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________________ १८.४.१०] हिन्दी अनुवाद ४०१ क्यों किया जाता है ? यदि मनुष्य धर्ममें अनुरक्त नहीं होता तो वह निकृष्ट है, उससे क्या होगा? हे देव, मुझपर क्षमाभाव कीजिये और जो मैंने प्रतिकूल आचरण किया है उसपर क्रुद्ध मत होइए। अपनेको लक्ष्मीविलाससे रंजित कीजिए, यह धरती आप ही लें, और इसका भोग करें। मैं, जिनपर आकाशसे नीलकमलोंकी वृष्टि हुई है, ऐसे परमेष्ठी आदिनाथकी शरणमें जाता हूँ।" यह सुनकर भरतेश्वरने कहा-"पराभवसे दूषित राज्य मुझे अच्छा नहीं लगता।" ___ . घत्ता-अन्तःपुर, स्वजनों, परिजनों और शेष लोगोंके देखते हुए मैं तुम्हारे द्वारा जीता गया और तुम्हारे द्वारा स्वयं क्षमा किया गया । तुम गुणवानोंमें क्षमाभूषण हो ।।२।। जब तुमने मुझे अपने बाहुओंसे आन्दोलित किया और लड़ करके भूमिपर पटक दिया, तो चक्ररत्न मेरी क्या रक्षा करता है ? फिर जीवित रहते हुए कोई क्या देखता है ? तुमने अपने क्षमाभावसे क्षमाको जीत लिया, तुमने अपने प्रतापसे कौशिक ( इन्द्र ) को भी सन्तुष्ट कर लिया। तुम जितने तेजस्वी हो, उतना दिखाकर भी तेजस्वी नहीं है। तुम्हारे समान समुद्र भी गम्भीर नहीं है। तुमने अपयशके कलंकको धो लिया है और नाभिराजके कुलको उज्ज्वल कर लिया है। तुम विश्वमें अकेले पुरुषरत्न हो जिसने मेरे बलको भी विकल कर दिया। कौन समर्थ व्यक्ति शान्तिको स्वीकार करता है। विश्वमें किसके यशका डंका बजता है। तुम्हें छोड़कर त्रिभुवनमें कौन भला है ? दूसरा कौन प्रत्यक्ष कामदेव है। दूसरा कौन जिनपदोंकी सेवा करनेवाला है और दूसरा कोन नृपशासनकी रक्षा करनेवाला है। पत्ता-शशि सूरसे, मन्दर मन्दराचलसे और इन्द्र इन्द्रसे उपमित किया जाता है, परन्तु हे नन्दादेवी-पुत्र, एक तुम्हारा दूसरा प्रतिमान ( उपमान) दिखाई नहीं देता ॥३॥ "जो तुमने दुर्वचनोंसे मेरी निन्दा को, जो दृष्टिसे क्रोधपूर्वक देखा, जो सरोवरके पानीसे २ झे सिक्त किया, और जो लड़ते हुए ठेलकर गिरा दिया; हे मेरे भाई, उसके लिए तुम मुझे क्षमा करो, आओ और अयोध्याके लिए जाओ, तुम आज भी सिंहासनपर बैठो, मैं तुम्हारे भालपर पट्ट बांधूगा। यह अर्ककीति तुम्हारा जीवन होगा । इस समय राज्य करते हुए मैं लजाता हूँ। अब मैं परम दीक्षा ग्रहण करूंगा। इस समय इन्द्रियोंके प्रपंचको छोड़ेगा। मैं इस समय पुण्य या पापका आदर नहीं करूंगा। इस समय कर्मोके निबन्धनको नष्ट करूँगा। इस समय योगसे प्राणोंका विसर्जन करूंगा। धत्ता-हे भाई, मैं वनवासमें प्रवेश करूंगा। धरतीके मोह रससे भ्रान्त अपयशके भाजन इस जीवनको जीनेसे क्या ?" ||४|| ५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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