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प्रस्तावना
अपभ्रंश कवि पुष्पदन्त और उनका नाभेयचरिउ मान्यखेटका उद्यान
पुष्पदन्त-अपभ्रंशके ही नहीं अपितु भारतके महान् कवियों में से एक है। कल्पना कीजिए दसवीं सदी के मध्योत्तर कालकी। एक व्यक्ति लम्बा रास्ता पार कर, राष्ट्रकूट राजाओंकी राजधानी 'मान्यखेट'के उद्यानमें पहुँचता है। वह थका हुआ है और चाहता है कि विश्राम कर ले। इतने में दो आदमी आते हैं और कविसे कहते हैं कि आप नगरमें चलकर विश्राम करें। सम्भ्रान्त व्यक्तियोंका यह अनुरोध आगमें घीका काम करता है । कवि आगबबूला होकर कहता है-“पहाड़की गुफामें घास खा लेना अच्छा परन्तु दुर्जनोंके बीच रहना अच्छा नहीं । यह अच्छा है कि आदमी मांकी कोखसे जन्म लेते ही मर जाये, परन्तु यह अच्छा नहीं कि सवेरे-सवेरे वह किसी दुष्ट राजा का मुख देखे।" अनुरोध करनेवाले व्यक्ति जिद्दो है और वे कविको मन्त्री भरतके पास ले जाने में सफल हो जाते हैं। यह व्यक्ति ही, अपभ्रंशके महाकवि पुष्पदन्त हैं। भरत और पुष्पदन्त
__ मन्त्री भरत कविके स्वभाव और पूर्व इतिहाससे परिचित है। वह अत्यन्त नम्रतासे कहता है"हे कविवर, तुम्हारा नाम चन्द्रमासे लिखित है ( यशस्वी है ), तुमने वीर शैव राजाको प्रशंसामें काव्य लिखकर मिथ्यात्वका जो बन्ध किया है, वह तभी मिट सकता है कि जब तुम प्रायश्चित्त करो । तुम भव्यजनों के लिए देवकल्प हो, अतः आदिनाथके चरितभारको काव्य-निबद्ध करनेके लिए अपने कन्धोंका सहारा दो। वाणी कितनी ही अलंकृत, सुन्दर और गम्भीर हो, वह तभी सार्थक है कि जब उसमें कामदेवका संहार करनेवाले प्रथम जिन ऋषभके चरितका वर्णन किया जाये ।" उदासी
कवि भरतका अनुरोध टाल तो नहीं पाता, लेकिन वह जानता है कि उस-जैसे अत्यन्त भावुक सांसारिक क्षुद्रताओंके कटु आलोचक और फक्कड़ व्यक्तिके लिए इसका निर्वाह करना कितना कठिन है ? वह जब महापुराणकी सैंतीस सन्धियां पूरी कर चुकता है तो उसका मन अचानक उचाट हो आता है, अकारण एक गहरी उदासी उसे कई दिनों तक घेरे रहती है। कविके अनुसार सरस्वतीके हस्तक्षेप करनेपर ही उसकी यह उदासी टूटती है। कविके शब्दोंमें- "किसी कारण मनमें कुछ असुन्दर घटित हो जानेपर यह महाकवि कई दिनों तक उदास रहता है । एक रात सपने में सरस्वती उससे कहती है-"कवि, तुम पुण्य वृक्षके लिए मेधके समान हो, तुम अरहन्तको नमस्कार करो," वह मुड़कर देखता है, तो वहाँ पूर्णचन्द्रमाके प्रकाशके सिवाय कुछ नहीं था। वह चारों ओर देखता है, परन्तु उसे कुछ भी नहीं दिखाई दिया। यह देखकर कवि विस्मित है, और अपने कक्ष में चुपचाप उधेड़-बुनमें है। इतने में मन्त्री भरत आता है और कविसे कहता है-“कविवर, तुम उदास क्यों हो ? क्या तुम्हें प्रेत लग गया है ? काव्य सृजनमें अपना मन क्यों नहीं लगाते ? क्या मुझसे कोई अपराध हो गया है, या किसीने तुमसे भला-बुरा कह दिया है ? तुम जो-जो कहोगे वह सब मैं करूँगा। और जबतक तुम कुछ नहीं कहते तबतक मैं हाथ जोड़कर यहीं बैठा रहूँगा। तुम अस्थिर और असार जीवनमूल्यों के लिए
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