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महापुराण
मेरी विनम्र धारणामें यह जनपदके लोगोंकी संवेदनशून्यता, पापवृत्ति और अकालसे उत्पन्न होनेवाली गरीबी एवं विनाशका सामान्य कथन है। यह तो इस देशकी सनातन नियति है, वह महापुराणकी समाप्ति के समय थी। गोस्वामी तुलसीदास जब अपना रामचरितमानस समाप्त कर रहे थे तब भी वह थी। अतः उसका सम्बन्ध-सीयक द्वारा की गयी मान्यखेटकी लूटसे उत्पन्न विनाशसे जोड़ना तर्कसंगत नहीं है। जिस देशमें (विशेषतः दक्षिण में) भयंकर गरीबी रही हो, उसमें कोई कविको सम्मान और सम्पन्नतासे रखे, तो उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट करना उसका कर्तव्य हो जाता है । जैसा कि आगे कवि कहता है कि ऐसे विषम, अशान्त और मरणधर्मा समयमें नन्नने मुझे बड़े भवनमें रखा, सरस भोजन दिया, सुकुमार चिकने रेशमी वस्त्र और बढ़िया पान दिया, इस प्रकार उसने पुण्यप्रेरित होकर कविका उपकार किया-गुणोंका भक्त नन्न सचमुच महान् है, वह चिरजीवी हो, पावस खूब बरसे-4 1 3 । ( जसहरचरिउ )।
पुष्पदन्त ई. 559 से मान्यखेड नगरके शुभतुंग भवनमें महामन्त्री भरतके समयसे रह रहे थे, नन्नने भी उन्हें रखकर अपने पिताकी परम्पराका निर्वाह किया। सीयकके आक्रमणसे उत्पन्न परिस्थितिके कारण नहीं । पुष्पदन्तने राष्ट्रकूटोंकी राजधानी मान्यखेट को लुटते देखा था, यह उनकी इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है :
"दीनानाथधनं सदा बहुजनं प्रोफुल्ल-वल्लीवन, मान्यखेटपुरं पुरंदरपुरी-लीलाहरं सुन्दरम् । धारानाथनरेन्द्र-कोप-शिखिना दग्धं विदग्धं प्रियं, क्वेदानी वसतिं करिष्यति पुनः श्रीपुष्पदन्तः कविः ॥"
इसमें जहाँ एक ओर मान्यखेटको दीन-अनाथोंका धन-जनसंकुल, पुष्पित लता-वनवाला और इन्द्रपुरीकी लीलाका अपहरण करनेवाला बताया गया है, वहीं दूसरी ओर धारा नरेशको कोपज्वालामें ध्वस्त भी। कविके सम्मुख प्रश्न है कि वह अब कहाँ रहेगा ?
महापुराणकी कुछ पाण्डुलिपियोंमें इस श्लोकके प्रक्षिप्त होनेके कारण, महाकविके कालनिर्णयके विषयमें बहुत बड़ी समस्या खड़ी हो गयी थी। परन्तु डॉ. पी. एल. वैद्य ने उसे प्रक्षेप मानकर उसका हल कर दिया। मेरा अनुमान है कि 'जसहरचरिउ' की रचना समाप्त करने के कुछ समय बाद ही धारानरेशने मान्यखेटपर आक्रमण किया होगा, और तब कविके सम्मुख रहनेका संकट खड़ा हुआ होगा। नहीं तो 'जसहरचरिउ' में वह अवश्य इसका प्रत्यक्ष उल्लेख करते । इस प्रकार कविके दोनों आश्रयदाता भरत
और नन्न ( दोनों बाप-बेटे थे) राजपुरुष थे परन्तु, उन्होंने कविको पूरा सम्मान और अकारण स्नेह दिया जिससे वह वेसठ शलाका पुरुषों के चरित गूंथने के बाद णायकुमारचरिउ और जसहरचरिउकी रचना कर सके तथा एक ही आश्रयमें लगातार १३ वर्ष रहकर वह काव्य रचना करते रहे।
काव्यका उद्देश्य
क्रोधन संवत् ( 11 जून 965 ) आसाढ़ सुदी दसवींके दिन महापुराणको समाप्त करते हुए आजसे एक हजार वर्ष पहले विश्वके मंगलकी कामना करता हुआ कवि कहता है-"मेघ प्रचुर धाराओंसे बरसे, यह धरती अनेक धान्योंसे खूब पके, देश खुश हो, सुभिक्ष खूब बढ़े, लोगोंका व्यक्तित्व अच्छा हो, उनका दुहरा व्यक्तित्व दूर हो, भरतको शान्ति मिले कि जिसने अपने वचनका पूरी तरह निर्वाह किया है।" ( 102/4) काव्यके अनन्त श्रमके अनन्तर कविकी यही कामना है :
'इह दिव्वहु कव्वहु तणउ फलउ लहु जिणणाहु पयच्छउ सिरि भरहहु अरुहहु जहिं गमणु पुष्फयंतु तहिं गच्छउ ।"
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