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________________ २. १८.४] हिन्दी अनुवाद ४१ घोयी हुई धवल, दन्त पंक्तिके निकट रहनेवाला, लालिमाका घर अधर-बिम्ब ऐसा शोभित होता है जैसे मोतियोंकी मालामें प्रवाल ( मूगा) हो। वह हमारे सामने कभी भी नहीं ठहरता, सीधा नासिका वंश भी दुर्मुख ( दुष्ट ) दो मुखवाला है। भौंहोंका टेढ़ापन भी सहन नहीं किया गया ( नेत्रोंके द्वारा ), और उन्होंने जाकर कानोंसे कह दिया। दिन-रात आकाशमें अवलम्बित रहनेवाले सूर्य और चन्द्रमा दोनों उसके गण्डतलमें प्रतिबिम्बित हैं, और वे धवल आंखोंवाली तथा लक्षणोंसे युक्त कोखवाली प्रथम जिनेन्द्रकी माताके कुण्डलोंकी शोभाको धारण करते हैं, उसके भालतलपर धुंघराले बाल निरन्तर ऐसे जान पड़ते हैं, मानो मुखरूपी कमलपर भ्रमर मंडरा रहे हैं। और भी उनका विपरीत भार ऐसा ज्ञात होता है. मानो मखरूपी चन्द्रमाके डरसे तमका प्रवाह उस तरुणीकी पीठमें प्रविष्ट होता हुआ दिखाई देता है, और जो कुसुमरूपी नक्षत्रोंसे मिला हुआ शोभित होता है। घत्ता-प्रणाम करती हुई प्रतिबिम्बके बहाने अपनेको हीन समझती हुई देवस्त्रियाँ, उस सुन्दरीके सौन्दर्यको आकांक्षासे पैरोंके नखरूपी दर्पणमें लीन हो गयीं ॥१६॥ १७ भारतवर्षके कल्पवृक्षोंसे आच्छादित दसों दिशाओंवाले मध्यदेशमें, जिसके हाथ पुष्ट और स्थूल स्तनोंपर हैं, ऐसे अन्तिम कुलकर नाभिराजा, उस मरुदेवीके साथ इस प्रकार रहते थे, मानो उत्पन्न शान्तिके साथ जीवलोक, मानो पूर्ण चन्द्रमाकी कान्तिके साथ शरदागम; मानो गुणी जनोंकी प्रशंसाके साथ सज्जन, मानो अहिंसाके साथ धर्म आलिंगित हो। जब वह अन्तिम कुलकर उसके साथ रह रहे थे तब इन्द्र अपने मनमें विचार करता है कि जगमें श्रेष्ठ देवों और मनुष्योंके द्वारा वन्दनीय, महान् संसाररूपी समुद्रसे तारनेवाले, कामरूपी जड़को काटनेके लिए कुठार, आदरणीय आदि जिन इन दोनोंसे उत्पन्न होंगे। यह सोचकर उसने निश्चय कर लिया और कुबेरके लिए आदेश दिया-"हे कुबेर, तुम शीघ्र चार द्वारोंवाला सुन्दर अत्यन्त भला नगरवर बनाओ।" तब उस आदेशको यक्षने स्वीकार कर लिया, और शीघ्र ही उसने साकेत नगरकी रचना कर डाली। घत्ता-जहाँ पवनरूपी आचार्यके कारण सुन्दर पत्तोंवाले (सुपात्रोंवाले) नन्दन वन, पुष्पोंके मुखोंसे मुक्त परागसे मतवाले होकर नृत्य कर रहे हैं ॥१७॥ सरोवरमें जहां लक्ष्मीके चरण-स्पर्शसे कमल सन्तोषके साथ विकसित होता है, दूसरोंके द्वारा भुक्त और अन्धकारके दोषसे मुक्त अपने कोश ( धन, जो तम अर्थात् क्रोधसे मुक्त है, अथवा कोश परागका घर ) से कौन आनन्दित नहीं होता। उस वैसे कमलको बालगज क्यों नष्ट करता है? मानो इसी कारण मधकरकल क्रोधसे आवाज करता है। वह गज क्या डरकर उसे (भ्रमरकुलको ) दान ( मदजल ) देता है, दूसरा भी महान् व्यक्ति विनीत होता है ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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