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________________ ८. ७.४ ] हिन्दी अनुवाद १६७ थे, हाथमें तलवार लिये हुए उस स्थानपर आये, जहाँ दम्भसे रहित स्वयं आदिजिन प्रतिमायोगमें स्थित । महान् शत्रुओंको पीड़ित करनेवाले उन्होंने उनकी उसी प्रकार परिक्रमा दी, जिस प्रकार चन्द्र-सूर्यं जम्बूद्वीपकी परिक्रमा देते हैं। आपसमें बद्ध स्नेह और नामसे नमि-विनमि वे उनके पास उसी प्रकार बैठ गये जिस प्रकार पर्वतके निकट मेघ स्थित होते हैं । जयकार करके उन्होंने इस प्रकार कहा, "हे देव, आपने अपने पुत्रोंको भूमि विभक्त करके दे दी, हम लोगोंके लिए कुछ भी नहीं दिया । जिन्होंने छात्रधर्मका परिपालन किया है और जो अनुचरोंके लिए आज्ञाका प्रेषण करनेवाले हैं, ऐसे आपने गोपदके बराबर भी भूमि नहीं दी । इस समय आप उत्तर तक नहीं देते । हे गुणरत्नराशि, बताइए इसमें हमारा क्या दोष है ? हे परमेष्ठी पितामह त्रिजग पिता, हमारा राजा दुष्ट नहीं हो सकता । घत्ता - नव कमलोंके समान आपके चरणोंमें हमारा मनरूपी मधुकर गुनगुना रहा है जबतक हमारा हृदय नहीं फटता तबतक आप क्यों नहीं देखते और बोलते ?” ॥५॥ ६ प्रभु प्रसाद और दान उत्पन्न करनेमें लीन वे कुमार बार-बार उनके पैरोंपर पड़ रहे थे । गुरुजनके प्रति किया गया उनका मानका परित्याग वैसा ही शोभित हुआ है जैसे गिरिवरके विदारणमें हाथी के दाँतोंका भंजन सोहता है । उस अवसरपर जिसका शरीर जिनवरके पुण्यरूपी पवनसे स्पष्ट है, और जो पद्मावतीके आनन्दका कारण है ऐसा नागराज धरणेन्द्र अपने रत्नमय सिंहासन के साथ काँप उठा । अपने अवधिज्ञानका प्रयोग कर उसने जान लिया कि जो कुछ सालों ( नमि और विनमि) ने जिनवरके सामने कहा था । भुवनसूर्य ( ऋषभ जिन ) से ये मूर्ख क्या माँगते हैं, वे जब देते हैं तो त्रिभुवनका दान कर देते हैं । परन्तु उन्होंने तो गृहस्थधर्मका त्याग कर दिया है और पवित्र मुनिधर्मं प्रारम्भ कर दिया है । सामन्त और मन्त्रियोंसे सेवित नरेश अथवा राजा सन्तुष्ट होनेपर देश देता है । देशपति ग्राम देता है, ग्रामपति क्षेत्र देता है, और क्षेत्रपति ( खेतका मालिक ) कुछ तो भी प्रस्थभर ( एक माप) चावल देता है, और गृहपति ( गृहस्थ ) एक मुट्ठी चावल देता है । त्रिभुवनपति तो प्रजाओंके लिए सृष्टि प्रकट करता है। यदि प्रार्थना ही करनी हो तो किसी बड़ेसे की जाये, क्योंकि किसी छोटेसे की गयी प्रार्थनासे वह सुन्दर होती है। लो, इन कुमारोंने अच्छा किया कि उन्होंने उनसे प्रार्थना की कि जो त्रिलोकनाथ हैं। उनसे प्रार्थना की जिनका यश विश्वप्रसिद्ध है । उनसे प्रार्थना की जिनका दास इन्द्र है । धत्ता - जो निश्चलमन हैं, तृण और कंचन में समभाव धारण करते हैं, जिन्होंने धनका परित्याग कर दिया है । चूँकि उन्होंने उन मोक्षार्थीसे अभ्यर्थना की है, इसलिए मैं उन्हें अशून्य करता हूँ ||६|| वे (नमि-विनमि ) मनुष्यलोक में हैं। मैं यहाँ हूँ । फिर भी वे क्षोभके कारण हुए । इनसे gora क्या अवतारणा कहूँ ? बिना कहे हुए ही वृक्ष महाफल देते हैं, सुपुरुषका दर्शन भी निष्फल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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