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________________ सन्धि १० जन्म, भय और मरणके ऋणको समाप्त करनेवाले जिन परमेश्वरकी इन्द्रने स्तुति की"हे समवसरणसे घिरे हुए शान्त परमात्मा जिन मुझपर प्रसन्न हों। हे प्रभु, न तो तुम्हें वन्दनासे सन्तोष होता है, और न तुम निन्दासे मत्सर धारण करते हो; तब भी जो नत नहीं होते, या नत होते हैं, तुम उनके दुःखसमूह और सुख समूहका विस्तार करते हो। तुम कामको नष्ट करनेवाले वोतराग हो, तुम हिंसासे रहित परमधर्म हो। जो तुम्हारी सेवा करता है उसे सुख मिलता है, जो तुमसे प्रतिकूल है उसे दुःख होता है; परन्तु तुम दोनोंमें मध्यस्थभाव धारण करते हो, यह ऐसा स्पष्ट रूपसे वस्तुका स्वभाव है। अधिक पित्तवा सूर्यको निन्दा की जाती है, वायुसे पीड़ितोंके द्वारा चन्द्रमाको निन्दा की जाती है। परन्तु वे दोनों (सूर्य-चन्द्र) इन लोगोंका क्या करते हैं, वे तो अपने स्वभावसे आकाशतलमें विचरण करते हैं। जिस प्रकार चन्द्रमा-सूर्य और औषधिका संघात संसारका उपकारी है, उसी प्रकार हे जिन तुम भी उपकारी हो। जो सरोवरको दोष लगाकर पानी नहीं पीता उसपर प्यासके मारे 'तीव्रमारि' आ पड़ती है। जो पानी पी लेता है, उसकी प्यासका शीघ्र नाश हो जाता है। सरोवरका न इससे प्रयोजन और न उससे प्रयोजन । जिस प्रकार गरुड़का मन्त्र विषका अन्त करनेवाला होता है, उसी प्रकार तुम भी स्वभावसे पापका हरण करनेवाले हो। हे अनवरत भूत स्वामी, जहां तुम वहाँ मैं भी साथ जाता हूँ ( जाऊँगा)। जहाँ तुम हो वहाँ देवों सहित समग्र स्वर्ग और मणिमय भूमिमार्ग हैं, वहीं मैं भी हूँ।" पत्ता-इन्द्र द्वारा निर्मित उस समवसरणमें जिन भगवान् दूसरोंकी कल्याण कामनासे संचरण करते हैं और वे सुर-नर तथा तियंचोंका शुभ करनेका धर्म कहते हैं ॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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