपटकर खाया भर नहीं।
घत्ता-गंगा नदी, हंसोंके पक्षदल और प्रियसे विरहिताओंके गण्डतल एक तो धवल थे ही, परन्तु चन्द्रमाकी किरणोंसे प्रक्षालित होकर वे और भी धवल हो उठे ।।२४||
२५
अपने मन में कामदेवका जाप करते हए कामसे कांपते रा प्रणयसे विनीत रतिरस और हर्षसे रंजित, रमणशील प्रियसे प्रियतमा रातमें रमण करती है। किसीने सघन स्तनपर अपना करतल रख दिया, मानो स्वर्णकलशपर लाल कमल हो। किसीके द्वारा कोई सुभग (प्रिय ) आलिंगित किया गया, और बलपूर्वक मुख चुम्बन मांगा गया। प्रतिवधू ( सपत्नी) के कारण क्रोध उत्पन्न होनेके कारण बाहर जाती हुई किसीको किसीने करपल्लवमें पकड़ लिया। प्रणयकलहमें रमणी चरणमें पड़ा हुआ कोई केशर सहित पैरसे आहत किया गया। थोड़ी देरके लिए शत्रुके रूपमें शंकित किया गया कोई विट शोभित है, मानो वह कामदेवको मुद्रासे अंकित हो। शयनतलमें हारसे बंधी हुई कोई प्रिया, स्वामी द्वारा चम्पकमालासे ताडित की गयी। बिम्बाधरोंके रसरूपी घोसे सींची गयी किन्हींकी कामाग्नि भड़क उठी, जिसे रतिरूपी जलके प्रवाहसे शान्त किया गया। किसीने उत्साहसे किलकिंचित् किया। कोई रतिके अवसानमें श्रमसे खिन्न चन्दनकी कीचड़की बावड़ीमें लीन हो गयी। कोई गुणो किसीको शपथोंसे समझाता है कि दूसरीकी प्रणयिनी मेरे लिए
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३७८
महापुराण
१६.२५.१३ जाम एहु वेसाणरु अच्छइ तावण्णहि को वयणु णियच्छइ। जणणि महेली मणि अवहारमि गुरुपय छिवमि ण पइं अवहेरमि । घत्ता-इय कवकूडमउजंपियहिं दाणेण व वसिहूयउ॥
णारीयणु रमिउ विडाहिवहिं वेढिवि णिरुवमरुवउ ॥२५।।
१५
२६ आरणालं-दीहा वि रयमिहुणहं चक्कवियणहं पहियवंदयाणं ।
__ मडहा हवइ रयणिया चंदवयणिया रेयविडिंदयाणं ॥१॥ ता उम्गमिउ सूरु पुवासइ रइरंगु व दरिसिउ कामासइ । किंसुयकुसुमपुंजु णं सोहिउ णं जगभवणि पईवु पबोहिउ । चारु सूरु वंसहु णं कंदउ लोहिउ ससि रोसेण दिणिर्दैउ । मज्झु परोक्खइ आवइ पाविय कमलिणि वेल्लि भणिवि संताविय । एम भणंतु व गयणि व लग्गउ णं रयणियरहु पच्छइ लग्गउ । तंबु करोहउ रुहिरु णिसा. चिंतिउ एंतु सछिहकवाडें । कुंकुमलोलु व मण्णिउं घरिणिइ रत्तु दुवंकुरु कंदरहरिणिइ । मिलियर सोहइ विद्दुममहियलि मिलियउ सोहइ ककेल्लीदलि। मिलियउ सोहइ रत्तइ सयदलि मिलियर सोहइ रमणीकरयलि । मिलियउ सोहइ जण अहरुल्लइ महिहरतीर धाउ जलरेल्लइ । राउ मुयंतु जि गुणसंजुत्तर अरहंतु व रवि उण्णइं पत्तउ । घत्ता-हयतिमिरे भरहपयासएण रविणा किंण वि दीविउ ॥
सिरिरामासेवियसच्छसरपुप्फयंतु वियेसाविउ ॥२६॥
इय महापुराणे तिसटिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरइए महामवमरहाणुमण्णिए महाकञ्चे बाहुबलियसंपेसणं णाम सोलहमो परिच्छेओ सम्मत्तो ॥१६॥
॥ संधि ॥१६॥
६. MBP वि। २६. १. MBP रई । २. MBP पईवउ बोहिउ । ३. MBP सूर । ४. MBP दिणंदउं । ५. MB तंब ।
६. M रुहिर । ७. MBP ककेल्लिहि दलि। ८. MBP दावियउ । ९. MB वियसावियउ ।
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१६. २६. १५] हिन्दी अनुवाद
३७९ माताके समान है। जब तक यह वेश्यावर है, तबतक अन्यका मुख कौन देखता है। अन्य महिलाको मैं मनमें माताके रूपमें धारण करता हूँ, गुरुके चरणको छूता हूँ कि तुम्हारी उपेक्षा नहीं करूंगा।"
पत्ता-इस प्रकार विटराजों द्वारा कपट कूट और कोमल उक्तियों तथा दानसे वशीभूत कर अनुपमरूपवाला नारीजनका आलिंगनकर रमण किया गया ॥२५॥
२६
रमण करते हुए जोड़ों, चक्रवाक पक्षियों और पथिकसमूह और रत विट राजके लिए चन्द्रमुखी लम्बी भी रात छोटी लगी। तब पूर्वदिशामें सूरज उग आया, जो कामकी आशासे रतिरंग ( कामदेव ) के समान दिखाई दिया, मानो पलाशपुष्पोंका समूह शोभित हो, मानो विश्वरूपी भवनमें प्रदीप प्रबोधित कर दिया गया हो, सुन्दर सूर्य मानो वंशका अंकुर हो। मानो दिनेश चन्द्रमाके क्रोधसे लाल हो उठा हो कि यह पापी (चन्द्रमा) मेरे परोक्षमें आता है और कमलिनीको लता कहकर ( समझकर ) सताता है। ऐसा कहकर जैसे वह आकाशसे लग जाता है मानो निशाचरोंके पीछे लग गया हो। निशाचरने लाल किरण-समूहको रुधिर समझा, लेकिन गृहिणीने छेदवाले किवाड़ोंसे आते हुए उसे (किरण-समूह ) केशरपराग माना, गुफामें रहनेवाली हरिणीने लाल दूर्वांकुर समझा। लाल कमलमें मिला हुआ वह शोभित है, अशोकके पत्तोंमें मिला हुआ शोभित है। जनोंके अधरोंमें मिला हुआ शोभित है, वह राग ( लाल रंग ) महीधरोंके तट और जलकी लहरियोंमें दौड़ा। इस प्रकार 'राग' ( रागभाव और लालिमा ) छोड़ते हुए और गुणोंसे संयुक्त अरहन्तके समान सूर्य भी उन्नतिको प्राप्त हुआ।
पत्ता-भरतके प्रसादसे अन्धकारको नष्ट करनेवाले सूर्यने क्या नहीं दिखाया। लक्ष्मीरूपी रमासे सेवित स्वच्छ सरोवर और पुष्पोंको विकसित कर दिया ॥२६।।.
इस प्रकार ब्रेसठ महापुरुषोंके गुण और अलंकारोंवाले इस महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महामन्य मरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का बाहुबलि दत संप्रेषणवाला सोलहवाँ परिच्छेद
समाप्त हुभा ॥१॥
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संधि १७
दूवागमि रविउग्गमि चलकरवालललावियजीहहो । जाइवि गंदाणंदणहो भिडिउ भरहु रणि सीहु व सीहहो ॥ध्रुवक।।
ता समरचित्तु विसरिसु विरुद्ध विप्फेरियदसणडसियाहरुद्ध । कढिणयरपाणिपीडियकिवाणु उँ यमीसियहयभउंहकोणु । तिवलीतरंगभंगुरियभालु णं सीहु कुडिलदाढाकरालु । अरुणच्छिछोहरंजियदियंतु णं पलयजलणु धगधगधगंतु । •ययवयणहिं वढियकसाउ जंपइ सरोसु रायाहिराउ । सुयरेप्पिणु तायहु तणउं चारु जइ कहं व ण मारमि रणि कुमारु । तो धरिवि णिरुभवि करमि तेम अच्छइ करि जिह णियलत्थु जेम । महु कुद्धहु रणि देव वि अदेव सो ण करइ किं महु तणिय सेव । इय गजिवि असितासियसुरिंदु जा उद्विउ भरहु महाणरिंदु । तो मउडबद्ध मंडलिय"चलय केऊरसकंठाहरणधुलिय । महिवडियकणयकंचीकलाव . अइभीसण थिय णं कालभाव । एकेक पहाण गिरिंदधीर'
सहुँ राएं लहु संणद्ध वीर। घत्ता-संणज्झतहु तहु भडयणहु का वि णारि पभणइ जइ जाणहि ॥
किं पि महारउ "उवयरिउ तो पिययम सुररमणि म माणहि ॥१॥
वहु का वि भणइ हत्थागएण किं कीरइ मणिकंकणसएण । अरिकरिदंतुब्भउ एक्कु जइ वि वलरल्लउ सोहइ हस्थि तइ वि । तं धवलउ तुह पोरिसजसेण: आणेजसु पिय महु रइवसेण । MBP give, at the commencement of this Samdhi, the following stanza:
वलिभङ्गकम्पिततनु भरतयशः सकलपाण्डुरितकेशम् ।
अत्यन्तवृद्धगतमपि भुवनं बम्भ्रमति तच्चित्रम् ।। M reads तनुवरं and B reads कम्पितवरं for कम्पिततनु; MP read विभ्रमति for बम्भ्रमति ।
GK do not give it. १. १. MBP दूयागमि रविउग्गमणे। २. MBP विप्फुरियडसणु डसिया । ३. M records ap for
this foot: धणुगुणे रोवि दिढवज्जबाणु । ४. MBP दूयहि वयणे । ५. MBP सुमरेप्पिणु । ६. P कह वि । ७. MB णिरुभिवि3 B णिरुंजिवि । ८. P करिव णियलत्थु । ९. MBP तो। १०. MBP चलिय । ११. MBP णरिंद । १२. B धीर। १३. MBP संणज्झंतह भडयणह । १४. K उवरिउ but gloss उपकृतम् ।
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सन्धि १७
के आगमन और सूर्यका उदय होनेपर, जिसकी चंचल तलवाररूपी जीभ लपलपा रही है नन्दानन्दन ( बाहुबलि ) से भरत रणमें उसी प्रकार भिड़ गया, जिस प्रकार सिंहसे सिंह भिड़ जाता है ।
१
ne युद्धके लिए कृतमन, अद्वितीय विरुद्ध, विस्फारित दाँतोंसे नीचेका ओठ चबाता हुआ, अपने कठोरतर हाथसे कृपाणको पीटता हुआ, उद्धत मिली हुईं आहत भौंहोंके कोणवाला, त्रिबलितरंगसे भंगुरित भालवाला वह ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो कुटिल दाढ़ोंसे कराल (भयंकर) तथा अपनी लाल-लाल आँखोंकी आभासे दिगन्तको रंजित करनेवाला सिंह हो । मानो धकधक करती हुई प्रलयकी ज्वाला हो। दूतके शब्दोंसे जिसका क्रोध बढ़ गया है ऐसा वह राजाधिराज क्रोध से कहता है- “पिताके सुन्दर वचनोंकी याद कर, यदि मैं किसी प्रकार कुमारको रणमें मारता नहीं हूँ, तो उसे पकड़कर और अवरुद्ध कर उसी प्रकार कर दूँगा जिस प्रकार बेड़ियोंसे जकड़ा हुआ हाथ रहता है । मेरे क्रुद्ध होनेपर देव और अदेव मेरी सेवा करते हैं, फिर वह मेरी सेवा क्यों नहीं करता ?" इस प्रकार गरजकर, अपनी तलवारसे देवेन्द्रको त्रस्त करनेवाला महान् नरेन्द्र भरत उठा । तब मुकुटबद्ध तथा केयूर और कण्ठाभरणोंसे आन्दोलित माण्डलीक राजा चले। जिनके स्वर्णके करधनी समूह धरतीपर गिर रहे हैं ऐसे अत्यन्त भीषण वे इस प्रकार स्थित हो गये जैसे कालस्वरूप ही हों । एकसे एक प्रमुख गिरीन्द्र की तरह धीर वे वीर शीघ्र राजाके साथ तैयार हो गये ।
धत्ता - तैयार होते हुए उस योद्धाजनसे कोई स्त्री कहती है, “यदि तुम मेरा कोई उपकार मानते हो तो हे प्रियतम, सुर रमणीको मत पसन्द करना" ॥१॥
२
वधू कहती है- "हाथमें आये हुए सैकड़ों मणिकंकणोंसे क्या, हाथीदांतका बना एक कड़ा यदि हाथमें सोहता है, उस धवल कड़ेको हे प्रिय तुम अपने पौरुष और यश तथा मेरे प्रेमके
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५
१०
५
३८२
महापुराण
सुतारु
वहु का वि भणइ एहु वि तुह करणित्तिसुक्कत्तिएहिं हरं कित्तिया इव कुसुमियंगि बहु का वि भणइ महिमाहरेण रिउचारु पिय उवयारकारि बहु का वि भइ अहिमाणगाहि ऊँण हएण वि णत्थि लाहु जिम मिहरहु जिम हिमयरहु भिडइ वहु का वि भणइ णीसंकयाइं
किं तुज्झ पसाएं णत्थि हारु । परकुंभिकुंभचुयमोत्तिएहिं । छेज्जमि दाविज्जैसु एह भंगि । मई विज्जहि किं चीरें करेण । आजसु रयसम से हारि । लग्गज पि पडिवक्खणाहिं । रूस तेण राहु ।
बेलिणा हएण जसु चंदि चडइ । तावियपिसुण पावियजयाई ।
घत्ता — कइणा कैब्वें मणोहरए जेण भडेण महाभडगोंदल || दिण्णई पयई सुरज्जुयई तासु कित्ति भमई" महिमंडल ||२||
३
ता रायवयणेण रणतूरलक्खाई
किंकर केराहयई तासियविवक्खाई । सुरदंतिखयजलयजलणिहिणिणायाई थेगिथ गिगिदुगिदुगिगि संदिण्णघायाई । पडुपड़हमद्दलमहारावरोलाई किंकरकै रुब्भमियसर्लेसलियतालाई । मुहपर्वतुरुतुरयकाहलवमालाई गज्जंत भेरीहिं हलैमुहल बोलाई । disasrasय डियगुरुकरडटिविलाई विरसं तझल्लरिस रोसरियसेलाई । णीसासभारेण पूरियई विमलाई हूहूहुयंताइं वरसंखर्जमलाई । अव विपयाई परियलियसंखाई जयविजय सिरिकामिणीसोक्खकखाई । रंजतरुंजाई "भंतभाई हल्लावियाहिंद महिसायरब्भाई " । चलियाई सेण्णाई संणाहसोहाई वरकुंजरारूढरण रूढजोहाई । चलधूलिकविलाई" " विष्फुरियखग्गाईं । "धावंतपाइककरधरियकोंताई" ।
रकरविमुक्कास खुरखयधरग्गाईं परिमिलिय मंडलियबलसारवंताईं रहचकचिक्कार भेसियभुयंगाई जक्खिदखयरिंद भूमिं भीमाई
[ १७.२.४
विछत्तछाहीहिं छाइयपयंगाई | "खयकालकीलाहि "कीलाविरामाई ।
"
२. १. MBP अरिकुंमि । २. P पहिरेसमि सामिय एत्थ भंगि, but records a / छिज्जमि दाविज्जसु । ३. MBP दाविज्जसि । ४. B वीरें करेण । ५. MBP रिउचामर । ६. MBP किं जणेण हएण । ७. MBP मिहिरहु । ८. MBP इय णाहरण, but M records at in the Margin बलिणा हण । ९. M कव्वेण । १०. MBP हिंडइ ।
३. १. B॰करह्यई । २. MBP ठगिदुगिगिठगिदुगिगि । ३. MBP करम्भमियं । ४. B सलललियं ।
o
५. MBP • पवणहयकुहर ( P कुहय ) तुरुतुरियकाहलई । ६. P° हलमुसलं । ७. MBP खरकर । ८. MBP जुलाई । ९. MBP अवराई पछ्याई । १०. MBP भंभंत भाहि । ११. MBP सायरंभाई । १२. BP कवलाई । १३. MBP विष्फरिय K विष्फरियं but corrects it to विष्फुरियं । १४. P घावंति । १५. MBP कुंताई । १६. MBK कालकालाहि । १७. B कीराहिरामाई ।
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१७. ३. १३ ] हिन्दी अनुवाद
३८३ वशसे ले आना।" कोई वधू कहती है-"यह स्वच्छ हार क्या तुम्हारे प्रसादसे मेरे पास नहीं है ? तुम्हारे हाथकी तलवारके द्वारा उखाड़े गये और शत्रुगजोंके कुम्भस्थलोंसे गिरे हुए मोतियोंसे कुसुमित अंगोंवाली में कीर्तिलताकी तरह शोभित होऊँ, तुम मुझे यह भंगिमा दिखाओ।" कोई वधू कहती है-"महिमाका हरण करनेवाले चीर या हाथसे मुझे हवा क्यों करते हो? हे प्रिय रजश्रम और स्वेदका हरण करनेवाला शत्रुका चामर ले आना।" कोई वधू कहती है-"तुम अभिमानी शत्रुपक्षके स्वामीसे लड़ना। छोटे आदमीको मारनेमें कोई लाभ नहीं, यही कारण है कि राहु नक्षत्रगणोंसे रुष्ट नहीं होता। वह इसीलिए सूर्यसे लड़ता है, इसीलिए चन्द्रमासे लड़ता है, बलवान्के मारे जानेपर यश चन्द्रमापर चढ़ता है। कोई वधू कहती है कि निशंक दुष्टोंको सतानेवाले ही जय प्राप्त करनेवाले होते हैं। . घत्ता-जिस कविने सुन्दर काव्यमें और भटने महासुभटोंके युद्ध में अपने सरल पदउद्यत पद दिये हैं उसीकी कीर्ति महीमण्डलमें घूमती है ॥२।।
तब राजाके आदेशसे अनुचरोंके हाथोंसे आहत विपक्षको सन्त्रस्त करनेवाले लाखों रणतूर्य बज उठे। ऐरावत प्रलयमेघ और समुद्रके स्वरोंवाले धगधग गिदुगिदु गिगि करते हुए आघात दिये जाने लगे। पटु-पटह और मृदंगके महाशब्दोंका कोलाहल हो रहा था, किंकरोंके हाथोंसे धुमाये हुए सुन्दर ताल होने लगे, मुंहकी हवासे तुर-तुर करते हुए काहलोंका कोलाहल होने लगा, गूंजती हुई भेरियोंके साथ हल-मूसलोंके बोल होने लगे। बिजलीके गिरनेसे तड़तड़ करते हुए विशाल करट और टिविलि ( बज उठे)। बजती हुई झल्लरियोंके स्वरसे पर्वत उखड़ने लगे। निश्वासोंके भारसे पूरित विमल और श्रेष्ठ शंखयुगल हू-हू-हू करने लगे। और भी, जय-विजय श्रीकामिनी और सुखको आकांक्षा रखनेवाले और भी असंख्य शंख बजा दिये गये। शब्द करते हुए रुंज-शंख, भें-में करते हुए भेभा शंख बज उठे। नाग, मही, समुद्र और मेघोंको हिलाती हुई कवचोंसे शोभित सेनाएं चलीं। योद्धाओंके द्वारा मुक्त अश्वखुरोंसे धरतीका अग्रभाग आहत हो उठा। चंचल धूलिसे कपिल रंगकी तलवारें चमक रही थीं। बलमें श्रेष्ठ योद्धा मिले हुए और मण्डलाकार थे। हाथमें भाले लिये हुए पैदल सिपाही दौड़ रहे थे। रथोंके चक्रोंकी चिक्कारोंसे भुजंग भयभीत हो उठे। नृपछत्रोंकी छायासे सूर्य आच्छादित हो गया। जो यक्षेन्द्रों, विद्याधरेन्द्रों और मानवेन्द्रोंसे भयंकर और क्षयकालकी क्रीडाको अपनी क्रीड़ासे विराम देनेवाली थी।
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३८४
[१७. ३. १४
महापुराण घत्ता-इय"भरहाहिउ णीसरिउ जाम समउ मंतिहिं सामंतहिं ।
ता वेयालियचरणहिं विण्णवियउ बाहबलि णवंतहिं ॥३॥
परियणजलेण णेहु महि पिहंतु उत्तुंगतुरंगतरंगवतु। करिमयरपसारियचंडसोंडु सियपुंडरीयडिंडीरपिंडु। लायण्णपउरगंभीरघोसु
'दुग्गउं चोइँहरयणाहिवासु । संदणबोहित्थसमूहचवलु
पंचंगमंतपायालविउलु । जसमोत्तियमंडियतिजगतीरु आणं दियणियकुल कुद्दहीरु । धयवडजलयरपरिघुलणरंगु दूरयरणिहित्तमलोहसंगु । तुज्झुवरि देव असिझसरउर्दु उत्थ ल्लिउ णरवइ बलसमुदु । सुविचित्तपत्तपत्तियसरेण
ता वुच्चइ बाहुबलीसरेण । हर एक्कु वइरि किं पउर भणहि किं कालहु अग्गइ जीव गंणहि । किं डज्झइ हुयवहु तरुवरेहिं । किं खज्जइ खगवइ विसहरेहिं । किं कुसुमबाण जिणमणु हरंति गोमाउ मइंदहु किं करंति। छाइजइ किं भयणेहिं भाणु पउर वि रिउ महु ण मलंति माणु। घत्ता-एक वि पउ ण समोसरमि णायायारहिं पंथु णिरुंभमि ॥
आवंतहु णिवसायरहो''सरवरपंतिहिं वरणु णिबंधमि" ॥४॥.
गजंतु एम पल यक्कतेउ
संणज्झइ सिरिबाहुबलिदेउ । जोयंतहु णियमुयथामसंचु' कासु वि वडिउ रोमंचु उंचु। हियवइ संणाहु ण माइ केम बहुलोहवंतु काउरिसु जेम। केण वि बद्धी जयकामएण असिधे[य रसणादामएण । केण वि इच्छिय संगामदिक्ख सरमोक्खहु केरी परमसिक्ख । केण वि गुणु वलँइउ कहिं वि चावि चैप्पिवि णं खलयणि कुडिलभावि । केण वि णिबद्धु तोणीरजुयलु णं गरुडें दाविउ पक्खेजमलु । केण वि कड्रिउ करवालु चंडु णं मेहें दरिसिउ विज्जुदंडु।
१८. भरहणराहिउ। ४. १. MB महि णहु । २. MB दुग्गमु । ३. MBP चउदह । ४. P पायालि । ५. MB कुलछुद्धहीरु ;
P°कुलु छुद्धहीरु; K°कुलकुद्दहीरु but corrects it to °छुद्धहीरु T चद्दहीरु चंद्रारंगुस्थानम् । ६. MBP°घुलियरंगु । ७. K उत्थल्लउ। ८. MBP °वत्तपत्तियं । ९. MBP जणहि । १०. BP णिरुभिवि। ११. MBP सायरबलहो। १२. MB वरुणु। १३. B णिबंधिमि;
K णिरुंभमि । ५, १. G संतु; K थावसंचु । २. MP उच्चु । ३. MBP असिधेणुव । ४. MBP लाविउ । ५. MBP
चप्पेविणु खलयणकुडिलभावि । ६. M पक्खजुयलु; RP पंखजुयलु । ७. P दाविउ ।
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१७.५.८]
हिन्दी अनुवाद
३८५
घत्ता - इस प्रकार जब भरताधिप मन्त्रियों और सामन्तोंके साथ निकला, तब वैतालिकों और चारणोंने प्रणाम करते हुए बाहुबलिसे निवेदन किया ||३||
४
"हे देव, तुम्हारे ऊपर सैन्यरूपी समुद्र उछल पड़ा है, जो परिजनरूपी जलसे धरती और आकाशको ढकता हुआ, उत्तुंग तुरंगरूपी तरंगोंसे युक्त, हाथीरूपी मगरोंसे अपनी प्रचण्ड सूँड उठाये हुए, श्वेत छत्रों के फेन समूहसे युक्त लावण्य ( सौन्दर्यं ओर खारापन ) के प्रचुर गम्भीर घोषवाला, दुर्गंम चौदह रत्नोंसे अधिष्ठित, रथोंके बोहित्य-समूहसे चपल, पंचांग मन्त्ररूपी पातालसे विपुल, यशरूपी मोतियोंसे त्रिजगरूपी तीरको मण्डित करनेवाला, अपने कुलरूपी चन्द्रको आनन्दित करता हुआ, ध्वजपटोंके जलचरोंसे व्याप्त शरीर, अन्यायरूपी मल समूहको दूर करनेवाला तथा तलवाररूपी मत्स्योंसे भयंकर है ।" तव सुविचित्र पुंखोंसे विभूषित तीरोंवाले बाहुबलीश्वर ने कहा - " ऐसा क्यों कहते हो कि मैं अकेला हूँ और शत्रु बहुत हैं ? क्या तुम कालके आगे जीवकी गिनती करते हो, क्या आग तरुवरोंके द्वारा जलायी जा सकती है ? क्या नागों के द्वारा गरुड़ खाया जा सकता है ? क्या कामके बाण जिनमनका हरण कर सकते हैं ? सियार सिंहका क्या कर सकते हैं ? क्या नक्षत्रोंके द्वारा सूर्य आच्छादित किया जा सकता है ? प्रवर शत्रु भी मेरा मान मलिन नहीं कर सकता ।
धत्ता - मैं एक भी पैर नहीं हटूंगा, और नागके आकार के तीरोंसे मार्गको अवरुद्ध कर लूँगा । आते हुए राजारूपी समुद्र के लिए में सरवरोंकी कतारोंसे तट बाँध दूँगा” ||४||
५
प्रलयसूर्यके समान तेजस्वी श्री बाहुबलीश्वर देव गरजते हुए तैयार होते हैं । अपने बाहुबलकी स्थिरता और बनावट देखकर किसी योद्धाका रोमांच ऊँचा हो गया, उसके हृदय में लोहवंत ( लोहेसे निर्मित और लोभयुक्त ) कवच उसी प्रकार नहीं समा सका जिस प्रकार कापुरुष । जयके अभिलाषी किसीने छुरी अपनी करधनीके सूत्र से बाँध ली । किसीने संग्राम दीक्षाकी इच्छा की और किसीने तीर चलानेकी परम शिक्षाकी । किसीने धनुषकी डोरीको कहीं चांपा, मानो कुटिलभाववाले खलजनको चांपा हो । किसी योद्धाने तरकस युगल इस प्रकार बाँध लिया मानो गरुड़ने अपने पक्षयुगलको दिखाया हो ? किसीने अपनी प्रचण्ड तलवार निकाल ली
४९
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महापुराण
[१७. ५.९ भडु को वि भणइ पर हँणमि अजु णिकंटउ सामिहि देमि रज्जु । पहु तुच्छु पउर रिउ हउं वि धीर भणु सुंदरि किं कीरइ वियारु । अवरुंडहि लहु दे देहि हत्थु को जाणइ पुणु संजोउ केत्थु । आयड्ढिउ पहुहि पसाउ जेहिं रणि जुज्झमि अज्जु मुएहिं तेहिं । घत्ता-भासइ को वि महासुहडु मुइ मुइ कति ण एवहिं 'मज्झमि ।
णिग्गवि रायहु तणउ रिणु अज्जु सीसदाणेण विसुज्झमि ।।५।।
८
भडु को वि भणइ कयवणमुहेहिं जा भिजइ उरु करिमुहरुहेहिं । जइ खज्जइ आमिसु रक्खसेहिं जइ पिज्जइ सोणिउं वायसेहिं । जइ अंतई गिद्धई लइवि जंति - तो मरणमणोरह महु सरंति । भडु को वि भणइ हलि हत्थु देमि । गयदंतमुसलु कड्ढेवि लेमि । कंडवि णरकण अवर वि करेणु उड्डावमि अयसतुसोहरेणु । भडु को वि भणइ हुइ खंडखंडि महु करु पेक्खे सु पक्खितोडि । सुंदरि गयणंगणि लंबमाणु अविमुक्कवेरि दावियकिवाणु । अह धरणिधुलिउ लइ रिउ विहत्तु तुह मंगलंसुकन्जलविलित्तु । जं पेच्छहि बहुरुहिरें किलिण्णु पैरिमुक्कदीहणारायभिण्णु । वच्छयलु महारउ तं जि लेहि _सघुसिणु करयलु अहिणाणु देहि । हलि सामलंगि उप्फुल्लवयणु जेइ णिवडिउं पेच्छहि तंबणयणु । घत्ता-तो मेरउ सिरु तरुणि तुहुं चित्ततुलारोहेण विवेयहि ।।
सहुँ पत्थिवपरिवालिएण सरिसउ किं व ण सरिसउ जोयहि ॥६।।
७
छुडु गजिय गुरु संगामभेरिणं मुक्खिय तिहुयणु गिलिवि मारि । छुडु णिग्गउ भुयबलि साहिमाणि छुडु एत्तहि पत्तउ चक्कपाणि । छुडु काले णीणिय दीह जीह पसरिय माणुसमंसोसणीह । थिय लोयवाल जीवियणिरीह डोल्लिय गिरि रंजिय गेहणि सीह । छुडु भडभारें ढलैह लिय धरणि छुडु पहरणफुरणे हसिउ तरणि । छुडु चंदैबलाई पलोइयाई
छुडु उहयबलाई पधावियाई। छुडु मच्छरचैरियई वड्डियाई छुडु कोसहु खग्गई कड्डियाई । ८. K हणिवि । ९. MBP करमि । १०. MBP मुज्झमि and gloss in MP मोहं करोमि; K
मज्झमि but मुज्झमि in second hand. ६. १. MBP गिद्ध । २. B मय । ३. K°मुसल । ४. M पेक्खिज्जहि । ५. MBP पक्खितुंडि । ६. MBP
परमुक्क; M records a P सरु मुक्कं । ७. M अहिणाहु । ८. MBP ओफुल्ल । ९. M जं
णियडउ; BP जं णियडिउं । १०. MBP सो। ११. MBP परिणपालिए । ७. १. MB°मंसाण सीह । २. MBP गहणसीह । ३. MBP ढलढलिय । ४. MBP चंड। ५. MBP
उभय । ६. MBP चडियई।
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१७.७.७] हिन्दी अनुवाद
३८७ मानो मेघने विद्युदण्डका प्रदर्शन किया हो। कोई योद्धा कहता है आज मैं शत्रुको मारूँगा और स्वामीको निष्कण्टक राज्य दूंगा। स्वामी तुच्छ है और शत्रु प्रवर है, तो मैं भी धीर हूँ, हे सुन्दरी, क्या विचार करना? जल्दी अपना हाथ दो और आलिंगन करो; कौन जानता है फिर संयोग कहाँ हो? मैंने अपने जिन हाथोंसे प्रभुका प्रसाद लिया है आज मैं उन्हीं हाथोंसे युद्ध करूंगा?
