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महापुराण
है। परन्तु कामचेतनाका संहार करना इतना आसान नहीं है। खासकर काव्य प्रक्रियामें काम-संहारकी । अभिव्यक्ति और भी कठिन है। क्योंकि रागचेतनाको जबतक अनुभूतिके स्तरपर संप्रेषणीय नहीं बनाया जाता, तबतक उसकी व्यर्थता या नश्वरतामें-से विकसित होती हुई वीतरागता अनुभतिका विषय नहीं बन सकती। 'महापुराण' कई चरित काव्योंका संकलन है, प्रत्येक चरित काव्य अपने में स्वतन्त्र है। उनके सभी नायक प्रतिष्ठित, सम्पन्न और कुलीन हैं। अन्य महापुराणोंकी तरह पुष्पदन्तका महापुराण भी कई चरित काव्योंकी मणिमाला है। इसमें मुख्य रूपसे तीर्थकर आदिनाथका चरित महत्त्वपूर्ण और आकारमें बड़ा है । यह उसका पहला खण्ड है ।
पुष्पदन्तके पहले संस्कृतमें इस प्रकारके प्रबन्ध-काव्यको पुराण-काव्य कहनेकी प्रथा थी। आदिपुराण, पद्मपुराण, हरिवंशपुराण इत्यादि । परन्तु विमलसूरिने अपने प्राकृत काव्यको 'पद्मपुराण' न कहकर पउमचरिअ कहा, जब कि अपभ्रंश कवि स्वयंभूने 'पउमचरिउ' । आचार्य गुणभद्रके अनुकरणपर पुष्पदन्तने त्रेसठशलाकापुरुषोंके चरित मणियोंसे महापुराणरूपी महाहार जिनभक्तिके धागेसे गूंथकर भक्तजनोंके लिए समर्पित किया है। 'महापुराण' से कविका अभिप्राय क्या था, इसके बारेमें वह भरतके प्रश्नके उत्तरमें ऋषभनाथसे कहलवाता है
"महापुराण वह है जिसमें त्रिलोक, देश, नगर, राज्य, तीर्थ, तप, दान, शुभ प्रशस्त आठ स्थानोंका कथन हो । ( 2 1 1)। यहाँ ऋषभने महापुराणको जिन विशेषताओंका उल्लेख किया है, वे सब पुष्पदन्तके इस नाभेयचरिउमें है। फिर भी वह अपने काव्यको नाभेय पुराण न कहकर नाभेयचरित कहता है। परन्तु उनके संकलनको महापुराण कहता है। इससे स्पष्ट है कि अपभ्रंश कवियोंका अपने काव्यको चरितकाव्य या महापुराण कहने में कोई विशेष आग्रह नहीं है। ऐतिहासिक दृष्टिसे भारतीय काव्यमें प्रबन्ध काव्यकी दो धाराएँ है-(१) पौराणिक चरितोंपर लिखे गये काव्य, (२) सांसारिक व्यक्तियोंके चरितोंपर लिखे गये काव्य । बुद्ध और महावीर यद्यपि ऐतिहासिक व्यक्ति हैं, राम-कृष्ण पौराणिक व्यक्ति है।
फिर भी अन्य भारतीय राजाओंकी तुलनामें उनके चरित लोकोत्तर चरित हैं । बुद्ध और महावीरका प्रभाव आध्यात्मिक है। आध्यात्मिक उपलब्धियों के कारण ही उनके व्यक्तित्वकी छाप भारतीयोंके हृदयपर है। इसलिए प्रसिद्ध संस्कृत कवि अश्वघोषने बुद्धचरित लिखकर चरित काव्यकी नींव डाली। इसके विपरीत कालिदासने. रघुवंशकी रचना की । जिसमें रघुवंशकी कई पीड़ियोंके राजपुरुषोंका वर्णन है । लेकिन बाणभट्टने हर्षचरित लिखकर, अश्वघोष द्वारा स्थापित चरितकाव्यकी परम्पराको तोड़ दिया। उत्तर राजपूत कालमें रासो काव्य-परम्परा चली, जिसके प्रवर्तनका श्रेय चन्दवरदायीको है। ये रासो काव्य उस अवट्ठ भाषामें है, जो अपभ्रंशकी परवर्ती विकास है, कुछ लोग इसे उत्तरकालिक अपभ्रंश भी कहते हैं। इन रासो काव्योंके नायक समकालीन राजन्य वर्गके शासक हैं, जिन्हें सामन्ती चरित्रके ह्रासोन्मुख अवशेषके रूपमें स्वीकार किया जाना चाहिए। उनमें जो ऐश्वर्य और ओज है, वह कवियोंका दिया हुआ है। शैलीके विचारसे ये रासो काव्य पद्धड़िया शैलीकी तुलनामें बहु छन्दवाली शैलीको अपनाते हैं, हालांकि उसमें बहुत-से छन्द प्राकृत परम्पराके भी हैं । अपने समयके प्रबन्ध-काव्य शैलियोंको स्पष्ट करते हुए संस्कृत समीक्षक राजशेखरका कहना है कि इतिहास भी पुराणका एक भेद है। उसके दो भेद है : परक्रिया और पुराकल्प।
"परक्रिया पुराकल्प इतिहासमतिद्विधा .
स्यादेकनायका पूर्वा द्वितीया बहुनायकाः ।" परक्रियामें एक नायक प्रधान होता है-जैसे रामायण । पुराकल्पमें अनेक नायक होते हैं, जैसे महाभारत इस दृष्टिसे रघुवंश पुराकल्प है जबकि बुद्धचरित परक्रिया। पुराणकी परिभाषा राजशेखरने इस प्रकार की है
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