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________________ १३. ६.४] हिन्दी अनुवाद ३०३ ज्या (प्रत्यंचा ) से विमुक्त जो जीवनका हरण करता है, मानो प्रखर प्रसरित किरणोंवाला सूर्य हो । वह मानो मार्गण ( बाण | याचक ) है जो बहुलक्ष्यग्राही है। मानो अपना प्रेषितदूत है। वह जाकर वरदामतीर्थके राजाके सभामण्डपमें गिर पड़ा। उसके शरीरमें किसी प्रकार लगा भर नहीं। स्वर्णपुंखसे आलोकित उसे राजाने उठाकर देखा। देवों और दानवोंकी दलीलाका अपहरण करनेवाले राजाके नामके ये अक्षर उसने उसमें देखे-"अरिविन्द और चन्द्रमाके समान विमलमुख आदि जिनेश्वरके पुत्र मुझ भरतकी जो-जो सेवा नहीं करता, वह चाहे नाग, नर और अमर हो, मुझसे मरेगा।" तब उस राजाने भी इसकी इच्छा की और अपने थोड़े पुण्यको निन्दा की। वह स्वयं वहां गया जहां राजा भरत सागरके मध्यमें तीरोंसे अंचित था। पत्ता-अपना नाम, गोत्र और कुल बताकर उसने शत्रुका प्रतिहार करनेवाले धरतीके राजाको प्रणाम किया। देवोंको भी तुच्छ धर्मके फलसे लक्ष्मी हाथ लग जाती है ॥४॥ इन्दीवरके समान नेत्रवाला स्वच्छ मन वरतनुकी धरतीपर अपने शरीरको झुकाते हुए वह कहता है-"तुम्हारा शरीर युद्धोंका निग्रह करनेवाला है, तुम्हारा सन्धान पूजाका कारण है। हे स्वामी, तुमने जिसपर सर-सन्धान किया है उसके शरीरकी सन्धियां गीध खा जाता है। जिसका पिता स्वयं अनिन्द जिनेन्द्र हैं, हे स्वामी ! पुण्योंके बिना तुम्हें कौन पा सकता है ? लो यह हारावलि, स्वीकार करो, मानो यह धरतीपर पड़ी हुई तारावलि है। लो देवभूमिके वृक्षों (कल्पवृक्षों) से उत्पन्न नित्य नव-नव पुष्प लीजिए। नूपूर लें, कंकण लें, धन-धन दिव्य शस्त्र लें। श्रेष्ठ दिव्यांग वस्त्र लें, दूधकी तरंगोंकी तरह चामर स्वीकारें, जिस प्रकार जीवके लिए अभ्युद्धरण है, उसी प्रकार तुम्हीं मेरे लिए शरण हो।" यह सुनकर भरतने कहा, "इसे और दूसरेको मैंने बन्धनमुक्त किया, इसे लेकर अपने घर आओ और मेरे आज्ञाकारी होकर रहो।" पत्ता-"मेरा राजा यशसे पूरित रहता है, द्रव्यविलास और नाशका क्या वर्णन करूं। विश्वमें अभिमान धन ही उत्तम है, क्या यह वचन तुमने नहीं सुना" ॥५॥ खिले हुए वृक्षोंके रसको दरसानेवाली, शुकसमूहके पंखोंकी कतारसे कुतूहल उत्पन्न करनेवाली, द्वीपकी सुहावनी सीमाओंको ग्रहण कर, वरतनु देवको जीतकर, फिर जयके नगाड़ोंके शब्दोंसे मिली हुई सेना राजाके साथ चली। वह पश्चिम दिशाके सम्मुख दौड़ी। सर्वत्र वह कहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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