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९.२.३३]
हिन्दी अनुवाद
योगको छोड़कर सिद्धार्थ नामक उस वनसे परमेष्ठी ऋषभनाथ विहार करते हैं। चार हाथ धरतीपर गजदृष्टिसे देखते हुए पैर रखते हैं, जीवोंको नहीं कुचलते। रमणीय नगरों और ग्रामोंमें उन्हें विनय और नयसे भरे हुए नागरिक प्रणाम करते हैं। ग्रामीण अद्भुत रसमें लीन होकर उन्हें देखते हैं, भयसे कांप उठते हैं। दूसरे कहते हैं-"यह महाराज हैं, यह महादेव हैं। इन्होंने धन, स्वर्ण और धान्य दिया है, मण्डलों और महीतलोंको बहुफलोंसे युक्त किया है। इनकी प्रवत्ति सहसा उद्धार करती है।" यह सोचकर आर्द्र (ताजे) विविध फलदलों, भ्रमरोंसे अत्यधिक अभिराम नवकुसुम-मालाओं, कुंकुम, चन्दन, भाजन-भोजन, सुरभित चावल, भिंगारकोंमें उत्तम जलोंको अपने सिरोंपर लेकर, रास्तेमें खड़े होकर स्वामीको उक्त चीजें देते हैं, वे अज्ञानी नहीं जानते । दूसरे प्रशस्त देवांग वस्त्र, कटिसूत्र, केयूर, मणिहार, मंजीर, कंगन, कुण्डल, ( मानो सूर्यमण्डल हों) पापसे रहित देवके लिए लाते हैं, दूसरे लोग कुलीन कृशोदरी ( मध्यमें क्षीण ), लावण्यसे परिपूर्ण कन्याओंको भेटमें देते हैं, नर-रथ-तुरंग और गजोंके समूह, पैने प्रहरण, उपवन, नगर, वाद्योंसे युक्त चमर और आतपत्र (छत्र), चन्द्रमा और शंखोंके समान सफेद ध्वज और प्रासाद दूसरे देते हैं, और दूसरे देते हैं, “कामदेवरूपी मृगके आखेटक, ज्ञानरूपी जलके प्रवाह,
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