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१३.८.६]
हिन्दी अनुवाद भी नहीं समा सकी। घोड़ोंके मुखोंसे निकलते हुए फेनसे उज्ज्वल वहं सर्वत्र भेटघटा व्याप्त भी। सर्वत्र हाथियोंके मदजलोंसे सिंचित थी। सर्वत्र ध्वजमालाओंसे अंचित थी। सर्वत्र गीतावलिसे मुखरित थी। सर्वत्र चारण समूहसे ध्वनित थी। सर्वत्र छत्रोंसे दिशाएँ अवरुद्ध थीं। सर्वत्र सुरभिका रसगन्ध प्रसरित था। सर्वत्र भ्रमर मंडरा रहे थे, सर्वत्र चंचल चमर चल रहे थे। सर्वत्र विद्याधरोंका संचार हो रहा था । सर्वत्र स्त्रियां गीत गा रही थीं। सर्वत्र ही कामदेव विलसित था।
घत्ता-वृक्षोंको मलते, पहाड़ोंको दलते, जलको सोखते हुए राजाके द्वारा निवेदित सैन्य रास्तेमें चलता हुआ सिन्धु महानदीके द्वारपर पहुंचा ॥६॥
भरतने सिन्धुनदीको इस प्रकार देखा, जैसे विभ्रमको धारण करनेवाली वरवेश्या हो । जैसे मदका प्रदर्शन करनेवाली हस्तिघटा हो, विबुधों ( देवों/पण्डितों ) के आश्रित होते हुए भी जिसने जड़ ( मूर्ख | जल ) संगृहीत कर रखा है। वह वनको आगकी तरह है जो परिधुलियजड (जिसमें जड़ नष्ट हो गया/जल घुल गया है, वह युद्धवृत्तिकी तरह झसपयड (जिसमें प्रकट है मछली और तलवार ) शोभित है। जो मानो बृहस्पतिकी मतिकी तरह अत्यन्त कुटिल है, जो मानो मोक्षगतिको तरह मलका नाश करनेवाली है, जो धनुर्यष्टिकी तरह मुक्तसर (मुक्त बाण और मुक्त तीर ) है, जिसके लिए धराकी तरह अनेक राजहंस (श्रेष्ठ राजा और हंस ) प्रिय हैं, जो कमलकी तरह कोशलक्ष्मीको धारण करती है, जो राजाको शक्तिका अनुसरण करती है, चंचल सारसरूपी पयोधरोंको धारण करनेवाली जो शुकके पंखोंकी कतारोंसे हरित है ( हरी है ) खेलते हुए बलाकाओंसे जो सफेद है, बहते हुए कुसुमोंके परागोंसे जो नीली है, मानो जिसने विचित्र श्रेष्ठ उत्तरीय धारण कर रखा है, अथवा जो शृंगारके कारण रंग-बिरंगी है। गज, अश्व और चन्दनके रससे मिश्रित और मयूरपिच्छोंके कुन्तलोंवाली जो जाकर रत्नाकरसे उसी प्रकार मिल जाती है, जिस प्रकार कोई धूतं स्त्री रत नागरजनसे मिल जाती है।
पत्ता-उसके किनारे भरतने डेरा डाला, इतनेमें सूर्य अस्ताचलपर पहुँच गया। मानो पश्चिम दिशारूपी कामिनीमें अत्यन्त अनुरक्त मित्र (सूर्य) गिर पड़ा हो ॥७॥
दिनेश्वरके अस्त होनेपर जिस प्रकार पक्षी स्थित हो गये उसी प्रकार शकुनको माननेवाले पथिक भी स्थित हो गये। जिस प्रकार दीपकोंकी दीप्तियां स्फुरित हो उठीं उसी प्रकार कान्ताओंके अधरों और नखोंकी दीप्तियां भी। जिस प्रकार सन्ध्यारागसे लोक रंजित हो उठा, उसी प्रकार वह वेश्यारागसे। जैसे विश्व सन्तापित हुआ, उसी प्रकार चक्रकुल भी। जिस प्रकार दिशा-दिशामें अन्धकार मिल रहे थे, उसी प्रकार दिशा-दिशामें जार मिल रहे थे। जिस प्रकार रात्रिमें कमल मुकुलित हो गया, उसी प्रकार विरहिणियोंके मुख मुकुलित हो गये थे। जिस
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