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________________ १२. १३. १२ ] हिन्दी अनुवाद २८९ मयूर पंखका आच्छादन है, गजमदको प्रचुर कीचड़में सनी हुई गुंजामालाएँ ही जिनके आभूषण हैं, जो घुंघराले और कपिल केशों तथा खूनसे लाल और भयंकर आताम्र नेत्रोंवाले हैं; जिन्होंने तीखे खुरपोंके प्रहारोंसे विदीर्ण कर मोरों और हरिणोंको मार डाला है; जिन्होंने, तीरोंसे आहत हाथियोंके दाँतोंसे निर्मित घरोंमें अचार और बेर इकट्ठे कर रखे हैं, जिन्होंने ताल वृक्षके पत्तों, लाल और नीले कमलोंके फर्णफूल बना रखे हैं, जो दिशाओं में फैले हुए विमल चन्द्रके समान राजाके यशसे भयभीत हैं, जिनके हाथोंमें वंश- विशेषमें उत्पन्न मोती और चमरी गायके बाल हैं, जो सुशीतल और कुसुमरजोंसे सुरभित महीधरोंकी गुफाओंका जल पीते हैं, जो शरियोंके मुखरूपी कमलोंके रसके लम्पट और कन्धों पर अपने बच्चोंको उठाये हुए हैं, जो शिव कण्ठविष के समान मलिन ( श्याम) और नवमेघोंकी छविके समान शरीरवाले हैं, ऐसे विविध किरातराज हाथ जोड़े हुए राजा भरतके पास आये । भारी भयसे जिन्होंने अपने शरीर और भालतलको धरतीपर लगा रखा है, तथा जो अपने बालकोंको झुका रहे हैं, ऐसे उन भील राजाओंको करुणापूर्वक देखकर वह राजा अपने परिजनके साथ उस गंगा नदीके द्वारपर पहुँचा, कि जिसमें नहाती और तैरती हुई यक्षिणियोंके स्तन - केशरके आमोदसे भ्रमर इकट्ठे हो रहे हैं, जिसमें चंचल और संघटित लहरोंके द्वारा विद्याधर-वधुओं को उछाल दिया गया है । जिसमें कच्छप, शिशुमार, मगर और मत्स्योंकी पूँछोंसे जल उछल रहा है । धत्ता - सुन्दर प्रसाधनोंसे युक्त सैन्य वनमें ठहर गया । रात्रिमें परमेश्वरको प्रणाम कर राजा भरत उपवासपूर्वक दर्भासनपर इस प्रकार बैठ गया, मानो जिन भगवान् जिनशासनमें स्थित हो गये हों ॥ १२॥ १३ राजाने चक्ररत्नकी पूजा की । जिस प्रकार उसकी, उसी प्रकार दूसरे दण्डरत्नकी पूजा की। शुकके रंगवाले अभंग अश्वरत्न, और लौह श्रृंखलाओंसे अलंकृत गजरत्नकी ( पूजा की ) । आकाश में सूर्य निकल आया । वह पुरुष रत्न (भरत) अपने रथपर आरूढ़ हो गया । वोरोंके द्वारा प्रशंसनीय, कतिपय मनुष्योंके साथ, ( मानो जैसे मानसरोवर के पंकमें राजहंस हो ) प्रहरणों ( शस्त्रों) से परिपूर्ण, अत्यन्त महान् घूमते हुए रथचक्रोंसे चिक्कार करता हुआ, चंचल फहराते हुए पंचरंगे ध्वजोंसे सुन्दर, नाना मणिकिरणोंसे आलोकित, लटकती हुई किकिणियोंसे रुनझुन करता हुआ, देवेन्द्रोंके मनमें भय उत्पन्न करता हुआ, वह रथ, जिन्होंने समुद्रके जलमें अपने पैरोंको धोया है, जिनके मुँहके सम्मुख तरंगें व्याप्त हैं ( आन्दोलित हैं ); जो सारथिको चर्मयष्टियों ( कोड़ों) से आहत हैं, ऐसे हवाके वेगचाले अश्वोंके द्वारा खींचा गया। छह खण्ड धरती के स्वामी राजा भरतने समुद्रको देखा 1 घत्ता - वह समुद्र हर्षसे गरजता है, भरतकी सेवा करता है। प्रभु किसके लिए अच्छे नहीं लगते । पवनसे आहत लहरोंरूपी अपनी सुन्दर हाथरूपी डालोंसे मानो रत्नाकर नृत्य कर रहा है ॥१३॥ ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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