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सन्धि ११
फिर काम के प्रसारका निवारण करनेवाले आदरणीय ऋषभ जिनने अशेष लोकके इन्द्रिय भेदका कथन किया ।
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जो संज्ञी पर्याप्तक जीव है वह स्पष्ट श्रोत्रगत शब्दको सुनता है । नेत्रोंको छोड़कर तीन इन्द्रियाँ (स्पर्श, रसना और घ्राण ) पृष्ट और प्रविष्टको दूरसे जान लेती हैं । आँख अस्पष्ट रूपको देखती है । स्पर्श, गन्ध और रसको वे नो योजन दूरसे जान लेती हैं। कान बारह योजन दूरसे लेते हैं । दृष्टि (आँख) का इष्ट-विषय सैंतालीस हजार दो सौ त्रेसठ योजन है । यह चक्षु इन्द्रिय विषयका व्याख्यान किया, जैसा कि केवलज्ञानसे जाना गया । गन्धग्रहण ( नाकका अन्तरंग ) अतिमुक्तक पुष्पके समान है । और कान ( अन्तरंग ) जो की नलीके समान है । आँखमें मसूरकी आकृति जानना चाहिए; और जीभको अर्धचन्द्रमा के समान कहा जाता है । हरी वनस्पति और त्रसोंके शरीरोंमें प्रकाशित स्पर्शको अनेक रूपोंसे जाना जाता है। देवसमूहका शरीर सम चतुरस्र संस्थान होता है । अधोलोकमें स्थित नारकीयोंका हुंड शरीर होता है । मनुष्य और तियँचोंके छहों शरीर ही कहे जाते हैं । भोगभूमियोंका प्रथम अर्थात् समचतुरस्र संस्थान और विकलेन्द्रियोंका अन्तिम अर्थात् हुंड संस्थान होता है । कुब्जक, बावनांग और न्यग्रोधको तियंचों और मनुष्योंका रोधक कहा जाता है । एकेन्द्रिय और नारकीय सुसंवृत योनिमें उत्पन्न होते हैं और अपने कर्ममें उद्भट होते हैं । विकलेन्द्रिय भी विवृत योनिमें होते हैं, गर्भसे उत्पन्न होनेवाले संवृत और विवृत योनियोंमें उत्पन्न होते हैं । देव नारकीय अचित्त योनिमें होते हैं । गर्भ में निवास करनेवाले मिश्रित योनि भी ग्रहण करते हैं, किसीकी उष्ण योनि होती है और किसीकी शीतल । तैजसकायिक जीवोंकी उष्ण योनि होती है, देवों और नारकीयोंकी तीनों योनियाँ ( उष्ण, शीत और मिश्र ) होती हैं । शेषकी तीन योनियाँ होती हैं । मन्थरगमन करनेवाले, चन्द्रमुखवाले और स्त्रीरत्नोंकी शंखावतं योनि होती है । .
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घत्ता - संसार में अनेक जीव सम्पूर्ण शरीर ग्रहण नहीं कर पाते, अपने कर्मके वशसे जो उत्पन्न होते हैं और मरकर चले जाते हैं ॥१॥
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