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________________ ९. १४.५] हिन्दी अनुवाद १९९ ऋजु और वक्र हृदयके द्वारा विचारित अर्थको जाननेवाला चौथा ज्ञान स्वामीको प्राप्त हो गया। वे पचीस व्रतोंकी भावना करते हैं, तीन गुप्तियोंसे अपनी रक्षा करते हैं, वे ईर्यादान करते हैं और कुछ निक्षेपण करते हैं और कृत-सुकृतकी आलोचना करते हैं। रोष, लोभ, भय और हासका नाश करते हैं, संगका त्याग करते हैं, सूत्रोंकी व्याख्या करते हैं, मित योग्य और अनुज्ञात भोजन हाथमें ग्रहण करते हैं, और सन्तोष मानते हैं। नारियोंकी कथा दर्शन और संसर्ग तथा पूर्वरतिके रंगसे निवृत्ति करते हैं, कहीं भी अत्यन्त निर्विकार आहार ग्रहण करते हैं, और गुणोंसे युक्त ब्रह्मचर्य धारण करते हैं। ___घत्ता-इन्द्रियरूपी खलोंको मिलनेपर परमयोगी उन्हें ध्यानमें मिलाते हैं, और क्षुब्ध होते हुए मनरूपी बालकको ज्ञानसे खिलाते हैं ॥१२॥ १३ हे चित्तरूपी बालक, तू नारीरूपमें रमण मत कर। रमण करके तू शीघ्र ही मोहकपमें पड़ेगा कि जो ( मोहरूप या नारीरूप ) जड़ और चेतन वस्तुओंके भेदके आश्रयरूप, इन्द्रियोंका पोषण करनेवाला तथा विरसताका घर है। जिनके व्रतोंकी अग्नि, संयमकी वायुसे वृद्धिको प्राप्त हुई है, जो परिषहोंसे रहित हैं, तामस भावसे दूर हैं, और स्पृहासे शून्य हैं, जिन्होंने दर्शन, ज्ञान, चरित्र और तपको पुष्ट किया है और जो पांच प्रकारके आचार हैं, उन्हें प्रेरित किया है। इन आचारोंसे आदरणीय जिन प्रतिदिन बढ़ते हैं और हृदयसे तीन प्रकारकी शल्योंको दूर करते हैं; अनशन, वृत्तिसंख्या, अवमौदर्य, रसपरित्याग, त्रिकालयोगका आदर इस प्रकार वह बारह प्रकारके कठोर तपका आचरण करते हैं, जो अन्तरंग चित्तशुद्धिका कारण है। वैयावृत्त्य, विनय, सद्ध्यान, कायोत्सर्ग और प्रायश्चित-नियोजन इस प्रकार आभ्यन्तर तपमें आत्माको युक्त करते हैं। चार प्रकार धर्मध्यान करते हैं,। शब्दोच्चरणसे रहित, आज्ञाविचय (द्वादशांग आगमोंका हृदयमें चिन्तन ) और फिर महार्थक अपायविचय (मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्रादिसे जीवकी रक्षाका उपाय हो, इस प्रकारका चिन्तन ); और भी वह विपाकविचयका विस्तार करते हैं। (कमविपाकका चिन्तन करना) और वह लोक संस्थान ( लोककी संस्थितिका चिन्तन ) की अवधारणा करते हैं। घत्ता-इस प्रकार सिद्धिरूपी वरांगनामें अनुरक्त प्रभु धरतीके अग्रभागपर विहार करते हुए एक हजार वर्षमें पुरिमतालपुर पहुंचे ॥१३॥ उन्होंने लवंग-लवली लतागृहों और भ्रमरोंसे युक्त प्रियाल, मालूर, साय और सालवृक्षोंसे युक्त वन देखा, जो प्रिय मानुषकी तरह, विडंगने पथ्यों (विडंग वृक्षोंरूपी आभरणोंसे; विटों (कामुकों) के अंगोंके आभरणों) से आच्छादित था, जो नित्य अशोक और कांचन वृक्षोंसे ( प्रिय मानुष पक्षमें, शोक रहित और कंचनसे युक्त) था, जो बन्धु-पुत्रोंके जीवनसे (वन पक्षमें वृक्ष विशेष) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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