________________
महापुराण
तं मुहं जं तुह संमुइउं थाइ विवरंमुहं कुच्छिय गुरुहु जाइ
तेल्लोक्क ताय तुहं मज्झु ताउ धण्णेहिं कहिं मि कह कह विणाउ । 10/7_ एकानेक भेदोंको बतानेवाले आपकी जय हो; हे नग्न निरंजन और अनुपमेय आपको जय हो; वे ही चरणकमल है जो आपके प्रशस्त तीर्थ तक जाते हैं ? वे ही नेत्र सफल हैं जिन्होंने आपको देखा है; वही कण्ठ कण्ठ है जिसने आपका गान किया है । वे ही कान धन्य हैं जो आपको सुनते हैं। वे ही हाथ हाथ हैं, जो आपकी सेवा करते हैं। वे ही ज्ञानी हैं जो आपको गुनते हैं, वे ही सुजन कवि हैं जो आपकी स्तुति करते हैं; हे देव, वही काव्य है जो आपके लिए रचित है, वही जीभ है जिसने तुम्हारा नाम लिया, वह मन है जो तुम्हारे चरण कमलोंमें लीन है। वही धन है जो तुम्हारी पूजामें क्षीण है। वही शिष्य है जिसने तुम्हें प्रणाम किया है; वे ही योगी हैं जिन्होंने तुम्हारा ध्यान किया है। वही मुख है जो आपके सम्मुख स्थित है । गुरुसे विमुख मुख कुत्सित हो जाता है।
हे त्रिलोकपिता, तुम मेरे पिता हो; मैं धन्य हूँ कि किसी प्रकार आपका नाम ले पाता हूँ ? 'धण्णे हिं' की जगह, धण्णों हं, पाठ उचित है।
इस प्रकारके उद्गार, यद्यपि पुष्पदन्तके पूर्व मिलते हैं, परन्तु यहाँ इनका उल्लेख, महापुराणमें वणित भक्तिके समग्र स्वरूपको देखनेके लिए है।
जिनके नामकी महिमा बताता हुआ भरत चक्रवर्ती कहता है :
"हे आदिजिन, आप सिद्ध, मन्त्र और सिद्धौषधि हो, तुम्हारा नाम लेनेसे सांप नहीं काटता; आपके नामसे मतवाला हाथी भाग जाता है। आपके नामसे आग नहीं जलाती; शत्रुसेना अस्त्ररहित होकर डर जाती है, तुम्हारा नाम लेनेसे शत्रुओंको सन्तुष्ट करनेवाली शृंखलाएं टूट जाती हैं। तुम्हारे नामसे नर समुद्र तर जाता है, और क्रोध और दर्पकी ज्वाला शान्त हो जाती है, हे केवल किरण रवि, तुम्हारे नामसे रोगसे पीड़ित नोरोग हो जाते हैं।" 10/8
ये उद्गार आराध्य की महिमा और लोकोत्तर महिमामूलक विश्वास पैदा करने के लिए है, यह विश्वास आत्म-विश्वासका जनक है, यही वह विश्वास है जो व्यक्तिको शक्ति, उत्साह और प्रेरणा देता है। छोटे छन्दमें एक स्तुति देखिए :
जय सयल भुवणयल। मल हरण इसि सरण । वर चरण समधरण । भव तरण जरमरण।
परि हरण जय वरुण । 1/37 प्रकृतिचित्रण
प्रकृतिचित्रणके स्वरूप और उसके प्रकारों के विषयमें हिन्दी आलोचकोंकी धारणा भ्रमपूर्ण है। काव्यका मुख्य उद्देश्य मनुष्यकी अनुभूतियोंको अभिव्यक्त करना है। प्रकृति भी मनुष्यकी अनुभूतियोंको प्रभावित करती है। कभी प्रत्यक्ष रूपमें और कभी अप्रत्यक्ष रूपमें। कभी वह, सीधे भावोंको जन्म देती है, और कभी उत्पन्न भावोंको संचरित करती है। वैसे तो मनुष्य प्रकृतिकी गोदमें खेल-कूदकर बड़ा होता है, लेकिन जहाँ तक काव्यका सम्बन्ध है, मनुष्य और प्रकृतिको जोड़नेवाला तत्त्व है 'समय' । समयके विभिन्न प्रभाव और प्रतिक्रिया प्रकृतिमें विविध दृश्योंकी रचना करते हैं और मनुष्य-हृदयमें विविध भावोंकी । समयका यह प्रभाव ही कविके भावसे प्रकृतिके दृश्यको जोड़ता है। उक्त कारणोंसे प्रकृतिके दो रूप स्पष्ट है-एक आलम्बन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org