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________________ ८.१२. १२] हिन्दी अनुवाद १७५ विकसित वृक्षोंके पुष्पपरागसे पीला और मणिमय कटकसे शोभित वह विजयाध पर्वत मानो जैसे धरतीका हाथ हो। रत्नाकर तक फैला हुआ शोभन जो ऐसा लगता है मानो ( रतनागर ) विदग्ध पुरुषमें स्त्रीजन हो। जो मानो विश्वश्रीके नाट्यका आधारभूत बांस हो, अथवा पृथ्वीरूपी गायके शरीरका आधार हो; गंगा और सिन्धु नदियोंके द्वारा जो खण्डित शरीर है, जिसमें प्रतिगजोंकी आशंकामें गज मेघोंको आहत करते हैं, वृक्षोंके लिए जो पर्वत वृक्षायुर्वेद शास्त्र हो, देवोंके लिए प्रिय जो मानो स्वर्गलोक हो। धातु पाषाणोंके औषधि रसकी आगसे चमकते हुए रंगवाला जो, रसवादीकी तरह स्वयं स्वर्णमय हो गया है। जो चन्द्रकान्त मणियोंके जलसे रात्रिमें गल जाता है, और दिनमें सूर्यमणियोंकी ज्वालामें जल उठता है। माणिक्योंकी प्रभासे प्रकाश ( अवलोकन ) मिल जानेके कारण जहां चकवे शोकको नहीं जानते। जो समस्त रजतमय है, और चन्द्रमाको आमाके समान है, जिसका विस्तार पचास योजन है, जिसके विचित्र शिखर आकाशको छूते हैं, जो पचीस योजन ऊंचा है। लम्बाईमें वह अपने दोनों किनारोंसे वहां तक स्थित है कि जहां तक लवण समुद्र है। जिसकी उत्तर-दक्षिण श्रेणियां सुन्दर विद्याधरोंकी हैं। घत्ता-जो धरतीको छोड़कर, दस योजन ऊपर जाकर दस योजन विस्तृत है, और नाना रत्नोंसे सुन्दर एक-एक वैभवमें महान् है ।।११॥ वहां हमेशा चतुर्थकालकी स्थितिका संविधान है। मनुष्योंकी ऊंचाई पांच सौ धनुष प्रमाण है । जहाँ कर्मभूमिके समान कृषि आदि कर्मसे उत्पन्न तथा श्रेष्ठ विद्याओंके फलसे अधिक भोग हैं। कुलजातिके क्रमसे आयी हुई, असह्य तपस्याके तापसे वशमें आयी हुई पूर्वकी विद्याएं उन्हें नित्य रूपसे प्राप्त हो गयीं और भी विद्याएं उन्होंने ( नमि-विनमिने ) प्रयत्नसे सिद्ध कर लीं। उपसर्गोंको सहन करनेका धैर्य शम, पवित्र देह, होम, संयम, मुद्रामण्डलके प्रारम्भ करनेसे नैवेद्य, गन्ध, धूप और फूलों द्वारा अर्चा करनेसे नियम और व्रत करनेसे विद्याधरोंको स्वभावसे विद्याएँ सिद्ध होती हैं। प्रज्ञप्ति आदि विद्याएं उन्हें सिद्ध हो गयी, और आकर उनकी आज्ञाओंका पालन करने लगीं। जहां सीमा उद्यानोंसे निरन्तर बसे हुए ग्राम धर्मोकी तरह कामनाओंको पूरा करनेवाले हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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