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________________ २. १२.१०] हिन्दी अनुवाद घत्ता-इन तेरह कुलकरोंके बाद, अपने बाहुओंसे भुवनभारको उठानेवाले नरोंसे संस्तुत महान् कुलकर नाभि राजा हुए, जो मानो जीवलोकके लिए धुरीके समान थे ॥१०॥ आकाशतलमें जाते हुए जो आदमीके द्वारा नहीं जाने जाते थे, पहले कुलकरने उन्हें सूर्य और चन्द्रमा कहा । और भी जो ज्योतिरंग कल्पवृक्षोंके नष्ट हो जानेपर बिन्दुओं-बिन्दुओंपर स्थित दिखाई देने लगे। दूसरे कुलकरने ( सन्मतिने ) भी लोकके लिए उत्पातस्वरूप दिन-रात और नक्षत्रोंका कथन किया। और अब जो भयंकर पशु उत्पन्न हुए, तो तीसरेने उनके पशुस्वरूपका वर्णन किया। सींगों, नखों और दाढ़ोंवाले पशुओंको छोड़ दिया और जो सौम्य और सुलक्षण थे, उन्हें अपने पास रख लिया। चौथे कुलकरने भी उपेक्षा नहीं की तथा पशुओंके द्वारा खाये जाते हुए लोककी रक्षा की। पांचवेंने दृढ़ दण्डोंके प्रहारों और अनेक बुद्धिप्रकारोंसे उन्हें प्रताड़ित कलकर सीमन्धरने विगलित फलवाले वक्षोंको मर्यादायक्त अपनी आज्ञासे सीधे सुनिबद्ध किया। वृक्षोंके उस अभावकालमें नष्ट होते हुए, तथा फलोंके लोभ और क्रोधसे झगड़ते हुए लोगोंको आग्रहके साथ मना किया। पत्ता-सातवें श्रेष्ठ कुलकरने भी अपनी बुद्धिके वैभवसे विचार किया तथा जीन कसकर अश्व, गज एवं श्रेष्ठ बेलोंपर भार लादना सिखाया ॥११॥ १२ आठवेंने सुन्दर उपदेश दिया और बच्चेके देखनेके डरको दूर कर दिया ( उसके पूर्व पिता पुत्रका मुख और आँखें देखे बिना मर जाते थे)। नौवें कुलकर यशस्वीने पुत्रके मुखरूपी चन्द्रमाको देखना बताया । उसे देखकर लोग अपने मनमें प्रसन्न हुए। लेकिन बालक एक क्षण जीवित रहकर मर गया। दसवें कुलकर अमिचन्द ( अमृतचन्द्र ) ने सुकुमार बालकोंकी क्रीड़ा दिखलायी। ग्यारहवें कुलकर चन्द्राभके होनेपर मानवसमूहके पुत्र उत्पन्न होने लगे। लेकिन कुछ दिनोंके बाद उनका जीव नहीं बचता, बारहवें कुलकर मरुदेवके होनेपर वे जीवित रहने लगे और प्रजा पुत्रादिसे संयुक्त होकर आनन्दसे रहने लगी। तेरहवें कुलकर प्रसेनजित्ने उनकी आजीविकाकी चिन्ता की। उसने समद्र-नदियोंके लिए जलयान बनाये। आकाशको छनेवाले पहाड़ोंपर सोपान बनाये गये। उन्हींके समय उत्पाती नदियों और समुद्रोंमें निश्चित मार्ग बनाये गये तथा पहाड़ोंमें दुर्ग रचे गये। पत्ता-चौदहवें कुलकर नाभिराजके उत्पन्न होनेपर मानव-शिशुओंके नाल काटे जाने लगे, और सुन्दर बिजलियोंसे अलंकृत काले बादल आकाशरूपी आंगनमें स्थित हो गये ॥१२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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