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________________ ६. ५. १२ ] हिन्दी अनुवाद १२१ चारित्र्य भी नष्ट हो गये हैं, आचार, पाँच महाव्रत, अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत भी नष्ट हो चुके हैं । अन्त भगवान् के द्वारा कहा गया नौ पदार्थोंसे युक्त अनादि सिद्धान्त आज प्रकाश नहीं पा रहा है - यह सोचकर इन्द्रने यह जान लिया और अवधिज्ञानसे प्रमाणित कर लिया कि स्वामीको आज भी चारित्रावरणी कर्मका उदय है, उसके शान्त होनेपर ये निश्चित रूपसे तप ग्रहण करेंगे । यदि पूर्ण आयुवाली नीलंजसा ( नीलांजना ) नाट्य करती है और उनके सामने निर्जीव होकर गिर पड़ती है तो यह उनके वैराग्यका कारण होगा, और इससे दो प्रकार संयमका उद्धार होगा । लोगों में जिनधर्मका प्रवर्तन होगा - इस प्रकार अपने मनमें बार-बार विचारकर । घत्ता - रतिकी अधीन मृगनयनी नीलंजसाको इन्द्रने कहा - "तुम जाओ और अनिन्द्य जिनेन्द्र के चरणकमलोंके दर्शन कर उनके सामने नृत्य करो” ॥४॥ तब ऊँचे स्तनोंवाली इन्द्रकी रमणी ( नीलांजना ) रत्ननिर्मित घरोंवाली अयोध्या नगरी पहुँची । कृशोदरी वह आकाश मागंसे इस प्रकार आयी जैसे चंचल चमकती हुई बिजली हो । गान प्रारम्भ करनेवाले देवोंसे घिरी हुई वह नाभेय ( ऋषभनाथ ) के घर अवतरित हुई । प्रणाम कर उसने प्रभुकी सेवा की और नाट्याभिनयका अवसर मांगा। सबसे पहले उसके नाट्य के प्रारम्भ में अभिनीत होनेवाले बीसों अंगोंसे परिपूर्ण पूर्व रंगका अभिनय किया। तीन प्रकारके सुन्दर पुष्कर' वाद्य, तीन प्रकारके भांड़ वाद्य ( उत्तम, मध्यम और जघन्य ), सुप्रसिद्ध सोलह अक्षरोंवाला, चार मार्ग, दुलेपन, छह करण, तीन यतियों सहित, तीन लयोंवाला, सुन्दर तीन गतिवाला, तीन चारवाला, तीन योगको करनेवाला, तीन प्रकारके करोंसे युक्त, पांच पाणिप्रहार, त्रिप्रकार और त्रिप्रसार, और त्रिमज्जन (त्रिमाजनक ) इस प्रकार बीस अलंकारोंके लक्षणोंसे युक्त, अट्ठारह जातियोंसे मण्डित और इन गुणोंसे आलंगित नृत्यका प्रदर्शन किया। और भी चच्चपुट, चाचपुट और सुन्दर छप्पयपुट; इन तीन तालोंसे अलंकृत और उनके अनेक भेदोंसे सहित, वाम, ऊध्वं और आलिंगत संज्ञाओंवाला अनवद्य वाद्यका मैंने वर्णन किया । घत्ता - जहाँ द्विश्रुतिक त्रिश्रुतिक, और चतुःश्रुतिक श्रुति संख्याओंसे सुललित चलबद्ध अर्धमुक्त और व्यक्त और अव्यक्त अंगुलियोंके द्वारा करनेवाले आदरणीय देवोंने गीत प्रारम्भ किया ॥५॥ १. पुष्कर वाद्य ( चर्मावनद्ध वाद्य, उत्तम, मध्यम और जघन्य ); सोलह अक्षर ( क ख ग घ ट ठ ड ढ, त थ द ध सरल ह ); चार मार्ग ( आलिप्त, अदित, गोमुख और वितस्ति ); दुलेपन ( वामलेपन, ऊर्ध्वलेपन ); छह करण ( रूप, कृत, परिति, भेद, रूपशेषी और उद्य); तीन यतियाँ ( सम, श्रोतोगति, गोपुच्छ); त्रिलय (द्रुत, मध्य, विलम्बित ); त्रिगति ( वाम, नुत और ऊर्ध्व ); त्रिचार ( सम विषम, सम-विषम); त्रियोग ( गुरुसंयोग, लघुसंयोग, गुरुलघुसंयोग ); त्रिकर (गृहीत, अर्धगृहीत और गृहीतमुक्त ); मार्जनक ( मायूरी, अर्धमायूरी और कर्मारवी ) । १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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