SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना - इस दिव्य काव्य-सृजनका फल जिन भगवान् मुझे यही दें कि जहाँ चक्रवर्ती भरत. भगवान्का गमन हुआ है, वहीं मेरा गमन हो । संसारमें दुःखके अनेक कारणों में सबसे बड़ा कारण है विषमताकी प्रतीति, जो चित्तकी अशान्तिका सबसे बड़ा कारण है । दुःखमें मानव चित्त अशान्त देखा हो जाता है परन्तु सुखमें वह इससे भी अधिक अशान्त रहता है । ऐसे लोग भी, जो सामाजिक, राजनीतिक या आध्यात्मिक दृष्टिसे ऊँचे पदोंपर हैं, मानसिक दृष्टिसे घोर अशान्त हैं । तुलसीदासने कहा है : "अस विचार रघुवंस मनि हरहु विसम भवपीर" ४५ और अरहन्त भवपीर, दुनियाकी पीड़ा विषमता है, विषमताजन्य यह पीड़ा समता के बोधसे ही दूर की जा सकती है । इसी प्रकार जैन कवियोंके चरितगानका उद्देश्य भी वही है जो तुलसीदासके रामचरित के गानका । रघुवंस भूसन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं । कलिमल मनोमल धोइ बिनु श्रम रामधाम सिधावहीं ॥ काव्य सम्बन्धी विचार कवि पुष्पदन्त सरस्वतीकी वन्दना करते हुए जो कुछ कहते हैं, एक तरहसे वह उसका काव्यके प्रति अपना दृष्टिकोण है । कविने लिखा है - "देवी सरस्वती हर्षजनक सुन्दर और मधुर बोलती है, वह अपने कोमल पद- विलास के साथ रखती है, वह अत्यन्त प्रसन्न गम्भीर और स्वर्ण शरीरवाली है । चन्द्ररेखाके समान कान्तिमय और कुटिल है, अलंकारोंसे युक्त वह छन्दके अनुसार चलती है । वह अनेक शास्त्रों के गौरवको धारण करती है, वह चौदह पूर्वी और बारह अंगोंसे परिपूर्ण है । सात भंगिमाओंवाली वह जिनवरके मुखकमलसे पैदा हुई है । ब्रह्माके मुखमें निवास करनेवाली, शब्दसे उत्पन्न, कल्याणकी विधात्री और सौन्दर्य (शोभा) की खान है । महायोद्धाकी तरह सुन्दर पदयोजनावाली है, जो महाकवियोंको यश प्रदान करनेवाली है ।" पुष्पदन्तका कहना है कि काव्यका आश्रय महान् होना चाहिए, इससे उसका महत्त्व बढ़ जाता है, उसी प्रकार, जिस प्रकार कमलिनीपर स्थित पानीकी बूँदें मोती-सी चमकती हैं । जो अनुभूति महान् आश्रयको लेकर चलती है, वह पूर्ण गौरव धारण करती है । महान् आश्रयको प्रबन्ध-काव्यका विषय बनाने में एक सुविधा यह भी है कि उसमें नाना रसोंकी अभिव्यक्तिका अवसर मिल जाता है । Jain Education International पुराण, महापुराण और चरित काव्य पुष्पदन्त काव्य के अन्त में स्पष्ट रूपसे स्वीकार किया है कि उसने भरतके अनुरोधपर नाना रसभावसे युक्त पद्धडियामें महापुराणकी रचना की । इससे स्पष्ट है 'पद्धडिया' उस युगमें अपभ्रंश काव्योंकी विशेष लोकप्रिय शैली थी, इसीलिए उन्होंने उसे अपनाया । वह मूलतः कवि थे, और जैनधर्म उन्होंने बादमें स्वीकार किया था । अतः यह स्वाभाविक ही था कि महापुराणको काव्यका रूप देते हुए वे उसमें परिवर्तन करते । आर्हती वाणीसे क्षमा माँगते हुए वह लिखते हैं- " गणधरोंके द्वारा निर्दिष्ट इस काव्यकी रचना करते समय मुझ बुद्धि-विहीन ने जिनेन्द्रके मार्गमें जो कुछ कम अधिक कहा है, उसके लिए अर्हत् वचनोंसे उत्पन्न होनेवाली आदरणीय सरस्वती ( जिनवाणी ) मुझे क्षमा करे ।" सैद्धान्तिक दृष्टिसे महापुराण काव्यके अधिकांश नायक कामदेवके अवतार हैं, जो कामचेतना ( रागचेतना ) का संहार करनेवाले For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy