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________________ ७. १९. १७] हिन्दी अनुवाद १४७ कम हो । संयमी साधुओंके संगसे शोधित श्रावककुलमें मेरा जन्म, जन्म-जन्ममें हो। अनुरक्त मूल्को सम्बोधित करनेवाले आदरणीय ऋषि जन्म-जन्ममें मेरे गुरु हों। दीनमें करुणा, दशाशून्यमें उपेक्षा और गुणवान्में मेरी रति भव-भवमें बढ़े। जन्म-जन्ममें तपकी आगसे क्षीण मेरा शरीर व्रतके योग्य हो। जन्म-जन्ममें धन-परिजन, पुर और घर उपस्थित न हो, उपशमश्री मेरे मनमें स्थित हो। मेरा हृदय नारीके रूपमें न रमे, भव-भवमें वह निष्पाप और इच्छाओंसे शून्य हो। पाँच प्रकारके प्रमादोंको दूर हटानेवाले सत् ध्यानमें जन्म-जन्म मेरे दिन जायें, दर्शन, ज्ञान और चरितको प्रकाशित करनेवाले संन्याससे मेरा मरण जन्म-जन्ममें हो। घत्ता-भव-भवमें रत्नत्रयकी एकता और प्राप्तिमें विरक्त जीव जीवित रहे। संसारसे उतारनेवाले जिनवरके चरणोंको जन्म-जन्ममें मनमें स्मरण करता रहूँ ॥१८॥ इस प्रकार जो वनमें स्थित होकर अपने मनमें अनुप्रेक्षाओंका चिन्तन करता है वह भवसम्पदाको छोडकर परमपदको प्राप्त करता है। मेरे लिए दढ और विचित्र कर्मोका निवारण करनेवाले, इन्द्रियोंके सुख वर्गमें अत्यन्त निस्पृह, संसाररूपी तृणभारके लिए अग्निज्वालाके समान, आदरणीय सिद्ध मेरे लिए शरण हों। यह सोचते हुए और सम्यक्त्व धारण करते हुए एवं रतिभूमिका निवर्तन करते हुए, जिनकी बुद्धिको जैसे ही इन्द्रने जाना वैसे ही लौकान्तिक देव वहां आ पहुंचे। जिनका घर ब्रह्मस्वर्गका लोकान्त था, जो शरीरकी कान्तिसे दिव्यालयको आलोकित करनेवाले थे, पूर्वजन्ममें धर्मकी प्रभावना करनेवाले, प्रतिदिन शुभभावनाओंकी सम्भावना करनेवाले, और जो फेंकी गयी कुसुमांजलिकी केशर रजमें लीन मधुकरकुलसे जिनचरणोंको शवलित करनेवाले थे। भावपूर्वक हाथ जोड़कर वे कहते हैं-"हे देवाधिदेव परमेश्वर, आपकी जय हो। जिसको आप नहीं जानते, वह कैसा है, क्या गिरिके समान है, या परमाणु जैसा। अलोकाकाश और त्रिलोकका निवासभूत लोकाकाश क्या अलक्ष्य प्रदेश है? जीवकर्म पुद्गलका विस्तार, बताओ तुम्हारे ज्ञानको क्या ज्ञात नहीं है ? अपनी समाधिसे विशुद्ध तुम स्वयम्भू हो, यह सुन्दर हुआ जो आप स्वयं प्रबुद्ध हो गये, इन्द्रिय और प्राणोंके संयमको छोड़कर, अपने आपको शीलगुणोंसे अलंकृत कर घत्ता-अविकल केवलज्ञानको प्राप्त कर गतमल सच्चा तत्त्व कहिए । पाताललोकमें गिरते हुए और प्रलयको प्राप्त इस विश्वको, हे आदरणीय, बचाइए ॥१९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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