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पुरोवाक
जैन पुराण साहित्यका श्रमण संस्कृतिमें वही महत्त्व है जो वैदिकोत्तर भारतीय संस्कृतिमें रामायण और महाभारतका। महापुराणमें श्रमण संस्कृतिके मूलाधार जैनोंके श्रेसठ-शलाका-पुरुषों के चरितोंका वर्णन है। 'प्रथम महापुराण' संस्कृतमें है तथा इसके दो भाग हैं, पहला आचार्य जिनसेन द्वारा रचित आदिपुराण और दूसरा उत्तरपुराण, जिसके रचयिता आचार्य गुणभद्र हैं, जो आचार्य जिनसेनके शिष्य है । आदि पुराण में जैनोंके प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथका वर्णन है। वे भोगमूलक समाज व्यवस्था (देव संस्कृति) के समाप्त होनेपर कर्ममूलक संस्कृति (मानव संस्कृति) के नियामक थे।
महाकवि पुष्पदन्तकृत महापुराण अपभ्रंश भाषामें है जो सभी आधुनिक भारतीय भाषाओंकी ऐतिहासिक कड़ी है । यह कृति काव्यानुभूतिके साथ जैन तत्त्वज्ञान और आचारशास्त्रकी प्रामाणिक जानकारी देती है तथा इसकी भाषा परिनिष्ठित है। इसकी शैलीका परवर्ती विकास हिन्दीकी दोहा चौपाईवाली लोकप्रिय शैली में देखा जा सकता है । इस ग्रन्थमें कर्ममूलक संस्कृतिका उद्भव इतने काव्यात्मक ढंगसे वणित है कि मैं निम्नलिखित शब्दोंको उद्धत करनेका लोभ संवरण नहीं कर पा रहा है
"सुरतरुवरविणासि सूच्छाया कम्मभूमिभूरुह संजाया।"
(2.14.9) [ कल्प वृक्षोंके नष्ट होनेपर सुन्दर छायावाले कर्मभूमिके वृक्ष उत्पन्न हो गये ]
महाकवि पुष्पदन्तके महापुराणका सम्पादन डॉ. प. ल. वैद्यने तीन खण्डोंमें ( 1939-1942 के बीच प्रकाशित ) किया था। यह आश्चर्यकी बात है कि अभीतक इस साहित्यक और सांस्कृतिक महत्त्वके ग्रन्थका अनुवाद किसी भारतीय भाषामें नहीं हुआ। यह हर्षकी बात है कि हिन्दी साहित्यके जाने-माने विद्वान डॉ. देवेन्द्रकुमार जैनने इसका हिन्दी में अनुवाद किया है। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा सात खण्डोंमें प्रकाशित होनेवाले इस महत्त्वपूर्ण और गुरुतर कार्यका यह प्रथम खण्ड है। मुझे आशा और विश्वास है कि पाठक इसका स्वागत करेंगे तथा इसके द्वारा हिन्दी साहित्यमें शोधके नये क्षितिज खुलेंगे और राष्ट्रीय एकताको प्रोत्साहन मिलेगा।
3-3-1979
देवेन्द्र शर्मा कुलपति, इन्दौर विश्वविद्यालय इन्दौर एवं भूतपूर्व कुलपति, गोरखपुर विश्वविद्यालय
गोरखपुर
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