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________________ ४० महापुराण अपनी आत्माको मोहको कीचड़में क्यों सानते हो ? तुम्हें वाणीरूपी कामधेनु सिद्ध है उससे नवरसरूपी दूष क्यों नहीं दुहते ?" कविका उत्तर है - "यह कलियुग पापोंसे मलिन और विपरीत है; निर्दय, निर्गुण और अन्यायकारी, इसमें जो-जो दिखाई देता है, वह अन्यायजनक है। सूखे हुए वनकी तरह, फलहीन और नीरस । दुनियाके लोगों का राग ( स्नेह ) सन्ध्याकालके रागके समान है, मेरा मन घनमें प्रवृत्त नहीं होता भीतर अतिशय उद्वेग बढ़ रहा है, एक-एक पदकी रचना करना भारी जान पड़ता है । फिर में जो कुछ कहूँगा उसमें दोष ढूँढ़ा जायेगा; मैं यह नहीं समझ पाता कि यह दुनिया सज्जनोंके प्रति खिची-खिची क्यों रहती है ? उसी तरह कि जिस तरह धनुष पर चढ़ी हुई डोरी ।" कवि के इस उत्तरसे उसकी उदासीका कारण छिपा नहीं रहता । पैसा कमाना जिसके सृजनका उद्देश्य न हो, और जो स्वार्थजन्य क्षुद्र कुटिलताओंसे घृणा करता हो, उसके लिए सृजनका एकमात्र उद्देश्य आत्माको शान्ति और मनकी पवित्रता ही हो सकती थी । वह कहता है मज्झु कइतणु जिणपयभत्तिहि पसरइ णउणिय जीविय-वित्तिहि ॥ कवि मन्त्री भरतसे कहता है कि मैं अकारण स्नेहका भूखा हूँ, है । क्या इसका अर्थ यह निकाला जाये कि कविकी उदासीका कारण तक पहुँचते-पहुँचते उसे भरतसे वह अकारण स्नेह नहीं मिल रहा था दायित्व अपने ऊपर लिया था । दुर्जन- निन्दा में कविको दुर्जनोंसे जितनी चिढ़ थी उतनी शायद ही किसी दूसरे कविको रही हो ! इक्यासवीं सन्धि वह फिर दुर्जनोंको आड़े हाथों लेता है, परन्तु अबकी बार उसकी मुद्रा भिन्न है । इसका कारण सम्भवतः यह है कि अबतक अपने कविकर्ममें उसे काफी यश मिल चुका था । वह लिखता है "मैं काव्यका रचयिता और पण्डित हूँ, अनेक सुजनोंका प्यारा । परन्तु दुष्टका स्वभाव ही दूसरोंके दोषों को ग्रहण करना है । इसलिए मैं उसका प्रतिकार नहीं करता । मेरा काम काव्य करना है, दुर्जनका काम निन्दा करना । वह अपना काम करे, मैं अपना काम करूं । दोनोंका नतीजा पण्डित ही जानेंगे । मेरी विमलकीर्ति अपने कोमल और सरस पद दुष्टोंके गलों और कपोलोंपर रखती हुई तीनों लोकोंमें विचरण करेगी । " 81 / 12 । आत्मविनय गर्वोक्तियोंके बावजूद कविमें गहरी आत्मविनय थी । वह लिखता है - " मैं निर्दय और पापकर्मा हूँ, आज भी मैं कुछ भी धर्म नहीं जानता । मेरा विवेक मिथ्यात्व के सौन्दर्यसे रंजित है, मैं जिनवर के वचनोंसे अपरिचित हूँ । अभी तक में ऐसे कथान्तरोंकी रचना करता रहा हूँ जो शृंगार-चेतनासे निरन्तर भरपूर थे, पर लो मैं अब महापुराणकी रवना करता हूँ । लो मैं अपने हाथोंसे सूर्यको ढक रहा हूँ । लो मैं समुद्रको कलशसे उलीच रहा हूँ ।" Jain Education International इसी कारण वह उसके घरमें रहा शायद यह था कि सैंतीसवीं सन्धि जिसके लिए उसने यह महान् उत्तर प्राचीन परम्पराका उल्लेख करते हुए वह कहता है- "मन्त्री भरतने मुझसे इस काव्य की रचना करवायी । यद्यपि मैं पण्डित नहीं हूँ, व्याकरण, छन्द और देशी नहीं जानता, जो कथा विश्ववन्द्य आचार्यों द्वारा सम्मानित है उसे मैं किस प्रकार प्रारम्भ करूँ ? मैं अकलंक कणचर, कपिल, वेदपाठी, सुगत और चार्वाक के अभिप्रायों नहीं जानता । मैंने पातंजलके महाभाष्यके जलको नहीं पिया । मैं अत्यन्त पवित्र इतिहास और For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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