घत्ता-कोई महासुभट कहता है कि हे कान्ते छोड़ो-छोड़ो मैं कुछ भी सुन्दर नहीं करूँगा। बाहर निकलकर मैं अपने शिरके दानसे राजाके ऋणका शोधन करूंगा ।।५।।
कोई सुभट कहता है कि जिनके मुख में घाव कर दिये गये हैं, ऐसे गज(डोंसे यदि मेरे उरतलका भेदन कर दिया जाता है, यदि राक्षसोंके द्वारा मेरा आमिष खा लिया जाता है, यदि कौओंके द्वारा रक्त पी लिया जाता है, यदि गीध आंतोंको लेकर चले जाते हैं तो मेरे मरणका मनोरथ पूरा हो जाता है। कोई सुभट कहता है कि लो मैं हाथ देता हूँ, मैं गजदांतोंके मूसल निकालकर लाऊंगा। योद्धा समूह और हाथियोंको चूर-चूर कर मैं अयशरूपी भूसाकी धूल उड़ाऊंगा? कोई सुभट कहता है हे सुन्दरी, आकाशरूपी आँगनमें लम्बमान ( लम्बा फैला हुआ) जिसने शत्रुको नहीं छोड़ा है, और तलवारका प्रदर्शन किया है, ऐसे मेरे हाथको, टुकड़े-टुकड़े होनेपर तुम पक्षीके मुखमें देखोगी ? अथवा शत्रुके द्वारा विभक्त, धरतीपर पड़े हुए तुम्हारे मंगलाश्रुओं और काजलसे लिप्त, अत्यधिक रुधिरसे आद्रं, छोड़े गये लम्बे-लम्बे तीरोंसे विदीर्ण यदि तुम मेरे वक्षःस्थलको देखो तो उसे ले लेना और अपने केशर सहित हाथकी पहचान देना। हे श्यामलांगी, यदि तुम मेरे खिले हुए चेहरे और रक्तनेत्रोंवाले
घत्ता-मेरे सिरको गिरा हुआ देखो, तो तुम उसे अपने चित्तरूपी तराजूपर तौलकर पहचान लेना और स्वयं देख लेना कि वह राजाका परिपालन करनेवालेके सदृश है-या सदृश नहीं है ? ॥६॥
शीघ्र ही संग्रामभेरी बज उठी मानो मारी त्रिभुवनको निगलनेके लिए भूखी हो उठो हो। स्वाभिमानी बाहुबलि शीघ्र ही निकल पड़ा। शीघ्र ही इस ओर चक्रवर्ती आ गया। शीघ्र ही कालने अपनी लम्बी जीभ प्रेरित की और मनुष्योंके मांसको खानेकी इच्छासे उसे फैला लिया। जीवनसे निरीह होकर लोकपाल स्थित हो गये। पवंत हिल उठे और जंगलमें सिंह दहाड़ उठे। शीघ्र ही योद्धाओंकी मारसे धरती डगमगा गयी। शीघ्र ही अस्त्रोंकी प्रभासे सूर्यका उपहास किया जाने लगा। शीघ्र ही प्रचण्ड सेनाएं देखी गयीं, शीघ्र उभयबल दौड़ने लगे। ईर्ष्यासे भरे
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महापुराण
[१७.७.८ छुडु चक्कई हत्थुग्गामियाई छुडु सेल्लई भिच्चहिं भामियाई । छुडु कोंतई धरियई संमुहाई घूमंधई जायई दिम्मुहाई।। छुडु मुट्ठिणिवेसिर्यं लउडिदंड
छुडु पुंखुज्जल गुणि णिहिये' कंड। छुडु गय कायर थरहरियप्राण" छुडु ढोइय" संदण णं विमाण । छुडु' मेंठचरणचोइयमयंग । छुडु आसवारवाहियतुरंग। पत्ता-छुडु छुडु कारणि वसुमइहि सेण्णइं जाम हणंति परोप्परु ॥
अंतरि ताम पइट्ट तहिं मंति चवंति समुब्भिवि णियकरु ॥७॥
बिहिं बलहं मज्झि जो मुबइ बाण तहु होसइ रिसहहु तणिय आण। तं णिसुणिवि सेण्णई सारियाई चडियई चावई उत्तारियाई । तं णिसुणि वि रहसाऊरियाई वज्जंतई तूरइं वारियाई । तं णिसुणिवि धारापहसियाई __ करवालई कोसि णिवेसियाई। तं णिसुणिवि णिद्धंगैई घणाई णिम्मुक्कई कवयणिबंधणाई । तं णिसुणिवि मय मायंग रुद्ध पडिगयवरगंधालुद्ध कुद्ध । तं णिसुणिवि मच्छरभावभरिय हरि फुरुहुरंत धावंत धरिय । रह खंचिय कड्डिय पग्गहोह वारिय विंधत अणेय जोह । घत्ता-परिसेसियरणपरियरई गुरुयणचरणसवहसंणिहियई ॥
सेण्णई उज्झियकलयलई थक्कइं कुँड्डि णाई आलिहियई ॥८॥
पणमियसिरेहिं मउलियकरेहिं उग्गमियरोसपसमंतएहिं तुम्हेई विणि वि जण चरमदेह तुम्हई बिण्णि वि अखलियपयाव तुम्हई बिणि वि जगधरणथाम तुम्हई बिण्णि वि सुरहं मि पयंड
बाहुबलि भरहु महुरक्खरेहिं । बिणि वि विण्णविय महंतएहिं । तुम्हई बिण्णि वि जयलच्छिगेह । तुम्हई बिण्णि वि गंभीरराव । तुम्हई बिण्णि वि रामाहिराम । महिमहिलहि केरा बाहुदंड ।
७. MB धृवंधई। ८. M°णिवेसिउ। ९.Mदंडु । १०. MBP पंखुज्जलु । ११. M णिहिउ । १२. M कंडु। १३. MBP°पाण। १४. P ढोयइ । १५. MBP मेट्ठ। १६. M वररकरु; BP
वरकरु । ८. १. MBP मुवइ । २. MBP खग्गइं पडियारि । ३. MBP णद्धंगईं; T गिद्धंगई दीप्राणि णद्धंगई वां
श्रद्धानि । ४. MB मच्छरभावरहिय; P मच्छरभारभरिय । ५. MB फुरफुरंत । ६. MB अणंत । ७, M चरण
सवहसल्लिहियइं; B°चरणवसहसंणिहियइं; T सवहसंणिहियई। ८. P कोड्डि । ९. १. MBP उग्गमिउ रोसु। २. MBP read: तुम्हई बिण्णि वि जयलच्छिगेह, तुम्हई बिण्णि वि जण
चरमदेह । ३. MB महियल केरा।
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१७. ९.६] हिन्दी अनुवाद
३८९ चरित बढ़ने लगे । शीघ्र ही म्यानोंसे तलवारें निकाल ली गयीं, शीघ्र ही चक्र हाथसे चलाये जाने लगे, शीघ्र ही भृत्योंके द्वारा सेल धुमाये जाने लगे। शीघ्र ही भाले सामने धारण किये गये, दिशाओंके मुख धुएंसे अन्धे हो गये। शीघ्र ही मुट्ठीमें लकुटदण्ड ले लिये गये, शीघ्र ही पुंख सहित तीर डोरीपर चढ़ा लिये गये। शीघ्र ही महावतोंके पैरोंसे हाथी प्रेरित कर दिये गये। शीघ्र ही घुड़सवारोंसे तुरंग चला दिये गये।
पत्ता-शीघ्र ही धरतीके लिए सेनाएं जबतक एक दूसरेपर आक्रमण करती हैं तबतक अपने हाथ उठाकर मन्त्री उन दोनोंके भीतर प्रविष्ट हुए और बोले ॥७॥
"दोनों सेनाओंके बीच जो बाण छोड़ता है, उसे श्री ऋषभनाथकी शपथ ।" यह सुनते ही सेनाएं हट गयीं और चढ़े हुए धनुष उतार लिये गये। यह सुनकर हर्षसे आपूरित बजते हुए तूर्य हटा लिये गये। यह सुनकर धाराओंका उपहास करनेवाली तलवारें म्यानके भीतर रख ली गयीं। यह सुनकर चमकते हए सघन कवच-निबन्धन खोल दिये गये। यह सुनकर मतवाले प्रतिगजोंकी वरगन्धसे लुब्ध और क्रुद्ध गज अवरुद्ध कर लिये गये। यह सुनकर ईर्ष्याभावसे भरे हुए फड़फड़ाते हुए अश्व रोक लिये गये। रथ रह गये, लगाम खींच ली गयी। बेधते हुए अनेक योद्धाओंको मना कर दिया गया।
पत्ता-युद्धकी साज-सामग्रीको दूर हटाती हुई, गुरुजनोंकी शपथसे रोकी गयी दोनों सेनाएं कलकल शब्दको छोड़कर इस प्रकार स्थित हो गयीं, जैसे दीवालपर चित्रित कर दी गयी हों ॥८॥
अपने सिरोंसे प्रणाम करते हुए, दोनों हाथ जोड़े हुए, उत्पन्न होते हुए क्रोधको शान्त करते हुए मन्त्रियोंने मधुर शब्दोंमें दोनोंसे निवेदन किया, "आप दोनों चरमशरीरी हैं, आप दोनों विजयलक्ष्मीके घर हैं, आप दोनों अस्खलित प्रतापवाले हैं, आप दोनों गम्भीर वाणीवाले हैं, आप दोनों विश्वको धारण करनेकी शक्तिवाले हैं, आप दोनों ही रमणियोंके लिए सुन्दर हैं, आप
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महापुराण
[१७.९.७ तुम्हई बिण्णि वि णिवणायकुसल , णियतायपायपंकहभसल । तुम्हई बिणि वि जण जणहु चक्खु इच्छहु अम्हारउ धम्मपक्खु । खरपहरणधारादारिएण।
किं किंकरणियरें मारिएण । किर काइं वराएं दंडिएण
सीमंतिणिसत्थे रंडिएण । दोहं मि केरा मज्झत्थ होवि
उहु मेल्लिवि खमभाउ लेवि ।. घत्ता-अवलोयंतु धराहिवइ एत्तिउ किज्जउ सुत्तु सुजुत्तउ ॥
तुम्हह दोहं मि होउ रणु तिविहु धम्मणाएण णिउत्तउ ।।९।।
पहिलउ अवरोप्परु दिहि धरह मा पत्तलपत्तणचलणु करह । बीयउ हंसावलिमाणिएण
अवरोप्पर सिंचहु पाणिएण । तइयउ पुणु णहि जोयंतु देव केरु करि घिवंत सुरदंति जेंव । जुज्झह बिण्णि वि णिवमल्ल ताम। एक्केण तुलिज्जइ एक्कु जाम । अवरोप्परु जिणिवि परक्कमेण गेहँ हु कुलहरसिरि विक्कमेण । तणुसोहाहसियपुरंदरेहिं
ता चिंतिउ दोहिं मि सुंदरेहिं । कि दूहवियहि णवजोव्वणेण कि फलिएण वि कडुएं वणेण । किं सलिलें चंडोलंकिएण
किं दासे पेसणसंकिएण। कि राएं गुरुपडिकूलएण
रसूलएण। घत्ता-जे ण करंति सुहासियई मंतिहिं भासियाइं णयवयणइं ।
ताहं गरिंदहं रिद्धि केओ कहिं सीहासणछत्तइं रयणइं ॥१०॥
११
इय चितिवि इच्छिउ मंतिमंतु अवलंबिउ रोसु ण परियणेहिं सकसायभाव आसण्णु ढुक्कु. उद्धाणणु पहु भुयबलिहि तोंडु हेट्ठिल दिट्ठि उवरिल्लियाइ णं होंति कुगइ पंचमंगईइ णं तावसि भग्गी वि णं कमलपंति ससियरतईइ
वुड्ढाणुगामि णीसेसु संतु। आयंबकसणसियलोयणेहिं । दोहिं मि अवलोइउ एकमेक्कु । पेच्छई रविबिंबु व किरणचंडु। णिज्जिय दिट्ठिइ अविहल्लियाइ । विसयासा ईव मुणिवरमईइ । णं सेलभित्ति गंगाणईइ। 'कुमुओलि व मउलिय रविरुईइ ।
ko
४. MBP आउह । ५. MBP किज्जइ सुठ्ठ । ६. MBP धम्मु णाएण । १०. १. MP पत्तलयत्तणु चवलु; B पत्तलयत्तणु चलणु; T पत्तलयत्तणु । २. B करि करु। ३. MBP
घिवंतु । ४. MBP अणुहुंजहु मेइणि। ५. T चंडालट्ठिएण । ६. MBP कहिं कहिं । ७. MB
सिंघासण; P सिंहासणं । ११. १. MBP आसण्ण ढुक्क । २. MBP एक्कमेक्क. ३. MBP तुंडु । ४. MBP पेक्खिवि । ५. P पंचम
गयाइ। ६. MBP विव । ७. P मयाइ। ८. P रुईइ। ९. M णं कुमउलि वररवियररुईइ; Bणं कुमुउण्णिव णवरवि; Pणं कुमुउलिव णवरवि ।
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१७.११.८] हिन्दी अनुवाद
३९१ दोनों देवोंसे भी प्रचण्ड हैं, आप दोनों धरतीरूपी महिलाके बाहुदण्ड हैं। आप दोनों राजाके न्यायमें कुशल हैं, आप दोनों अपने पिताके चरणरूपी कमलोंके भ्रमर हैं, आप दोनों ही जनताके नेत्र हैं। इसलिए आप हमारे पक्षको पसन्द करें। तीखे आयधोंकी धारसे विदीर्ण अनुचर समहके मारे जानेसे क्या ? उन बेचारोंको दण्डित करने और नारी समूहको विधवा बनानेसे क्या ? दोनोंके बीच मध्यस्थ होकर आयुध छोड़कर और क्षमाभाव धारण करें।
____घत्ता-हे राजन्, देखिए और युक्तियुक्त कहा हुआ इतना कीजिए। तुम दोनोंमें धर्म और न्यायसे नियुक्त तीन प्रकारका युद्ध हों ॥९॥
१०
पहला-एक दूसरेपर दृष्टि डालो, कोई भी अपने पक्षमकी पलकोंको न हिलाये, दूसराइंसावलीके द्वारा सम्मानित पानीके द्वारा एक दसरेको सींचो, तीसरे-आकाशमें देवता और जिस प्रकार ऐरावत सूडको पकड़ता है, आप दोनों राजमल्ल तबतक मल्लयुद्ध करें कि जबतक एकके द्वारा दूसरा हरा न दिया जाये। पराक्रमसे एक दूसरेको जीतकर पराक्रमसे कुलगृह-श्रीको ग्रहण करें।" तब अपने शरीरको शोभासे इन्द्रका उपहास करनेवाले दोनों सुन्दरोंने अपने मनमें विचार किया कि अनिष्ट करनेवाले नवयौवनसे क्या ? फले हुए कड़ वे वनसे क्या ? चाण्डालसे अलंकृत जलसे क्या ? आदेशसे शंकित रहनेवाले दाससे क्या, गुरुसे प्रतिकूल और अत्यन्त विनीत सुजन शिरको पीड़ा पहुंचानेवाले राजासे क्या ?
घत्ता-जो मन्त्रियोंके द्वारा भाषित, सुभाषित और नीतिवचन नहीं करते उन राजाओंकी ऋद्धि कहाँ, और सिंहासन, क्षत्र एवं रत्न कहाँ ? ॥१०॥
११
यह विचारकर उन्होंने मन्त्रीकी मन्त्रणा पसन्द की। वृद्धाश्रित सब कुछ उत्तम होता है। लाल, सफेद एवं श्वेत लोचनवाले परिजनोंने क्रोधका आलम्बन नहीं लिया। कषायभावसे वे एक दूसरेके निकट पहुँचे, दोनोंने एक दूसरेको देखा। राजा भरत ऊंचा मुख किये बाहुबलिका मुख देखता है. जैसे किरण प्रचण्ड रविबिम्बको देखता है। ऊपरको अविचलित दष्टिसे नीचेकी दष्टि जीत ली गयी, मानो होती हुई कुगति पांचवीं गतिसे, मानो मुनिवरोंकी मतिसे, विषयाशा मानो, विटकी रतिसे तपस्विनी और मानो गंगानदीसे पर्वतकी दीवार भग्न हो गयी हो। मानो चन्द्रकिरणोंकी परम्परासे कमलपंक्ति, मानो रविको कान्तिसे कुमुदोंकी पंक्ति मुकुलित हो गयी हो।
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महापुराण
घत्ता
- ठिउ हेट्ठामुहुं चक्कवइ णिजिउ पडिभडदिद्विपहावहि || घल्लियणवकुसुमंजलिहिं णंदातणुरुहु संधु देवहि ॥ ११ ॥
१२
रमावासवच्छेत्थ लोलंतहारा । पुणो दो वि राया सरंते पइट्ठा । विसालं गहीरं तुसारोहतारं । मरुद्धूर्येतिंगिच्छिधूलीविलित्तं । मरालीपहालग्गलीलामरालं । भिसाहारपूरंत चंचूचऊरं । जब्तमीण लयापत्तणीलं । समुत्तुंगफेणावलीछण्णतूहं । इणु मुक्कपायावली फुल्लफुल्लं । पज्जतह थिंद सोंडाविमहं ।
ओमत्तमायंगलीलावहारा फणिदेण चंद्रेण इंद्रेण दिट्ठा सरंतेहिं आलोइयं सच्छणीरं महापोमसुत्ताहि माणिक दित्तं महीरंगरंगंतकल्लोलमालं सिरीणेउरालावणश्चंतमोरं तरंतामरं रोयैरारद्धकीलं ससीछा हिसारंगडेवं तसीहं झुणतालिकोलाहलं सोरसिल्लं पक्खिदज क्खिदस हं
४
पत्ता - तहिं बिणि वि जण ओयरिय पहुणा धित्त जलंजलि भायहु । fries उपरि मेहलहे णं मंदाइणि हिमइरिरायहु ||१२||
१३
वच्छत्थ पाविवि पुणु वि वलिय कडियलि धावंती सुंदरासु णं मरगयमहिहरि चंदकंति डेवंती दीसइ सलिलधार णं सुरसरि चैवलतरंगफार आसिवि पुणु भरहु विमुक्क पच्छाइड चउदिसु ताइ राउ कणयइरि व सरयब्भावलीइ सलिलें वसोत्तई पूरियाई
घोस विजउ महासरेहिं घत्ता-सीसु धुणंतु मुंयंतु छलु सरवरवारिपवाहें सित्तड ॥ पडओसारियर इवइ णाई करिंदु करिंदे जित्त ||१३||
मुह खमेत्ति व घुलिय । दीसइ तारालि व मंदरासु । णं णीमहीरुहि हंसपंति णं कंठभट्ठ कंठिय सुतार | गयणुल्ललंत इस सुंसुमार ।
दातणएं गुरुजलझलक्क । धवलइ जिणकित्तिइ णं तिलोउ । णं उययसिहरि ससहररुईइ । बहुपरियणसयणईं जूरियाई । बाहुबलि राहिव किंकरेहिं ।
१२. १. MBP बच्छत्थलोलंबि । २. M°तिगिच्छ ; B तिगिछि ; P तिग्गिछौं । ३. MB गेयपारद्ध े; P खेयारद्ध; T रोयरं चक्रवालं । ४. MBP सिंहं । ५. M सारिसिल्लं । ६. MP पेक्खं । ७. MBP णिमज्जं । ८. MBP सुंडा । ९. MBP वियर ।
[ १७.११.९
१३. १. MB पुणु वलिया । २. MBP घुलिया । ३. MBP तारावलि मंदरासु । ४ MP महिरुहि; B महीहरि । ५. MBP धवलं । ३. MBPK मुणंतु । ७. MBP ओसरियउ ।
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१७. १३.१२]
हिन्दी अनुवाद
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धत्ता - प्रतिभटकी दृष्टिके प्रभावोंसे पराजित चक्रवर्ती नीचा मुख करके रह गया, नवकुसुमांजलियाँ डालते हुए देवोंने सुनन्दाके पुत्र बाहुबलिको संस्तुति की ॥११॥
१२
मतवाले गजोंकी लीलाका अपहरण करनेवाले तथा लक्ष्मीके निवासघरस्वरूप जिनके वक्षपर हार आन्दोलित हैं ऐसे वे दोनों राजा फिर सरोवर के भीतर प्रविष्ट हुए और उन्हें नागेन्द्रों, चन्द्र और इन्द्रने देखा । प्रवेश करते हुए स्वच्छ नीर देखा, जो विशाल गम्भीर और हिमकणोंके समूहकी तरह निर्मल था । हवासे उड़ती हुई पराग धूलिसे लिप्त था, जिसकी तरंगमाला भूमिरूपी रंगमंचपर क्रीड़ा कर रही थी, जहां लीला में हंस हंसनियोंके पथमें लगे हुए थे, लक्ष्मीके नूपुरोंके अलापपर मयूर नृत्य कर रहे थे, जहाँ मृणालके आहारसे चकोरकी चोंच भरी हुई थी, अमर तैर रहे थे, जिसमें सुन्दर क्रीड़ा प्रारम्भ की गयी थी, जलसे मछलियाँ निकल रही थीं, जो लतापत्रोंसे नीला था, जिसमें चन्द्रमाके प्रतिबिम्बके हरिणपर सिंह झपट रहा था । उठती हुई फेनावलीसे तट ढके हुए थे, गूँजते हुए भ्रमरोंका कोलाहल हो रहा था, जो सारसोंसे भरा हुआ था, सूयंसे मुक्त किरणावली से फूल खिले हुए थे, जिसमें अनेक पक्षीन्द्रों और यक्षेन्द्रोंको शब्द सुनाई दे रहा था और जो डूबते हुए गजों की सूँड़ोंसे मर्दित था ।
घत्ता - ऐसे उस सरोवरमें वे दोनों उतरे। स्वामीने अपने भाईके ऊपर जलकी धारा छोड़ी मानो हिमालयसे गंगानदी धरतीके ऊपर आ रही हो ||१२||
१३
वक्षस्थल पाकर वह फिर मुड़ी और दुष्टकी मित्रताकी तरह नीचा मुख कर गिर पड़ी । उस सुन्दरके कटितटपर दौड़ती हुई ऐसी मालूम हो रही थी, जैसे मन्दराचलपर तारावली हो । मानो मरकत महीधरपर चन्द्रमाकी कान्ति हो, मानो नील वृक्षपर हंसपंक्ति हो, हिलती हुई धारा ऐसी मालूम होती थी, मानो कण्ठसे भ्रष्ट स्वच्छ हार हो, मानो चंचल लहरोंसे विस्फारित गंगानदी हो, कि जिसमें आकाश तक मत्स्य और शिशुमार उछल रहे थे। तब क्रुद्ध होकर सुनन्दा के पुत्र बाहुबलिने भरतके ऊपर भारी जलधारा छोड़ी। उसने राजाको चारों ओरसे आच्छादित कर लिया, मानो जिनेन्द्र भगवान्की कीर्तिने तीनों लोकोंको ढक लिया हो, मानो शरद्की मेघावलीने स्वर्णगिरिको मानो चन्द्रमाको किरणमालाने उदयाचलको ढक लिया हो। जलसे नवस्रोत पूरे हो गये, बहु परिजन और स्वजन पीड़ित हो उठे । तब बाहुबलि राजाके अनुचरोंने महास्वरोंमें विजय की घोषणा कर दी ।
घत्ता - अपना सिर पीटता और छल छोड़ता हुआ तथा सरोवरके जलप्रवाहसे अभिसिंचित पृथ्वीपति भरत हटाया गया। पृथ्वीपति भरत उसी प्रकार जीत लिया गया, जिस प्रकार हाथीसे हाथी जीत लिया जाता है ||१३||
५०
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३९४
महापुराण
[१७.१४.१ १४ जलभरियसुणासावंसएण
वढिपडिभडबलसंसएण । वैज्जियमंडलियकुरंगएण
परिहच्छे सरतीरंगएण। रोसारुणच्छिरंजियदिसेण
सप्पेण व अइआसीविसेण । सीहेण व उधुयकेसरेण णिब्भच्छिउ भाइ गरेसरेण । पीलिज्जइ तेरउ उच्छुचाउ रसु पिज्जइ खज्जइ गुलु सुसाउ । फुल्लसर वि कयधेम्मेल्लसोह पई जेहा कहिं लब्भंति जोह । अवियाणियखत्तियधम्मसार महिलाण गोहहो मोट्टियार । किं किरै वयणेण पलोइएण जीवंतहं सलिले ढोइएण। ए एहि देहि भुर्यंजुज्झु तेम अज्जु जि एयंतरु होइ जेम । ता भणइ जइणि णिप्फलु जि भसहि धणुबाण महारा काई हसहि । जाणंतु वि देवि णिरत्थु भणहि पियविरहुन्वेइउ किं कणहि । महिलाण गोहुँ हउं सयणमन्गि गोहाण गोहु कढियइ खग्गि । पत्ता-जइ सयणत्तणु मण्णियउं तो किं मग्गहि पुहइ भडारा ॥
णियधणकर्णमयकयविवस पत्थिव सयल होति विवरेरा ॥१४॥
तओ मुयमंडणि भायर लग्ग रिंदसिरोमणि घंटुपयग्ग। कुलीण कुकारणि माणमहल्ल पहाण महाबल बिण्णि वि मल्ल । सुकंचणकुंडलमंडियगंड
पसारियबाह सरोस पयंड । चिराउस चंदचडावियणाम सुविक्कमवंत णराहिवकाम । समत्थ सिरीण रईण णिकेय महारह भारह भक्खरतेय । असंक खगंक झसंक विपंक जसंसुपसाहियपुण्णससंक। मिलंति मिलेप्पिणु हत्थि धरंति घरेप्पिणु देह घेडेवि पडंति । पडत जि गाहणिबंधणु देति कडीयलु कंठु णिरंभिवि ठंति । विरुद्ध विगाह बलेण मुयंति मुएप्पिणु उडिवि हत्ति वलंति । अलंभुयजुज्झविहाणसयाई पर्चप्पणकड्डणवेढणयाई। करंति वि धीर अविद्दवियंग णिरंकुस णाई मयंध मयंग। पयाणभरस्स धरित्ति ण तिण्ण विमुक्त रवेण दिसाकरि वुण्ण । फलोणयपायवपिट्ठ व छुण्ण णहे गय पक्खि वणेयर रुण्ण । ण चल्लिय कुंचिय कूर फणिंद दरीकुहरेसु णिलीण पुलिंद ।
तओ हयमाणिणिमाणमएण णरामरसंगरलद्धजएण। १४. १. MBPK तज्जियं । २. MBP°धम्मिल्ल । ३. MB किंकरवयणेण । ४. P भुयजुयलु ।
५. BK देव । ६. MBP कुणइ । ७. M मोह, but records ap गोह। ८. P कणयमय । १५. १. K°घुट्ट and gloss घृष्ट । २. P सकंचण । ३. MBP बारहभक्खर । ४. MBP घडेणं ।
५. MRP पडंति जि गाढ । ६. MBP णिरुद्ध वि बाह; Kणिरुद्ध वि गाह। ७. MBP जंति । ८. MBP पचंपणं । ९. PK चुण्ण ।
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हिन्दी अनुवाद
१४
जिसकी नाककी नली जलसे भर गयी है, जिसे प्रतियोद्धाके बलमें संशय बढ़ गया है, जिसने माण्डलीक राजारूपी भी हरिणोंको छोड़ दिया है, ऐसे नरेश्वर भरतने वेगसे तीरपर जाकर क्रोधसे लाल आंखोंसे दिशाको रंजित करते हुए अत्यन्त विषदाढ़वाले सपंके समान अथवा अयाल उठाये हुए सिंहके समान भाईकी भत्र्त्सना की - " जो अपने ईखके धनुषको पीड़ित कर उसका रस पीता है, और सुस्वादु गुड़ खाता है और जिसके पुष्परूपी तीर भी चोटीकी शोभा करनेवाले हैं ऐसा तुम्हारे जैसा योद्धा कहाँ पाया जा सकता है । क्षत्रियोंके श्रेष्ठ धर्मको नहीं जाननेवाले, महिलाओं और अपने ग्रामप्रमुखका अहंकार रखनेवाले तुम्हें मेरा मुख देखने से क्या, जीवितों को पानी देने से क्या ? ओ आओ और मुझे इस तरह बाहुयुद्ध दो जिससे दोनोंका अन्तर स्पष्ट हो जाये ।” तब जिनपुत्र बाहुबलि बोला - "तुम व्यथं बोलते हो, मेरे धनुष-बाणका उपहास क्यों करते हो, हे देव जानते हुए भी तुम व्यर्थं बोलते हो, प्रियविरहसे उद्विग्नके समान तुम क्यों नहीं रोते । महिलाओं का साथी मैं स्वजनमार्ग ( शयनमार्ग ) में हूँ, लेकिन तलवार निकल आनेपर मैं योद्धाओंका योद्धा हूँ ।"
१७.१५.१५]
घत्ता - यदि तुम स्वजनत्व मानते हो तो हे आदरणीय, धरती क्यों माँगते हो, हे राजन् अपने धनकणोंके मदसे विवश किये गये सभी लोग विपरीत हो उठते हैं ? ॥ १४ ॥
३९५
१५
उस समय महेन्द्र शिरोमणि दोनों भाई अपने पैरोंके अग्रभागको रगड़ते हुए बाहुयुद्ध करने लगे। दोनों ही कुलीन और मानमें महान् पृथ्वीके कारण ( लड़ गये ) । दोनों ही प्रधान और महाबल-मल्ल । दोनों ही संकुचित कुण्डलोंसे अलंकृत कपोल, दोनों ही क्रुद्ध और प्रचण्ड अपने बाहु फैलाये हुए, चिरायु, चन्द्रमाके समान प्रसिद्ध नाम, विक्रमसे युक्त नराधिपकी कामनावाले और समर्थ, लक्ष्मी और रतिके आश्रय, महारथी आभासे युक्त और सूर्यकी तरह तेजस्वी । शंकारहित गरुड़ और मत्स्यके चिह्नवाले, पंकसे रहित, और यशकी किरणोंसे पुण्यरूपी चन्द्रमाको प्रसाधित करनेवाले थे। वे दोनों मिलते हैं, मिलकर हाथ पकड़ते हैं। हाथ पकड़कर देहसे लगकर • गिरते हैं । गिरते हुए मजबूत पकड़ करते हैं और कमर और गलेको रुद्ध कर रह जाते हैं । विरुद्ध भी पकड़को बलसे छुड़ा लेते हैं, छूटकर उठकर शीघ्र मुड़ते हैं, और समर्थ बाहुयुद्धके सैकड़ों विधान ( दावपेंच ) जैसे चांपना, काढ़ना, बेठन ( लिपटना ) आदि करते हैं । दोनों ही धीर और अस्खलित अंगवाले तथा निरंकुश हैं, जैसे मदान्ध महागज हों। पैरोंके भारसे धरती उन्होंने नहीं छोड़ी। शब्दसे दिग्गज दुःखी हो गये, फलोंसे उन्नत वृक्षोंकी पीठ छिन्न हो गयी, पक्षी आकाश में चले गये, वनचर खिन्न हो उठे, क्रूर नागराज वहीं संकुचित हो गये― चल नहीं सके, और भील घाटियों और गुफाओं में छिप गये। उस समय मानिनियोंके मान और मदका हनन करनेवाले
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३९६
महापुराण
[१७.१५.१६ सुरिंदकरीकरथोरभुएण
अणिंदजिणिंदसुणंदसुएण । पहुस्स करेण करा परतावि परेण थिरेण धरेण कमावि । घत्ता-कुंअरें"राउ समुद्धरिउ णायणियं बिणिसेवियकंदरु ॥
कयइच्छाकोउहलेण किं ण पुरंदरेण गिरि मंदरु ॥१५॥
उद्धरिउ सुपुत्ते णं सुर्वसु
कमलायरेण णं रायहंसु । णं सुहपरिणामें जीवे भगवु णं सुयणसमूहें सुकइकव्वु । णं मुणिवरणाहे वयविसेसु णं परवरिंदणाएण देसु। णं गर्मणवियारें बालभाणु णं वाएं चंपयकुसुमरेणु । णं कामुयसत्थे कामचारु
णं सो जि तेण संसारसारु । खयरामरमाणविमहणेण पढमेण पढमजिणणंदणेण । अइलुद्ध बहुमैण्णियधणेण
कुद्धे अवगण्णियसज्जणेण । परिपालियसयलवसुंधरेण ता चिंतिउ चक्कु सुकंधरेण । जमदाढावलयहु अणुहरंतु उद्धाइउ चंचलु विप्फुरंतु। रविबिंबेण व जियविसमवेउ ते परियंचिउ बाहुबलिदेउ । थिउ दाहिणभुयदंडहु समीउ को एहउ किर णियकुलपईउ। को सुरयधुत्तिचित्ताणुवट्टि को एम जिणइ जगि चक्कवट्टि। घत्ता-विभिउ भरहणराहिवइ बाहुबलीसु जगेण पसंसिउ ॥
गयणभाउ सुरमुक्कियहिं पुष्पदंतपंतिहिं णं पहसिउ ॥१६॥
इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरइए महाभग्वभरहाणुमण्णिए
महाकवे भरहबाहुबकिजुज्झवण्णणं णाम सत्तारहमो परिच्छेओ समत्तो।।। १७ ।।
॥ संधि ॥१७॥
१०. P धरेवि । ११. MBP कुमरें । १२. M णाई, but T किं गिरिमंदरो पुरंदरेण नोद्धृतः । १६. १. MBP जीउ । २. MBP गयण । ३. BP बहमाणिय । ४. K°विसमवेरु । ५. K बाहबलि
मेरु । ६. MBP पुप्फयंत ।
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१७. १६. १४ ] हिन्दी अनुवाद
३९७ मनुष्यों और देवोंके संग्राममें जय प्राप्त करनेवाले, ऐरावतकी सूंड़के समान बाहुवाले अनिन्द्य जिनेन्द्र और सुनन्दाके पुत्रने प्रभुके हाथको हाथसे पीड़ित कर दूसरे स्थिर हाथसे पकड़कर आक्रमण कर
घत्ता-कुमारने राजाको उसी प्रकार उठा लिया, जिस प्रकार नागोंकी स्त्रियों ( नागिनों) से जिसकी गुफाएं सेवित हैं, ऐसे मन्दराचलको अपनी इच्छाके कुतूहल मात्रसे इन्द्रने उठा लिया हो ॥१५॥
मानो सुपुत्रने अपने वंशका उद्धार किया हो, मानो कमलाकरने राजहंसको उठा लिया हो, मानो शुभ परिणामने भव्य जीवको, मानो सुजन समूहने सुकविके काव्यको, मानो मुनिवर स्वामीने व्रत विशेषको, मानो किसी श्रेष्ठ राजाने देशको, मानो गमनव्यापारने बालसूर्यको, मानो पवनने चम्पक कुसुमकी धूलको, मानो कामशास्त्रने कामाचारको, या मानो उसीने संसारके सारको
लिया हो। तब विद्याधर और अमरोंके मानका मदन करनेवाले. अत्यन्त लोभी, धनको सब कुछ समझनेवाले, सज्जनको अवहेलना करनेवाले, समस्त धरतीके पालक अच्छे कन्धोंवाले जिनेन्द्र के प्रथम पूत्र भरतने चक्रका ध्यान किया। वह यमके दंष्ट्रावलयका अनुकरण करता हुआ चंचल और स्फुरायमान हो उठा और रविबिम्बके समान उसने विषम वेगको जीतनेवाले बाहुबलिके देहकी प्रदक्षिणा की, तथा उनके दायें हाथके पास जाकर स्थित हो गया। ऐसा अपने कुलका प्रदीप कौन हुआ है ? सुरतिमें धूर्त चित्रोंका अनुकरण करनेवाला कौन है ? इस प्रकार विश्वमें चक्रवर्तीको कौन जीत सकता है ?
घत्ता-भरत नराधिप विस्मित हो उठा। बाहुबलीश्वरको विश्वने प्रशंसा की। देवोंके द्वारा बरसाये गये कुन्दकुसुमोंको पंकियोंसे मानो आकाशका भाग हँस उठा ॥१६।।
इस प्रकार प्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त इस महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा .. विरचित और महाभम्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका भरत-बाहुबलि युद्ध
वर्णन नामका सत्रहवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ।॥१७॥
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संधि १८
णहु लंघिउ सुरगिरि चालियउ धीरें सायरु मवियउ॥ करडिंभु व बंभहु तणउं सुउ उच्चाइवि पुणु थवियउ ॥ ध्रुवकं ॥
णं कमलसरु हिमाहयकायउ दवदड्ढउ रुक्खु व विच्छायउ । जं ओहुँल्लियमुहु पहु दिट्ठउ तं बलि भणइ ह जि णिक्किट्ठउ । चक्रवट्टि णियगोत्तहु सामिउ जेणु महंत भाइ ओहामिउ । हा किं किज्जइ भुयबलु मेरउ जं जायउ सुहिदुण्णयगारउ । महि पुण्णालि व केण ण मुत्ती रज्जहु पडउ बज्जु समसुत्ती। रज्जहु कारणि पिउ मारिज्जइ बंधुवहुं मि विसु संचारिज्जइ । जिह अलि गंधे गउ संघारहु तिह रज्जेण जीउ तंवारहु । भडसामंतमंतिकयभायउ
चितिज्जंतउ सव्वु परायउ । तंडुलपसयहु कारणि राणा णरइ पडंति काइं अवियाणा। डज्झउ रज्जु जि दुक्खं गुरुक्कउ जइ सुहु तो किं ताएं मुक्कउ । सुहणिहि भोयभूमि संपर्ययर कहिं सुरतरु कहिं गय ते कुलयर । घत्ता- दुल्लंघहु ढुक्कियलंछणहो 'दूसहदुक्खदुरंतहो ।
भणु दाढापंजरि पडिउ णरु को उव्वरिउ कयंतहो ॥१॥
कालभुयंगहु को वि ण चुक्कइ मई पइ जेहा बहु वेहाविय एयहि अइअहिलासु ण गम्मइ पडिवण्णउंण केम पालिज्जइ
सुयणत्तणु जि एक्कु पर थक्कइ । पुहइइ पुहइपाल वोलाविय। जणणि जणणु भायरु किह हम्मइ । किह हियवउ कलुसे मइलिज्जइ ।
MBP give, at the commencement of this Samdhi, the following stanza :
शशधरबिम्बात्कान्ति तेजस्तपनाद्गभीरतामुदधेः ।
इति गुणसमुच्चयेन प्रायो भरतः कृतो विधिना ॥ GK do not give it. १. १. P उच्चाविवि । २. P हिमहय but gloss हिमाहत । ३. P दवदठ्ठ व । ४. B ओहुल्लिय महुँ ।
५. MBP महंतु । ६. P हा जं जायउ । ७. P बंधवाई विसु । ८. B दुक्खगुरुक्कउ । ९. P संपयधर । १०. B दुल्लंघियदुक्किय । ११. MB दूसहो ।
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सन्धि १८
उस धीरने आकाश लाँघ लिया, मन्दराचलको चला दिया, सागरको माप लिया और ब्रह्मा (आदिनाथ ) पुत्र भरतको हाथमें बालककी तरह उठाकर फिरसे स्थापित कर दिया ।
१
जब बाहुबलिने प्रभुको अधोमुख देखा तो उसे लगा मानो हिमसे आहत शरीर कमल सरोवर हो, जैसे दावानलसे दग्ध कान्तिरहित वृक्ष हो, वह कहता है "मैं ही निकृष्ट हूँ जिसने अपने ही गोत्रके स्वामी भरतको अपमानित किया। हा! मेरे बाहुबलने क्या किया कि जो वह सुधियोंका दुर्नय करनेवाला बना । धरतीरूपी वेश्याका उपभोग किसने नहीं किया ? यह उक्ति ठीक ही है कि राज्यपर वज्र पड़े । राज्यके लिए पिताको मारा जाता है, भाई लोगों में विषका संचार किया जाता है, जिस प्रकार भ्रमर गन्धसे नाशको प्राप्त होता है, उसी प्रकार राज्यसे जीव विनाशको प्राप्त होता है । भट, सामन्त, मन्त्र, मन्त्री आदिके रूपमें किया गया विभाजन विचार करनेपर सब पराया प्रतीत होता है। चावलोंके माड़के लिए अज्ञानी राजा नरकमें क्यों पड़ते हैं । इस राज्य में आग लगे, यही सबसे बड़ा दुःख है । यदि इसमें सुख होता तो पिताजी इसका परित्याग क्यों करते ? सुखको निधि भोगभूमि, सम्पत्ति पैदा करनेवाले वे कल्पवृक्ष और वे कुलकर राजा कहाँ गये ?
