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________________ ४६८ महापुराण [ VIII. 2 2. 1-4 विसयवसा-वे बड़े राजा (योद्धा) जो ऋषभके साथ संन्यस्त हुए थे । कुछ ही दिनोंमें कठोर तपस्या नहीं सह सकनेके कारण खण्डित होने लगे, और भयंकर सिहों, तेन्दुओं और शरभोंसे भयभीत हो उठे। भूख और प्यास की वेदनाने उन्हें अतिक्रान्त कर लिया । 7.६ से २०वीं पंक्ति तक दामयमक अथवा शृंखलायमक। यह दुवईका लम्बा युग्म है। जो इस रचनामें दुर्लभ नहीं है । यद्यपि साधारणतः दुवई, कड़वकके प्रारम्भमें आती है। यह अवतरण धरणेन्द्रकी प्रार्थनाका वर्णन करता है। पृष्ठ 435 IX [ ऋषभ तब छह माह तपस्यामें व्यतीत करते हैं और अपने मनकी सारी गतिविधियां पूर्णतः नियन्त्रित कर लेते हैं। उन्होंने सोचा कि भोजन कम करना पवित्रता प्राप्त करनेका सबसे उत्तम कारण है; इसलिए उन्होंने वह आहार ग्रहण करना स्वीकार कर लिया जो छयालीस प्रकारके दोषोंसे मुक्त होऔर जो नौ प्रकारके दृष्टिकोणोंसे पवित्र हो। उनके जीवनका सिद्धान्त था कि आहार शरीरको समाप्त कर देता है। भोजनको कम करना तपस्याका अंग है, यह इन्द्रिय चेतनाका नियन्त्रण करता है, और जब इन्द्रिय चेतना समाप्त हो जाती है तो सारी प्रवृत्तियाँ मुक्तिकी ओर ले जाती हैं, इसलिए वे जीवनके इन नियमोंका पालन करते हैं । धरतीपर विहार करते हुए जब वे गयपुर आये, जहाँ कि बाहुबलिका पुत्र सोमप्रभ राजा था। उसका छोटा भाई श्रेयांस था। उसने पूर्व रात्रिमें स्वप्नमें सूर्य-चन्द्रमा आदि चीजें देखीं। उसने यह स्वप्न अपने भाईको बताया। इस स्वप्न दर्शन का फल यह था-कि कोई महान् आदमी उनके घर आयेगा। वास्तवमें दूसरे दिन ऋषभ उनके घर आये, आहार ग्रहण करनेके लिए। तब राजा श्रेयांसने उनका स्वागत किया और उन्हें इक्षुरस का आहार दिया, जो उन्होंने स्वीकार कर लिया। तब आकाशमें दिव्यवाणी हुई कि कितना उत्तम दान है ? उसके बाद ऋषभ अपने विहारपर चले गये, और समयके अन्तरालमें उन्होंने चौथा ज्ञान (मनःपर्ययज्ञान) प्राप्त कर लिया, वह ज्ञान जो दूसरोंके मनकी बात जानता है। तब वह नन्दन वनकी ओर गये। वहाँ वटवृक्षके नीचे उन्होंने गुणस्थानोंको प्राप्त किया, और उचित समयमें केवलज्ञान प्राप्त किया, जिससे वह समस्त विश्वको देखने में समर्थ हो गये । उस अवसरपर, इस घटनाका महोत्सव मनानेके लिए देव आये। कुबेरने समवसरणकी रचना की। बत्तीसों इन्द्रोंने अपनी उपस्थितिसे इसका महत्त्व बढ़ाया। फिर उन्होंने जिनकी प्रार्थना की।] 1.7 जैन साधुको जो आहार दिया जाये, वह आधाकर्म आदि दोषोंसे मुक्त होना चाहिए। पृष्ठ 437 [ इन्द्र और दूसरे देव केवलज्ञान प्राप्त करनेपर ऋषभ जिनकी स्तुति करते हैं, जिनके चौबीस अतिशय और हैं, जो केवलज्ञानके कारण उन्हें उत्पन्न होते हैं। इस महत्त्वपूर्ण अवसरपर, भरतके पास यह खबर पहुँची कि उसके पिताने केवलज्ञान प्राप्त किया है, आयुधशालामें चक्ररत्न प्रकट हुआ है; और यह कि रानीको पुत्र हुआ है। थोड़ी देरके लिए भरत दुविधामें पड़ गया कि वह पहले पुत्रको देखे, या चक्रको या पिताको । परन्तु अन्तमें उसने पिताको देखनेका निश्चय किया। वह उनके पास गया, प्रार्थना की और घर वापस आ गया। यह देखकर कि जिनवरने केवलज्ञान प्राप्त किया है, पवित्र और भव्य लोग संन्यास ग्रहण करने के लिए ऋषभ जिनके पास गये। उनके लिए उन्होंने जीव-अजीव आदि श्रेणियोंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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