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________________ ३. १३. ८ ] हिन्दी अनुवाद ५९ रख दिया गया हो, दिये जाते हुए बालकको देवीने देखा, देवेन्द्रने उसे स्वीकार कर लिया । श्रेष्ठ चारणसमूह द्वारा वन्दनीय उन्हें प्रणाम कर गोदके अग्रभागमें रख दिया गया । पुण्यसे स्फुरायमान व्यक्तिको कौन नहीं मानता ? ईशान इन्द्रने उनके ऊपर धवलछत्र रख दिया । अमरेन्द्र सनतकुमार और माहेन्द्रपति उनके ऊपर चमर ढोरते हैं । घत्ता - "जिन अणुओं से विश्व जीता गया है, उन्हींसे देवका शरीर निर्मित हुआ है" - इस बात का देर तक विचार करनेवाला इन्द्र विस्मित और पुलकित हो उठा । १२ वह पुन: कहता है कि "मेरा कमंगल नष्ट हो गया है और मेरे अनेक नेत्रोंका होना सफल हो गया है कि जो मैंने त्रिभुवनके परमेश्वर जिनेश्वरका यह रूप देख लिया है ।" यह घोषित कर उसने बार-बार भगवान्‌को देखा और फिर अपने ऐरावतको प्रेरित किया। परमेष्ठी जिनेन्द्रको लेकर, अप्सराओं और देवोंके साथ वह भ्रमण करते हुए ग्रहोंवाले आकाशमें चला । सात सौ नब्बे योजन धरती छोड़ने पर तारागणों का स्थान है। उससे, दस योजन ऊपर असह्य किरणोंके प्रसारवाला शरद्कालीन सरोवरोंको खिलानेवाला सूर्यं परिभ्रमण करता है। उसके अस्सी योजन ऊपर चन्द्रमा निरन्तर परिक्रमण करता है। उससे चार योजन ऊपर अश्विनी आदि सत्ताईस नक्षत्र देखे जाते हैं । फिर वहाँसे उतनी ही दूरीपर बुध दिखाई देता है। वहीं में शुक्र और बृहस्पतिका कथन करता हूँ । वहीं मैं मंगल और शनिको गिनता हूँ । इस प्रकार एक सौ दस योजन चलनेपर उन्होंने शुद्ध आकाश पार किया। फिर वह एक हजार अट्ठानबे योजन जाता है । फिर इन्द्र एक सौ योजन जाता है । इतनी ही ( सौ योजन ) लम्बी और पचास योजन विस्तृत, आठ योजन ऊँची, हिमकी तरह स्वच्छ अर्द्धचन्द्रके आकारको पाण्डुशिला जहां शोभित है, वहाँ पहुँचनेपर, जय-जय-जय करते हुए देवेन्द्रने पवित्र शरीर, तीनों लोकोंका कल्याण करनेवाले परम जिनको उस शिलाके ऊपर सिंहासनपर स्थापित कर दिया । घत्ता - असह्य तेजवाले स्वर्णके रंगके स्वामी उसपर विराजमान ऐसे शोभित हो रहे हैं, मानो मन्दराचल, लताओंको धारण करनेवाले वृक्षरूपी हाथोंसे शरीरको ढकता है ||१२|| १३ जिननाथ के भावपूर्वक मानो वह हर्षंसे अपनी लक्ष्मी दिखाता है, मानो फलभारसे नमित वृक्षोंसे प्रणाम करता है । मानो उनपर चमरीमृग चमर ढोरते हैं। मानो कोयल सुन्दर शब्द में बोलती है, मानो स्फटिक मणियोंकी शिलाएँ स्थापित करता है । वेगसे झरनोंके जलको लाता है। और प्रभु चरण-कमलोंका प्रक्षालन करता है। हाथियोंके संघर्षणसे गिरे हुए चन्दनरससे जो प्रणयसे विनयपूर्वक जैसे लोपता है। जो अपनी सित असित अभिनव कमलरूपी आँखोंसे जैसे उनका रूप देखता है, नाचते हुए मयूरोंसे युक्त वह जैसे नाचता है, हैं, जैसे गाता है । मानो वह कुसुमोंके आमोदसे निश्वास लेता है, पंक्तियोंसे हँसता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only जिसमें गुनगुनाते हुए भ्रमर मानो वह रत्नरूपी दांतोंको www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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