घत्ता - दुर्लध्य पापोंसे लांछित असह्य दुःखों और पापोंवाले यमकी दाढ़ोंमें पड़ा हुआ कौन मनुष्य उबर सका है ? ॥१॥
२
कालरूपी महानागसे कोई नहीं बचता, केवल एक सुजनत्व बच रहता | मैंने तुम जैसे बहुतों को प्रवंचित किया है । पृथ्वीके लिए पृथ्वीपालोंपर अतिक्रमण किया है। फिर भी इसमें अभिलाषा समाप्त नहीं होती । इसके लिए जननी, जनक और भाईकी हत्या क्यों की जाती है, स्वीकार कर लिया है, उसका परिपालन क्यों नहीं किया जाता । अपने हृदयको पापसे मेला
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४००
महापुराण
[१८. २.५ जं माणुसु धम्मेण ण भिज्जइ 'सो णिक्किट्ठ तेण किं किज्जइ। देव मज्मु खमभाउ करेज्जसु जं पडिकूलिउ तं म रूसेज्जसु । अप्पउ लच्छिविलासे रंजहि लइ महि तुहुँ जि णराहिव मुंजहि । णहणिवडियणीलुप्पलविट्ठिहि हउं पुणु सरणु जामि परमेट्ठिहि । तं णिसुणिवि भरहेसे वुच्चइ परिहवदूसिउ रज्जु ण रुञ्चइ । घत्ता-अंतेउरसयणहं परियणहं णीसेसह मि णियंतहं ॥
हउं जित्तउ पई तुहुं सइ खंविउं खम भूसणु गुणवंतहं ॥२॥
जइ पइं णियमुएहिं अंदोलिउ 'भूमंडलि तडत्ति अप्फालिउ । तो किं चक्कु रयणु मई रक्खइ पुणु जीयंतु को वि किं पेक्खइ । पई जित्ती खमा वि खमभावें पई तासिउ केउसिउ सपयावें। पई जिहं तेयवंतु ण दिवायरु णउ गंभीरु होइ रयणायरु । पई दुज्जसकलंकु पक्खालिउ णाहिरिंदवंसु उज्जालिउ ! पुरिसरयणु तुहुँ जगि एक्कल्लउ जेण कयउ महु बलु वेयल्लउ । को समत्थु उवसमु पडिवज्जह जगि जसढक्क कासु किर वज्जइ। पई मुएवि तिहुयणि को चंगउ अण्णु कवणु पञ्चक्खु अणंगउ । अण्णु
अण्णु कवणु रक्खियणिवसासणु । घत्ता-ससि सूरहो मंदर मंदरहो इंदहु इंदु अणीयउ॥
पर एक्कहु णंदाएविसुय तुह ण णिहालमि बीयउ ॥३।।
पयकयो
जं तुहुँ दुव्वयणेहिं णिब्भच्छिउ जं दिट्ठीइ सरोसु णियच्छिउ । जं सरवाणिएण णिरु सित्तउ जं जुझंते पेल्लिवि घित्तउ । तं एवहिं खेम करि महुं बंधव जिणवरतणय तिजगमणसंभव । आउ जाहु उज्झाउरि पइसहि अज्जु जि तुहं सिंहामणि बइसहि । पटु णिबंधमि भालि तुहारइ अक्ककित्ति जीवउ तुह केरइ। एवहिं रज्जु करतउ लज्जमि एवहिं परमदिक्ख पडिवज्जमि । एवहिं इंदियछंदु विवज्जमि एवहिं पुण्णु ण पाउ समज्जमि । एवहिं कम्मणिबंधैण भंजमि एवहिं जोएं प्राण विसज्जमि । घत्ता-बंधव वणवासहु पट्ठविवि धरणिमोहरसभंते ॥
मई एवहिं दुज्जसभायणेण भायर काइं जियते ॥४॥ २. १. MBP णिक्किउ काई तेण किर किज्जइ; K णिक्किट्ठ तेण काई किर किज्जइ; but corrects
it to सो णिक्किट्ठ तेण किं किज्जइ । २. MBP खमिउ। ३. १. MBP महिमंडलि । २. MBP चक्करयणु । ३. MB पुणु वि जयंतु; PK पुणु वि जियतु ।
४. MB तोसिउ । ५. M पोउसिउ; B कोसिउ । ४. १. MBP जं दुव्वयणेहिं । २. M महुं खम करि । ३. MBPK °णिबंधणु । ४. MBP पाण।
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१८.४.१०] हिन्दी अनुवाद
४०१ क्यों किया जाता है ? यदि मनुष्य धर्ममें अनुरक्त नहीं होता तो वह निकृष्ट है, उससे क्या होगा? हे देव, मुझपर क्षमाभाव कीजिये और जो मैंने प्रतिकूल आचरण किया है उसपर क्रुद्ध मत होइए। अपनेको लक्ष्मीविलाससे रंजित कीजिए, यह धरती आप ही लें, और इसका भोग करें। मैं, जिनपर आकाशसे नीलकमलोंकी वृष्टि हुई है, ऐसे परमेष्ठी आदिनाथकी शरणमें जाता हूँ।" यह सुनकर भरतेश्वरने कहा-"पराभवसे दूषित राज्य मुझे अच्छा नहीं लगता।" ___ . घत्ता-अन्तःपुर, स्वजनों, परिजनों और शेष लोगोंके देखते हुए मैं तुम्हारे द्वारा जीता गया और तुम्हारे द्वारा स्वयं क्षमा किया गया । तुम गुणवानोंमें क्षमाभूषण हो ।।२।।
जब तुमने मुझे अपने बाहुओंसे आन्दोलित किया और लड़ करके भूमिपर पटक दिया, तो चक्ररत्न मेरी क्या रक्षा करता है ? फिर जीवित रहते हुए कोई क्या देखता है ? तुमने अपने क्षमाभावसे क्षमाको जीत लिया, तुमने अपने प्रतापसे कौशिक ( इन्द्र ) को भी सन्तुष्ट कर लिया। तुम जितने तेजस्वी हो, उतना दिखाकर भी तेजस्वी नहीं है। तुम्हारे समान समुद्र भी गम्भीर नहीं है। तुमने अपयशके कलंकको धो लिया है और नाभिराजके कुलको उज्ज्वल कर लिया है। तुम विश्वमें अकेले पुरुषरत्न हो जिसने मेरे बलको भी विकल कर दिया। कौन समर्थ व्यक्ति शान्तिको स्वीकार करता है। विश्वमें किसके यशका डंका बजता है। तुम्हें छोड़कर त्रिभुवनमें कौन भला है ? दूसरा कौन प्रत्यक्ष कामदेव है। दूसरा कौन जिनपदोंकी सेवा करनेवाला है और दूसरा कोन नृपशासनकी रक्षा करनेवाला है।
पत्ता-शशि सूरसे, मन्दर मन्दराचलसे और इन्द्र इन्द्रसे उपमित किया जाता है, परन्तु हे नन्दादेवी-पुत्र, एक तुम्हारा दूसरा प्रतिमान ( उपमान) दिखाई नहीं देता ॥३॥
"जो तुमने दुर्वचनोंसे मेरी निन्दा को, जो दृष्टिसे क्रोधपूर्वक देखा, जो सरोवरके पानीसे २ झे सिक्त किया, और जो लड़ते हुए ठेलकर गिरा दिया; हे मेरे भाई, उसके लिए तुम मुझे क्षमा करो, आओ और अयोध्याके लिए जाओ, तुम आज भी सिंहासनपर बैठो, मैं तुम्हारे भालपर पट्ट बांधूगा। यह अर्ककीति तुम्हारा जीवन होगा । इस समय राज्य करते हुए मैं लजाता हूँ। अब मैं परम दीक्षा ग्रहण करूंगा। इस समय इन्द्रियोंके प्रपंचको छोड़ेगा। मैं इस समय पुण्य या पापका आदर नहीं करूंगा। इस समय कर्मोके निबन्धनको नष्ट करूँगा। इस समय योगसे प्राणोंका विसर्जन करूंगा।
धत्ता-हे भाई, मैं वनवासमें प्रवेश करूंगा। धरतीके मोह रससे भ्रान्त अपयशके भाजन इस जीवनको जीनेसे क्या ?" ||४||
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४०२
महापुराण
[१८.५.१
सज्जणकरुणे सज्जणु कंपइ तं णिसुणिवि भरहाणुउ जपइ ।। जइयहुं हर सिसुत्ति सहकीलिउ तइयहं पेई वि किं ण परितोलिउ । मझु वि तुज्झु वि कवणु पराहउ मज्झु वि तुज्झु वि कवणु महाहउँ । जे गय ते सयल वि मग्गिवि मिसु भावइ भोउ ताहं णावइ विसु । तेत्थु ण काई वि दोसु तुहारउ वंदणिज्जु तुहुँ जगि गरुयारउ । जइ एवहिं धरित्ति ण समिच्छहि ता जे दिण्णी तहु जि पयच्छहि । तहिं अवसरि वयणेहिं णिरोहिउ मंतिहिं भूमिणाहु संबोहिउ । सुउ संताणि थवेवि महाबलि गउ केलासु परायउ भुयबलि । घत्ता-वणु जंतु मुयंतु णरिंदसिरि महि महंतु अहिमाणिउ ।।
साकेयहु राउ विसण्णमणु मंतिहिं मडुइ आणिउ ।।५।।
एत्तहि गिरिवरि बाहुबलीसें
अइदूराउ पणावियसीसें। णिट्ठाणिट्ठउ गट्ठाणट्ठउ
दिट्ठउ भट्ठदुट्ठकम्मट्ठउ । अइदट्ठोहरुट्ठपाविट्ठहिं
हेट्ठाकोट्ठगयहिं दप्पिट्टहिं । जो णउ दीसइ कुंठियेवायहिं मंसासिहि मज्जवहिं सवायहिं । वयणुग्गयगहीरजयकारें
सो जिणु संथुउ तेण कुमार। रोसु तुज्झु रोसेण व णिग्गउ राउ ण याणहुं संझहि लग्गउ । पई मेल्लिवि दोसु वि दोसायरि थियउ कलंकमिसेण व ससहरि । तुह झाणग्गिभएण व गट्ठउ मोहु मोहणोसहिहिं पइटउ । पई तासिउ वढारियसंगउ लोहु वि सव्वलोहभावं गउ । कंदप्पहु वि दप्पु पई साडिउ कालहु उप्परि कालु भमाडिउ । तुहुं णिग्गंथु अणीहियगंथउ तवणियमं थउ दावियपंथउ । विज्जा णावई पई जम्मबुहि उल्लंघिउ तुहुं रवि हरि हरु विहि । एम देउ गरु भत्तिइ वंदिवि मिच्छादुक्किउ गरहवि णिदिवि । णावइ भवतरुमूलुप्पाडणु
करिवि संसिरवरि चिहुरुप्पाडणु । घत्ता-सर पंच वि घल्लिय वम्महेण धणु रइ बिण्णि वि मुक्कइं॥
पडिवण्णई पंच महव्वयई पयजयपाडियसक्कइं॥६॥ ५. १. MBP किं ण पई मि । २. P adds after this : तुहं जि जेटु महु सामि महारउ ।
३. MFK तो। ४. MBP मंडई।। ६. १. MBP पणामिय। २. G कुट्टियं । ३. P दोसु दोसायरि । ४. MP मोहणोसहहिं । ५. MB
सव्वु लोह । ६. MBT °मत्थउ; T records ap: तेम णिमत्थउ इति पाठे ज्ञानावरणविनाशकः । ७. MB गरहेवि; P गिरिहिं वि । ८. MBP ससिरि वरचिहरु ।
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१८. ६.१६]
हिन्दो अनुवाद
"सज्जनकी करुणासे सज्जन द्रवित होता है।" यह सुनकर भरतानुज वाहुबलि कहता है"जब मैं शैशवमें तुम्हारे साथ खेलता था, तब क्या तुमने मुझे नहीं उठाया था। मेरा और तुम्हारा कौन-सा पराभव । मेरा-तुम्हारा कौन-सा महायुद्ध । जितने भी लोग गये हैं वे बहानेकी खोज करके गये हैं. उनको भोग ऐसे लगे जैसे विष हो। वहाँ भी तम्हारा कोई दोष नहीं है, तम जगमें महान् और वन्दनीय हो। यदि इस समय तुम धरतीकी इच्छा नहीं करते तो जिसने तुम्हें यह दी है, वह उसीको दो।" उस अवसरपर मन्त्रियोंने मना किया, और भूमिनाथको अपने शब्दोंमें सम्बोधित किया। महाबलि अपने पुत्रको परम्परामें स्थापित कर चले गये और कैलासपर जा पहुंचे।
घत्ता-नरेन्द्रश्री और धरतीको छोड़ते हुए और वनको जाते हुए महान् अभिमानी विषण्णमन राजा भरतको मन्त्रियों द्वारा बलपूर्वक अयोध्या ले जाया गया ॥५॥
यह कैलास पर्वतपर अत्यन्त दूरसे सिरसे प्रणाम करते हुए बाहुबलीश्वरने निष्ठामें निष्ठ, अनिष्टका नाश करनेवाले, दुष्ट आठ कर्मोंके नाशक जिनवरको देखा। बड़ी-बड़ी दाढ़ों-ओठोंवाले क्रोधी और पापियों, अधोमुख बैठे हुए घमण्डियों, कुण्ठित प्रमाणवादियों और मांस खानेवाले, मद्य पोनेवाले चाण्डालोंके द्वारा जो नहीं देखे जाते, ऐसे जिन भगवान्को शब्दोंसे निकलती हुई जयजयकार ध्वनि करनेवाले कुमारने स्तुति की-“हे देव, क्रोध तुम्हारे क्रोधसे ध्वस्त हो गया, राग भी मैं जानता हूँ सन्ध्यासे जा लगा, दोष भी तुम्हें छोड़कर चन्द्रमामें स्थित हो गया है, वह उसमें कलंकके रूपमें दिखाई देता है। तुम्हारी ध्यानरूपी अग्निके भयसे नष्ट हुआ मोह औषधियोंमें प्रवेशकर गया है। तुमने शत्रुसंगमको बढ़ानेवाले, सबके (स्वर्णादि के ) प्रति लोभ बढ़ानेवाले लोभको सन्त्रस्त कर दिया है । कामदेवके दर्पको तुमने नष्ट कर दिया, और कालके ऊपर कालको धुमा दिया। आप परिग्रहको नहीं चाहनेवाले निर्ग्रन्थ हैं, आप तपके नियममें स्थित और पथप्रदर्शक हैं। विद्यारूपी नावसे तुमने जन्मरूपी समुद्रको लांघ लिया, तुमने रवि, हरि, शिव और ब्रह्माको पार कर लिया।" इस प्रकार भारी भक्तिसे वन्दना कर मिथ्यादुष्कृतियोंको बुरा-भला कह और निन्दित कर, जैसे संसाररूपी वृक्षके मूलको उखाड़नेके लिए अपने सिरके बालोंको उखाड़कर
घता-उन्होंने अपने पांचों बाण डाल दिये, काम और रति दोनोंको छोड़ दिया, और जिनसे इन्द्र चरणोंमें आकर पड़ता है, ऐसे पांच महाव्रतोंको उन्होंने स्वीकार किया ।।६।।
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४०४
महापुराण
[१८.७.१
णत्थि उवाणहाउ सयणासणु मुक्कउं छत्तु असेसु विहूसणु । विसहइ दसमसयसीउण्हई छुहजणदुव्वयणाई संयण्हई । चरिय णिसेज्ज सेज्ज रइ अरइ वि वहबंधण गयजण वणवसइ वि। सीह सरह तणु लग्ग ण वारइ मुणि जच्चिण्णेहि चित्तु ण पेरइ । जल्लमलेहिं मि लित्तउ अच्छइ वउसक्कारु किं पि ण समिच्छइ । असुहसुहेसु समत्तणु मण्णइ विविहातंक रोय अवगण्णइ । लोयकएहिं ण मुज्झइ दोहिं मि सक्कारेहिं पुरक्कारेहिं मि। अहंसण अलाहु रिसिसारउ । पण्णपरीसह सहइ भडारउ । वयसमिर्दिदियरंभणु लोउ वि च्चेलकावासयजोउ वि । पहाणविवज्जणु महिसंसोवणु , दंतोधोवणु कयठिदिभोयणु । घत्ता-वणि णिवसइ दुक्खसयई सहइ ण चवइ थोवउ जेंवइ ।।
परमित्ति करइ णिद्द वि जिणइ मणु वेरग्गें भावइ ॥७॥
एम चरंतु चरित्तु सुदुच्चरु महि विहरंतु पइठु वणंतरु । तहिं थिउ एक्कु वरिसु लंबियकरु वेल्लीवलयहिं वेढिउ णं तरु । जासु अंगि पयघट्टियसिंगह कंडुविणोउ सरइ सारंगहं । जासु वच्छि फणिमणि पविराइउ बहुसो विसहरेहिं हाराइउ । जासु गत्तु कयमयजलण्हवणउं जायउ करिहिं करडकंडुयणउं । चरणंगुठ्ठयणक्खि णिहिज्जइ सरहलु वणयरणरहिं णिसिज्जइ । देहि चडंति जासु सुरघरिणिहिं उलूरिय लय णहयरतरुणिहिं । तणुकंतीइ जासु हयछाया
हंस वि हरियवण्ण संजाया। जासु रत्तकंदासिइ वट्टइ
पण्हिय सूयरु घोणइ घट्टेइ । घत्ता-आसण्णइं जासु मुणीसरहो तवपहावउवसंतई ॥
करि केसरि उलई फणिउलई सह हिंडंति रमंतई ॥८॥
एक्कहिं दियहि पउत्तु सपत्तिइ थुणइ णराहिउ पयपडियल्लउ पई कामें अकामु पारद्धउ
तासु भरहु गउ वंदहत्तिइ । पई मुएवि जगि को वि ण भल्लउ । पई राएं अराउ कउ णिद्धउ ।
७. १. MBP सतण्हइं; T सयण्हई । २. B जच्चिहे । ३. MBP अहंसणु । ४. M अच्चेलक्क आवासय
जोइ वि; B अच्चेलक्क पवासयजोउ वि । ५. MP दंताधोयणु; B दंताभोयणु । ८. १. BP सुदुद्धरु । २. MBP णं वेडिउ । ३. MBPK कंदासइ। ४. MB घोणे; P घोणिहि ।
५. B घुट्टइ। ९. १. BP भत्तिइ ।
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१८. ९.३]
हिन्दी अनुवाद
४०५
न तो उनके पास जूते हैं, न शयन और आसन । उन्होंने अशेष आभूषण और छत्र भी छोड़ दिये । वह दंशमशक, शीत और उष्णता सहन करते हैं। क्षुधा, लोगोंके दुर्वचन ( क्रोध ) और तृष्णा सहन करते हैं । चर्या, निषद्या, शय्या, स्त्री, अरति, लोगोंके चले जाने और वनमें रहनेपर, वधबन्धन, सिंह-शरभ और तृणके शरीरसे लगनेपर भी वह निवारण नहीं करते, मुनि याचनामें भी अपने चित्तको नहीं लगाता, सूखे पसीने और मलसमूहसे लिप्त होनेपर भी वह स्थित रहते हैं, व्रतसत्कार वह कुछ भी नहीं चाहते। अशुभ और शुभमें वह समता भाव धारण करते हैं, विविध आतंक और रोगोंकी अवहेलना करते हैं, लोगोंके द्वारा लगाये गये दोषोंसे भी वह मूच्छित नहीं होते। मुनियोंमें श्रेष्ठ अदर्शन और अलाभ (परीषह ) प्रज्ञा परीषह भी वह आदरणीय सहन करते हैं। व्रत-समिति और इन्द्रियोंका निरोध, केशलोंच अचेलकत्व वासयोग, स्नानका त्याग, धरतीपर शयन, दाँत नहीं धोना और मर्यादाके अनुसार भोजन करना।
धत्ता-वनमें निवास करते हैं, सैकड़ों दुःख उठाते हैं, सहते हैं, बोलते नहीं, थोड़ा खाते हैं । सीमित नींद लेते हैं, मनको जीतते हैं, वैराग्यकी भावना करते हैं ॥७॥
इस प्रकार कठोर चरितका आचरण करते हुए धरतीपर वह विहार करते हुए वनके भीतर प्रविष्ट हुए। वहां वह एक वर्षपर हाथ लम्बे करके स्थित रहे। मानो लताओंके वेष्टनोंसे वृक्षको घेर लिया हो। उनके अंगपर पैरोंसे सींग घिसते हुए हरिणोंका खाज खुजलाना होता है। उनके वक्षपर नागमणि विराजित है, और बहुत-से विषधरोंसे हारकी तरह आचरण कर रहा ( हार-जैसा लग रहा है )। उनका शरीर हाथियोंकी मदजलोंसे स्नान करनेवाली सूंड़ोंके खुजानेका साधन हो गया। उनके चरणोंके अंगूठोंके नखपर तीरफलक रखे जाते हैं और वनचर मनुष्यों द्वारा पैने किये जाते हैं। सुरबालाएं और नभचर तरुणियाँ उनके देहपर चढ़ जाती हैं
और लताओंको तोड़ती हैं। उनकी शरीरको कान्तिसे.निष्प्रभ होकर हंस भी हरे रंगके हो गये हैं। उसकी रक्त कन्दशयके समान एड़ी है जिससे सूअर अपनी नाक रगड़ता है।
पत्ता-उस मुनीश्वरके तपके प्रभावसे शान्त पास बैठे हुए सिंह और गज, नागकुल और नकुल साथ-साथ रमण करते हैं और घूमते हैं ॥८॥
एक दिन पुत्र भरत अपनी पत्नीके साथ उन बाहुबलिकी वन्दना-भक्तिके लिए गया। पैरोंमें पड़कर राजा उसकी स्तुति करता है-"आपको छोड़कर जगमें दूसरा अच्छा नहीं है, आपने कामदेव होकर भी अकामसाधना प्रारम्भ की है। स्वयं राजा होकर भी अराग (विराग ) से
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४०६
महापुराण
[१८.९.४ पई बाले अबालगइ जोइय पई अपरेण वि पेरि मइ ढोइय । पई णियभुयबलेण हउं जोक्खिउ पई जि पुणु वि कारुण्णे रक्खिउ । पई महु दिण्णी पुहइ संहत्थे तुहं परमेसरु जगि परमत्थे । परउवयारि धीर दमवंता महि मुवि णियमेणुवसंता। पई जेहा जगगुरुणा जेहा
एक्कु दोणि जइ तिहुयणि तेहा। अस्थि रसणफंसणरसलालस अम्हारिस घरि घरि जि कुमाणुस । रोसवंत हियपर विस्संभर पावबहुल परवस अप्पंभर । घत्ता हा मइं बहुकम्मपरव्वसेण विसयबलाई ण महियई ।।
एकहो णियजीवहु कारणिण जीवसयाई वि वहियई ।।२।।
१०
इंदचंदवंदारयवंदें
तहिं अवसरि बाहुबलिमुणिंदें। एकहु जीवहु गुण मणि भाविय राय रोस दोण्णि वि उड्डाविय । तिण्णि वि सल्लई हियउद्धरियई तिण्णि वि रयणई लहु संभवियई। तिणि वि डंभ मुक्क संखेवें गारव तिण्णि विवजिय देवें । चउगइकम्मणिबंधणरमियँउ सण्णउ चत्तारि वि उवसमियउ । पंचमहत्वयाई अविहंडइ पंचासवदारई णिच्छडेइ। पंचिंदियई कयाई णिरत्थई पंच वि णाणावरणई गंथई । छावासयउज्जमु सँविसेसिउ छज्जीवहं दयभाउ पयासिउ । छह लेसहं परिणामु इट्टई छ वि दवइं पञ्चक्खई दिदुई। सत्त भयाइं हयाई गहीरें
सत्त यि तच्चई णायई धीरें। अट्ठ वि मय णिट्ठविय अदु? अट्ठ सिद्धगुण भरिय वरिट्ठ। णव विहु बंभचेरु परिपालिउ ___णवपयत्थपरिमाणु णिहालिउ । घत्ता-दसविहु जिणधम्मु 'वियाणियउ एयारह हयजडिमउ ।।
"अवियारहं धीरहं सावयहं बारह भिक्खुहुं पडिमउ ॥१०॥
१०
तेरह किरियाठाणइं मुणियई तेरहभेय चरित्तइं गणियइं । चोदह गंथमला वि समुज्झिय चोइंह भूयगाम सईबुज्झिय । पण्णारह पमाय मेल्लंत
पुण्णपावभूमिउ जाणंत । २. B सरे मइ। ३. M समत्थे, but records ap सहत्थें । ४. MB परमेसर । ५. MBP
°उवयार। १०. १. BP राय दोस । २. MBP संभरियइं; K संभवियई but corrects it to संभरियई।
३. MBP वेय। ४. P रसियउ। ५. BP णिच्छंडइ। ६. B छावासउ । ७. PK सुविसेसिउ । ८. B उवटइ। ९. MBP परिणाम । १०. MB दहविह। ११. MP वियारियउ। १२. M अवि
बारह, but records ap अवियारहं । ११. १. B चउदह।
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१८. ११.३] हिन्दी अनुवाद
४०७ स्नेह किया है, बालक होते हुए भी आपने पण्डितोंकी गतिको देख लिया है। अपर (जो पर न हो) होते हुए भी आपने पर (अरहन्त ) में अपनी मति लगायी है। तुमने अपने बाहबलसे मुझे माप लिया है। और तुम्होंने फिर करुणाभावसे मेरी रक्षा की है। तुमने अपने हाथसे मुझे धरती दी है, वास्तवमें तुम्ही जगमें परमेश्वर हो। दूसरोंका उपकार करनेमें धीर और शान्त । जो धरतीका परित्याग कर अपने नियममें स्थित हो गये। तुम्हारे-जैसे और विश्वगुरु ऋषभनाथजैसे मनुष्य इस दुनियामें एक या दो होते हैं। लेकिन हम-जैसे. रसना और स्पर्शकी लालसा रखनेवाले खोटे मानुष घर-घरमें हैं। क्रोधी, दूसरोंका हरण करनेवाले, विषसे भरे पापबहुल, पराधीन और अपनेको भरनेवाले।
घत्ता-हा ! मैंने बहुकर्मोके परवश होकर विषयबलोंको नष्ट नहीं किया और एक अपने जीवके लिए सैकड़ों जीवोंका बध किया ॥९॥
उस समय इन्द्र, चन्द्र और देवोंके द्वारा वन्दनीय बाहुबलि मुनीन्द्रने एक जीवके ही गुणका चिन्तन अपने मनमें किया। राग ओर द्वेष दोनोंको उड़ा दिया। हृदयसे तीनों शल्योंको । दिया। और तीन रत्नों ( सम्यक्दर्शन, ज्ञान और चारित्र्य ) को अपने मनमें उत्पन्न किया। संक्षेपमें उन्होंने तीनों प्रकारके दम्भ छोड़ दिये। देवने तीन गौरव छोड़ दिये। चार गतियों और कर्मोंके निबन्धनमें रमनेवाली चारों संज्ञाओंको शान्त कर दिया। उनके पांच महाव्रत अखण्डित थे और पांच आस्रव-द्वार नष्ट हो चुके थे। उन्होंने पांचों इन्द्रियोंको व्यर्थ कर दिया था और पांच ज्ञानावरणकी ग्रन्थियोंको भी। विशेष रूपसे छह आवश्यकोंमें उद्यम किया था। छह प्रकारके जीवोंमें दयाभाव प्रकाशित किया था। छहों लेश्याओके परिणाम शान्त हो गये, छहां द्रव्य प्रत्यक्ष दिखाई देने लगे। गम्भीर उन्होंने सातों भयोंको समाप्त कर दिया, उस धीरने सातों तत्त्वोंका ज्ञान प्राप्त कर लिया। सदय उसने आठों मदोंका नाश कर दिया, उस वरिष्ठने आठों सिद्ध गुणोंका स्मरण कर लिया। उसने नौ प्रकारके ब्रह्मचर्यका परिपालन किया, नवपदार्थपरिमाणको देख लिया।
पत्ता-दस प्रकारके जिनधर्मको और अविकारी धीर श्रावकोंकी जड़मतिको नष्ट करनेवाली ग्यारह प्रतिमाओं तथा मुनियोंकी बारह प्रतिमाओंको जान लिया ॥१०॥
उन्होंने तेरह प्रकारके क्रिया स्थानोंको समझ लिया और तेरह प्रकारके चारित्रोंको गिन लिया, चौदह परिग्रह मलोंको छोड़ दिया, प्राणियोंके चौदह भेदोंको जान लिया है। पन्द्रह प्रमादोंको छोड़ते हुए पुण्य-पापको भूमिको जानते हुए सोलह प्रकारको कषायोंको शान्त करते
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४०८
महापुराण
[१८. ११.४ सोलह विह कसाय पसमंतें सोलहविहवंयणेसु रमतें। अवि य असंजमोह सत्तारह जाणिवि संपराय अट्ठारह । इउणवीस वि णाहज्झयणई वीसविहई असमाहीठाणई। एकवीस सवल विणिरुणीसहं सहिवि द्वीस दुसज्झ परीसह । तेतीस वि सुत्तयडइं सुत्तई चउवीस वि जिणतित्थई होतई । पंचवीस भावणउ धरते
छव्वीस वि पुहवीउ णियंतें। सत्तवीस जइगुण सुमरते । अढवीस णियचित्ति समप्पिवि पव॑रायारकप्प पवियप्पिवि । एउणतीस वि दुक्कियसुत्तई
तीस मोहठाणइं बलवंतई । एक्कतीस मलवाय धुणंत जिणुवएस बत्तीस मुणंते । घत्ता-थिरु सुक्कझाणु आऊरियउ घाइचउक्कु पण?उ ।।
___ उप्पाइउ केवल मणिवरेण लोयोलोउ वि दिदउ ॥११॥
१२
ता सुर चल्लिय समउ सुरिंदै तारायणु चल्लिउ सहुं चंदें। णरवइ धाइय समउ गरिंद उरय समागय सहुँ धरणिंदें। तेहिं कसाय विसायवियारउ . संथुउ सिरिबाहुबलि भडारउ । रायचक्कु पई तणु परिगणियउं कम्मचक्कु झाणाणलि हुणियउं । देवचक्कु तुह अग्गइ धावइ चक्कु वि चक्किहि रेमणु ण भावइ ।
उ ण वड्ढइ पई मएवि को णरयह कडढइ । जीवरासि णिभैरु विहडंती विहुरंभोहि विवरि णिवेडंती। भोयासत्तएण पुर्ह ईसरु
दिक्ख लेवि णिज्जउ वम्मीसरु । को किर भण्णइ तुज्झ समाणउ तुहुँ जि मुंडकेव लिहिं पहाणउ । एम थुणंतें बुद्धिसमिद्धे
इंदे वेउव्वियउ खणखें। घत्ता-पंउमासणु चवलु चमरजुयलु एक्कु जि छत्तु मणोहरु ।
दीसइ पप्फुल्लिउ पंडुरउ णं तवसरि इंदीवरु ॥१२॥
१०
२. MBP वयणे सुमरतें । ३. P दुसज्झ दुवोस । ४. MBP संतई। ५. P सुअरंतें । ६. MBP add after this : पुणु वि तेण मुणिणा भयवंतें । ७. P एम ण यारकप्प । ८. MBP जिणउवएस ।
९. P लोयालोय । १२. १ MBP read the first two lines as : ता सुर चल्लिय समउ सुरिंदें, उरय समागय सहं
धरणिदें; णरवइ धाइय समउं परिंदें, तारायणु चल्लिउ सह चंदें। २. MB वयणु; P रयणु; T रमणु रमणीयम् । ३. MBP सिरिराउ । ४. MBP णिरु भवि हिंडती। ५. MBK विवडती। ६. P सूहईसरु । ७. BPK णिज्जिउ । ८. K भण्णउं and gloss भणामि । ९. MBP हरियासणु धवलु ।
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• १८. १२.१०]
हिन्दी अनुवाद हुए, सोलह प्रकारके वचनोंमें रमण करते हुए और भी सत्तरह असंयम मोहनीय, अट्ठारह सम्पराय मोहनीय, उन्नीस प्रकारके नाह-ध्यान (नाथध्यान ), बीस असमाधिस्थानों, इक्कीस मन्द अपवित्र कार्यों और बाईस असाध्य परिसहोंको सहकर। तेईस सूत्रकृतांग-सूत्र और चौबीस जिनतीर्थों में होते हुए, पच्चीस भावनाओंको धारण करते हुए, छब्बीस क्षेत्रोंको देखते हुए, सत्ताईस मुनिगुणोंको स्मरण करते हुए अट्ठाईस मूलगुणोंको अपने मनमें समर्पित कर प्रवर आचारकल्पके प्रति अर्पित कर, उनतीस दुष्कृत सूत्रों, तोस बलवान् मोहस्थानों और इकतीस मलपापोंको नष्ट करते हुए और बत्तीस जिनगुणोंका मनन करते हुए- .
