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________________ १०. १२.२] हिन्दी अनुवाद २३१ गिरितल देव, विमान आठ प्रकारको भूमियोंमें नाना प्रकारके समुद्रों, नदियों, सरोवरों, जिनवर-भूमियोंमें और भी दूसरे-दूसरे क्षेत्रोंमें लोकान्त तक स्थित आकाशतलमें, अति सरस रस और जलके आशयोंमें इनका एक क्रमसे निवास होता है। बालुका ( रेत ) खरजलसे भी नहीं भिदती, और जो कोमल मिट्टी सींचनेपर जल्दी बंध जाती है। इस प्रकार दो प्रकारको मिट्टी पांच रंगकी होती है, और दूसरेसे मिलनेपर दूसरे रंगकी हो जाती है। पत्ता-काली, लाल, हरी, पीली, सफेद और भी धूसरित ( मटमैली)। इस प्रकार पांच पृथ्वीकायकी मृदु धरतीके पांच रंगोंका मैंने कथन किया ॥१०॥ स्वर्ण, ताम्र, मणि और चांदी आदि खर पृथ्वियां कही जाती हैं। वारुणी, क्षीर, खार, घृत, मधु आदि जल जातियाँ कही जाती हैं। वज्र, बिजली, सूर्य और मणिको दूरसे धूम्रका प्रदर्शन करनेवाली आग समझो। उत्कलि (तिरछी बहनेवाली वायु ), मण्डली (गोलाकार बहनेवाली वायु), गुंजा (गूंजनेवाली वायु), इस प्रकार दिशा-विदिशाके भेदसे वायु कई प्रकारकी होती है। गुच्छों, गुल्मों, लताशरीरों, पर्वोमें, वृक्ष शाखाओं आदिमें शुद्ध वनस्पतिकाय जीव उत्पन्न होते हैं, दुनियामें ऐसा यतिवर कहते हैं। ये पर्याप्तकसे भिन्न और सूक्ष्मसे भिन्न होते हैं। कोई वनस्पतिकायिक जीव साधारण और प्रत्येक भी होते हैं। साधारण प्रकारके वनस्पतिकायिक जीवोंके श्वासोछ्वास और आहारण होते हैं ( प्राण )। प्रत्येकसे उत्पन्न प्रत्येक उत्पन्न होते हैं जो छेदनभेदन और निधनको प्राप्त होते हैं। सूक्ष्म पृथ्यीकायिक जीवोंकी दस हजार; खर पृथ्वीकायिक जीवोंकी बीस हजार वर्ष आयु है। जलकायिक जीवोंकी आयु सात हजार वर्ष, अग्निकायिक जीवोंको तीन दिन, वायुकायिक जीवोंकी तीन हजार वर्ष, वनस्पतिकायिक जीवोंकी दस हजार वर्ष आयु होती है। यह परम आयु कही गयी। अत्यन्त निकृष्ट या जघन्य आयु सब जीवोंकी अन्तर्मुहूर्त मात्र कही गयी है। गण्डूपद, कुक्षी, कृमि, शम्बूक, शंख आदि दो इन्द्रिय जीवोंको मैंने असंख्य कहा है। तीन इन्द्रिय वीरबहूटी, पिपीलिका आदि, चार इन्द्रिय जीव मच्छर और भ्रमर इत्यादि। पत्ता-परम्परासे इनमें युक्तिसे कुछ भी ज्ञानचेतना उत्पन्न होती है। रस, गन्ध, स्पर्श और दृष्टि इनमें से एक्त-एक इन्द्रियपर चढ़ती है ॥११॥ १२ दो इन्द्रिय जीवके पर्याप्तक अवस्थामें छह प्राण होते हैं, तीन इन्द्रिय जीवके पर्याप्तक अवस्थामें सात प्राण होते हैं और अपर्याप्तक अवस्थामें पांच प्राण होते हैं, चार इन्द्रिय जीवके पर्याप्तक अवस्थामें आठ प्राण होते हैं, और अपर्याप्तक अवस्थामें छह प्राण होते हैं। उनके लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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