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________________ हिन्दी अनुवाद १४ जिसकी नाककी नली जलसे भर गयी है, जिसे प्रतियोद्धाके बलमें संशय बढ़ गया है, जिसने माण्डलीक राजारूपी भी हरिणोंको छोड़ दिया है, ऐसे नरेश्वर भरतने वेगसे तीरपर जाकर क्रोधसे लाल आंखोंसे दिशाको रंजित करते हुए अत्यन्त विषदाढ़वाले सपंके समान अथवा अयाल उठाये हुए सिंहके समान भाईकी भत्र्त्सना की - " जो अपने ईखके धनुषको पीड़ित कर उसका रस पीता है, और सुस्वादु गुड़ खाता है और जिसके पुष्परूपी तीर भी चोटीकी शोभा करनेवाले हैं ऐसा तुम्हारे जैसा योद्धा कहाँ पाया जा सकता है । क्षत्रियोंके श्रेष्ठ धर्मको नहीं जाननेवाले, महिलाओं और अपने ग्रामप्रमुखका अहंकार रखनेवाले तुम्हें मेरा मुख देखने से क्या, जीवितों को पानी देने से क्या ? ओ आओ और मुझे इस तरह बाहुयुद्ध दो जिससे दोनोंका अन्तर स्पष्ट हो जाये ।” तब जिनपुत्र बाहुबलि बोला - "तुम व्यथं बोलते हो, मेरे धनुष-बाणका उपहास क्यों करते हो, हे देव जानते हुए भी तुम व्यर्थं बोलते हो, प्रियविरहसे उद्विग्नके समान तुम क्यों नहीं रोते । महिलाओं का साथी मैं स्वजनमार्ग ( शयनमार्ग ) में हूँ, लेकिन तलवार निकल आनेपर मैं योद्धाओंका योद्धा हूँ ।" १७.१५.१५] घत्ता - यदि तुम स्वजनत्व मानते हो तो हे आदरणीय, धरती क्यों माँगते हो, हे राजन् अपने धनकणोंके मदसे विवश किये गये सभी लोग विपरीत हो उठते हैं ? ॥ १४ ॥ ३९५ १५ उस समय महेन्द्र शिरोमणि दोनों भाई अपने पैरोंके अग्रभागको रगड़ते हुए बाहुयुद्ध करने लगे। दोनों ही कुलीन और मानमें महान् पृथ्वीके कारण ( लड़ गये ) । दोनों ही प्रधान और महाबल-मल्ल । दोनों ही संकुचित कुण्डलोंसे अलंकृत कपोल, दोनों ही क्रुद्ध और प्रचण्ड अपने बाहु फैलाये हुए, चिरायु, चन्द्रमाके समान प्रसिद्ध नाम, विक्रमसे युक्त नराधिपकी कामनावाले और समर्थ, लक्ष्मी और रतिके आश्रय, महारथी आभासे युक्त और सूर्यकी तरह तेजस्वी । शंकारहित गरुड़ और मत्स्यके चिह्नवाले, पंकसे रहित, और यशकी किरणोंसे पुण्यरूपी चन्द्रमाको प्रसाधित करनेवाले थे। वे दोनों मिलते हैं, मिलकर हाथ पकड़ते हैं। हाथ पकड़कर देहसे लगकर • गिरते हैं । गिरते हुए मजबूत पकड़ करते हैं और कमर और गलेको रुद्ध कर रह जाते हैं । विरुद्ध भी पकड़को बलसे छुड़ा लेते हैं, छूटकर उठकर शीघ्र मुड़ते हैं, और समर्थ बाहुयुद्धके सैकड़ों विधान ( दावपेंच ) जैसे चांपना, काढ़ना, बेठन ( लिपटना ) आदि करते हैं । दोनों ही धीर और अस्खलित अंगवाले तथा निरंकुश हैं, जैसे मदान्ध महागज हों। पैरोंके भारसे धरती उन्होंने नहीं छोड़ी। शब्दसे दिग्गज दुःखी हो गये, फलोंसे उन्नत वृक्षोंकी पीठ छिन्न हो गयी, पक्षी आकाश में चले गये, वनचर खिन्न हो उठे, क्रूर नागराज वहीं संकुचित हो गये― चल नहीं सके, और भील घाटियों और गुफाओं में छिप गये। उस समय मानिनियोंके मान और मदका हनन करनेवाले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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