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________________ महापुराण मानो लक्ष्मीके हाथसे कमल छूट पड़ा हो, मानो त्रिभुवनकी लक्ष्मीके सौन्दर्यका घर हो. मानो सुरतिसे उत्पन्न विषम श्रमका परिहार हो, मानो युवतीजनोंके स्तनपर आन्दोलित श्वेतहार हो। मानो अमृत बिन्दुओंका सुन्दर समूह हो, मानो यशरूपी लताका अंकुर हो। पुष्पदन्तको प्रकृतिका ऐसा संश्लिष्ट चित्रण बहुत पसन्द है जिसमें प्रकृतिकी पृष्ठभूमिमें जिनवर ऋषभ तपस्या कर रहे हैं, इसमें श्लेषका चमत्कार है : गिरि सोहइ चुय महु आसवेहिं जिणु सोहइ रुद्धहिं आसहिं गिरि सोहइ वियलियणिज्झरेहि इ कम्मणिज्जरेहिं 37/19 किसी अशुभ प्रसंगके प्रारम्भका आभास कवि सूर्यास्तसे देता है। भरत बाहुबलिमें सन्धिवार्ता असफल होनेपर दोनों पक्षोंमें युद्धकी तैयारी होने लगती है, इसी बीच सूर्य घपसे डूब जाता है : कविकी कल्पना: ता परिल्हसिउ दिणमणी णं सिरोमणी गयणकामिणीए । अत्थं पडिणिवेइओ रुइ विराइओ णाइ जामिणीए॥ तब दिनमणि (सूर्य) इस प्रकार खिसक गया जैसे आकाशकी लक्ष्मी यामिनीने कान्तिसे युक्त अपना शिरोमणि अस्तको निवेदित कर दिया हो । दिवसके प्रवेशका निषेध कर दिया गया । "ना वेसहि भणेवि अइरत्तउ दिवसहु दिण्णु दीवु सिहितत्त्वउ णं चउ पहरहिं वणु अहिकतिहि जायउ लोहियदु णइदंतिहि णाइं पवाल कुंभु दिसणारिह धरिवि मुक्कु दिक्कखिणियारिइ पउलिवि तलिवि दलिवि दलवट्टिवि जीवरासि जगभायणि घट्टिवि । उग्घाडिवि ससहर मुह णिद्धहि संमुहियहि तियसासामुद्धहि णं सिंदूर करंडु झसच्छिइ दाविउ लवण जलहि जललच्छिह । मयरंदुल्लोलु व जगकमलहु णिउ वाएण वरुणमुहकमलहु गोमिणीइ हरिरइरसमरिउ पोमरायवतु व वीसरिउ । अत्यमियउ जाइवि अवरासइ रत्तु मित्तु णंगिलियउ वेसइ ॥ पुणु दीसइ संझारायएण भुवणु असेसु वि रत्तउ सहुं गिरि दरिसरि णंदणवहिं लक्खारसिणं पित्त उ" ॥23॥ तुम प्रवेश मत करो ऐसा कहकर मानो दिवसके लिए अत्यन्त रक्त और शिखाओंसे सन्तप्त दीप दे दिया गया। मानो अत्यन्त कान्तिवाले आकाशरूपी गजके चारों प्रहर (प्रहार और प्रहर) के कारण वन रक्तसे लाल हो गया, मानो दिग्गजकी पत्नी दिशारूपी नारीके द्वारा प्रवालघट ग्रहण कर छोड़ दिया गया है, मानो विश्वरूपी पात्र में जीवराशिको (कि जो दण्डविहीन जनोंके लोहसे आरक्त है ) काटकर, तलकर, कूट-पीसकर दिशापथोंमें उसी प्रकार छितरा दिया गया जैसे कालके द्वारा अण्डा फेंक दिया गया हो। जिसकी आंखें मछलीके समान हैं, लवण समुद्रकी ऐसी लक्ष्मीको अपना सिन्दूरका पिटारा दिखाया हो मानो विश्वरूपी कमलके परागके उच्छलनकी वायु ले गया हो, मानो गोमिनीके द्वारा फेंका गया कृष्णके क्रीड़ारससे भरा हुआ पद्मराग मणिका पात्र हो । सूर्य पश्चिम दिशामें जाकर डूब गया, मानो अपने अनुरक्त मित्रको वेश्याने निगल लिया हो। फिर अशेष भुवन सन्ध्यारागसे आरक्त हो गया ॥ 'सन्ध्याराग' के प्रति कविका विशेष मोह रहा है। इस शब्दका उल्लेख उसने कई बार किया है। सन्ध्याराग कविकी कल्पना कई रंगोंमें रँगती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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