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________________ .११.११] हिन्दी अनुवाद विगलित पापबुद्धिवाले मन्त्रियोंके द्वारा कुमार्गमें जानेवालोंकी रक्षा की जाये। हे नरनाथ, जिस प्रकार गाय, पशु आदि जानवरोंका पालन किया जाता है उसी प्रकार इस समस्त धरती. मण्डलका परिपालन करना चाहिए। पढ़ना, हवन करना, दान देना और वाणिज्य यह वैश्योंका अनवद्य कम है। शूद्रोंका काम है, वार्ताका अनुष्ठान और वर्णत्रयको आज्ञा मानना और उनका सम्मान करना । नटविद्या, शिल्पआजीविका आदिके कामोंमें लोगोंको लगाना चाहिए। दुनियामें भला आदमी बिना कर्मके भोग नहीं करता। लेकिन धर्मसे रहित कर्म भी नहीं करना चाहिए, मन्त्रीके स्थानमें कुल एवं बुद्धिसे हीन लोगोंको नहीं रखना चाहिए, हिंसक और दुष्ट लोगोंको ग्रामादिके पालनमें नहीं रखना चाहिए। अन्तःपुरमें प्रमादी और कामातुरों, लोभी और हाथ पसारनेवालोंको भाण्डागारकी रक्षामें नहीं रखना चाहिए। विस्तारसे क्या, दुष्ट परिवारसे राजा नाशको प्राप्त होता है, प्रतिवचनोंसे उसकी बुद्धिका प्रसार करना चाहिए, कलहमें परिजनोंका पुरुषार्थ गुण नहीं है । सहवाससे ही शोलको जानना चाहिए, व्यवहारसे ही पवित्रता जानी जाती है। राजाको चाहिए कि वह चर भेजकर यह जाने कि शत्रु कितना क्रुद्ध, लोभी, घमण्डी और भीरु है। साम, भेद, धन और दण्डके आनेपर, जो जिस योग्य हो वह उसके साथ शीघ्र करना चाहिए। घत्ता-अपना कार्य, पराया कार्य और कार्याध्यक्षोंकी पवित्रताको जानना और मानना चाहिए । हे पुत्र, यही प्रभुत्व है ॥१०॥ ११ पापबुद्धि रखनेवाले शत्रु राजाओंके प्रति प्रेषित चरपुरुषोंका प्रतिविधान किया जाये। स्वजनों, परिजनों और मित्रोंके लिए सन्तोषकर सम्मान दान देना चाहिए। जनताके दो प्रकारके उपसर्गोंको दूर करना चाहिए, तीन प्रकारका शक्ति सद्भाव ( मन्त्र, उत्साह और प्रभु शक्ति ) करना चाहिए । क्षयग्रस्त और उपेक्षितका भी विचार किया जाये, निग्रह और अनुग्रह दोनों किये जायें। शत्रु-मित्र और मध्यस्थका भी (राजा) विचार करे। सब नियोगोंमें शुद्धि दिखायी जाये ( अर्थात् जिसे जो काम करना है, उसे वह काम दिखाया जाये ), हृदयको गाम्भीर्यका सहारा लेना चाहिए। स्त्रियोंको देखकर उनमें कामुकता छोड़ दी जाये। चपलता और असमय गमन छोड़ दिया जाये, दृष्टकी संगति और दुव्र्यसनोंमें प्रवर्तन भी। नारी, जआ. मदिरा और पशुबध ये चारों दारुण और काम उत्पन्न करनेवाले हैं। अन्यायसे धनका नाश नहीं करना चाहिए। तोखा दण्ड, कठोर भाषण और क्रोधका उत्पन्न होना-ये तीन व्यसन हैं जिन्हें मैं राजाओंके शासनमें जानता हूँ। इन सात बातोंको अधिकसे न किया जाये, छह प्रकारके अन्तरंग शत्रुओंको भी हृदयमें स्थान न दिया जाये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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