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________________ १६.९.१२] हिन्दी अनुवाद ३६१ उन्होंने और भी गम्भीर कानोंके लिए मधुर इस प्रकार कहा कि धरतीके लिए और आज्ञाका प्रसार करनेके लिए प्रणाम करना उचित नहीं है। शरीरखण्ड या धरतीके खण्डको महत्त्व देकर और मान छोड़कर क्यों प्रणाम किया जाये। वल्कलोंका पहनना, गुफाओंका घर, और वनफलोंका भोजन, यह सुन्दर है। दारिद्रय और शरीरका खण्डन अच्छा, परन्तु मनुष्यका अभिमानको खण्डित करना ठीक नहीं। किंकररूपी नदी दूसरोंके पदरजसे धूसरित है। पावसकी श्रीको धारण करनेवाली असुहावनी है। राजाओंके प्रतिहारोंके दण्डोंका संघर्षण और हाथ उरको स्पर्श करना कौन सहे ? भौंहोंसे टेढ़ा मुख कौन देखे कि वह प्रसन्न है या क्रोधसे काला है, यदि राजाके निकट है तो वह ढोठपनको प्राप्त होता है, यदि कभी-कभी दर्शन करता है तो स्नेहहीन समझा जाता है, मौन रहनेसे जड़ ( मूर्ख ) और शान्तिसे रहनेपर कायर, सीधा रहनेपर पशु और पण्डित होनेपर प्रलाप करनेवाला, अपने हृदयकी सुन्दर गुरुताको न समझनेवाली शूरवीरतासे कलहशोल कहा जाता है और मीठा बोलनेपर चापलूस । इस प्रकार सेवामें रत व्यक्ति किसी भी प्रकार गुणी नहीं होता। घत्ता-अत्यन्त तीखे धर्मरूपी गुणसे रहित/डोरीसे रहित, वम्म ( मर्म कवच ) के विदारणके स्वभाववाले बाणोंके सम्मुख रणमें और दुष्टोंके सम्मुख राजाके घरमें कौन खड़ा रह सकता है ॥८॥ अथवा उनसे क्या, जिन्होंने प्राप्त दुर्लभ मनुष्यत्वको नष्ट कर दिया। और जो उसे परवश होकर नष्ट करता है, उसका क्या पाण्डित्य ? वह स्वर्णके तीरसे सियारको बेधता है, मोतीकी मालासे बन्दरको बांधता है, कीलके लिए देवकुलको तोड़ता है, सूत्रके लिए दीप्त मणिको फोड़ता है, कपूर और अगुरु वृक्षको नष्ट करता है और ( उनसे ) कोदोंके खेतकी बागर बनाता है। चन्दन वृक्षको जलाकर तिल खलोंकी रक्षा करता है। सांपको हाथमें लेकर उससे विष ग्रहण करता है, पीले, काले, लाल और सफेद माणिक्योंको छाछमें बेचता है, जो मनुष्यत्वको भोगमें नष्ट करता है, उसके समान हीन व्यक्ति कौन कहा जाता है। जो अपने चित्तको समतामें नियोजित नहीं करता, पुत्र-कलत्र और धनकी चिन्ता करता है, रसना और स्पर्शरसमें दग्ध होकर उसी प्रकार मर जाता है, जिस प्रकार मे-मे-मे करता हुआ मेंढक मरता है। प्रलयकालरूपी सिंहके द्वारा खाया जाता है, दुःखरूपी आगकी ज्वालासे जला दिया जाता है। यह जीव मार्जार, कुंजर, महिष, कुक्कुर, बन्दर और सर्प विशेष उत्पन्न होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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