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जिनवरके चरणकमलोंको प्रणाम कर और कैलाससे उतरकर पृथ्वीका स्वामी भरत अपने निवास साकेत के सम्मुख चला ।
सन्धि १६
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सूर्यके समान कणकुण्डल और रत्नोंकी मेखलावाले, मुकुटपट्ट धारण किये हुए और गले में हार पहने हुए मण्डलेश्वर, विद्याधर, सुर और मनुष्य चले । गिरि-स्थल एक पलमें समतल हो गया। कौन-कौन जल कीचड़मय नहीं हुआ ? कौन कौन-सा वन चूर-चूर नहीं हुआ ? कौन-कौन तृण धूल नहीं हुआ । किस-किस देशान्तरको उन्होंने नहीं लांघा ? किस-किस दुर्गका आश्रय नहीं लिया ? किस-किस आयुधको नहीं देखा ? किस-किस शत्रुसेनाका प्रतिपतन नहीं किया ? किसकिस श्रेष्ठ वाहनको नहीं चलाया ? किस-किस शत्रुमण्डलको नहीं साधा ? स्वर्णदण्डोंसे अलंकृत है प्रतिहार जिसमें, प्रभुके ऐसे स्कन्धावारके आनेपर पुरस्त्रियां अपने आभरण ग्रहण कर रही हैं । कोमल देवांग वस्त्र पहने जा रहे हैं। केशरका छिड़काव किया जा रहा है । कपूरसे रांगोली की
रही है । भ्रमर सहित कुसुम फेंके जा रहे हैं, देववृक्षों ( कल्पवृक्षों ) के पल्लव-तोरण बांधे जा रहे हैं । घर-घर में जिनपुत्रका गान किया जा रहा है। दूध, दही, तिल और चन्दन, दर्पण, कलश धारण किये जा रहे हैं । दूसरी देव कन्याओं द्वारा मंगलघोष किया जा रहा है । यक्षेन्द्र, खगेन्द्र और मानवेन्द्रों के साथ सुरेन्द्रोंके द्वारा प्रशंसा की जा रही है । गजवरके कन्धेपर बैठा हुआ सुन्दर चमर धारण करनेवाली स्त्रियोंके द्वारा हवा किया जाता हुआ
घत्ता - समस्त धरतीको तलवारसे जीतकर साठ हजार वर्षों तक दिग्विजय-विलास करने के बाद भरत राजा अयोध्या नगरीमें प्रवेश करता है ॥ १ ॥
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