__ घत्ता-स्थिर शुक्लध्यानकी अवतारणा कर चार घातिया कर्मोको नष्ट कर दिया। मुनिवरको केवलज्ञान उत्पन्न हो गया और उन्होंने लोकालोकको देख लिया ॥११॥
१२ तब देवेन्द्र के साथ देव चले। तारागण चन्द्रमाके साथ चले। राजा लोग नरेन्द्रके साथ दौड़े। सांप धरणेन्द्रके साथ आये। उन्होंने कषाय और विषादको नष्ट करनेवाले आदरणीय बाहुबलिकी स्तुति की-"आपने राजचक्रको तिनकेके समान समझा, कर्मचक्रको ध्यानाग्निमें आहुत कर दिया और देवचक्र आपके सामने दौड़ता है, चक्रवर्तीका चक्र सुन्दर नहीं लगता। हे मुनि, आपको देखनेसे राग नहीं बढ़ता, आपको छोड़कर कोन निश्चित रूपसे नष्ट होती हुई और विधुर समुद्रके विवरमें पड़ती हुई जीवराशिको नरकसे निकाल सकता है ? पृथ्वीश्वरने कामकी आसक्तिसे दीक्षा लेकर कामदेवको जीत लिया। तुम्हारे समान किसे कहा जा सकता है, आप मुण्ड केवलियोंमें प्रमुख हैं।" इस प्रकार बुद्धिसे समर्थ इन्द्रने स्तुति करते हुए आधे पलमें विक्रियासे
घत्ता-पद्मासन चपल चमरयुगल एक ही सुन्दर छत्र जो ऐसा दिखाई देता है मानो तपरूपी नदीमें इन्दीवर हो ॥१२॥
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महापुराण
[१८. १३.१
पयणियजणणमरणविड्डमरइ संसमंतु भावग्गयतिमिरई । देतु देसजइजइवरचरियई
संवोहंतु भव्वपुंडरियई । पायपोमपाडियसंकंदणु
भूमि भमंतु सुणंदाणंदणु । गउ केलासहु पावपरंमुहु
समवसरणि णियतायहु संमुहु । आसीणउ पसण्णु पसमियकलि देउ समाहि बोहि महु भुयबलि। भायरणाणलंभसंतुट्टउ
एत्तहि णरणारीयणदिट्ठउ। उज्झाणयरिहि भरहु पइट्ठउ उरपमाणि हरिवीढि बइट्ठउ । वजंतहिं जयवजणिहायहिं गाइयणारयतुंबुरुगेयहिं । दरिसियमेइणिरिद्धिविहोयहिं उव्व सिरंभाणट्टविणोयहिं । मंडलियहिं मंडियणियवक्खहिं . अहिसिंचिउ मंगलघडलक्खहिं । घत्ता-चउसहि सरीरइ लक्खणई बहुवंजणई अणिंदहो॥
जं णिहिलहं भारहणरवइहिं तं बलु भरहणरिंदहो॥१३।।
१४
वण्णु तत्ततवणीयपहायरु सासणु जासु चकलच्छीहरु । वजरिसहणारायणिबंधेउ समचउरंसु ठाणु रुइरिद्धउ । पुण्णपहावें अतुलु वि लद्धउ छैक्खंडु वि महिमंडलु सिद्धउ । दोण्णि तीस सहसाई सुदेसह दोसत्तरि पुरवरह पयासह । णवइ णव जि दोणामुहसहसई पट्टणाहं अडदाल सहरिसइं। खेडह सोलह ताइ पउत्तई चोदह संवाहणहं णिरुत्तई। कलवकणिसभरभारियसीमहुं छण्णवइ जि कोडिउ वरगामहुं। सत्तसयाई कुकुच्छिणिवासहं पंच तह मि धरियपरिहासह । अट्ठवीस वणदुग्गई रिद्धई छप्पण्णंतरदीवई सिद्ध। सहसट्ठारह मेच्छणरेसह
बत्तीस जि मंडलियमहीसह । पत्ता-देवीहिं दुतीस बत्तीस पुणु मेच्छणराहिवदिण्णहं॥
बत्तीससहस अवरुद्धियहं णिरु णिरुवमलायण्णहं ॥१४॥ १३. १. MBPT सक्कंदणु । २. MBP णाणलंभि । ३. MBPणारीयणि । ४. MBP खंडियसवि
वक्सहिं । ५. M बहुवेंजणई; BP बहुविजणई । ६. Mणरवरहिं। १४. १. MBP चक्कु । २. MBP "णिबद्धउ । ३. MBP छक्खंड । ४. MP पट्टणाई।। ५. MBP
संवाहणई। ६. MBP पच्चंतहं। ७.M मेंछ। ८. P°सहासह। ९. M मेंछ । १०. MBP कण्णहं । ११. MP अवरुट्ठियहं ।
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१८. १४.१२]
हिन्दी अनुवाद
४११
जन्म और मृत्युके प्रेम और भयको नष्ट करनेवाले भावोंमें उत्पन्न होनेवाले अन्धकारको शान्त करते हुए, एकदेशचरित्र और सकलदेशचरित्र प्रदान करते हुए, भव्यरूपी कमलोंको सम्बोधित करते हुए, चरणकमलोंमें इन्द्रको झुकाते हुए, सुनन्दानन्दन पापसे पराङ्मुख बाहुबलि भूमिपर विहार करते हुए कैलास पर्वतपर गये। अपने पिताके समवसरणमें सम्मुख बैठे हुए पापको नष्ट करनेवाले हे बाहुबलि मुझे ज्ञान और समाधि प्रदान करें। तब भाईके ज्ञानलाभसे सन्तुष्ट और नरनारीजनके द्वारा देखे गये भरतने अयोध्या नगरीमें प्रवेश किया और अपने वक्षःस्थलके समान ऊँचे सिंहासनपर बैठ गया । बजते हुए जयविजय वाद्यों, गाये जाते हुए नारद तुम्बुरुके गीतों, दिखाये जाते हुए धरतीके ऋद्धि विभागों, उर्वशी और रम्भाके नृत्य विनोदोंके साथ एकत्रित हुए राजाके पक्षसमूहोंके द्वारा लाखों मंगल-कलशोंसे उसका अभिषेक किया गया।
पत्ता-अनिन्द्य शरीरपर चौसठ लक्षण और बहुत-से व्यंजन चिह्न थे, जो समस्त भारतनरेश्वरोंका बल था, उतना बल अकेले भरतराजके पास था ॥१३॥
१४
जिसका रंग तपे हुए स्वर्ण और सूर्यके समान था, जिसका शासन चक्र और लक्ष्मीको शोभा धारण करता था, जिसका शरीर वज्रवृषभ नारायण बन्ध और समचतुरस्र संस्थानवाला तथा कान्तिसे समृद्ध था। पुण्यके प्रभावसे उसने अतुलको प्राप्त कर लिया और छह खण्ड धरती भी सिद्ध हो गयी। साठ हजार सुदेश थे, बहत्तर हजार श्रेष्ठ नगर थे। निन्यानबे हजार द्रोणामुख गांव थे और अड़तालीस हजार पट्टन थे। सोलह हजार खेड़े और निश्चित रूपसे संवाहन, धान्यके अग्रभागोंके भारसे दबे हुए क्षेत्रवाले छियानबे करोड़ उत्तम गांव थे। सात सौ रत्नोंको खदानें, उनमें से पांच तो दूसरोंका उपहास करनेवाली, अट्ठाईस हजार समृद्ध वनदुर्ग थे और छप्पन अन्तरद्वीप सिद्ध हुए । अठारह हजार म्लेच्छ राजा और बत्तीस हजार माण्डलीक राजा।
__घत्ता-म्लेच्छ नराधिपोंके द्वारा दी गयी बत्तीस ( दो और तीस) फिर बत्तीस हजार और भी अत्यन्त अनूपम लावण्यवती, अविरुद्ध म्लेच्छ राजाओंके द्वारा दी गयीं बत्तीस हजार स्त्रियोंसे युक्त था ॥१४॥
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४१२
महापुराण
[१८.१५:१
१५
घरि भावाणुविभावपयासई णडहं डंति दुतीससहासई। चउरासीलक्खेइमायंगहं. तेत्तीय जि रहाहं सरहंगहं। तइकोडिउ किंकरहं अहंगहं अट्ठारह भणियाउ तुरंगह। चुल्लिहिं कोडि रसायणरसियहं सहइ तिण्णि सयई भाणसियह।. करिसणि गंगरकोडि पयट्टइ फलभारेण धरित्ति विसट्टइ। कालणामु णिहि देइ विचित्तइ वीणावेणुपडहवाइत्तई। णिवहु महाकालु वि संजोयइ पंडु देइ णाणाविहवण्णई। "सालिवीहिपमुहई बहुधण्णइ असिमसिकिसिउवयरणइ ढोयइ। सप्पु वि सयणासणभवणइं वत्थई पोमु पिंगु आहरणइं"। अत्थई सत्थई "माणवु देतउ संखुण थाइ सुवण्णु वहंतउ सव्वरयणणिहि सव्वई रयणइं देइ सिरीवहु उरयलि णयलई घत्ता-असि चक्कु दंडु छत्त वि धवलु पहरणसालहि जायई॥
कागणि मणि चम्मु वि सिरिभवणे सई णरणाहहु आयइं ।।१५।।
रुप्पयमहिहरि सोहियवयणहं पच्छइ पुणु संपत्तई णरवइ चत्तारि वि हूयइं साकेयइ णव णिहि ते वि तहिं जि संभूया णिञ्चमेव तणुरक्खालुद्धहं विविहेघरई कणयधरणियलई विविहई छत्तई मुंत्तादामई विविहई वत्थईकयउसोक्खई को सो' बंभु कासु सुकइत्तणु
संभउ हरिकरिणारीरयणहं । घेरवइ थवइ पुरोहिउ बलवइ । घरसिरधयवारियरवितेयइ। संपाइयइच्छियहलरूया। सोलहसहस सुरहं गणबद्धहं । विविहासणई विविहसयणयलई । विविहई आहरणाई सकामई । विविहई सरसई भोयणभक्खई। को वण्णइ चकवइपहुत्तणु ।
१५. १. M णडंतिउ; B णडंतिहुं । २. MBP लक्खहं । ३. MBP तेत्तियई। ४. MBP सारंगहं । ५. M
तईयकोडिय। ६. B सडढई। ७. MBP लंगल। ८. M धरत्ति । ९. MBP omit this foot | १०. MBP omit this foot । ११. MBP add after this : सव्वइंधण्णई सव्वरसोहइं, पंडु
वि णिहि वि देइ अविरोहई। १२. MBP माणउ । १३. Mभवणे । १६.१. MB घर घर । २. MBP विविहई घरइं। ३. P मोत्तिय । ४. MP संकामइ। ५. MB
कयउवसोक्खई। ६. M सइ ।
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१८. १६.९]
हिन्दी अनुवाद
४१३
उसके घर भाव और अनुभावका प्रदर्शन करनेवाले बत्तीस हजार नट नृत्य करते थे। चौरासी लाख हाथी, तैंतीस लाख चक्रसहित रथ, तीन करोड़ अभंग अनुचर, अठारह करोड़ घोड़े, एक करोड़ चूल्हे, तीन सौ साठ सुन्दर रसोई बनानेवाले रसोइये। खेतीमें एक करोड़ रथ चलते थे। फलोंके भारसे धरती फूटी पड़ती थी। काल नामकी निधि विचित्र वीणा, वेणु और पटह आदि वाद्य देती थी। महाकाल भी राजाके लिए असि, मषी, कृषि आदि उपकरणोंका संयोजन करती थी। पाण्डुक निधि नाना रंगके ब्रीहि ( शालि ) प्रमुख अनेक प्रकारके धान्य प्रदान करती थी। नैसर्प निधि शयन, अशन और भवन। पद्म वस्त्रोंको, पिंग आभरणोंको अस्त्र-शस्त्र माणव देती थी। स्वर्ण ढोते हए शंखनिधि नहीं थकती थी। समस्त रत्ननिधियाँ सब प्रकारके रत्नों और लक्ष्मी उसके उरतलपर अपने नेत्र प्रदान करती थी।
घत्ता-असि, चक्र , दण्ड, धवल छत्र उसकी आयुधशालामें उत्पन्न हुए। कागणी मणि और चर्म मणि भी अपने आप राजाके भाण्डागारमें आ गये ॥१५॥
१६
विजयाध पर्वतपर शोभित मुख अश्व, गज और स्त्रीरूपी रत्नोंकी उत्पत्ति हुई। उसके बाद राजाको गृहपति, स्थपति, पुरोहित और सेनापति प्राप्त हुए । अपने गृहशिखरोंके ध्वजोंसे सूर्यके तेजका निवारण करनेवाले ये चार रत्न साकेतमें उत्पन्न हुए। जो नवनिधियां थीं वे भी उसे प्राप्त हुई कि जो अभिलषित फलरूपोंको सम्पादित करनेवाली थीं। जहाँपर देहरक्षामें दक्ष गणबद्ध सोलह हजार देवोंके विविध घर और स्वर्णधरणीतल थे, विविध आसन और विविध शयनतल थे। विविध छत्र, मुक्तामालाएं, चित्तमें अनुराग उत्पन्न करनेवाले विविध आभरण, शरीरको सुख देनेवाले विविध वस्त्र और विविध सरस भोजन। वह कौन-सा विधाता है, वह
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[१८.१६.१०
महापुराण णारी रयणत्तणविक्खायइ
खेयररायवंससंजायइ। रूवे सोहग्गे लायपणे
णेहें रइयसुरयणेउण्णे। अब्मुयभूयइ जणमणमहइ
सुहं मुंजतउ समउ सुहद्दइ। घत्ता-सिरिरमणीवरघणथणजुयलसिहरुप्पेल्लियउरयलु ।।
थिउ उज्झहि भरहणराहिवइपुप्फदंततेउजलु ॥१६।।
इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरइए महामव्वमरहाणुमण्णिए महाकव्वे मरहविलासवण्णणं णाम अट्ठारहमो परिच्छेओ समत्तो ॥ १८ ॥
॥ संधि ॥१०॥
१०. M जुयल ।
११. MB
७. MBP रयणत्तणि । ८. M समुद्दइ । ९. MB°रवणी । पुप्फयंत; P पुप्फयंतु ।
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१८.१६.१४] हिन्दी अनुवाद
४१५ कौन-सा सुकवित्व है ? चक्रवर्तीकी प्रभुताका वर्णन कोन कर सकता है ? स्त्रीरूपी रत्नत्वके लिए विख्यात, विद्याधर कुलमें उत्पन्न आश्चर्यके रूपमें उत्पन्न जनमनका मर्दन करनेवाली सुभद्राके साथ रूप, सौभाग्य, लावण्य एवं और कामके नैपुण्यको रचनाके द्वारा सुख भोगता हुआ
पत्ता-जिसका वक्षःस्थल लक्ष्मीरूपी रमणीके श्रेष्ठ सघन स्तनयुगलके शिखरोंसे पीड़ित है ऐसा भरत अयोध्यामें रहने लगा ॥१६॥
इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा रचित और महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका भरत-विलास
वर्णन नामवाला अठारहवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥१८॥
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NOTES
[ The references in these Notes are to Samdhis in Roman
figures and Kadavakas and lines in Arabic figures. ]
[ The Poet offers homage to Rşabhanatha, the first of the Tirthamkaras, and to the goddess of learning, and declares his intention to compose a Mahapurana. By way of introduction the poet says that once in the Siddhartha year ( 881 of the Śaka era, i. e., 959 A. D. ) he arrived at the outskirts of the town of Mepadi ( Mányakheta, modern Malkhed) and being fatigued with a long journey rested there in the grove. Two men of the town, Annaiya and Indaraya, approached him and requested him to visit the minister Bharata who would give him a good reception. The poet was at first unwilling to do so because of his bitter experiences at the court of king Bhairava alias Viraraja, but these men assured him that Bharata was quite a different person and would receive him well. Accordingly the poet saw Bharata, was well-received, and rested there for a few days. Bharata then requested the poet to compose a Mahāpurāņa so that he would make the right use of his poetic gifts, and offered him all help. The poet was at first unwilling, because he was afraid of the wicked who criticised even good works. Bharata asked him not to mind them. The poet then modestly said that he was not competent to undertake the task as he was ignorant of the great philosophical systems, works of the poets of the past, works on grammar, rhetoric and metrics, still he would undertake the task out of devotion to the personages figuring in the Mahāpurāņa. The poet thereupon in voked the aid of Gomukha Yakşa of Rşabhadeva and of Padmavati Yakşiņi, the goddess of learning.
The poet proceeds: There is in the Jambūdvipa a country callad Magadha with its capital Rajagrha. King Śreņika was one day 'seated in his caurt with Cellapadevī, when a messenger brought to him the report that Mahavira had arrived at the garden outside the city. The king immediately rose form his seat to pay homage to him and recited a prayer glorifying him. ]
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418
MAHĀPURĀŅA
[I.1
___ 1. The poet pays homage te Risaha, the first Tirthamkara.
1. 3a सुपरिक्खिय, सम्यग् ज्ञात्वा, T., having undrstood well the animate and inanimate divisions of the world. 35 दिव्वतणु, निःस्वेदत्वादिदशातिशयोपेतशरीरम्, T., the Jin a possesses a body which is divine, i. e., it possesses ten excellences such as absence of perspiration. The number of atiśayas which a Jina possesses is 34. See Abhidhana Cintamani I. 57-64, of these ten are peculiar to the body of the Jina. See IV. 2. 4a पयडियसासयपयणयरवह, प्रकटितः शाश्वतपदनगरस्य मोक्षस्य पन्था मार्गों रत्नत्रयरूपो येन तम्, T., one who preached the path leading to the city of eternal abode, i. e. emancipation or Siddhi. 5a सुहसीलगुणोहणिवासहरं, शुभाः प्रशस्ताश्च ते शीलगुणाश्च तेषामोघः समूहस्तस्य निवासगृहम्, T., the home of a large number of auspicious qualities. 10a चित्तलियणहं कर्बुरिताकाशम्, T. The sky was rendered variegated by flowers which Indra dropped down from heaven. 156 मत्तासमयं, the poet wants to suggest incidently the name of the metre which is मात्रासमक. 17 जासु तित्थि, यस्य तीर्थे, in whose preachings.
2. The poet pays homage to the five dignitories of the Faith, usually called पञ्चपरमेष्ठिन्, viz., तीर्थकर, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय and साधु, and also invokes the aid of the goddess of learning.
2. 36 कोमलपयाई, कोमलानि चक्षुःप्रीतिजनकानि श्रोत्रमनःसुखदानि च, पयाई पदन्यासाः पदरचनाश्च, T. The poet describes the goddess of learning under the image of a fair woman; all the epithets used are therefore applicable to traat as well as Foît. 5a gaur sifa, going at will ( applicable to a lady ); moving in a metrical form ( applicable to poetry ). 6a चोद्दसे पुविल्ल, चतुर्दशपूर्वेः युक्ता सरस्वती, स्त्री तु चतुर्दशैः (?) पूर्वेः पूर्वपुरुषर्युक्ता मात्रन्वये हि सप्त पुरुषास्तत्पतेः (?) पित्रन्वये च सप्तति, T. The goddess possesses fourteen Pūrva books, ancient texts of the Jainas, now lost; the woman possesses purity of seven ancestors on the mother's side and seven on the father's side. दुवालसंगि; सरस्वती द्वादशार्यक्ता, स्त्री तु
नलया बाहू य तहा नियं च (णियंब ? ) पुट्ठी उरो य सीसं च ।
अट्ठव दु अङ्गाई सेस उवङ्गा दु देहस्स ॥ इत्यष्टौ, 'कर्णनासिकानयनोष्ठाश्चत्वार इति द्वादशाङ्गर्युक्ता, T. The twelve angas are the famous books of the Jain Canon such as T IF etc. The woman's body also is fancifully divided into twelve parts, two legs, two arms, the hips, back, chest, head, ears, nose, eyes and lips. 6b सत्तभंगि, सरस्वती सप्तभङ्गोपेता स्त्री तु सत्तभंगि धैर्यरहिता प्राणिषु कौटिल्ययुक्ता च, T. It would be better to interpret सप्तभंगि applicable to a woman as सत्त्वभङ्गिनी पुरुषाणां धैर्यनाशिका.......
- 3. 3 a-b भुवणक्केरामु तुडिगु, कृष्णराजः तस्येदं बिरुदम् T. We know that the Rastrakuta kings had a number of Birudas; we have in Puşpadanta's works a few others such as Subhatunga (see I. 5. 2a and note thereon ) and Vallabhadeva.
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1. 91 NOTES
419 gfsy seems to be of Kannada origin. 76 Altariantafogaitft, wufazifuata, (garden ) where parrots have gathered on the blossom of mango trees. Talou comes from गोंदल, a Desi word. which means a gathering. Compare गोंधळ, गोंधळी in Marathi. 96 खंड means पुष्पदन्त ; so also अहिमाणमेरु in 12a below. 14 वर or वरि, an explative of frequent occurrence, means “it is better,' 'I would rather prefer. 15 # fugt 3 À, let him not see in the morning the face of a king who is under the influence of the wicked.
4. Drawbacks of royalty condemned.
4, 3a FITTEST, kingdom with its seven constituents, viz., Fait, hry, ET, IT, tre, ai, and . 4a faham , fortune born along with grey poison at the time of the churning of the ocean.
5. Bharata glorified.
5. 3a पाययकइकव्वरसावउद्ध, connoisseur of tha flavour of the poems of Prakrit poets. This epithet has a special significance, probably because Prakrit poetry was not much admired or understood and even ignored altogether at this rime.
6. The poet's reception at the house of Bharata, and his proposal to him to compose a Mahāpurā ņa.
6. 9a Caratur, by the son of Devi, i. e., by Bharata.
7. The poet shows his timidity to undertake the task because of the wicked who censure even good works like the Setubandha of Pra varasena.
7. 3a. Tafsuigf etc. This series of epithets have double meaning : one applicable to ofar etc. and the other applicable to the wicked.
8. Bharata assures Puşpadanta that wicked people are always like that and that the wise should pay no heed to them.
8.76 4773 EguziEE HTTÀ3, let the dog bark at the full moon. 96 foafeout, another epithet of Puşpadanta; compare qafTHTT, OTTH.
9. The poet, by way of modesty, shows that he is not qualified to undertake the Mahapurāņa, and yet he does so out of devotion to the adorable persons.
9, la 70 etc. For these writers see notes at the bottom of the page, and also Introduction to Nāyaku māracariu, page XXIII. 136 av H98 #1
form, who can measure the waters of the ocean by means of a Kudava, a small measure ? 17 faastat ff 370s, why should I say at the back ? i. e.,
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MAHAPURANA
[1. 10
I say it openly, I challenge the people to point out drawbacks in my work if
they notice any.
10. The poet invokes the aid of Gomuha Yakṣa and Cakkesari Yakşiņi who are the guardian deities of, and of the goddess of learning. 14 जो गरु भसइ णिबंधहो, he who barks at my work.
10.
11. The location of the Magadha country.
420
12. Description of Rajagrha, its capital.
12.
196 मंथ मंथियमंथणिरवाई, भन्थेन रविकया मथिताद्विलोडितान्मन्यनीरवाः शब्दा यत्र, T., where there are sweet songs of churning women when they are engaged in the act of churning. It is the practice of cow herd women to sing sweet songs at the time of churning.
13. Description of the outskirts of Rajagrha.
13. 116 ng faftig, it was, as it were, a storehouse, , of collyrium of it. The lotus flower, with a black bee sitting in it, appeared to be a collyrium box of the goddess of beauty.
14. Description of the town of Rajagrha.
14. 96 अण्णाणिय णाई कुसासणेहि, like ignorant people who are misled by false doctrines ( कु + शासन ).
15. Description of Rajagrha continued.
16. King Śrepika described.
18. King Śrepika receives the report of the arrival of Mahavira.
18. 66 चउदेवणिकाय, the four classes of gods are भवनपति व्यन्तर, ज्योतिष्क and वैमानिक 74 चउतीसातिसय, the Arhats possess thirty four atiśayas or excellences which are enumerated in Hema candra's Abhidhana Cintamani and several other works. See page 5, notes of Miss Johnson's Translation of Trişaşti. 98 argfagfe, these Prätihāryas, miraculous possessions of Arhats, are eight viz., अशोक, सुरपुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, चामर, सिंहासन, भामण्डल, दुन्दुभि and त्रिछत्र. 106 विउलइरि, is a small hill in the neighbourhood of Rajagṛha. 15 gaf, the poet puts his name in the last line of a Samdhi of each of his three known works. It is thus his, or mark, and is interpreted in several ways, but more frequently as and, and the Tirthamkara of that name. The term पुष्कयंत is at times paraphrased by पुप्फदसण, कुसुमदसण etc. भरत, the poet's patron, is also mentioned in the Ghatta lines. The term also may be regarded as another of the poet and is interpreted as for w the first Cakravartin.
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II. 8 ]
NOTES
421
11
[ King Sepiya, on hearing the news of the arrival of Mahāvīra, proceeds along with his retinue to see him. After paying his respects to the Jina, the king asked his disciple Goyama to recite to him the Mahapurána which he does.
Goyama then begins his narration by first mentioning the divisions of time, the Kulakaras and their countribution to the civilization of the Universe. The last of these Kulakaras was Nāhi (Sk. Nabhi ), and his queen was Maru devī. Now Indra remembered that a Jina was to be born in their house and therefore ordered Dhanaya, i. e., Kubera, to make the town of Ujjhā ( Ayodhyā ) gay and pleasant so that it should be a fit place for the birth of the Jina. ]
1. 6 णं वररायवित्ति रिउदारिणि, a lady who took in her hand a कुवलय, i.e., a lotus flower, is compared to royalty (artrefafet ) which also holds ou, i. e., the globe of the earth, and chastises the enemies (froatfifot ).
2. 13 50oruffiga, (Jina ) who removes the misery ( 34f1-arifa of birth (UU) of the people. 14. zalagfaqat, the sun to the lotus, viz., the universe; the Jina gladdens the universe as the sun blooms the lotus.
3. 5-11. These lines contain a long epithet of Jina 950...fat A38usaforafafa **** , (Jina ) who lotus-like feet are washed by waters flowing from the gems in the coronets of our and other gods when they bend their heads ( facTHUT ) before him. 35 H UTST! #te, you will please lead
me to the fifth गति,ie., सिद्धावस्था, emancipation from संसार, the first four yfas being da, ara, fazia and H64.
4. 7a fi oja Hifafurfe fOTETT3, there is no beginning (17+ afs) and no end (a + ) to the list of the coming Jinas, i. e., the number of the future Jinas is infinite. 8-9 17 2013 etc. Time has no beginning and no end; i. e., it is infinite. Time is an associating cause of change in the Universe. It has no flavour, no odour, no colour and no weight. Time in abstract (fra
1 ) is mark d by its fleeting i. e., constantly passing ( tada). 12 9671%, Time as understood in our daily practice.
5. 36 पियकारिणितणएं, by महावीर who is the son of प्रियकारिणी, popularly known as त्रिशला. Compare कल्पसूत्र, 109, where the name given is पीइकारिणी., 10a difse, quà, T., is multiplied.
6. 10a 15973, #a; divisible, to be divided.
8. 4-5 353fcafor, i. e., orefront is defined as one in which strength, prosperity, height of the body, piety, knowledge, gravity and courage are on
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422
MAHAPURAŅA
[II. 9
the increase; aterfoafor, i. e., aqafquitates is one in which these qualities are on the decrease. 76 दहविहविडवि, the ten कल्पवृक्षs, enumerated in the foot-notes.
9. 3a पडिसुद्द, the first कुलकर of the Jain mythology. 4a अमममियाउ, having life of the length of an a, a large number. The other s or s mentioned in 9 and 10 are सम्मद, खेमंकर, मंबर, सीमंकर, सीमंधर, विमला चक्रभ ( चक्षुष्मान् ), जसस्सि, अहिचंद, चंदाह, मरुदेव, पसेणइ and नाहि ( नाभि ).
11. 1 The first we explained to the world, i. e., discovered for the first time, the functions of the sun and the moon who were not noticed by the people upto this time because the world was full of the light supplied by the rs. The second discovered the stars and planets. Similarly each contributed something towards the human civilization. The last g i. e. tf, discovered the method of cutting the of children, and also discovered clouds which, by rain, rendered the earth full of various crops so that nobody felt the absence of the s. He also discovered fire, the art of cooking and weaving for the benefit of humanity.
ge
17. 56 सुयरद्द सुरवध नियमणि तइयहं Indra, on learning that a तीर्थंकर is to be born at a particular place, orders Dhapaya, i. e. Kubera, to make the city beautiful and rich, so that it becomes fit for the birth of a Jina.
as
19. la-Hemacandra in his grammar under IV. 422 gives a substitute for af. I do not think that always means f; in fact the usual sense of seems to be fa which sense suits the context here as well as elsewhere. The marginal notes in Mss. here render it as a but I do not think it to be correct.
III
[The birth of a Jina in Jain works is described in such a monotonous way that we are often tempted to think that we are in the field of mythology rather than that of history. When the parents of a Jina are determined, Indra orders Kubera to make the town of his parents beautiful and fit to be worthy of such event. The Jina in the immediately preceding birth is born in heaven. Six months before his period of life in heaven is to end, Indra sends six godd
esses, faft, feft, fafe, aifa, fat, and the lady where the Jina is to be born. Jina and wait upon her as her maids. (according to the Svetämbara tradition, of the night, She sees her husband the next morning and tells him that she saw, the previous night, sixteen dreams. The husband then explains to her the
to the earth to purify the womb of They then come to the mother of the The mother then sees sixteen objects fourteen) in a dream towards the end
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III. 51
NOTES
423
fruit of her dreams which in substance is that she would be the mother of a Jina. The Jina then descends into the womb in the form of some object (in the case of Rşabha, the first Tirthamkara, a white bull). Gods attend this event. There is shower of gems sent by Kubera. Jina is then born in due course. Gods headed by Indra arrive at the birth-place of the Jina, see the Jina born go round him three times, offer him prayers. Indra then hands over to the mother a babe produced by his magic, takes away the Jina to the mountain Meru, puts him on a jewelled seat and gives him a ceremonious bath, the waters of which, flowing over the mountain Meru, are subsequently saluted by all gods. Indra then recites some hymns in praise of the Jina, and then brings him back to his parents. This event is usually called a कल्लाण (Sk. कल्याणक) or more particularly for f
. These events are almost monotonously described in the life of a Jina, but Puşpadanta has on every occasion, enlivened the details with his poetic skill. The particulars about Risaha, the first Tirthamkara are :
(1) Town of birth—Ayodhyā. (2) Parents-Nabhi and Maru devi. (3) Descent in the wombas a white bull. (4) Date of Descent-month Aşadha, dark half, second day, Uttarāsādha
Na kşatra. (5) Date of birth-month Caitra, a dark half, ninth day, Sunday, Uttaraş
adhā Nakșatra, Brahma yoga. (6) Name-Risaha, Rşabha or Vșşabha. ]
4. 9a farasiioifa, in the courtyard of the king. Although Prakrits in general do not allow conjunct consonants 'with , we get such conjuncts in Apabhramsa. See Hemacandra IV. 398 and 399. Of our Mss. Gand K only give conjuncts with [ while MBP do not. I have therefore considered :G and K to preserve older recension of our text on this account as also on account of their retaining forms with a such as मग, सय etc. 11 सइ, i.e., मरुदेवी.
5. This Kadavaka gives the list of sixteen objects which Maru devi sees in a dream, and which foreshadows the birth of a Jina. The Svetambara tradition differs from the Digambara one in that they mentions only fourteen objects of the dream (agafa). Compare 99T 4, and 32-47.
गय वसह सीह अभिसेय दाम ससि दिणयरं झसं कुम्भं । पउमसर सागर विमाणभवण रयणुच्चय सिहिं च ॥
एए चउदस सुविणे सव्वा पासेइ तित्थयरमाया । - जं रयणि वक्कमई कुच्छिसि महायसो अरिहा ॥
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MAHĀPURĀŅA
III. 7
These objects, according to the Digambara tradition, are :--
(1) An Elephant breaking open the mountain slopes. (2) A Bull loudly roaring. (3) A roaring Lion. ( 4 ) Goddess Lakşmi being bathed in waters from the trunks of
the elephants of the quarters (ferta ). The Svetāmbaras
designate this under अभिसेय. (5) Wreaths, two in number, of fresh flowers. (6) The rising moon. (7) The rising sun. ( 8 ) A pair of Fish. (9) A pair of Jars filled with water. (10) A fine lotu s-pond. (11) A surging sea. (12) A royal seat marked which lion's head (PATAT). The Sveta
mbaras omit this object from their list. (13) A heavenly palace or mansion-house. (14) A palace of snakes or of the king of snakes (ATT ); this
object is omitted in the list of the Svetämbaras. (15) A heap of Gems.
(16) Burning Fire.
It will be seen from above that the Svetambaras omit 12 and 14 from the above list and thus reduce the number of objects to fourteen.
7. 5a as farahat grafa, having meditated upon the sixteen forms ( भावना) of penance such as दर्शनविशुद्धि etc. These भावनाs are:-दर्शनfarfar, fanteqrar, sqarqafazit:, Titeur , taiteu Hàn, TAFITT:, शक्तितस्तपः, साधुसमाधिः, वैयावृत्यकरणम्, अर्हद्भक्तिः, आचार्यभक्तिः, बहुश्रुतभक्तिः, प्रवचनभक्तिः,
prasyarafeerfor:, AT HTT and 7777777. Compare also tarehET311, VIII. 64; acaraffa T VI. 24.
19. 14 ag aag offg, take me to that region where there is no birth etc., i, e., to the region of the Siddhas.
21. lla fall erg ào pre fer, the Jina is called agh because he shines forth ( #15, sifat ) by fag ( 4 ), i. e., qt or piety.
IV.
[ Prince Risaha grew in the royal house in ideal surroundings. He possessed ten bodily atiśayas or excellences such as bodily purity, want of
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IV. 18 ]
NOTES
425
perspiration etc. He grew strong and powerful and young. His father then thought of getting him married. The prince was at first unwilling, but being pressed by the king, agreed to be married to us and quiet, daughters of the kings of Kaccha and Mahakaccha. The marriage was celebrated with great pomp. On the evening of the celebration, under the moon-lit sky, a concert was arranged by celestial nymphs with dance, music and singing, The ceremony was rounded off by gifts which the king made to everybody so as to satisfy all his desires. ]
1. 10 ATMOSFT, lying on his back the young boy was looking up, but the poet fancies that he is watching the path to emancipation which, as it were, goes in the upward direction. 150 tã qars, while walking slowly in the childhood. 16b 7hfç fa ets, sixty-four arts, and not seventytwo as with the Svetāmbaras. For that list see Rayapaseniyasutta or Paēsila hāpayam, para 39 and my note thereon.
2. The Kadavaka mentions some of the atiśayas which a Jina possesses.
3. 10a 99547 Tico 45, the so-called wish-tree is, a las ! a mere log of wood.
4. 14b FHTETTEUT, Fattirar afacertsafaat, T., i. e., lullaby or song to make the baby sleep. 15 to o t, these are the expressions which the mother uses to make the baby sleep.
9. 10a ratastegh 893, covered with fine canopy (Fala ) of China cloth.
10.3a gr, 5+ atfer shines forth.
17. 26 e a a793, pieaa ala:, as if washed or bathed in milk. Note that reg is the Inst. sing. from which is obtainable by a confusion of pear of the Instr. (Cf. Hemacandra IV. 342 ) and 3 of the Nom. and Acc. 4a आउज्जहं जेण मुहेण वासु, the arrangement of the musical instruments for a concert is described here, which arrangement is called पच्चाहार or प्रत्याहार. 9b कम्मारवी is an act of cleaning the musical instruments. 10b उद्दिक्खणु किउ हिंदोलएण, the introductory notes of the हिंदोलराग were sung first. 11b कउ णच्चणीहिं पुणु तहिं qay, the dancing girls then entered presenting the three methods of keeping time (atm), viz. quum, gay and ETT. T adds :--PRETATE Fraufatavia , Tafनयरछटकातालः, वीररसाभिनयो धारातालः.
18. The various technical terms of the art of dancing have been explained and their subdivisions enumerated in T. which I quote fully here :-- चारी पदप्रचारः, सा द्वात्रिंशत्प्रकारा, तत्र समपादा स्थितावर्ता सकटास्या अध्यद्धिका चापगतिः विघ्यवा एलका
५४
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MAHĀPURĀŅA
[IV. 18
क्रीडिता बद्धा उरूवृत्ता आदिता उच्छंदिता वा जतिता स्पंदितजिनिता अपस्पंदिता मतुली मत्तली चेति षोडश भौश्चार्यः; अतिक्रांता अपक्रांता पार्श्वक्रांता अर्द्धजानुः सूची नुपुरपादिका दोलापाला पादा आक्षिप्ता भाविद्धा उद्धृता विद्युभ्रांता आलत्ता भुजंगत्रासिता हरिणप्लुता भ्रमरी चेत्येताः षोडश कांसोद्भवाश्चार्यः. 3b अंगवलनं अंगहारः, स च स्थिरहस्तकः सूचीविद्धः आक्षिकः कटीछेदः विष्कभः अपरातः आव्रीडः भृश्चिकः भ्रमणमदादिविलसित इत्यादिविकल्पात् द्वात्रिंशत्प्रकारः. 46 शरीरमनेकधा प्रतिष्ठाप्य क्रियते इति कर णा नि. तलपुष्पपुटं वर्तितं अपविद्धं लीनं स्वस्तिकं अर्धस्वस्तिकं अर्धस्वस्तिकरेचितं निकूटकं अलातं उन्मत्तं ललाटं तिलमित्याद्यष्टोत्तरशतसंख्यानि. दि ण्णु दत्तानि 5a च उ द ह वि सी स. उक्तं च
अपितं कंपितं च धुतं विधुतमेव च । परिवाहितमाधूतमथाचितनिकुंचितं ॥ xxxपराहतमक्लिप्तं चाप्यधोगतं ।
लोलितं प्रकृतं चेति चतुर्दशषिधं शिरः ।। 5b भू तंड व इं नृत्यानि सप्त
आक्षेपः पातनं चेव भ्र कटिश्चतुरं भ्र वोः ।
कुंचितं रेचितं कर्म सहजं चेति सप्तधा ॥ इत्यभिधानात् । 6a ण व गी व उ। तदुक्तं-समानता आनता अस्ता रचिता कुंचिता कंचिता चिता ललिता च निवृता च ग्रीवा नवविधा स्मृता. 66 छ ती स वि दि ट्ठी उ-तथाहि कांता भयानिका हास्या करुणा अद्भुता रौद्रा वीरा बीभत्सा चेत्यष्टौ रसदृष्टयः; स्निग्धा हृष्टा दीना कुद्धा तृप्ता भयान्विता जुगुप्सिता चेत्यष्टौ स्थायिभावदृष्टयः; स्तान्पांमलिना (?) श्रांता सलज्जा ग्लाना शंकिता विषण्णा मुकुला अभितता जिह्मललिता वितकिता कुंचिता विभ्रान्ता विप्लुता ककिकरा (2) विकोसा त्रस्ता मेदिरा चेति षट्त्रिंशद् दृष्टयः 7a अंति मे त्या दि
शगार (?) बीभत्सा हास्यरौद्रभयानकाः ।
करुणाद्भुतशांताश्च........रसा स्मृताः ॥ तत्राष्टौ रसा अंतिमरसजिताः. जणि य भाव
रतिर्हासश्च शोकश्च क्रोधोत्साही भयं तथा । जुगुप्सा विस्मयश्चाष्टौ स्थायिभावाः प्रकीर्तिताः ॥ स्तंभस्तनूरुहोइँदा (?) हुदः स्वेदवेपथू ।
वैवर्ण्यमश्रु प्रलय इत्यष्टौ सात्त्विकाः स्मृताः ॥ तनूरुहोइँदो रोमांचः । वेपथुः कंपः, वैवयं म्लानता निर्वेदः, ग्लानता निर्वेदग्लानिः, शंकाभ्रमधृतिजडताहर्षदैन्योग्राचितावासेामर्षगर्वाः स्मृतिमरणमदाः सप्त निद्राविबोधा बीडापस्मारमोह शमनिरलसताऽवेगतकांविहछव्याध्युन्मानादौ विषादौत्सुक्यचपलयुतात्रिंशादतेत्रयश्च (?)। अपस्मारः उंमारी (?)। तर्कः विमर्शः । उवहित्थ आकारगोपनं युताः संबद्धा इति । Ba अवे त्या दि अपराप्यपूर्वभावेभ्यो विलक्षणाः. भा वा णु भा व भावानुभावेभ्योऽनु पश्चाद्भवतीत्यनुभावाः तच्चतुर्विधा (?) मानो (?) वाग्बुद्धिशरीराश्व य दर्शिताः. 9a फु र ण इं स्फुरणानि शरीरगतानि. 10p छ हुण य प ओ एं नृत्योपसंहारहेतुस्तालविशेषश्छडणकप्रयोगस्तेन. The Ms. of T. is illegible at numerous places, but as the contents seemed to me to be important I have reproduced them.
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V.8]
NOTES
V
[One day Jasavar, the wife of Risaha, saw in a dream the mount Meru, the sun, the ocean and the entry of the globe into her mouth. She told this dream to Risaha who told her that she would get a son who would be a sovereign ruler. In course of time, Jasavai bore a son who was named Bharaha (Sk. Bharata). As the boy grew the father himself taught him various arts as also the science of government, duties of different castes and classes, and the principles of inter-state relations. Jasavai bore ninty-nine more sons, Vasahasepa etc., and one daughter eamed Bambht, Supanda also bore one son named Bahubali and one daughter named Sundari. Bharaha himself taught both the daughters the various literary and fine arts. Now once it so happened that there occurred a severe famine which worked a havoc on the people. They came to Risaha and asked for relief. He then taught the people various arts and professions. When he attained the age of twenty lacs of parva years, he was put on the throne by king Nabhi.]
2. 86 छक्खंड व इणि, the six continents of the भारतवर्ष. The भारतवर्ष, according to Jain cosmology is bounded on the North by Himavanta Mountain; right through its centre passes the Veyaddha ( Sk. Vaitadhya) mountain from east to west; the rivers Ganga and Sindhu pass through it form North to South; it is In this way that it is divided into six Khandas or continents. A Cakravartin rules over all these six continents of the भारतवर्ष 106 अहमिन्दु or अहमिन्द्र is a god of a very high class residing in the प्रवेयक or अनुत्तर विमान
heaven.
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2 तिहुयणवइज करेहारहियं, The loss of folds on the belly of Jasavat, as a result of her pregnancy, is here considered by the poet as the wiping off of the marks of victory over the lords of three worlds. It means that the son that is to be born to Jasavat will wipe off all marks of supremacy so far held by kings whom he will subdue.
and wood-work.
5. 7a खुल्लउ कीदुल्लउ, a small insect (क्षुद्रः कीटकः ).
13. fefewer, painting, plaster-work (), sculpture,
7. 2 fiftafu....fa qg, explains (to Bharaha) the subject of governance of his consort, viz., the earth (fifeforfr) with mountains standing for her breasts.
12 पढमुचाउ, प्रथमः उपायः, ie, resolution, resolve.
