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________________ ११. २७. ३ ] हिन्दी अनुवाद २६१ दो हाथ | ऊपरके अर्थात् अन्तिम ग्रैवेयक के तीन सुखद विमानों और ( अनुदिशों ) के देवसमूहका परिमाण डेढ़ हाथ, विजयादिक पाँच अनुत्तर विमानोंका श्रेष्ठ शरीर एक हाथ प्रमाण कहा गया है | अणिमा, महिमा, लघिमादि शक्तियाँ ईशित्व, वशित्व और गतिशक्तिके द्वारा, युक्त कामरूपसे आतुर समस्त देव क्रीड़ासे चंचल लीलावाले होते हैं। वे कुबड़े, वामन, न्यग्रोध संस्थानवाले और हुंड ( विकलावयववाले ) नारी-पुरुष और नपुंसक नहीं होते । च्युति ( च्यवन ) पर्यन्त देवांगनाओंके साथ गमन आदि ऐशान स्वर्ग तक सम्भव है । नाना शरीर धारण करनेवाले भवनवासी देवोंसे लेकर ईशान स्वर्ग तक शरीरसे कामसेवन किया जाता है । घत्ता - सनत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में स्पशंसे कामसेवन होता है; उससे ऊपरके चार स्वर्गों (पाँचवेंसे आठवें स्वर्गं तक ) में देव रूप देखकर कामको शान्ति करते हैं ||२५|| २६ फिर चार स्वर्गों (नोवेंसे लेकर बारहवें तक ) में शुभ शब्द - कामसेवन होता है । उसके बाद चार स्वर्गों ( १६ वें स्वर्गं तक मनके विचारोंसे कामसेवन होता है । यहाँसे ऊपरके देव कामसे रहित होते हैं । कामको नियन्त्रित कर अनिन्द्य निखिल अहमिन्द्रोंको अतुल सुख होता है । अहमिन्द्रोंकी तुलना में गतराग और त्रिभुवनपतियों द्वारा वन्दनीय जिनेन्द्रका सुख होता है । देवोंको सुखका संगम करानेवाली आयुका कथन करता हूँ । असुर एक सागरके बराबर जीते हैं । नागकुमारों को तीन पल्य आयु जानो । व्यन्तर देवोंकी उत्कृष्ट आयु एक पल्य ही है । सुपर्णकुमारोंकी आयु ढाई पल्य होती है । पुण्यसे परिपूर्ण द्वीपकुमारोंकी दो पल्य होती है। और शेषकी डेढ़ पल्य होती है । चन्द्रमा एक लाख वर्षं अधिक एक पल्य जीवित रहता है। सूर्य हर्षको बढ़ानेवाले एक हजार वर्ष अधिक एक पल्य जीवित रहता है। सौ वर्षं अधिक एक पल्य शुक्र जीता है, ताराओं और नक्षत्रों की कुछ कम एक पल्य ( अर्थात् नक्षत्रोंकी आधा पल्य, तारोंकी चौथाई पल्य ) जानो । फिर सौधर्मादि स्वर्गीके प्रत्येक युगल में क्रमशः सौधर्मं- ऐशानमें कुछ पांच सागर ( अधिक दो- सागर ) सानत्कुमार- माहेन्द्र स्वर्ग में सात सागर, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर में नौ ( दस ), लान्तव और कापिष्ठ में ग्यारह ( चौदह ), शुक्र-महाशुक्रमें तेरह ( १६ सागर ), शतार और सहस्रारमें पन्द्रह ( अठारह), आनत-प्राणतमें सत्रह (बोस), आरण और अच्युत में उन्नीस ( बाईस ), चौंतीस, इकतालीस, अड़तालीस सागर और पचपन पल्य आयु होती है । इस प्रकार विश्वसूर्यं जिन भगवान् सौधर्म आदि स्वर्गोंकी वनिताओं और अच्युतादि स्वर्गोंकी देवांगनाओंकी आयुका कथन करते हैं । घत्ता- -दो, सात, दस, चौदह, अठारह, बीस, बाईस, उससे एक ऊपर कुछ अधिक ||२६|| २७ वहाँ तक कि जहाँ तक, सर्वार्थसिद्धिमें कल्याण करनेवाले देवोंकी तैंतीस सागर आयु है । . कल्प और कल्पादिक स्वर्गके देवों जैसा ज्ञान विशेष है, वैसा कथन करता हूँ । सोधमं ओर ईशान स्वर्ग के देवोंके अवधिज्ञानकी गति वहां तक है कि जहां तक पहली भूमि धर्माका अन्त है । फिर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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