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________________ ११. २८.१३] हिन्दी अनुवाद २६३ दो स्वर्गके देव ( सानत कुमार और माहेन्द्र ) दूसरी नरकभूमि तक निर्मल देखते हैं और जानते हैं, फिर चार स्वर्गके देव (ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव और कापिष्ठ), तीसरी भूमि फिर चार स्वर्गासे सम्भूत (शुक्र, महाशुक्र, सतार, सहस्रार) देव चौथी भूमि, आणत-प्राणत स्वर्गके देव पांचवीं धरतीको, आरण-अच्युत स्वर्गके देव छठी भूमि तक जानते हैं। नौ ग्रेवेयकके महान् देव वहां तक जानते हैं जहां तक सांतवा नरक है । अनुदिशके सुन्दर देव त्रिजगकी नाड़ीको अपने शुद्ध अवधिज्ञानसे जान लेते हैं। महागुणवान् अनुत्तरदेव ऊपर, अपने विमानके शिखर तक जानते हैं। व्यन्तर देवोंका अवधिज्ञान पच्चीस योजन तक जानता है ! ज्योतिषदेवोंका अवधिज्ञान संख्यायुक्त होता है; और भी युद्ध करनेवाले असुरदेवोंका अवधिज्ञान एक करोड़ योजन होता है। जिस प्रकार असुरोंका उसी प्रकार नक्षत्रों और तारों, चन्द्रों, सूर्यों, गुरु और मंगल ग्रहोंका। शुक्रका भी मैंने संख्याधिक विशेष अवधि बताया। पत्ता-नारकीय भी रत्नप्रभा भूमिमें एक योजन तक देख लेते हैं, शेष भूमिमें आधीआधी गव्यूतिकी हानि होती है ॥२७॥ २८ कर्मका आहार सब जीवोंके लिए होता है, शरीरयुक्त जीवोंका नोकर्मका आहार (छह पर्याप्तियों और तीन शरीरोंके योग्य पदगलोंका ग्रहण ) होता है। लेपाहार वक्षों में भी दिखाई देता है। मनुष्यों और तिर्यंचोंका कवलाहार होता है। औद्य आहार पक्षीसमूहका होता है । चारों देव-निकायोंका मानसिक आहार होता है। अहमिन्द्र भी क्रमशः तैंतीस हजार उत्तम वर्ष बीत जानेपर मानसिक आहार ग्रहण करते हैं। फिर बतीस, इकतीस, तीस, उनतीस, अट्ठाईस, बाईस और सोलह हजार वर्षों में देव (भूखसे ) आहत होते हैं और आहार (मानसिक) ग्रहण करते हैं। जितने सागरोंकी संख्यामें उनकी आयु होती है, उतने ही पक्षोंमें वे निश्वास लेते हैं । पल्यजीवी देव एक भिन्न मुहूर्त में अथवा भिन्न मुहूर्तों में तीन मुहूर्तोंसे ऊपर और नौ मुहूर्तों के नीचे, कभी, निश्वास लेता है। कोई एक पक्षमें श्वास लेते हैं। असुर एक हजार वर्ष भोजन करते हैं। सरस-सुरभित अत्यन्त मीठा सूक्ष्म शुद्ध स्निग्ध इष्ट जो द्रव्य चित्त खाये जाते हैं वे शीघ्र ही शरीररूपमें परिणत हो जाते हैं। घत्ता-संसारी जीव जिस प्रकार चार गतियोंसे भिन्न होनेके कारण चार प्रकारके होते हैं, उसी प्रकार इन्द्रियभेदसे पांच प्रकारके होते हैं ॥२८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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