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________________ ८. ५.७ ] हिन्दी अनुवाद १६५ प्रणाम करते हैं और भ्रमरोंसे गूंजती हुईं कुसुमांजलियोंके द्वारा जन्म ऋणसे मुक्त जिनकी पूजा करते हैं। वे इस प्रकार कहते हैं, "तुम धीर हो, तुम क्रम और गृहीत नियमको नहीं छोड़ते । हम चपल और नष्ट बल हैं । तुम्हारे मागंसे च्युत होकर हाय हम मर क्यों नहीं गये ।" इस प्रकार मनमें गतिको धारण करनेवाले सरल श्रमण मकान बनाकर हरिणसमूहसे युक्त वनमें रहने लगे। वे प्रवर कन्द, मधुर जड़ें, बेलका गूदा और फल खाते हैं, शीतल मधुर जल पीते हैं, सिरमें व्याप्त जटाओंवाले वे मूर्ख विचरण करते हैं, जबतक वे मुनि बनते हैं, तब तक सूर्य और चन्द्रमाके शयन और उद्गमके स्थल आसमान में दिव्यध्वनि होती है कि वृक्षोंको मत काटो, हवाको मत चलाओ, धरती मत खोदो, आग मत जलाओ, सरोवरमें प्रवेश मत करो, दूसरोंको मत मारो, यह विधि नहीं है । यदि धैर्य नहीं है, तो राजाके वसन और शरीर के आभूषण शीघ्र धारण कर लो । प्राणोंका दलन करनेवाले संसारके परिभ्रमणमें जो तुमने दुष्ट आचरण किया है, वह नष्ट हो जायेगा । घत्ता - परिग्रहसे शून्य जिनका वेश धारण कर, खोटी आशावाले तुमने जो पाप किया है, जीवका वह पाप, हजारों वर्षों तक न छूटता है और न नष्ट होता है ॥४॥ ५ इन अक्षरों (दिव्यध्वनि ) के होनेपर बहुत-से राजा पेड़ोंके पत्ते और मयूरपिच्छ तथा वल्कल धारण कर दूसरे दूसरे मुनि बन गये। जिनवरके विरुद्ध विरोधनिष्ठासे अधिष्ठित उन लोगोंने अपने नाना विचार और वेष बना लिये। तब कच्छप और महाकच्छपके दोनों पुत्र ( नमि और विनमि), जो दुष्टोंके लिए प्रतिकूल और सिरदर्द थे, कामिनीजनके साथ कामक्रीड़ा चाहनेवाले और मदोन्मत्त प्रचण्ड हाथियोंकी लीलावाले थे, शत्रु सेनाको शक्तिको नष्ट करने में समर्थं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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