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428
MAHĀPURANA
[ V.9
9. 7a Fiat, See for the formation of Potential participles Hemacandra IV. 438. 9a su farafa a, the goats to be offered in sacrifices are and should be ga corn three years old. 13a fuafߊ, worship of the ir of the Jinas. This is clearly an anachronism unless we accept that Risaha means by it not himself but the Jinas of the past. To a Jain his religion has no beginning and there were Jinas in the past.
11. 86 fucquo fa 154, the four was or addictions, viz., woman, gambling, wine and hunting.
- 12. 1 एक्कंतरिउ मित्तु णिरंतरु सत्तु. In the मण्डल or द्वादशराजचक्र, the immediate neighbour is an enemy while the next one is a friend ( fatafta f#74, farar: TT:). The immediate neighbour is often in conflict with him because of the common boundary, while the next one is to be on good terms with him in order that both of them have the middle one as their common enemy. 86 अट्ठारहतित्थह, the eighteen तीर्थs are:
सेनापतिर्गणेकमन्त्रिपुरोहिताश्च वर्णा बलौघबलवत्तरदण्डनीथाः । श्रेष्ठीमहमहत्तर' इतश्च महाद्यमात्योऽ'मात्यो वदन्ति दश चाष्ट च तीर्थमार्याः ॥
- Marginal gloss in K. The वर्णs in the above list are ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य and शूद्र; the बलौष is the fourfold division of the army. viz., Erat, apa, ty and qrETA.
18. 6a En i. e., 3793 which is counted as a distinct language. Note the items which were taught to ladies in those days, or even in the days of the poet.
19. 1-2 77...afcunt 845 4 THT, O Lord, pair of whose lotuslike feet is washed by water dropped down from the gems in the coronet of Indra. 6a g ay pou # FET, who, other than yourself, will be our supporting pillar ?
20.5-11 Tesa etc.--This passage gives a long list of the names of the countries or different parts of the भारतवर्ष.
21. 3-5 aeg etc.-This passage gives the list of several types of towns, villages, cities etc., such as es, 753, 468, TEUT, Turue and targut.
___22. 4 घरि उच्छुरसु,-the race was named इक्ष्वाकु because its founder brought to his house the juice of suger-cane for drinking.
VI
[ One day, while prince Risaha was enjoying his royal fortune and was engrossed in it, Indra thought of reminding him of the mission that he was expected to fulfil on the earth, viz., the propagation of the Jain faith,
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VI. 5] NOTES
429 and sent a celestial nymph named Nīlamjasā to perform a dance before him. She arrived, performed the dance and at the end of it fell down dead. Risaha, on seeing her dead, was filled with horror at the momentariness of the worldly life. ]
2.3 fogzifa for, the porters and peons were regulating the conduct of the people in the court-room. The Kadavaka mentions a large number of things which should not be done in the king's presence.
3. 5a भजंतह महि तेसटि गय, King Risaha enjoyed his kingship for sixty three lacs of the pūrva years, and still likes these worldly pleasures and is not disgusted with them.
4. 11-12 पुण्णाउस णीलंजस-If नोलंजसा who completed her period of life, dances before him and after that falls dead, the event will cause disgust for wordly life in his mind.
5. 4b णाहेयणिहेलणि, to the house of Nabheya, i. e., Risaha, the son of Nabhi. 6b वीसंगु वि पुव्वरंगु-The technical terms of dancing and music used in this Kadavaka and the two following are explained in T. as follows :वी स मि त्या दि-नाटकस्यह प्रथमप्रस्तावनावतारः पूर्वरंगस्तस्य च प्रत्याहारोऽवतरणा आद्यारंभ आश्रवणा गीतविधिरुपस्थापना परिवर्तनं रंगद्वारं चारी महाचारी इत्यादीनि विंशतिरंगानि.7a ति पु क्ख रु चर्मावनद्धं वाद्यं पुष्करं तत्त्रिविधं उत्तममध्यमजघन्यभेदेन. 7b सो ल ह अक्ख र उ क ख ग घ टठ ड ढ त थ द ध स र ल ह इति षोडशाक्षरं. 8a च उ म ग्गु आलिप्त-अदित-गोमुख-वितस्ति-भेदात् चतुर्मार्ग; दु ले व णु वामलेपनं ऊर्ध्वलेपनं; छ क्क र णु रूपं कृतं परिति भेदो रूपशेषी उद्यश्चेति षट् वाद्यकरणानि;, 86 ति य ति ल्ल उ समो श्रोतोगतिः गोपुच्छः चेति त्रियतियुक्तं; ति ल य उ द्रुतमध्यविलंबितास्त्रयो लया:. 9a ति ग य उ तद्वाम नुतं उघ (?) श्चेति त्रीणि गतानि; ति य चा रु समप्रचार विषमप्रचारश्चेति; ति जो य य रु गुरुसंयोगो लघुसंयोगो गुरुलघुसंयोगश्चेति त्रिसंयोगकर. 9bति क रि ल्ल उ गृहीतोऽर्धगृहीतो गृहीतमुक्तश्चेति त्रयः. 10a ति म ज्ज ण उ मायूरी अर्द्धमायूरी कर्मारवी चेति मार्जनकम्; 106 वी सा लंका र स ल क्ख ण उं अलंक्रियते वाद्यं यैस्तेऽलंकाराः प्रहारास्तैः सलक्षणं मनोज्ञं चेति विंशत्यलंकारा :-चित्रः समः विभक्तः छिन्नः छिन्नविद्धः अनुविद्धः विद्धः वाद्यसंश्रयः अनुसतः प्रतिच्युतः दुर्गः अवकीर्णः बद्धावकीर्णः परिक्षिप्तः एकरूपः नियमान्वितः साचीकृतः समेखलः सामवायिकः दृढ़ः चेति. 1la अट्ठा र ह जा इ हिं तथाहि-सुद्धा दुक्करणा विषमनिष्कभितकरूपा च पाश्विसमापर्यस्ता समविषमकृता विकीर्णा च पर्यवसाने चितिक्सिंयुक्ता संप्लुता तथारंभा विगतक्रम चललिगा वंचितिका चैकवाद्या चेत्यष्टादशजातिभिर्मण्डितम्; 12a च च्च उडु चाचपुटस्त्र्यस्रस्त्रिकलतालप्रवृत्तिहेतुः; चा च उ डु चचपुटश्चतुरस्रश्चतुःकलतालप्रवृत्तहेतुः, 12b छ प्पि य पु ते वि षे (?) धिजापुत्रः (?) कोपि मिश्र उभयतालप्रवृत्तिहेतुः; म ण हा रि चचपुटीदिस्त्रिप्रकारापि (?) मनोहरः; 13a इ य इत्यादि एतैश्चचपुटादिभिर्वाद्यतालविषयस्त्रिीभिरलंकृता. 14a ओ ण द्ध उ व ज्ज उ व णि य उ इत्थंभूतं यदवनद्धं वाद्यं तत्त्रिप्रकारं वणितं वाम ऊर्ध्व आलिंगकसंज्ञितं चेति. द्विश्रुतिकाः स्वरो जातो निषादो गंधारश्च त्रिभुवसमश्रुतिसंख्यया त्रिश्रुतिकरुषतो धैवतश्च जलि ( ? ) षिमसमसंख्यया चतुःश्रुतिका पहुपंचममध्यमाः. 16 च व ल हिं स्थितमुक्ताभिः; अद्ध हिं अर्धमुक्ताभिः कंपमानस्वरूपाभिः; मुक्कि य हिं वंशसुषिरसंधन्व
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430
MAHAPURĀŅA
[VI.6
रहिताभिः (?); व ता व तं गुलि यहिं उक्तविशेषणविशिष्टाभिव्यक्तव्यक्तांगलिभिः व्यक्तांगुलि स्थितस्थितांगुलि अव्यक्तांगुलि
6. laप वि र इ हं इत्यादि-वांशस्वरो जातः; कथंभूते 1b व जि य मुसि रे वादित. सुषिरे; सु अ त्थ सुइ शाश्वताः श्रुतयश्च; 3a थि ये त्यादिना चतुःश्रुति काविस्वराणामुत्पत्तिप्रक्रियां प्रदर्शयति, स्थितमुक्तांगुलिः स्वरे इव; सु अट्ठ सुइ चतुःश्रुतिकः. 4a कंपमानयांगुल्या उद्गतस्त्रिथ तिकः; 4b मुक्तांगुल्या जातो द्विश्र तिकः, 5a व तं गु ली त्यादिनोत्पत्तिक्रमेण प्रत्येक चतुःश्रुतिकादीनां नामानि कथयति, व्यक्तांगुले: सुषिरोपरिस्थितांगुलेः; 66 सा म ण्ण सरंत रस पिण य ए सामान्यस्वरत्वसंज्ञया युक्तः. 7b अद्ध ए मु क्क ए अंगुलि य ए अर्द्धया मुक्तया अंगल्या: सामान्यसंज्ञितः स्वरो निषादः अंतरसंज्ञितो गांधारः. 9a तं ती र णि उ वीणावाद्यं तच्च द्विविधं. 90 णि क्क लु ते प्प वि निष्कलं त्रिपंच. 10a घणु इत्यादि-घनं वाद्यं कांस्यतालयुगलादिकं. 10b स मे त्या दिसमं योगपधेन हस्तं दत्त्वा यत्र रंगे वादितं. 12a उप्प ण्ण इत्यादि:-उत्पद्यमानो हि नादः प्रथमतः उ र ठाणं त र ए उरोलक्षणस्थानकविशेषे उत्पद्यते ततः कंठे ततः शिरसि. 126 बा वी स वि सु इ उ द्विश्रृ तिकयोः द्वयोः चतस्रः
श्रतिकयोः षट चतःश्रतिकानां त्रयाणां द्वाविंशतिश्रुतयः; 13a कम र इ य मा ण हि क्रमोच्चरितसप्तेश्वरर ( ? ) प्रमाणनंद (?); 136 व ड्ढं तु मंद्रमध्यमतारभेदेन यथाक्रमं उरसि कंठे शिरसि च वर्धमानो नादः स्वरः श्रुतिमंद्रादिरूपतया; 145 स र स त सरिगमादिनामानः सरसतः स्वराः सप्त ते सु तेषु सप्तस्वरेषु; दो णि जि गाम द्वावेव च ग्रामी, षड्जग्रामो मध्यमग्रामश्च ; ग्रामः समुदायः कस्मिन्ग्रामे कियत्यो जातयः संभवंतीत्याह 15 सु रे त्यादि सुरैः पूज्यः स ज्ज ए षड्जग्राम; जा इ उ जातयः स त पउ त उ सप्त प्रयुक्ताः शुद्धाश्चतस्रः; जायंते पुष्टि लभंते स्वरा आभ्य इति जातयः. 16 मज्झिम ए मध्यमे ग्रामे, तिस्रः शुद्धा अष्टौ संकीर्णाः.
7. 2a जा इणि बद्ध हैं तासु जातिषु निबद्धानां. 26 ल क्स वि सु द्ध हं गीतप्रयोगविशुद्धानां. 3a अंस हं अंसानां; स उ चा ली सा हि य उ शतं चत्वारिंशदधिकं. 3b एक्कु त रू तं पि चत्वारिशदधिकशतं एक्कोत्तरं; प सा हि य उ प्रसाधिताः, तथा हि अष्टादशजातिषु यथाक्रमसंभवमेको द्वौ त्रयश्चत्वारि पंच षट् सप्त चासंभत्तो (?) मिलिता एक्कोत्तरचत्वारिंशदधिकशतसंख्या भवंति. 46 गो य उ गीतयः शुद्धत्यादिनामानः; पंच उ उ प्प णि य उ पंचोत्पन्नाः, किंस्वरूपास्ता इत्याह. 5a b ऊयु (?) भिलतः शुद्धाः सूक्ष्मय॑क्तैश्च भिन्नकाः। स्वरैर्हृततरैगौंडी हृतैरेवेति वेसराः। सर्वासां उक्तियोगात् गीतिः साधारणा स्मृता. 6a त हि इत्यादि तहिं मट्ठादिगीतिषु तत्संबंधत्वेनापरे परिग्रामरागाः त्रिंशद्भणिताः, तत्र शुद्धगीतिसंबंधत्वे सय (?) गणनया सप्तग्रामरागाः भणिताः, भिन्नगीतिसंबंधत्वेन व्रतगण नया पंच वेसररागाः सप्तैवमेते. 7a क मे ण जि कथितशुद्धादिगीतिसंबंधक्रमेणव संगृहीताः समुदितास्त्रिशत्. 7b उडु मा ण ऋतुप्रमाणाः षडेव; 8a प हि ला र उ तेषु मध्ये प्रथमः ढक्करागः. 8 अ णु वे क्खा स म भा स हिं सा हि उ द्वादशभाषासमन्वितः; उक्तं च-कोलाहला मालववेसरा च सौराष्ट्रका च त्रवणोद्भवा च। स्यान्मालवा संधविका च ताना ततः परं पंचमलक्षिता च । भाषा मध्यमदेहा च ललिता वेगरंजिका । त्रवणा ढक्करागस्य द्वादशैताः, 9a अछे त्या दि-आभीरी मागधी सैंधवी कौशिकी सौराष्ट्री गोर्जरी दाक्षिणात्या श्रवणा चेत्यादि अष्टभिर्भाषाभिस्सहितः: 96 बि हि मित्यादि द्वाभ्यामेव विभाषाभ्यां अंधालीभावनिकाभ्यां संविभूषितः. 10a आ वा हि ये त्या दि-आवाहिता आकारिता, मोहिता विह्वलोकृता जगद्विलयास्त्रियः. 10b हिंदोलकश्चतसृणां मालववेसरिका गौडी छेवट्टिका कंबोजी चेत्यमीषां निलयः स्थानं. 1la मा ल वे त्यादि मालवाभ्यां विभाषाभ्याम्. 12a भि ण्णे त्यादि-भिन्नषड्जोऽपि शुद्धा प्रवण (?) भांगलो सैंधवी ललिता श्रीकंठो दाक्षिणात्येति सप्तभिः भाषाभिः कलितः युक्तः. 12b क
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VI. 8 ]
कुह इत्यादि ककुभोऽपि, आभीरी रगती भिन्नपंचमी चेति त्रिभिर्भाषाभिः; सं च लिउ संचलितो युक्तः. 13 सुइ ली ण उं श्रुत्यनुप्रविष्टः 14 म णे त्या दि मनोहरारामकृति मल्लकृतिः डोवकृतिः गोंडकृतिरित्येवमादयः दावि य उ दर्शिताः.
NOTES
8. 1-2 द हे त्यादि — दश चतुभिर्गुणिताश्चत्वारिंशत्संख्या समुदितानां भाषाणां भणिता तथा षडपि विभाषाः; 36 ए यार हे त्यादि - एकादशा एकविंशति षड्जादिग्रामत्रये प्रत्येकं, सप्त सप्त मूर्च्छना इत्येकविंशति, मूच्छंति उच्छ्रयमुन्नति लभन्तेश्चरा (?) आभ्य इति मूर्च्छना, उत्तरमंद्रा उत्तरायता रजनी अश्वक्रांता सौवीरी कालोपनता सुमध्यमाः पौरवीत्यादयः 4 ए क्कु णे त्या दि-स्वरस्य तननात्प्रयोगविस्तारात्तानाः अग्निष्टोमराजसूय-अश्वमेध-वाजपेयादियज्ञनामानस्वहा (?) नेयपुण्योत्पन्ने, ते च प्रतिग्राममेकोनपंचाशद्भेदाः प्रतिपत्तव्याः, तथा हि सप्ततंत्रीवीणायां प्रत्येकमेकैकतंत्र्या सप्त सप्त स्वराणां तननात्सप्तसप्तगुणिना एकोनपंचाशद्ग्रामे तथा मध्यमग्रामादावपि उक्तं च-साप्त ? ) श्चर्यं च सप्तानामेकैका भजते यतः । अत एकोनपं नाशत्के (?) त्पाठे सहोदिताः ॥ 5a संजोय ता णु तथा हि षड्जग्रामे सप्तस (?) नानां षाडवोडंबिता, काकलि अंतरं काकल्यंतरं; स्वरसंयोगे सति पंचत्रिसप्त योगताना भवंति, एवं मध्यमग्रामेऽपि; 7a ते र हे त्या दि त्रयोदशाविधं शीर्ष प्रनर्तितं प्राकृतशीर्षं च (?) ज्यंते. 7b तथा षट्त्रिंशदृष्टिभिर्युक्तमेतच्च प्रागेव व्याख्यातं. 8aण व ता र उ नव ताराकर्माणि । तदुक्तं - भ्रमणं चलनं पातो वलनं संप्रवेशनं । विवर्तनं समुद्गतं निष्कामः प्राकृतं तथा ॥ 86 अट्ठ वीत्यादि अष्टौ परिचिता दर्शन गतयः; उक्तं च- सम्म सप्पनुवृत्तं च आलोकित प्रलोकितोल्लोकितेरवलोकित (?) सा तिर्यक्. (?) 96 णं देत्यादि - नवनंदास्तत्प्रकारं पुइ (?) पक्ष्मपटकर्म दर्शितं उन्मेषश्च निमेषश्च प्रसृतं कुंचितं सततं सस्फुरितं पिहितं सविताडितं. 100 भू सत्त भेय भ्रू सप्तभेदा; 106 छव्विहेत्यादि - तत्र नासा षड्विधा, उक्तं च-नता मंदा विकृष्टा च सोच्छ्वासा सविपूर्णिता । स्वाभाविकी चेति बुधैः षड्विधा नासिकाः स्मृताः ॥ तथा कपोलं षड्विधं क्षामं फुल्लं च पूर्णं च कंपितं कुंचितं सममित्यभिधानात्; तथा अधरः षड्विधः; तदुक्तं विवर्तनं कंपनं च विसर्गो विनिगूहनं । संदष्टकं समुद्राश्च षट्कर्माण्यधरस्य च ॥ 11 सत्त विहुचि व उ सप्तचिबुकं; च उ मुह हु राय कुट्टनं ख (?) रागाः स्वाभाविकप्रसन्नश्च रक्तः समर्थानुरोधतः प्रयोजनवशात्. 116 नव गला नव ग्रीवानृत्यानि उक्तलक्षणानि च उस ट्ठि वि क र ण भाव चतुःषष्टिरपि हस्तभेदाः पताकः कर्तरिमुखः अर्द्धचंद्रः भारालः शुकतुंडः खटकामुखः पद्मकोशः चतु (?) रंघ भ्रमर इत्यादयः. 120 सोलह विहु सर्वहस्तानां षोडशविधं कर्म । तथाहि आकंपनं कर्षणं च उत्कर्षणमथापि च । परिग्रहो निग्रहरच आह्वानं नोदनं तथा । संश्लेषश्चदि (?) योगश्च रक्षणं मोक्षणं तथा । छेदनं भेदनं चैव स्फोटनं मोटनं तथा । ताडनं चेति विज्ञेयं ता (?) ज्ञेः कर्मकराश्रितं; तथाहि सर्वोऽपि हस्तप्रचारस्त्रिप्रकारो भवति, तदुक्तं - उत्तानः पार्श्वराश्वैव तथाधोमुख एव च । हस्तप्रचारस्त्रिविधो नाद्यवृत्तसमाश्रयः ।। च उवि हवि सर्वमपि हस्तकर्म चतुर्विधं भवति, उक्तं च-अपचेष्टितमेकं स्यात् उद्वेष्टितमथापरम् । व्यावर्तितं तृतीयं च चतुर्थं परिवर्तितम् ॥ 126 भु उ दह विहु वि भुजवृत्तमार्गे दशविधोऽपि कृतः, उक्तं च- तिर्यग् ऊर्ध्वगतिश्चैव तथाधोमुख एव च । आविद्धश्च प्रविद्धश्च मंडल: स्वस्तिकं तथा ॥ अजितः क्षुधितश्चैव पृष्ठतश्चेति ते दश. 13a ऊरुस र विहु उरोनृत्यं शरविधं पंचप्रकारं, उक्तं च-नतं समुन्नतं चैव प्रसारित विवर्तिते । तथापसृतमेवं तु पार्श्वकर्मापि पंचधा ॥ 136 पोट्टु वि पाय डि य उ तंति विहु-क्षामं खल्लं च पूर्णं च संप्रोक्तमुदरं त्रिधा । इत्यभिधानात् 14 क डि य लेत्यादि कटीतलजंघाक्रमकमलानि त्रीण्यपि । तत्र कटी तावत्पंचप्रकारा, तथा हि-छिन्नावनिवृत्ता च रेचिता कंपिता तथा । उद्वाहिता चेति कटी नाद्ये वृत्येव पंचधा ॥ तथा जंघा पंचघा । उक्तं च- आवर्तिता अंतः क्षिप्तमुद्राहितमथापि च । परिवृत्तिस्तथा चैव जंघाकर्मापि पंचधा ॥ तथा कम कम लाई पंचधा । उक्तं च- उद्वहितः समचैव तथाग्रतलसंचरः । अंचितः कुंचितश्चैव पादः पंचविधः स्मृतः ।। 156 च ले त्यादि - चला द्वात्रिंशदंगहारा मिता परिच्छिन्ना यत्र करणान्यंगहाराश्च प्रागेव कथितानि. 16a च उरे य य चत्वारो रेचकाः, तदुक्तं पादरेचक एकः स्याद्वितीयः कटिरेचकः । तृतीयः
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[ VII. 1
#(?) FTETET Arathi #: 11 166 al 1987 a U- t a (?) ifrat सिंहवाहिनी ऐरावती मान्मथी पमा पिंडीत्यादि सप्तदश पिंडीनां बंधाः कृताः. 17a चा रि उ सो ल ह दुय सं खि य उ चार्यः षोडश द्विकसंख्या द्वात्रिंशत्संख्याः. 18a. वी स वि मंड ल ई प या सि य इं अतिक्रांतं विचित्रं ललितं संचरं आलातकं आक्रांतं आकाशगामि इत्यादि संचारिभिविः स्थायिभिश्च प्रागुक्तलक्षणैरुद्धृतरनेकैर्नृत्यति.
VII. [ The death of Nrlamjasa brought about a change in Risa ha's outlook of the world. He thought that everything in the universe was impermanent, momentary, helpless, solitary; the soul has to pass through a series of births and deaths, and experience sufferings, commits sins and thus prolongs his wanderings in samsāra. If the soul therefore wants to secure his good, he should first stop doing sinful activities so that his stock of already acquired acts does not increase, and he should practise penance in order to exhaust the stock of old acts. Thus thinking, Risaha decided to renounce the worldly life Gods at this juncture arrived there to encourage him in his resolve and requested him to propagate the Jain doctrine. Risaha then put his son Bharata on the throne of Ayodhyā, gave Poyanapura to Bahu bali, and sat in a palanquin to leave the worldly life. This event was celebrated by gods with their presence on the earth. Risa ha was followed by his aged parents and by his wives and his ninety-nine sons. He then went to the forest, sat on a slab of stone, and pulled out five handfa ls of hair. The hair was received by Indra in a jewelled plate and were disbursed in the milk-ocean. He then took the five great vows and became a naked monk.]
1. 11 gaz sau 3 Tours, a person over whom salt is passed by women, i. e., one who is so much loved by women, is taken down on a grassbed on his death. It refers to the practice of passing salt over the body of a person that is dear to them by women in the house. It also refers to the practice of taking down the dead body from its usual bed and of placing it on straw.
2. 6a पण्णारहखेत्तुब्भव, born in fifteen कर्मभूमिs, i. e., five in भारतवर्ष, five in ऐरावतवर्ष, and five in विदेह. It is in one of the कर्मभूमिs that a man is able to attain any state after death as a result of his acts. 12 faecu afer, activities of mind, body and speech ( fratoj afr ).
7. 11-12 qų iffa etc.--If a person, i. e., a Brahmin, can obtain emancipation by eating the flesh of animals and by drinking wine, what is the use of Dharma ? Wait upon a hunter (who does exactly the same things.)
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VII. 19)
NOTES
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10. 8a FTS TUS FTATUTLet this human life go to the burial place, as we say in Marathi gania arat, i. e., I care a straw for the human life.
11. la facture , the world is divided into three sections each having a different shape; the region of demons and creatures in hell has the shape of an earthen plate ( 7519 ) turned downwards : the region of human beings and lower animals has the shape of a gafot; the region of gods has the shape of a मृदन. 9a मोक्खु वि आयवत्तसंणिहयरु, the place of region of emancipated souls has the shape of an umbrella.
12. 4a argfeargaifa, by beams made of ribs.
13. 4a Tuafors 994155-Acts which obscure knowledge are of five types, viz., Afastacoftu, a la cuita, afegiaorta, 4:00 raguita and केवलज्ञानावरणीय. See उत्तराध्ययनसूत्र xxxiii. 4. 5a णवविहदसणु, acts which obscure दर्शन fall under nine heads:-निद्रा, निद्रानिद्रा ( deep sleep ), प्रचला ( drowsiness), 4017 ( heavy drowsiness ), Farafe ( somnambulism ); qataracuta, 377787
fara conta, afecafarasite and amefara cuita. See 372754977, xxxiii. 5-6. For other divisions of # see the same text and Appendix II in Miss Helen Johnson's translation of Trisasti. 13 तिगइ i.e., पाणियुक्ता, लाङ्गली and गोमूत्रिका, straight, curved and zigzag movements.
14. 12-13 fafcuruante etc. If a person stops all sources of sin and conducts himself properly, new acts do not enter the soul, and those acts which long remained with it are destroyed by bodily sufferings as they do not get any nourishment.
15. 26 giffeuatt, I shall be a naked monk. The emphatic and express mention of this term here and also in 26. 156 below and at several other places shows that the work is written form the point of view of the Digambara Jains. 106 foaferuiafaut fe by particular permutations and combinations of morsels of food obtained by begging. It refers to the various fwegfahrs in which food is regulated on the basis of counting the afer or dole obtained or the morsels to be eaten, See below 16. 3a. . 16. 12-13 fe gefouert etc.-Just as a pond is dried up by the rays of the sun, and slso when water a lready therein is drained and the influx of it is stopped by building dams (azaroř), in the same way acts done in various births are exhausted by the control of senses ( which prevents the influx of sinful acts ) and by the practice of penance ( prescribed for a monk ).
19. 16 ayaqarat, reflections of twelve types on the momentoriness, impurity etc. see aratafft, IX. 7.
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MAHĀPURĀŅA
[VII. 21
21. 40 सोणंदेयहु, to the son of सुणन्दा, i. e. बाहुबलि सुणन्दा is the second wife
of रिसह 24.
26.
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76 जसवणंदउ, i. e., जसबई and सुणन्दा, the two wives of रिसह. 16 The passage gives the date of the fire
day of the dark half of Caitra with उत्तराषाढा नक्षत्र.
...VIII
[Risaha thereafter began to practise the life of a Jain monk and observe the rules of conduct prescribed for him. Nami and Vinami, sons of the kings of Kaccha and Mahakaccha and his brothers-in-law, came to him in. the forest, and after having greeted him, said that Risaha did not assign to them even a small portion of the earth when he divided it among his sons. Risaha, of course, as a monk, could not make any reply as he had completely dissociated himself from the affairs of the world. The king of snakes at this juncture felt a tremor and learnt by his safar how Risaha was placed in a difficult situation. He therefore came to him, saw Nami and Vinami standing before him and said to them that Risaha had told him (the king of snakes) before he (Risaha) renounced the worldly life, that when they would come to him and ask for a portion of earrh, the king of snakes should assign to them the southern and northern slopes, belonging to Vidyadharas, of the Vaitadhya mountain. The king of snakes then showed to them the various cities situated on the slopes, saved Risaha from the awkward situation and went home. ]
which is the ninth.
1. 96 मयसिमिर, मदस्य सैन्यानि T. I think that सिमिर comes form शिबिर, camp of the army, but is loosely used to designate army. 125 सुवइणी, con sisting of pure vows (faragt). 19 for ng etc.He stood, standing as if he was the path leading to heaven as also to emancipation (+).
2. 1-4 FT etc.-Those great warriors who took vows of asceticism simultaneously with Rishaha, were sinking () in a few days' time as they were unable to bear unpleasant contacts, were frightened by terrific. tigers, lions, and Sarabhas, and were over come by tortures of thirst and hunger.
6. 7b सालएहि, by his brothers-in-law. 9a पर तेण विमुक्कु घरत्थकम्मु, but he has left all activities of a householder. 12a fg, a handful of cooked rice.
7. From line 6 to 20 note the दामयमक or श्रृंखलायमक. The sets of a large number of arts, constituting a kadavaka, is not rare in this work, although normally forms only its opening couplet. The passage describes the
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VIII, 14]
NOTES
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commotion caused by the coming out from the nether world of the king of snakes. 26 fe qafe, with his thousand ( tentimes hundred) tongues. Preads gegeef which means two thousand tongues as the tongues of snakes are cut into two when they licked nectar lying on the darbha grass on the occasion of its distribution.
11. 86 रसवाद व सदं णिवडिय सुवण्णु, like the alchemist who always attempts to prepare gold out of baser metals, the mount as always showed gold.
12. 156 सुय यत्तणु हलिणिहि करंति, parrots act as messengers of ploughing women to carry their love-messsages to their lovers.
13. 96 The passage gives the list of fifty cities situated on the right. side of बेवड which are assigned to नमि.
14. 5a The passage gives the list of cities situated on the left hand side of a which were assigned to firfir. The cities are enumerated from west to ease ( वारुणासामुहाओ ).
IX
[Risaha then spent six months in meditation, and controlled the activities of his mind completely. He considered that reduction of food was one of the best means of attaining purity. He therefore decided to accept food which would be free from forty-six flaws, and pure from nine points of view. The principle of his life was that food exhausts the body, this reduction of food constitutes penance, this penance controls senses, the control of senses exhausts all acts which event leads to emancipation. He therefore practised these rules of life, and while wandering on the earth came to Gayapura where king Soma prabha, the son of Bahubali, was ruling. His younger brother, Seyamsa, saw in a dream the previous night objects like sun, moon etc. and told this dream to his brother. The fruit of this dream was that some great person was to visit his house, In fact Risaha did arrive the next day to his house to break his fast. Prince Seyamsa thereupon offered him reception and a jar of sugar-cane juice, which Risaha accepted. There was a divine voice to proclaim "what a noble gift 1". Risaha thereafter proceeded with his wanderings and in due course obtained the fourth knowledge called Mapapajjavanapa, knowledge by which minds of others are known. He then proceeded to Nandanavana, and under a bunyan tree acquired the Gupasthānas, and in due course attained kevalajñana by which he was able to see the entire universe. Gods arrived at this juncture to celebrate the event, and built up a
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MAHAPURANA
(IX. 1
samavasara pa on the occasion. All the thirty-two Indras graced it with their presence. They then offered prayers to Risa ha. ]
1. 7 fost T&TFiTheaf, food which is to be offered to Jain monks should be free from flaws such as 79Ff, which the marginal note explains as नीचं कर्म स्वयंपाकादिकम्, but elsewhere it is explained as आधानं आधा साधुनिमित्तं
: sfTETIT TEUT: FH fffiT, TELTTIE EFT 14. 15a qtfuqfa, in the plate, viz., the palm. 17 TTT, these men, i. e., his followers who became monks along with him.
3. 3a ससिप्पहाणुजम्मिणा, by the younger brother of ससिप्पह, i. e., सोमप्रभ, the son of बाहुबलि. 36 भवाणुबद्धषम्मिणा, by one who stored meritorious deeds in the previous births.
4. 156 aforca, afara:, arms.
5. 5a भरहहु तुम्हहं मेइणि दिण्णी, by whom the earth was given to Bharata and to you, i. e., to Somaprabha and Sre yamsa, of course through their father Bahubali.
6. 2 सिरिमइवज्जजंघजम्मंतरावयारो, the incidents in the sixth previous birth of Risa ha when he was born as quaie and his consort was fafche. At that time सेयंस was the charioteer and knew that वज्जजंघ ( or वजनाभ) was destined to be the first atd . For details see Hemacandra, Trişaşti, III. 284-287 and also this work XXIV.
___7. 16a सद्दहाणु णव पंचहुं सत्तहुँ, i.e. faith in nine पदार्थs, five अस्तिकायs and seven teas. 18a daftarafs, marked by a partial observance of the vows, as in the case of a householder who takes the has and not the retas.
9. 2 दाययदेज्जपत्तववहारसारमग्गं, principles in essence of the classification of the donor ( 774, an ), the gift (0,24 ) and the receiver ( 98, 997). 11-12
THUTUT IT etc.-food helps the body to practise penance, penance produces forbearance, forbearance results in the removal of impurities, the removal brings about kevalajñāna, which in its turn secures bliss. Compare for the objects of begging alms :
वेयण वेयावच्चे इरियट्राए य संजमाए। तह पाणवत्तियाए छटुं पुण धम्मचिन्ताए ।
--fquefaryffi, 662 11. 8-9 az fache etc., the day on which Seyamsa served alms to Risaha was the third day of the bright half of a stier, which day, even now, is called 3782474. The passage explains the Jain view why the day is so called.
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X. 2]
NOTES
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12. 7a jqata H3, the mothers of the vows which are the twenty-five भावनाs. Compare तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, VII. 4-8.
15. 106 अप्पमत्ति गुणठाणि व लग्गउ, he stuck to अप्रमत्तगुणस्थान which is the seventh गुणस्थान. This गुणस्थान enables the monk to possess 18000 शीलाङ्गs. The monk is engaged in धर्मध्यान and there is a beginning of शुक्लध्यान. 11b खणि अउन्बु आरूढ उ तावहि, he then rose to अपूर्वकरणणगुस्थान which is the eighth. शुक्लध्यान is. now fully developed here. 136 afurufgfg Set for forts, in the affaqfeate TOTETTA, which is the ninth, he conquered the thirty-six kinds of #H. 14a C RITS पावेप्पिणु, having acquired the सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान which is the tenth, he destroyed the fastesta. 150 TU 0743 gada 9143, he then pacified his passions. THE is the eleventh TOEF. 16 etagets afsqua, he reached the story or
TATE TUTETTA which is the twelfth where the second TFY41a begins. In this गुणस्थान the monk destroys sixteen कर्मप्रकृतिs, viz., five ज्ञानावरणीय, six out of nine दर्शनावरणीय and five अन्तराय. At this stage he attains केवलज्ञान, and becomes a sulfat which is the thirteenth TOTEUTT.
20. 7a a yef for, ateryrat facta et fafcae, T. 146 g Thu fets araf, at that time Kubera built a meeting place for gods etc. who arrived there to celebrate the attainment of Kevalajñāna by Risaha.
[ Indra and other gods glorified Jina on his attaining the Kevalajñana. Jina also possessed twenty-four more atiśayas or excellences as a result of this knowledge. At this juncture a report was brought to Bharata that his father obtained the kevala, that the cakraratna has made its appearance in his armoury and that his queen got a son.-King Bharata was hesitating for a moment whether he should first see his son, or cakra or father, but ultimately decided to see his father, went to him and praised him and thereafter returned home.
On seeing that the Jina has obtained the kevala, pious persons, desirous of attaining emancipation from samsāra went to him. To them the Jina began to describe categories of Jiva and Ajiva. He first explained the six pajjattis, i. e., faculties to develop, then the lower species of animals, then the lower animals with five senses, then the number of dvipas and samudras and finally the dimensions of their bodies. ]
2. 3 3774 CE etc. The Jina had already ten atiśayas from his birth such as farà ara etc., but when he attained $97, he got twenty-four more as a result of his knowledge. They are described here and in the following kadavaka.
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[ X. 4
4. 3a TT i. e., ten gods belonging to the class of 1999fa.
5. 1-8 The Jina is here described in terms of the epithets of god Siva but is shown superior to him, e.g. a fa , god Siva is always associated with his consort, but the Jina is devoid of her. 9-13. Similarly the Jina is shown superior to Brahma, and in 14-17 to Vişnu.
___9. 4a चउरासिलक्खजोणिहिं परिभमन्ति, तथा नित्येतरनिगोदयोः पृथिव्यप्तेजोवायुकायानां च प्रत्येकं सप्त योनिलक्षाणि, वनस्पतिकायिकानां दश, द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां प्रत्येकं द्वे द्वे, सुरनारकतिरश्चां चत्वारि, मनुष्याणां चतुर्दशेति, तदुक्तम्
णिच्चेदरधादु सत्त य तरु दस वियलिदिएसु छच्चेव ।
सुरणरयतिरिय चदुगे चोद्दस मणुए सदसहस्स ॥ T. 6-7 ET....quafer far moifa gey. The passage defines quffer as a faculty which helps the development. These qeffas are six, viz. Bigre, eating food and digesting it; at, body; sfeu, sense-organs; BTTTTTT, breathing; WTET, speech, and Hut, mind.
19. 11 सुहमणिगोयसमुब्भवह, of those that spring form the subtle णिगोय or fanta; this fanta is a physical body with infinite lives or souls.
