SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 321
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०. १४. १३ ] हिन्दी अनुवाद २३५ लवणसमुद्रके मत्स्य अट्ठारह योजनके होते हैं। गंगा आदि नदियोंके प्रवेश स्थानोंपर छत्तीस योजनके होते हैं; तथा कालोदसमुद्रमें दिशाओंको आच्छादित करनेवाले। अवसान ( अन्तिम स्वयम्भूरमण) समुद्र में जो मत्स्य बहते हैं, वे पांच सौ योजनके होते हैं। आकाशके आंगनमें विचरनेवालों, थल और आकाशमें चलनेवालों, संमूर्छन और गर्भज जन्म धारण करनेवालोंका शरीरमान कई धनुषोंका गिना जाता है, इस प्रकार मुनिवर कहते हैं। किन्हीं पर्याप्तक जलचरोंका शरीरमान एक हजार योजनका मापा जाता है, इस प्रकार पर्याप्ति क्रमसे शून्य इस संमूर्छन जीवोंकी अवगाहना, जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कही गयी दो हाथकी दिखाई देती है, इनकी परम अवगाहना नर विअस्थि होती है। गर्भधारी थलचरोंकी अवगाहन तीन गव्यूति (६ कोश ) परम मानसे होती है। सूक्ष्म बादर जीवोंकी जघन्य अवगाहना अंगुलीके असंख्य भागके बराबर होती है। पत्ता-विश्वमें सूक्ष्म निगोदमें जन्म लेनेवाले अपर्याप्त जीवोंको भी उन्होंने गुप्त नहीं रखा। कामदेवका नाश करनेवाले उन्होंने जलचरोंकी उत्कृष्ट और जघन्य अवगाहनाका कथन किया है। इस प्रकार ब्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त इस महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महामव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका तिर्यच अवगाहन नामक दसवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥१०॥ महाकाव्यवापरायचे अवगाहन भागमदत द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy