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________________ १.१२.८] हिन्दी अनुवाद कमलपत्रोंके समान मुखवाली, पवित्र सती, ज्ञानकी चूड़ामणि, पद्मावतीदेवी पवित्र सती हैं, ऐसी वह, मेरे काव्य विस्तारके इस दुस्तर मार्ग में सहायक हो, देवी भारती मेरे मुखमें स्थित हो। मेरी बुद्धि महाशास्त्रोंकी सामग्रीसे सहित हो। इस प्रकारका छन्द सगिणी छन्द कहा जाता है। घत्ता-मेरे द्वारा रचित उदार शब्दसे गम्भीर निबन्ध ( महाकाव्य ) की जो मनुष्य निन्दा करता है, जनताके दुर्वचनोंसे दग्ध उस मदान्ध दुर्विदग्धको ( दुनिया में ) अपयश मिले ॥१०॥ अथवा मैं अदय और पापकर्मा हूँ, मैं आज भी कुछ भी धर्म नहीं जानता। मिथ्यात्वके सौन्दर्यसे रंजित विवेकवाला मैं जिनवरके वचनोंके रहस्यको नहीं जानता। मैं अनवरत रसभाव उत्पन्न करनेवाले झूठे कथान्तरोंको कहता रहा हूँ। लो मैं सूर्यसे सहित आकाशको अपने हाथसे ढंकना चाहता हूँ। लो मैं समुद्रको घड़ेमें बन्द करना चाहता हूँ। मैं तुच्छ बुद्धि और नष्टज्ञान हूँ, (फिर भी) लो यह महापुराण कहता हूँ। लो दुर्जन ईर्ष्यासे निन्दा करे। लो मैं काव्य करता हूँ। विस्तारसे क्या ? जलगजों, मगरों, मत्स्यों और जलचरोंके कोलाहलसे व्याप्त चंचल लवण समुद्रके वलयमें स्थित, दो-दो सूर्यों और चन्द्रोंसे आलोकित होनेवाले तथा जम्बुवृक्षोंसे शोभित जम्बूद्वीप है। उसमें समेरुपर्वतके लवणसमद्रकी समीपता करनेवाले. दक्षिणभागमें प्रसिद्ध भरत क्षेत्र नदियों, पहाड़ों, घाटियों, वृक्षों और नगरोंसे विचित्र है। उसके मध्य में मगध देश प्रतिष्ठित है, शेषनाग भी उसका वर्णन नहीं कर सकता, यद्यपि उसके मुंहमें हजार जीमें चलती हैं, और उसके ज्ञानमें दोषके लिए जरा भी गुंजाइश नहीं है। घत्त -वह मगध देश, सीमाओं और उद्यानोंसे हरे-भरे बड़े-बड़े गांवों, गरजते हुए वृषभसमूहों, और दान देनेमें समर्थ लोभसे रहित कृषकसमूहोंसे नित्य शोभित रहता है ॥११॥ जिसमें अंकुरित, नये पत्तोंसे सघन फूलों और फलोंवाले नन्दनवन हैं। जिसमें काले शरीरवाला कोकिल घूमता है मानो जो वनलक्ष्मीके काजलका पिटारा हो, जहाँ उड़ती हुई भौंरोंको कतार ऐसो शोभित होती है । जैसे इन्द्रनील मणियोंकी विशाल मेखला हो। सरोवरोंमें उतरी हई हंसोंकी कतार ऐसी मालम होती है जैसे सज्जन पुरुषकी चलती-फिरती चंचल कीति हो। जहां हवासे प्रेरित जल ऐसे मालूम होते हैं जैसे सूर्यके शोषणके डरसे कांप रहे हों। जहां कमल लक्ष्मीसे स्नेह करते हैं लेकिन चन्द्रमाके साथ उनका बड़ा विरोध है। यद्यपि दोनों समुद्रमन्थनसे उत्पन्न हुए हैं लेकिन जड़ (जड़ता और जल) से पैदा होनेके कारण वे इस बातको नहीं जानते । जहां ईखोंके खेत रससे परिपूर्ण हैं, मानो जैसे सुकवियोंके काव्य हों। जहाँ लड़ते हुए भैंसों और बैलोंके उत्सव होते रहते हैं, जहां मथानी घुमाती हुई गोपियोंको ध्वनियाँ होती रहती हैं, जहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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