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४. १२.१४]
हिन्दी अनुवाद
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डिमडिमका शब्द होने लगता है । मृदंग बजता है, कामदेव हँसता है। टिविली द-द-द-दं कहती है मानो जिन कहते हैं कि मैं भी नारीयुगलसे मुक्त हूँ। सैकड़ों भवोंमें घूमते हुए जो उन्होंने भोगा है, मानो, वही वही-वही बोलते हुए यही कहते हैं। संसार ही वीवाका शब्द है जो मनमें वल्लभ और कलत्र (पति-पत्नी) को जोड़ता है। जिस कारणसे बहछिद्र बाँसको ( बांसुरीके रूपमें ) बेधा गया है, मानो वही वह मधुर स्वरमें कह रहा है ( कि वधू ही एकमात्र रमण स्थल है)। वह मृदंग भी क्या जो भोजनक (?) (वादक) को प्राप्त होता है। वह श्रेष्ठ होते हुए भी दूसरेका करप्रहार सहता है । काहलके शब्द फैल गये हैं, मानो मुखके पवनके द्वारा वे दूर हटा दिये गये हैं। निःश्वासोंसे शंख आपूरित हो गये, असंख्य बहरे-अन्धे-मूक और पंगु भी आपूरित (धनसे सन्तुष्ट ) हो गये हैं। कंसाल और ताल सलसल करते हैं, मिथुनोंकी तरह अलग होकर फिर मिलते हैं । दरवाजोंपर लगे हुए वृत्त ऐसे मालूम होते हैं मानो मनुष्यरूपी वृक्षके फूल हों।
घत्ता-प्रहारकी प्रतिइच्छा रखनेवाले सन्नद्ध आतोद्य वाद्य इस प्रकार गरजते हैं मानो जैसे जिननाथके घर रतिरंग होनेपर कामदेवका सैन्य हो ॥११॥
१२ कोई अपने मुखको, कोई सखीजनको, कोई वधूवरोंको और कोई घरको सजाती हैं। देवोंकी इन्द्राणियों और मनुष्यनियोंने कमलकरोंवाले सुन्दर वधूवरोंके ऊपर नमक क्यों उतारा? संजनितमान चामर भी गिर पड़े। मंगल और धवल गीत गाये जाने लगे। धवल चार कलश रख दिये गये । सूत्रसे बँधे हुए वे ऐसे प्रतीत होते हैं कि जैसे निश्रुत ( श्रुतरहित = मूर्ख ) जड़के संगको नहीं छोड़ते। तरुणियोंके द्वारा उठाकर स्नान कराया गया, गोरे अंगोंपर दौड़ता हुआ और सौन्दर्यसे चमकता हुआ पानी ऐसा लगता है, मानो द्रवित स्वर्णरस हो, सफेद और सूक्ष्म वस्त्र पहना दिये गये और चन्द्रकान्तिके समान कान्तिवाले आभरण भी। मन्दारमालासे युक्त मुकुट पहना दिया गया जो मानो विशाल सुरगिरि-शिखरके समान दिखाई देता है। देवके लिए देवताओंकी स्थापना क्यों ? फिर भी लोकाचारसे वहां देवता स्थापित किये गये। स्वजन बन्धु आनन्दसे नाच उठे। स्नेहके बन्धनके प्रतीक रूपमें कंकण बांध दिया गया।
घत्ता-भ्रमरावलीकी डोरीके शब्दसे मुखर मनके क्षोभसे पुलकित कामदेवने क्रुद्ध होकर जिनवरके ऊपर अपना धनुष तान लिया ॥१२॥
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