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महापुराण
जबकि कुछ पाण्डुलिपियोंमें इनका उल्लेख नहीं है । पाण्डुलिपियोंकी तुलनाके प्रसंगमें इस तथ्यका पता लगा कि जिन पाण्डुलिपियोंमें ये प्रशस्तिपरक छन्द हैं, उनमें पाठोंकी विभिन्नतामें घनिष्ठ समानता है, जिन पाण्डुलिपियों में उक्त प्रशस्तियां नहीं हैं उनमें विभिन्नताओंका दूसरा रूप है । और आगे परीक्षा करनेपर मैंने पाया कि जिन पाण्डुलिपियोंमें प्रशस्ति छन्द नहीं है उनमें पाठोंका प्राचीनतम रूप है । जसहरचरिउके प्रसंग में बहुत-से अबतक उनके लेख और डेट पहचान ली गयी है । चूँकि उक्त पाण्डुलिपिकारको जो कविके चार सौ साल बाद हुआ, कविके आश्रयदातासे कुछ नहीं लेना-देना था। मुझे यह विश्वास हो गया कि इन प्रशस्तियोंकी रचना कविने स्वयं की होगी, और उसे यह परिकल्पना बढ़ानेके लिए बाध्य होना पड़ा कि कविको स्वयं आश्रयदातासे जो सहायता मिली, उससे उसने अपने काव्य की दो-तीन प्रतियां करायीं उनमें से एकमें प्रमादसे हाशियामें कुछ फालतू छन्द लिखने पड़े । कि जिनमें आश्रयदाताकी प्रशंसा थी, जब कि दूसरी प्रति या प्रतियां इन प्रशस्तियोंके बिना ही, उनके हाथसे बाहर चली गयीं । संक्षेपतः इस परिकल्पना से कि जो पृष्ठ 21 ( जसहरचरिउकी भूमिका ) पर अंकित है, मैं यह तय कर सका कि पाण्डुलिपियाँ एस और टी, प्राचीन रूपका प्रतिनिधित्व करती हैं । और तब मुझे इस बातका अवसर मिला कि मैं महापुराण की एक प्रशस्तिका हवाला देकर इसे बताऊँगा ।
'दीनानाथधनं सदाबहुजनं प्रोत्फुल्लमानं वनं मान्याखेटपुरं पुरंदरपुरी लीलाहरं सुंदरम् । धारानाथनरेन्द्रकोप शिखिनादग्धविदग्ध प्रियं क्वेदानीं वसतिं करिष्यति पुनः श्रीपुष्पदंतः कवि ॥ "
इस प्रशस्तिने विद्वानों को महापुराणकी रचनाकी तिथि तय मान्यखेटके लूटे जानेके विषय में । कविने प्रशस्तिके बीच है ( जो 972 ए. डी. में घटी ) वह कारंजाकी प्रति में महापुराण की समाप्तिकी निश्चित तिथि क्रोधन संवत्सर ( 965 AD ) है । मैंने पाया कि उक्त प्रशस्ति मेरी प्रति (K) में नहीं है, यह तथ्य मेरी जसहरचरितकी प्रति ( जो सबसे अच्छी है ) से भी मेल खाता है । इससे मैं उक्त परिकल्पनाका खण्डन कर सका, यह बात महापुराणकी दूसरी पाण्डुलिपियोंके परीक्षणसे सिद्ध है । उस समय पुष्पदन्तकी एक रचना णायकुमारचरिउकी जो प्रेसकापी मेरे मित्र डॉ. हीरालाल जैन द्वारा तैयार की जा रही थी उसमें ये प्रशस्तियाँ नहीं थीं, इसलिए मैं अपनी परिकल्पनाकी उसे पुष्टि नहीं कर सका। तब मैंने उन प्रशस्तियों की तुलना करनेके लिए आगे बढ़ा कि जो महापुराणकी सन्धियोंके प्रारम्भमें हैं। मुझे अभी तक एक भी पाण्डुलिपि ऐसी नहीं मिली जिसमें प्रशस्तियों न हों, इसके साथ मैंने यह भी पाया कि सभी पाण्डुलिपियोंकी प्रशस्तियों में समानता नहीं है। फिर भी मैंने यह देखा कि एक वर्गकी पाण्डुलिपियाँ कुछ प्रशस्तियोंको आश्चर्यजनक ढंगसे एक जगह रखने या उन्हें नहीं रखनेके पक्ष में हैं । मेरी आदिपुराणकी जी. और के. पाण्डुलिपियों में भी थोड़ी संख्या में प्रशस्तियाँ हैं, परन्तु दूसरी पाण्डुलिपियोंमें वे बड़ी संख्या में हैं । इसलिए मैं जी. और के. पाण्डुलिपियोंको अधिक प्राचीन मानता हूँ भले ही वे अधिक पुरानी न हों । मेरी धारणा है कि ये प्रशस्तियाँ महापुराणके पाठके गठनात्मक अंग नहीं है इसलिए उनका समाहार आलोचनात्मक टिप्पणियों में किया गया है। फिर भी मेरा विश्वास है कि इनकी रचना कविने स्वयं की होगी, कोई दूसरा इनकी रचना नहीं कर सकता, क्योंकि उसका इस सीमा तक भरतकी प्रशंसा करनेमें दिलचस्पी नहीं हो सकती थी । मैं यह भी विश्वास करता हूँ कि कवि रचनाओंको पूरा करनेके बहुत बाद इनकी रचना की होगी । किसी भी हालत में, 'दीनानाथ धन' प्रशस्ति छन्द कवि 972 A. D. के पहले नहीं लिख सकता था, जो महापुराणके पूरा होनेके सात वर्ष बादकी घटना है । इन छन्दोंका प्रश्न पाण्डुलिपियोंकी
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करनेमें बहुत परेशान किया, और इसी प्रकार जिस प्रसिद्ध ऐतिहासिक घटनाका उल्लेख किया मिलती है, पचासवीं सन्धिके अन्त में जब कि
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