XI
[ The Jina proceeds further to define the functions of different senseorgans and creatures that posses them. He then mentions the duration of their life. After a general description of the Geography of the Jambadvipa and other dvipas with their rivers and mountains and antaradvipas, the Jina proceeds to describe the human species with their characteristics and capacities. He then goes on to detail the heavenly regions and gods. He explains the fourteen Gupasthanas, the various prakstis of karman, the characteristics of the Siddhas and their happiness. On hearing the discourse the eighty-four lacs of princes renounced the worldly life and became monks who were then called his Ganadharas. Similarly Bambhí and Sundart became the first nuns of the Order. Only Marici remained unenlightened. The first lay disciple was Su yakitti and the lady disciple was Piyamvaya or Priyamvada. The first disciple to obtain emancipation was Ananta vira. ]
6. 6b aufera, multiplied by ay i. e. five, because there are five vows. ___8. 9-10 मइरंगहिं etc. The passage gives the names of the ten कल्पवृक्ष.
9. 20 foreg, rafgaar:, T., incapable of guessing or imagination.
10. 4 979494 TEH3 TWEE ATTA, la human being obtains the sixteenth heaven as a result of his vows of Srāvaka. The sixteen heavens
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XI. 35]
are सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहसार, आनत, प्राणत, वारण and अच्युत According to the Svetambaras the number of heavens is twelve, which number they obtain by dropping from the above list ब्रह्मोत्तर, कापिष्ठ, शुक्र and शतार.
NOTES
11, 10 राम उगइ etc. The passage says that the nine बलदेवs or रामs are destined to obtain heavens while the nine argas are destined to go to hells.
4.39
17. 86 चंगठ कउलु तुज्झु वक्खाणइ, the creatures in hell are made to drink as wine hot liquid juice of metals like copper. When they are so made to drink it, the keepers of hell say to them ironically that they were well taught by the Kapalikas not to observe the vows and as they followed their advice they suffer the miseries in hell.
22. la azafazzufeuds, the shape of the heavenly abodes resembles the कपित्थ fruit cut into two.
25. 12 पडिवार, attendance, service, or cure.
26. 36 अतुलसोक्खु णिहिल अहमद, all अहमिद्रs enjoy happiness for which there is no parallel.
29. 8-15 मग्गणठाणइं चोद्द सभेयइं etc. The passage gives the list of fourteen Gupasthanas. They are : मिथ्यात्व सास्वादनसम्यग्दृष्टि, ( सासण of our text ) सम्यग् - मिथ्यादृष्टि ( मीसु of our text ), अविरतिसम्यग्दृष्टि, देशविरति (विरयाविरउ of our text ), प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण ( असम्वत of our text ) अनिवृत्तिवादर ( वणियत्ति of our text ), सूक्ष्मसंपराय ( सुडुमराउ of our text ), उपशान्तमोह ( उवसंतु of our text ), क्षीणमोह ( परिखीण- कसाय of our text ), सयोगिकेवलि ( सजोइजिणु of our text ), and अयोगिकेवलि ( अजोइ of our text ). For details see Miss Johnson's Tripasti, Appendix III Pages
429-436.
32. 56 अडयालीसउं सउ, i e one hundred and thirty-eight प्रकृतिs of कर्म. In the Gupasthanas form number four to seven, one hundred and thirty-eight कर्मप्रकृतिs are destroyed. They are ज्ञानावरणीय 5, दर्शनावरणीय 9, वेदनीय 2, मोहनीय 21, बायु 3 (i. e. नारक, तिर्यक् and देव ), नाम 93, गोत्र 2, and अन्तराय 5. The total of these comes to 138 as stated above. 11a अट्ठमपुहवद्धि ie, on the सिद्धभूमि or सिद्धशिला.
35. 126 एक्कु मरीइ णेय पडिबुद्धउ, only मरीचि who is the son of भरत and grandson of ऋषभ, was not enlightened as he was overcome by दर्शनावरणीयकर्म and मोहनीयकमं. The Svetambara version says that he, by his boasting and pride, was not fit to obtain सम्यक्त्व. See Hemacandra, Trisasti, VI. 385-390.
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[ XII. 1 XII [ Now Bharata started on a campaign for the conquest of the six continents of the earth or Bhārata varsa. In the season of autumn, when the sky was clear and the roads dry, he saluted the holy beings and after going round the cakra, made some gifts to the needy and the poor. He consulted his ministers, took a huge army and, led by the cakra, proceeded to the eastern direction. After crossing the Ganges he went to the shore of the eastern ocean and wanted to conquer the Māgadha Tīrtha. He first observed a fast and then took his bow and discharged the arrow in the direction of that region. The arrow was dropped down in the house of the king who was very much enraged at its sight. He was however pacified by his minister by saying that it was no use thinking of waging war against a Cakravartin, that Bharata was the Cakravartin of the Bharata varsa and that it would be well for all to pay tribute to him and to accept his sovereignty. The king of Māgadha Tirtha did accordingly. ]
1. Za us, immediately, quickly. 15–16 14H4pen etc. If the autumnal moon that pleases the heart of men by its lustre, had not been spotted or spoiled by the deer-mark, I would have given it this very moon ) as the simile, i. e., I would have compared, the fame of the Jina to it ( the moon ).
5. 30 HET Oj farainet, the river Ganges looked like the upper garment of the mount Himavat. The next three Kadavakas contain a fine description of the river.
12. 12 metafraferar, the Kirāta chiefs carried their children on their shoulders as is the custom with them.
14. 12 ufay aata h, there is no cure for nature. Compare proverbs like स्वभावास औषध नाहीं in Marathi. .
19. 2a fafagforthy, to the master of various Nidhis or treasures. The Nidhis are nine in number and their names are :- ,910GF, 9 , 17, HET94, F , AUT15, Ta and 1 . For the functions of these Nidhis see Hemacandra, Trişasti, IV. 574–782 and also below XVIII. 15. 6-10.26 णियकालवडसंधियसरासु, to one who has fixed an arrow to his bow named कालवट्ट, or #109g. Miss Johnson's note ( see page 223 of her Tran. of Trişaşti) on this word is not justified in view of this evidence which is quite independent of Hemacandra. 76 at 03 fH da, my lord, in that case there will remain neither we nor you. Compare aratat e af art art in Marathi.
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XIII. 101
NOTES
XIII
[King Bharata then proceeded to the South and arrived at the entrance to the region belonging to Varataņu ( of Varadāma Tirtha ). He again performed a fast, and after it discharged an arrow which fell in the house of Varatapu. King Varatapu immediately came to Bharata with a tribute and accepted him as his sovereign. Thereupon Bharata proceeded towards the west, came to the entrance of the river Sindhu. There too he practised a fast, and having penetrated the Lavana samudra, discharged an arrow at the king of Prabhasa Tirtha. The king arrived and accepted Bharata as his sovereign. Bharata thereafter conquered different countries such as Malava etc., and thus established his rule over the entire Aryan region. Thereafter Bharata proceeded to Vijayardha or Vaitadhya mountain to complete his conquest of the remaining three continents or Khandas. ]
1. 4a fufae agent, the camp of the army is making rapid movements. 23 वइजयंतिणियडे, in the neighbourhood of वैजयन्ती, ie, a narrow strip of water or channel of the sea through which access to the sea is possible.
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2. 13 दीयकवाड विडिवि थक्कहूं, the gates of different dvipas or islands in the लवणसमुद्र stood opened before him, i. e., as soon as Bharata recollected the holy chant, it was certain that his enemies would be defeated and the dvipas conquered.
4. 30 सहमंडवि वरतणुहि in the court-room of बरतणू, the king of वरदामतीर्थHemacandra does not mention the name of the king in his Trişaşti.
9. 20 gr, by the king of the Prabhasa Tirtha, situated at the fluence of the river Sindhu and the sea.
la
10. 10 सुरसिंधुसरिहि देहलिय परिवि 1.e, regions standing between the Ganges (सुरसरि ) on the east and the Sindhu on the west. 5a अज्जखंड, the continents where the Aryans live. 140 विजय संमूह, towards the विजयार्थ moun tain. This is another name of mountain Vaitadhya as can be seen from lines 24-25 below where it is said that the mountain fa divides the earth into three Khandas on either side and crosses the continent from east to west.
XIV
[After having conquered the three southern continents King Bharata came to Vaitadhya and encamped there. A god arrived there and requested him to strike the opening of a cave in the mountain so that he would obtain passage through it to the other side, Bharata then ordered his general to do ५६
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MAHA PURANA
| XIV. 1
accordingly. When he struck it the cave burst open causing great excitement among its residents. The guardian deity of the mountain came out with presents to Bharata who stayed there for six months. He then directed his disc to proceed through the cave and the army to follow it, but it was very difficult to pass through it because of darkness. The general of the army then took the Kāgapi gem and wrote out on the walls of the cave the sun and the moon. With their light the army proceeded further and came to the region of snakes or Nágas. Two rivers stood on the way of the army but the Sthapati or the engineer prepared a bridge or dam and the army went further. Avarta and Kiráta, two Mleccha kings, finding that their region was invaded, invoked the aid of the king of the Nagas called Meghamukha ( Clouds in the Mouth ), who began to pour down rain the army continuously for day and night. The priest of Bharata brought to the notice of the king how the army was troubled by heavy rain, when he asked his general to use Carma gem to act as an umbrella for the whole army. The army then attacked Āvarta and Kirāta who then offered tribute to Bharata. Bharata then proceeded towards Himavanta mountain along the course of the river Sindhu, the guardian deity of which offered him a wreath of flowers ]
1. 126 ETETE teu affas, the son of Jasaval, i. e. king Bharata, then gave orders to his general who is one of the fourteen gems of a Cakravartin.
2. Note that the four lines of the Dandaka have a 144.
3. 56 afofurat, bearing the name of that mountain, viz. faruref. 26 u fg3, sparkling with a hundred spokes.
5. 3 ou fafafa etc. The general then took up the #Torfor gem, and with it wrote out the moon and the sun.
6. 86 afaconforort shui huu, with the help of a dam ( **, *) or bridge built by the clever engineer, i. e., Fufact.
a
XV
[Thereafter Bharata proceeded along the Hima vanta mountain. Sitting on a seat of darbha grass he observed a fast and at the end discharged his arrow at the guardian deity of that mountain. The deity at first was inclined to wage war with the warrior who discharged the arrow, but on reading the name of Bharata decided to pay tribute to him. He came to Bharata and offered him presents. Bharata a lso, in return, made some presents to him and sent him away. Proceeding further Bharata came to Vrşabha
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XV 12.]
NOTES
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Mountain. He found that all the four sides of the mountain were filled with names of the king of the past and there was hardly any space there for Bharata to write out his name. He however wruta his name there and thus completed his conquest of the six continents of the Bharata varsa. Gods praised him on the occasion. He proceeded further along the foot of the mountain Himavanta and in due course arrived on the banks of the Ganges. The deity of the Ganges then appeared before Bharata, bathed him with her waters, offered him Presents by way of tribute and was then sent away duly honoured by him in return. He then came to cave Timisă of the Vaitadhya mountain and asked his general to strike open its gates as before and halted there for six months. God Natta mali who used to stay there, came and paid tributes to Bharata. The cave however did not become passable to Bharata, when his ministers told him that his maternal uncles, Nami and Vinami, lived on the slopes of the mountain as lords of the Vidyadharas, and it was on their account that Bharata could not proceed further till they allowed him passage. Bharata then sent messengers to them who told them to pay tribute to Bharata, if not as kings, at least as his relatives. Both of them agreed to do this and paid homage to Bharata. The Kagapi gem then produced light with the help of which the army was able to proceed. Then Bharata came to the mountain Kailāsa where the Jina, his father, was practising penance. On seeing him he offered him prayers. ]
2. 116 augOTT, a posture in which left knee is placed on the ground and the right knee is half bent with its top up. This posture enables the archer to discharge the bow with the greatest possible force. . 4. 96 freuats, well-defined, clearly written, readable. 16a o force fa4g etc. he who lives under or abides by the command ( of Bharata ) (a lone) can live, the other will surely die.
6. 15 THE ñfou, the earth is like a wanton lady who would not mind going with the father and after him with the son.
7. 126 # TH f og 498, who will, like you, put his name, i. e., write his name, on the moon ? It was considered to be the highest glory to write one's name on the moon. 18 #IT TË, you are like yourself, i. e., there is nobody who is like yourself.
12. 5-14 The passage compares the river, of, and the ax or army, both called by a common name a feuit, by a series of expressions bringing out their common characteristics.
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MAHAPURĀŅA
[ XV. 13
13. 26 fantafe gri, FEHTHT or aftar is a dark cave through which Bharata had to pass along with his army.
15. 6धरणेण, by धरण, the king of snakes who gave on behalf of ऋषभ, the towns to नमि and विनमि.
17. 76 TEK Tu agafey Tz, to us there will be the mode of life peculiar to sky-clad monks. The expression cafu indicates the sectarian attitude of the present work along with several other similar expressions like sixteen heavens.
22. 10 feet afgtg etc. the mountain (Afeg, HETER ) certainly observes all formalities towards a king ( far ).
XVI [ Having saluted the Jina, Bharata got down from the Kailasa mountain and then proceeded in the direction of Ayodhyā, and having crossed various countries he came to gates of the city. The disc or Cakra however did not enter the city but stood outside it. His priest then told him that it did not enter the town because Bahubali, his younger brother, was not yet conquered and thus his conquest of the world remained still incomplete, Bahubali was very strong and might even defeat Bharata, but he kept quiet so long. Similarly his other brothers also did not pay tribute to him. On hearing this Bharata got angry and sent messengers to his brothers to accept his sovereignty. They declined to do that but went to Kailasa mountain and become monks. Bahubali on the other hand would not accept the sovereignty of his brother and challenged Bharata to fight with him ).
1. 2 TRUE IF, towards Saketa, i. e. Ayodhya, of which it is another name. See Geographical Dictionary of Nundo Lal Dey. 12a EU 855693, sprinking with water mixed with saffron. 953603 is a Deśí word. Compare her in Marathi. 19 afefe aftarafa, after sixty thousand years which was the period taken by Bharata for his conquest of the world.
4. 10 fa a etc., in as much as they are not yet won, the cakra does not enter the town. The idea is that the disc cannot enter the town unless the conquest is complete.
6. 12a fæ fefe afourgos pieca, how can one describe ( fully ) god of love or Cupid ? Bahubali, the son of Risaha, looked like god of love and the poet says it is not possible to do justice to his beauty by a description.
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XVII. 2]
7. 11-114<$ § etc.—we shall pay homage to King Bharata if he can ward off birth, oldage and death from us, if he can save us from birth in fourfold species or from samsara.
NOTES
76 dny, i. e., qu:, company of the wise. Note the appearance of in the word as sanctioned by Hemacandra, IV. 399
18. 120 काउ कंदलावलिहि म विरसउ, let not the crow cry on the skulls of your head. The crying of a crow over the head is considered as a sign of approaching death. 13a fgg, pay tribute or homage to Pharata.
40 जो बलवंतु पो सो रागड, he becomes a king who is the strongest or most powerful thief. A successful thief becomes a king while an unsuccessful one is called a robber or traitor.
24. 14 धवलाई जि णिरु धवलई, on the sandy banks of the Ganges the wings of swans and cheek of ladies away from their lovers, which are already white, became whiter when bathed in the rays of the moon.
445
XVII
[Bharata then declared that if he does not kill Bahubali because it would be an offence to his father, he would hold him firm as an elephant is held in chains. The armies of both Bharata and Bahubali met and trumpets blown and drums beaten, when Bahubali said to his ministers that he would not move a step from his place but would stop the progress of Bharata's army. When their armies were about to strike, the ministers stood between them and adjured them not to discharge an arrow, and then requested both Bharata and Bahubali not to engage themselves into a war which would lead to the destruction of poor soldiers, but that they should fight with each other in three ways, viz., they should fix their gaze on each other so that none would move his eye-lashes, that they should strike each other with water, and that they should go in for a wrestling match till one holds or weighs the other on his arms. Both of them agreed to fight accordingly. But in all the three forms of fight Bahubali came out victorious. When Bharata was lifted up by Bahubali, he thought of his cakra which immediately went round Bahubali and stood by the right hand side of Bharata. Bahubali thereupon dropped
his brother Bharata on the ground. ]
2 iquiqurgt, of the son of vir, i. e., guiar, i. e., argafa,
2.96 feqfg, with the lord or prominent member of your enemy. 10 कोण हरण etc. There is no gain by killing a low man, and therefore Rahu, the eclipsing planet does not get angry with stars.
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MAHAPURĀŅA
[ XVII. 4
4. 14 सरवरपंतिहि वरणु णिबंधमि, I shall build a dam ( to stop the progress of the army) by a series of arrows, having the shape of snakes (manurzfg). 13 or gaf af, I do not behave well when I am with you, i. e., it is not right for me to indulge in pleasures when my king is marching against his enemy. fagafa, shall pay off, shall redeem, shall clear off.
5.
8.
9.
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10 fg
anffgue, as if drawn in picture on a wall.
3a विष्णि वि जण, both of you. Compare दोघे जण in Marathi. fafour fafag, threefold fight, viz., gazing at each other without winking; splashing water against each other so as to overpower one; and a wrestling match in which one would weigh the other on his arms.
5 afges fafg etc., The lower eye, i. e. the eye of Bharata, was conquered by the upper eye, i. e. the eye of Bahubali, whose glance was steady, fixed and unwinking.
13
13 रणु
66 fangregeadywat, in which the beaks of cakora birds were being filled with eatable stalks of lotus. 12 fauft, would just fall (slightly) above the waist but would not cover his face.
14. 5 पीलिजउ तेरठ उच्छुपाउ etc. Let your bow of sugar-cane be crushed, let (pople) drink its juice, or let (them) eat the sweet raw sugar (2, 1). Bahubali had his bow made of sugar-cane and hence the reference. 10 ता भणइ for etc., Then the son of Jina i. e. Bahubali said: why do you talk in vain ? why do you ridicule my bow and arrow ?
15.
10 अलंभुषजुज्यविहणसवाई, hundred ways of wrestling.
16. 86 at fafae, then the fine-necked (Bharata) thought of his cakra or disc, saying to himself that he could not in reality be a cakravartin if he was to be so overcome by his younger brother.
XVIII
[Having lifted Bharata on his arms and thus defeated him for the third time, Bahubali felt that he insulted his elder brother and cakravartin. He therefore asked Bharata to forgive him for the offence and desired to be a monk. Bharata however did not like to have the kingdom when he remembered that he had been defeated by his younger brother in the presence of the army, relatives and women. He therefore offered his kingdom to Bahubali and desired to renounce the worldly life. Bahubali could not agree. The ministers also intervened and Bahubali placed his son on the throne, and went to Kailasa mount to practise penance. He practised penance there for one year when
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XVIII 10.)
NOTES
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Bharata himself came to see him and praised him. Bahubali however, remained in different to the praise and was engrossed in acquiring the qualities which a Jain monk should acquire. In course of time he attained Kevalajñāna. Gods headed by Indra came to him and praised him. Bharata also was glad to hear the news that his brother had become a Keva lin. Thereafter he enjoyed perfect sovereignty over the six continents of the earth. ]
2. 11 gg foreT3 95 as afas, I was defeated by you, and you have once ( 5, ase) forgiven me.
3. 1-375 g etc. If you, after having lifted me by your arms, had thrown me on the ground with a crash, if it had not been possible for my disc to save me, would any body have seen me alive? You have thus won or conquered even earth in forgiveness; you have frightened Indra ( 48fa, #fra:. i. e., Fre) by your valour. 10–11 afara, etc. To the sun there is a counterpart in the moon; to the Mandara mountain there is (small) Mandara ; to Indra there is Pratindra, but o son of queen Nanda (i. e., Jarer ) to you alone I do not see any second or counterpart.
5. 6675 gafa etc. If even after this (talk) you do not desire to have le earth, i. e., do not desire to rule over the earth, then return it to him who gave it to you, i. e. to Risaha, our father. It means Bahubali is quite unwilling to rule and asks Bharata to rule as before.
6. 75 Hffa etc. Hatred ( aty, ka:), having left you, now stands in the form of a dark spot on the moon who is called state, staratit ( TE + TT, 3142 ).
7. ga qafafa, i. e. five afafas viz., feu, HAT, TATT Bert and goat. Note that the word afufa often retains in this book as also fofs in the next line. 9b आवासयजोउ, practice or observance of the six आवश्यकs, viz., सामाइय, चवीसइत्यव, वन्दण, पडिक्कमण, काउस्सग्ग and पच्चक्खाण.
10. This kadavaka and the next record that Bahubali, as monk, acquired the knowledge of certain tenets of Jainism and practised them. These tenets are arranged in numbers from one to thirty-two. A similar mention of these tenets occurs in the Uttaradhyayana Satra, XXXI, and also in this book in XXXVII 15-17. I think it is a good occasion for me to treat them here fully.
(1) एक्कह जीवह गुण मणि भाविय, he cultivated in his mind the quality of Jiva which is one, i. e., solitariness, as nobody can share the effects of acts done by him. This गुण may be उपयोग as defined in तत्त्वार्थसूत्र II. 8 ( उपयोगो
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MAHĀ PURANA
IXVIII. 10
लक्षणम् ), or better still, the एकत्वभावना. In the Uttaradhyayana Sutra however we find:
एगओ विरई कुज्जा एगओ य पवत्तणं ।
असंजमे नियति च संजमे य पवत्तणं ॥xxxI. 2. i. e., one should practise abstinence in one respect, and advancement in the other; i. e., Jiva should abstain for असंजम, indisciplined life, and advance with self-discipline. .
(2) TT The afour fa usifau, he sent away, ( lit : made to fly ) both TTT and 79. The Uttarã. however mentions TT and a which is more in keeping with the usual list. Our text certainly reads te in all Mss.
a) तिण्णि वि सल्लई हियउद्धरियइं, he removed from his heart the three शल्यs, viz., मायाशल्य, निदानशल्य and मिथ्यादर्शनशल्य.
(b) तिण्णि वि रयणई लह संभवियइं, he soon acquired the three jewels, viz., सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन and सम्यक्चारित्र.
c) तिण्णि वि डंभ मुक्क संखेवें, he left quickly ( संखेवें, संक्षेपेण, शीघ्रम् ) the three types of crookedness, viz, bodily, verbal and mental. The Uttara. has मनोदण्ड, वाग्दण्ड and कायदण्ड in place of डंभ of our Text..
(d) Tita fafour faafsetu ā, the divine one, i. e, Bahubali, avoided three गारवा (गौरव), viz., रिद्धिगारव, रसगारव and सायागारव. The Uttara. adds three उपसर्गs here:
दिवे य जे उवसग्गे वहा तेरिच्छमाणुसे ।
जे भिक्खू सहई जयई न से अच्छइ मण्डले ॥५॥ (4) चउगइकम्मणिबंधणरमियउ सण्णउ चत्तारि वि उपसमियउ, he suppressed or pacified the frur appetites or emotions, viz., आहार, भय, परिग्रह and मैथुन, which take delight as it were in forming कर्म which puts the Jiva in the fourfold संसार, viz., देव, नारक, तिर्यक् and मनुष्य. The Uttara. has :
विगहाकसायसन्नाणं झाणाणं च दुयं तहा ।
. . जे भिक्ख वज्जई निच्चं न से अच्छइ मण्डले ॥६॥ There are four विकथाs, viz., राज्य, देश, भोजन, and स्त्री; there are four कषायs, viz., क्रोध, मान, माया and लोभ; the four संज्ञाs are mentioned above; the four ध्यानs are आर्त, रौद्र, शक्ल and धर्म out of which first two types are bad...
(5) (a) पंच महन्वयाई, the five great vows of the monk, viz., अहिंसा. अदत्तादानवर्जन, असत्यवर्जन, परिग्रहत्याग, and ब्रह्मचर्य.
(b) पंचसवदारइं, the five sources of sin, viz,, हिंसा, अदत्तादान, असत्य, परिग्रह and मैथुन.
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XVIII. 10-11]
NOTES
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(0) पंचिंदियई कयाई णिरत्थई, he avoided the (enjoyment of) objects of five senses, viz., शब्द, स्पर्श, रूप, रस and गन्ध.
(d) पंच विणाणावरणइं ग्रंथई, he (cut off) the knots of five types of ज्ञानावरणीयकर्म viz., श्रुतज्ञानावरणीय, आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मनःपर्ययज्ञानावरणीय and केवलज्ञानावरणीय.
6) (a) छावासय उज्जमु सविसेसिउ, he made a special effort to observe the six आवश्यकs viz., सामाइय, चउवीसइत्थव, वन्दण, पडिक्कमण, काउस्सग्ग and पच्चक्खाण.
(b) छज्जीवहं दयभाउ पयासिउ, he manifested kindness or compassion towards six classes of living beings, viz., पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु, वनस्पति and स.
(0) छह लेसहं परिणामुवइठ्ठई, he got stopped the effect of the six लेश्या, viz., कृष्ण, नील, कपोत, तेजस्, पz and शुक्ल.
(d) ofa coag sem faços, he saw or realised all the six entities, viz., धर्म, अधर्म, आकाश, पुदगल, जीव and काल.
(7) (a ) सत्त भयाइं हयाइं गहीरें, the serene one ( i. e. Bahubali) destroyed the seven fears or risks, viz., इहलोकभय, परलोकभय, आदानभय, अकस्माद्भय, आजीवभय, मरणभय and अश्लोकभय. .
(b) सत्त वि तच्चई णायइं धीरें, the wise one knew all the seven truths, viz., जीव, अजीव, भास्रव, संवर, निर्जर, बन्ध and मोक्ष.
(8) (a ) अट्ठ वि मय णिट्ठविय अदुट्टे, the unsoiled one exhausted or destroyed all the eight prides, viz., जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, तपोमद, ऐश्वर्यमद, श्रुतमद, and लाभमद.
(b) अट्ठ सिद्धणुण भरिय वरिखें, the excellent one remembered the eight qualities of the सिद्ध s, viz.,
सम्मत्तणाणदंसणवीरियसुहम तहेव अवगहणं । अगुरुलहुमव्वाबाहं अट्ठ गुणा होन्ति सिद्धाणं ॥
" -सिद्धभक्ति, २० शद्धात्मादिपदार्थविषये विपरीताभिनिवेशरहितः परिणामः क्षायिकसम्यक्त्वमिति भण्यते। जगत्त्रयकालत्रयवतिपदार्थयुगपद्विशेषपरिच्छित्तिरूपं केवलज्ञानं भण्यते । तत्रैव सामान्यपरिच्छित्तिरूपं केवलदर्शनं भण्यते । केवलज्ञानविषये अनन्तपरिच्छित्तिशक्तिरूपं अनन्तवीर्य भण्यते । अतीन्द्रियज्ञानविषयत्वं सूक्ष्मत्वं भण्यते । एकजीवावगाहप्रदेशे अनन्तजीवावगाहदानसामर्थ्यमवगाहनत्वं भण्यते । एकान्तेन गुरुलघुत्वस्याभावरूपेण अगुरुलघुत्वं भण्यते । वेदनीयकर्मोदयजनितसमस्तबाधारहितत्वादव्याबाधगुणश्चेति ॥
-परमात्मप्रकाशटीका (9) (a ) णवविहु बंभचेरु परिपालिउ, he observed the ninefold celibacy, viz.,
इत्थिविसयाहिलासो अङ्गविमोक्खो य पणिदरससेवा । संसत्तदव्वसेवा तहिन्दियालोयणं चेव ॥१॥ सक्कारपुरक्कारो अदीदसुमरणमणागदहिलासो। इविसयसेवा वि य णवभेदमिदं अबम्भत्तं ॥२॥
-T. in Ms. K.
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MAHAPURĀŅA
[XVIII. 10-11
Devendra's Com.. on Uttara...XXX1. 10 however gives the nine rules of celibacy as follows :
वसहि कह निसिज्जिन्दिय कुड्डिन्तरपुव्वकोलिय पणीए ।
बइमायाहार विभूसणा य नव बम्भगुत्तीओ ॥१॥ (b) णवपयत्थपरिमाणु णिहालिउ, he realised the extent of nine entities, viz., जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, and मोक्ष.
(10) दसविहु जिणधम्मु वियाणियउ, he knew the tenfold qualities of the Jina, viz.,
खन्ती य मज्जवज्जव मुत्ती तव संजमे य बोद्धव्वो।
सच्चं सोयं आकिंचणं च बम्भं च जइधम्मो ॥१॥ (11) एयारह हयजडिमन अवियारह धीरहं सावयहं....पडिमउ, he also understood the eleven sahts, which lay disciples practise. These eleven sfants are :
दंसण वय सामाइय पोसह पडिमा बबम्भ सच्चित्ते ।
बारम्भ पेस उद्दिट्ठवज्जए समणभूए य ।। For dteails see my notes on Uvāsagadasão, pages 224-229.
बारह भिक्खहं पडिमउ, he also knew the twelve प्रतिमाs of the monks. These are described in Devendra's Com. on Uttara. XXXI 11, as follows:
मासाई सत्तन्ता पढमा बिइ तइय सत्तराइदिणा ।
बहराइ एगराई भिक्खुपडिमाण बारसगं ॥१॥ The duration of the fitst framfaat is one month, of the second two months and so of the seventh seven months; of the eighth one week, of the ninth two weeks, of the tenth three weeks, of the eleventh one day and night, and of the twelfth one night. There are several things which the monk practising these sfarars is called upon to obserye. Devendra describes them as follows :
पडिवज्जइ एयामी संघयणधिईजुओ महासत्तो। पडिमाउ भावियप्पा सम्म गुरुणा अणुनाओ ॥१॥ गच्छे च्चिय निम्माओ जा पव्वा दस भवे असंपुण्णा । नवमस्स तइयवत्थु होइ जहन्नो सुयाभिगमो ॥२॥ कोसट्टचत्तदेहो उवसग्गसहो जहेव जिणकप्पी । एसण अभिग्गहीया भत्तं च अलेवडं तस्स ॥३॥ मच्छा विणिक्खमित्ता पडिवज्जइ मासियं महापडिमं । दत्तेग भोयणस्सा पाणस्स वि तत्थ एग भवे ॥४॥ जत्थत्थमेइ सूरो न तो ठाणा पथं पि संचलह । नाएगराइवासी एग व दुगं व अन्नाए ॥५॥ दुस्सहत्यिमाईण मो भएणं पयं पिओसरह। एमाइनियमसेवी विहरइ जाखण्डिओ मासो ॥६॥
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XVIII. 10-11]
NOTES
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पच्छा गच्छमईई एव दुमासी विमासि जा सत्त । नवरं दत्तीवुड्ढी जा सत्तर सत्तमासीए ॥७॥ तत्तो य अट्ठमीया भवई हु पढम सत्तराइंदी। तीइ चउत्यचउत्थेणऽपाणएणं अह विसेसो ॥८॥ दोच्चा वि एरिस च्चिय बहिया गामाइयाण नवरं तु । उक्कुड लंगडसाई दण्डायय उड्ड ठाइत्ता ॥९॥ तच्चाए वी एवं नवरं ठाणं तु तस्स गोदोही। . वीरासणमहवा वी ठाएज्जा अंबखुज्जो ह ॥१०॥ एमेव अहोराई छद्रं भत्तं अपाणयं नवरं। गामनगराण बहिया वग्घारियपाणिए ठाणं ॥११॥ एमेव एगराई अट्ठमभत्तेण ठाण बाहिरओ ।
ईसीपब्भारगए अणिमिसनयणेगदिट्ठा य ॥१२॥ (13) (a) तेरह किरियाठाणई मुणियइं, he understood the thirteen क्रियास्थान, which are enumerated below :
अट्ठाणट्ठा हिंसाऽकम्हा दिछी य मोसऽदिन्ने या ।
अज्झत्थ माण मेत्ती माया लोभेरियावहिया ॥१॥ For details of these see सूयगड II. 2.
(b) तेरहभेय चरित्तई गणियई, he also counted upon the thirteen types of good conduct, viz., पञ्चानवसंवर, पञ्चसमिति and गुप्तित्रय.
(14) (a) चोदह गंथ, he avoided the fourteen knots which are enumerated in T. as follows :
मिच्छत्तवेदरागा तहासादिया (?) य दीसा ।
चत्तारि तह कसाया चोदह मन्भन्तरा गन्था ॥१॥ (b)(चोदह ) मला वि समुज्झिय, he avoided the fourteen impurities enumerated in T. as follows:
नहरोमजन्तुअट्ठी कणकोंडयपूचम्ममंसरुहिराणि ।
बीय फलकन्दमूलानि मला चोइसा होन्ति ॥१॥ (0) चोदह भूयगाम सई बुज्झिय, he understood fourteen groups of creatures. These fourteen groups are enumerated in T. as follows :एकेन्द्रियाः सूक्ष्मबादरपर्याप्तापर्याप्तभेदाच्चत्वारः, द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः पर्याप्तापर्याप्तभेदात् षट्, पञ्चेन्द्रियाः संश्यसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्तभेदाच्चत्वारः इति चतुर्दशविधो भूतग्रामः ।
बादरसुहमे इन्दियदुतिचतुरिन्दियसन्नीया ।
पज्जत्तापज्जत्ता....चतुदस भूदसंगामा ॥१॥ (15) (a)पण्णारह पमाय मेल्लतें abandoning the fifteen प्रमादs or flaws, enumerated in T. as follows:
विकहा तह य कसाया इन्दिय निहा य पणयो य । चर चर पण एरो होन्ति पमाया हु पण्णरसा ॥१॥
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i. e, four types bad talk, viz., राज्यकथा, देशकथा, भोजनकथा and स्त्रीकथा, four कषायs,
e.
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viz., क्रोध, मान, माया and लोभ, faults of five senses, sleep and drink ( पणग, पानक ? ).
(b) पुण्णपावभूमिउ जाणतें, knowing the ( fifteen kind of ) regions where men act ( to acquire merit and demerit ), viz, five in each of भारत, इरावत and विदेह.
( 16 ) (a) सोलह विह कसाय पसमंतें, pacifying the sixteen forms of passion. T. notes these as कषायाः क्रोधमानमायालोमाः प्रत्येकमनन्तानुबन्धिभप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनविकल्पाः सन्तः षोडशविधा भवन्ति.
(b) सोलहविहवयणेसु रमंतें taking delight in sixteen types of expressions. T. records them as follows : - काललिङ्गवचनानि प्रत्येकं त्रीणि नव, तथा वि (?) कोनमिश्रवचनानि श्रोणि समयलोकदृष्टपरोक्षवचनानि चत्वारीति षोडश. The Uttarā has गाहासोलसहि which refers to the sixteen lessons of the first volume of a of which the sixteenth is called गाहज्झयणं.
( 17 ) असं जमोह सत्तार, seventeen types of असंयम, indiscipline; Devendra has enumerated these as follows: असंयमे सप्तदशभेदे पृथिव्यादिविषये तत्संख्यात्वं चास्य तत्प्रतिपक्षस्य संयमस्य सप्तदशभेदत्वात् । यत उक्तम्
पुढवि दग - अगणि- मारुय वणप्फई बि-ति- चउ पणिन्दिअज्जीवे । पेहोपेहममज्जण - परिठवण-मणो-वई-काए ॥
T. has the following explanation : पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाणामप्रतिलेखन (?) दुष्प्रतिलेखनापहत्योपेज्ञानि (?) जीवमनोवाक्कायाः अपहत्य ( ? ) गृहीताण्डादिजन्तून् प्रतिलेख्ये (?) उपेक्षा ( ? )... 1 अथवा -
पचासवेहि विरमणं पश्चिन्दियनिग्गहो कसायजओ । तिहि दण्डेहि य विरदी संजमो सत्तरसभेमो ॥
तत्प्रतिषेधादसंयमः सप्तदशविधः ।
,
( 18 ) जाणिवि संपराय अट्ठारह having known eighteen types of संपराय viz. ten यतिधर्मs such as क्षान्ति etc, five समितिs and throe गुप्तिs.
(19) एउणवीस वि णाहज्झयणदं having known nineteen lessons or chapters of the book on Illustration ( नाय ज्ञात or न्याय ? ). This is clearly a reference to the sixth Anga of the Jain Canon which in the Svetambara tradition forms the first part of the नायाथम्मकहाओ. This book consists of two parts Nayas, Jñatas or illustrations and T or sacred narratives. Our Mss. invariably read हृ 80 that our reading is नाहज्झयणई. This reading is supported by T. also Uttarā. reads नायज्झयणेसु. The change of Sk. त to ह is not unusual compar भरह for भरत. It also appears that ज्ञात or न्याय constituted at one time an independent work of the Canon to which a small section of I might have been added later. The present text of the in the Svetambara
Canon contains nineteen sections called s and are named as :
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XVIII. 10-11]
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उक्खित्तनाए संघाडे अण्डे कुम्भे ये सेलए । तुम्बे य रोहिणी मल्ली मायंदी चन्दिमा इय ॥१॥ दावद्दवे उदगनाए मण्डुक्के तेयली इय । नन्दिफले अवरकङ्का आइन्ने सुंसु पुण्डरिए ॥२॥
-Devendra cn Uttara. XXXI. 14. It appears that in the Digambara tradition there was also a book of the sacred canon called HE or UTTE; it contained nineteen lessons as in the Svetämbara tradition, but the names of the Nahas with the Digambaras had a different order as can be seen from the list given below :
1. उक्कोडणाग constituted the first अज्झयण. The story as given in T. is as follows:-उक्कोडणाग श्वेतहस्ती। अस्य कथा । उत्तरापथे कनकपुरे राजा कनको, महाराज्ञी कनका। पुत्रो नागकुमारः तपो गृहीत्वा विहरमाणः अटव्यां दावानलेन दह्यमानः समाधिना मृत्वा अच्युतेन्द्रो जातः। तदर्धदग्धकलेवरं दृष्ट्वा तुङ्गभद्रो नाम तत्रत्यो भिल्लो जातपश्चात्तापो मृत्वा तत्रैव श्वेतगजो जातः । सोऽच्युतेन्द्रेण जिनधर्मे ग्राहितः पुनर्दावानलेन दह्यमानं शशकं स्वपादतले स्थितं रक्षित्वा ( दह्य) मानोऽपि दृढव्रतो भूत्वा मृत्वा देवो जातः. If we compare this narrative with the one in the first tra called far of the Svetāmbaia version, we shall see that there is no reference there to a Bhilla being taught by 3784s, although there is agreement in that the elephant saved the life of a rabbit that crept under his foot. It thus appears that the Digambara version of the narrative may have been different from the Svetāmbara one.
