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________________ ५.७.१२] हिन्दी अनुवाद ६. हाथियोंके सिरोंसे दलित तथा रक्तसे लिप्त निकले हुए मोतियोंसे जिसको अयाल विजड़ित है, जो बालचन्द्रके समान कुटिल और चंचल बिजलोके समान उज्ज्वल अपनी दोनों दाढ़ोंसे भास्वर है, ऐसा तमतमाते मुखवाला सिंह भी, जिसके भयसे जंगलका सेवन करता है । ऐरावतकी सँड़के समान जिसके बाहु दोघं और स्थिर हैं ऐसा परमेश्वर भरत नवयौवनको प्राप्त होने लगा। उसके पिताने उसे सब सिखाया। काले ( स्याहीसे लिखित अक्षर) अक्षर गवित गन्धर्व विद्या, विविध भाव और रससे परिपूर्ण नाटक, नर-नारियोंके प्रशस्त लक्षण, उनकी भूषाओंके निर्माण, स्त्रियोंके हृदयको चुरानेवाले कामशास्त्रके चरित, गन्धको प्रयुक्तियां, रत्नपरीक्षा, मन्त्र-तन्त्र, श्रेष्ठ अश्व और गजकी शिक्षाएं, कोंत, गदा और तलवारोंके आघातोंकी परम्परा, चक्र-धनुष-प्रहरणोंके विज्ञान, देश-देशीभाषा-लिपि-स्थान, कवि वागलंकार-विधान, ज्योतिष-छन्द-तर्क और व्याकरण, आवर्तन-निवर्तन आदि करणों (पेचों) से युक्त मल्लग्राह युद्ध, वैद्यक-निघंटु, औषधियोंका विस्तार, और सर्वलोक-व्यवहार भी उसने समझ लिये। चित्रलेप, मूर्ति और काष्ठकला आदि दूसरे-दूसरे सुन्दर कम सीख लिये । पत्ता-जिसके चरणोंमें देव नत हैं ऐसे त्रिभुवनगुरु (ऋषभ जिन ) जिसे स्वयं शिक्षा देते हैं अत्यन्त विमल उन समस्त कलाओंको वह भरत क्यों नहीं जानेगा ।।६।। फिर वह राजर्षि ऋषभ स्नेहके वशीभूत होकर अपने पुत्रसे कहते हैं और उसे, गिरि हैं स्तन जिसके, ऐसी धरतीरूपी तरुणीके पालन करनेको विधि और विषय बताते हैं। प्रभु कहते हैं, "हे प्रथम नरेश्वर भरतेश्वर, तुम अर्थशास्त्र सुनो। व्यवसाय और सहायक होनेसे सम्पत्ति होती है। प्रजा चरणोंमें नत रहती है। आलस्य और दुष्टकी संगतिसे वह नष्ट हो जाती है । हे पुत्र, तुम्हें मैं यह उपदेश देता हूँ। असहाय लोगोंका विश्वमें कुछ भी सिद्ध नहीं होता। धागोंके समूहसे हाथी भी बांध लिया जाता है। हवासे लगकर नाव चली जाती है, और उसी हवाके संसर्गसे आग जल उठती है, मन्त्री यदि शूर, असह्य सहन करनेवाला पण्डित और मित्र है, तो कार्यमें उसका महान् आदर करना चाहिए, उसमें उसके साथ उपेक्षाका बर्ताव नहीं करना चाहिए, क्योंकि दुनियामें शत्रु और मित्र होनेका कारण कार्य ही है। कार्य भी बुद्धिके द्वारा सम्भव और उत्पन्न होता है, बुद्धि भी वृद्धोंकी सेवा करनेसे मिलती है1. पत्ता-जिनके सिर सफेद हो चुके हैं, जिनके मुख टेढ़े हैं, जो जरासे निन्दित हैं उन्हें छोड़ो। जो स्वस्थ हैं, कर्म करनेमें कुशल हैं उन्हें मैं चाहता हूँ ॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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