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________________ ५० महापुराण बाहबलिको देखकर नगर-वनिताएँ अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त करती हैं, पर वह स्वयं तटस्थ है। यह रागचेतनाके आलम्बनका चित्रण है, इसके आधारपर यह नहीं कहा जा सकता कि नगर-वनिताएं हीन चरित्र की थीं। हिन्दी कवि जायसी रतनसेन और पद्मावतीके जिस प्रेमाख्यानको अपने काव्य 'पद्मावत' का आधार बनाते हैं उसका अपभ्रंश कथा-काव्योंके उद्देश्य और रचना प्रक्रियासे कोई सम्बन्ध नहीं । जिनभक्ति 'नाभेयचरित' का सबसे प्रमुख स्वर है 'जिनभक्ति' । जब कवि कहता है कि उसका यह चरित-काव्य धर्मके अनुशासनसे भरा है, तो इस धर्म अनुशासनमें भक्तिका स्थान महत्त्वपूर्ण है। यह भक्ति कविका अपना आविष्कार नहीं है, वह परम्परासे प्राप्त है फिर भी उसमें अभिव्यक्तिकी मौलिकताके साथ कविकी निजी अनुभूति भी है । मंगलाचरण और स्तुतिके अवतरणोंका उल्लेख न करते हुए-यहाँ केवल कविकी अनुभूतिसे सम्बद्ध भक्तिके प्रसंगोंका विचार किया जायेगा। शेषनाग धरणेन्द्र, "आदिनाथके विभिन्न नामोंकी व्याख्या करता हुआ कहता है - 'भव विणासी भवो सिष पयासी सिवो चित्ततमहोइणो दोस विजयी जिणो पावहारी हरो तं पराणं परो देव देवो तुम ताहि दीणं मम णिग्गुणो णिद्धणो दुम्मई णिग्घिणो परहरावासओ गहिय परगासओ माणो मेच्छहो रोहिओ रिच्छओ जाय ओ हे भवे णारओ रउरवे तुम्ह पडिकूलिमा जा कया सा कमा एम भुत्ता भए आसि काले गए ॥' 8/8 हे आदि जिन, आप भव ( संसार ) का नाश करनेवाले भव है। शिवको प्रकाशित करनेवाले शिव हैं, चित्तके अन्धकारके लिए सूर्य है, दोषोंको जीतनेवाले जिन है, पापोंका हरण करनेवाले हर हैं, तुम श्रेष्ठोंमें श्रेष्ठ हो, हे देवदेव, मुझ दीनको बचाओ, निर्गुण निर्धन दुर्मति निघृण, मैं, पर गृहमें निवास करनेवाला, और दूसरोंका अन्न खानेवाला । मैं जन्मान्तरोंमें मनुष्य म्लेच्छ रोहित, और रीछ हुआ है, मैं संसार और रौरव नरकमें गया हूँ। हे देव, मैंने जो तुमसे प्रतिकूल आचरण किया है, उसका फल मैंने पा लिया है बीते समयमें। धरणेन्द्र पाताल लोकका स्वामी है, और वह ऋषभके दोनों सालोंको विजयार्द्ध पर्वतकी समद्ध श्रेणियां प्रदान करता है। ऐसी स्थितिमें उसका यह कहना कि मैं दूसरेके घरमें रहता हूँ, दूसरेका दिया खाता हूँ, "तो यह कविके जीवनका निजी सन्दर्भ है, जिसे वह धरणेन्द्रके मुखसे कहलाता है। इस समय कवि मन्त्री भरतके घरमें रह रहा है।" दार्शनिक दृष्टिसे जैनधर्ममें भक्तिका महत्त्व दूसरे स्थान पर है, क्योंकि सृष्टि अनादि निधन है, जीव स्वयं अपना कर्ता-भोक्ता है, तीर्थकर उसमें कुछ नहीं कर सकते। इस तथ्यसे जैन दार्शनिक परिचित थे, फिर भी यदि वे भक्ति करते हैं तो उसका कारण यह है कि ऐसा करना उनका स्वभाव है ! जो पई सेवइ तहु होइ सोक्खु तुह पडिकूलहु संभवइ दुक्खु तुहुं पुणु दोहिं मि मज्झत्थभाउ इह एहउ फुडु वत्थुहि सहाउ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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