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प्रस्तावना
गिदिज्जइ रवि पित्ताहिएहि
चंदु वि वाएण विवाइएहिं ते दोण्णि वि एयहं किं करंति ससहावें णहयलि संचरंति ससि सूरोसहि संघाउ जेम
भुवणो वयारि जिण तुहं मि तेम । सरु दूसिवि जो ण वि पियइ वारि
तहु तण्हइ णिवडइ तिव्वमारि" जो रसइ तासु तिसणासु सज्जु सरवरहु ण एण ण तेण कज्जु" जिह 'गरुलमंतु' गरलंतयारि
तिह तुहुं वि सहावें दुरियहारि ॥"10/1 इन्द्र कहता है-“हे स्वामी, जो तुम्हारी सेवा करता है, उसे सुख होता है, तुमसे जो प्रतिकूल है उसको दुःख होता है । परन्तु आप दोनोंमें मध्यस्थ हैं । इस संसारमें यही वस्तुका स्वभाव है ।
पित्तकी अधिकतावाले सूर्यको निन्दा करते हैं और वायुविकारसे पीड़ित लोग चन्द्रमा की । लेकिन ये दोनों ( सूर्य और चन्द्रमा) इनका क्या करते है ? वे तो स्वभावसे आकाशमें विचरण करते हैं । चन्द्रमा और सूर्यके औषधि-संघातकी तरह, हे जिन आप भुवनका उपकार करते हैं। लेकिन जो सरोवरको दोष लगाकर उसका पानी नहीं पीता वह प्याससे तड़पकर मर जाता है। परन्तु जो पानी पी लेता है, उसकी प्यास शीघ्र मिट जाती है। सरोवरका न इससे मतलब और न उससे । जिस प्रकार गरुड़मन्त्र स्वभावसे विषका अपहरण करता है, उसी प्रकार हे जिन, आप स्वभावसे पापका अपहरण करनेवाले हैं।" इस प्रकार यद्यपि जिन भगवान्, सुख-दुखके प्रति मध्यस्थ हैं। उन्हें दुनियावालोंके सुख-दुखसे कुछ नहीं लेना-देना, फिर भी यदि उनके प्रति अनुकूलता रखनेवाले सुख और प्रतिकूलता रखनेवाले दुःख पाते हैं, तो ऐसा नहीं है कि इससे उनकी मध्यस्थता भंग होती है, और ऐसा भी नहीं है कि लोगोंको सुख-दुखकी सापेक्ष अनुभूति नहीं होती। कवि सूर्य-चन्द्रमा और सरोवरके उदाहरणोंके द्वारा दोनोंमें (आराध्यकी तटस्थता और आराधककी सुख-दुख प्राप्तिके बीच) तारतम्यका सूत्र स्थापित करता है। यह सूत्र है स्वभाव । चन्द्रमासूर्य और सरोवरका काम है प्रकाश और पानी देना; इसके अतिरिक्त यदि लोग उनसे कुछ और ग्रहण करते हैं तो यह उनका स्वभावगत दोष है। प्रश्न है कि जब मनुष्यका स्वभाव ही उसके सुख-दुखके लिए उत्तरदायी है तो फिर जिनवरकी भक्ति करनेसे क्या लाभ ? स्वभावकी भक्ति करनी चाहिए? बात ठीक है ? स्वभावकी भक्तिके लिए भी उसकी पहचान जरूरी है। जिनवरका स्वरूप आत्माके इसी सहज स्वभावको पहचान कराता है। यहाँ सुखका तात्पर्य आत्म-सुख है ? जिनभक्तिसे भौतिक सुखकी आशा करना व्यर्थ है। जिनेन्द्रका स्वभाव पापोंका अपहरण करना है, पापोंके अपहरणका अर्थ है रागचेतनासे अलिप्तता। जब व्यक्ति रागचेतनासे दूर होता है तो उसकी पुण्य-पापकी भौतिक इच्छाएँ स्वतः शान्त हो जाती हैं और वह आत्माके सहज स्वरूपको जान सकता है ? इस प्रकार भक्ति-सहज आत्म-स्वरूपकी पहचानका निमित्त कारण है। पुत्र, भरत चक्रवर्ती, अपने पिता ऋषभ जिनकी भक्ति करता हुआ कहता है कि जीवनकी सार्थकता जिनेन्द्रभक्तिमें है।
जय भासिय एयाणेय भेय जय णग्ग णिरंजण णिरुवमेय सकमत्थई कम कम लाइं ताई तुह तित्थु पसत्थु गयाइं जाई णयणाई ताई दिट्ठोसि जेहिं सो कंटु जेण गायउ सरहिं ते घण्ण कण्ण जे पई सुणन्ति ते कर जे तुइ सेसणु करंति ॥ ते णाणवन्त जे पई मुणन्ति ते सुकइ सुयण जे पई थुणन्ति तं कन्वु देव जं तुज्झु रइउ सा जीह जाइ तुह गाउं लइउ तं मणु जंतुह पयपोम लोणु तं धणु जं तुह पूयाइ खीणु । तं सीसु जेण तुहुँ पणविओसि ते जोइ जेहिं तुहु झाइयोसि ।
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