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________________ हिन्दी अनुवाद ११. ३३. २०] २६९ वाले पांच प्रकारके अन्तरायको नष्ट कर, इस प्रकार एक सौ अड़तालीस प्रकृतियोंको ध्वस्त कर, प्रकृतियोंसे मानवशरीरको मुक्त कर, स्वयम्भू शुद्ध स्वभाव प्राप्त कर, जो जीव दुःखसे विरहित शाश्वत स्थानमें गये हैं, वे चरमशरीरी किंचित् न्यून, रोग-शोकसे रहित सिद्ध स्वरूप नहीं छोड़ते हुए निर्मल अनुपम निरहंकार जीव द्रव्यसे सघन और ज्ञानशरीरी, ऊध्वंगमन स्वभावसे जाकर समस्त ऊर्ध्वलोकको लाँधकर आठवीं धरतीकी पीठ (मोक्षपीठ ) पर आसीन हो गये, ऐसे अजन्मा जीवोंको जिन भगवान्ने देख लिया। पत्ता-अनन्त वे आदि और अनादिके भेदसे दो प्रकारके विविध दुःखवाले संसारके मुख में फिरसे नहीं पड़ते, उनकी मृत्यु नहीं होती ॥३२॥ ३३ वहाँ न बालक हैं, न वृद्ध, न मूर्ख हैं और न पण्डित हैं, जो शाप और तप रहित । गर्व और पापसे रहित, काम और इन्द्रियबोधसे शून्य, देहचेतना और स्नेहसे रहित, क्रोध और लोभसे रहित, मान और मोहसे रहित, वेद और योगसे रहित. नीराग और निर्भोग. निर्धर्म-निष्कर्म. क्षमा और जन्मसे रहित, स्त्री और कामसे रहित, बाधा और घरसे रहित, द्वेष और लेश्यासे दूर, गन्ध-स्पर्शसे शून्य, नीरस महाभाववाले, शब्द और रूपसे हीन, अव्यक्त चिन्मात्र, निश्चिन्त निवृत्त, जो भूखसे ग्रहण नहीं किये जाते, जो प्याससे नहीं छुए जाते, जो रोगोंके द्वारा क्षीण नहीं होते और न रतिसे दुःखको प्राप्त होते हैं । आहार नहीं लेते, औषधिका प्रयोग नहीं करते। मलसे लिप्त नहीं होते और न जलसे धुलते हैं, नीदको प्राप्त नहीं होते, जो बिना आँखोंके भी देखते हैं, बिना मनके जान लेते हैं, शीघ्र ही सचराचर विश्वको। सिद्धोंको जो सुख है क्या उसे कोई चर्म चक्षुओंवाला मनुष्य, देव या विद्याधर कह सकता है। पत्ता-पांच इन्द्रियोंसे मुक्त विमल परम पदोंमें सिद्धोंको जो सुख होता है वह सुख विश्वतलमें किसीको भी नहीं होता ॥३३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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