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________________ १०.८.७] हिन्दी अनुवाद २२७ वह क्षयकालका निवारण करनेवाले और अशुभका हरण करनेवाले तथा जिसमें मगरके मुखकी आकृतिसे निकले हुए मोतियोंकी मालासे चंचल तोरण हैं, ऐसे समवसरणमें पहुंचा। सिंहासनपर आसीन शरीर, चन्द्रमाकी तिगुनी सफेदीके समान आतपत्र (छत्र) वाले, इन्द्रके द्वारा सेवित, जिनके ऊपर चौंसठ चमर ढोरे जा रहे हैं, ऐसे जिननाथको भरतेश्वरने इस प्रकार देखा मानो नवकमलवाले सरोवरने सूर्यको देखा हो। मानो मतवाले मयूरने मेघको, मानो रसायन निर्माताने रसके सिद्धिलाभको, मानो सिद्धने सम्भावित मोक्षको, मानो हंसने सुख देनेवाले मानससरोवरको । दिशाओंके लोकपालोंको कपानेवाले चक्राधिप भरतने स्तुति प्रारम्भ की, "विश्वरूपी भवनके अन्धकारके दीप, आपको जय हो, आगमसे भव्य जीवोंको सम्बोधित करनेवाले आपकी जय हो। एकानेक भेदोंको बतानेवाले आपकी जय हो। हे दिगम्बर, निरंजन और अनुपमेय आपकी जय हो। वे चरणकमल कृतार्थ हो गये जो तुम्हारे प्रशस्त तीर्थके लिए गये। वे नेत्र कृतार्थ हैं, जिन्होंने तुम्हें देखा. वह कण्ठ सफल हो गया. जिसने स्वरोंसे तम्हारा गान किया। हैं जो तुम्हें सुनते हैं, वे हाथ कृतार्थ हैं जो तुम्हारी सेवा करते हैं। वे ज्ञानी हैं जो आपका चिन्तन करते हैं, वे सज्जन और सुकवि हैं जो तुम्हारो स्तुति करते हैं। हे देव, वह काव्य है, जो तुममें अनुरक्त है । जीभ वह है जिसने तुम्हारा नाम लिया है। वह मन है जो तुम्हारे चरण-कमलोंमें लीन है। वह धन है जो तुम्हारी पूजामें समाप्त होता है, वह सिर है जिसने तुम्हें प्रणाम किया है । योगी वे हैं जिनके द्वारा तुम्हारा ध्यान किया गया। वह मुख है जो तुम्हारे सम्मुख स्थित है। जो विपरीत मुख हैं वे कुगुरुओंके पास जाते हैं। हे त्रैलोक्य पिता, तुम मेरे पिता हो। धन्योंके द्वारा तुम किसी प्रकार ज्ञात हो ? दृष्ट आठ कर्मों का नाश करनेवाले तथा दृष्ट उपसर्गोंको नाश करने में एकनिष्ठ हे श्रेष्ठ परम जिन घत्ता-सिंह, गज, जल, अग्नि, विष, विषधर, रोग, बेड़ियां और कलह करनेवाले दुष्ट तुम्हारी याद करनेसे शान्त हो जाते हैं ।।७।। N . कुबेर, असुरेन्द्र, असुर और अमरोंसे प्रशंसित, बृहस्पति, शुक्र, बुध, मंगल आदि ग्रहों और नभचरों द्वारा प्रणम्य आपकी जय हो । तेरहगति भावनाएं ( पाँच महाव्रत, पांच समितियां और तीन गुप्तियां ) जिसके चरण हैं, प्रभासे दीप्त पांच ज्ञान जिसके नेत्र हैं, सम्यक्त्वादि ग्यारह गुणस्थान जिसके सींग हैं, तीन शल्य, जिसके ( मिथ्या दर्शन ज्ञान और चारित्र ) स्कन्ध कुटी और मस्तक हैं, पांच महाव्रत अथवा एक अहिंसाव्रत जिसका सिर है, चारों ओरसे घिरा हुआ जो वहीं स्थित है, बारह अंग और चौदह पूर्व, जिसका ढेक्कार शब्द है, विद्वानोंके द्वारा विचारित, उत्तम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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