2. कुम्म-This is second in the Digambara tradition, but fourth in the Svetāmbara one. T. gives the narrative as follows :-कुम्म कूर्माख्यानम् । यथा कर्मेण मुखचरणसंकोचं कृत्वात्मनो ब्राह्मणामरणं निवारितं तथा मुनिभिरपि पञ्चेन्द्रियसंकुचितैमरणपरंपरा निवारयितव्या..
3. अंडय-This is the third ज्ञात in both the versions. T. says :-अण्डजकथा पञ्चप्रकारा। तद्यथा कुक्कुटकथा माताप्येका पिताप्येकः इति । तापसपल्लिकास्थितशुककथां । चारणाख्यव्याकरणवेदकशुककथा । अगन्धनसर्पकथा । हंसयूथबन्धनमोचक कथा. In the Svetāmbara version we get only one story of the eggs of a pea hen and not five as T. seems to indicate.
4. रोहिणी-This is the seventh story in the Svetambara version while it is fourth in the Digambara one. T. reads : सुपुत्रबलदेवेन सह रोहिणी तिष्ठतीति लोकप्रवादं श्रुत्वा रोहिण्या भणितं यद्यसौ शुद्धा तदा यमुनानदी शौरिपुरं वेष्टित्वा पूर्वाभिमुखं वहत्विति । तन्माहात्म्यात्तथैव जातम् । The story in the ज्ञाताधर्मकथा is altogether different.
5. सेस-This seems to correspond to सेलएं which is the fifth narrative in the Svetambara version. T. •reads: शेषे शिष्यकथा यथा चेलिणीपुत्रवारिषेणप्रतिबोषितः पुष्पडालः. The story in the ज्ञाताधर्मकथा is altogether different,
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6. तुंब (and not रुंब as read in foot-notes)-This is the sixth story in both the versions. T. reads : तुम्बकथा रोषेण दत्तकटुककुभोजनमुनिकथा. The story in the ज्ञाताधर्मकथा is different as can be seen from its summary in the com. which runs as follows:
जह मिउलेवालितं गरुयं तुम्बं बहो वयइ एवं । आसवकयकम्मगुरू जीवा वच्चन्ति अहरगयं ॥१॥ तं चेव्व तविमुक्कं जलोवार ठाइ जायलहभावं ।
जह तह कम्मविमुक्का लोयग्गपइट्रिया होन्ति ॥२॥ 7. संघाद-This is called संघाड and is the second in the Svetāmbara version. T. reads :-संघादे । अस्य कथा। कौशाम्ब्यां नगर्यामिन्द्रदत्तादयो द्वात्रिंशदिभ्याः, तेषां समुद्रदत्तादयो द्वात्रिंशत्पुत्राः परस्परमित्रत्वमुपागताः। सम्यग्दृष्टयस्ते केवलिसमीपे स्वल्पं निजजीवितं ज्ञात्वा तपो गृहीत्वा यमुनातीरे पादोपयान (पादपोपगमन ?) मरणेन स्थिताः। अतिवृष्टी जातायां जलप्रवाहेणं यमुनामध्ये सर्वेऽपि ते पातिताः । परमसमाधिना कालं कृत्वा स्वर्ग गताः. The narrative in ज्ञाताधर्मकथा is altogether different from the above.
8. मादंगि-It appears that मायन्दी which is the ninth story in the Svetāmbara version should be the counterpart of Argift of the Digambara version. T. seems to make at firsfees as one narrative which would however reduce the number of narratives to eighteen. T. reads : मादंगिमल्लिकथा यथा वज्रमुष्टिमहाभटभार्याया मंगि (मादंगि?) नामायाः मल्लिपुष्पमालाभ्यन्तरस्थितसर्पदष्टायाः कथा. The narratives of the Svetāmbaras and the Digambaras do not at all agree.
9. मल्लि-This is the eighth narrative in the ज्ञाताधर्मकथा. For remarks see above.
10. चंदिमा-This is the tenth narrative in both the versions. T. says: चंदिमा चन्द्रावधकथा (चन्द्रवृद्धि कथा). Perhaps both the versions give the same narrative.
11. तावद्दव-The eleventh narrative in the Svetambara version is called दावद्दव which is the name of a tree in that version. T. however seems to mean a different story. T. reads : तावद्दव तोपद्रवदेशोत्पन्नघोटकहरणसगरचक्रवर्तिकथा.
12. तिका-It appears that this तिका should correspond with तेयली which is the fourteenth story is the ज्ञाताधर्मकथा. T. reads : तिका मनुष्यकरोडिसमुत्थितवंशत्रिकस्य कर्कण्डमहाराजकृतच्छत्रे ध्वजांकुशदण्डकथा. The Svetāmbara version of तेयली does not seem to agree with the above.
13. तडाया-This teems to correspond to पददर which is the thirteenth story is the Svetāmbara version. T. reads : तराया तडागपाल्यामेकवृक्षकोटरस्थिततपस्विनो गन्धर्वारघनकथितकथा.. This has no correspondence with दददर of the Svetāmbara version.
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14. किन्न (बाकीर्ण?)-This seems to be बाइण्ण of the Svetambara version which is the seventeenth story there. T. reads : वाहिमर्दनस्थितकर्षकपुरुषसत्यकथा. This story also does not seem to have any correspondence with the Svetämbara version.
15. सुसुकेय-This should correspond with संसूमा of the Svetambara version which is the eighteenth story there. T. reads : बाराधनाकथितसुंसुमारदहनिक्षिप्तपाणकथा. There seems to be agreement between the two versions.
16. अवरकंके-This is called अवरकंका in the Svetambara version where also it is the sixteenth narrative. T. reads: बवरकंकनामपत्तनोत्पन्नजनचोरकथा. There is mention of the town of aract in the Svetāmbara version, but beyond this there seems to be no nothing common between the stories in the two versions.
17. नंदिफलं-This is called the same in the Svetāmbara version but there it is the fifteenth story. T. reads : अटव्यां स्थितबुभुक्षापीडितधन्वन्तरिविश्वानुलोमभृत्यानां किपाकफलकथा. The narrative seems to be similar in both the versions.
18. उदगनाह-This seems to correspond to उदगनाथ of the Svetāmbara version which is the twelfth story there. T. reads: उदगनाह उदकनाथ (?) कथा यथा राजामात्यसमक्षगडुककथा. The story seems to be similar in both the versions.
19. पंडरिगो य-This is the last story in both the versions. T. reads : पुंडरिगो य पुण्डरीकराजपुश्याः कथा. The Svetambara version seems to be different from the above as will be seen from the extract from the com.
वाससहस्सं पि जई काऊणं संजमं सुविउलं पि । बन्ते किलिट्रभावो न विसुज्झइ कण्डरीउ व्व ।। बप्पेण वि कालेपं के वि जहागहियसीलसामण्णा ।
साहिन्ति निययकज्जं पुण्डरीयमहारिसि व्व ।। T. adds : अथवा-गुण जीवा प्र(?)जतीपाणासायामग्गणा उ य ।
एउणवीसा एदे पाहज्झयणा मुणेयव्वा ॥ अथवा-नव केवललद्धीओ कम्मक्खययं जं हवन्ति दस चेव ।
णाहज्झयणा एए एउणवीसा वियाणेहि ॥ कर्मक्षयजाः घातिकर्मक्षयजाः दशातिशयाः It is clear that the names of the अज्झयणs agree in the two versions largely, but their contents seem to differ widely. Of course this is a mere hypothesis based upon somewhat imperfect evidence of T.
(20) वीसविहई असमाहीठाणई-Twenty types or causes of असमाधि, absence of transquility of mind. These twenty causes are given in Devendra's com. as follows:
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1. दवदवचारी - दुयं दुयं वच्चन्तो इहेव अप्पाणं पवडणारणा अन्ने य सत्ते वावायणाइणा असमाहीए
जोय, परलोगे य अप्पयं सत्तवहजणियकम्मुणा असमाहीए जोयइ.
2. अपमज्जिए ठाण निसीयणाइ करेइ.
3. दुप्पमज्जिए ठाणनिसीयणाइ करेइ.
4. अइरित्ताए सेनाए आसणे वा निवसइ.
5. राइणिए परिभवइ.
6. थेरोवघाई-सीलाइदोसेहि थेरे उवहणइ तिं वृत्तं भवइ.
7. भूओवधाई - अणट्ठाए एगिन्दियाइए उवहणइ त्ति वृत्तं भवइ.
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8. मुहुत्ते मुहुत्ते संजलइ.
9. सई कुद्धो य अच्चन्तकुद्धो हवइ.
10. पिट्टि मंसिए हवइ.
11. अभिक्खणमोहारिणि भासइ जहा दासो तुमं चोरो वत्ति.
12. नवाई अहिगरणाई करेइ.
13. उवसन्ताणि य उईरेइ.
14. ससरक्खपाए अथंडिलाओ थण्डिलं संकमइ, ससरक्खेहि वा हत्थेहि भिक्खं गेहइ.
15. अकाले सज्झायं करेइ.
16. असंखडसद्दं करेइ राईए वा महया सद्देण उल्लवइ.
17. कलहं करेइ, तं वा करइ जेण कलहो हवइ.
18. वारिस करेह भासइ वा जेण सव्वो गणो झञ्झवियो अच्छ
19. सूरोदयाओ अत्थमणं जाव भुञ्जइ.
20. एसणासमिदं न पालेइ.
T. also gives a similar list of twenty causes, but the text is very corrupt.
( 21 ) एक्कवीस सवल वि, ie twentyone impurities or impure and sinful acts ( शबल ). They are given by Devendra as :
तं जह उ (१) हत्थकम्मं कुव्वन्ते (२) मेहुणं हु सेवन्ते ।
(३) राई च भुञ्जमाणे (४) आहाकम्मं च भुञ्जन्ते ॥१॥
(५) तत्तो य रायपिण्डं (६) कीयं (७) पामिच्च (८) अभिहड ( ९ ) अछेज्जं ।
(१०) भुञ्जन्ते सबले ऊ पञ्चक्खियऽभिक्ख भुञ्जन्ते ॥२॥ (११) छम्मासन्भन्तरओ गणा गणं संकर्म करिन्ते य । (१२) मासन्भन्तर तिण्णि य दगलेवा ऊ करेमाणे ॥३॥ मासन्भन्तरओ च्चिय माइट्ठाणाई तिष्णि कुणमाणे । (१३) पाणा इवाया उट्टै कुव्वन्ते (१४) मुसं वयन्ते य ॥४॥ (१५) गिण्हन्ते य अदिनं (१६) आउट्टि तह अणन्तरहियाए । पुढवीए ठाण सेज्जा निसीहियं वा वि चेएइ ॥ ५ ॥ (१७) एवं ससिद्धिए ससरवखाए चित्तमन्तसिललेलू । कोलावास पट्टा कोलघुणा तेसि आवासो ॥६॥ (१८) सण्डस पाणसवीए जाव उ संताणए भवे तहियं । ठाणाइ चेयमाणे सबले आउट्टियाए उ ॥७॥
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NOTES (१९) आउट्टि मूलकन्दे पुप्फे य फले य बीयहरिए य । भुञ्जन्ते सबले ऊ (२०) तहेव संवच्छरस्सन्तो ॥८॥ दस दगलेवे कुव्वं तह माइहाण दस य वरिसन्तो। (२१) आउट्टिय सीमोदगवग्धारियहत्थमत्ते य ॥९॥ दन्वीइ भायणेण य दिज्जन्तं भत्तपाण घेत्तूण ।
भुञ्जइ सबलो एसो इगवीसो होइ नायवो ॥१०॥ (22) सहिवि दुवीस दुसज्झ परीसह, having borne twenty-two unpleasant contacts, viz., क्षुत, पिपासा etc. For details see तत्त्वार्थाधिगमसूत्र IX.9.
(23) तेवीस वि सत्तयडई. i. e. twenty-three chapters of the सत्रकताङ्ग, the second Anga of the Canon of the Jains, beginning with HH418497 and so forth. T. reads : ससमए वेदालिजोए उवसग्गं इत्थिपरिणामे निरयन्तर वीरथुदी कुसीलपरिभासिए धम्मो य अग्गमग्गे समसरणं तिकालागन्धसाहयए (?) आदा तदित्था (?) पुंडरीको वीरियाणे पयाराहेयपरिणामे पच्चक्खाण अणगारगुणकित्ती सुद अत्थ णालन्दे सुदयडज्झयणाणि तेवीसं द्वितीयाङ्गश्रुतवर्णनाधिकाराश्च. It we are to trust the text of T. which is admittedly corrupt, the order of adhyayanas in the Digambara version would be different from the Svetāmbara one.
(24) चउवीस वि जिणतित्थई-the twentyfour तीर्थs of the twenty four Jinas.
(25) पञ्चवीस भावणउ-For details see तत्त्वार्थाधिगम, VII 3-8. T. reads : एकैकस्य परिपालनार्थ वाङ्मनोगुप्ती (?) दानसमित्यादयः पञ्च भावनाः; अथवा, त्रयोदश क्रियाः द्वादश तपांसि च पञ्चविंशतिर्भावनाः.
(26) छव्वीस वि पुहवीउ, the twentysix regions; T. reads : सौधर्मादिमोक्षपर्यन्ता एका (१) पृथ्वी उत्सपिण्योर्भरतरावतयोरवसपिण्यां शुद्धा नाम पृथ्वी भवति । उत्सपिण्यां च सैव खारा इत्युच्यते इत्येका पृथ्वी । रत्नप्रभो (?) मौखरभागचित्रादयः (?) पङ्गभागादयः सप्त नरकभूमयः इति षड्विंशतिः पृथिव्यः.
( 27 ) सत्तवीस जगुण, twentyseven vows of a monk, viz., द्वादश भिक्षुप्रतिमाः, अष्टौ प्रवचनमातरः, क्रोधमानमायालोभमोहरागद्वेषणामभावश्च सप्त, T. Devendra however gives a different list :
वयछक्कमिन्दियाणं'च निग्गहो भविकरणसच्चं च । खमयों विरागयो वि य मणमाईणं निरोहो य ॥१॥ कायाण छक्क जोगम्मि जुत्तया वैयेणाहियासणया ।
तह मारणन्तियहियासणा य एएऽणगारगुणा ॥२॥ (28) अट्ठवीस पवरायारकप्प-There are twenty-eight (?) मूलगुणs as T. says; but Devendra gives them as: प्रकृष्टः कल्पः यतिव्यवहारो यस्मिन्निति प्रकल्पः, स चेहाचारानमेव शस्त्रपरिज्ञाद्यष्टाविंशत्यध्ययनात्मकम्.
(29) एउणतीस वि दुक्कियसुत्तइं, twenty-nine books of heretics which they believe to be sacred. T. reads : चित्रकर्मादिसूत्रं गणितसूत्रं वैद्यसूत्रं नृत्यसूत्रं गान्धर्वसूत्रं पटहसूत्र बगदसूत्र मद्यसूत्रं धूतसूत्र राजनीतिसूत्र मजुरंगसूत्र (?) चतुरंगसूत्रं गजतुरंगसूत्रं पुरुषस्त्रीगोब्भहुदंगंजनानां (?)
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[XVIII. 10-11 लक्ष ( लक्षण ? ) सूत्राणि अंगं सरं वंजनलक्खणं च छिण्णं वीभोमंसमिणतरक्खं (?) इत्यष्टाङ्गनिमित्तसूत्राणीति एकोनविंशत्यपसूत्राणि । अथवा
अट्ठारह य पुराणा सडंगविण्णा (विज्जा?) य लोइयाणं तु ।
बुद्धाइ पंच समया परूवणा जा सूदी लोए ॥१॥ Devendra gives a different list :
अट्ठ निमित्तंगाई दिन्वुप्पोयन्तैलिक्खंभौमं च । अङ्गं सर लक्खण वंजणं च तिविहं पुणेक्केक्कं ॥१॥ सुत्तं वित्ती तह वत्तियं च पावसुयमउणतीसविहं ।
गन्धव्व नट्ट वत्थं आ णुवेयसंजुत्तं ॥२॥ For still another list see नन्दीसूत्र under मिच्छासुयं.
(30) तीसविहई मोहद्वाणइं, thirty causes or types of infatuation. T. reads : तथा हि-व्रतविषये पञ्चप्रकारो मोहः । पञ्चप्रकारमनुष्यविषये पञ्चप्रकारमोहः । पञ्चप्रकारमनुष्याः भोगभूमिजमनुष्याः विद्याधरत्रिषष्टिशलाकापुरुषमनुष्याः पञ्चदशकर्मभूमिजचतुर्थकालोत्पन्नमनुष्याः भरतैरावतेषु दुःकर्मातिदुःषमकालोत्पन्नमनुष्याः समुद्रमध्यद्वीपोत्पन्नकर्णप्रोचरणादि (कर्णप्रावरण ?) मनुष्याश्च । जीवाजीवास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षपुण्यपापानां स्वरूपे नवप्रकारो मोहः । कर्मबन्धनस्वरूपे एको मोहः । द्वादशविधतपःस्वरूपे एको मोहः । दर्शनस्वरूपे एको मोहः । नैगमसंग्रहव्यवहारऋजुसूत्रशब्दसमभिरूढवंभूतानां सप्तनयानां स्वरूपे सप्त मोहाः । व्रतविनाशविषये एको मोहः ॥ अथवा-क्षेत्ररत्नस्वरूपा (?) सुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यदण्डलक्षणबाह्यग्रन्थविषयो दशप्रकारो मोहः। मिथ्यात्ववेदरागादिलक्षणाभ्यन्तरग्रन्थविषयश्चतुर्दशप्रकारः । पञ्चेन्द्रियदुष्टमनोविषयः षट्प्रकारो मोहः. Devendra's list is altogether different from this for which see his com.
(31) एक्कतीस मलवाय धुणंते, shaking off the thirty-one types of impure acts. They are given in T. as follows :-तथाहि ज्ञानावरणीयं पञ्चप्रकारं दर्शनावरणीयं नंवविधं वेदनीय सातासातरूपतया द्विभेदं मोहनीयं दर्शनमोहनीयचारित्रमोहनीयभेदाद् द्विप्रकारं आयुश्वतुर्भेदं नाम शुभमशुभं च गोत्रमुच्चैः (?) अन्तरायाः पञ्चप्रकाराः.
( 32 ) जिणुवएस बत्तीस मुणन्तें, meditating upon thirty-two preachings of the Jinas. They are given in T. as follows :
आवासयेङ्गपुव्वा छब्बारसचोद्दसा य ते कमसो । बत्तीसमिमे नियमा जिणोवएसा मुणेयन्वा ॥१॥
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I
[ कवि ऋषभनाथकी वन्दना करता है, कि जो तीर्थंकरोंमें प्रथम हैं, तथा सरस्वती भी, जो विद्याकी देवी हैं । वह महापुराणकी रचना करनेका इरादा प्रकट करता है । परिचयके बहाने कवि बताता है कि सिद्धार्थ संवत् ( 881 शक संवत्; अर्थात् 959 ईसवी सदी) में एक समय, वह मेपाडी ( मान्यखेट आधुनिक मलखेड ) के बाह्य उद्यानमें पहुँचा और लम्बा रास्ता पार करनेके कारण थका हुआ वह, वहाँ एक गुफामें ठहर गया । नगरके दो आदमी अन्नया एवं इन्दरैया उसके पास पहुँचे और उन्होंने उससे मन्त्री भरतसे भेंट करनेकी प्रार्थना की जो उसका अच्छा स्वागत करेगा । पहले-पहल तो कविने ऐसा करने में अपनी अनिच्छा प्रकट की क्योंकि उसका इस विषयमें राजा भैरव ( वीर राजा ) के दरबारका कड़वा अनुभव था । परन्तु उक्त आदमियोंने कविको विश्वास दिलाया कि भरत एकदम भिन्न आदमी है और वह उसकी अच्छी आवभगत करेगा । फलस्वरूप कविने भरतसे भेंट की । उसका अच्छा स्वागत किया गया और वह कुछ समय के लिए वहाँ रहा । तब भरतने कविसे महापुराणके लिखनेकी प्रार्थना की। क्योंकि इससे वह अपनी कवित्व शक्तिका सही उपयोग कर सकता है, उसने उन्हें सब प्रकार की सहायता देनेका प्रतिवेदन किया। पहले तो कविने अपनी अनिच्छा व्यक्त की क्योंकि वह उन दुष्ट लोगोंसे भयभीत था जो अच्छी रचनाकी भी आलोचना करते हैं । भरतने उनपर ध्यान न देनेकी कविसे प्रार्थना को । तब कविने विनयपूर्वक कहा कि वह महापुराणकी रचना करनेके लिए योग्य है, यद्यपि वह महान् दार्शनिक सम्प्रदायों और अतीत के महान् कवियोंकी रचनाओं, व्याकरण अलंकार और छन्द-सम्बन्धी रचनाओंसे अनभिज्ञ नहीं है, फिर भी महापुराण में वर्णित महान् व्यक्तित्वोंके प्रति भक्तिके कारण वह महापुराणकी रचना करेगा। इसके बाद कवि गोमुख यक्ष, ऋषभनाथ और पद्मावती यक्षिणी ( विद्याकी देवी ) से सहायताकी याचना करता है ।
अँगरेजी टिप्पणियोंका हिन्दी अनुवाद
कवि महापुराणकी रचना प्रारम्भ करता है : जम्बूद्वीपमें मगध देश है, जिसकी राजधानी राजगृह है । एक दिन जब राजा श्रेणिक मन्त्रियोंके साथ दरबार में सिंहासनपर बैठा था, तो उद्यानपालने आकर सूचना दी कि भगवान् महावीर नगरके बाहर उद्यानमें ठहरे हुए हैं । राजा तुरन्त सिंहासनसे उठा, उसने वन्दना की तथा उनको गौरवान्वित करनेवाली प्रार्थना की। ]
पृष्ठ 418
I. कवि ऋषभनाथकी वन्दना करता है कि जो प्रथम तीर्थंकर हैं ।
1. 30. अच्छी तरह परीक्षा कर, अच्छी तरह जानकर T संसारके जड़-वेतन विभागको अच्छी तरह जानते हुए | 36 दिव्यतनु निस्वेदत्व ( पसीनेसे रहित) आदि अतिशयोंसे मुक्त शरीरवाले | T जिनेन्द्र भगवान् - का शरीर दिव्य होता है । उनके शरीर में दस अतिशय होते हैं जैसे पसीना नहीं आना इत्यादि । इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान्के चतोस अतिशय होते हैं । देखिए अभिधान चिन्तामणि I 57-64। इनमें से जिनेन्द्र के शरीर में दस विशेष होते हैं। देखिए IV. 2. 4a जिन्होंने शाश्वत पदरूपी नगर (मोक्ष) का पथ ( रत्नत्रय ) प्रकट किया है, ऐसे जिनेन्द्र भगवान् । T., वह जिन्होंने मोक्षको ले जानेवाले पथका उपदेश दिया है जिसे
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४६०
महापुराण मुक्ति या सिद्धि कहते हैं। 5a-जो शुभ शील और गुण समूहके निवास गह है। 10a-जिन्होंने आकाशको रंग-बिरंगा कर दिया है। इन्द्रने स्वर्गसे जो पुष्प बरसाये उनसे आकाश रंग-बिरंगा हो गया । 15b- यहाँ कवि प्रसंगवश छन्दका नाम बताता है, जो है मात्रासम । 17 जिसके तीर्थ में
2. कवि पांच परमेष्ठियोंकी वन्दना करता है-तीर्थ, सिद्ध, आचार्य, आध्याय और साधु, और विद्याकी देवी सरस्वतीसे सहायताकी याचना करता है।
2. 36 कोमल पद ( पद = चरण और पैर), कवि विद्याकी देवीका वर्णन करता है; वह एक सुन्दर नारीके प्रतीकके रूपमें। इसीलिए, जो उपमाएं प्रयुक्त की गयी है वे सरस्वती और स्त्रीपर लागू होती हैं । 5a अपनी इच्छासे चलती है (स्त्री) सरस्वती भी छन्दसे चलती है। 6a चौदह पूर्वोसे युक्त । T सरस्वती चौदह पूर्व ग्रन्थ रखती है, जो जैन वाङ्गमयके प्राचीन ग्रन्थ हैं; जो अब अप्राप्य हैं। सरस्वती द्वादश अंगोंसे युक्त है। द्वादश अंग जैनों के प्राचीन आकर ग्रन्थ है, जैसे आचारांग इत्यादि । सरस्वती सप्तभंगीसे उपयुक्त है।
__3. 3 a-6 हम जानते हैं कि राष्ट्रकूट-राजाके कई विरुद थे। पुष्पदन्तकी रचनाओंमें इसी प्रकारके कुछ और नाम है । जैसे शुभतुंग, वल्लभदेव । पृष्ठ 419
तुडिगु= कन्नडमूलक शब्द प्रतीत होता है। 7b = जहाँ आम वृक्षोंके ऊपर तोते इकट्ठे हो रहे हैं ? खण्ड -पुष्पदन्त । अहिमाणमेरु = अभिमानमेरु-कविका उपनाम । 14 = वरि, वर= यह अच्छा है। 15 - सूर्योदय न देखें ?
4. राज्यको बुराइयोंकी निन्दा ।
4. 3 a सप्तांगराज्य-स्वामी, अमात्य सुहृत, कोश, राष्ट्र, दुर्ग और बल । 4विषके साथ, जिसका जन्म हुआ।
5. भरत ( मन्त्री ) की प्रशंसा ।
5.30 प्राकृति कवियोंके काव्यरसका आस्वादन करनेवाला । इस उपमाका विशेष महत्त्व है। सम्भवतः इसलिए कि उस समय प्राकृत-काव्यकी विशेष प्रशंसा नहीं की जाती थी या वह समझा नहीं जाता था, और सम्भवतः उसकी उपेक्षा की जाती थी।
6. भरतके भवनमें कविका स्वागत । और भरतका कविसे महापुराणको रचनाका प्रस्ताव । 6.9a देवीसुत - भरत ।
7. कवि महापुराण लिखनेकी अपनी असमर्थता व्यक्त करता है क्योंकि दुर्जन अच्छी रचनाओंकी भी आलोचना करते हैं जैसे प्रवरसेनके सेतुबन्धकी।
____7. 3 a उपमाओंकी यह शृंखला दोहरे अर्थ रखती है, जो घनदिन और दुर्जनपर एक साथ घटित होते है।
... 8. भरत पुष्पदन्तको विश्वास दिलाता है कि दुर्जन मनुष्य हमेशा वैसे होते हैं, परन्तु बुद्धिमान व्यक्तिको उसपर ध्यान नहीं देना चाहिए। ..
8.7bकुत्तेको पूर्णचन्द्रपर भौंकने दो, काव्यपिशल्ल-पुष्पदन्तका दूसरा उपनाम । काव्य पिशाच काव्य राक्षस।
. ... 9. आत्मविनयके व्यानसे कवि बताता है कि महापुराणके रचनेकी प्रतिभा उसमें नहीं है, फिर भी आदरणीय व्यक्तियोंके बहाने वह इस काममें प्रवृत्त हुआ है।
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अंगरेजी टिप्पणियोंका हिन्दी अनुवाद 9. la इन लेखकोंके लिए पृष्ठके नीचे देखिए, और साथ ही णायकुमार चरिउका XXIII | 13 6 कुड़वके द्वारा समुद्रको कौन माप सकता है ? 17 परोक्षमें मुझे क्यों कुछ कहना चाहिए ! मैं लोगोंको अपनी रचनाकी कमियोंको बतानेकी खुली चुनौती देता हूँ।
पृष्ठ 420
10. कवि गोमुख यक्ष और योगिनी चक्रेश्वरीसे सहायताकी प्रार्थना करता है। जो (यक्ष) ऋषभ 'जिनके शासनदेवता हैं और (चक्रेश्वरी) विद्याकी देवी है।
10. 14 कौन मेरी रचनापर भौंकता है ? 11. मगध देशको स्थितिका वर्णन । 12. राजगृहका वर्णन, जो मगधकी राजधानी है।
12.96 जिसमें ग्वालिनोंके द्वारा मथानीसे मन्थन करते हुए शब्द हो रहा है। ग्वालिनोंकी यह आदत होती है कि वे दही बिलोते समय मधुर गीत गाती है ।
13. राजगृहके बाद्य उद्यानका वर्णन । 13. 11: यह सौन्दर्यकी देवीका भण्डारगृह । 14. राजगृह नगरका वर्णन ।। 14. 9 जो कुशासनके कारण अज्ञानी है। 15. राजगृहका वर्णन जारी है। 16. राजा श्रेणिकका वर्णन । 18. राजा श्रेणिकको भगवान् महावीरके आनेकी सूचना मिलती है ।
18.66 देवोंके चार निकाय । भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक | Ta चौंतीस अतिशय, अर्हतोंको चौंतीस अतिशय होते हैं जिनका हेमचन्द्र के अभिधान कोश तथा दूसरे ग्रन्थोंमें वर्णन है । कुमारी जानसनके द्वारा अनूदित त्रिषष्ठीशलाकापुरुषका पृष्ठ 5 देखिए। 9 अहंतोंके आठ प्रातिहार्य होते हैं, अशोक, सुरपुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, चामर, सिंहासन, भूमण्डल, दुन्दुभि, और त्रिछत्र । 10 6 विपुल गिरि राजगहकी एक छोटी-सी पहाड़ी है। 15 सन्धिकी अन्तिम पंक्तिमें अपना नाम जोड़ता है ( पुफ्फयन्ततेयाहिय) इस प्रकार यह उसका चिह्न है, और उसकी कई तरहसे क्याख्या की जाती है। ज्यादातर उसका अर्थ सूर्य और चन्द्र होता है। पुष्पदन्तकी समानता कभी पुष्पदशन और कूसमदशनसे की जाती है। 'भर एक अर्थ भारतवर्ष या भरत भी होता है, जो पहले चक्रवर्ती हैं।
पृष्ठ 421
... [राजा श्रेणिक, महावीरके आगमनका समाचार सुनकर अपने परिवारके साथ उनके दर्शनके लिए जाता है। जिनवरकी वन्दना-भक्तिके बाद राजा, उनके गणधर गौतमसे महापुराणका वर्णन करनेके लिए कहता है। गणधर कहते हैं। तब गौतम, समयविभागका वर्णन करते हुए अपना कथन प्रारम्भ करते हैं; कुलकरोंका और विश्व सभ्यताके प्रति उनके प्रदेयका वर्णन । इन कुलकरोंमें नाभिराजा पहले थे। मरुदेवी उनकी रानी थी। इन्द्रको याद आया कि जिनवरका जन्म कुलकर नाभिराज और मरुदेवीके घर होना है, इसलिए सोपवरको आदेश दिया कि वह अयोध्या नगरीकी रचना करे। वह इतनी समृद्ध और प्रसन्न हो कि जिससे वह जिनवरके जन्मका उचित स्थान सिद्ध हो सके ।]
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४६२
महापुराण
1. 66 एक स्त्री, जिसने कुवलय अपने हाथमें ले लिया, यह कुवलय ( नीलकमल ) की तुलना राजवृत्तिसे की गयी है; राजवृत्ति भी कुवलय ( पृथ्वीमण्डल ) धारण करती है, तथा शत्रुओंका नाश करती है । 2. 13 जो दूसरोंकी पीड़ा दूर करती है । भुवनरूपी कमलके विकासके लिए सूर्यके समान । जिनवर विश्वको उसी प्रकार प्रसन्न रखते हैं जिस प्रकार सूर्य कमलको रखता है ।
3. 5 - 11 इन पंक्तियोंमें जिनकी लम्बी उपमा है, कि जिनके कमलके समान चरण, कुबेर और दूसरे देवोंके मुकुटमणियोंकी कान्तिके जलसे धोये जाते हैं कि जब वे जिनवरके चरणोंमें अपना सिर झुकाते हैं । 35 आप कृपा कर मुझे पाँचवीं गति ( मोक्ष ) में ले जाइए । सिद्धावस्था = संसारसे मुक्ति । पहली चार गतियाँ हैं देव, नरक, तिर्यक् और स्वर्ग ।
4. 74 जिनका आदि और अन्त नहीं है । कहने का तात्पर्य है—भावी तीर्थंकरोंकी संख्या अनिश्चित है । 8-9 समयका न आदि है और न अन्त । वह अनिश्चित है । समय, विश्व में परिवर्तनका सहायक कारण है; इसमें रूप, गन्ध, रंग और सार नहीं है । समय अपने निश्चयकालमें परिवर्तन द्वारा प्रवर्तन करता है, व्यवहारकाल हमारे दैनिक व्यवहारसे पहचाना जाता है ।
5. 36 प्रिंयकारिणीके पुत्र महावीर; जो त्रिशला के नामसे प्रसिद्ध हैं । कल्पसूत्र 109 से तुलना कीजिए कि जिसमें प्रीतिकारिणी नाम दिया गया है । 100 गुणा किया जाता है ।
6. 100 विभाजन करने योग्य ।
8. उत्सर्पिणी काल,
जिसमें शक्ति बढ़ती है, शरीरकी ऊंचाई, क्षमता, ज्ञान, पवित्रता, गम्भीरता और साहस | अवसर्पिणी- इसमें योग्यताएँ क्षीण होती हैं। 76 दश कल्पवृक्ष |
8 422
9. 30 प्रतिश्रुति प्रथम कुलकर, जैन पौराणिक कथाके अनुसार । अममके बराबर लम्बाईकी आयु रखनेवाले । अमम ( बड़ी संख्या ) । दूसरे कुलकर या मनु हैं जो नौ-दसमें वर्णित हैं — सम्मति, क्षेमंकर, क्षेमन्धर, सीमंकर, सीमन्धर, विमलबाहु, चक्षुष्मान्, यशस्वी, अभिचन्द, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित् और नाभि ।
11. 1 प्रथम कुलकरने विश्वकी व्याख्या की, तथा पहली बार उन्होंने सूर्य और चन्द्रमाके कार्योंकी खोज की, जो कि इस समय के पूर्व दूसरे मनुष्योंके द्वारा देखे नहीं गये थे क्योंकि संसार कल्पवृक्षों द्वारा वितरित प्रकाशसे भरपूर था । दूसरेने नक्षत्रों और ग्रहोंकी खोज की । इसी प्रकार प्रत्येक कुलकरने विश्वमानव सभ्यतामें कुछ न कुछ योगदान दिया । अन्तिम कुलकर नाभिराज थे । उन्होंने बच्चोंके नाल काटने की प्रथाकी खोज की। और बादलोंका पता लगाया । घरतीको विभिन्न खाद्यान्नोंसे भर दिया। लोगों को बुनने और भोजन बनानेकी कला सिखायी । मानव सभ्यताकी भलाई के लिए ।
17. 56 यह जानकर कि तीर्थंकरका जन्म किसी
स्थान विशेषपर होता है, इन्द्र कुबेरको आदेश देता है कि वह सम्पन्न सुन्दर अयोध्या नगरी बनाये जिससे जिनवर जन्म ले सकें ।
19. 1“ हेमचन्द्रने अपने व्याकरणमें IV पृष्ठ 422, छुडुको यदिका पर्यायवाची बताया है । परन्तु मैं नहीं समझता कि छुडु सदैव यदिके अर्थ में प्रयुक्त हो । मेरे विचार में छुडुका अर्थ 'क्षिप्र' है, जो यहाँ उपयुक्त है । और दूसरे जगह भी । नोचे टिप्पणी में इसका अर्थ 'यदा' किया गया है, परन्तु मेरे विचार में यह शुद्ध नहीं है ।
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अंगरेजी टिप्पणियोंका हिन्दी अनुवाद
III
[ जैन पुराणोंमें जिनके जन्मका वर्णन इतने एकरूप ढंगसे वर्णित है कि कभी-कभी हमें यह सोचने के लिए विवश होना पड़ता है कि हम इतिहासके बजाय पौराणिक कथामें हैं । जब जिनवरके माता-पिता कृतसंकल्प होते हैं तो इन्द्र कुबेरको सुन्दर नगरीको रचना करनेका आदेश देता है; जन्म लेनेके पूर्व वह स्वर्ग में जन्म लेते हैं । उनके जन्मके छह माह पूर्व इन्द्र छह देवियां भेजता है; वे जिनेन्द्रकी माताके पास आती हैं और सेवाके लिए प्रतीक्षा करती हैं; माँ सोलह सपने देखती है, ( श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार चौदह ) वह अपने स्वामीसे इनका फल पूछती है दूसरे दिन सवेरे । तब पति उसे फल बताता है ।
पृष्ठ 4-23
उसका सार यह है कि माता ऋषभको जन्म देगी। जिन ( प्रथम तीर्थंकर ऋषभ, एक सफेद वृषभके रूप में) गर्भ में जन्म लेते हैं । देव इस घटना में उपस्थित होते हैं । कुबेरके द्वारा रत्नोंकी वर्षा की जाती है । उचित समयपर जिनका जन्म होता है। इन्द्रके नेतृत्वमें देवता जन्म-स्थानपर आते हैं और प्रार्थना करते हैं, इन्द्र माताको मायावी बालक देता है और जिनको सुमेर पर्वतपर ले जाता है । उन्हें सिंहासनपर स्थापित करता है; उनका जन्माभिषेक किया जाता है। पहाड़के ऊपर बढ़ते हुए अभिषेक जलका सभी वन्दना करते हैं; जिनेन्द्रकी प्रशंसामें इन्द्र कुछ पद्य पढ़ता है; वह उन्हें वापस माता-पिताके पास लाता है; इस घटनाको सामान्यतः कल्याण कहा जाता है, खासकर जिन- जन्माभिषेक कल्याण, इन घटनाओंका जिनके जीवन में एकरस वर्णन किया जाता है । परन्तु पुष्पदन्त अपनी काव्य-प्रतिभासे उसे सजीव विस्तार देते हैं । प्रथम तीर्थंकरके जीवनकी प्रमुख विशेषताएं हैं ]
(I) जन्म-स्थान - अयोध्या
(II) मातापिता - नाभि और मरुदेवी |
( II1 ) धवल वृषभके रूपमें गर्भ में अवतार ।
(IV) अवतारतिथि आषाढ़ कृष्णपक्ष द्वितीय, दिन रविवार, उत्तरा नक्षत्र, ब्रह्मयोग ।
(V) जन्म तिथि - चैत्र कृष्ण पक्ष नवमी, उत्तरा नक्षत्र, ब्रह्मयोग |
( VI ) नाम - ऋषभ या वृषभ ।
4. 9a णिवप्रंगणंति = राजाके प्रांगण में यद्यपि प्राकृत संयुक्त व्यंजनोंकी अनुमति नहीं देती, फिर भी महापुराण में बहुत-से संयुक्त व्यंजन मिलते हैं । हेमचन्द्रका IV पृष्ठ 398-99 सिद्ध हेम व्याकरण देखिए । हमारी पाण्डुलिपियों ( G और K ) में र् के साथ संयुक्त व्यंजन है, जबकि 'MBP' में नहीं है । इसलिए मैंने G और K को अपने टेक्स्टके प्राचीन रूपको सुरक्षित रखनेवाला सोचा है । इस कारण, और ॠ वाले रूपको रखनेके कारण जैसे मृग, सृय इत्यादि ।
5. यह कड़वक उन सोलह वस्तुओंके नाम गिनाता है कि जिन्हें जिनेन्द्रको माता स्वप्न में देखती है और जो जिनेन्द्रके जन्मका पूर्वाभास देती है । श्वेताम्बर परम्परा दिगम्बर परम्परासे इस अर्थ में है । वह केवल चौदह स्वप्नोंका उल्लेख करती है । कल्पसूत्र 4, and 32-47.
