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________________ ८.१०.१९] हिन्दी अनुवाद १७३ जीवका उद्धार करनेके किसी कामसे भेजे गये कोई नमि-विनमि नामके दो जन आयेंगे, श्री और सुखकी कामना रखनेवाले जो मुझसे कुछ मांगेंगे। तुम उन लोगोंके लिए विजयार्ध पर्वत आश्रित उत्तर-दक्षिण विद्याधर श्रेणियाँ प्रदान कर देना। आसनके कांपनेसे मेरा शरीरबन्ध हिल गया, ( उससे ) मैंने तुम्हारा प्रपंच जान लिया। पाताल छोड़कर मैं यहां अवतरित हुआ हूँ, मैं अरहन्त देवकी आज्ञा पूरी करने में समर्थ हूँ। अपने हृदयसे ध्यान किया है जिन्होंने, ऐसे देवके द्वारा ( ऋषभ ) जो उन्हें खण्डित करता है या सुरभिसे लेप करता है, वह इस समय निश्चित रूपसे समान भावसे देखा जाता है, उन्होंने पहलेका विधान (प्रशासन ) छोड़ दिया है। __ पत्ता-जल्दी आओ, देर क्यों करते हो, योगीको छोड़कर, प्रभुके द्वारा आदिष्ट और मेरे द्वारा निर्मित विद्याधरों सहित नगरियां हैं, उनका भोग करो" ॥९॥ १० इन वचनोंको कुमार वीरोंने चाहा। केवल उन्होंने आकाशमें विमान देखा। हवासे दौड़ते हुए और प्रकम्पित ध्वजपटोंसे अंचित जिसे, गुणी नागराजने शीघ्र निर्मित किया था। अपने दोषोंके प्रारम्भका नाश करनेवाले (ऋषभ जिन) को नमन कर ऋषभनाथका प्रिय आलपन न पानेवाले वे दोनों देव विमानके द्वारा विजयाध शैलपर ले जाये गये, जो सरोवरका जल धारण करनेवाला था, जिसमें युद्ध करते हुए वृषभ, सिंह और नकुल घूम रहे थे। हरिणोंका समूह दुर्वांकुरोंसे प्रसन्न था, जिसके शिखर आकासको छूते थे, महान्, जिसने अपनी औषधियोंसे प्राणियोंके शिर और शरीरसे रोग दूर कर दिया था, जो शवरों द्वारा उखाड़े गये मूलोंसे अरुण थे, जो सिंहोंके नखोंसे आहत हाथियोंके मस्तकसे भयंकर थे, जहां भयंकर अष्टापद सिंहोंका पीछा कर रहे थे, जिसमें सुररमणियाँ हंसरथोंको हाँक रही थीं, जिसके तीरपर विद्याधरियोंके वाहन स्थित थे। जिसमें वृक्षोंके संघर्षसे उत्पन्न आग प्रज्वलित थी। जिसके लताघर नूपुरोंकी झंकारसे झंकृत थे, और श्रेष्ठ विद्याधर अपनी प्रियाओंके अधरोंका पान कर रहे थे, जो अपनी वधुओंमें अनुरक्त देवोंके सुखका प्रदर्शन कर रहा था, जिसमें रविकिरणोंसे कमल खिल रहे थे, जिसमें खोये हुए हारोंसे धरती पटी पड़ी थी, जो जिन भगवान्की प्रतिमाओंकी महिमासे पूज्य था, जो चारणमुनियोंके द्वारा उपदिष्ट धर्मसे पवित्र था जिसमें झरझर निर्झरोंका अबाध प्रवाह था, जिसमें नागोंके मुखोंसे निकली हुई विषाग्नि शान्त थी, जिसकी घाटियोंकी पक्षियों द्वारा स्वर्गपथ दिखाया जा रहा था, जो प्रियाल वृक्षोंके वनोंसे युक्त था। पूर्वी और पश्चिमी समुद्रों, डूबे हुए छोरोंवाला और गुफाओंके मुखोंसे वनचरोंकी लीलता हुआ पत्ता-अटोंसे भयंकर विजयार्द्ध पर्वतको नमि और विनमिने इस प्रकार देखा, जैसे रत्नोंके घर सागर-तटपर तुलादण्ड रख दिया गया हो ।।१०।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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