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________________ ३७ २. १४.८] हिन्दी अनुवाद १३ जिसमें विष यमुना और कालके समान ( काले ) नवमेघोंने आकाशके मध्यभागको ढंक लिया था, जो गजोंके हिलते हुए गण्डस्थलोंसे उड़ाये गये भ्रमरसमूहके समान था, जिसने अविरल मूसलाधार धारावाहिक वर्षासे भूतलको भर दिया था, जो सूर्यको किरणोंके प्रतापको नष्ट करनेवाला, निकलते हुए वृक्षों और तृणोंके समान नीले पत्रोंसे नीला और हरा-भरा था, तथा वज्र और बिजलियोंके पतनसे ध्वस्त पर्वतपर गरजते हुए सिंहोंसे भयंकर था, जिसमें नाचते हुए मतवाले मयूरोंके सुन्दर शब्दसे समस्त कानन गूंज उठा था, जिसमें पहाड़की नदियों और घाटियोंमें बहते हुए जलोंके स्वरोंसे भयभीत वानर शब्द कर रहे थे, जो धरतीमें फैले हुए और मिले हुए डंडुह ( निविष सांप), सर्पो और मेढकोंको पोषण देनेवाला था, जो कीचड़की कोटरों और गड्ढोंमें रखे हुए मृगशावकोंका वध करनेवाला था, जिसमें खिले हुए नवकदम्बके कुसुमोंसे निकली हई धुलसे दिशापथ पोले थे, इन्द्रधनुषके तोरणोंसे अलंकृत मेघरूपी गजोसे, जिसमें आकाशरूपी घर भरा हुआ था। बिलोंके मुखपर पड़ते हुए जलप्रवाहोंसे, जिसमें विषैले विषधर क्रुद्ध हो रहे थे। जिसमें पिउ-पिउ-पिउ बोलते हुए पपीहोंके द्वारा जलकी बूंदें मांगी जा रही थीं। सरोवरोंके किनारोंपर उल्लसित होती हुईं हंसावलीकी ध्वनियोंके कोलाहलसे जो युक्त था। जो चम्पक, आम्र, चार, चव, चन्दन और चिचिणी वृक्षोंके प्राणोंका सिंचन करनेवाला था, ऐसा पावस जिस कुलकरके समय जगत्में शीघ्र बरस गया। धरती मूग, कुलत्थ, कंगु, जौ, कलम ( सुगन्धित धान्य ), तिल, अलसी, ब्रोहि और उड़दसे युक्त हो उठी। जिसपर फलके भारसे झुकी हई बालोंके कणोंके लालची हजारों शक गिर रहे हैं. जिससे भोगभमिके कल्पवक्ष विदा हो चके हैं. और जो (भूमि ) राजाको लक्ष्मीको सखी है, ऐसी वह भूमि विविध धान्यों, वृक्षों और लतागुल्मोंसे प्रसाधित हो उठी। घत्ता-उस भूमिको देखकर, जनपद अहंकार छोड़कर शीघ्र ही वहां चला, जहां लक्ष्मीके स्तनोंसे सटा है वक्षःस्थल जिसका, ऐसा नाभिनरेन्द्र विराजमान था ॥१३॥ जनोंने कहा-"यह तड़-तड़ करके क्या गिरता है, जो धरतीको फोड़ रहा है ? अत्यन्त चमकता हुआ यह लोगोंको डराता है। वक्र यह हरा और लाल क्या दिखाई देता है ? हे देव, हे देव, यह क्या गरजता और बरसता है ? गत कल्पवृक्ष जहाँपर स्थित थे, इस समय वहांपर दूसरे वृक्ष उग आये हैं। और दानोंसे भरे हुए पौधे निष्पन्न हुए हैं जो नित्य ही पक्षियों और पशुओंके द्वारा चुगे जाते हैं। उपायको नहीं जाननेवाले हम लोग जड़ हैं और लम्बी भूखके क्लेशसे दुःखी हैं। उनमें खाने योग्य और न खाने योग्य क्या होगा।" यह सुनकर राजा घोषणा करता है, “जो गरजता हुआ बरसता है। वह नवधन है, जो टेढ़ा दिखाई देता है वह इन्द्रधनुष है । जो चलती है और पहाड़को नष्ट कर देती है, वह बिजली है। कल्पवृक्षोंके नष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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