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महापुराण
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पृष्ठ 441
XIV
[दक्षिणकी तीन खण्ड धरतीकी विजय प्राप्त करने के बाद वह विजया पर्वतपर आया। एक देव वहां आया और उससे पर्वतके गुहामुखपर प्रहार करनेके लिए कहा जिससे उसे गुफाके दूसरी ओर जानेका रास्ता मिल सके । तब भरतने अपने सेनापतिको तदनुसार आदेश दिया ।
जब उसने प्रहार किया तो गुफा फट गयी। उसके निवासियों में गहरी उत्तेजना हई। पर्वतकी अधिष्ठात्री देवी उपहार लेकर भरतके पास आयो । भरत वहां छह माह रहे। उसने चक्ररत्नको गुहाके भीतर चलने और सेनाको उसका अनुकरण करने का निर्देश दिया। परन्तु अन्धकारमें चलना कठिन था। तब सेनाध्यक्षने कागणी रत्न लिया और गुहाकी दीवालपर सूर्य और चन्द्रमाका अंकन किया। उसके प्रकाशमें सेना चली और नागलोकमें जा पहँची। दो नदियाँ सेनाके सामने अड़ गयीं। परन्तु स्थपति (इंजीनियर) ने पुल बनाया और सेनाने उन्हें पार किया। आवर्त और किरात दो म्लेच्छ राजा अपने क्षेत्रपर आक्रमण होते हुए देखकर मेहमुखसे वर्षा करवाने लगे। उन्होंने एक दिन और रात वर्षा की। पुरोहितने भरतको सूचना दी कि सेना किस प्रकार संकट में है ! तब उसने सेनापतिको चक्ररत्नका उपयोग समूची सेनाके लिए छत्रके रूपमें करनेके लिए कहा। तब सेनाने आवतं और किरातपर आक्रमण किया। उन्होंने भरतकी अधीनता स्वीकार कर ली। इसके बाद भरत हिमवान् पर्वतको ओर मुड़ा, सिन्धु नदीके किनारे-किनारे; उसकी अधिष्ठात्री देवीने उन्हें पुष्पमाला समर्पित की।]
XV [उसके बाद भरत हिमवन्त पर्वतकी ओर गया । दूबपर बैठे हुए उसने उपवास किया, और पर्वतकी अधिष्ठात्री देवीके उद्यान में तीर छोड़ा। पहले उसने युद्ध करनेका इरादा किया उस योद्धाके साथ जिसने तीर छोड़ा था। परन्तु तीरपर भरतका नाम पढ़कर उसने उसका सम्मान करनेका निश्चय किया। वह आयी और भरतको उसने उपहार दिये । भरतने भी बदले में उसे कुछ उपहार दिये, और उसे अपने घर भेज दिया। आगे कूच करते हुए भरत वृषभ पर्वतके पास गया । उसने देखा कि पर्वतपर इतने नाम लिखे हुए हैं कि उसमें एक भी ऐसा स्थान नहीं है कि जहां वह अपना नाम लिख सके । किसी प्रकार उसने उसपर अपना नाम लिखा और इस प्रकार छह खण्ड धरतीको अपनी विजययात्रा पूरी की । देवोंने इस अवसरपर उसकी प्रशंसा की। फिर वह आगे हिमवन्त पर्वतके प्रत्यन्त प्रदेशपर चला और उचित समयपर गंगा किनारे आ गया। तब गंगा देवीने आकर उसका अभिषेक किया और सम्मानके प्रतीकस्वरूप उसे उपहार दिये । भरतने भी उसे उचित सम्मानके साथ उपहार देकर विदा किया। वह विजयार्धकी तमिस गुफाके निकट आया। उसने सेनापतिको आदेश दिया। उसने उसके द्वारपर पहलेकी तरह प्रहार किया। वहाँ वे छह माह रहे। वहाँका निवासी नृत्यमाली देव वहाँ आया, और भरतको कर दिया । गुफा फिर भी भरतको सम्भव नहीं हई। जब उसके मन्त्रियोंने बताया कि उसके मामा नमि और विनमि विजया पर्वतके स्वामीके रूपमें पर्वत श्रेणियोंपर रहते हैं और जबतक वे मार्गसे जानेकी अनुमति नहीं देते तबतक भरत आगे नहीं जा सकता। तब भरतने उनके पास सन्देशवाहक भेजा कि वे भरतको कर दें। यदि राजाके रूपमें न सही तो सम्बन्धीके रूपमें सही? दोनोंने यह स्वीकार कर लिया। उन्होंने राजा भरतके प्रति अपना आदर-भाव व्यक्त किया। कागणी मणिने प्रकाश उत्पन्न किया उसके सहारे उसकी सेना आगे बढ़ी। उसके बाद भरत कैलास पर्वतपर आया जहाँपर उसके पिता परमजिन ऋषभ तप कर रहे थे। उनके दर्शन कर उसने प्रार्थना की।]
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