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३. १४. २६ ]
हिन्दी अनुवाद घत्ता-चम्पककी वाससे मिश्रित सुन्दर मन्दराचल शिखरपर स्थित जिन ऐसे मालूम हुए मानो शाश्वत सुखवाला मोक्ष त्रिलोकके ऊपर स्थित हो ॥१३।।
इतनेमें तूर्यवादक देवोंके द्वारा भेरी, झल्लरी, मृदंग, शंख, ताल और कोलाहल आदि वाद्य बजा दिये गये। अपने हाथ-पैर आकुंचित करते हुए वामन और कुबड़े नाचने लगे। आये हुए भूत, यक्ष, किन्नरों, विद्याधरों, राक्षसों, सैकड़ों नाग-नागिनियोंके द्वारा अनुरागसे भरकर निरन्तर आकाश गंजा दिया गया। बालहंसके समान चलनेवाली इन्द्र और चन्द्रकी महिलाओंके द्वारा मंगल गीत गाये गये । दर्भ, दूब, अपूप, बीज और मिट्टीके कणोंसे निर्मल मंगल रचे गये। ऊपर बंधे हुए चिकने और सुन्दर कपड़ेके मण्डपमें, चमकते हुए मोतियोंसे अलंकृत कर लोक-सन्तापकी कारणरूप कुत्सित इच्छाओंको छोड़कर, चतुर इन्द्रने आदरपूर्वक शासन-देवोंको आह्वान कर और सन्तुष्ट कर, गन्ध, धूप, फूल, दीप, जल, तन्दुल और अन्न आदि यज्ञांशोंको रखकर, इन्द्र, अग्नि, यम, नेऋत्य, अर्णव, पवन, कुबेर और ईशान दिग्पालोंकी अर्चना कर, मन्त्रपूर्वक जिनआगममें प्रतिपादित सुखद विधिका आश्रय लेकर, हे देव जियो, प्रसन्न होओ, बढ़ो, हे सिद्ध बुद्ध शुद्धाचरणवाले स्वामिश्रेष्ठ, यह कहकर दोहों, बोधकों, स्कंधकों, चित्रवृत्तोंवाली स्तुतियोंसे मानकर, मन्दराचलको छूनेवाली, तथा क्षीरसमुद्र तक फैली हुई, आकाशका अतिक्रमण करती हुई, दौड़ती हुई, ठहरती हुई, जाती हुई, आती हुई, बंधी हुई देवपंक्तिके द्वारा हार, दोर, स्वर्ण, करधनी, यज्ञोपवीत, कंगनपंक्ति और कुण्डल आभूषणोंसे अलंकृत, आसनोंपर स्थित सम्यक् अभिलाषा रखनेवाले, आठ योजन लम्बे और एक योजन विस्तृत मेघपटलको नष्ट करनेवाले, लो यह कहते हुए, प्रथम और द्वितीय स्वर्गके देवेन्द्रोंके द्वारा हाथसे दिये गये, जिनसे जलकी बूंदें गिर रही हैं, ऐसे चन्दनसे चचित, पुष्पमालाओंसे वेष्टित, जो मानो जलसे भरे मेघोंके समान हैं ऐसे एक दूसरेके द्वारा ले जाये गये, कमल पत्रोंसे ढके हुए स्वर्ण कलशोंसे, काम, क्रोध, मोह, लोभ, मान, दम्भ और चपलतासे रहित, पापसे दूर महान् आदिदेव ( ऋषभ ) को अभिषिक्त किया गया, पुनः पूजा गया, नमन किया गया, सराहा गया और प्रसाधित किया गया।
पत्ता-जो जिनेन्द्र ज्ञानविशुद्ध स्वयं बुद्ध हैं, उन स्नातको-समुद्रको जलस्नान कराता है। भक्त लोक सूर्यको दीपक दिखाता है ।।१४।।
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