पृष्ठ 424
दिगम्बर परम्परा के अनुसार ये वस्तुएँ हैं— (1) पर्वतकी ढालको तोड़ता महागज ।
४६३
(2) जोरसे गर्जन करता हुआ एक वृषभ । ( 3 ) गरजता सिंह ।
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महापुराण
(4) महागजों की सूडोंसे अभिषिक्त महालक्ष्मी । (5) दो पुष्पमालाएँ। (6) उगता हुआ चन्द्रमा । (7) उगता हुआ सूरज । (8) मीन-युगल । (9) जलसे परिपूर्ण दो कलश । (10) कमल सरोवर । (11) गरजता हुआ समुद्र । (12) सिंहासन । (13) राजभवन । (14) नागलोक। (15) रत्नराशि। (16) जलती हुई (निर्धूम) आग ।
इससे स्पष्ट है कि श्वेताम्बर बारहवें और चौदहवें स्वप्नोंको नहीं मानते। और इस प्रकार कुल संख्या चौदह रह जाती है।
7. 5a सोलहकारणभावनाओंका, ध्यान करके, तपस्याके द्वारा तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध किया। ये भावनाएं हैं-दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शीलवतेषु-अनतिचार; अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, अभीक्ष्ण संवेग, शक्तितः त्याग, शक्तितः तप, साधुसमाधि, वैयावृत्यकरण, अर्हद्भक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यकापरिहाणि, मार्गप्रभावना, प्रवचनवत्सल ।
19. 14 मुझे उस देशमें ले जाइए, जहाँ जन्म नहीं है अर्थात सिद्धोंका क्षेत्र । 21. lla जिन वृषभ इसलिए कहलाते हैं क्योंकि उनका आसन वृष (धर्म) से शोभित है।
पृष्ठ 425
IV
[राजा ऋषभ राजकीय भवनमें बड़े होते हैं, जो आदर्श वातावरणसे अलंकृत था। उनके शरीरमें दस अतिशय हैं, जैसे शरीरकी पवित्रता, स्वेद आदिका न आना । पिता उनका विवाह करनेकी सोचते हैं, पहले राजकुमार ऋषभ मना करते हैं, परन्तु नाभिराजके दबावके कारण उन्हें विवाह करना पड़ा; धमघामसे विवाह हआ। उनकी पत्नियां यशोवती, सुनन्दा क्रमशः राजा कच्छ और महाकच्छकी कन्याएँ थीं। उत्सवकी सन्ध्यामें चांदनीसे आलोकित आकाशमें राजकीय सजधजके साथ नृत्य आदिका आयोजन . किया गया । उत्सवकी समाप्ति दान आदिके साथ की गयी।
1.10a अपनी पीठपर लेटा हुआ बालक देख रहा था परन्तु कविकी कल्पना है कि वह तपस्याका मार्ग देख रहा था जो कि ऊँचेकी ओर जा रहा था। 15a जब कि वह बचपनमें धीरे-धीरे चलते थे। 166 चौंसठ कलाएँ न कि बहत्तर कलाएँ जैसा कि श्वेताम्बर ग्रन्थोंमें उल्लेख है।
2. कडवक कुछ अतिशयोंका उल्लेख करता है। 3. 10a जो कल्पवृक्ष है वह काठ-काठ है। 4. 14b स्वदेश स्त्री बाल प्रसिद्ध रागध्वनि जो बच्चे को सुलानेके लिए की जाती है ! 9. 10a चन्दोवा और चीनी वस्त्रसे आच्छादित । 10.3a चमकती है, आलोकित होती है।
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V. 12 ]
17. जैसे दूधसे धोया हो ।
18. नृत्यके विविध पारिभाषिक शब्दोंका उल्लेख ।
पृष्ठ 426
अंगरेजी टिप्पणियोंका हिन्दी अनुवाद
पारिभाषिक शब्द मूल संस्कृत में दिये गये हैं, अतः अनुवादको आवश्यकता नहीं ।
पृष्ठ 427
V
[ एक दिन ऋषभकी पत्नी यशोवतीने स्वप्नमें सुमेरुपर्वत, सूर्य और समुद्रको देखा, तथा धरतीको अपने मुखमें प्रवेश करते हुए देखा । उसने यह स्वप्न ऋषभको बताया । उन्होंने बताया कि उसे पुत्रकी प्राप्ति होगी । जो सार्वभौम राजा होगा । समयके अन्तरालमें यशोवतीने पुत्रको जन्म दिया, जिसका नाम भरत रखा गया । जैसे ही बच्चा बड़ा हुआ पिताने उसे अनेक विद्याएँ सिखायीं । विभिन्न कलाएँ, प्रशासन चलाना, विभिन्न वर्गों और जातियोंके कर्तव्य और अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहारके सम्बन्धोंका ज्ञान कराया । यशोवतीके ९९ पुत्र और हुए; और एक कन्या ब्राह्मी उत्पन्न हुई । सुनन्दाके भी एक पुत्र बाहुबलि हुआ, और सुन्दरी कन्या । ब्रह्मा (आदिनाथ ) ने स्वयं दोनों कन्याओंको साहित्य और विविध कलाओंका ज्ञान कराया । एक बार भयंकर अकाल पड़ा उससे प्रजामें संकट पड़ गया। वे ऋषभके पास आये और उन्होंने राहतकी अपील की । ऋषभने उन्हें व्यवसायको विविध कलाओंका ज्ञान कराया। जब वे २० लाख पूर्व वर्ष के हुए, नाभिराजने उन्हें गद्दीपर बैठा दिया । ]
2. 86 भारतवर्षके छह खण्ड । जैन भूगोल विद्याके अनुसार यह भारतवर्ष उत्तरमें हिमवन्त पर्वतसे घिरा इसके ठीक बीचोंबीच केन्द्रसे विजयार्ध पर्वत गुजरता है । पूर्वसे पश्चिम गंगा-सिन्धु नदियाँ प्रवाहित हैं । इससे उत्तर-दक्षिण क्षेत्र बनता है । इस रूपमें यह छह खण्डों में विभक्त है । चक्रवर्ती इन छह खण्डोंपर शासन करता है । अहमेन्द्र बहुत ऊँचा देव है जो ग्रैवेयक विमानमें रहता है ।
3. 2 गर्भावस्था में यशोवतीके उदरकी तिरेखाएं समाप्त हो गयीं । जो तीनों लोकोंके अधिपतियोंपर विजय प्राप्त करनेका प्रतीक है । इसका अर्थ है कि यशोवतीके जो पुत्र उत्पन्न होगा, वह प्रभुताके उन सारे चिह्नोंको पराभूत कर देगा कि जो अभी तक राजा धारण करते थे ।
5. 70 छोटा कीड़ा ।
6. 13a प्लासिक काम ।
7. पर्वत, जिसके स्तनोंकी जगह स्थित है ।
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9. 70 करेवा पूर्वकालिक क्रियाका रूप बनानेके लिए हेमचन्द्रका IV, 438 देखिए । तीन सालके पुराने जवके लिए 'अज' कहते हैं, जो बलिमें चढ़ाये जाते हैं । जिन - प्रतिमाका पूजन | जैनोंके अनुसार उनका धर्मका कोई प्रारम्भ नहीं है, वह अतीतमें भी था ।
11. 86 चार व्यसन हैं- द्यूतक्रीड़ा, स्त्री, शराब और शिकार ।
12. अत्यन्त पासका एक पड़ोसी मित्र होता है और दूसरा शत्रु । अठारह तीर्थ ।
सेनापति, गणक, मन्त्री, पुरोहित, बलौध, बलवत्तर, दण्ड, नाथ,
आर्य इन तीर्थोका उल्लेख करते हैं ।
५९
४६५
श्रेष्ठी, महत्तर, महामात्य, अमात्य,
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महापुराण
[V. 18
18. अवहंस = अपभ्रंश ।
VI [एक दिन जब ऋषभनाथ राजसुखोंका भोग कर रहे थे तो इन्द्र उनके बचे हुए कार्यका चिन्तन करता है कि उन्हें इस धरतीको पूर्ण बनाना है, विश्वमें जिनधर्मका उपदेश करना है।
पृष्ठ 429
उन्होंने नीलांजना अप्सरा नृत्य करनेके लिए भेजी। वह आयो, उसने नृत्य किया और वह मर गयी । उसे मृत देखकर जिनको संसारकी क्षणभंगुरताका बोध हुआ।]
2. पोर्टर और चपरासी राजभवनमें जीवन नियन्त्रित करते हैं। कवि उन बहुत-सी बातोंका उल्लेख करता है जो राजाके सामने नहीं की जानी चाहिए ।
5. स्पष्ट है।
पृष्ठ 430
स्पष्ट है। पृष्ठ 431
स्पष्ट है। पृष्ठ 432
VII [ नीलांजनाको मृत्युके कारण ऋषभका दृष्टिकोण बदल गया। उन्होंने सोचा कि संसारमें प्रत्येक वस्तु क्षणभंगुर है, असहाय और एकान्त है। आत्माको जन्म और मृत्युकी परम्परामें-से जाना पड़ता है। अनुभव दुःखमें गुजरना होता है । पुण्य-पाप करता है और संसारमें परिभ्रमण करता है। इसलिए यदि आत्मा अपना भला चाहता है, तो उसे सबसे पहले पाप-प्रवृत्तियाँ छोड़नी चाहिए। इससे उसकी पूर्व संचित परम्परा नहीं बढ़ेगी। उसे तप करना चाहिए जिससे उसके पहलेके कर्मको निर्जरा होगी। इस प्रकार विचार करते हुए उन्होंने तपका निश्चय कर लिया। इस अवसरपर देव आये और उन्होंने उत्साह बढ़ाया और संसारमें जैनधर्मके प्रसारकी प्रेरणा दी । ऋषभने भरतको अयोध्याकी गद्दीपर बैठाया, उन्होंने पोदनपुर बाहुबलिको दिया। वह पद्मासनमें स्थित हो गये और उन्होंने संसारसे सम्बन्ध तोड़ लिया। मातापिताने इसका अनुकरण किया । देवताओंने तपकल्याण मनाया। वह वनमें तप करने चले गये। पत्नी और पुत्रोंने भी उनका अनुकरण किया। उन्होंने केश लौंच किया। उसने हीरोंकी तश्तरीमें उन्हें रखा तथा उन्हें क्षीर समुद्र में विसर्जित किया। पांच महावत धारण करके वह दिगम्बर हो गये। ]
1. 11 जिस मनुष्यपर स्त्रियां नमक उतारती है अर्थात् वह मनुष्य, जिसे स्त्रियां इतना प्यार करती है। इसमें उस प्रथाका सन्दर्भ है जिसमें स्त्रियाँ मनुष्यको कितना प्यार करती हैं । यह इस प्रथाको भी सन्दर्भित करती है जिसमें मृत शरीरको नीचे उतारकर लकड़ियोंपर रख दिया जाता है।
2. पन्द्रह कर्मभूमियोंमें उत्पन्न । मनुष्य अपने कर्मके अनुसार, मृत्युके बाद कोई भी स्थिति प्राप्त कर सकता है।
7. ब्राह्मण यदि पशुओका मांस खाकर, शराब पीकर मोक्ष पा सकता है तो धर्मकी क्या आवश्यकता है। शिकारीकी प्रतीक्षा करो।
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VIII. 1 ]
9433
अंगरेजी टिप्पणियोंका हिन्दी अनुवाद
10. यह मानव-जीवन यदि श्मशानमें जाता है तो जाये, जैसा कि हम मराठीमें कहते हैं 'मसणांत' जावो। मैं मानव-जीवनको तिनकेके बराबर समझता हूँ।
11. 1-तिप्पयार संठाणयं शब्द तीन भागों में विभक्त है, प्रत्येकका अलग-अलग रूप है; नरकमें राक्षसों और प्राणियोंके क्षेत्रका आकार 'शराब' जैसा है, जो उलटा हुआ है; मनुष्यों और छोटे प्राणियों के क्षेत्रका आकार वज्रमणिका है । देवोंके क्षेत्रका आकार मृदंगका है ।
9a मुक्त आत्मानोंके क्षेत्रका स्थान छत्रके वाकारका है ।
14. यदि मनुष्य कर्मों के आसवको रोक देता है और सम्यक् आचरण करता है, तो नये कर्म आत्मामें नहीं आते, और जो कर्म पूर्वसंचित है, वे शरीर कष्टसे नष्ट हो जाते हैं और उन्हें कोई प्रवय नहीं मिलता ।
४६७
15. मैं दिगम्बर मुनि बनूँगा । इस शब्दका प्रभावशाली और स्पष्ट वर्णन, यहाँ और २६वें कड़वकमें है ।
156 नीचे और अन्य स्थानोंके वर्णनसे स्पष्ट है कि इस ग्रन्थकी रचना दिगम्बर जैन मुनिके दृष्टिकोणसे हुई है ।
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16 12-13 जिस प्रकार तालाब सूर्यको किरणोंसे सूख जाता है, और उसमें रहनेवाला पानी भी सूख जाता है उसमें नये पानीके आनेका स्रोत नहीं रहता और तालाबका बनना रुक जाता है उसी प्रकार पूर्वमें अनेक जन्मोंके किये गये कर्म इन्द्रियोंके संयमसे रुक जाते हैं [ वह कमौके आगमनके ज्ञानको रोक देता है, और तपस्याके द्वारा ( जो मुनियोंके लिए निर्धारित है ) ]
26. यह अवतरण निष्क्रमणकी तिथिका सूचक है जो उत्तराषाढ़ा नक्षत्र है ।
VIII
,,
[ इसके बाद ऋषभनाथने मुनिकी तपस्या प्रारम्भ की और उसके लिए निर्धारित आचरणके नियमोंका पालन किया। राजा कच्छ और महाकच्छके बेटे नमि और विनमि तथा ऋषभनाथके साले उनके पास जंगलमें आये तथा उनकी स्तुति करनेके बाद वे बोले कि ऋषभने उन्हें घरतोका कोई भाग नहीं दिया जबकि अपने पुत्रोंको सारी धरती बाँट दी। दरअसल, मुनिके रूपमें वह कोई उत्तर नहीं दे सकते थे, क्योंकि संसारके कार्योंका उन्होंने पूर्णतः परित्याग कर दिया था। इस अवसर पर नागोंके राजा धरणेन्द्रको कम्पन हुआ और अवधिज्ञानसे उसने जान लिया कि ऋषभ इस समय कठिन स्थितिमें हैं । इसलिए वह उनके पास आया; उसने नमि और विनमिको उनके पास खड़ा देखा। उसने उन लोगोंस कहा - " ऋषभ ने दीक्षा लेनेके पहले उससे कहा था कि जब वे (नमि-विनमि) मेरे पास आयें और धरतीका हिस्सा माँगें, तब घरणेन्द्र उन्हें विजयार्ध पर्वतको उत्तर-दक्षिण श्रेणियां दे दें । तब धरणेन्द्रने उन्हें विजयार्धपर स्थित कई नगरियाँ दिखलायीं और इस प्रकार धरणेन्द्र ऋषभ जिनको कठिन स्थितिसे बचाकर घर चला गया । ]
1. 90 मैं सोचता हूँ सिमिर शिविरसे बना है । अर्थ है सेनाका कैम्प, परन्तु यहाँ सेनाके लिए
प्रयुक्त है।
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४६८
महापुराण
[ VIII. 2
2. 1-4 विसयवसा-वे बड़े राजा (योद्धा) जो ऋषभके साथ संन्यस्त हुए थे । कुछ ही दिनोंमें कठोर तपस्या नहीं सह सकनेके कारण खण्डित होने लगे, और भयंकर सिहों, तेन्दुओं और शरभोंसे भयभीत हो उठे। भूख और प्यास की वेदनाने उन्हें अतिक्रान्त कर लिया ।
7.६ से २०वीं पंक्ति तक दामयमक अथवा शृंखलायमक। यह दुवईका लम्बा युग्म है। जो इस रचनामें दुर्लभ नहीं है । यद्यपि साधारणतः दुवई, कड़वकके प्रारम्भमें आती है। यह अवतरण धरणेन्द्रकी प्रार्थनाका वर्णन करता है।
पृष्ठ 435
IX [ ऋषभ तब छह माह तपस्यामें व्यतीत करते हैं और अपने मनकी सारी गतिविधियां पूर्णतः नियन्त्रित कर लेते हैं। उन्होंने सोचा कि भोजन कम करना पवित्रता प्राप्त करनेका सबसे उत्तम कारण है; इसलिए उन्होंने वह आहार ग्रहण करना स्वीकार कर लिया जो छयालीस प्रकारके दोषोंसे मुक्त होऔर जो नौ प्रकारके दृष्टिकोणोंसे पवित्र हो। उनके जीवनका सिद्धान्त था कि आहार शरीरको समाप्त कर देता है। भोजनको कम करना तपस्याका अंग है, यह इन्द्रिय चेतनाका नियन्त्रण करता है, और जब इन्द्रिय चेतना समाप्त हो जाती है तो सारी प्रवृत्तियाँ मुक्तिकी ओर ले जाती हैं, इसलिए वे जीवनके इन नियमोंका पालन करते हैं । धरतीपर विहार करते हुए जब वे गयपुर आये, जहाँ कि बाहुबलिका पुत्र सोमप्रभ राजा था। उसका छोटा भाई श्रेयांस था। उसने पूर्व रात्रिमें स्वप्नमें सूर्य-चन्द्रमा आदि चीजें देखीं। उसने यह स्वप्न अपने भाईको बताया। इस स्वप्न दर्शन का फल यह था-कि कोई महान् आदमी उनके घर आयेगा। वास्तवमें दूसरे दिन ऋषभ उनके घर आये, आहार ग्रहण करनेके लिए। तब राजा श्रेयांसने उनका स्वागत किया और उन्हें इक्षुरस का आहार दिया, जो उन्होंने स्वीकार कर लिया। तब आकाशमें दिव्यवाणी हुई कि कितना उत्तम दान है ? उसके बाद ऋषभ अपने विहारपर चले गये, और समयके अन्तरालमें उन्होंने चौथा ज्ञान (मनःपर्ययज्ञान) प्राप्त कर लिया, वह ज्ञान जो दूसरोंके मनकी बात जानता है। तब वह नन्दन वनकी ओर गये। वहाँ वटवृक्षके नीचे उन्होंने गुणस्थानोंको प्राप्त किया, और उचित समयमें केवलज्ञान प्राप्त किया, जिससे वह समस्त विश्वको देखने में समर्थ हो गये । उस अवसरपर, इस घटनाका महोत्सव मनानेके लिए देव आये। कुबेरने समवसरणकी रचना की। बत्तीसों इन्द्रोंने अपनी उपस्थितिसे इसका महत्त्व बढ़ाया। फिर उन्होंने जिनकी प्रार्थना की।]
1.7 जैन साधुको जो आहार दिया जाये, वह आधाकर्म आदि दोषोंसे मुक्त होना चाहिए।
पृष्ठ 437
[ इन्द्र और दूसरे देव केवलज्ञान प्राप्त करनेपर ऋषभ जिनकी स्तुति करते हैं, जिनके चौबीस अतिशय और हैं, जो केवलज्ञानके कारण उन्हें उत्पन्न होते हैं। इस महत्त्वपूर्ण अवसरपर, भरतके पास यह खबर पहुँची कि उसके पिताने केवलज्ञान प्राप्त किया है, आयुधशालामें चक्ररत्न प्रकट हुआ है; और यह कि रानीको पुत्र हुआ है। थोड़ी देरके लिए भरत दुविधामें पड़ गया कि वह पहले पुत्रको देखे, या चक्रको या पिताको । परन्तु अन्तमें उसने पिताको देखनेका निश्चय किया। वह उनके पास गया, प्रार्थना की और घर वापस आ गया। यह देखकर कि जिनवरने केवलज्ञान प्राप्त किया है, पवित्र और भव्य लोग संन्यास ग्रहण करने के लिए ऋषभ जिनके पास गये। उनके लिए उन्होंने जीव-अजीव आदि श्रेणियोंका
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XIII.]
अंगरेजी टिप्पणियोंका हिन्दी अनुवाद
उपदेश देना शुरू किया। सबसे पहले उन्होंने पर्याप्तियोंका कथन किया। पर्याप्ति यानी विकासका निकाय । फिर वह निम्न श्रेणीके जीवोंका वर्णन करते हैं। फिर पाँच इन्द्रियोंवाले निम्न श्रेणीके जीवों का । फिर विभिन्न द्वीपों और समुद्रोंका वर्णन करते है और अन्त में उनके विस्तार का।]
पृष्ठ 438
XI [ ऋषभ जिन भगवान्, इसके बाद विभिन्न इन्द्रियोंके कार्यों और प्राणियोंका वर्णन करते हैं कि जो उन्हें धारण करते हैं, फिर उनकी आयुका वर्णन करते हैं । जम्बूद्वीपके सामान्य भूगोलका, उसके द्वीपोंउपद्वीपों और नदियोंका वर्णन करनेके बाद; ऋषभ जिन मानवी विशेषताओं और उनके गुणोंका वर्णन करते हैं। फिर वे स्वर्ग और देवोंका विस्तारसे वर्णन करते हैं, फिर विभिन्न गुणस्थानों और कर्मप्रकृतियों और सिद्धोंकी विशेषताओं और सुखोंका वर्णन करते हैं। जिनेन्द्र भगवान्का उपदेश सुनकर चौरासी लाख राजाओंने दीक्षा ग्रहण कर ली। जो उस समय उनके गणधर कहलाते थे। इसी प्रकार ब्राह्मी और सुन्दरी भी साध्वी बन गयीं। अकेला मारीचिको बोध नहीं हो सका। उनके पहले शिष्य सुयक्ती थे और शिष्या पियंवया या प्रियंवदा । उनके पहले मुक्ति प्राप्त करनेवाले शिष्य अनन्तवीर्य थे।
पृष्ठ 440
XII
[अब भरतने भारतवर्षके छह खण्डोंपर दिग्विजय प्राप्त करनेके लिए कूच किया। शरद् ऋतुमें, जब आसमान स्वच्छ था और सड़कें सूखी थीं। वह पवित्र लोगोंकी वन्दना करता है और चक्रकी परिक्रमा देता है, तथा गरीब एवं जरूरतमन्द लोगोंको दान करता है। उसने अपने मन्त्रियोंसे मन्त्रणा की। उसने बहुत बड़ी सेना ली और चक्रके साथ वह पूर्वी समुद्र के किनारे गया, वह मगध तीर्थपर विजय प्राप्त करना चाहता था। पहले उसने उपवास किया, और तब धनुष ग्रहण कर पूर्वदिशामें तीर चलाया। तीर राजाके घरमें गिरा, राजा उसे देखकर बहुत क्रुद्ध हमा; परन्तु उसके मन्त्रियोंने किसी प्रकार यह कहकर उसे शान्त किया कि चक्रवर्तीसे युद्ध करने में कोई लाभ नहीं है, और यह सबके हितमें होगा कि उन्हें सम्मान देकर उनकी अधीनता स्वीकार कर ली जाये। मगध तीर्थक राजाने ऐसा ही किया।]
XIII
[ उसके बाद भरत दक्षिणकी ओर गया और ( वरतनु ) वरदामा तीर्थक केन्द्र पर पहुँचा। उसने फिर एक उपवास किया, और उसके बाद तीर चलाया; जो वरतनुके घरके आंगनमें गिरा। राजा वरतनु शीघ्र ही भरतके पास प्रणतिपूर्वक आया और उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। उसके बाद भरत पश्चिम दिशाको बोर गया और सिन्धु नदीके प्रवेशद्वारपर पहुँचा। उसने वहाँ भी उपवास किया । और लवणसमुहमें रास्ता बनानेके लिए प्रभास तीर्थके राजापर तीर छोड़ा। राजा आया और उसने भरतको अधीनता स्वीकार कर की। उसके बाद भरतने कई देशोंपर विजय प्राप्त की, जैसे मालवा इत्यादि । और इस प्रकार एमावतीवर अपना सामाण्य स्थापित किया। उसके बाद भरत विजयार्ष पर्वतपर गया तीन खण्डोंकी अपनी बाकी विजय पूरी करने के लिए।
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४७०
महापुराण
[xIv.
पृष्ठ 441
XIV
[दक्षिणकी तीन खण्ड धरतीकी विजय प्राप्त करने के बाद वह विजया पर्वतपर आया। एक देव वहां आया और उससे पर्वतके गुहामुखपर प्रहार करनेके लिए कहा जिससे उसे गुफाके दूसरी ओर जानेका रास्ता मिल सके । तब भरतने अपने सेनापतिको तदनुसार आदेश दिया ।
जब उसने प्रहार किया तो गुफा फट गयी। उसके निवासियों में गहरी उत्तेजना हई। पर्वतकी अधिष्ठात्री देवी उपहार लेकर भरतके पास आयो । भरत वहां छह माह रहे। उसने चक्ररत्नको गुहाके भीतर चलने और सेनाको उसका अनुकरण करने का निर्देश दिया। परन्तु अन्धकारमें चलना कठिन था। तब सेनाध्यक्षने कागणी रत्न लिया और गुहाकी दीवालपर सूर्य और चन्द्रमाका अंकन किया। उसके प्रकाशमें सेना चली और नागलोकमें जा पहँची। दो नदियाँ सेनाके सामने अड़ गयीं। परन्तु स्थपति (इंजीनियर) ने पुल बनाया और सेनाने उन्हें पार किया। आवर्त और किरात दो म्लेच्छ राजा अपने क्षेत्रपर आक्रमण होते हुए देखकर मेहमुखसे वर्षा करवाने लगे। उन्होंने एक दिन और रात वर्षा की। पुरोहितने भरतको सूचना दी कि सेना किस प्रकार संकट में है ! तब उसने सेनापतिको चक्ररत्नका उपयोग समूची सेनाके लिए छत्रके रूपमें करनेके लिए कहा। तब सेनाने आवतं और किरातपर आक्रमण किया। उन्होंने भरतकी अधीनता स्वीकार कर ली। इसके बाद भरत हिमवान् पर्वतको ओर मुड़ा, सिन्धु नदीके किनारे-किनारे; उसकी अधिष्ठात्री देवीने उन्हें पुष्पमाला समर्पित की।]
XV [उसके बाद भरत हिमवन्त पर्वतकी ओर गया । दूबपर बैठे हुए उसने उपवास किया, और पर्वतकी अधिष्ठात्री देवीके उद्यान में तीर छोड़ा। पहले उसने युद्ध करनेका इरादा किया उस योद्धाके साथ जिसने तीर छोड़ा था। परन्तु तीरपर भरतका नाम पढ़कर उसने उसका सम्मान करनेका निश्चय किया। वह आयी और भरतको उसने उपहार दिये । भरतने भी बदले में उसे कुछ उपहार दिये, और उसे अपने घर भेज दिया। आगे कूच करते हुए भरत वृषभ पर्वतके पास गया । उसने देखा कि पर्वतपर इतने नाम लिखे हुए हैं कि उसमें एक भी ऐसा स्थान नहीं है कि जहां वह अपना नाम लिख सके । किसी प्रकार उसने उसपर अपना नाम लिखा और इस प्रकार छह खण्ड धरतीको अपनी विजययात्रा पूरी की । देवोंने इस अवसरपर उसकी प्रशंसा की। फिर वह आगे हिमवन्त पर्वतके प्रत्यन्त प्रदेशपर चला और उचित समयपर गंगा किनारे आ गया। तब गंगा देवीने आकर उसका अभिषेक किया और सम्मानके प्रतीकस्वरूप उसे उपहार दिये । भरतने भी उसे उचित सम्मानके साथ उपहार देकर विदा किया। वह विजयार्धकी तमिस गुफाके निकट आया। उसने सेनापतिको आदेश दिया। उसने उसके द्वारपर पहलेकी तरह प्रहार किया। वहाँ वे छह माह रहे। वहाँका निवासी नृत्यमाली देव वहाँ आया, और भरतको कर दिया । गुफा फिर भी भरतको सम्भव नहीं हई। जब उसके मन्त्रियोंने बताया कि उसके मामा नमि और विनमि विजया पर्वतके स्वामीके रूपमें पर्वत श्रेणियोंपर रहते हैं और जबतक वे मार्गसे जानेकी अनुमति नहीं देते तबतक भरत आगे नहीं जा सकता। तब भरतने उनके पास सन्देशवाहक भेजा कि वे भरतको कर दें। यदि राजाके रूपमें न सही तो सम्बन्धीके रूपमें सही? दोनोंने यह स्वीकार कर लिया। उन्होंने राजा भरतके प्रति अपना आदर-भाव व्यक्त किया। कागणी मणिने प्रकाश उत्पन्न किया उसके सहारे उसकी सेना आगे बढ़ी। उसके बाद भरत कैलास पर्वतपर आया जहाँपर उसके पिता परमजिन ऋषभ तप कर रहे थे। उनके दर्शन कर उसने प्रार्थना की।]
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XVIII. ]
अंगरेजी टिप्पणियोंका हिन्दी अनुवाद
४७१
XVI
[ऋषभ जिनकी वन्दना करनेके बाद भरत कैलास पर्वतसे नीचे उतरा । उसने अयोध्याके लिए कूच किया; कई देशोंको पार कर वह अयोध्याके प्रवेशद्वारपर पहुँचा, उसके चक्रने अयोध्या में प्रवेश नहीं किया। पुरोहितने बताया कि चक्रने इसलिए प्रवेश नहीं किया क्योंकि तुम्हारा छोटा भाई बाहुबलि अभी तक नहीं जीता गया और इसलिए तुम्हारी विजय अधूरी है। बाहुबलि बहुत बलवान् है और सम्भवतः भरतको हरा सकता है। परन्तु वह शान्त है। और तुम्हारे दूसरे भाई भी तुम्हें कर नहीं देते । यह सुनकर भरत नाराज हुआ। उसने भाइयोंके पास दूत भेजे कि वे उसकी अधीनता स्वीकार कर लें। भाइयोंने यह स्वीकार करनेके बजाय कैलास पर्वतपर जाना उचित समझा। बाहुबलिने अधीनता स्वीकार न करते हुए लड़नेकी चुनौती दे डाली।]
XVII [भरतने घोषणा की कि यद्यपि वह बाहुबलिको नहीं मारता है क्योंकि यह पिताके प्रति अपराध होगा, फिर भी वह उसे हाथीकी तरह बेड़ियोंमें जकड़ देगा। भरत और बाहुबलिकी सेनाएं आमने-सामने आ खड़ी हुई, युद्धके नगाड़े बज उठे। बाहुबलिने अपने मन्त्रीसे कहा कि वह अपने स्थानसे एक भी कदम नहीं बढ़ेगा परन्तु भरतकी सेनाको प्रगतिको रोक देगा। जब दोनोंकी सेनाएं टकरानेको थीं, मन्त्रियोंने उन्हें रोक दिया क्योंकि इससे भयंकर विनाशकी सम्भावना थी। उन्होंने दोनोंसे द्वन्द्व युद्ध करनेको प्रार्थना की। युद्धके तीन प्रकार थे-दृष्टियुद्ध, जलयुद्ध और मल्लयुद्ध । दोनोंने इसे स्वीकार कर लिया। परन्तु सभी तीनों युद्धोंमें भरत बाहुबलिसे हार गया। जब भरतको बाहुबलिने उठा लिया तो उसने अपने चक्रका ध्यान किया जो शीघ्र बाहुबलिकी परिक्रमा कर उनके दायीं तरफ स्थित हो गया। बाहुबलिने अपने भाई भरतको जमीनपर उतार दिया।]
XVIII [भरतको अपने बाहुओंपर उठाते हुए बाहुबलिने उसे तीसरी बार पराजित किया। बाहुबलिने अनुभव किया कि उसने अपने बड़े भाईका अपमान किया है जो कि चक्रवर्ती है। इसलिए उसने भरतसे क्षमा मांगी और दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा प्रकट की। भरतने किसी भी प्रकार भाईका राज्य लेनेकी इच्छा नहीं की, खासकर तब जब उसे यह याद आया कि उसे सेनाके सामने पराजित किया गया है। इसलिए उसने बाहुबलिको राज्य देना चाहा और स्वयं सांसारिक जीवनसे संन्यास लेना चाहा। बाहुबलि इसके लिए तैयार नहीं था। मन्त्रियोंने हस्तक्षेप किया और बाहुबलिने अपने पुत्रोंको गद्दीपर बैठाया। वह कैलास पर्वतपर गया तपस्या करनेके लिए। उसने वहाँ एक वर्ष तप किया । भरत उससे मिलने और प्रशंसा करने आया । बाहुबलि तटस्थ रहे। वह उन योग्यताओंको सम्पादित करने में लगे रहे जो एक जैन मुनि अजित करता है। समय बीतनेपर बाहुबलिको केवलज्ञान प्राप्त हो गया इससे सभीको प्रसन्नता हुई। भरतको भी प्रसन्नता हुई कि उनका भाई केवली हो गया। इसके बाद भरतने छह खण्ड धरतीपर छह खण्ड राज्यका परिपालन किया।]
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________________ भारतीय ज्ञानपीठ उद्देश्य ज्ञान की विलुप्त, अनुपलब्ध और अप्रकाशित सामग्री का अनुसन्धान और प्रकाशन तथा लोक-हितकारी मौलिक साहित्य का निर्माण संस्थापक (स्व०) साहू शान्तिप्रसाद जैन (स्व०) श्रीमती रमा जैन अध्यक्ष मैनेजिंग ट्रस्टी साहू श्रेयांस प्रसाद जैन श्री अशोक कुमार जैन