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प्रस्तावना
"सर्गः प्रतिसंहारः कल्पो मन्वतराणि वंशविधिः ।
जगतो यत्र निबद्धं तद्विज्ञेयं पुराणमिति ।" (१) व्यापक सृष्टि, (२) अवान्तर सृष्टि, (३) प्रलय मन्वन्तर और वंश वर्णन ।
ऊपर ऋषभदेवके हवाले पुष्पदन्तने पुराणकी जो परिभाषा दी है, उसकी कई बातें इससे मिलतीजुलती है। राजशेखरका यह कथन महत्त्वपूर्ण है कि इतिहास भी पुराणका एक भेद है। रामायण और महाभारतको देखते हुए राजशेखरका कथन सटीक है। जैन चरित काव्योंका विकास भी पुराणोंसे हुआ। पुष्पदन्तका महापुराण केवल इस अर्थमें पुराकल्प है क्योंकि उसमें कई चरित-काव्योंका संकलन है, परन एक दूसरेमें गुंथे हुए नहीं हैं। यह सच है कि रासो काव्यों में अपभ्रंश चरित काव्योंकी पद्धड़िया पद्धतिका अनुसरण नहीं है, परन्तु रामचरित मानस और पद्मावतमें उसका परवर्ती विकास स्पष्ट रूपसे देखा जा सकता है । रासो काव्योंके नायकोंकी प्रशंसासे कुढ़कर ही तुलसीदासने लिखा है
__ "कीन्हें प्राकृत जन गुणगाना
सिर धुनि लाग गिरा पछिताना" अवतारी रामकी लोकलीलाओंके कारण लोगोंको उनके व्यक्तित्व में प्राकृत जनका भ्रम न हो जाये इसके लिए अपने समूचे काव्यमें तुलसीदास सावधान करते चलते हैं। श्रीमद्भगवद्गोताके अनुसार अवतार धर्मकी स्थापनाके लिए होता है जबकि जैनोंका विश्वास है कि लोककल्याणकी भावनासे पूर्व जन्ममें कोई जीव तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध करता है, फिर स्वर्गसे च्युत होकर तीर्थकरके रूपमें अवतरित होता है, तीर्थकर यद्यपि पूर्ण मनुष्य हैं, परन्तु पुराणोंमें उनका जो वैभवसे पूर्ण और अतिरंजित वर्णन मिलता है, वह उन्हें अवतारी बना देता है। तीथंकरोंसे कुछ हलके स्तरपर बलभद्रों, नारायणों और प्रतिनारायणोंकी कल्पना की गयी है, इन सबके चरितों को आधार बनाकर ही अपभ्रंशके जैन चरित-काव्य रचित हैं, जिन्हें कथाकाव्य भी कहा जा सकता है। धनपालकी 'भविसयत्तकहा' को कुछ आलोचकोंने चरित-काव्यसे भिन्न माना है । परन्तु शिल्प-शैली और विषयको दृष्टिसे ऐसा मानना किसी भी प्रकार उचित नहीं। यहाँ एक बात विचार कर लेना भी प्रसंग प्राप्त है । कुछ विद्वानोंकी धारणा है कि अपभ्रंश जैन चरित काव्योंमें केवल उनके नायकोंके दीक्षा, तप और मोक्षका वर्णन है, वस्तुतः ऐसा नहीं है। पुष्पदन्तने प्रत्येक सन्धिके अन्तमें लिखा है-"सठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त इस महापुराण में"। यहां अलंकारका अर्थ है भौतिक ऐश्वर्य; और गुणका अर्थ है आध्यात्मिक ऐश्वर्य । इस प्रकार उनके जीवनमें प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनोंका समन्वय है।
अपभ्रंश कथा-काव्य और हिन्दी प्रेमाख्यानक काव्य एक शोध प्रबन्धका शीर्षक है "अपभ्रंश कथा-काव्य और हिन्दी प्रेमाख्यानक," इससे यह भ्रम हो सकता है कि अपभ्रंश चरित-काव्यसे अपभ्रंश कथाकाव्य अलग है, और उनका हिन्दी प्रेमाख्यानक काव्यसे सम्बन्ध है। एक तो तात्त्विक दृष्टिसे अपभ्रंशमें चरित-काव्य और कथाकाव्यमें अन्तर नहीं है, दूसरे प्रेमाख्यानक काव्यसे तथाकथित अपभ्रंश काव्यका कोई सम्बन्ध नहीं। सम्भवतः यह भ्रम प्रेमकाव्य और प्रेमाख्यानक काव्यमें अन्तर न समझने के कारण उत्पन्न हआ प्रतीत होता है। प्रेमकाव्य प्रेमकथापर आधा विशुद्ध लौकिक काव्य है। इस प्रकारके लोकप्रेमका वर्णन अपभ्रंश काव्योंमें भी है। परन्तु प्रेमाख्यानक काव्य वे सूफी काव्य हैं जिनमें प्रेमकहानीको माध्यम बनाकर, आध्यात्मिक प्रेमकी अभिव्यक्ति की जाती है । इश्कमजाजीसे इश्कहकीकीको पानेका प्रयास किया जाता है। सूफी-साधनामें सूफियोंका यह दर्शन है कि सृष्टि खुदाका जलवा है, जरे-जमें उसका नूर व्याप्त है, अतः दुनियावी प्रेमको प्रतीक मानकर वियोगकी गहन
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