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________________ ९.८.१७] हिन्दी अनुवाद जिसके अब्रह्मचर्य, आरम्भ और परिग्रह है और जिससे कभी इन्द्रिय निग्रह नहीं सटता, धर्मका आभास देनेवाला पाप जिसे अच्छा लगता है, और भी दूसरे अज्ञानियोंसे कराता है, किसी मिथ्यामार्गमें प्रविष्ट हुए उसे ऋषीश्वरोंने कुत्सित पात्र कहा है। शील और सम्यक्त्वसे रहित अपात्र होता है, यह बात मैंने स्वयं देख ली है। नौ, पांच और सात तत्त्वोंका श्रद्धान करता हुआ, जिनेश्वरके द्वारा उक्त पदार्थों में विश्वास करता है, परन्तु जिसने थोड़ेसे भी थोड़े व्रतका पालन नहीं किया मैंने उसे जघन्य पात्रके रूपमें देखा है। मध्यम पात्र एकदेश चारित्रसे शोभित होता है, और सम्यक् दर्शनमें कहीं भी शंका नहीं करता, जो दर्प सहित कामदेवको उखाड़नेवाले ज्ञान-दर्शन और चारित्र्यके विकल्पों, शाश्वत सुखका संचय करनेवाले चौरासी लाख शीलगुणोंसे भूषित हैं ऐसे इन उत्तम पात्रको प्रणाम करना चाहिए, इसके लिए प्राशुक भोजन देना चाहिए। पत्ता-कुपात्र को दिया गया दान कुभोग देता है। और अपात्रमें दिया गया दान नष्ट हो जाता है, परन्तु पात्रको दान देनेसे तीन प्रकारका फल होता है, यह सुन्दर कहा जाता है ।।७।। मध्यमसे मध्यम, अधमसे अधम फल जानना चाहिए। उत्तम दानसे उत्तम भोग होता है। निर्लोभता, त्याग और भक्ति, क्षमा, विज्ञान और शुद्ध भक्ति इन गुणोंसे युक्त दाता ( श्रेयांस ) मध्याह्न (दुपहर) में द्वार देखता है। हाथ जोड़े हुए, अत्यन्त अप्रमादी, तीन प्रकारके पात्रोंको चित्तमें सोचते हुए, गुणवान्, परलोकासक्त वह वहां स्थित है, और आंगनमें आये हुए उन्हें पड़गाहता है, 'ठहरिए' यह कहकर प्रणत शिर वह बोलता है, और गौरवपूर्ण उच्च स्थानमें उन्हें ठहराता है, वह स्तुति करता है, “सन्तोंसे लोक धन्य है।" चरण धोना, अर्चा और फिर प्रणमन करता है । मन-वचन और कायकी शुद्धिसे शुद्धासन देता है। जिनेन्द्रके शासनकी याद करता हुआ अभयदानके साथ औषधि और शास्त्र देता है, अपने जीवनको चल और लघु मानकर । बहिरों, अन्धों, गूगों, अस्पष्ट बोलनेवालों, काने, बेकार, उद्यमहीनों और व्याधिग्रस्त दीनोंके लिए, गणनीय उसने सर्वप्राणियोंके हितके कारणभूत कारुण्यसे भोजन और वस्त्र दिये। परहिंसक और पापिष्ठोंको छोड़कर जो गृहस्थ अपने धनके अनुसार सोच-विचारकर दान नहीं करता, वह घर बनानेवाली उस गौरैयाके समान है जो अपने बच्चे और अपना पेट पालती है और यह नहीं जानती ' कि मरकर कहाँ जायेगी। घत्ता-जो मनुष्य धर्महीन है वहाँ उपेक्षा करनी चाहिए, जो दुस्थित हैं, उनमें अनुकम्पा करनी चाहिए और गुणवानोंको प्रणाम करना चाहिए ॥८॥ २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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